Sunday, December 22, 2013

भाकपा की राज्य काउंसिल बैठक सम्पन्न - आन्दोलन एवं संगठन संबंधी कई निर्णय लिये गये

लखनऊ 23 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल ने देवयानी खोबरागढ़े प्रकरण को लेकर 26 दिसम्बर को प्रदेश में साम्राज्यवाद विरोधी दिवस मनाने, बिजली के दामों में संभावित बढ़ोतरी के विरोध में 1 जनवरी से जागरूकता अभियान चलाने, किसानों-गन्ना किसानों की समस्याओं एवं समाज में फूट डालने की साजिशों के खिलाफ क्षेत्रीय स्तर पर रैलियां आयोजित करने, लोकसभा चुनावों की तैयारियां शुरू करने और प्रदेश भर में चुनाव फंड एकत्रित करने का अभियान चलाने के महत्वपूर्ण निर्णय लिये हैं।
उपर्युक्त निर्णय यहां सम्पन्न भाकपा की दो दिवसीय राज्य कौंसिल की बैठक में लिये गये। बैठक की अध्यक्षता वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता लोकपाल सिंह, कान्ती मिश्रा एवं हामिद अली के संयुक्त अध्यक्ष मंडल ने की।
बैठक को सम्बोधित करते हुए भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि केन्द्र सरकार द्वारा फैलाये गये भ्रष्टाचार एवं आसमान तोड़ महगाई से परेशानहाल जनता कांग्रेस को सबक सिखाने पर उतारू है लेकिन वह भाजपा को भी उसकी फूट डालने वाली और कांग्रेस के समान आर्थिक नीतियों के कारण पसन्द नहीं करती। जहां उसे एक नीतिगत मुद्दों पर काम करने वाला साफ-सुथरा विकल्प मिलेगा वह उसको विजयी बनाने को उत्सुक है। दिल्ली के चुनाव परिणामों से यह साबित हो गया है।
उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार जिस तरह से किसानों-कामगारों के उत्पीड़न में लगी है, दंगे रोकने में अपनी ढिलाई को सिद्ध कर चुकी है, कानून-व्यवस्था समेत सभी मोर्चों पर पूरी तरह पिट चुकी है तथा जनता की नजरों में गिर चुकी है। अब शासक दल साम्प्रदायिकता रोकने के नाम पर और अपने जनाधार के खिसक जाने की वजह से गुण्डे, बाहुबली, माफियाओं एवं संदिग्ध चरित्र वाले धनबलियों को चुनाव मैदान में उतार रहा है। उत्तर प्रदेश की जनता सारे खेल को समझ रही है।
डा. गिरीश ने कहा कि आम जनता भाकपा को एक साफ सुथरी, पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष एवं जनता के हितों के लिए संघर्षशील पार्टी मानती है। हम उत्तर प्रदेश में अन्य वाम दलों, कुछ छोटे मगर साफ सुथरे दलों को साथ लेकर लोक सभा चुनावों में जाने की कोशिश करेंगे। नये और बदले वातावरण में उत्तर प्रदेश में वामपंथ को अपनी शक्ति बढ़ानी है। उन्होंने कहा कि भाकपा सीमित सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
भाकपा राज्य कौंसिल बैठक में निर्णय लिया गया कि देवयानी खोबरागढ़े के साथ अमरीका में किये गये दुर्व्यवहार के खिलाफ एवं साम्राज्यवादी अमरीका की काली करतूतों को उजागर करने को 26 दिसम्बर को समूचे उत्तर प्रदेश में साम्राज्यवाद विरोधी दिवस मनाया जायेगा और अमरीकी साम्राज्यवाद के पुतले फूंके जायेंगे। यह दिन भाकपा का स्थापना दिवस भी है, अतएव सभायें, गोष्ठियां भी आयोजित की जायेंगी।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिजली की दरों में बढ़ोतरी की कोशिशों के खिलाफ 1 जनवरी 2014 से लगातार सभायें, नुक्कड़ सभायें एवं जागरूकता अभियान चलाया जायेगा।
एक अन्य निर्णय के अनुसार समाज में फूट डालने की साम्प्रदायिक शक्तियों की साजिशों को उजागर करने तथा किसानों एवं गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित किये जायेंगे। पश्चिम का सम्मेलन मेरठ एवं पूर्वांचल का कुशीनगर में फरवरी के पूर्वार्द्ध में आयोजित किये जायेंगे।
भाकपा ने उत्तर प्रदेश में चुनाव फण्ड एकत्रित करने के लिये अभियान चलाने का निर्णय भी लिया है। 2 से 9 फरवरी के बीच भाकपा कार्यकर्ता जनता के बीच चुनाव फण्ड मांगने को निकलेंगे। इसके अलावा पार्टी सदस्यता भर्ती एवं नवीनीकरण अभियान को गति प्रदान करने का निर्णय भी लिया गया।

भाकपा ने किया ओबामा का पुतला दहन

लखनऊ 22 दिसम्बर. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अमेरिका में तैनात भारतीय राजनयिक श्रीमती देवयानी खोब्रागढ़े को अमेरिकी प्रशासन द्वारा हथकड़ी पहनाने, जघन्य अपराधियों के साथ लाक-अप में बंद करने तथा निर्वस्त्र कर अवांछित तलाशी लेने के विरोध में आज प्रदर्शनकारी जुलूस निकाला और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का पुतला दहन किया।
सैकड़ों की तादाद में भाकपा कार्यकर्ता आज अमेरिकी साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, बराक ओबामा मुर्दाबाद, देवयानी का अपमान नहीं सहेंगे, नारी का अपमान नहीं सहेंगे, ओबामा माफ़ी मांगो, देवयानी का यह अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद की कब्र बनेगी भारत के मैदानों में आदि नारे लगाते हुए पार्टी के कैसर बाग स्थित कार्यालय से जुलूस बना कर कैसर बाग चौराहा पहुंचे और वहां अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के पुतले को दहन कर दिया।
इस अवसर पर संपन्न सभा को संबोधित करते हुए भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि साम्राज्यवादी अमेरिका के समक्ष मानवीय मूल्यों, सरोकारों और अधिकारों तथा स्त्री की अस्मिता का कोई मूल्य नहीं है। पूर्व में भी अमेरिकी प्रशासन भारतीय हस्तिओं के साथ इस प्रकार का दुर्व्यवहार कर चुका है। यहाँ तक की तीन वर्ष पहले एक हवाई अड्डे पर तत्कालीन भारतीय राजदूत प्रमिला शंकर की भी इसी तरह से जामा तलाशी ली गयी थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस घटना को बेहद गंभीरता से लेती है और 26 दिसम्बर, जोकि भाकपा का स्थापना दिवस भी है, को साम्राज्यवाद विरोधी दिवस के रूप में मनाएगी और गोष्ठियों, सभाओं का आयोजन कर देवयानी प्रकरण के विरोध में धरने प्रदर्शन आयोजित करेगी तथा अमेरिकी साम्राज्यवाद के पुतले दहन करेगी।
इस प्रदर्शन में राज्य सहसचिव अरविन्द राज स्वरुप, जिला सचिव मो. खालिक, नौजवान सभा के मो. अकरम, ओ. पी. अवस्थी, सुरेन्द्र राम, फूल चन्द यादव, आनंद तिवारी, डा. पी. एस. पाण्डेय आदि अनेक अग्रणी नेता मौजूद थे।

कार्यालय सचिव

Tuesday, December 10, 2013

सांप्रदायिक एजेंडे को पीछे धकेल रोजी रोटी के सवाल को केंद्र में लाने का काम करेगा श्रमिकों का संसद मार्च.

१२ दिसम्बर को श्रमिकों का विशाल संसद मार्च- सभी तैय्यारियाँ पूरी. लखनऊ—१० दिसम्बर २०१३- जानलेवा महंगाई, केंद्र और राज्य सरकार द्वारा आमजनता के साथ की गई धोखाधड़ी, राष्ट्रीय संसाधनों एवं जनता के धन की बेशर्मी से लूट, रूडिवादी फूटपरस्त विघटनकारी शक्तियों की कारगुजारियों आदि के विरुध्द एवं केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा निर्धारित १० सूत्रीय मांगों की पूर्ति हेतु देश के सभी ११ केन्द्रीय श्रमिक संगठनों द्वारा १२ दिसम्बर को संसद पर विशाल प्रदर्शन किया जा रहा है. जुलूस प्रातः १० बजे दिल्ली के रामलीला मैदान से शुरू होगा. देश के सबसे प्रथम ट्रेड यूनियन संगठन- आल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस(एटक) ने उत्तर प्रदेश में इस प्रदर्शन को भारी सफल बनाने के लिये पूरी तरह कमर कस ली है. प्रदेश के विभिन्न भागों में लगभग दो दर्जन सभाएं, कन्वेंशन एवं रैलियां आयोजित की जा चुकी हैं. कई जगह कार्यकर्ता बैठकें भी आयोजित की गईं हैं. इन कार्यक्रमों में एटक की सचिव का. अमरजीत कौर एवं एटक के राज्य अध्यक्ष का. अरविन्द राज स्वरुप स्वरूप ने भाग लिया. क्योंकि भाकपा इस आन्दोलन को सक्रिय समर्थन प्रदान कर रही है अतएव भाकपा के राज्य सचिव डॉ.गिरीश ने भी कई सभाओं को संबोधित किया और तमाम जिलों का व्यापक भ्रमण किया. एटक सूत्रों के मुताबिक देश के दूर दराज क्षेत्रों से श्रमिकों और कर्मचारियों के जत्थे रवाना होचुके हैं. शेष भागों के जत्थे कल रवाना होंगे.बैंक कर्मी अपनी मांगों को लेकर कल वहां धरना देंगे और १२ दिसम्बर के प्रदर्शन में भी भागीदारी करेंगे. रैली के आयोजकों का दाबा है कि भले ही सांप्रदायिकता को आगे बड़ा कर महंगाई और भ्रष्टाचार तथा इसकी जनक पूंजीवादी व्यवस्था के कारनामों को प्रष्ठभूमि में धकेलने की कोशिश की जा रही हो और वर्तमान चुनाव परिणामों की आढ़ में नव-उदारवाद की नीतियों से पल्ला झाड़ने की साजिश रची जारही हो, यह रैली गरीबों किसानों मजदूरों की रोटी कपड़ा मकान इलाज और पढाई की लड़ाई को मुद्दा बनाने की दिशा में एक ठोस कार्यवाही साबित होगी. कार्यलय सचिव,एटक उत्तर प्रदेश

Monday, December 9, 2013

गन्ना किसानों की ज्वलंत मांगों को लेकर भाकपा ने जिलों-जिलों में आन्दोलन का बिगुल फूंका.

लखनऊ 9 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार आज भाकपा के हजारों-हजार कार्यकर्ताओं ने गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर विभिन्न जिला केन्द्रों पर धरना एवं प्रदर्शनों का आयोजन किया। कई स्थानों पर किसानों ने गुस्से में गन्ने के बण्डल जलाये और सभी जगहों पर आम सभायें कीं। गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर आम सभायें भी कीं गईं जिनको पार्टी के जिले के नेताओं ने सम्बोधित किया। हाथरस में नगर पालिका के प्रांगड़ में आयोजित धरने को सम्बोधित करते हुए भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि सत्तासीन पार्टियों द्वारा चीनी मिले मालिकों के प्रति सदाशयता और किसानों के हितों के प्रति उदासीनता के चलते आज गन्ना किसानों का भारी शोषण हो रहा है। उनका चीनी मिलों पर 2400 करोड़ रूपये का बकाया है जिसका भुगतान अभी तक नहीं कराया गया। सरकार के दावों के बावजूद अभी तक अधिकांश चीनी मिलों ने पेराई करना शुरू नहीं किया है। किसानों को 350 रूपये प्रति क्विंटल दिये जाने की मांग के विपरीत उन्हें 280 रूपये प्रति क्विंटल कीमत देने का वायदा किया गया है और वह भी दो किश्तों में। किसान अपनी दयनीय दशा पर आंसू बहा रहा है लेकिन सारी पार्टियां उनकी इस दशा पर घड़ियाली आसूं बहा रहीं हैं। कल विधान सभा चुनावों के परिणामों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार की महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बढ़ाने जैसी नीतियों से लोग बेहद नाराज हैं। वे आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों को समझ रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि भाजपा भी इन्हीं नीतियों की पोषक है और ऊपर से वह समाज को बांटने की कोशिश में लगी हैं। लेकिन जनता किसी भी कीमत पर कांग्रेस को दण्डित करना चाहती थी। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अन्य कोई विकल्प सामने न होने के कारण उसने भाजपा को वोट दिया। दिल्ली में एक नया विकल्प उसके सामने था अतएव वहां जनता ने भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं दिया जबकि भाजपा ने वहां पूरी ताकत झोंक दी थी। जिलों-जिलों में दिये गये ज्ञापनों में मांग की गई है कि गन्ने का मूल्य रू. 350/- प्रति क्विंटल तत्काल घोषित किया जाये, मिलों पर गन्ने के बकाये का मय ब्याज के भुगतान कराया जाये, समस्त चीनी मिलों को तत्काल चलवाया जाये और उनसे पूरा गन्ना पेराई की गारंटी ली जाये तथा न चलने वाली मिलों का अधिग्रहण किया जाये। गन्ने का समस्त भुगतान एक मुश्त दो सप्ताह के भीतर कराया जाये।

पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव - क्या सबक ले वामपंथ?

पांच राज्यों - दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं मिजोरम के चुनाव परिणाम हमारे सामने हैं। जहां तक मिजोरम का सवाल है वहां मुख्य मुकाबला कांग्रेस और मिजो नेशनल फ्रंट के बीच था। वहां के परिणाम पूरी तरह से शाम तक साफ हो सकेंगे। हालांकि शुरूआती रूझानों से ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस के सामने मुकाबले में वहां कोई था ही नहीं। 
राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी। भाजपा को वहां भाजपा को 162 सीटों (पिछले चुनावों से 84 सीटें अधिक) पर, कांग्रेस को केवल 21 सीटों पर, नेशनल पीपुल्स पार्टी को 4 सीटों पर, बसपा को 3 सीटों पर, नेशनल यूनियनिस्ट जमींदारा पार्टी को 2 सीटों पर विजय मिली है जबकि 7 सीटों पर निर्दलीय विजयी रहे हैं। मत प्रतिशत की ओर ध्यान दिया जाये तो भाजपा को इस बार 45.1 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि 2008 में उसे केवल 34.3 प्रतिशत वोट ही मिले थे। भाजपा को सबसे बड़ी विजय इसी राज्य से मिली है। कांग्रेस के वोट प्रतिशत में कोई विशेष गिरावट दर्ज नहीं की गई है। उसे 2008 के मुकाबले केवल 3.8 प्रतिशत मत कम यानी 33 प्रतिशत वोट मिले हैं। बसपा के वोटों में भी गिरावट दर्ज की गई है। 2008 में उसे 7.6 प्रतिशत वोट मिले थे जो इस बार घट कर 3.4 प्रतिशत रह गये हैं।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी। वहां भाजपा को 49 सीटों पर, कांग्रेस को 39 सीटों पर तथा बसपा को 1 सीट पर सफलता मिली है और 1 सीट पर निर्दलीय जीता है। इस राज्य में भाजपा के वोट प्रतिशत में केवल 0.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और उसे 41 प्रतिशत वोट मिले हैं। कांग्रेस के मतों में 1.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है और उसे 40.3 प्रतिशत वोट मिले हैं यानी भाजपा से केवल 0.7 प्रतिशत कम वोट ही मिले हैं। बसपा के मतों में 1.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और उसे केवल 4.3 प्रतिशत वोट ही मिले हैं।
मध्य प्रदेश में भी भाजपा की सरकार थी। भाजपा को यहां पिछली बार की तुलना में 22 सीटें अधिक यानी 165 सीटों पर विजय प्राप्त हुई है। कांग्रेस को पिछले चुनावों के मुकाबले में 13 सीटें कम यानी केवल 58 सीटों पर संतोष करना पड़ा है। बसपा की सीटें घटकर केवल 4 रह गयीं हैं जबकि निर्दलीय 3 सीटों पर जीते हैं। अगर वोट प्रतिशत की ओर ध्यान दिया जाये तो भाजपा के वोट प्रतिशत में 7.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और उसे कुल 44.9 प्रतिशत मत मिले हैं। कांग्रेस के वोटों की तादाद में 4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और उसे 36.4 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि बसपा के वोटों में 2.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और उसे केवल 6.3 प्रतिशत वोट ही प्राप्त हुए हैं।
दिल्ली में बहुत बड़ा उल्ट-फेर सामने आया है। यहां 15 सालों से कांग्रेस की सरकार थी और यहां अन्ना आन्दोलन के गर्भ से उपजी आम आदमी पार्टी - ”आप“ को बहुत बड़ी सफलता मिली है और त्रिशंकु विधान सभा का गठन होगा। दिल्ली में भाजपा को 31 सीटों पर सफलता मिली है, कांग्रेस को 8 सीटों पर, जनता दल (यूनाईटेड) को 1 सीट पर, शिरोमणि अकाली दल को 1 सीट पर, निर्दलीय को 1 सीट पर सफलता मिली है जबकि ”आप“ ने अप्रत्याशित रूप से 28 सीटों पर कब्जा कर लिया है। वोट प्रतिशत पर ध्यान दिया जाये तो कांग्रेस के वोटों पर 15.3 प्रतिशत की जबरदस्त गिरावट दर्ज की गई और उसे केवल 25 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हैं। भाजपा के वोटों में भी 2.3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है और उसे केवल 34 प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं जबकि अन्य के वोटों में 14 प्रतिशत की गिरावट आई है। ”आप“ को भाजपा से केवल 2 प्रतिशत कम वोट यानी 32 प्रतिशत वोट मिले हैं।
पांचों राज्यों में भाकपा और वामपंथ को कोई सफलता नहीं मिली है और उन्हें प्राप्त मतों की संख्या कुछ दिनों के बाद ही पता लग सकेगी। परन्तु निश्चित ही वह संख्या नगण्य ही होगी।
मीडिया एक बार फिर चीख-चीख कर तीन-तीन राज्यों में भाजपा के सत्तासीन हो जाने के पीछे ”नमो“ (नरेन्द्र मोदी के लिए मीडिया में प्रचलित शब्द) फैक्टर का बखान कर रहा है परन्तु मत प्रतिशत और सीटों की संख्या से हमें बहुत गंभीरता से इन चुनाव परिणामों की मीमांसा करनी चाहिए और विशेषकर हमारा ध्यान इस ओर होना चाहिए कि इन चुनावों में हम - यानी भाकपा और वामपंथ कहाँ खड़े थे और हमारा हस्र क्या हुआ।
दिल्ली चुनावों में ”आप“ की सफलता ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि जनता का बहुसंख्यक तबका न कांग्रेस को सत्ता में लाना चाहता है और न ही भाजपा को परन्तु एक गुंजायमान विकल्प की अनुपस्थिति उसे लगातार खल रही है और जहां भी उसे जिस तरह का भी विकल्प दिखाई देगा वह उसके पीछे चल देगा। ”आप“ ने केवल दिल्ली की सभी सीटों पर प्रत्याशी उतार कर एक विकल्प देने का हल्का प्रयास किया जिसके नतीजे हमारे सामने हैं। अपने बारे में सोचते, विचारते और कुछ आगे की योजना बनाते समय हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि चुनावों में जनता सरकार बनाने और सरकार हटाने के लिए वोट देने के लिए घरों से निकलती है न कि चार ईमानदारों सांसदों या विधायकों को जिताने के लिए।
”आप“ या इस जैसा कोई अन्य संगठन या पार्टी पूंजीवादी राजनीति का विकल्प कभी साबित नहीं हो पायेंगे। बिना वैचारिक विकल्प के आम आदमी की आज की समस्याओं का हल नहीं खोजा जा सकता। एक विकल्प देने के लिए हमें 542 सीटों पर विकल्प देने की रणनीति के साथ उतरना पड़ेगा।
एक मजबूत कार्यक्रम आधारित वामपंथी विकल्प की योजना बनाते समय हमें इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए। हमें अपने कवच से बाहर निकल कर सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता के साथ चुनावी रणनीति के सवाल को भी हल करना ही होगा। वर्तमान राजनीति में कायम रहने के लिए हमें वर्तमान दौर के उन तौर-तरीकों को खोज निकालना होगा जो कहीं भी सैद्धान्तिक विचलन न पैदा करें।
- प्रदीप तिवारी

भाकपा के नेतृत्व में गन्ना किसानों ने किया पूरे प्रदेश में धरना-प्रदर्शन

लखनऊ 9 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार आज भाकपा के हजारों-हजार कार्यकर्ताओं ने गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर विभिन्न जिला केन्द्रों पर धरना एवं प्रदर्शनों का आयोजन किया। कई स्थानों पर किसानों ने गुस्से में गन्ने के बण्डल जलाये और सभी जगहों पर आम सभायें कीं। गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर आम सभायें भी कीं गईं जिनको पार्टी के जिले के नेताओं ने सम्बोधित किया।
हाथरस में नगर पालिका के प्रांगड़ में आयोजित धरने को सम्बोधित करते हुए भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि सत्तासीन पार्टियों द्वारा चीनी मिले मालिकों के प्रति सदाशयता और किसानों के हितों के प्रति उदासीनता के चलते आज गन्ना किसानों का भारी शोषण हो रहा है। उनका चीनी मिलों पर 2400 करोड़ रूपये का बकाया है जिसका भुगतान अभी तक नहीं कराया गया। सरकार के दावों के बावजूद अभी तक अधिकांश चीनी मिलों ने पेराई करना शुरू नहीं किया है। किसानों को 350 रूपये प्रति क्विंटल दिये जाने की मांग के विपरीत उन्हें 280 रूपये प्रति क्विंटल कीमत देने का वायदा किया गया है और वह भी दो किश्तों में।
किसान अपनी दयनीय दशा पर आंसू बहा रहा है लेकिन सारी पार्टियां उनकी इस दशा पर घड़ियाली आसूं बहा रहीं हैं।
कल विधान सभा चुनावों के परिणामों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार की महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बढ़ाने जैसी नीतियों से लोग बेहद नाराज हैं। वे आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों को समझ रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि भाजपा भी इन्हीं नीतियों की पोषक है और ऊपर से वह समाज को बांटने की कोशिश में लगी हैं। लेकिन जनता किसी भी कीमत पर कांग्रेस को दण्डित करना चाहती थी। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अन्य कोई विकल्प सामने न होने के कारण उसने भाजपा को वोट दिया। दिल्ली में एक नया विकल्प उसके सामने था अतएव वहां जनता ने भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं दिया जबकि भाजपा ने वहां पूरी ताकत झोंक दी थी।
जिलों-जिलों में दिये गये ज्ञापनों में मांग की गई है कि गन्ने का मूल्य रू. 350/- प्रति क्विंटल तत्काल घोषित किया जाये, मिलों पर गन्ने के बकाये का मय ब्याज के भुगतान कराया जाये, समस्त चीनी मिलों को तत्काल चलवाया जाये और उनसे पूरा गन्ना पेराई की गारंटी ली जाये तथा न चलने वाली मिलों का अधिग्रहण किया जाये। गन्ने का समस्त भुगतान एक मुश्त दो सप्ताह के भीतर कराया जाये।

Sunday, December 8, 2013

गन्ना किसानों की समस्याएं जस की तस. जारी रखें आन्दोलन.

गन्ना किसानों की मांगों को लेकर भाकपा का धरना/प्रदर्शन जिला मुख्यालयों पर ९ दिसंबर को. लखनऊ—८ दिसंबर – भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने बताया कि गन्ना किसानों की समस्यायों के समाधान की मांग को लेकर भाकपा कल प्रदेश के जिला मुख्यालयों पर धरने/प्रदर्शन आयोजित करेगी. प्रदेश भर में इन प्रदर्शनों की व्यापक तैय्यारियों की खबर भाकपा मुख्यालय को प्राप्त हो रही हैं. धरने/प्रदर्शन के बाद महामहिम राज्यपाल को संबोधित ज्ञापन जिलाधिकारियों को सौंपे जायेंगे. इन ज्ञापनों में गन्ने की कीमत रु. ३५० प्रति कुंतल किये जाने, चीनी मिलों पर किसानों के बकाया रु.२४०० करोड़ का तत्काल भुगतान कराये जाने, अभी तक नहीं चलाई गयी मिलों को फौरन चालू कराने, जो मिलें आज भी उत्पादन करने में टालमटोल कर रही हैं उनका अधिग्रहण किये जाने, समस्त गन्ने की पेराई तक मिलें चालू रखे जाने तथा मौजूदा सत्र के गन्ने के समूचे मूल्य का भुगतान दो सप्ताह के भीतर किये जाने की मांगें की जायेंगी. डॉ. गिरीश ने आरोप लगाया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने चीनी मिल मालिकों के सामने घुटने टेक रखे हैं और आज भी गन्ना किसान असहाय महसूस कर रहा है. प्रदेश में दो किसान आत्म हत्याएं कर चुके हैं जबकि कई अन्य आत्मदाह का प्रयास कर चुके हैं. उन्होंने कांग्रेस, भाजपा एवं बसपा पर गन्ना किसानों की समस्यायों पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का आरोप भी जड़ा है. उन्होंने कहाकि किसी न किसी रूप में ये पार्टियाँ गन्ना किसानों की मौजूदा हालत के लिये जिम्मेदार रही हैं. और आज जब गन्ना किसान एक मुद्दा बन गया है, ये पार्टियाँ भी उनके हित में लड़ने का नाटक रच रही हैं. भाकपा के धरने में इन दलों की कारगुजारियों का पर्दाफाश भी किया जायेगा. डॉ.गिरीश, राज्य सचिव

Thursday, December 5, 2013

बैंकों में 18 दिसम्बर को रहेगी हड़ताल - विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी

लखनऊ 6 दिसम्बर। बैंक कर्मचारियों की सबसे बड़ी यूनियन - एआईबीईए के आह्वान पर यू.पी. बैंक इम्पलाइज यूनियन की स्थानीय इकाई ने यूनियन बैंक आफ इंडिया की हजरतगंज शाखा के समक्ष दोपहर में विशाल प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन बैंकों से बड़े धन्ना सेठों, औद्योगिक एवं व्यापारिक घरानों द्वारा अरबों-खरबों के ऋण लेकर डकार जाने की प्रवृत्ति के खिलाफ किया गया। इस मुद्दे पर देश के सभी बैंकों में 18 दिसम्बर को आम हड़ताल का आह्वान बैंक कर्मचारियों एवं अधिकारियों की यूनियनों ने किया है।
प्रदर्शनकारियों को सम्बोधित करते हुए यूपीबीईयू के उपमहासचिव वी. के. सिंह ने कहा कि जहां मार्च 2008 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में खराब ऋण की राशि 39,090 करोड़ रूपये थी वहीं यह राशि पांच साल के अन्दर बढ़कर 1,64,000 करोड़ रूपये पहुंच चुकी है, जिसके कारण बैंकों को अपनी-अपनी बैलेंस शीट में प्रावधान करना पड़ता है जो 2012-13 में 2008-09 के मुकाबले 11,121 करोड़ से बढ़कर 43,102 करोड़ पहुंच चुका है, जिसका असर बैंको के मुनाफे पर पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप बैंकों ने पिछले पांच वर्ष में कुल 3,58,893 करोड़ रूपये के सकल लाभ कमाने के पश्चात रूपये 1,40,266 करोड़ का प्रावधान खराब ऋणों के लिए किया जिसके कारण शुद्ध मुनाफा घट कर केवल 2,18,627 करोड़ रूपये रह गया। उन्होंने बताया कि 1 करोड़ से ऊपर के 7295 ऋण खातों में 68,292 करोड़ रूपये फंसा हुआ है जबकि अकेले 4 सबसे बड़े ऋण खातों में बैंकों का 22,666 करोड़ रूपये फंसा हुआ है।
यूपीबीईयू के सहायक महामंत्री एस. के. संगतानी ने प्रदर्शनकारियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि जून 2013 में खराब ऋणों का 35 प्रतिशत अर्थात 63,671.00 करोड़ रूपये 30 सबसे बड़े औद्योगिक घरानां के ऋण खातों में बकाया था जिसके कारण वित्तमंत्री को कहना पड़ा कि ”एक अमीर मालिक की कम्पनी बीमार हो, ऐसा नहीं हो सकता, मालिक को कम्पनी में पैसा लगाना ही होगा। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि इस ऋण वसूली के लिए सरकार एवं बैंक सख्त कदम उठायें।
यूपीबीईयू के प्रांतीय उपाध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव ने प्रदर्शनकारियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि बैंकों में खराब ऋणों की राशि को तमाम तरीकों से छुपाया जाता रहा है जिसकी वजह से 3,25,000 करोड़ रूपये के ऋणों को अच्छे ऋणों में परिवर्तित किया गया जिसमें रू. 2,70,000 करोड़ रूपये के ऋण औद्योगिक घरानों के थे।
यूपीबीईयू के सहायक महामंत्री दीपू बाजपेई ने प्रदर्शनकारियों को बताया कि रिजर्व बैंक गवर्नर ने खराब ऋणों को अच्छे ऋणों में प्रदर्शित करने की मानसिकता की आलोचना करते हुए एक बार कहा था कि ”एक सूअर को लिपिस्टिक लगा देने से वह राजकुमारी नहीं बन जाता।“
प्रदर्शनकारियों को बैंक कर्मचारियों के प्रमुख नेता सुभाष बाजपेई, परमानन्द, अजीत सक्सेना, वी.के.सक्सेना, जे.एस.भाटिया, डी.के. रावत, ए.के. बाजपेई, ओम प्रकाश, वी.के. श्रीवास्तव, शकील अहमद, ए.के. सिंह गांधी, के.के. मिश्र, रतन लाल आदि शामिल थे।
यूपीबीईयू के अध्यक्ष आर. के. अग्रवाल ने बैंकों में बढ़ते हुए खराब ऋण की प्रवृत्ति को दीमक और घुन लगने जैसा बताया जो पूरी बैंकिंग व्यवस्था को अन्दर ही अन्दर खोखला करता जा रहा है। उन्होंने अफसोस व्यक्त किया कि किंशफिशर एअर लाईन्स पर लगभग 2,780 करोड़ रूपये का बैंकों का बकाया होने के बावजूद उसके मालिक विजय माल्या छुट्टा घूम रहे हैं और उन पर काई कार्यवाही इन ऋणों को वसूलने के लिए नहीं हो रही है। उन्होंने सरकार से मांग की कि इन ऋणों की वसूली के लिए इन औद्योगिक एवं व्यापारिक घरानों के खिलाफ कड़े कदम उठाये जायें एवं आवश्यकता पड़ने पर इनके मालिकों को जेल में डाला जाये।

किसानों के जले पर नमक छिडक रहे हैं मुख्यमंत्री. भाकपा ९ दिसम्बर को धरना-प्रदर्शन करेगी.

लखनऊ—भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव द्वारा कल कुशीनगर में दिये गये बयान को किसानों के जले पर नमक छिडकने वाला और पूरी तरह राजनीति से प्रेरित बताया है जिसमें उन्होंने दाबा किया है कि किसानों को गन्ने का मूल्य ४० रु. प्रति कुंतल बढ़ा कर दिलाया जारहा है. इस बयान में श्री यादव ने गन्ना किसानों की दुर्दशा के लिये केंद्र सरकार को जिम्मेदार बताकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है. मुख्यमंत्री के दाबों पर आश्चर्य व्यक्त करते हुये भाकपा राज्य सचिव ने कहा कि जब गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य पिछले वर्ष की दर पर -२८० रु. कुंतल ही दिया जारहा है तो मुख्यमन्त्री ऐसा दाबा क्यों कर रहे है? हाँ यह सच है कि किसानों की दुर्दशा के लिये केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है, पर क्या मुख्यमंत्री जी बतायेंगे कि सपा के समर्थन पर टिकी केंद्र सरकार से उन्होंने किसानों की समस्यायों के समाधान के लिए कोई प्रयास क्यों नहीं किया? डॉ. गिरीश ने खेद के साथ कहा कि केंद्र और राज्य सरकार की नीतियों से लुटे-पिटे किसानों का धैर्य टूट रहा है और वे आत्महत्यायें कर रहे हैं. कल भी जब मुख्यमंत्री अपना निहित स्वार्थपूर्ण बयान दे रहे थे लखीमपुर का एक और गन्ना-पीड़ित किसान आत्महत्या कर चुका था. क्या कोई उसकी इस दर्दनाक तबाही की जिम्मेदारी लेगा? उन्होंने आरोप लगाया कि जिस बुंदेलखंड में मुख्यमंत्री अपना दौरा कर के आये हैं वहां आज भी कर्ज में डूबे किसानों की जमीन-जायदाद कुर्क किये जारहे हैं और उन्हें हवालातों में ठूंसा जा रहा है. हाथरस का भी एक कर्ज में डूबा किसान राहत के लिये दर-दर की ठोकरें खा रहा है. इन सभी का कसूर यही है कि इन्होंने कर्जमाफी के सपा के बायदे पर यकीन किया. डॉ. गिरीश ने कहाकि रेलवे डेडिकेटेड फ्रेट कारीडोर, नेशनल हाईवे तथा अन्य निर्माण योजनाओं के लिये किसानों की अधिगृहीत जमीनों की एवज में उन्हें कानूनविहित लाभ तक नहीं दिए जारहे. बिजली सप्लाई दी नहीं जा रही, बिजली की कीमतें बढ़ा दी गई हैं और विद्युत् बिल जमा कर देने के बाबजूद उन पर बकाया बता कर उनके कनेक्शन काटे जारहे हैं. गन्ने की लागत बढ गयी है और उसकी कीमत ३५० रु. दिया जाना जरूरी है, लेकिन उन्हें २८० रु. कुंतल वह भी दो किश्तों में दिये जाने का वायदा किया गया है. गत वर्ष का गन्ने का बकाया २४०० करोड़ अभी तक उन्हें दिलाया नहीं गया है. अनेक मिलों ने अभी तक पेराई शुरू नहीं की है. किसानों के इन्हीं सारे सवालों पर भाकपा लगातार आंदोलनरत है और अब ९ दिसम्बर को जिला मुख्यालयों पर धरना-प्रदर्शन आयोजित किये जायेंगे. डॉ. गिरीश, राज्य सचिव

Friday, November 29, 2013

गन्ना मूल्य और चीनी मिलों को चलवाने हेतु भाकपा का आन्दोलन ९दिसन्बर से.

लखनऊ—३०नवंबर २०१३. आधा पेराई सत्र बीत गया, चीनी मिलें चालू नहीं हुईं, गन्ने का पिछला बकाया किसानों को मिला नहीं, गन्ने का नया समर्थन मूल्य घोषित नहीं हुआ, नतीजतन आशंकित किसानों ने आत्महत्या करना शुरू कर दिया है. लेकिन राज्य सरकार अभी कार्यवाही का झुनझुना ही थमा रही है. इससे किसानों में भारी गुस्सा है और वे सड़कों पर उतर रहे हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके हितों की लड़ाई में मुस्तैदी से उनके साथ खड़ी है और उसने सड़कों पर उतरने का ऐलान कर दिया है. उपर्युक्त जानकारी देते हुए भाकपा के राज्य सचिव डॉ.गिरीश ने बताया कि उत्तर प्रदेश में भाकपा गन्ना किसानों के समर्थन में ९दिसम्बर से आन्दोलन छेड़ने जा रही है. ९दिसम्बर को इसकी शुरुआत जिलों-जिलों में धरनों, प्रदर्शनों एवं आमसभाओं से होगी और उन जिलों में सघन कार्यवाहियां जारी रहेंगी जहाँ गन्ने का उत्पादन खासा पैमाने पर होता है. भाकपा की राय में गन्ना किसानों के इस अभूतपूर्व संकट के लिए मौजूदा राज्य सरकार तो जिम्मेदार है ही बसपा की गत राज्य सरकार भी जिम्मेदार है जिसने सहकारी और सरकारी २१ चीनीं मिलें कोडी के मोल बेच डालीं. यदि आज ये मिलें निजी क्षेत्र को बेचीं न गयीं होतीं और सार्वजनिक क्षेत्र में ही काम कर रहीं होती तो आज के हालात पैदा नहीं हुए होते. केंद्र सरकार ने भी कोई स्पष्ट गन्ना नीति नहीं बनाई और भाजपा तो गन्ना क्षेत्र में सांप्रदायिकता भड़का कर हिंसा और विभाजन के काम में जुटी रही. आज ये पार्टियाँ किसानों के लिए घडियाली आंसू बहा रहीं हैं जिससे किसानों का कोई भला होने वाला नहीं है. भाकपा की मांग है कि गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य रु.३५० प्रति कुंतल तत्काल घोषित किया जाये,चीनी मिलों को फौरन चलाया जाये, जो मिलें न चलें सरकार उनका अधिग्रहण करे,चीनी मिलों पर किसानों के बकाया रु.२४ हजार करोड़ का ब्याज समेत भुगतान किया जाये तथा नया भुगतान हाथ के हाथ कराया जाये. आन्दोलन के बाद भाकपा राज्यपाल के नाम ज्ञापन जिला अधिकारियों को सौंपेगी. डॉ. गिरीश,राज्य सचिव

Monday, November 25, 2013

लोकतंत्र में दंगाईयों का महिमा मंडन

21 नवम्बर उत्तर प्रदेश के राजनैतिक पटल पर हलचल भरा दिन रहा। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने आगरा में एक रैली को सम्बोधित किया जिसमें मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपियों - संगीत सोम, सुरेश राणा और वीरेन्द्र गुर्जर का अभिनन्दन किया गया तो बरेली में समाजवादी पार्टी की रैली को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने सम्बोधित किया जिसमें इन नेताओं के बगलगीर थे मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपी मौलाना तौकीर। कांग्रेस ने प्रदेश में खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की मांग को लेकर लखनऊ में प्रदर्शन किया। प्रदर्शन पर प्रदेश सरकार ने लाठी चार्ज करवाया और कांग्रेसी नेतृत्व डरपोकों की तरह एक ही कार पर चढ़ कर अपने को बचाता हुआ नजर आया। इस दृश्य की फोटो तमाम अखबारों ने प्रकाशित की है। एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ितों में से केवल एक वर्ग को राहत देने की अधिसूचना वापस ले।
नरेन्द्र मोदी भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं तो दूसरी ओर सपा सुप्रीमो बार-बार तीसरे मोर्चे के केन्द्र में सत्ता में आने और खुद के प्रधानमंत्री बनने की घोषणा करते रहते हैं। प्रधानमंत्री बनने के लिए व्याकुल दोनों नेताओं और उनकी पार्टियों ने मुजफ्फरनगर के दंगों के आरोपियों को जिस प्रकार महिमा मंडित किया वह संविधान में निर्दिष्ट धर्म निरपेक्षता की मूल भावना की हत्या तो है ही साथ ही अनैतिक और गैर कानूनी भी है। इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिन लोगों को दंगे जैसे सामाजिक और राष्ट्रीय अपराध के लिए जेल के अन्दर होना चाहिए, वे न केवल खुले घूम रहे हैं बल्कि चुनाव जीतने के लिए राजनीतिज्ञ उनका महिमा मंडन कर रहे हैं। लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगा पीड़ितों को भी धर्म के आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया। उसने केवल दंगा पीड़ित मुस्लिम अल्पसंख्यकों को ही पांच-पांच लाख मुआवजा देने की घोषणा की। ध्यान देने योग्य बात है कि शरणार्थी शिविरों में रह रहे हिन्दू और मुस्लिम दंगा पीड़ित समाज के वंचित तबके से ही हैं। इनमें कोई भी बड़ा आदमी नहीं है। यह उनमें एकता का आधार था परन्तु सरकार ने इन वंचित तबकों में भेदभाव करने का संविधानविरोधी फैसला लिया। सपा सरकार ने अपनी विभाजनकारी नीतियों के चलते विभाजन पैदा करने की कोशिश की और निश्चित रूप से भाजपा को इसका फायदा उठाने को विभाजन की प्रक्रिया की तीव्र करने का एक मौका मुहैया कराया। इसकी घोर निन्दा की जानी चाहिए।
चुनावों में हार-जीत का फैसला अंतोगत्वा आम जनता के वोटों के होता है। फैसलों के बाद बनी सरकारों का खामियाजा भी इसी जनता को भुगतना होता है। इसलिए इस तरह महिमा मंडित होने वाले और ऐसे लोगों को महिमा मंडित करने वालों, दोनों के बारे में आम जनता को ही विचार करना चाहिए कि वे इनके साथ आसन्न चुनावों में किस तरह का व्यवहार करें। जनता अगर इससे चूकती है, तो चुनावों के बाद खामियाजा भी उसे ही भुगतना होगा।
शासक पुराने समय से समाज को विभाजित कर शासन करने की राज नीति का पालन करते आये हैं। लोकतंत्र में भी यह प्रवृत्ति जारी है। देश की अधिसंख्यक जनता मेहनतकश है। वह अपनी मेहनत के बल पर की गई कमाई के सहारे ही अपना जीवनयापन करती है। यह मेहनतकश जनता अगर चुनावों के दौरान विभाजनकारी राजनीति का शिकार होने से खुद को बचा सके तो वह अपना जीवन बदल सकती है, अपना जीवन स्तर बदल सकती है। परन्तु वास्तव में ऐसा हो नहीं रहा है। विभाजनकारी शक्तियां उसे धर्मो, जातियों और क्षेत्रों में बांटने में लगातार सफल होती रही हैं। विभाजनकारी शक्तियों की सफलता के कारण ही जनता चुनावों के पहले ही ऐसे शक्तियों के हाथों हार चुकी होती है। जनता 1947 के बाद से अपनी विफलता का परिणाम लगातार भुगत रही है। विभाजनकारी शक्तियों और विभाजनकारी कारकों की संख्या में खतरनाक बढ़ोतरी लगातार जारी है।
यह प्रक्रिया लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक है। इस प्रक्रिया को रोकने के लिए हमें लगातार प्रयास करते रहने होंगे। जनता में समझदारी विकसित करने के लगातार प्रयास किये जाने चाहिए।
- प्रदीप तिवारी

Thursday, November 21, 2013

गन्ना मूल्य बढाने और चीनी मिलें चलवाने को भाकपा ने आवाज उठाई.

लखनऊ- २१ नवम्बर २०१३ –भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य मंत्रि परिषद् की बैठक आज राज्य सचिव डॉ.गिरीश की अध्यक्षता में संपन्न हुई. बैठक में राज्य सरकार द्वारा गन्ना मूल्य पिछले वर्ष के बराबर ही घोषित किये जाने के फैसले को पूरी तरह से किसान विरोधी और मिल मालिकों के हित में बताते हुए इसकी कड़े शब्दों में आलोचना की गई. पार्टी ने गन्ने का न्यूनतम खरीद मूल्य ३५०.०० रु. किये जाने की मांग की है. यहाँ जारी एक प्रेस बयान में राज्य सचिव डॉ.गिरीश ने कहाकि राज्य सरकार ने भी स्वीकार किया है कि पिछले वर्ष की तुलना में गन्ने की लागत में रु.२३ प्रति कुंतल की डॉ से वृध्दि हुई है, जबकि वास्तव में इससे अधिक ही लागत मूल्य बड़ा है. अतएव कोई भी मूल्य रु ३५०.०० से कम निर्धारित करना किसान हितो पर कुठारापात है. सच तो यह है यह फैसला चीनी मिल मालिकों को लाभ पहुँचाने वाला है. उन्हें अन्य रियायतें भी दे दी गईं हैं. फिर भी निजी मिलें चलाने में आना कानी की जा रही है और राज्य सरकार उनसे विनती कर रही है. इतना ही नहीं अभी तक पिछले सीजन का २३०० करोड़ रु. किसानों का मिलों पर बकाया है. किसान आन्दोलन कर रहे हैं मगर सरकार का ढुलमुल रवैय्या मिल मालिकों के हौसले बड़ा रहा है. भाकपा राज्य सचिव मंडल ने अपनी पार्टी की जिला इकाइयों का आह्वान किया है कि वे किसान हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करें. भाकपा ने राज्य सरकार से भी मांग की कि निजी मिल मालिक यदि हठ धर्मिता नहीं छोड़ते तो जनहित में चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लिया जाये. डॉ.गिरीश, राज्य सचिव.

Tuesday, November 19, 2013

राज्य कर्मचारियों के दमन के खिलाफ सड़कों पर उतरेगी भाकपा

लखनऊ 20 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप लगाया है कि वह राज्य कर्मचारियों की मांगों पर संजीदगी से विचार कर उनकी हड़ताल को समाप्त कराने की दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही है। उल्टे राज्य सरकार हड़ताल को तोड़ने के तमाम के हथकंड़े अपना रही है और उन पर एस्मा जैसा दमनात्मक कानून लागू कराने का फैसला ले चुकी है।
भाकपा सरकार के इस कदम की घोर निन्दा करती है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि राज्य कर्मचारियों की कई मांगें हैं जिनको सरकार को बहुत पहले ही पूरा कर देना चाहिए था लेकिन राज्य सरकार टाल मटोल की नीति अपनाती रही है। ऐसा नहीं है कि राज्य कर्मचारी एक दम हड़ताल पर चले गये। हड़ताल पर जाने के पहले उन्होंने कई अन्य जनवादी तरीकों से अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की पूरी कोशिश की परन्तु यह राज्य सरकार लगातार हठधर्मिता अपनाये रही। यहां तक कि वह कुछ कर्मचारी संगठनों को बरगला करके हड़ताल से दूर रखने की कोशिशों में भी लगी रही। राज्य सरकार की ओर से ऐसी कार्यवाहियां अवांछित हैं।
भाकपा मांग करती है कि राज्य सरकार कर्मचारियों की हड़ताल के प्रति सकारात्मक रूख अपनाये और मुख्यमंत्री को हड़ताली कर्मियों के नेताओं से तत्काल वार्ता करना चाहिए और उनकी वाजिब मांगों को पूरा करके गतिरोध को तोड़ना चाहिए। यही उत्तर प्रदेश की जनता के भी हित में है।
भाकपा राज्य सचिव ने अपनी समस्त जिला इकाईयों को निर्देशित किया है कि वे कर्मचारियों की हड़ताल को सक्रिय समर्थन प्रदान करें ताकि उनकी मांगें पूरी हों और जनता को हो रही परेशानियों को भी दूर किया जा सके।



कार्यालय सचिव 

Tuesday, November 12, 2013

सफल हड़ताल पर राज्य कर्मचारियों को भाकपा की बधाई

लखनऊ 12 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय से जारी एक बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने राज्य कर्मचारियों को सफल राज्यव्यापी हड़ताल पर बधाई दी है। उन्होंने सरकार से मांग की कि कर्मचारियों की मांगों का समाधान सरकार तुरन्त निकाले।
भाकपा द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की तर्ज पर ही प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार भी अपनी आर्थिक नीतियां बनाती है जिसके कारण वर्षों से लम्बित प्रदेश कर्मचारियों की समस्यायें हल नहीं हो रही हैं और वे संघर्ष को मजबूर हैं। उन्होंने कहा कि कर्मचारियों की पुरानी पेंशन की बहाली, वेतन एवं फिटमेंट सम्बंधी मांगें सर्वथा उचित हैं। उन्होंने सरकार को किसी भी प्रकार के उत्पीड़न या दमनात्मक कार्यवाही के विरूद्ध चेतावनी देते हुए कहा है कि ऐसा करने से गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।

Friday, November 8, 2013

एक प्रतीक की तलाश में भाजपा

आरएसएस, भाजपा (और भाजपा के पूर्व संस्करण जनसंघ) हमेशा एक प्रतीक की तलाश में रहे हैं। उनका अपना कोई ऐसा नेता पैदा नहीं हुआ जो खुद प्रतीक के रूप में याद किया जा सकता। ऐसे अकाल में निश्चय ही उन्हें एक प्रतीक के लिए भटकना पड़ रहा है। सत्तर के दशक में जनसंघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना प्रतीक गढ़ने का नापाक असफल प्रयास किया परन्तु विवेकानन्द के ऐतिहासिक शिकागो वक्तव्य ने जनसंघ की राह में रोड़े अटकाये जिसमें उन्होंने बड़ी शिद्दत से कहा था कि ”भूखों को धर्म की आवश्यकता नहीं होती है“। विवेकानन्द ने भूखों के लिए पहले रोटी की बात की जबकि जनसंघ और आरएसएस उस समय भारतीय पूंजीपतियों के एकमात्र राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में भारतीय राजनीति में कुख्यात थे।
उसी दशक में जनसंघ का अवसान हुआ और उसके नये संस्करण भाजपा का जन्म। भाजपा ने अपने जन्मकाल से सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में दो रास्ते निर्धारित किये - एक तो समाज के अंध धार्मिक विभाजन के जरिये मतों का ध्रुवीकरण और दूसरा एक प्रतीक को अंगीकार कर उसके आभामंडल के जरिये कुछ लाभ प्राप्त करना। पहले मंतव्य में तो भाजपा कुछ हद तक एक दौर में सफल रही परन्तु दूसरे मोर्चे पर उसके लगातार पराजय मिली है।
उन्होंने भगत सिंह को अपना प्रतीक बनाने की कोशिश इसलिए की क्योंकि शहीदे आजम भगत सिंह निर्विवाद रूप से भारतीय जन मानस में, और विशेष रूप से नवयुवकों में, एक नायक के रूप में जाने और पहचाने जाते हैं। भाजपा की यह बहुत बड़ी गलती थी क्योंकि भारतीय क्रान्तिकारियों में भगत सिंह उन नायकों में शामिल थे जिनके विचारों को पहले से ही बहुत प्रचार मिल चुका था। भगत सिंह के आदर्शों को भाजपा स्वीकार नहीं सकती क्योंकि वह ‘मार्क्सवादी’ दर्शन था। उन्होंने साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी बोला और लिखा था जो पहले ही प्रकाशित हो चुका था। भाजपा एक बार फिर बुरी तरह असफल रही।
तत्पश्चात् भाजपा ने महात्मा गांधी को अपना प्रतीक बनाने की एक कोशिश की। अस्सी के दशक में ‘गांधीवादी समाजवाद’ लागू करने का नारा दिया गया। यह पहले की गल्तियों से कहीं बड़ी गलती थी। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि गांधी एक महापुरूष थे और दुनियां के तमाम देशों में स्वतंत्रता और दमन के खिलाफ संघर्ष करने वालों ने उनके ‘सत्याग्रह’ के विचारों को लागू करने के सफल प्रयास किये परन्तु गांधी जी कभी समाजवादी नहीं रहे थे। इसलिए आम जनता कथित ‘गांधीवादी समाजवाद’ को स्वीकार भी नहीं कर सकती थी। दूसरे भाजपा की नाभि आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप उस समय लग चुका था जब न तो जनसंघ वजूद में था और न ही भाजपा।
कांग्रेस नीत संप्रग अपने दो कार्यकाल पूरे कर रही है। निश्चित रूप से उसे पिछले 10 सालों के अपने काम-काज के कारण जनता में व्याप्त असंतोष का सामना आसन्न लोक सभा चुनावों में करना होगा। भाजपा इस अवसर का लाभ उठाने के लिए बहुत व्याकुल है। एक ओर वह अपने एक साम्प्रदायिक प्रतीक नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी घोषित कर ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर ‘लौह पुरूष’ के नाम से विख्यात कांग्रेसी नेता सरदार पटेल को अपना प्रतीक बना लेने की कोशिशें कर रही हैं।
भाजपा द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किये जाने के पहले ही मोदी यह घोषणा कर चुके थे कि वे नर्मदा जिले में सरदार सरोवर बांध के पास सरदार पटेल की लोहे की एक 182 मीटर ऊंची विशालकाय प्रतिमा बनवायेंगे जो दुनियां की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। इस प्रतिमा के निर्माण के लिए गांव-गांव से खेती में प्रयुक्त होने वाले लोहे के पुराने बेकार पड़े सामानों को इकट्ठा किया जायेगा। अभी हाल में उन्होंने इस प्रतिमा का शिलान्यास समारोह भी सम्पन्न करवा दिया। समारोह के पहले मोदी ने पटेल के प्रधानमंत्री न बनने पर अफसोस जताकर गुजराती अस्मिता को उभारने की कोशिश की। उन्होंने यहां तक कह दिया कि सरदार पटेल की अंतेष्टि में जवाहर लाल नेहरू उपस्थित नहीं थे। एक तरह से मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर आक्रमण के जरिये ‘सोनिया-राहुल’ को भी निशाने पर लेना चाह रहे थे। कांग्रेस का मोदी पर पलट वार स्वाभाविक था।
भाजपा के किसी जमाने के कद्दावर नेता लाल कृष्ण आणवानी आज कल आरएसएस की बौद्धिकी का काम संभाल चुके हैं। सोशल मीडिया पर ब्लॉग लेखन वे काफी समय से कर रहे हैं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी के नाम की घोषणा पर उन्होंने कुछ नाक-भौ जरूर सिकोड़ी थी परन्तु आज कल वे अपने ब्लॉग के जरिये मोदी के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। आरएसएस की यह पुरानी रणनीति रही है कि वह अपने सभी अस्त्र-शस्त्र एक साथ प्रयोग नहीं करती बल्कि किश्तों में करती है जिससे मुद्दा अधिक से अधिक समय तक समाचार माध्यमों में छाया रहे।
आणवानी जी ने पहला शिगूफा छोड़ा कि नेहरू ने कैबिनेट बैठक में 1947 में सरदार पटेल को साम्प्रदायिक कहा था। इसका श्रोत उन्होंने एक पूर्व आईएएस अधिकारी को बताया। इस बात पर भी प्रश्न चिन्ह है कि जिस अधिकारी का हवाला दिया गया है वह उस समय सेवा में था अथवा नहीं और अगर सेवा में था तो भी वह कैबिनेट बैठक में कैसे पहुंचा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आजादी के पहले आईएएस नहीं आईसीएस होते थे। दो दिन बाद ही उन्होंने पूर्व फील्ड मार्शल मानेकशॉ के हवाले से अपने ब्लॉग में लिखा कि नेहरू 1947 में पाकिस्तान की मदद से कबाईलियों द्वारा कश्मीर पर हमले के समय फौज ही भेजना नहीं चाहते थे और फौज भेजने का फैसला सरदार पटेल के दवाब में लिया गया था। यह मामला भी कैबिनेट बैठक का बताया जाता है। इस पर भी प्रश्नचिन्ह है कि 1947 में मॉनेकशा फौज के एक कनिष्ठ अधिकारी थे और वे कैबिनेट बैठक में मौजूद भी हो सकते थेे अथवा नहीं। आने वाले दिनों में इसी तरह के न जाने कितने रहस्योद्घाटन आरएसएस की फौज करेगी जिससे मामला बहस और मीडिया में लगातार बना रह सके।
उत्सुकता स्वाभाविक है कि आखिर सरदार पटेल को इस गंदे खेल के मोहरे के रूप में क्यों चुना गया है? बात है साफ, दलीलों की जरूरत क्या है। एक तो भाजपा सरदार पटेल के नाम पर गुजराती वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहती है। दूसरे पटेल गुजरात की एक ताकतवर जाति है और उत्तर भारत की एक ताकतवर पिछड़ी जाति ‘कुर्मी’ भी अपने को सरदार पटेल से जोड़ती रही है। इस तरह उत्तर भारत में ‘कुर्मी’ वोटरों का ध्रुवीकरण भी उसका मकसद है।
मकसद कुछ भी हो, एक बात साफ है कि जब स्वामी विवेकानन्द भाजपा के न हो सके, न ही भगत सिंह और महात्मा गांधी तो फिर सरदार पटेल भी भाजपा के प्रतीक नहीं बन पायेंगे। सम्भव है कि चुनावों के पहले इसका भी रहस्योद्घाटन हो ही जाये कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध भी सरदार पटेल ने ही लगाया था और तत्कालीन संघ प्रमुख गोलवलकर से माफी नामा भी उन्होंने ही लिखाया था क्योंकि वे उस समय अंतरिम कैबिनेट में गृह मंत्री थे।
- प्रदीप तिवारी

Thursday, October 31, 2013

भारतीय लोकतंत्र और ह्रासमान जनसत्ता

‘‘पांच गेंदों से एक साथ खेलने की कला को राजनीति कहते हैं, जिसमें दो गेंदे तो हमेशा हाथ में रहती हैं और तीन हवा में।’ महान राजनेता और जर्मन साम्राज्य के निर्माता बिस्मार्क ने राजनीति की ऐसी ही परिभाषा दी थी। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में बनी केन्द्रीय अल्पमत सरकार से लेकर एनडीए और संप्रग-1 तथा 2 की सरकारों के घटनाक्रम पर सरसरी निगाह डालने से कुछ ऐसा ही लगता है कि किस कलाबाजी से ऐसी पार्टी ने देश में राज किया, जिसका संसद में बहुमत नहीं था। इसी अवधि में हमने देखा कि नव उदार की आर्थिक नीति के चलते देश में भ्रष्टाचार और अपराधों की बाढ़ आ गयी और सरकारी खजाने एवं राष्ट्रीय संपदा की लूट, घूसखोरी आदि रोजमर्रा की बात हो गयी। हर्षद मेहता शेयर घोटाला से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम, कोयला आबंटन, हेलीकॉप्टर आदि कांड इसके प्रमाण है। सच ही पूंजीवाद, भ्रष्टाचार एवं अपराध की उर्वर भूमि पर फलता-फूलता है।
इस परिस्थिति के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दागी सांसदों विधायकों को अयोग्य घोषित करने के फैसले से उत्पन्न चिंता, जो वर्तमान सरकार के मैनेजरों मे ंसमा गयी, को हम आसानी से समझ सकते हैं। सरकार ने इस फैसले पर पुनर्विचार करने की याचिका दाखिल की, जिसे भी कोर्ट ने खारिज कर दिया। इस न्यायिक फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिये सरकार ने जब प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का विधेयक संसद में पेश किया। लोकसभा ने इसे पास कर दिया, किंतु राज्यसभा ने इसे विचार के लिये स्टैंडिंग कमेटी को प्रेषित कर दिया। तब सरकार ने आनन-फानन में अध्यादेश जारी करने का फैसला किया।
आम चुनाव सिर पर है। शासक पार्टी का गठबंधन दागी सांसदों के चालाक समूहों से है। सरकार चलाने के लिये इनका संरक्षण और समर्थन महत्वपूर्ण है। सरकार के प्रबंधक इनके अयोग्य हो जाने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। सामान्य संसदीय प्रक्रिया में समाधान की अनिश्चितता से बेचैन दागी सांसदों का भारी दबाव था। इसलिये सरकार ने अध्यादेश का रास्ता अपनाया। इस तथ्य को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस के सामने कबूल किया कि राजनीतिक दबाव में तैयार किये गये ऐसे अध्यादेश को फाड़कर फेंक देना चाहिये। यह अध्यादेश बकवास (नॉनसंेस) है।
इसी बीच चुनाव प्रणाली से संबंधित सर्वोच्च अदालत के कई निर्णय आये हैं। जैसे नकारात्मक मत डालने का अधिकार। इसके ऐसे परिणाम हो सकते हैं जिसका हल वर्तमान कानून में नहीं है। अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा नकारात्मक मत किसी पक्ष में डाले गये तो क्या बाकी बचे अल्पमतों में जिसे ज्यादा मत प्राप्त होगा उसे ही विजयी घोषित किया जायेगा? यह तो अल्पमत का बहुमत पर राज थोपना होगा। इसलिये जरूरत है अपने देश की चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूल-चूल बदलाव की। संसद में पेश संशोधन विधेयक का अत्यंत सीमित उद्देश्य है जो जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करता है। कुछ दागी पर ईमानदार सांसदों को बचाना एक मुद्दा हो सकता है, किंतु ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि चुनाव प्रणाली में व्यापक सुधार की, जिससे इन अधिकारों की रक्षा की जा सके।
भारतीय संविधान लागू होने के 50 साल पूरा होने पर संविधान के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के एक उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया गया। उस आयोग ने एक विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है। प्रतिवेदन में एक सनसनी तथ्य उद्घाटित किया गया है कि देश के कुल सांसदों, विधायकों में से दो-तिहाई सांसद विधायक उनके क्षेत्रों में डाले गये कुल मतों के मात्र एक तिहाई मतों से निर्वाचित हुए हैं। दूसरा वर्तमान संसद व विधानसभाएं केवल 30 प्रतिशत के आसपास मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा चुनाव का बरतानवी औपनिवेशक तरीका अपनाने के कारण हुआ है। चुनाव का बरतानवी मॉडल फर्स्ट पास्ट व पोस्ट (एफपीटीपी) में प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों में जिसे ज्यादा मत मिलते हैं, उसे विजयी घोषित किया जाता है। चुनाव की यह प्रणाली दोषपूर्ण है। सन 1952 से अब तक इस चुनाव प्रणाली के फलाफल निम्न प्रकार दर्ज किये जा सकते हैं -
द अल्पमत पर आधारित धनतंत्रीय संसद एवं राज्य विधान सभाओं का निर्माण।
द कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता। 
द चुनाव में अपराध और धन का बढ़ता हस्तक्षेप।
द राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन विधेयक पर संसद मेें बहस के दौरान बहुत से सांसदों ने न्यायपालिका के फैसले पर ऐतराज जताया तथा संसद की वरीयता बहाल करने पर जोर दिया। सुनने में अच्छा लगता है कि फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि शासक पार्टी ने बजाय बहुमत के बल के संसदीय मंच का बेजा इस्तेमाल किया है। सन 1974 में नागरिक स्वतंत्रता का हनन करने वाली आपातकाल घोषणा का अनुमोदन संसद द्वारा किया गया। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि स्पेन में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने पार्लियामेंट पर संसद की वरीयता कायम करने का मंतव्य भ्रामक है। संसदीय बहस में जब प्रतिनिधित्व कानून के कार्यान्वयन की समीक्षा नहीं की गयी। पूरी बहस सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी बनाने तक सीमित थी। मीडिया की भी दिलचस्पी राजनेताओं की तुलना अपराधियों से करने की थी। संसदीय स्तर के निरंतर हो रहे क्षरण के मूल कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संवैधानिक निकाय है इसकी वरीयता, प्राथमिकता और स्वतन्त्रता के प्रश्न का हल संविधान में ही दिया गया है। संविधान में जनता को सर्वोपरि माना गया है। भारतीय संविधान जनता को समर्पित है। संविधान में इन तीनों निकायों के कार्यक्षेत्र और इनके कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या के साथ इनकी सीमाओं को भी रेखांकित किया गया है। संविधान में किसी को भी वरीय और कनिष्ठ नहीं बताया गया है। किसी की वरीयता किसी पर थोपी नहीं गयी है। इन तीनों निकायों को संविधान प्रदत्त अधिकारों और सीमाओं के अंदर जनता की की सेवा करनी है। इनमें किसी के भी सीमित अधिकार नहीं है। सभी की सीमाएं निर्धारित हैं। संविधान में जन अधिकार सर्वोपरि है। असीमित अधिकार केवल जनता को प्राप्त है। जनता सब कुछ कर सकती है और कुछ भी मिटा सकती है। यही सच्चा लोकतंत्र है।
धनतंत्रीय संसद
दिग्गज कम्युनिस्ट कामरेड ए.बी.बर्धन हाल के वर्षों में बराबर कहते रहे हैं कि संसद करोड़पतियों का क्लब बन गया है। भाकपा की पटना कांग्रेस के दस्तावेजों में भी यह तथ्य दर्ज किया गया है। चुनावों में जाति, संप्रदाय, धन और आम राय की भूमिका निर्णायक हो गयी है। इलेक्शन वॉच द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में 306 सांसद करोड़पति है। इनमें 160 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवारों में 32 प्रतिशत सांसदों के पास 5 करोड़ रूपये से ज्यादा की संपत्ति है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन उम्मीदवारों के पास 10 लाख रूपये से नीचे की सम्पत्ति है उनके चुनाव जीतने का चांस मात्र 2.6 प्रतिशत है। जिन उम्मीदवारों के पास 50 लाख से 5 करोड़ रूपये की संपत्ति है। उनके जीतने का चांस 18.5 प्रतिशत हैं। इससे पता चलता है कि धनबल चुनावों के नतीजों को किस हद तक प्रभावित करता है।
देश के सांसदों और विधायकों की कुल संख्या 4835 है। इनमें 1448 अपराधी पृष्ठभूमि वाली दागी हैं और इनके विरूद्ध अदालतों में मुकदमें चल रहे हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि दो-तिहाई से ज्यादा सांसद अपने क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का मात्र 30 प्रतिशत या इससे भी कम मतों से चुने गये हैं। इस तरह एफपीटीपी चुनाव प्रणाली का ब्रिटिश मॉडल बहुमत पर अल्पमत का प्रतिनिधित्व थोपता है। यह पूरी तरह अनैतिक है, किंतु मौजूदा कानून में यह पूरी तरह कानूनी है। चुनाव के इस बरतानवी मॉडल में धूर्तता, चालबाजी का पूरा मौका है जिससे मतदाता विभाजित होते हैं और अल्पमत का प्रतिनिधि चुन लिया जाता है। इसीलिये भारत में बहुमत के लोकतंत्र के बजाय अल्पमत का धनतंत्र मजबूत हो रहा है।
लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल और विख्यात विधि विशेषज्ञ डॉ. सुभाष कश्यप लिखते हैं: ‘‘भारतीय संविधान का लगभग 75 प्रतिशत गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की प्रतिलिपि है।’ वे भी सांसदों और विधायकों की प्रतिनिधित्व हीनता पर सवाल उठाते हैं और चुनाव की बरतानबी पद्धति को दोषी ठहराते हैंः’ फस्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली के तहत विधायकों सांसदों का बहुमत उनके क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का अल्पमत द्वारा निर्वाचित होता है।’
मैं एक कांग्रेसी उम्मीदवार को जानता हूं, जो बिहार विधानसभा के कांही क्षेत्र से चुनाव लड़े और उनकी जमानत जब्त हो गयी, फिर भी वे विजयी घोषित किये गये, क्योंकि लड़ रहे उम्मीदवारों में उन्हें ही ज्यादा मत मिले थे। वे बिहार सरकार के मंत्री भी बने। जमानत जब्त होने का मतलब है 6 प्रतिशत से कम मत मिलना। वर्तमान चुनाव प्रणाली में यह स्थिति आती है कि कंटेस्ट कर रहे सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाए। ऐसी स्थिति में उनमें जिसे ज्यादा मत प्राप्त होता हे, वह विजयी घोषित किया जाता है। इसका मतलब है कि डाले गये मतपत्रों में 6 प्रतिशत से कम मत प्राप्त करने वाला विधायक 96 प्रतिशत के विशाल मतदाताओं के ऊपर थोप दिया जाता है। यह लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है?
निरंकुश कार्यपालिका
 संपूर्ण परिदृश्य का दूसरा चिंताजनक पहलू है कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता और बेलगाम हो  रही अफसरशाही। सरकार वह करती है, जो चाहती है और वह नहीं करती है, जो नहीं चाहती। पसंद और नापसंद के आधार पर काम होता है। इसके लिये संसद को दरकिनार कर दिया जाता है। लोकतांत्रिक निकायों, आयागों एवं विशेषज्ञ समितियों की अनुशंसाओं एवं निर्णयों की उपेक्षा चलती है। इसके चंद नमूने निम्न प्रकार देखे जा सकते हैं -
1. भारत सरकार खा़़द्य सुरक्षा योजनाएं ज्यादा उत्साहित देखी गयी। यह योजना राज्य स्तर पर लागू होनी है और राज्यों को भी इसके खर्च में हाथ बंटाना है। संसद का अधिवेशन होना तय था। इसलिये विपक्ष चाहता था कि संसद में इस योजना पर मांग विचार-विमर्श किया जाये। लेकिन सरकार ने पहले अध्यादेश जारी कर दिया। सरकार का मकसद जनमानस में मात्र भं्राति फैलाना था कि सरकार तो जनता की खाद्य सुरक्षा चाहती है, किंतु विपक्ष अड़चनें डाल रहा है। जाहिर है कि सरकार की निगाह आगामी चुनाव पर है।
2. नयी पेंशन योजना के बारे में कर्मचारियों के तीव्र विरोध को जानते हुए सरकार ने इसे संसद में नहीं पेश किया और कार्यकारी आदेश पारित कर दिया। कई वर्षों से सरकार बिना कानून बनाये कार्यकारी आदेश पारित कर कर्मचारियों से पैसे वसूलती रही है। यह गैर-कानूनी था। अब संसद के पिछले सत्र में यह कानून पास हुआ है।
3. बहुप्रचारित आधार कार्ड को लें, जिसे सरकार ने सभी तरह की वित्तीय सहायता राशि पाने के लिये अनिवार्य बना दिया था। यह आधारकार्ड यूआईडी का विधेयक साल 2010 से संसद की स्थायी समिति के समक्ष विचाराधीन है। समिति को कई आपत्तियां हैं और नये सुझाव हैं। किंतु संसद की उपेक्षा करके सरकार ने इसे कार्यकारी आदेश पारित करके लागू कर दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अनिवार्यता पर रोक लगायी है।
4. आवश्यकता आधारित न्यूनतम मजदूरी तय करने की प्रणाली सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 1991 में निर्धारित की गयी, किंतु सरकार ने उस पर अमल अब तक नहीं किया है। इसीलिये देश की विभिन्न अदालतों द्वारा मजदूरों के पक्ष में दिये फैसले/एवार्ड/एवं अनुशंसाएं जिसकी संख्या लाखों में हैं, वे कार्यान्वयन के इंतजार में अफसरशाही की फाइलों के ढेरों में धूल चाट रहे हैं।
5.  असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 सबसे बदतर उदाहरण है। पहले तो कोई उस वर्षों तक सरकार ने ट्रेड यूनियनों की वार्ताओं के दौर में उलझाये रखा। जब विधेयक के प्रारूप पर सहमति हुइ तो उसकी उपेक्षा पर मामलों को असंगठित उपक्रम आयोग को सुपुर्द कर दिया। जब आयोग ने अपना प्रतिवेदन दाखिल किया तो उस पर अमल के बजाय सरकार ने फिर विचार के लिये संसदीय स्थायी समिति को प्रेषित किया। जब संसदीय स्थायी समिति ने अपने प्रतिवेदन के साथ विधेयक का सर्वसम्मत प्रारूप पेश किया तो सरकार ने उसे खारिज कर दिया और अपना एकतरफा तैयार किया विधेयक संसद में पेशकर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हितोें की रक्षा नहीं करता है। सभी केंद्रीय मजदूर संगठन इसका विरोध करते हैं। कोई दो दशकों से ज्यादा दिनों से सरकार श्रम संहिता का त्रिपक्ष वाद से लोक संसदीय समिति का सर्वसम्मत  अनुशंसा की उपेक्षा करती रही और मनमाना एकतरफा विधेयक संसद में पेश कर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हित में नहीं है। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच से चलाये जा रहे वर्तमान मजदूर आंदोलन की यह प्रमुख मांग है।
6. इसी तरह भारत के 12 करोड़ खेत मजदूरों के लिये केंद्रीय कानून आज तक नहीं बनाया गया। इस बारे में भी संसदीय समिति की अनुशंसा की उपेक्षा की गयी है।
अपराध और भ्रष्टाचार
नवउदारवाद आर्थिक व्यवस्था के प्रारंभ के बाद आर्थिक अपराध और भ्रष्टाचार मुक्त बाजार का अंग बन गया है। विकास और कल्याण योजना कोष सरकारी खजाने और राष्ट्रीय संपदा की लूट रोजमर्रा की बात हो गयी है। इस तथ्य की ओर उंगली उठाते हुए पूर्व सीएजी विनोद राय ने कहा कि सरकारी नीतियों से देश में चाहे तो पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का निर्माण हो रहा है।
2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आबंटन में लाखों करोड़ के घोटालों के बारे में सरकार की ओर से कहा गया कि ये काम सरकारी नीति के तहत किया गया। इसलिये ये कारनामे भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार नीति से राष्ट्रीय संपदा का दोहन चंद व्यक्तियों के हित में नहीं तकया जा सकता। लेकिन प्रकट है कि लोकतंत्र के नाम पर देश मे अल्पमत का धनतंत्र कायम हो गया है जो अपने वर्गीय हित में राष्ट्रीय संपदा की लूट मचाये हैं।
समाज विकास का इतिहास गवाह है कि पूंजीवाद और लोकतंत्र सहयात्री नहीं बन सकते। लोकतंत्र बहुजन आम आदमी के हित में है, किंतु इसके उल्ट पूंजीवाद चंद धनिकों के स्वार्थों का पोषक है। पूंजीवाद सही मायने में लोकतंत्र का निषेध है। इसलिए आज मूल प्रश्न सरकार की स्वेच्छाचारिता पर काबू पाने का अर्थात् कार्यपालिका की बढ़ती निरंकुशता पर लोकतांत्रिक अंकुश लगाने का, क्योंकि यह सरकार है जो लोकतांत्रिक अंकुश के अभाव में तानाशाह बन जाती है।
जनसत्ता का क्षरण रोको
लोकतंत्र में सत्ता लोगों के हाथों में होती है। जनता सर्वशक्तिमान होती है। जनता अपनी शक्ति का इस्तेमाल अपने चुने प्रतिनिधियों द्वारा करती है पर अपने देश में प्रतिनिधि चुनने का जो तरीका अपनाया गया, वह दोषपूर्ण साबित हुआ। इस दोषपूर्ण तरीके से जनसत्ता के बजाय धनसत्ता कायम हुई, जिसमें कुछ लोग मालोमाल हुए और आम लोग का विशाल समुदाय भूख और अभाव की जिंदगी जीने को मजबूर हुआ। योजना आयोग के ताजा आंकलन के मुताबिक 54 प्रतिशत अर्थात 83.75 करोड़ जनता भूख और गरीबी की अवस्था में है। अर्जुन सेन गुप्ता कमीशन के मुताबिक देश की 77 प्रतिशत अर्थात 96.25 करोड़ जनता 20 रूपये रोजाना से कम पर गुजारा करती है। दूसरी ओर भारत दुनिया के दूसरे नंबर का देश है जहां सर्वाधिक करोड़पति हैं। यह स्थिति बदलनी होगी।
इसीलिये चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूलचूल सुधार की जरूरत है। इसके लिये निम्नांकित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है-

  • कुल मतदाताओं का आधे से अधिक को बहुमत के रूप में परिभाषित किया जाय और सांसदों-विधायकों के निर्वाचन के लिये यह बहुमत प्राप्त करना अनिवार्य बनाया जाय।
  • निकम्मे, भ्रष्ट सांसदों को वापस बुलाने का जन अधिकार सुरक्षित किया जाय।
  • मतदाताओं को नापसंदगी व्यक्त करने का प्रावधान।
  • चुनाव में उम्मीदवारों का चयन मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा हो और बाकी स्वतंत्र उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिये मतदाताओं की पूर्व अनुमति आवश्यक बनायी जाय। जनता की पूर्वानुमति हासिल करने की प्रणाली विकसित की जा सकती है।
  • समानुपातिक चुनाव प्रणाली।
  • चुनाव खर्च और सरकारी कोष से पार्टियों को प्रचार खर्च का भुगतान।
  • नीति निर्धारण और विकास योजनाओं के निर्माण में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना।

- सत्य नारायण ठाकुर

जनरल सिंह का मकसद क्या है?

सेना के सीक्रेट फण्ड का गलत इस्तेमाल करने और संकट का सामना कर रहे राज्य जम्मू कश्मीर मे सत्ता परिवर्तन के लिये राजनेताओं को रिश्वत देने के आरोपों की जांच की गुप्त रिपोर्ट का लीक होना एक दुर्घटना थी अथवा यह एक सोचा समझा काम था इस पर लंबे समय तक कयास लगाये जाते रहेंगे। इसने राजनेताओं को एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का मौका दिया है। इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर का सरकार द्वारा खंडन नहीं किये जाने के कारण यह मुद्दा सेना के अराजनीतिक चरित्र के नजरिये से काफी गंभीर हो गया है। यह एक बड़ी ही खराब तस्वीर पेश कर रहा है जहां सेना का एक मुखिया ना केवल राजनीति में शामिल है बल्कि गुटबाजी को बढ़ावा दे रहा है और इसे प्राथमिकता के आधार पर संबोधित किये जाने की जरूरत है।
प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जनरल वी.के.सिंह ने सेना के गुप्तचर विभाग (आईएम) से अलग एक संदिग्ध सीक्रेट एजेंसी बनाई थी जिसे टेक्नीकल सपोर्ट डिवीजन (टीएसडी) का नाम दिया गया था और राजनीतिक मामलों में दखल करने के लिये इसको पैसा भी मुहैय्या कराया गया था। पूर्व सेना प्रमुख ने इस रिपोर्ट से इंकार नहीं किया बल्कि दावा किया कि सेना आजादी के बाद से ही राजनेताओं को पैसा दे रही है। इसका आठ पूर्व सेना प्रमुखों ने एक संयुक्त बयान द्वारा विरोध किया है। यह स्वाभाविक है कि जनरल सिंह ने जो दोनों काम किये हैं वह स्पष्टतया सेना के परंपरागत चरित्र के विपरीत हैं। जहां हमारे पड़ोसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश में सेना सत्ता में आने के लिये तख्ता पलट करती रही है वहीं हमारी सेना ने अपने अराजनीतिक चरित्र को सावधानी से सहेज कर रखा है। वी.के.सिंह ने अपनी अवैध और असंवैधानिक गतिविधियों से इस पर एक सवालिया निशान लगा दिया है।
वास्तव में जनरल वी.के.सिहं अपना पदभार ग्रहण करने के पहले दिन से ही विवादों के घेरे में हैं। इनमें से अधिकतर विवाद स्वयं को प्रोजेक्ट करने के लिये ही है। इसके लिये उन्होंने अपने मातहातों को निशाने पर लेना शुरू किया उनके खिलाफ कार्यवाही की। उन्होंने सुकना जमीन घोटाले में लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश कुमार के खिलाफ कोर्ट मार्शल का फैसला लिया और असम में एक सैनिक ऑपरेशन में विफल होने पर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह को सेंसर होने का नोटिस दे डाला। उनके यह कदम अब पलट चुके हैं।
उन्होंने अपनी जन्म तिथि को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ी (वास्तव में अपनी सेनानिवृत्ति को लेकर) और इसके लिये वह सुप्रीम कोर्ट तक भी गये। एक ऐसी भी रिपोर्ट है कि जब सुप्रीम कोर्ट की जन्म तिथि याचिका पर फैसला आने वाला था सेना की दो टुकड़ियों ने बगैर सरकार को सूचित किये हिसार से दिल्ली की ओर कूच किया था। ऐसा भी आरोप लगाया जाता है कि जनरल की उस समय एक गुप्त मंशा थी परंतु सेना ने उस समय आगे बढ़ने से मना कर दिया था। अब सिंह के कुछ दोस्तों ने इसकी पुष्टि की है कि वह टुकड़ियां हिसार से चली थी, परंतु दावा किया जाता है कि उनका कोई गुप्त मकसद नहीं था। उनका तक है कि दिल्ली में पहले से ही 30 हजार के लगभग फौज है इसीलिये और हजार लोगों का चलना कोई मायने नहीं रखता है। यह बकवास है।
हिसार प्रकरण के बाद मीडिया में कयास लगाये गये कि सेना प्रमुख के वफादार रक्षामंत्री ए.के.एंटोनी के घर और दफ्तर पर घेरा डालने वाले थे। इसके लिये जासूसी करने की नई प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया था। इसी दौरान जनरल सिंह द्वारा सेना की तैयारियों की कमी और अप्रचलित हथियारों के उपयोग पर प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र मीडिया को प्राप्त हुआ था। इस तरह के पत्र को लिखने और इस गुप्त संवाद को लीक कर देने में असली मकसद क्या था।
जब यह सब तरकाबे काम नहीं कर सकी, तो जनरल सिंह ने एक और लक्ष्य साधना शुरू किया। उन्होंने खुलासा किया कि लेफ्टिनेंट जनरल तेजेन्दर सिंह ने उन्हें सेना के ट्रकों की डील को हरी झण्डी देने के लिये 14 करोड़ रू. की रिश्वत की पेशकश की थी। कई पहलुओं के साथ यह मामला अभी तक कोर्ट के समक्ष लंबित है।
जनरल सिंह ने माना है कि उन्होंने टीएसडी नामक सीक्रेट संस्था बनाई थी जो संदिग्ध कामों में संलग्न थी, उन्होंने दावा किया कि यह मानव इंटेलीजेंस के लिये थी। सेना की आंतरिक रिपोर्ट कहती है कि जनवादी ढंग से चुनी गई उमर अब्दुल्ला सरकार को गिराने के लिये धन का उपयोग किया गया। जनरल ने इस भुगतान का विरोध नहीं किया परंतु उन्होंने दावा किया कि सेना ऐसी गतिविधियों में आजादी के बाद से ही लिप्त है। यह सत्य है तो इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता है और यदि जनतंत्र को जिंदा रखना है तो दोषियांे के नाम सामने आने चाहिए और उन्हें सजा मिलनी चाहिये।
अब इसके बाद एक संदिग्ध गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) को पैसा मुहैय्या कराने का मामला भी है। एनजीओ को पैसा सेना के दो वरिष्ठ अधिकारियों को रोकने के लिये जनहित याचिका दाखिल करने के लिये दिया गया था जिसमें जनरल सिंह का स्थान लेने वाले वर्तमान प्रमुख भी शामिल थे।
हालांकि शुरू में भाजपा ने रेवाड़ी रैली में जनरल द्वारा मोदी के साथ मंच की शोभा बढ़ाने के बाद जनरल का पूरी तरह समर्थन किया था परंतु जैसे ही जनरल की महत्वाकांक्षाओं और सेना के अराजनीतिक चरित्र को बर्बाद करने की उनकी गतिविधियों पर दूसरे खुलासे सामने आने लगे उनका रूख नरम पड़ गया। परंतु भाजपा के राज्यसभा में नेता सदन अरूण जेटली ने इस विवाद में एक नया पहलू जोड़ दिया है। वह ना केवल सेना के आंतरिक मामलों को लीक करने को लेकर सरकार पर राजद्रोह के आरोप लगा रहे हैं बल्कि ऐसे सारे ऑपरेशनों को बचाने के लिये उन्हें ‘‘पवित्र गाय’ की प्रतिष्ठा भी प्रदान कर रहे है जिसमें उन मुठभेड़ों का संचालन भी है जो बाद में झूठे मामले सिद्ध हुए। यहां तक कि उन्होंने इशरत जहां केस की जांच करने के लिये भी सरकार पर राजद्रोह का आरोप मढ़ दिया है। जैटली नहीं चाहते कि इस मामले की जांच अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचे। उन्हें मालूम है कि यह उनके प्रधानमंत्री पद के महत्वाकांक्षी उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी तक जा सकती है, जो कि अधिकतर झूठी मुठभेड़ों के मास्टर माइंड हैं। वह कहते हैं कि जनतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार इंटेलिजेस ब्यूरो, रॉ. फौजी इंटेलिजेंस अथवा ऐसी ही किसी अन्य संस्था के पैसों की जांच नहीं कर सकते है कि उन्होंने यह पैसा कहां खर्च किया अथवा उचित ढंग से खर्च किया कि नहीं। इस प्रकार की गतिविधियां ना तो संसद के प्रति जवाबदेह है ना ही न्यायिक प्रणाली के प्रति।
इसीलिये जेटली संसदीय जनवादी व्यवस्था के ऊपर एक समान्तर व्यवस्था बनाने का तर्क दे रहे हैं। वास्तव में यह ‘‘पवित्र गाय’’ का यही तर्क है जिसका नरसिम्हा राव सरकार के समय रक्षा सौदों में किया गया था कि कोई इसे छेड़ नहीं सकता है ना ही इस पर बहस कर सकता है। पुरुलिया में हथियार गिराने के समय सरकार ने इसी तर्क का सहारा लिया था तो भाकपा के वरिष्ठ सांसद इंन्द्रजीत गुप्त ने ना केवल इसे संसद में धराशायी किया था बल्कि रक्षा मामलों की संसदीय समिति की अध्यक्षता से भी इस्तीफा दे दिया था।
- शमीम फैजी

Thursday, October 24, 2013

पूंजीवादी मीडिया न तटस्थ है न स्वतन्त्र| वामपंथ को अपना मीडिया तन्त्र विकसित करना चाहिये|

३० सितम्बर को लखनऊ में भाकपा की विशालकाय रैली में भाग लेकर उत्साह से लबरेज पार्टी और जन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता अगले दिन जब अपने-अपने जिलों में वापस पहुंचे तो सभी को इस बात की उत्सुकता थी कि रैली की खबर अख़बारों में पढ़ी जाये, और तमाम लोगों ने अलग-अलग अख़बार खरीद डाले| लेकिन उन्हें यह देख कर भारी हैरानी हुई कि किसी भी अख़बार में रैली के बारे में एक भी पंक्ति का समाचार नहीं था| गुस्से और हताशा में उन्होंने मुझे फोन किये| अख़बारों पर तो खीझ उतारी ही मुझे भी नम्रता पूर्वक नसीहत दी कि हमें मीडिया से रिश्ते बढ़ाने चाहिये, मीडिया मैनेजमेंट दुरुस्त करना चाहिये बगैरह-बगैरह| कईयों ने तो गुस्से में यह भी कहा कि हमें टी.वी.चेनल्स के खिलाफ प्रदर्शन करना चाहिये, अख़बारों की होली जलानी चाहिये और उन्हें सबक सिखाना चाहिये| यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि राज्य नेत्रत्व मीडिया को पर्याप्त तरजीह देता है| यहाँ उल्लेखनीय है कि रैली की खबरें लखनऊ में समाचारपत्रों ने प्रकाशित की थीं| लेकिन वे लखनऊ संस्करणों तक सीमित थीं| बगल के जिलों बाराबंकी अथवा उन्नाव तक में किसी भी अख़बार में एक पंक्ति भी पढ़ने को नहीं मिली| अलबत्ता उर्दू अख़बारों और हिंदी के अख़बार ‘कल्पतरु एक्सप्रेस’ ने खबर को प्रदेश भर में छापा| इसी तरह रैली में किये गये आह्वान पर २१ अक्टूबर को जिलों-जिलों में सफल सत्याग्रह/जेलभरो आन्दोलन चलाया गया|जिलों में मीडिया के लिये इसकी खबर को नजरंदाज करना संभव नहीं था और सम्बन्धित जिले की खबर उस जिले के पन्ने पर सिमट कर रह गयी| प्रदेशव्यापी कार्यक्रम की यह खबर भी मीडिया ने स्थानीय बना कर रख दी| सवाल यह है कि भाकपा अथवा अन्य वामदलों के प्रति मीडिया ऐसा घिनौना रवैय्या क्यों अपनाता है? जबकि हम हर पल हर घड़ी खुली आँखों से देख रहे हैं कि छोटे-बड़े तमाम पूंजीवादी दलों के अदने नेताओं और अत्यंत छोटी घटनाओं की खबरें न केवल लाइव चलाई जाती हैं अपितु पूरे-पूरे दिन उन्हें खबरिया चेनलों पर चला कर औसत दर्शक के साथ बलात्कार किया जाता है| अख़बार भी उन्हें आवश्यकता से अधिक जगह देते हैं| यह सर्व विदित है कि आज का विशालकाय मीडिया कार्पोरेट घरानों के हाथों में है और उन्हीं के हित पोषण में लगा रहता है| कार्पोरेट जगत अपने हितों के लिए पूरी तरह चौकन्ना है और अपने मीडिया पर उसका पूरा-पूरा कंट्रोल है| निष्पक्षता का उसका साइन बोर्ड आज तार-तार हो चुका है| टी.आर.पी.बनाये रखने को यदा-कदा कुछ वाम नेताओं को भी दर्शा दिया जाता है,परन्तु जनता के हित में की जाने वाली वामपंथ की बड़ी से बड़ी कार्यवाही का ब्लैकआउट किया जाता है| ऐसा इसलिए हो रहा है कि यह केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ ही है जो किसानों,कामगारों और आम जनता के हितों पर चोट कर रहे कार्पोरेट घरानों और पूँजी समूहों की लूट को न केवल समझता है अपितु उसको रोकने और बेनकाब करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा| ऐसे में आखिर क्यों पूंजीवादी मीडिया भाकपा और वामपंथ को बढ़ावा देने वाले समाचारों को महत्त्व देगा? ‘हित अनहित पशु पक्षिन जाना’| ऐसे में हमें अपनी ख़बरों, अपने राजनैतिक कर्तव्यों और अपनी गतिविधियों को न केवल आम जनता अपितु अपने कार्यकर्ताओं तक पहुँचाने के लिए हमें आत्म निर्भर बनना होगा| वर्ग विरोधियों से दया अथवा सदाशयता की उम्मीद करना अकर्मण्यता अथवा कायरता ही कही जायेगी| यह कटु सत्य है कि आज हम उत्तर प्रदेश में अपना दैनिक समाचार पत्र तो क्या साप्ताहिक पत्र तक निकालने की सामर्थ्य नहीं रखते| पर जरूर हम एक दिन पहले अपना साप्ताहिक पत्र निकालेंगे और फिर दैनिक भी| हौसला बुलंद हो और इरादा पक्का तो कोई काम असंभव नहीं है| लेकिन यह तो आगे की बात है| लेकिन हमारा पार्टी जीवन लगातार प्रकाशित हो रहा है और पार्टी संबंधी तमाम समाचार और जानकारियां हमें उपलब्ध करा रहा है| परन्तु हम उसको लेकर कतई गंभीर नहीं हैं| सवाल उठता है कि क्या हमारे एक-एक कार्यकर्ता को उसका पाठक और ग्राहक नहीं होना चाहिये? क्या हमें अपने हमदर्दों,शुभचिंतको,पड़ोसियों और मित्रों को उसका ग्राहक और पाठक नहीं बनाना चाहिये? क्या जनसंगठनों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को इसके प्रचार-प्रसार और ग्राहक विस्तार के काम को गंभीरता से नहीं लेना चाहिये| अवश्य ही हम सबको वह सब कुछ करना चाहिये कि हमारा अपना पार्टी जीवन हमारे हर कार्यकर्ता तक पहुंचे और हर शुभचिंतक को पढ़ने को मिले| यह कार्य कमेटियों में फैसला लेने अथवा कोटा निर्धारित करने से होने वाला नहीं है| आज यह हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है और इस चुनौती को हमें मिशन के तौर पर लेना होगा| हम सब मिल कर इस चुनौती को स्वीकार करें और अक्टूबर,नवम्बर और दिसम्बर माहों में पार्टी जीवन के रिकार्ड तोड़ ग्राहक बनायें| लाल सलाम| डॉ.गिरीश

Monday, October 21, 2013

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को देशव्यापी आह्वान पर प्रदेश में व्यापक सत्याग्रह एवं गिरफ्तारियां

लखनऊ 21 अक्टूबर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य कार्यालय से जारी एक बयान में पार्टी के राज्य सह सचिव अरविन्द राज स्वरूप ने बताया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने देशव्यापी आह्वान पर आज उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने व्यापक रूप से सत्याग्रह किया और गिरफ्तारियां दीं। इस अवसर पर पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने पार्टी के कार्यकर्ताओं को बधाई दी है। ज्ञातव्य हो कि पार्टी द्वारा 3 से 5 अक्टूबर को देशव्यापी अभियान चलाया था परन्तु उत्तर प्रदेश को 21 अक्टूबर को यह कार्यक्रम करना था। पार्टी द्वारा 10 मांगें सरकार के समक्ष रखी गई हैं जिनमें सार्वजनिक खाद्य सुरक्षा, कीमतों पर रोक, रोजगार सृजन आदि प्रमुख हैं। इन मांगों के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में सद्भाव, विकास और कानून के राज को कायम रखने की मांगें जोड़ी गई हैं।
समाचार लिखे जाने तक लगभग 40 जिलों से सूचना प्राप्त हो चुकी है। जिलों के पार्टी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया और छोड़ दिया गया। अपुष्ट समाचारों के अनुसार जौनपुर में 200 लोग पुलिस लाईन्स में है, उसी तरह कानपुर देहात में भी 35 लोग और मैनपुरी में 125 कार्यकर्ता पुलिस कस्टडी में हैं। पूरे प्रदेश में लगभग 15000 लोगों ने सत्याग्रह और गिरफ्तारी आन्दोलनों में हिस्सेदारी की है।
सत्याग्रह में भागीदार लोग 10 सूत्रीय मांग पत्र को स्वीकार किये जाने की मांग कर रहे थे। अलग-अलग जिलों में पार्टी के राज्य मंत्रिपरिषद, कार्यकारिणी और राज्य कौंसिल सदस्यों एवं पार्टी के जिला मंत्री के नेतृत्व में गिरफ्तारियां दी गयीं। राज्य की राजधानी लखनऊ में सत्याग्रह का नेतृत्व राज्य मंत्रिपरिषद की सदस्या आशा मिश्रा, राज्य कार्यकारिणी सदस्य सुरेन्द्र राम एवं जिला सचिव मो. खालिक ने किया। मऊ में पार्टी सह सचिव एवं पूर्व विधायक इम्तियाज अहमद के नेतृत्व में गिरफ्तारी हुई। केन्द्रीय सचिव मंडल के सदस्य अतुल कुमार अंजान भी उपस्थित रहे। 10 सूत्रीय मांगपत्र में महंगाई पर रोक लगाने, बढ़ी कीमतों को वापस लेने, 2 रूपये प्रतिकिलो की दर से 35 किलो खाद्यान्न मुहैया कराकर सबको खाद्य सुरक्षा की गारंटी करना, बलपूर्वक भूमि अधिग्रहण पर रोक लगाना, वास्तविक लैंगिक समानता के कदम उठाना, महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर रोक लगाना, सभी ग्रामीण और शहरी वृद्धों, विधवाओं एवं विकलांगों को पेंशन देना, रोजगार सृजन विकास पर ध्यान देकर देश भर में बेरोजगारी कम करना और नये रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना शामिल है। उत्तर प्रदेश में सम्बन्धित मांगों में समाज में सद्भाव स्थापित करने, कानून व्यवस्था ठीक करने, महिलाओं एवं बालिकाओं के साथ दुराचार रोकने, साम्प्रदायिक ताकतों पर कारगर रोक लगाने और प्रदेश में हुए साम्प्रदायिक दंगों की उच्च स्तरीय जांच कराने, सच्चर समिति की सिफारिशें लागू करने तथा आतंकवाद के नाम पर निर्दोषों का उत्पीड़न बन्द करने, दलितों एवं आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार बन्द करने, खेत मजदूरों और किसानों को 3000/- प्रतिमाह पेंशन देने, प्रदेश मे श्रम कानूनों का पालन करवाने, ठेकेदारी प्रथा समाप्त करने तथा बंद मिलों को चलाने एवं नये रोजगार सृजित कराने आदि मांगें शामिल की गई हैं।
पूरे प्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं ने भारी उत्साह के साथ सत्याग्रह और गिरफ्तारियों में झंडे, बैनरों के साथ भागीदारी की है। सम्पन्न सभाओं में नेताओं ने पार्टी की राजनीति और मांगों के इर्द-गिर्द भाषण दिये और संकल्प लिया कि जनोन्मुखी विकास के मॉडल की आर्थिक-सामाजिक नीतियों के आधार पर राजनैतिक विकल्प का अभियान चलाया जायेगा। पार्टी नेताओं ने कहा है कि इस अभियान को आगामी लोक सभा चुनाव तक ले जाया जायेगा।

Wednesday, October 9, 2013

अंतरंग (क्रोनी) पूंजीवाद के युग में वैकल्पिक मीडिया की जरूरत

संप्रग शासन काल में पूंजीवाद के साथ जिस विशेषण का लगातार प्रयोग किया गया वह है ”क्रोनी“। अर्थशास्त्र का ज्ञान न रखने वाले लोग इसे छोटा पूंजीवाद, कारपोरेट पूंजीवाद या ऐसा ही कुछ और समझ लते हैं। अंग्रेजी में ‘क्रोनी’ संज्ञा है जिसका अर्थ है ‘अंतरंग मित्र’। अंग्रेजी भाषा की यह खासियत है कि संज्ञा को विशेषण और क्रिया के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अर्थशास्त्री ”क्रोनी कैपिटलिज्म“ को पूंजीवाद का वह भ्रष्टतम रूप बताते हैं जिसमें शासक और पूंजीपतियों में अंतरंग मित्रता हो और दोनों एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार हों। यानी पूंजीवाद के जिस दौर से हम हिन्दुस्तान में गुजर रहे हैं वह पूंजीवाद का वही भ्रष्टतम रूप है जिसमें पूंजीपति और पूंजीवादी राजनीतिक दल अंतरंग मित्र बन चुके हैं। हमने पिछले पांच सालों में देखा कि पूंजीवाद के इसी भ्रष्टतम रूप के कारण संप्रग-2 के सात मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में त्यागपत्र देने को मजबूर होना पड़ा परन्तु उनमें से केवल एक ए.राजा को छोड़ कर किसी को भी जेल की हवा काटने अभी तक नहीं जाना पड़ा है। भाजपा भी इस भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही।
यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि इलेक्ट्रानिक संमाचार माध्यम और प्रिंट मीडिया (विशेष रूप से अंग्रेजी और हिन्दी) के मालिकान कारपोरेट घराने हैं और निश्चित रूप से पूंजीवाद के वर्तमान रूप में वे अपने राजनीतिक मित्रों और हितचिन्तकों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। आज पत्रकारिता पत्रकारिता रह ही नहीं गई है। इसे पत्रकारिता का कौन सा रूप कहा जाये, इस पर हम सबको विचार करना चाहिए। मीडिया आज कल कारपोरेट पॉलिटिक्स का औजार बन कर रह गया है।
आइये कुछ घटनाओं के साथ-साथ कारपोरेट मीडिया और राजनीतिज्ञों की अंतरंगता की बात करते हैं। रविवार 29 सितम्बर को दिल्ली में प्रधानमंत्री के इकलौते घोषित भाजपाई प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी की मीडिया में बहुप्रचारित रैली आयोजित थी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार लगभग 7000 सुरक्षाकर्मियों और 5000 कार्यकर्ताओं को सम्बोधित कर मोदी प्रस्थान कर गये। ठीक उसी वक्त इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यम इस रैली का ‘लाइव’ प्रसारण कर रहे थे और रैली में आई भीड़ को पांच लाख बता रहे थे। अगले दिन समाचार पत्रों ने इस रैली के समाचारों को मुखपृष्ठों पर बड़े-बड़े मोटे टाईप में प्रकाशित किया। यह वास्तविकता थी कि न कहीं जाम लगा और न ही मीडिया को पांच लाख की भीड़ आने पर लगने वाले जाम के न लगने पर कोई परेशानी हुई।
यही मीडिया अगले लोक सभा चुनावों को मुद्दों के बजाय दो व्यक्तियों - भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के अघोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी राहुल गांधी के बीच केन्द्रित कर देना चाहती है। कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस जीते या भाजपा नीतियां वहीं रहेंगी जो देशी और विदेशी पूंजी चाहती है, आखिरकार दोनों ही पार्टियां कारपोरेट घरानों की अंतरंग मित्र हैं।
आइये अब हाल में बनी ‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में चर्चा करते हैं। यह पार्टी तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी (अन्ना) आन्दोलन की कोख से पैदा हुई है। इस आन्दोलन के शुरू होने के पहले ही चर्चा गरम थी कि एक के बाद एक भ्रष्टाचार के खुलते मामलों पर जनता में व्याप्त आक्रोश को शान्त करने के लिए कारपोरेट घरानों और सत्ताधीशों की अंतरंगता से यह आन्दोलन आयोजित किया जा रहा है। इस आन्दोलन के दौरान दो बातें सामने आयीं जिनका एक बार फिर उल्लेख जरूरी होगा। पहला जिस तादाद में पूरे हिन्दुस्तान में प्रचार सामग्री की बाढ़ आई थी, उसके लिए एक बड़े तंत्र की और करोड़ों के धन की जरूरत थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के पास एकाएक पैसा कहां से आया और एकदम से इतना बड़ा तंत्र कहां से खड़ा हो गया, इन दोनों बातों पर प्रश्नचिन्ह आज तक लगा हुआ है? दूसरा कारपोरेट मीडिया ने भ्रष्टाचार के राजनैतिक सवाल पर इसे एक गैर राजनैतिक पहलकदमी बताते हुए जितना प्रचार-प्रसार किया, वह आन्दोलन के फैलाव से कहीं बहुत अधिक था। पूंजी और उसके चन्द समाजवादी पैरोकार राजनीति का गैर राजनीतीकरण करने के लिए बहुत अरसे से काम करते रहे हैं। 1957 में समाजवादियों के मिलान सम्मेलन से विचारधारा विहीन मनुष्य की जिस परिकल्पना का जन्म हुआ था, जिसे आपातकाल के दौर में संजय गांधी ने पाला पोसा, उसे ही आज कारपोरेट मीडिया आगे बढ़ा रहा है। नवउदारवाद के जन्म के साथ उसके बरक्स वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की भी शुरूआत हो गयी थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और आम आदमी पार्टी ने वैकल्पिक राजनीति को भारी नुकसान पहुंचाया और उसके इस कारनामे में कारपोरेट मीडिया उसका सहोदर बना रहा है। आज इस ‘आम आदमी पार्टी’ को मीडिया जितना कवरेज दे रहा है, उसका दशांश भी मुख्य धारा की वैकल्पिक राजनीतिक पार्टियों को वह कवर नहीं करता है।
लखनऊ में 30 सितम्बर को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ! सद्भाव, विकास एवं कानून के राज के लिए!!” के नारे के साथ लखनऊ में एक विशाल जुलूस निकाला और ज्योतिर्बाफूले पार्क में एक विशाल जनसभा की। यह घटना उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए महत्वपूर्ण इसलिए थी कि यहां काफी अरसे से वामपंथी पार्टियों का जनाधार विशालतम नहीं रहा है। इस रैली में मोदी की दिल्ली रैली के मुकाबले चार-पांच गुना अधिक कार्यकर्ता मौजूद थे फिर भी किसी इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इसे कवर नहीं किया। अंग्रेजी और हिन्दी के समाचार-पत्रों ने केवल स्थानीय पन्नों पर इसका जिक्र किया। उर्दू अखबारों पर अभी भी कारपोरेट मीडिया का स्वामित्व नहीं है। उर्दू समाचार पत्रों ने इस घटना को पूरी गम्भीरता से स्थान दिया।
कुछ भी माह पहले सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों तथा स्वतंत्र फेडरेशनों ने दिल्ली में एक बड़ी रैली की थी जिसमें लगभग एक लाख के करीब भीड़ थी। इस घटना को भी किसी टी.वी. चैनल ने नहीं दिखाया और समाचार पत्रों में जाम के कारण जनता को होने वाली असुविधा के समाचार ही छपे थे। एक लाख मजदूर और कर्मचारी पूरे देश से राजधानी दिल्ली में क्यों जमा हुए, कारपोरेट मीडिया का इससे कोई सरोकार नहीं था।
लगभग एक साल पहले वामपंथी पार्टियों ने जिस समय ‘हर परिवार को हर माह दो रूपये के हिसाब से 35 किलो अनाज की कानूनी गारंटी’ के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक हफ्ते धरना दिया था, उसी समय ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का उसी जंतर-मंतर पर धरना चल रहा था। मीडिया ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के धरने को लगातार दिखा रहा था परन्तु उससे कहीं बहुत अधिक बड़े वामपंथी पार्टियों के धरने को कवर नहीं किया गया। कुछ यही समाचार पत्रों ने भी किया था।
मीडिया के यह दोहरे मानदण्ड यह इशारा करते हैं कि पूंजीवादी राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति - वाम राजनीति के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत जरूरी है कि आम जनता एक विशालकाय वैकल्पिक मीडिया खड़ा करे। इसे एक रात में खड़ा नहीं किया जा सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि ”पार्टी जीवन“ और ”मुक्ति संघर्ष“ के प्रसार को आम जनता के मध्य ले जाया जाये। हर बड़े जिले में इन समाचार पत्रों के कम से कम 200-200 ग्राहक तथा छोटे जिलों में कम से कम 100-100 ग्राहक जनता के मध्य बनाये जाये, जिससे वैकल्पिक राजनीति के समाचार और लेख आम जनता के मध्य पहुंच सके। शुरूआत इसी से करनी होगी और हम आशा करते हैं कि हमारे साथी इसे गम्भीरता से लेते हुए इस कार्यभार को भी अदा करेंगे।
- प्रदीप तिवारी

Saturday, October 5, 2013

30 सितम्बर की रैली और उसके सबक

लगभग दो दशकों के अंतराल के बाद उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं उसके जन संगठनों ने मिल कर 30 सितम्बर 2013 को एक विशाल राज्य स्तरीय रैली का आयोजन किया। इस रैली पर तमाम-तमाम कारणों से तमाम लोगों की निगाहें टिकी थीं। हमें खुशी है कि हम और हमारे कार्यकर्ता लखनऊ में लाल झंडे की मजबूत दस्तक देने में पूरी तरह कामयाब रहे।
शासन, प्रशासन और प्रकृति द्वारा पैदा की गई तमाम अड़चनों के बावजूद रैली में भाग लेने वाले साथी 29 सितम्बर की शाम से ही चारबाग रेलवे स्टेशन पर आना शुरू हो गये थे, जहां से रैली को प्रारम्भ किया जाना था। हालांकि रैली निकालने के लिए प्रशासन ने अनुमति 11 बजे से दी थी परन्तु सुबह 10 बजते-बजते चारबाग रेलवे स्टेशन के विशालकाय परिसार में तिनके को भी ठहरने की जगह नहीं बची तो रैली को सड़कों पर उतारना आवश्यक हो गया। रैली क्या लाल झंडों का सैलाब सड़कों पर उतर चुका था। जोशीले और क्रान्तिकारी नारों के साथ यह रैली लगभग साढ़े दस कि.मी. लम्बी दूरी तय करके लगभग 12.30 बजे (2.30 घंटे में) सभास्थल ज्योतिर्बाफूले पार्क पहुंच सकी। राज्य सरकार और जिला प्रशासन के तुगलकी आदेशों के चलते अब शहर का कोई भी पार्क बड़ी रैलियों के लिए नहीं मिल सकता। अतएव हमें उपुर्यक्त पार्क लेना पड़ा। लगभग तीन-चार हजार स्त्री, वृद्ध, अधेड़ इतनी दूरी चल नहीं पाये और बीच रास्ते से ही स्टेशनों के लिए वापस हो लिये।
जैसाकि हमेशा होता है मीडिया में रैली को कम ही स्थान मिला। टी.वी. चैनलों ने तो लगभग पूरी तरह बायकाट रखा। मजबूरी में ही सही हिन्दी/अंग्रेजी के समाचार पत्रों ने समाचार मय फोटो के छापे लेकिन स्थानीय पन्नों पर। प्रदेश के किसी भी हिस्से में भाकपा की रैली की खबर पढ़ने को नहीं मिली। कई समाचार पत्रों ने रैली के कारण शहर में लगे जाम की फोटो और खबरें छापीं। हां कुछ छोटे हिन्दी समाचार पत्रों ने अपने प्रदेशव्यापी पन्नों पर रैली की खबरों को स्थान दिया। कई ने खबर न छापने के प्रायश्चित के तौर पर इन पंक्तियों के लेखक के साक्षात्कार अगले दिन प्रकाशित किये।
उर्दू अखबार सचमुच बधाई के पात्र हैं जिन्होंने रैली की न केवल राजनैतिक धार को पहचाना अपितु उसके संदेश को, खबरों को अपने ढंग से दुरूस्त कर प्रकाशित किया। कई ने लिखा - ”लगभग 25 साल बाद लखनऊ में लाल झंडे का इतना बड़ा सैलाब उमड़ा“ अथवा ”साम्प्रदायिकता, महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ भाकपा ने दी मजबूत दस्तक“ अथवा ”25 हजार का लाल सैलाब उमड़ा लखनऊ की सड़कों पर, यातायात ठप्प“ आदि।
यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हमारा आकलन है कि रैली में गिने हुये 15-16 हजार से कम लोग नहीं आये। लेकिन प्रशासन, समाचार पत्रों और प्रत्यक्षदर्शियों का आकलन 20-25 हजार अथवा उससे अधिक का है।
यहां एक उल्लेखनीय पहले यह भी है कि इन दिनों गोरखपुर से गुजरने वाली अधिकांश गाड़िया रद्द थीं। मुजफ्फरनगर/शामली के दंगों से पश्चिमी जिलों में दहशत व्याप्त थी। 29 सितम्बर को मेरठ में गोलीबारी और पथराव से मेरठ ही नहीं अगल-बगल के जिलों में भारी तनाव पैदा हो गया और 29 सितम्बर की दोपहर से ही प्रदेश के कई भागों में बारिश से आवागमन प्रभावित हो गया था। अतएव बहुत से जिलों से आमद प्रभावित हुई।
केन्द्र सरकार के साढ़े चार साल के शासनकाल में जिस तरह से महंगाई, भ्रष्टाचार, विदेशी पूंजी, बेरोजगारी और आर्थिक पराभव का नंगा नाच देखने को मिला है, लोगों में उसके प्रति भारी गुस्सा है। कांग्रेस और भाजपा के बीच 2014 में सत्ता पर काबिज होने के लिये जिस तरह कबड्डी चल रही है, यह लोगों के गुस्से को और बढ़ा रहा है।
1 साल 5 माह के शासन काल में उत्तर प्रदेश सरकार जिस तरह जनविरोध की राह पर चली, लोग हतप्रभ हैं क्योंकि उन्हें इस सरकार के मुखिया में एक उम्मीद की किरण नजर आई थी। एस सौ की गिनती पार कर चुके साम्प्रदायिक दंगों, मुजफ्फरनगर/ शामली में हुये साम्प्रदायिक हत्याकांडों, पलायनों, बलात्कारों और सम्पत्ति की तबाही ने प्रदेश की धर्मनिरपेक्ष जनता को भारी हताश किया है और मुस्लिम अल्पसंख्यकों में भारी आक्रोश और असुरक्षा बोध है। दो दशक में पहली बार अल्पसंख्यकों का विश्वास सपा और उसकी सरकार से डिगा है जिसकी जल्दी भरपाई संभव नहीं है।
इस परिस्थति में पार्टी और जन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता, जो कई वर्षों से लगातार आन्दोलन चला रहे थे, इस रैली को पार्टी की प्रतिष्ठा का प्रश्न मान कर उसकी तैयारियों में जुट गये और रैली की सफलता का श्रेय उन्हीं सबको जाता है।
मोटे तौर पर रैली ने केन्द्र और राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों, खासकर मुजफ्फरनगर दंगों से निपटने में राज्य सरकार की असफलता पर कड़ा प्रहार किया है। उत्तर प्रदेश की खासकर लखनऊ की जनता को यह बताने में कामयाबी हासिल की है कि भाकपा आज भी एक ताकत है। समूचे देश और उत्तर भारत की पार्टी कतारों में अहसास जगाया है कि देश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले उत्तर प्रदेश में भाकपा पुनः करवट ले रही है।
और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश भाकपा और जन संगठनों का एक-एक कार्यकर्ता उत्साह से लबरेज है, उनका आत्मविश्वास बढ़ा है और नई परिस्थतियों में स्वतंत्र रूप से लड़ाई लड़ कर, पार्टी एवं जन संगठनों का विस्तार कर वामपंथी ताकतों की धुरी बनकर वामपंथी लोकतांत्रिक विकल्प के निर्माण का उनका संकल्प सुदृढ़ हुआ है।
यह सब इसलिये संभव हो सका कि पार्टी कतारों में यह विश्वास पैदा हो गया है कि अब प्रदेश पार्टी किसी की पिछलग्गू नहीं बनेगी और अपनी ताकत के बल पर गैरों को ताकतवर नहीं बनायेगी।
रैली की सफलता की बधाइयां देने और स्वीकार करने का दौर अभी कुछ दिनों और चलेगा लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम एक पल भी खामोश न बैठें। 2014 के लोकसभा चुनावों को लेकर भाजपा, कांग्रेस तथा दूसरे पूंजीवादी दल जिस तरह से लोगों की समस्याओं पर चर्चा से बचते हुये, आम जन को केवल अपना वोट समझते हुये अपना अभियान चला रहे हैं, उससे आम लोग संतुष्ट नहीं हैं। जनपरक नीतियां प्रस्तुत करने के बजाये जिस तरह से साम्प्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय विभाजन के कार्ड्स फेके जा रहे हैं, लोग उसको भी समझ रहे हैं। किसी हद तक कहा जाये तो किसी भी पूंजीवादी दल से लोग संतुष्ट नहीं हैं। ऐसी स्थिति देश की राजनीति में कई वर्षों के बाद आई है।
जहां तक भाकपा और वामपंथ की बात है, लोग उन्हें बेहद ईमानदार, भ्रष्टाचार से कोसों दूर, सही मायने में धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद, क्षेत्रवाद तथा दूसरी संकीर्णताओं से मुक्त मानते हैं और उन पर भरोसा करते हैं।
हमें उनके भरोसे को जीतना है। अतएव स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय सवालों पर लगातार आन्दोलन चलाने होंगे। शोषित, पीड़ित जनता से मजबूत कड़ियां बनानी होंगी। इसके लिए पार्टी शाखाओं और जन संगठनों को सक्रिय करना होगा। पार्टी शिक्षा, पार्टी अखबार और पत्र-पत्रिकाओं को फैलाना होगा। पार्टी की आर्थिक स्थिति को नीचे से ऊपर तक सुदृढ़ करना होगा। सबसे अहम सवाल है कि छात्रों, नौजवानों और महिलाओं को बिना विलम्ब किये पार्टी कतारों में शामिल करना होगा।
और फौरी कर्तव्य यह है कि जिन सवालों पर रैली का आयोजन किया गया, उन सवालों के साथ स्थानीय सवालों पर 21 अक्टूबर 2013 को जिला केन्द्रों पर सत्याग्रह/जेल भरो आन्दोलन को पूरी शिद्दत से सफल बनाना होगा।
- डा. गिरीश

Monday, September 30, 2013

भाकपा की विशाल रैली संपन्न - साम्प्रदायिकता, महंगाई एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ 21 अक्टूबर को होगा जेल भरो सत्याग्रह

लखनऊ 30 सितम्बर। साम्प्रदायिकता, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ 21 अक्टूबर को जेल भरो आन्दोलन आयोजित करने के फैसले के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आज लखनऊ के ज्योतिर्बाफूले पार्क में रैली एवं विशाल जनसभा का समापन हुआ। जनसभा में उपस्थित हजारों की भीड़ ने प्रदेश में साम्प्रदायिक तथा अन्य विभाजनकारी ताकतों की काली करतूतों का मुंहतोड़ जवाब देने और शांति, सद्भाव एवं भाई चारा बनाये रखने के लिए हर संभव कोशिश करने का संकल्प लिया। जनसभा के पूर्व जिलों-जिलों से आये लगभग बीस हजार पार्टी कार्यकर्ताओं ने चारबाग रेलवे स्टेशन से एक जुलूस निकाला जो बर्लिंग्टन चौराहा, कैसरबाग, परिवर्तन चौक, स्वास्थ्य भवन, रूमी दरवाजा होते हुए ज्योतिर्बाफूले पार्क पहुंच कर जनसभा में परिवर्तित हो गया। जूलूस में प्रदर्शनकारी केन्द्र एवं राज्य सरकारों के खिलाफ गगनभेदी नारे लगा रहे थे।
जनसभा की शुरूआत में ही एक प्रस्ताव पेश किया गया जिसमें मुजफ्फरनगर और उसके समीपवर्ती स्थानों पर हाल में हुए दंगों के लिए जहां एक ओर साम्प्रदायिक भाजपा और उसके सभी संगठनों को दोषी ठहराया गया वहीं साम्प्रदायिकता एवं दंगों का इस्तेमाल वोट की राजनीति करने के लिए समाजवादी पार्टी को भी कठघरे में खड़ा किया गया। विभिन्न पूंजीवादी दलों के नेताओं की दंगों में संलिप्तता को रेखांकित करते हुए समस्त घटनाक्रमों की सर्वोच्च न्यायालय के परिवेक्षण में सीबीआई से जांच कराने की मांग की गई।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एवं पूर्व सांसद एस. सुधाकर रेड्डी ने अपने सम्बोधन में कहा कि लगातार बढ़ती चली जा रही महंगाई के कारण आम आदमी की जिन्दगी दुश्वार हो गयी है। रूपये की कोई कीमत रह ही नहीं गयी है। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों देश की सम्पत्ति बढ़ने की बात करते हैं लेकिन कुछ ही लोगों की सम्पत्ति बढ़ रही है जबकि अमीर-गरीब के बीच की खाई दिनों-दिन गहरी होती चली जा रही है। संप्रग-2 सरकार के सात मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देना पड़ा परन्तु राजा को छोड़कर कोई भी मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में जेल नहीं गया। प्रधानमंत्री कार्यालय पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार में होने के कारण संप्रग-2 के मंत्रियों को अदालत से सजा मिले या न मिल परन्तु कांग्रेस को जनता की अदालत में जरूर सजा मिलेगी।
भाजपा द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किये जाने पर टिप्पणी करते हुए एस. सुधाकर रेड्डी ने कहा कि भाजपा के सत्ता में आने से नीतियां नहीं बदलने वाली और नीतियों को बदले बिना महंगाई नहीं रोकी जा सकती,  भ्रष्टाचार नहीं रोका जा सकता और साम्प्रदायिकता पर अंकुश भी नहीं लगाया जा सकता। उन्होंने कहा कि अगर सार्वजनिक क्षेत्र को बचाना है, सभी के लिए खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करनी है, सभी को ईलाज मुहैया कराना है, सभी को शिक्षा मुहैया करानी है तो वैकल्पिक नीतियों के लिए प्रतिबद्ध विकल्प का निर्माण करना होगा जो बिना वामपंथ और विशेष कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत किये हासिल नहीं किया जा सकता। उन्होंने जनता का आह्वान किया कि वे आसन्न लोकसभा चुनावों में भाकपा के अधिक से अधिक प्रत्याशियों को विजयी बनायें।
एस. सुधाकर रेड्डी ने उत्तर प्रदेष की स्थिति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि उत्तर प्रदेष देष का हृदयस्थल है और यह प्रदेष दुर्भाग्य से आर्थिक दृष्टि से भी पिछड़ा है। यहां विकास के लिए वैकल्पिक नीतियों की आवष्यकता है। उन्होंने कहा कि मुजफ्फरनगर के दंगों से देष का सिर शर्म से झुक गया है। हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों के साथ-साथ सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने खुल कर घृणित साम्प्रदायिक नफरत का खेल खेला है। शासक दल भी वोट बटोरने की राजनीति में जुटा रहा और इतना बड़ा जघन्य काण्ड हो गया। राज्य प्रषासन ने स्थिति को नियंत्रण में रखने में ढीढता एवं निष्क्रियता का परिचय दिया। समाजवादी पार्टी की सरकार ने साम्प्रदायिक शक्तियों को समय से रोकने में लापरवाही बरती है जिसको बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा खड़ी की गई बाधाओं के बावजूद लखनऊ में एक मजबूत दस्तक देने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं का अभिवादन करते हुए कहा कि डेढ़ साल पहले बसपा के कुशासन से परेशान हाल जनता ने सपा को वोट देकर यह उम्मीद की थी कि वह जिन्दगी में कुछ उजाला लायेगी परन्तु 16 माह में 1600 किसान आत्महत्या कर चुके हैं क्योंकि चुनाव घोषणापत्र में किये गये वायदे के बावजूद किसानों के कर्जे माफ नहीं किये गये। प्रदेश में श्रम कानूनों का पालन नहीं किया जा रहा है और मुख्यमंत्री उद्योगपतियों से मशविरा करने में ही मशगूल रहते हैं। कन्या विद्या धन का वायदा भी अधूरा रह गया। बेरोजगारी भत्ता भी कुछ हजार लोगों को ही मिला बाकी अभी भी रास्ता देख रहे हैं। जितना लैपटॉप खरीदने में पैसा खर्च नहीं किया गया उससे ज्यादा उसके वितरण के कार्यक्रमों में खर्च हुआ।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने मुजफ्फरनगर और उसके आस-पास की घटनाओं का जिक्र करते हुए कहा कि आजादी के बाद यह पहला मौका है जब एक लाख लोगों को पलायन कर शिविरों में रहने को मजबूर होना पड़ा है। उन्होंने प्रदेश सरकार से सवाल किया कि कौन है इसका जिम्मेदार? उन्होंने कहा कि मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी भाजपा ने दंगे करवाने के लिए ही घोषित किया है लेकिन 27 अगस्त से 7 सितम्बर तक सपा सरकार कर क्या रही थी? उन्होंने कहा कि मुलायम परिवार अपने राजकुमार को मुख्यमंत्री की ट्रेनिंग दे रहा है और उत्तर प्रदेश की 20 करोड़ जनता उसका खामियाजा भुगत रही है। उन्होंने कहा कि आज तक जो चला है वह आगे नहीं चलेगा, सरकार रहे या जाये, साम्प्रदायिकता को हम चलने नहीं देंगे। उन्होंने उपस्थित कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि संसद में वामपंथ का प्रतिनिधित्व पहुंचाना सुनिश्चित करें। उन्होंने 21 अक्टूबर को जनता के सुलगते सवालों पर जिलों-जिलों में सफल सत्याग्रह करने का आह्वान भी किया।
भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सचिव एवं अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव अतुल कुमार अंजान ने आज की रैली को उत्तर प्रदेश में राजनैतिक सन्नाटे को तोड़ने वाली रैली बताते हुए कहा कि कुछ लोग लोकतांत्रिक परम्पराओं को खत्म कर देना चाहते हैं। किसानों-मजदूरों के वोटों को छीनने की तैयारियां की जा रही हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस कहती है ”मीलों हम आ गये, मीलों हमें जाना है।“ परन्तु वह आम जनता को खाक में मिलाने की ओर बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि जब अटल प्रधानमंत्री बने थे तो आटा 5 रूपये किलो था, जब गये तो 12 रूपये किलो पहुंच गया था। इसी तरह हर जिन्स के दाम दो-तीन गुने बढ़ गये थे। मोदी द्वारा लाल किला और लोकसभा का मॉडेल बनाकर भाषण करने के अंदाज पर कटाक्ष करते हुए कहा कि व्याकुल मोदी न तो लाल किले की प्राचीर से भाषण दे सकेंगे और न ही लोकसभा में अपनी बात रख सकेंगे। उन्होंने कहा कि मुलायम सिंह जी संसद में बताते रहे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक शक्तियां काम कर रही हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में उनकी गतिविधियों को रोकने के लिये उनकी सरकार ने कुछ भी नहीं किया।
भारतीय खेत मजदूर यूनियन के महामंत्री नागेन्द्र नाथ ओझा ने जनसभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि खेती, व्यापार, उद्योग, शिक्षा को जनमुखी बनाने के लिए नीतियां बदली जायें और वैकल्पिक नीतियों को लागू किया जाये। उन्होंने कहा कि केवल किसान ही आत्म हत्या नहीं कर रहे हैं बल्कि ग्रामीण मजदूर बड़ी संख्या में या तो भूखों मर रहे हैं या फिर आत्महत्या कर रहे हैं।  मनरेगा में काम नहीं मिलता। 12 करोड़ से ज्यादा के पास जॉब कार्ड हैं। उनमें से केवल 4 करोड़ को ही मनरेगा में काम मिला, उसमें भी केवल 13 लाख को ही साल भर में 100 दिन का काम मिला। उत्तर प्रदेश में तो हालात और ज्यादा खराब रहे हैं - चाहे बसपा की सरकार रही हो या वर्तमान सपा की सरकार हो। अनाज घोटाले में सैकड़ों मुकदमें न्यायालयों में विचाराधीन हैं। उन्होंने कहा कि देश में सब कुछ संकट में है। व्यक्ति बदलने से काम नहीं चलेगा। नीतियां बदली जायें। मोदी के नाम पर साम्प्रदायिकता भड़काई जा रही है। तालाब में मछली पालने के बजाय लाश पालने वाले राजनीतिज्ञों से जनता का भला नहीं होने वाला है। उन्होंने उपस्थित जन समुदाय से साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम करने का आह्वान किया।
रैली को सम्बोधित करने वाले अन्य प्रमुख वक्ता थे - माकपा के राज्य सचिव डा. एस. पी. कश्यम, फारवर्ड ब्लाक के राम दुलारे,  एटक के राष्ट्रीय सचिव सदरूद्दीन राना, अखिल भारतीय नौजवान सभा के अध्यक्ष आफताब आलम, अखिल भारतीय स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के अध्यक्ष परमजीत ढांबा। सभा का संचालन भाकपा के राज्य सह सचिव अरविन्द राज स्वरूप ने किया। सभा की अध्यक्षता श्रीमती हरजीत कौर, सुरेन्द्र राम, विश्वनाथ शास्त्री, अशोक मिश्र, इम्तियाज बेग, विनय पाठक के अध्यक्षमंडल ने की।



कार्यालय सचिव