Sunday, December 26, 2010

”हमें तुम्हारे स्विस बैंक खाते का हिसाब चाहिए“

लखनऊ 26 दिसम्बर। लोकतंत्र के तीनों स्तम्भों - राजनीति, नौकरशाही और न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार की कटु भर्त्सना के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा व्यापक चुनाव सुधारों के लिए व्यापक जनसंघर्ष के संकल्प के साथ आज भाकपा के 85वें स्थापना दिवस पर यहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की लखनऊ जिला कौंसिल द्वारा ”हमें तुम्हारे स्विस बैंक खाते का हिसाब चाहिए“ शीर्षक से आयोजित परिचर्चा सम्पन्न हुई।



परिचर्चा शुरू करते हुए भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने मुंडरा काण्ड से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले तक के तमाम घोटालों की चर्चा करते हुए कहा कि पूंजीवाद ने जिस भ्रष्टाचार को पिछले बीस सालों में फैलाया है, उसके खिलाफ व्यापक जन-संघर्ष के बिना लोकतंत्र को बचाया नहीं जा सकता और इसके लिए शहरी मध्यमवर्ग को अगुवा दस्ते की भूमिका अदा करनी होगी। उन्होंने पंचायत चुनावों तक फैल गये भ्रष्टाचार पर चिन्ता जाहिर करते हुए कहा कि आश्चर्य होता है कि ग्राम प्रधान और ब्लाक प्रमुख तक के प्रत्याशियों ने करोड़ों रूपये खर्च किये हैं। उन्होंने कहा कि आज भ्रष्टाचार के खिलाफ बात करने वाले राजनीतिक दल - भाजपा, सपा, राजग, बसपा आदि सभी जिस पैसे से चुनाव लड़ते हैं, वह भ्रष्टाचार के जरिए ही पैदा किया गया होता है। उन्होंने व्यापक चुनाव सुधारों पर भी बल दिया जिसमें अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली और वापसी के अधिकार का उन्होंने विशेष रूप से उल्लेख किया।



परिचर्चा को सम्बोधित करते हुए भाकपा के राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अंजान ने कहा कि तेलगी काण्ड से शुरू हुए तमाम घोटालों ने देश में एक आवारा पूंजी को जन्म दिया है जो देश में हर चीज को अवारा बना रही है। उन्होंने कहा इस अवारा पूंजी द्वारा पैदा किए गए अवारा भ्रष्टाचार के खिलाफ समाज के सजग लोगों को निकलना ही होगा। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हमें परिपक्व इरादों की जरूरत होगी। उन्होंने कहा कि स्विस बैंक जमा अरबों करोड़ रूपये के मामले को भाकपा के सांसद गुरूदास दासगुप्ता ने संसद में उठाया था तब भाजपा के लाल कृष्ण आडवाणी बिलकुल चुपचाप बैठे रहे थे और उन्होंने स्वर नहीं उठाया था। उन्होंने कहा कि भाकपा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ क्षेत्रीय सम्मेलनों का फैसला लिया है और उसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर कार्यवाही योजना बनाई जायेगी।



विख्यात आरटीआई कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में अगर स्विस बैंक में जमा अरबों करोड़ रूपये अगर वापस आ भी गये तो भ्रष्टाचार के जरिए वे दुबारा स्विस बैंक या किसी दूसरे देश के बैंकों में पहुंच जायेंगे। उन्होंने एक ऐसी एकीकृत एजेंसी के गठन पर बल दिया जिसके पास राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों तथा न्यायाधीशों के सभी खिलाफ जांच करने और उनके खिलाफ मुकदमा चलाने का अधिकार हो।



फारवर्ड ब्लाक के सचिव वीरेन्द्र कुमार ने भाकपा द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किए अभियान में फारवर्ड ब्लाक द्वारा शिरकत की घोषणा करते हुए कहा कि निमंत्रण भेजे जाने के बावजूद बाकी राजनीतिक दलों का परिचर्चा में भाग न लेना यह दर्शाता है कि वे भ्रष्टाचार में कितने तल्लीन हैं। इंडियन एसोसिएशन ऑफ लॉयर्स के महासचिव शास्त्री प्रसाद त्रिपाठी, एडवोकेट ने जहां न्यायपालिका के अन्दर ही व्याप्त भ्रष्टाचार पर चल रहे आत्ममंथन और चिन्ता की चर्चा की वहीं वाई.एस.लोहित एडवोकेट ने संस्थागत भ्रष्टाचार और छोटे स्तर के भ्रष्टाचार में अंतर करने की बात कही। महिला फेडरेशन की कान्ती मिश्रा ने भ्रष्टाचार के कारण महिलाओं पर पड़ रहे कुप्रभावों की चर्चा करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ जनान्दोलन को महिलाओं को आगे आने का आह्वान किया। यू.पी. बैंक इम्पलाइज एसोसिएशन के मंत्री आर.के.अग्रवाल ने कहा कि हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के पहले खुद से लड़ना होगा। एलआईसी कर्मचारियों के नेता लालता शाह ने कहा कि हमें परेशानियों से बचने के लिए और निजी नुकसान की आशंका से भ्रष्टाचार से समझौता करने की प्रवृत्ति के खिलाफ भी संघर्ष करना होगा।



परिचर्चा की शुरूआत में विषय प्रवर्तन करते हुए ”पार्टी जीवन“ के कार्यकारी सम्पादक प्रदीप तिवारी ने कहा कि पूंजीवाद में पूंजी अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए जिन बुराईयों को जन्म देती है उनके प्रमुख है राजनीति में भ्रष्टाचार फैलाना। पिछले 20 साल पहले देश में आर्थिक उदारीकरण का जो दौर शुरू हुआ था, उसमें पूंजी ने मुनाफे के बरक्स अगर कुछ बढ़ना शुरू हुआ तो वह था भ्रष्टाचार और खाद्य पदार्थों की कीमतें। इन दोनों ने मिल कर देश की 95 प्रतिशत जनता का जीवन दुश्वार कर दिया है। उन्होंने इतिहास में जाते हुए कहा कि 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर चुनाव जीतने के लिए भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करने के लिए उंगली क्या उठा दी थी कि उसके फलस्वरूप आपात काल घोषित हुआ और 1977 में कांग्रेस को पहली बार केन्द्र में सत्ता से बेदखल होना पड़ा। 1988 में फिर बोफोर्स दलाली का मुद्दा चुनावी मुद्दा बना और सत्ता परिवर्तन हो गया।



प्रदीप तिवारी ने कहा कि 1993 में नरसिम्हाराव ने अपनी सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को ही खरीद लिया। उसके बाद से अगर संयुक्त मोर्चा सरकार के छोटे-से कार्यकाल को छोड़ दिया जाये तो कांग्रेस नीत संप्रग या भाजपा नीत राजग ही केन्द्र सरकार में सत्तासीन रहे। कहने को दो महा-ईमानदार - अटल बिहारी बाजपेई और मनमोहन सिंह ही प्रधानमंत्री रहे पर ये दोनों भ्रष्टों के पालनहार की भूमिका में ही नजर आए। प्रदीप तिवारी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा अदल-बदल कर सत्ता चलाते रहे और इनके भ्रष्टाचार ने पंचायत चुनावों तक को भ्रष्टाचार की दलदल में ढ़केल दिया है। उन्होंने परिचर्चा में भाग ले रही जनता का आह्वान करते हुए कहा कि इस माहौल में संघर्ष के लिए जनता को खड़ा करना जरूरी हो गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष एक फौरी जरूरत बन गया है। भ्रष्टाचार के मुद्देनजर वर्तमान चुनावी व्यवस्था सड़ चुकी है और चुनाव सुधारों के लिए संघर्ष भी फौरी जरूरत बन गया है।



परिचर्चा के पहले वयोवृद्ध कम्युनिस्ट शिव प्रकाश तिवारी ने ध्वजारोहण किया। इप्टा के साथियों ने इस मुद्दे पर एक गीत प्रस्तुत किया। परिचर्चा की अध्यक्षता भाकपा जिला सचिव मो. खालिक ने की।

Wednesday, December 22, 2010

”हमें तुम्हारे स्विस बैंक खाते का हिसाब चाहिए“


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 85वें स्थापना दिवस पर लखनऊ भाकपा का आयोजन

“हमें तुम्हारे स्विस बैंक खाते का हिसाब चाहिए”


भ्रष्टाचार एवम् चुनाव सुधार पर परिचर्चा

रविवार, दिनांक 26 दिसम्बर 2010 सायं 3.00 बजे

स्थान: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय,

22 - कैसरबाग (अमीरूद्दौला पुस्तकालय/ बारादरी के पीछे), लखनऊ

आप सभी सादर आमंत्रित हैं!

निवेदक:

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, लखनऊ जिला कौंसिल

सम्पर्क: 9336859512, 9452756969



कांग्रेस के बुरांड़ी अधिवेशन में बढ़ती महंगाई, रोता आम आदमी और भरोसा दिलाते प्रधानमंत्री


दो साल से ज्यादा हो गये जब वाम मोर्चा ने संप्रग-1 सरकार से समर्थन वापस लेते समय जो कारण गिनाये थे उनमें एक मुद्दा महंगाई का भी था। आजादी के बाद के इतिहास में महंगाई बढ़ने की अभूतपूर्व गति बरकरार है। कृषि मंत्री शरद पवार जब भी मुंह खोलते हैं, महंगाई और बढ़ जाती है। प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष इत्मीनान से बंसी बजा रहे हैं कि आने वाले तीन महीनों में महंगाई पर काबू पा लिया जायेगा लेकिन महंगाई बढ़ती जा रही है, आम आदमी रो रहा है और प्रधानमंत्री मार्च 2011 तक महंगाई पर काबू पाने का भरोसा दिला रहे हैं परन्तु कर ऐसा कुछ रहे नहीं हैं जिससे महंगाई पर काबू पाया जा सके।



कांग्रेस के बुरांड़ी अधिवेशन में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने एक आम आदमी की चर्चा की है। वे मानते हैं कि ”आम आदमी“ वह है जिसका उनकी व्यवस्था से कोई सम्पर्क नहीं है। शायद यही कारण है कि उसके दर्द को भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की यह व्यवस्था समझने को तैयार नहीं है। इस आम आदमी का रेखाचित्र बनाते हुए एक काव्यात्मक अंदाज में कांग्रेस के युवराज ने कहा - ”वह गरीब हो या अमीर, शिक्षित हो या अशिक्षित, हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, अगर वह इस व्यवस्था से नहीं जुड़ा है तो वह ‘आम आदमी’ है। ..... यह आम आदमी नियमगिरि का वह आदिवासी बालक है, जिसे अपनी जमीन से बिना किसी कानून के बेदखल कर दिया जाता है। यह आम आदमी झांसी का वह दलित बालक है जिसे अपनी कक्षा में दलित होने के कारण सबसे पीछे बिठाया जाता है। वह बंगलुरू का वह युवा प्रोफेशनल है, जिसके बच्चे को ऊंची कैपिटेशन फीस न दे पाने के कारण अच्छे स्कूल में दाखिला नहीं मिल पाया। वह शिलांग के विश्वविद्यालय का टॉपर है, जिसे इसलिए काम नहीं मिल सका, क्योंकि वह सही लोगों को नहीं जानता। वह अलीगढ़ का वह किसान है जिसे अपनी जमीन का उचित मुआवजा नहीं मिला है। वह हैदराबाद का बिजनेसमैन है जिसके अपने सम्पर्क नहीं हैं। यह ऐसा नौकरशाह है, जिसका भविष्य समझौता न करने की वजह से जोखिम में है। यह वह मेट्रो वर्कर है जिसने अपने खून-पसीने से उसे बनाया है, लेकिन जिसका उसे कोई श्रेय नहीं मिलता है। ...... वह जी-जान से इस देश को रोज बनाता है फिर भी हमारी व्यवस्था उसे हर कदम पर कुचलती है।“ आम आदमी को कुचलने का धमंड कांग्रेस में कूट-कूट कर भरा हुआ है।



इस रेखाचित्र में महंगाई और भ्रष्टाचार का मारा वह आम आदमी कहीं राहुल गांधी को नहीं दिखाई देता जिसके दुःख दर्दों के लिए उनकी तीन पीढ़ियां जिम्मेदार हैं। वे तीन पीढ़ियां जिन्होंने इस देश पर लम्बे समय तक शासन किया है। उनकी दादी इंदिरा गांधी के युग में इस आदमी के नाम का अखण्ड जाप कांग्रेस और सरकार रात-दिन करती रहती थी परन्तु उसके लिए करती कुछ नहीं थीं। उससे केवल वोट लेती थी। इस रेखाचित्र से कई सवाल उठते हैं, लेकिन एक सवाल को उठाना जरूरी है - आखिर कौन है जिम्मेदार जिसके कारण नियमगिरि का आदिवासी बालक अपनी जमीन से बेदखल होता है, दलित बालक को सबसे पीछे बैठना पड़ता है, पूरे देश के गरीबों और निम्न मध्यमवर्गीय लोगों की संतानें शिक्षा से वंचित रह जा रही हैं, टॉपरों को रोजगार नहीं मिलता आदि आदि। क्या जिम्मेदार वे सरकारें नहीं जो केन्द्र में या राज्यों में कांग्रेस चला रही है? क्या जिम्मेदार वे नीतियां नहीं जिन्हें उनकी पार्टी ने इस देश में चलाना शुरू किया था? राहुल गांधी इस आम आदमी को एक बार फिर बेवकूफ बना कर वोट बटोरने की राजनीति खेल रहे हैं।



कांग्रेस के इसी अधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि मार्च 2011 तक महंगाई दर गिर कर 5.5 प्रतिशत हो जायेगी। इसे पढ़ कर या सुनकर अजीब सी अनुभूति होती है। उनकी सरकार के अनुसार तो महंगाई दर गिर कर नवम्बर में 7.48 प्रतिशत आ गयी है लेकिन आज प्याज 70 रूपये किलो बिक रहा है। पेट्रोल के भाव पिछले पांच महीनों में पांच बार कीमतें बढ़ाकर 60 रूपये प्रति लीटर सरकार ने पहुंचा ही दिये हैं। डीजल, किरोसिन और रसोई गैस की कीमतें बढ़ाने की तैयारी है। खाद्यान्न व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति दी जा रही है, सट्टेबाजी कराई जा रही है और आयात-निर्यात का खेल चल रहा है। आम आदमी भूखों मरता है तो मरे। 87 करोड़ जनता 20 रूपये प्रतिदिन से कम आमदनी पर जीवित है, महंगाई के बावजूद गरीबी की इस रेखा में कोई परिवर्तन नहीं आया है। मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी में कोई अन्तर नहीं आया है। उस आम आदमी की कोई पीड़ा उनके चेहरे पर नहीं झलकती।



कांग्रेस के इसी अधिवेशन में प्रस्तुत एक आर्थिक प्रस्ताव कहता है कि विकासशील देश में कुछ कीमतें इसलिए बढ़ती हैं कि उनकी आपूर्ति और मांग के मध्य असंतुलन होता है। कुछ कीमतें इसलिए बढ़ती हैं कि कई सेवाओं और वस्तुओं के निर्माताओं को ज्यादा कीमत दिये जाने की जरूरत होती है। कुछ कीमतें इसलिए बढ़ती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उनकी कीमतें ऊपर चली जाती हैं। इस प्रस्ताव में भी कहीं दर्द नहीं झलकता उस आम आदमी का। यानी सब कुछ किसी न किसी कारक का सहज परिणाम है क्योंकि मुक्त अर्थव्यवस्था में सब कुछ सरमाया करता है, सरकारें कुछ नहीं। सरकारें तो केवल घोटाले, घपले और भ्रष्टाचार के लिए बनाई जाती हैं जिनसे आम आदमी का कोई सम्पर्क नहीं है। शायद वह समय आ गया है जब यह सवाल भी खड़ा किया जाये कि सरकारों की फिर जरूरत क्या है?



कांग्रेस के बुरांड़ी अधिवेशन ने आम आदमी को एक बार फिर ललकारा है कि तेरा कोई वजूद नहीं, तेरा कोई महत्व नहीं, तेरी कोई जरूरत नहीं, तेरी कोई अस्मिता नहीं।



आम आदमी का खून अगर अब भी इस ललकार से नहीं खौलता तो शायद वह पानी ही है खून नहीं!



- प्रदीप तिवारी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Monday, October 11, 2010

अकेला नहीं हूं, युग का भी साथ है


‘कामगार हूं, तेज तलवार हूं, सारस्वतों (कलम के रखवालों) मुआफ करना, कुछ गुस्ताखी करने वाला हूं’ - यह कहते हुए मराठी साहित्य में पचास के दशक में दस्तक देने वाले नारायण सुर्वे का 83 साल की उम्र में पिछले दिनों ठाणे के एक अस्पताल में देहांत हुआ।

सुर्वें नही रहे। अपने आप का सूर्यकूल का घोषत करने वाली आवाज खामोश हुई और उनकी रचनाओं के जरिए मराठी साहित्य में पहली दफा ससम्मान हाजिर हुए ‘उस्मान अली, दाऊद चाचा, याकूब नालबंदवाला, अपनी संतान को स्कूल पहुंचाने आई वेश्या, रात बेरात शहर की दीवारों पर पोस्टर चिपकाते घूमते बच्चे, बॉबिन का तार जोड़ने वाला मिल मजदूर, सभी गोया फिर एक बार यतीम हो गए।

नारायण सुर्वे ने अपने रचनात्मक जीवन की शुरूआत कम्युनिस्ट पार्टी के जलसों में गीत गाते और मजदूरों के आंदोलन में शामिल होकर की थी। और उनकी पहली कविता तब प्रकाशित हुई थी, जब वह किसी स्कूल में चपरासी की नौकरी कर रहे थे। प्रतिकूल वातावरण, आर्थिक वंचनाएं और सामाजिक तौर पर निम्न ओहदा जैसी विभिन्न कठिन परिस्थितियों का बोझ सुर्वे के मन पर अक्सर रहता था, मगर उस दबाव के नीचे उनकी कविता का दम नहीं घुटा, इंसान और इंसानियत पर उनकी आस्था कायम रही और उनके साहित्य में भी उसका प्रतिबिंबन देखने को मिला।

सुर्वे की रचना यात्रा 1956 के आसपास शुरू हुई थी, जब उनकी कविताएं युगांतर, नवयुग, मराठा आदि अखबारों में पहली दफा प्रकाशित हुई। 1962 में उनका पहला कविता संग्रह ‘ऐसा गा मी ब्रह्म’ प्रकाशित हुआ था। 1966 में उनका दूसरा कविता संग्रह ‘माझं विद्यापीठ’ (मेरा विश्वविद्यालय) प्रकाशित हुआ था। ‘जाहीरनामा’ (एलाननामा) शीर्षक कविता संग्रह 1975 में आया तो ‘सनद’ नाम से चुनिंदा संपादित कविताएं 1982 में प्रकाशित हुई। 1995 में ‘नव्या माणसाचे आगमन’ कविता संग्रह प्रकाशित हुआ तो इसी साल विजय तापस के संपादन में ‘नारायण सुर्वेच्या गवसलेल्या कविता (खोई हुई कविताएं) नाम से सर्वे की अब तक प्रकाशित कविताओं का संकलन सामने आया। 1992 में ‘माणूस’, ‘कलावंत और समाज’ शीर्षक से उनके वैचारिक लेखों का संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमें उनके अपने चंद पूर्ववर्तियों या समकालीनों पर व्यक्तिचित्रणपरक लेख भी शामिल थे। इसके अलावा उन्होंने दो किताबों का अनुवाद किया तथा आंदोलन के गीता पर दो किताबों का संपादन किया। अपने रचनाकर्म पर उन्हें कई पुरस्कार भी मिले। पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। परभणी में आयोजित साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के तौर पर भी वह निर्वाचित हुए।

प्रश्न उठता है कि बहुत विपुल लेखन न करने के बावजूद नारायण सुर्वे आखिर शोहरत की बुलंदियों पर किस तरह पहुंच सके, जिनकी रचनाएं प्रबुद्धों के जलसों से लेकर किसानों, मजदूरों के सम्मेलनों में उत्साह से सुनी जाती थीं। उनकी कविताओं की लोकप्रियता का प्रतीक उदाहरण अक्सर उद्धत किया जाता है जो बताता है कि किस तरह चांदवड नामक स्थान पर शेतकरी संघटन के महिला सम्मेलन में एकत्रित लगभग 70 हजार महिलाओं ने उनकी सबसे पहली प्रकाशित रचना सुरों में गाई थी। इकतीस साल की उम्र में अपने बेटे के साथ मैट्रिक का इम्तिहान देने बैठे नारायण सुर्वे की रचनाओं में ऐसी क्या बात थी कि वह अपनी एक अलग लकीर खींचने में कामयाब हुए?

दरअसल, बाद के दिनों में दलित रचनाकर्म ने जिस काम को व्यापक पैमाने पर किया, जिस तरह उसने मराठी साहित्य के वर्ण समाज तक सीमित ‘सदाशिवपेठी’ स्वरूप को चुनौती दी, उसका आगाज नारायण सुर्वे ने पचास के दशक में किया। कह सकते हैं कि मराठी साहित्य का सम्भ्रांत केन्द्रित व्याकरण ही उन्होंने बदल डाला। कामगार, मेहनतकशों की आबादी की बस्तियां ही अपने विश्वविद्यालय हैं- इस बात को डंके की चोट पर कहने वाले नारायण सुर्वे की कविताओं में बंबई के फुटपाथ ही असली जीवनशाला हैं, यह बात मराठी लेखकों के कान में पहली बार गूंजी।

‘ना घर था, रिश्तेदार थे, जितना चल सकता था उतनी पैरों के नीचे की जमीन थी/


दुकानों के किनारे थे/


नगर पालिका के फूटपाथ भी खाली थे बिल्कुल मुफ्त....।’

उनकी कविताओं के माध्यम से ऐसे तमाम पात्र पहली दफा काव्यजगत में ससम्मान हाजिर हुए जो समाज के उपेक्षित, शोषित तबके से थे। बात महज पात्रों तक सीमित नहीं थी, उनकी रचनाओं में दुनिया के तमाम शोषित पीड़ितों के सरोकार भी प्रकट हो रहे थे। उनकी कविता में

‘मार्क्स से मुलाकात हो रही थी’,


‘मेरी पहली हड़ताल में ही


मार्क्स ने सुर्वे को पहचाना और पूछा, ‘अरे, कविता-लिखते हो क्या?


अच्छी बात है


मुझे भी गटे पसंद था...।’

ये तमाम बातें शब्दाम्बर के तौर पर, दूसरे के अनुभवों से उधार लेकर प्रस्तुत नहीं हो रही थीं, बल्कि उनकी अपनी जिंदगी के तमाम अनुभवों से निःसृत हो रही थी। लोग जानते थे कि इंडिया वुलन मिल के स्पिनिंग खाते में काम करने वाले गंगाराम सुर्वे और काशीबाई सुर्वे नामक मिल मजदूरों की इस संतान ने खुद भी अपनी जिंदगी की शुरूआत कामगार होने से की थी और इतना ही नहीं, कबीर की तरह उन्हें भी अपनी मां ने कहीं जनमते ही छोड़ दिया था, जिसका लालन-पालन तमाम अभावों के बावजूद गंगाराम एवं उनकी ममतामयी पत्नी ने किया था, उन्हें अपना नाम दिया था, उनका स्कूल में भी दाखिला कराया था। अपने व्याख्यानों में वह अक्सर कबीर की जिंदगी के साथ अपनी तुलना करते थे।

जब नारायण सुर्वे बारह साल के थे तब मिल से गंगाराम रिटायर हुए, तो किसी अलसुबह उन्होंने नारायण के हाथों में दस रुपए पकड़ाए थे और फिर वे कोंकण के अपने गांव चले गए थे। तब से सड़क का फुटपाथ ही नारायण का आसरा बना था और बंबई की सड़के या मेहनतकशों की बस्तियां ही उनका ‘विद्यापीठ’ बना था। अपनी बहुचर्चित दीर्घ कविता ‘माझं विद्यापीठ’ (मेरा विश्वविद्यालय) में वह अपनी जिंदगी की कहानी का यही किस्सा बयां करते हैं।

अंत तक नारायण सुर्वे ‘बेघर’ ही रहे। किराए के मकान को निरंतर बदलते रहने की मजबूरी से उन्हें मुक्ति नहीं मिली। शायद यही वजह रही हो कि कुछ सालों में उन्होंने बंबई से दूर नेरल में अपना आशियाना बनाया था। अखबार में आया है कि अपने अंतिम समय में अस्पताल में अपनी बेटी से कागज और कलम मांग कर उन्होंने कुछ लिखने की कोशिश की थी, मगर शायद मन में उमड़-घुमड़ रहे तमाम विचारों एवं थरथराते हाथों में पकड़ी कलम के बीच सामंजस्य नहीं कायम हो सका। क्या कहना चाहते थे अपने अंतिम वक्त में नाराया सुर्वे? अपने जीवन संघर्ष के तमाम साथियों को आखिरी सलाम पेश करना चाह रहे थे या जाते-जाते इक्कीसवीं सदी के सारस्वतों को यायावरी के चंद नुस्खे बताना चाह रहे थे? कहना मुश्किल है।

‘सीमाबद्ध जिंदगी


सीमाबद्ध थी जिंदगी, जब मैंने जनम लिया


रोशनी भी सीमित ही थी


सीमित ही बात की मैंने, कुनमुनाते हुए


सीमित रास्तों पर ही चला, लौटा


सीमित से कमरे में, सीमित जिंदगी ही जिया


कहा जाता है! सीमित रास्तों से जाने से ही


स्वर्ग प्राप्ति होती है, सीमित पर चार खम्भों के बीच/थूः’

- सुभाष गाताड़े

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल

Thursday, October 7, 2010

भारतीय खेत मजदूर यूनियन की केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति के फैसले

भारतीय खेत मजदूर यूनियन की केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक 23 एवं 24 अगस्त 2010 को नई दिल्ली में यूनियन के अध्यक्ष अजय चक्रवर्ती पूर्व सांसद की अध्यक्षता में संपन्न हुई। जनरल सेक्रेटरी नागेन्द्र नाथ ओझा ने दिनांक 5 एवं 6 मई 2010 को पटना में हुई जनरल कौसिंल की बैठक के बाद गतिविधियों पर एक रिपोर्ट समीक्षा के लिए पेश की। विचार-विमर्श के बाद निम्नांकित फैसले लिये गये।



1. टेªड यूनियनों द्वारा आहूत 7 सितंबर को देशव्यापी हड़ताल में खेत मजदूर को भारी संख्या में गोलबंद किया जाये। यूपीए-2 सरकार की जनविरोधी आर्थिक नीतियों के विरूद्ध आयोजित इस हड़ताल को खेत मजदूरों की विशाल भागीदारी से अत्यंत ही जुझारू बनाया जा सकता है। इसे ध्यान में रखते हुए राज्य यूनिटें खेत मजदूरों की भारी भागीदारी सुनिश्चित करें।



2. खेत मजदूरों का संसद मार्च: यूनियन की केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति ने खेत मजदूरों के ‘संसद मार्च’ (दिल्ली रैली) के लिए 2011 साल में मार्च महीने के प्रथम पखवाड़े में आयोजित करने का फैसला किया। भाखेमयू, खेत मजदूरों की मांगों को लेकर इस रैली के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देगी।



- ‘चलो पार्लियामेंट’ के आह्वान को लेकर तैयारी पूरी करने हेतु कन्वेंशन, सम्मेलन तथा आम सभाएं आयोजित कर इसका संदेश लोगों के बीच ले जाया जाये,



- आगामी अक्टूबर, नवम्बर और दिसम्बर माह में विभिन्न स्तरों पर सरकारी कार्यालयों के समक्ष प्रदर्शन आयोजित कर खेत मजदूर आंदोलन की मांगों को, जो प्रधानमंत्री को संबोधित हो पेश किया जाये;



- ‘चलो पार्लियामेंट’ को लेकर पर्चे एवं पोस्टर प्रसारित किये जायें;



2011 जनवरी एवं फरवरी के माह में जिलों के अंदर “जत्था मार्च” का कार्यक्रम चलाया जाये।



पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र से खेत मजदूरों की भारी गोलबंदी पर ही इस कार्यक्रम की सफलता निर्भर करेगी। अतः इनकी राज्य यूनिटों की विशेष जवाबदेही है। इन राज्यों में खेत मजदूरों की गोलबंदी के लिए व्यापक अभियान चलाया जाये।



-रैली के लिए पूर्व से निर्धारित कोष संग्रह के लक्ष्य को सभी राज्य यूनिटें पूरा कर दिसंबर के अंत तक जमा करा दें। रैली की तिथि का ऐलान भी शीघ्र कर दिया जायेगा।



3. मानवाधिकार दिवस 10 दिसंबर 2010 का कार्यक्रम: 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। कार्यकारिणी समिति ने 10 दिसंबर 2010 को ‘मानवाधिकार दिवस’ को भूमिहीनों के बीच खेती एवं आवासीय भूमि के वितरण की मांग को लेकर मनाने का आह्वान किया है। इसमें बंटाईदारों के हक एवं आदिवासियों के भूमि अधिकार संरक्षण की मंागें भी शामिल हैं। 15 डिसमिल आवासीय भूमि और आवास योजना के अंतर्गत 3 लाख रुपये की मांग को शक्तिशाली ढंग से उठाना है। इसी के साथ शामिल है इंदिरा आवास योजना के अंदर हाल में बने क्षतिग्रस्त मकानों के पुनर्निर्माण की मांग। खाद्य सुरक्षा, अस्पृश्यता निवारण और अत्याचार पर रोक की मांगेे भी उठायी जायें।



इस अवसर पर स्थानीय बाजारों में खेत मजदूरों के जुलूस, मशाल जुलूस, सभाएं और कन्वेंशन आयोजित करें। इसे व्यापक पैमाने पर मनाने की योजना बनाकर उसे लागू करें।



4. राष्ट्रीय सम्मेलन: केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति ने राष्ट्रीय सम्मेलन 2011 में संपन्न करने का फैसला किया जो अक्टूबर या नवम्बर में होगा। सम्मेलन की तिथि एवं स्थान की सूचना शीघ्र दी जायेगी। 12वां राष्ट्रीय सम्मेलन 2010 की सदस्यता के आधार पर होगा।



5. खेत मजदूर यूनियन के कार्यकर्ताओं की राष्ट्रीय स्तर पर एक बैठक आगामी दिसम्बर माह के अंत तक आयोजित की जायेगी जिसमें केन्द्रीय खेत मजदूर विभाग, राज्य के ख्ेात मजदूर विभाग अथवा खेत मजदूर उपसतिति के सदस्य भाग लेंगे और प्रत्येक राज्य में 2 से 5 तक की संख्या में अन्य प्रमुख साथी इस बैठक के लिए आमंत्रित किये जायेंगे। यह बैठक खेत मजदूर आंदोलन की वर्तमान चुनौतियों और कर्तव्य विषयक एक प्रस्तावित दस्तावेज पर विचार-विमर्श के उद्देश्य से आयोजित होने वाली है। बैठक की तिथि एवं स्थान की सूचना शीघ्र ही तय की जायेगी।



6. कार्यकारिणी ने यूनियन के राज्य सचिवों से आग्रह किया हे कि वे राज्य परिषदों की बैठक कर इन फैसलों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करें। निर्धारित अवधि के अंदर रैली के लिए फंड एवं यूनियन की सदस्यता का लक्ष्य पूरा कर लिया जाये।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद्

Wednesday, October 6, 2010

मेरी मां मेरी दोस्त


मेरी मां कुलवंत कौर अत्यंत सहृदय एवं दयालु इंसान थी। हम बहनें और भाई, जब कभी वह हमारे इर्द-गिर्द होती या किसी अन्य स्थान को गयी होती, कभी भी उनसे दूर महसूस नहीं करते थे। अन्य लोग उनकी स्वागतमयी मुस्कान, हर किसी की जरूरत में मदद करने की उनकी भावना और हम बच्चों को उनकी तरफ से दी गयी आजादी की प्रशंसा करते थे। हम बचपन से ही इस पर बड़े गर्वित होते रहे हैं।



उन्हें और हमारे पिता कामरेड दीवान सिंह को कालोनी में आदर्श दम्पत्ति के रूप में माना जाता था। हम तो मां को ‘बीजी’ और पिता को ‘पापाजी’ कहते ही थे, हमारी कालोनी के भी लगभग सभी लोग-भले ही उनकी उम्र कितनी भी रही हो- उन्हें इसी तरह पुकारते थे। कालोनी में किसी परिवार में कोई झगड़ा हो या पड़ोसियों के बीच; लोग उम्मीद करते थे कि ‘बीजी’ और ‘पापाजी’ उनके मामले को अवश्य ही सुलझा देंगे।



हमारे घर को समझा जाता था कि यह घर शांति कायम कर देगा, इंसाफ करेगा और किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगा। हमने अपने माता-पिता से ही सीखा कि जाति व्यवस्था में विश्वास न करें, सभी इंसानों को बरारबर समझें, सबका सम्मान करें। मेरे पिता कोई सरनेम नहीं लगाते थे। हमने भी उसका पालन किया। सभी धर्मों का सम्मान करना, किसी की आस्था को चोट न पहुंचाना-इसके पहले पाठ हमने अपने घर में ही पढ़े।



मां मेरे पापा से 11 वर्ष छोटी थी। जब हमारे पिता विभिन्न धर्मों, दर्शनों और इतिहास के बारे में बताया करते थे तो मां भी उसे सुनने हमारे साथ बैठ जाती।



हमें स्वतंत्रता संग्राम, भारत के विभिन्न भूमिगत क्रांतिकारियों की जीवन गाथाओं, विश्व में हो रहे परिवर्तनों और समाजवादी देशों की उपलब्धियों आदि के बारे में सुनने-जानने का अवसर मिला।



हमने देखा कि हर तरफ जो घटनाक्रम होता, मां उसमें बड़ी दिलचस्पी लेती, उन्हें समझती। बड़ी ग्रहणशील थी वह। वह पार्टी क्लासों में नियमित हिस्सा लेती जो समय-समय पर हमारे घर की छत पर ही ली जाती थी। मैं उस समय सेकंडरी स्कूल में पढ़ रही थी।



मुझे अपने बचपन के दिन याद हैं जब पंजाब एवं अन्य स्थानों के कामरेड हमारे घर आते रहते थे और मां हमेशा उनके स्वागत सत्कार में लगी रहती।



कुछ लोग विभिन्न कारणों से हमारे याहं काफी लम्बे अरसे तक भी ठहरे रहते। बाद में अनेक ऐसे मौके आये जब मैं लोगों को अपने यहां कुछ समय ठहरने के लिए बुलाती। मां उनके स्वागत-सत्कार में भी कभी कोताही नहीं करती थी। हम, उनके बच्चे ही उनकी इस उदारता का फायदा नहीं उठाते थे बाद में उनकी बहुओं ने भी उनकी इस उदारता का फायदा उठाया।



उन्हें तीसरे-चौथे दर्जें से आगे पढ़ने का मौका नहीं मिला था। पर सीखने की उनमें अपार क्षमता थी। अपनी लगन एवं इस क्षमता के बल पर वह न केवल हिंदी और पंजाबी के बल्कि अंग्रेजी के अखबार भी नियमित पढ़ने लगी।



कई बार तब मैं कुछ दिनों बाहर रहकर दिल्ली वापस आती तो वह मेरे लिए पढ़ने की सामग्री रखती, यह सोच कर कि कहीं ये बातें मेरे पढ़ने से न छूट जायें। वह विभिन्न राजनैतिक घटनाक्रमों के बारे में पूछती रहती थी और उन पर अपनी राय भी जाहिर करती।



हम बिना किसी हिचक अपनी सभी व्यक्तिगत समस्याएं उनके साथ साझा कर सकती थी। हमें उन पर भरोसा रहता था कि एक दोस्त की तरह हमें सलाह दंेगी।



वह बड़ी सादा, अत्यंत परदर्शी इंसान थी। हमारे सारे मिलने-जुलने वाले, हमारे सभी मित्र उन तक पहुंचते थे। सभी को वह सलाह देती।



उनकी उल्लेखनीय बात यह थी कि वह हर उम्र के लोगों के साथ घुल-मिल जाती, उनसे दोस्ताना कर लेती। सब उनके साथ सहज हो जाते। कोई औपचारिकता नहीं रहती थी।



1981 में मेरे पिता का. दीवान सिंह का निधन हो गया था। उसके बाद के इन तमाम 29 वर्षों में वह उसी निष्ठा के साथ न सिर्फ अपनी तमाम जिम्मेदारियां निभाती रही बल्कि उन्होंने हम भाईयों और बहनों के लिए भी बहुत कुछ किया ताकि हम अपने पसंद के रास्ते पर आगे बढ़ सकें। वह अत्यंत संवेदनशील थी, बेटे-बेटियों में भेदभाव नहीं करती थी। सबके साथ एक सा बरताव करती थी।



मेरे जीवन में उनकी बड़ी भूमिका रही। मैं तो पार्टी के कामकाज में अपना पूरा समय लगाती रही, उन्होंने मेरे बेटे का पालन-पोषण किया। अपने दामाद अरूण मिश्रा की वह बड़ी प्रशंसा करती थी। हम आज जो कुछ भी हैं उसके लिए उन्होंने जिस त्याग एवं निष्ठा का परिचय दिया, अपने अंतरंग क्षणों में हम उसे याद कर भावुक हो उठते हैं।



मेरी मां ही नहीं चली गयी, मुझे लगता है मेरी दोस्त भी मुझसे दूर चली गयी। ऐसी दोस्त जिसे मैं चाहती थी कि मेरे इर्द-गिर्द रहे।



- अमर जीत कौर



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Tuesday, October 5, 2010

हालात - जहां मौत एक गिनती है

इस साल मई में हम कैमरा टीम के साथ गोरखपुर के आसपास के इलाकों में जापानी बुखार से हुई मौतों की कहानी दर्ज कर रहे थे। जून का महीना बीतते-बीतते बारिश का पानी फिर से जमने लगा और इसी के साथ दिमागी बुखार ने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। 1978 से शुरू हुई इस बीमारी से उत्तर प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में अब तक बारह हजार से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। गैरसरकारी अस्पतालों का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि यहां मौत के आंकड़े सरकारी अस्पतालों में हुई मौतों से कई गुना अधिक होंगी। हजारों बच्चों की मौत के बावजूद सरकार अब तक कोई ठोस नीति नहीं बना पाई है। सरकार ने 27 साल बाद इंसेफेलाइटिस के एक रूप जापानी इंसेफेलाइटिस के टीकाकरण का फैसला किया लेकिन चार साल तक टीकाकरण करने के बाद इस साल इसलिए टीकाकरण नहीं हो सका क्योंकि टीके रखे-रखे खराब हो गए। मतलब यह कि जापानी बुखार से बचने का इस बरस कोई रास्ता न था। इसी दौरान उत्तर प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने भी बचकाना बयान दे डाला। उन्होंने कहा कि हमने ग्रामीण इलाकों और कस्बों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सुविधा संपन्न बना दिया है इसलिए बेवजह जिला अस्पतालों में आने का कोई मतलब नहीं है। इसी आपाधापी में अगस्त का महीना बीत गया और बुखार ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया।



सितंबर के महीने में एक बार फिर मौत की खबरें आनी शुरू हो गईं। ये अलग बात है कि बच्चों की मौतों की रोज-रोज आने वाली खबरें अभी न्यूज रूम की टी आर पी नीति की नजर में न चढ़ने के कारण अदृश्य पेजों पर हाशिए पर पड़ी थीं। ऐसे समय में हम भी अपनी कहानी में मौतों को दर्ज करने आठ सितंबर की सुबह गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कालेज पहुंचे। मेडिकल कालेज के एपिडेमिक वार्ड में जगह-जगह मरीजों के परिवार वाले भरे पड़े थे। कैमरामेन पंकज ने वार्ड का मुआयना किया और ट्राईपोड रख कर फ्रेम बनाने लगे। मई के महीने में यहां इक्का-दुक्का मरीज थे। अब पंकज के हर फ्रेम में कई मासूम बच्चे के चेहरे कैद हो रहे थे। हर बेड पर कम से कम दो-तीन बच्चे और उनका पस्त पड़ा परिवार। जूनियर डाक्टर जानता है कि इस बार तो टीका भी नहीं लगा है। इसलिए वे यही कह रहे थे कि मस्तिष्क ज्वर है। इस मस्तिष्क ज्वर का निदान कैसे होगा यह किसी के मस्तिष्क में नहीं था। सारे मस्तिष्क जैसे एक होनी को घटते हुए देखने के आदी हो चले थे।



वार्ड में भीड़ न हो इस समझ से मैं गलियारे की बेंच पर बैठ गया। बगल में बैठी नौजवान मुस्लिम औरत ने सुबकते हुए मुझसे कलम और कागज मांगा। उस पर उसने किसी का मोबाइल नंबर लिखा। उसका डेढ़ साल का बेटा भी यहां भरती था। कई हफ्ते उसे बीमारी समझने और अपने गांव-कसबे में ठोकर खाने में बीत गए। काश! मेरे पास कोई जादू होता और मैं मानवीय स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्रा जी से पूछता यह बिचारी किस अस्पताल में जाए। अनंत मिश्र जैसों के बच्चे सरकारी अस्पतालों में दाखिल नहीं होंगे और न ही उनके घर तक मच्छर पहुंच सकेंगे। तभी एक औरत अपनी बारह साल की अचेत बेटी को गोद में उठाए बदहवास आती दिखाई दी। कुशीनगर के बड़गांव टोला उर्मिला और शारदा प्रसाद की बेटी मधुमिता को पंद्रह अगस्त से दौरे पड़ने शुरू हो गए थे। गांव और कस्बे में इधर-उधर चक्कर लगाने में ही इस परिवार के हजारों रुपए खर्च हो गए। रोते-रोते उर्मिला ने बताया कि कैसे इस बीमारी ने पूरे परिवार को सड़क पर खड़ा कर दिया है। यह पूछने पर कि क्या उन्होंने अपनी बिटिया को टीके लगवाए थे- जवाब न में मिला।



मैं फिर उस मुस्लिम महिला के बगल में जा बैठा। अभी तक उसका फोन नहीं आया था लेकिन वार्ड की भयावहता से वह अपने डेढ़ साल के बेटे के भविष्य को लेकर परेशान थी और लगातार रो-रो कर हलकान हुए जा रही थी। स्वास्थ्य मंत्री के दावे को चुनौती देने के लिए एक समाचार एजेंसी की टीम भी वहां पहुंच चुकी थी। एजेंसी के रिपोर्टर की दुविधा थी कि उन्हें कोई भी डाक्टर आधिकारिक वक्तत्व नहीं दे रहा था। तब उन्होंने हमारे सहयोग के लिए आए गोरखपुर के पूर्व छात्र नेता व पत्रकार अशोक चौधरी को घेर लिया।



अशोक कुछ बोलते ही कि वार्ड के दूसरे कोने से गगन भेदती चीखों ने हमें हिला दिया। यह वार्ड के एक कमरे के बाहर से उठी आवाजें थी। ढाई साल के एक बच्चे ने दम तोड़ दिया था। बच्चे की मौत पर उसके परिवार वाले विलाप कर रहे थे। यह दूसरा बच्चा था जिसने उस दिन दिमागी बुखार से दम तोड़ा था। उस वार्ड में हर परिवार अपने ऊपर मंडरा रही मौत से आशंकित था। हम वार्ड के बाहर खड़े थे। थोड़ी देर बाद उस परिवार का मुखिया, संभवत उस नन्हें शिशु का दादा घुंघराले बालों वाले प्यारे शिशु को तेजी से लेकर बाहर निकला। उस नन्हें शिशु का सलोना चेहरा पूरे वार्ड को गहरी खामोशी और अवसाद में डुबा चुका था। हमने भी अपना ट्राईपौड समेटा और इमरजंसी वार्ड के पास आ गए। तभी उसी तीव्रता वाली चीख हैडफोन के जरिए मेरे कानों तक पुहंचा। दाहिनी तरफ नजर घुमाई तो वही मुसलिम महिला दहाड़ मारकर छाती पीट रही थी जिसने आधा घंटा पहले मुझे वार्ड के गलियारे में किसी परिचित का नंबर लिखने के लिए कलम और कागज मांगा था। हमारे फ्रेम में क्लोज अप में उसका आंसुओं से भरा चेहरा और हेडफोन पर अरे कोई मोर बेटवा के जिया दे... का करुण आतर्नाद था। राघव दास मेडिकल कालेज, गोरखपुर में अपनी फिल्म के लिए मौत की कहानी दर्ज करते हुए हमें सिर्फ तीस मिनट बीते थे और हम दो मौतों को देख चुके थे। अब उस आधी मौत के बारे में पता करने का हौसला मेरे अंदर नहीं बचा था जो बारह साल की लगभग विकलांग हो चुकी मधुमिता को बचाने में घरबार बेच कर कर्ज में डूब कर हासिल कर चुकी थी।



हम मेडिकल कालेज से लौट रहे हैं। गाड़ी गोरखपुर की भीड़ वाली सड़कों और बरसाती पानी के जमाव के बीच रास्ता बनाते हुए जा रही है। रेलवे स्टेशन पहुंचा तो एक पत्रकार दोस्त का संदेश मिला- बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में छह बच्चों की आज मौत हुई।



 संजय जोशी



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Monday, October 4, 2010

नेपाल के वर्तमान हालात



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य और उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल के सचिव डा0 गिरीश ने 17 से 21 सितंबर तक काठमांडू में संपन्न नेपाली कांग्रेस के कन्वेंशन में बतौर भाकपा प्रतिनिधि भाग लिया।






अपने पांच दिवसीय नेपाल प्रवास के दौरान उन्होंने नेपाली कांग्रेस के खुले अधिवेशन को संबोधित किया। नेपाली कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के अतिरिक्त उन्होंने नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री कामरेड माधव कुमार नेपाल, उप प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री सुजाता कोइराला, रक्षा मंत्री विद्या देवी भंडारी, पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं सीपीएन-यू.एम.एल के शीर्षस्थ नेता के.पी.एस.ओली के अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकारों, अधिवक्ताओं, उद्यमियों तथा समाज के विभिन्न तबकों के लोगों से भेंट की और विचारों का आदान प्रदान किया। प्रस्तुत लेख इसी अंतर्संवाद पर आधारित है।



- संपादक





लोकतांत्रिक नव निर्माण की राह पर है नेपाल



नेपाल अपने अब तक के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है। कुछ ही वर्ष पहले निरंकुश राजशाही के चंगुल से मुक्त हुये इस देश की जनता के समक्ष चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। चुनौती शांति स्थापित करने की है। चुनौती नेपाल को तरक्की और समता के रास्ते पर ले जाने वाले संविधान के निर्माण की है। चुनौती नेपाल के विकास और आत्मनिर्भरता की है। और बड़ी चुनौती है प्रधानमंत्री के चुनाव में पैदा हुये गतिरोध को तोड़ कर नये प्रधानमंत्री के चुनाव की।



लोकतंत्र की गहरी नींव पड़ चुकी है



गत वर्षों में नेपाल की जनता और वहां के राजनैतिक दलों ने अपने लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास व्यक्त किया है। इसकी जड़ में 23 नवंबर 2005 को सात संसदीय पार्टियों एवं माओवादियों के बीच हुआ समझौता है। 12 सूत्रीय यह समझौता नेपाल के लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसमें गैर हथियारी लोकतांत्रिक संघर्ष का संकल्प विहित है। यह जनता की सार्वभौमिकता एवं लोकतंत्र के लिये संघर्ष के संकल्प का वैध घोषणा पत्र है। इसी समझौते के परिणामस्वरूप अप्रैल 2006 में लाखों लोग सड़कों पर उतर आये और राजा को जी.पी. कोइराला को सत्ता सौंपनी पड़ी। नेपाल सदियों पुरानी राजशाही को अपदस्थ करने में कामयाब हुआ। 1 मई 10 को इस समझौते के विपरीत माओवादियों ने ‘सड़क विद्रोह’ की राह पकड़ी तो जनता ने विफल कर दिया।



यद्यपि 600 सदस्यीय संविधान सभा में आम जनता ने बहुदलीय लोकतंत्र के प्रति स्पष्ट जनादेश दिया लेकिन किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हुआ। संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी (यूसीपीएन-एम) को सबसे ज्यादा 238 सीटें मिलीं। नेपाली कांगेेस को 114 सीटें हासिल हुई। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-संयुक्त मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन-यू एमएल) को 109 सीटें, 82 सीटें मधेसी पार्टियों को तथा शेष कुछ अन्य दलों के खाते में र्गइं।



नेपाल के अंतरिम संविधान के अनुसार सरकार बनाने को आधे से अधिक बहुमत की जरूरत होती है। यानी कि 301 सदस्यों के बहुमत से ही प्रधानमंत्री चुना जा सकता है।



सरकार चुनने में खड़ा हुआ गतिरोध



संविधान सभा के चुनाव के बाद यू.सी.पी.एन-माओवादी पार्टी ने सत्ता संभाली और उसके नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमंत्री बने। लेकिन हथियार बन्द माओवादियों को नेपाली सेना में शामिल करने के सवाल पर सेना प्रमुख को हटाने के उनके फैसले पर उत्पन्न हुये गतिरोध के कारण उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी। तब नेपाली कांग्रेस, सी.पी.एन.-यू.एम.एल. एवं अन्य दलों के लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी जिसके प्रधानमंत्री सीपीएन-यू.एम.एल. के नेता माधव कुमार नेपाल बने। किसी कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री के नेतृत्व में वह भी एक केयर टेकर सरकार 17 माह से चल रही है और अभी तक नये प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं हो पाया है तो उसकी वजह है प्रमुख राजनैतिक दलों का आम सहमति अथवा बहुमत की स्थिति में न पहुंच पाना।



इस दरम्यान प्रधानमंत्री पद के लिये आठ बार निर्वाचन हो चुका है। आठवीं बार के चुनाव से पहले जो अभी 26 सितम्बर को ही संपन्न हुआ है, यू.सी.पी.एन.-एम. के नेता प्रचण्ड ने अपने को चुनाव से अलग कर लिया था और नेपाल कांग्रेस का भी आह्वान किया था कि वह भी अपने प्रत्याशी रामचन्द्र पौडल को चुनाव मैदान से हटा ले ताकि आम सहमति से नये प्रधानमंत्री के चुनाव का रास्ता साफ हो। सी.पी.एन.-यू.एम.एल ने चुनावों में तटस्थ रहने का निर्णय पहले ही ले रखा है अतएव आठवीं बार के चुनाव में भी नेपाली कांग्रेस के प्रत्याशी को बहुमत नहीं मिल सका। राजनैतिक दलों की ध्रुव प्रतिज्ञाओं के चलते प्रधानमंत्री पद के चुनाव का गतिरोध आज भी कायम है। बेशक नेपाली जनमानस इससे बेहद चिन्तित है और नेताओं की हठवादिताओं के प्रति जनाक्रोश स्पष्ट देखा जा सका है।



समाधान की राह आसान नहीं



लेकिन गतिरोध को समाप्त करने के लिये कई समाधान हवा में उछल रहे हैं। सबसे प्रमुख है - आम सहमति से प्रधानमंत्री चुनने के रास्ते खोजे जायें और जरूरी हो तो संविधान में संशोधन किया जाये। दूसरा - सीपीएन यू.एम.एल. और यू.सी.पी.एन. (माओवादी) मिलकर इसके लिये सहमति बना लें। तीसरा - यू.सी.पी.एन.-एम., मधेसी तथा अन्य दलों साथ लेकर 301 सदस्यों का बहुमत जुटा ले। बाद के दोनों समाधानों में माओवादी पहले ही असफल हो चुके हैं।



शांति प्रक्रिया जारी है



माओवादियों को नेपाली कांग्रेस और सी.पी.एन.-यू.एम.एल. तथा अन्य दलों द्वारा समर्थन न देने के पीछे माओवादियों द्वारा हथियार बंद संघर्ष की नीति का परित्याग न करना है जो शंाति प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। लगभग 20 हजार माओवादी लड़ाके जनमुक्ति सेना (पी.एल.ए.) और यंग कम्युनिस्ट लीग (वाई.सी.एल) नामक संगठनों के अंतर्गत काम कर रहे हैं और वे हथियार बंद हैं। वर्तमान में ये दोनों दस्ते संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति मिशन की देख रेख में बैरकों में रह रहे हैं मगर ये जब तक अपनी पुलिसिया कार-गुजारियों का प्रदर्शन करते रहते हैं। सरकार की ओर से उन्हें मासिक दस हजार नेपाली रुपए बतौर वेतन दिये जा रहे हैं। माओवादी इन्हें सेना में शामिल कराने का असफल प्रयास करते रहे हैं और आज भी दबाव बना रहे हैं। अन्य दल इसका विरोध करते आ रहे हैं और इन दलों के अनुसार शांति प्रक्रिया में यह सबसे बड़ी बाधा है।



अब हाल ही में केयर टेकर सरकार और माओवादियों के बीच पी.एल.ए. और वाई.सी.एल. के लड़ाकों के पुनर्वास के लिये एक चार सूत्रीय समझौता हुआ है जिसके तहत 14 जनवरी 2011 तक पीएलए माओवादियों के नियंत्रण से अलग हो जायेगी और 19602 माओवादी लड़ाके यू.सी.पी.एन.-एम की कमांड से बाहर आ जायेंगे। समझौते के तहत पीएलए. के निरीक्षण, कमांड, नियंत्रण और बनी आचार संहिता को लागू कराने के लिये छह दलों (जिसमें माओवादी शामिल हैं) की एक विशेष समिति गठित की गई है जिसने एक 12 सदस्यीय सैक्रेटरियेट का गठन किया है। इस विशेष समिति द्वारा जारी निर्देशों के तहत पी.एल.ए. लड़ाके सरकार के नियंत्रण में आ गये हैं। इस समस्या के समाधान से शांति प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।



बहुदलीय, धर्मनिरपेक्ष संविधान की ओर



बार-बार प्रधानमंत्री का चुनाव टलना और शांति प्रक्रिया में हो रहे विलंब के कारण संविधान निर्माण के काम में बाधा आ रही है और वह विलंबित हो रहा है। संविधान को 28 मई 2010 तक बन जाना चाहिये था। लेकिन अब यह समय सीमा बढ़ाकर मई 2011 कर दी गई है। विभिन्न दल इसके निर्माण में अवरोधों को लेकर भले ही एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हों लेकिन संविधान के मूल ढांचे और उद्देश्यों को लेकर एक व्यापक आम सहमति है। यह सहमति बहुदलीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समतामूलक समाज और सामाजिक न्याय के पक्ष में है। दशकों तक एक हिन्दू राजा के शासन में रहे नेपाल में धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाने का पक्ष इतना प्रबल है कि वहां नेपाली कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने पहुंचे भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष को प्रेस वार्ता में कहना पड़ा कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष संविधान के निर्माण पर कोई एतराज नहीं है।



रोड़े भी हैं राह में



प्रधानमंत्री के चुनाव में लगातार चल रहे गतिरोध, शांति प्रक्रिया की धीमी गति और संविधान के निर्माण में हो रही देरी से जनता में पैदा हो रहे आक्रोश को भुनाने के प्रयास भी शुरू हो गये हैं। राजावादी शक्तियां आपस में एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं। राजावादी चार पूर्व प्रधानमंत्री, हिन्दू राष्ट्र एवं संवैधानिक राजतंत्र के गुणगान में लगे हैं। धर्मनिरपेक्ष एवं कम्युनिस्ट पार्टियों की ताकत से खींझा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी वहां गतिविधियां बढ़ा रहा है। माओवादी यद्यपि शंाति, नये संविधान एवं राष्ट्रीय संप्रभुता की बात कर रहे हैं लेकिन यह भी चेतावनी दे रहे हैं कि यदि ये लक्ष्य कानूनी तरीके से हासिल नहीं होंगे तो राष्ट्रयुद्ध होगा। आपसी फूट के चलते मधेसी पार्टियां भी संविधान निर्माण के लिये दबाव नहीं बना पा रही हैं। नेपाल की जनता वैधता, प्रासंगिकता एवं सकारात्मक परिणाम चाहती है। शांति ही लोगों के सम्मान की गारंटी करेगी और संविधान उनकी आकांक्षाओं की पूति करेगा।



रिश्ते गहरे हैं भारत-नेपाल के बीच



भारत और नेपाल के बीच गहरे भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनयिक एवं आर्थिक रिश्ते हैं। यहां तक कि आज भी दोनों के बीच आवागमन के लिये पासपोर्ट एवं वीजा आवश्यक नहीं है। दोनों देशों में लगभग 3565 करोड़ रुपये का भारत-नेपाल आर्थिक सहयोग कार्यक्रम चल रहा है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में कार्यरत हैं। इसे और व्यापक बनाने की जरूरत है। वहां हाइड्रोपावर उत्पादन के क्षेत्र में सहयेाग का भारी स्केाप है। प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा को भी दोनों देश मिल कर काम कर सकते हैं। राजशाही नेपाली जनता को बरगलाने को भारत विरोधी दुष्प्रचार करती थी। आज भी कुछ अतिवादी ताकतें इसका सहारा लेती हैं। परन्तु नेपाली जनमानस भारतीय जनमानस के साथ प्रगाढ़ रिश्तों का हामी है। यहां तक कि हर नेपाली हिन्दी समझता है, पढ़ एवं बोल सकता है। भारत के टीवी चैनल घर-घर में देखे जाते हैं। परस्पर सहयोग और मैत्री की इस दास्तान को और आगे बढ़ाने की जरूरत है।



नौजवानों के सशक्तिकरण की जरूरत



नेपाल का नौजवान नये और समृद्ध नेपाल के लिये तत्पर है। वह रोजगार और शिक्षा जैसे सवालों पर काफी गंभीर है। नेपाली कांग्रेस के 12वें कन्वेंशन के समय आयोजित खुले अधिवेशन में नौजवानों का सागर उमड़ पड़ा था। 50 हजार से ऊपर उपस्थित जन समुदाय में 99 प्रतिशत उपस्थिति 18 से 40 साल के बीच उम्र के युवकों की थी। कन्वेंशन के लिये चुनकर आये 3100 प्रतिनिधियों में 38 प्रतिशत डेलीगेट नवयुवक थे। “नौजवान सकारात्मक बदलाव के वाहक हैं, इसलिये उन्हें ताकत दी जानी चाहिये” - एक नौजवान ने कहा। दूसरे ने कहा-“नेपाल को ब्रेन-ड्रेन से बचाने की नीति बनानी चाहिये। खाड़ी देशों और भारत तमाम नौजवान छोटे कामों के लिये जाते हैं। देश में ही रोजगार की योजना बनानी चाहिये।”



लंबे समय तक राजशाही और पंचायती सिस्टम के विरूद्ध जनांदोलनों के जरिये नेपाल की जनता ने आज यह मुकाम हासिल किया है। नेपाल के नेताओं और राजनैतिक पार्टियों को जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतराना होगा और अपने तात्कालिक निहित स्वार्थों से उबरना होगा। जनता के हितों के विपरीत चलने वालों को भविष्य में वही स्थान होगा जो पूर्ववर्ती राजाओं का बन चुका है। अतएव भविष्य की सच्चाइयों को पढ़ने और अमल में लाने में ही सभी की भलाई है।



- डा. गिरीश



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Saturday, October 2, 2010

अखिल भारतीय नौजवान सभा उत्तर प्रदेश इकाई का राज्य कन्वेंशन 23 सितम्बर को कानपुर में सम्पन्न

अखिल भारतीय नौजवान सभा की उत्तर प्रदेश इकाई का राज्य कन्वेंशन 23 सितम्बर 2010 को औद्योगिक शहर कानपुर में अत्यंत उत्साह एवं धूमधाम से सम्पन्न हुआ। कन्वेंशन मजदूरों के संघर्ष के ऐतिहासिक केन्द्र कानपुर मजदूर सभा भवन में किया गया। नौजवानों ने कन्वेंशन स्थल को झंडियों और झंडों से सजाया हुआ था। स्थानीय पुलिस ने 24 सितम्बर के आदेश का नाम लेकर कुछ व्यवधान करने की कोशिश की। नेताओं के बीच में पड़ने से फोर्स वहां से चली गयी।

उत्तर प्रदेश नौजवान सभा का यह कन्वेंशन अखिल भारतीय नौजवान सभा के नेतृत्व की भूमिका एवं उसके इस विश्वास से सम्पन्न हो पाया कि नौजवान सभा को प्रत्येक राज्य में और अधिक क्रियाशील करना है। इस उद्देश्य से केन्द्र के साथियों ने 5 एवं 18 अगस्त को लखनऊ में नौजवानों की बैठके कर तय किया कि एक राज्य स्तरीय कन्वेशन आयोजित किया जाये। ताकि उक्त कन्वेंशन के बाद उ.प्र. नौजवान सभा का सदस्यता के आधार पर नियमित राज्य सम्मेलन आहूत किया जा सके।

बैठक में विभिन्न जिलों से आये नौजवानों ने नौजवान सभा की कानपुर इकाई के निवेदन को स्वीकार किया और फैसला किया गया कि राज्य कन्वेंशन कानपुर में ही सम्पन्न करवाया जाये।

कन्वेश्ंान की तिथि आते-आते तीन महत्वपूर्ण कारणों 23 सितम्बर 2010 के कन्वेंशन में व्यवधान पैदा होने लगा। 24 सितम्बर 2010 को अयोध्या की बाबरी मस्जिद की टाइटिल डीड का फैसला, प्रदेश में पश्चिमी एवं पूर्वी जिलों में भयंकर बाढ़ तथा 23 सितम्बर 2010 से ही पंचायती चुनावों का नामांकन। इन तीनों कारणों से जिला-जिलों से आयोजकों के पास फोन आने लगे कि प्रतिनिधियों के आने में कठिनाइयां है। लेकिन कन्वेंशन को किसी भी हालत में स्थगित नहीं किया जा सकता था। कन्वेंशन में विभिन्न जिलों से आये लगभग 110 प्रतिनिधियों ने भागीदारी की।

कन्वेंशन का प्रारम्भ झण्डारोहण से किया गया। मजदूर सभा भवन के मैदान में एकत्रित नौजवानों और विशिष्ट अतिथियों की उपस्थिति में कानपुर के वयोवृद्ध कम्युनिस्ट नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का. हरबंश सिंह ने झण्डारोहण किया। इस अवसर पर उन्होंने कानपुर में एकत्रित नौजवानों और आयोजकों कोे कन्वेंशन आयोजित करने के लिये बधाई दी। उन्होंने नौजवानों का आह्वान किया कि वे जातिवाद और साम्प्रदायिकता से संघर्ष करने का संकल्प लें। उन्होंने कहा कि वर्ग विभाजन से जातियां बनी हैं। समाजवाद स्थापित होने से वर्ग विहीन समाज की रचना होगी और जातियों के बंटवारे की परिस्थितियां भी समाजवादी समाज में समाप्त होने की स्थितियां पैदा हो जायेंगी। उन्होंने नौजवानों का आह्वान किया कि वो रोजगार प्राप्त करने की मांग और पूंजीवादी समाज द्वारा जनित भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी संघर्ष करें।

झण्डारोहण के बाद कन्वेंशन विनय पाठक,  सुनील सिंह, रामचन्द्र्र भारती, रशिम पासवान, वीरेन्द्र सिंह, राजू, गीता सागर एवं विनीता राज के अध्यक्षमण्डल में कन्वेंशन की कार्यवाही प्रारम्भ हुई।

स्वागत समिति की ओर से साथी नीरज यादव ने स्वागत भाषण दिया। उन्होनंे स्वागत भाषण में कानपुर के एतिहासिक महत्व पर चर्चा की। उन्होंने कहा कानपुर अतीत से ही क्रान्तिकारी नौजवानों की गतिविधियों का केन्द्र रहा है।  उन्होंने आशा व्यक्त की कि यह कन्वेंशन उ.प्र. के नौजवानों को प्ररेणा देगा और संघर्षों का मार्ग प्रशस्त करेगा।

इस अवसर पर अखिल भारतीय नौजवान सभा के महामंत्री का. के. मुरुगन ने अपने ओजस्वी उद्घाटन भाषण में कहा कि नौजवान बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और सामाजिक, आर्थिक असमानता सेत्रस्त है। उनको इसके विरूद्ध संघर्ष करना है। उन्होंने कहा कानपुर क्रान्तिकारियों की भूमि है तथा 1857 से ही स्वतंत्रता आन्दोलन का केन्द्र रहा है। उन्होंने भगत सिंह का हवाला देते हुये कहा कि भगत सिंह ने नौजवान सभा की शुरूआत की थी। भगत सिंह ने कहा था कि नया समाज बनाना होगा। नौजवान सभा उसी रास्ते पर चल रही है। नौजवान सभा में ही सबसे पहले 18 वर्ष के मताधिकार की मांग बुलन्द की थी। नौजवान सभा ने शिक्षा के अधिकार और नौजवानों के रोजगार के लिये संघर्ष किया है। 1980 में नारा दिया था “काम दो या जेल दो”। दुनिया भर में भारत केवल में 55 वर्ष से कम के लोग सबसे अधिक हैं। उन्होंने कहा कि श्री मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों के कारण नौजवानों के साथ-साथ 85 प्रतिशत देश की जनता गरीबी में रह रही है। उन्होंने कहा इन सब समस्याओं के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन संगठित किया जायेगा और उस आन्दोलन की रूपरेखा नौजवान सभा के 28 सितम्बर से 1 अक्टूबर तक पंजाब में होने वाले 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन में बनाई जायेगी। उन्होंने अपने भाषण में उ.प्र. के साथियों को बधाई दी कि थोड़ी मुश्किल परिस्थितियों के बाद भी उन्होंने कन्वेंशन आयोजित किया। जिसमें नौजवान युवक और युवतियां उपस्थित रही।

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि कानपुर विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति डा. हेमलता स्वरूप ने नौजवानों को सम्बोधित और उत्साहित करते हुये कहा कि उन्हें सामाजिक असमानताओं के विरुद्ध संघर्ष करना होगा। शासक वर्ग की नीतियां नौजवानों को चारों तरफ से घेर रही है। बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा का अभाव, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार जैसे प्रश्नों पर नौजवानों को जम कर संघर्ष करना चाहिये। उन्होंने नौजवानों का आह्वान किया कि वो स्त्रियों के बराबरी के हक के लिये और उनके ऊपर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध भी संघर्ष करें। उन्होंने नौजवानों से पर्यावरण की रक्षा करने के संघर्ष में भी आगे आने को कहा। उन्होंने उ.प्र. के नौजवानों को बधाई दी और आशा व्यक्त की कि यह सम्मेलन उ.प्र. के नौजवानों को संगठित कर सही रास्ता दिखायेगा।

इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों के संदर्भों में नौजवानों को संघर्ष करने का आह्वान किया। उन्होंने अपन सम्बोधन में महंगाई, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता एवं नौजवानों के अधिकारों पर रोशनी डाली। उन्होंने ग्रामीण नौजवानों, किसानों के बेटे-बेटियों की तरफ भी ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने आश्वस्त किया कि नौजवान सभा के संघर्षों में भाकपा सदैव उनके साथ रहेगी।

कन्वेंशन को सम्बोधित करते हुये मजदूर नेता का. अरविन्द राज स्वरूप ने नौजवानों से कहा कि पूंजीवादी सामाजिक एवं आर्थिक नीतियां नौजवानों के अधिकारों को छीन रही हैं और क्रान्तिकारियों के आदर्शों से हटा कर नौजवानों को अपसंस्कृति की ओर धकेल रही हैं। नौजवानों को इन नीतियों का हर स्तर पर डट कर विरोध करना होगा।

कन्वेंशन के अन्त में उ.प्र. नौजवान सभा की सयोंजन समिति का गठन किया गया।
संयोजन समिति राष्ट्रीय अधिवेशन के बाद जिलों में सदस्यता अभियान चला कर नियमित राज्य सम्मेलन आहुत करवायेगी। संयोजन समिति में संयोजक - नीरज यादव (कानपुर), सह संयोजक विनय पाठक (जालौन) एवं मुन्नीलाल दिनकर (सोनभद्र) चुने गये। इसके अतिरिक्त समिति में रामचन्द्र भारती (मऊ), एलान सिंह (हाथरस), शशिकान्त (मऊ), सुनील सिंह (कानपुर), नूर मोहम्मद (मुजफ्फर नगर), चन्दन सिंह (झांसी), जयप्रकाश (मुरादाबाद), राजकरन (बरेली), राजू (सुल्तानपुर), लक्ष्मण (मथुरा), पंकज (संत कबीरनगर), पूरन लाल (फतेहपुर), नूर मोहम्मद (मथुरा), गीता सागर (कानपुर), मुन्ना (इलाहाबाद), शैलेंद्र (औरय्या), अरूणेश (आगरा) तथा जनार्दन राम (गाजीपुर) की 21 सदस्यीय समिति का गठन हुआ।

पंजाब के राष्ट्रीय सम्मेलन हेतु नीरज यादव, विनय पाठक, रामचन्द्र भारती, मुुन्नी लाल दिनकर, नूर मोहम्मद (मुजफ्फर नगर), राजकरन एवं एक युवक एवं एक युवती मथुरा से प्रतिनिधियों के रूप में सर्वसम्मति से चुने गये।

कन्वेंशन के अन्त में भाकपा के जिला मंत्री ओम प्रकाश आन्नद और सहायक मंत्री राम प्रसाद कन्नौजिया ने आगन्तुकों को धन्यवाद दिया। कन्वेंशन के समापन की घोषणा अध्यक्ष मण्डल की ओर से रामचन्द्र भारती ने की और आयोजकों और प्रतिनिधियों को धन्यवाद देते हुए कन्वेंशन की समाप्ति की घोषणा की।

- नीरज यादव

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

7 सितम्बर 2010 की राष्ट्रव्यापी हड़ताल जबरदस्त सफ़ल - दस करोड़ मजदूर हड़ताल में शामिल

आठ केन्द्रीय टेªड यूनियनों और कई स्वतंत्र फेडरेशनों के आह्वान पर संगठित एवं असंगठित क्षेत्र के दस करोड़ से भी अधिक मजदूर हड़ताल में शामिल हुए। उन्होंने प्रभावी तरीके से यूपीए-दो सरकार की जनविरोधी और मजदूर विरोधी नीतियों के विरूद्ध रोष व्यक्त किया। मजदूरों ने जबर्दस्त एवं अभूतपूर्व हड़ताल की। महानगरों में बैंकों से लेकर सड़कों पर चलने वाले थ्री-व्हीलर तक बंद रहे, जनजीवन ठप्प हो गया।



देश के मेहनतकश लोगों की इस जबरदस्त प्रतिक्रिया से उत्साहित टेªड यूनियन केन्द्रों ने सही ही घोषणा की है कि यदि सरकार मजदूर वर्ग की मांगों, खासतौर पर महंगाई रोकने के लिए समुचित कदम नहीं उठाती है तो मेहनतकश लोग और अध्ािक जोरदार कदम उठाने पर मजबूर होंगे।



देश की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने 7 सितंबर 2010 को मेहनतकश वर्ग की ज्वंलत मांगों के लिए हड़ताल की राष्ट्रव्यापी सफलता पर देश के मेहनतकश लोगों का हार्दिक अभिनंदन किया है। एक बयान में उन्होंने कहा है:



“देश की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें - इंटक, एटक, हिंद मजदूर सभा, सीटू, एआईयूटीयूसी, टीयूसीसी और यूटीयूसी महंगाई, श्रम कानूनों के उल्लंघन, सार्वजनिक क्षेत्र की मुनाफा कमाने वाली इकाइयों के विनिवेश, छंटनी, ले ऑफ और ठेकाकरण के विरुद्ध ऐतिहासिक हड़ताल के लिये देश के मेहनतकश लोगों का हार्दिक अभिनंदन करती हैं।”



”यह आम हड़ताल असंगठित मजदूरों- जो आज देश की श्रमशक्ति के 90 प्रतिशत से अधिक हैं- के लिए सामाजिक सुरक्षा के लिए पर्याप्त केन्द्रीय धनराशि की मांग के लिए भी थी।“



”अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में हड़ताल का असर पड़ा। ऐसा एक भी राज्य नहीं था जहां हड़ताल न हुई हो, यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में भी हड़ताल रही; बैंक बीमा और अन्य अनेक संस्थान बंद रहे। कोयला, बिजली, टेलीकम्युनिकेशन, पेट्रोलियम, डाकघरों, राज्य सरकारों के दफ्तरों, रक्षा, सड़क परिवहन, आंगनबाड़ी और निर्माण में लगे लाखों मजदूरों ने हड़ताल की। गांवों के असंगठित मजदूरों ने भी साहस के साथ हड़ताल के आह्वान पर व्यापक रूप में हड़ताल में हिस्सा लिया। देश भर में हजारों मजदूरों ने जुलूस निकाले, धरने दिये और महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन किये।“



“सभी मेट्रोपेालिटन शहरों पर हड़ताल का जबरदस्त असर पड़ा। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा मंे ही नहीं, असम, मेघालय, मणिपुर, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, छत्तीसगढ़, गोआ, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक एवं अन्य राज्यों में भी मजदूरों ने बढ़चढ़ कर हड़ताल में हिस्सा लिया।”



मजदूर वर्ग के बीच 63 वर्ष बाद हासिल की गयी एकता ने मजदूरों को हड़ताल पर जाने के लिए प्रेरित किया। सार्वजनिक क्षेत्र ही नहीं, निजी क्षेत्र में भी हड़ताल उल्लेखनीय तरीके से सफल रही। हमारे अनुमान के अनुसार, दस करोड़ से अधिक मजदूर हड़ताल में शामिल हुए। इस एकताबद्ध कार्रवाई के लिए मजदूरों का अभिनंदन करते हुए केन्द्र टेªड यूनियनें उनका आह्वान करती हैं कि यदि टेªड यूनियनों द्वारा उठाये गये मुद्दों को सरकार द्वारा सही तरीके से हल नहीं किया जाता है तो फरवरी 2011 के महीने में संसद को विशाल मार्च की तैयारी में जुट जाये।”



विभिन्न राज्यों से हड़ताल की प्रारंभिक रिपोर्ट अत्यंत उत्साहजनक हैंः



सभी केन्द्रीय टेªड यूनियनों (सिवाय भारतीय मजदूर संघ), औद्योगिक एवं स्वतंत्र फेडरेशनों द्वारा 7 सितंबर 2010 को राष्ट्रव्यापी हड़ताल के आह्वान पर सभी राज्यों, उद्योग के सभी क्षेत्रों, संगठित एवं असंगठित उद्योगों, राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के सभी कर्मचारियों, मजदूरों ने उत्साहपूर्वक हड़ताल में हिस्सा लेकर इस हड़ताल को एक ऐतिहासिक हड़ताल बना दिया।



हड़ताल के संबंध में क्षेत्रवार संक्षिप्त जानकारी

 बैंकिंग उद्योग



देश भर में बैंकों के कर्मचारियों और अधिकारियों ने अत्यधिक संगठित तरीके से हड़ताल में हिस्सा लिया।



बीमा उद्योग एवं अन्य वित्त क्षेत्र-बीमा कम्पनियों एवं वित क्षेत्र के विभिन्न संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारी शत-प्रतिशत हड़ताल पर रहे है।



कोयला मजदूर



देश भर में तमाम खान-खदानों में शत प्रतिशत कोयला मजदूर हड़ताल में शामिल हुए। अनेक खान क्षेत्रों में विशाल प्रदर्शन किए गये।



तेल-पेट्रोलियम उद्योग



लगभग तमाम रिफाइनरियों समेत ओएनजीसी, इंडियन ऑयल और अन्य तेल कंपनियों के कर्मचारियों ने अत्यंत सफल हड़ताल की। इससे स्वाभाविक ही था कि ट्रांसपोर्ट और एयरलाइंस जैसे अन्य क्षेत्रों पर भी असर पड़ा।



सड़क परिवहन



राजस्थान, पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, गोआ, पेप्सू ट्रांसपोर्ट, केरल, असम आदि राज्यों में सड़क परिवहन ठहर गया।



रक्षा क्षेत्र



आर्डनेंस फैक्टरियों में तमाम असैन्य कर्मचारियों, डीआरडीओ प्रयोगशालाओं और रक्षा कर्मचारियों ने आम हड़ताल में हिस्सा लिया। जिससे इस क्षेत्र मे काम ठप्प हो गया।



असंगठित क्षेत्र



सभी राज्यों में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों ने शानदार तरीके से हड़ताल में हिस्सा लिया। आंगनबाड़ी, घरेलू, मजदूर, मिड डे मील योजना, आशा, लाखें निर्माण मजदूर, बीडी मजदूर, ठेका मजदूरों आदि ने हड़ताल में हिस्सा लिया। सरकारी दफ्तरों पर पिकेटिंग की और प्रदर्शनों में हिस्सा लिया।



बिजली उद्योग



कई राज्यों में बिजली मजदूरों ने हजारों की संख्या में हड़ताल में हिस्सा लिया जिसका इसके संबंधित अन्य गतिविधियों पर असर पड़ा।



राज्य और केन्द्र सरकार के कर्मचारी



केरल, हरियाणा, राजस्थान, पं. बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गोआ, बिहार, असम आदि राज्यों के काफी संख्या में सरकारी कर्मचारी हड़ताल मंे शामिल हुए। डाकतार, इन्कम टैक्स विभाग एवं अन्य विभागों के कर्मचारी विभिन्न राज्यों में और हड़ताल मंे शामिल हुए।



टेली कम्युनिकेशन



टेलीकम्युनिकेशन (बीएसएनएल) के कर्मचारी कई राज्यों में हड़ताल पर गये क्योंकि उनकी यूनियनें हड़ताल के प्रयोजकों में से थी।



एडयापुर रामगढ़ औद्योगिक इलाके की 1500 छोटी कंपनियों ने हड़ताल की। भावंतपुर लाईम स्टोन, बैंकों, बीमा, बीएसएनएल मजदूरों ने हड़ताल की। केन्द्र एवं राज्य सरकार के 90 प्रतिशत कर्मचारी हड़ताल में शामिल हुए। बीएसएसआर के सेल्स सेक्टर के शतप्रतिशत कर्मचारी हड़ताल पर थे।



- आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Friday, October 1, 2010

बिहार में वाम समन्वय समिति द्वारा 16 से 22 अगस्त तक राज्यव्यापी अभियान - केन्द्र एवं राज्य सरकार की कारगुजारियों का भंडाफोड़

टीवी चैनलों पर एक फिल्मी गीत की यह पंक्ति बार-बार दुहरायी जा रही है: “सखि सइयां त खूबें कमात हैं, महंगाई डायन खाये जात है। ”इस एक पंक्ति में कमतोड़ महंगाई की पीड़ा उजागर होती है। महंगाई की एक अकेली हकीकत यह साबित करने के लिए काफी है कि यूपीए-दो और उनकी मुख्य पार्टी कांग्रेस का जनता के हित से कोई वास्ता नहीं रह गया है और मनमोहन सिंह सरकार की आर्थिक नीतियां जनविरोधी हैं।



दो साल में दूनी हुई कीमतें



हो सकता है कि आपने पिछले डेढ़-दो साल में कड़ी मेहनत करके अपनी कमाई सवाई या डेढ़ा बढ़ा ली हो। लेकिन इसी डेढ़-दो साल में भोजन और दूसरी जरूरी चीजों के दाम दूने हो गये। इस तरह महंगाई ने आपकी बढ़ी हुई कमाई तो छीन ही ली, पहले वाली कमाई में भी सेंधमारी कर ली।



गेहूं का दाम 7-8 किलो से बढ़ 14-15 रु. किलो, चावल 8-10 से बढ़कर 18-20 रु. किलो, डालडा, सरसो तेल आदि खाद्य तेलों के दाम 35-40 रु. से 80-90 रु. किलो। सब्जियों के दाम तो मौसम के अनुसार घटते-बढ़ते हैं। उनके दाम में भी मोटा-मोटी दूने की बढ़ोत्तरी। मांस-मछली-अंडा, दूध, चाय, चीनी आदि सब का यही हाल है। दवाओं के दाम तो इसी डेढ़-दो साल में दूना से भी ज्यादा बढ़ गये। क्या खाये, कैसे जीये आम आदमी?



बिहार में 90 फीसदी भूखे पेट



100 में से 10-15 परिवारों की आमदनी दूनी, तिगुनी या चार-पांचगुनी बढ़ी है। उनको महंगाई से परेशानी नहीं है। योजना आयोग की सुरेश तेंदुलकर कमेटी ने सर्वे करके बताया है कि हमारे देश में करोड़ो को भरपेट खाना नहीं मिलता। यह 2005 की रिपोर्ट हैं। आज की भीषण महंगाई में तो भूखे पेट सोने वाले की संख्या और भी बढ़ गयी है और तेंदुलकर कमेटी का यह आंकड़ा पूरे देश का औसत है जिनमें पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि जैसे अपेक्षाकृत संपन्न राज्य भी शामिल हैं। बिहार जैसे गरीब राज्य में तो 90 फीसद से ज्यादा लोग भूखे सोने या आधा पेट खाकर गुजर करने को मजबूर हैं।



तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 100 में से 55 परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। केन्द्र सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता आयोग (असंगठित क्षेत्र प्रतिष्ठान आयोग) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 78 फीसद लोग रोजाना 20 रु. या उससे कम खर्च से गुजर करते हैं। यह भी 2007 रिपोर्ट है। आज तो उनकी वास्तविक खपत घटकर रोजाना 10 रु. रह गयी है क्योंकि कीमतें दूनी हो गयीहैं। यह भी पूरे देश के लिए है। इस दृष्टि से भी बिहार का बुरा हाल है। इतने कम पैसे में ये गरीब क्या खायेंगे, क्या बच्चों को खिलाएंगे-पढ़ायेंगे, क्या इलाज कराऐंगे?



सरकार द्वारा थोपी गयी महंगाई



यह महंगाई डायन आयी कहां से? यह जानना बहुत जरूरी है। यह प्रकृति या ऊपर वाले की देन नहीं है। यह केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा आम आदमी पर थोपी गयी महंगाई है। महंगाई भी एक तरह का टैक्स है जो दिखायी नहीं देता। सामान खरीदते वक्त महंगाई के कारण आप जो फाजिल दाम देते हैं, वह किसके पास जाता है? वह जाता है मुनाफाखोर खुदरा व्यापारी के पास और उन बड़े पूंजीपतियों के पास जो नये जमाखोर बने हैं। वे खाद्य पदार्थोें और अन्य अनिवार्य वस्तुओं का जखीरा जमा करके ‘कामोडिटी सट्टा बाजार’ में इन जखीरों की सट्टेबाजी करते हैं। ये तमाम व्यापारी कीमतें बढ़ाकर जो नाजायज मुनाफा लूटते हैं, उसका एक हिस्सा सरकारी खजाने में टैक्स के रूप में जाता है। हरेक बिक्री पर केन्द्र और राज्य सरकार उत्पाद कर, पेशा कर, बिक्री कर, ‘वैट’ आदि के रूप में टैक्स उगाहती है- सो अलग।



केन्द्र और राज्य सरकार का सबसे बड़ा अपराध यह है कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ रहा है और गरीब लोग कुपोषण और भूखमरी के शिकार हो रहे हैं। 1970 के दशक में सरकार ने नीति बनायी थी कि खाद्य निगम किसानों से खाद्यान्न आदि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेगा और जन वितरण प्रणाली (राशन की दुकान) के जरिये सस्ती दर पर बेचेगा। खाद्य निगम को जो घाटा होगा, उसकी भरपाई के लिए सरकार ‘खाद्य सब्सिडी’ देगी। यह आम आदमी को महंगाई की मार से बचाने की एक कारगर नीति थी।



लेकिन 1991 में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने विदेशी महाजनों के दबाव में आकर उदारीकरण-निजीकरण -वैश्वीकरण की ‘नयी आर्थिक नीति’ अपनायी। डा. मनमोहन सिंह उस वक्त वित्तमंत्री थे। इस नीति के मुताबिक खाद्य सब्सिडी समेत तमाम सब्सिडियों में कटौती शुरू हुई। खाद्य सब्सिडी घटाने के लिए आम आदमी को ‘एपीएल’ और ‘बीपीएल’ में बांटा गया। सिर्फ बीपीएल को सस्ता राशन देने की नीति अपनायी गयी। गरीबी रेखा को नीचे गिराकर बीपीएल परिवारों की तादाद घटायी गयी। राज्यों को मिलने वाले अनाज का कोटा घटाया गया। बाद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की वाजपेयी सरकार आयी तो उसने इस नीति को और भी सख्ती से लागू किया।



नतीजा यह हुआ कि सरकारी गोदामों में अनाज का भारी जखीरा जमा हो गया। कानूनन 2.1 करोड़ टन जमा रखना था वहां 6 करोड़ टन जमा हो गया। रखने की जगह नहीं मिली तो आधे अनाज को खुले आसमान के नीचे तिरपाल से ढककर रखा गया। वाजपेयी सरकार के जमाने में दो लाख टन अनाज सड़ गया। यूपीए-2 की मौजूदा सरकार के शासन की ताजा खबर यह है कि 17,000 करोड़ रु. का अनाज सड़ गया, लेकिन इस सरकार ने 500 करोड़ रु. की खाद्य सब्सिडी बचाने के लिए यह अनाज राशन दुकानों के जरिये सस्ती दर पर बेचने के लिए राज्यों को जारी नहीं किया।



पेट्रोल-डीजल-किरासन की मूल्यवृद्धि



गत मई महीने में भोजन सामग्री की महंगाई 17 फीसद और आम चीजों की औसत महंगाई 10 फीसद की अभूतपूर्व तेजी से बढ़ रही थी। ऐसी हालत में केन्द्र सरकार ने 25 जून 2010 को पेट्रोन-डीजन-किरासन और रसोई गैस का दाम बढ़ाकर महंगाई की आग में घी डालने का काम किया। यह आम आदमी की जेब काटकर सरकारी और निजी तेल कंपनियों को खजाना भरने वाला कदम है। सरकार को मालूम है कि पेट्रोलियम पदार्थों का दाम बढ़ने से सभी चीजों के दाम बढ़ते हैं। तब भी यह कदम उठाकर केन्द्र सरकार ने महंगाई की मार से तड़पते आम आदमी के भूखे पेट पर लात मारी है।



यह सफेद झूठ है कि सरकारी तेल कंपनियों को घाटा हो रहा है अव्वल तो सरकार पेट्रोलियत पदार्थों पर भारी टैक्स लगाकर हर साल खरबों रुपये उगाहती है। दूसरे, ये कंपनियां हर साल सरकार को खरबों रु. लाभांश के रूप में देती हैं। इसके बावजूद इन कंपिनयों को हर साल मुनाफा हो रहा है।



दुष्टतापूर्ण दलीलें


केन्द्र सरकार की दुष्टतापूर्ण दलीलें उसके जन-विरोधी चरित्र को बेपर्दा कर रही हैं। दलील दी जा रही है कि तेजी से देश का विकास हो रहा है, इसलिए महंगाई बढ़ रही है। दूसरी दलील यह दी जा रही है महंगाई अच्छी है, क्योंकि इससे किसानों को लाभ हो रहा है। दोनों दलीलें बकवास हैं।



यह कैसा विकास है कि जिसमें करोड़ो लोग भूख से तड़पते हैं और 90 फीसद लोगोें को भरपेट खाना नहीं मिलता? संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में जितने भूखे लोग हैं, उनका एक चौथाई अकेले भारत में हैं। भारत के बिहार समेत आठ राज्यों की जनता की हालत दुनिया के सबसे गरीब अफ्रीकी देशों से भी बदतर है। खाद्यान्नों की महंगाई का लाभ भी किसानों को नहीं मिल रहा। व्यापारी उनका माल सस्ता खरीद कर और उपभोक्ता को महंगा बेचकर मालामाल हो रहे हैं। कृषि और किसान तो 15 साल से संकट में है। दो लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं।



हकीकत यह है कि सरकार महंगाई बढ़ाकर किसानों-मजदूरों और आम आदमी की कमाई छीन कर बड़े पूंजीपतियों का खजाना भर रही है। नतीजा यह है कि विकास, पूंजीपतियों का हो रहा है। एक ओर गरीबी बढ़ रही है, दूसरी ओर खरबपतियों की संख्या छलांग लगा रही है। देश के 52 खरबपति परिवारों ने देश की एक चौथाई दौलत पर कब्जा कर रखा है।



ऊपर की बातों से जाहिर है कि सरकार की जन-विरोधी नीतियों और सटोरियों-जमाखोरों-मुनाफाखोरों ने देश में भीषण खाद्य संकट पैदा कर दिया है और 90 फीसद लोगों को भोजन का अधिकार छीना जा रहा है। इसके लिए बिहार सरकार भी समाज रूप से जिम्मेदार है।



वामपक्ष के सुझावों को नहीं माना



महंगाई का मौजूदा दौर दिसंबर 2008 में शुरू हुआ। तभी से वामपंथ इसके खिलाफ लड़ रहा है। जुलाई 2008 तक संसद में यूपीए-एक की सरकार वामपक्ष के समर्थन पर निर्भर थी। तब तक महंगाई अपेक्षाकृत नियंत्रण में थी। उसके बाद सरकार वामपक्ष की लगाम से मुक्त हो गयी और महंगाई बढ़ने लगी। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और एनडीए के संयोजक शरद यादव ने भी एक टीवी कार्यक्रम में कहा कि वामपक्ष पर निर्भरता से मुक्त होने के बाद मनमोहन सिंह सरकार बेलगाम हो गयी, जिसकी वजह से महंगाई तेजी से बढ़ने लगी।



महंगाई को काबू में लाने के लिए वामपक्ष ने सरकार को सुझाव दिया किः



1. खाद्य पदार्थो और अनिवार्य वस्तुओं की सट्टेबाजी पर रोक लगायी जाये।



2. पेट्रोलियम पदार्थों का दाम हरगिज नहीं बढ़ाया जाये और अगर पेट्रोलियम कंपनियेां को राहत देनी ही है तो सरकार इन पदार्थों पर अपना टैक्स घटाये,



3. एपीएल-बीपीएल का विभाजन खत्म किया जाये, जनवितरण प्रणाली द्वारा सस्ते राशन की सप्लाई सबके लिए हो और केन्द्र सरकार राज्यों का राशन का कोटा बढ़ाये, दालें, खाद्य तेल आदि भी राशन में शामिल हों।



4. जमाखोरों के गोदामों पर बड़े पैमाने पर छापामारी की जाये और जमाखोरों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जाये।



5. जनवितरण प्रणाली में व्याप्त कालाबाजारी और भ्रष्टाचार को खत्म किया जाये और इस प्रणाली को महंगाई की मार से आम आदमी को बचाने का कारगर औजार बनाया जाये।



6. बीपीएल सूची में सुधार किया जाये ताकि कोई भी गरीब परिवार सूची के बाहर न रह जाये।



7. कृषि संकट का समाधान किया जाये ताकि कृषि पैदावार बढ़े और खाद्य संकट का समाधान हो।



लेकिन वामपक्ष के सुझावों को न केन्द्र सरकार ने माना, न राज्य सरकार ने। इसनिए महंगाई के खिलाफ, खाद्य संकट के समाधान के लिए और भोजन का अधिकार हासिल करने के लिए उपरोक्त मांगों केा लेकर आंदोलन चलाने के सिवा कोई चारा न था। वामपक्ष लगातार आंदोलन चलाता रहा है। मिसाल के लिए, पिछले चार महीनों में दो बार, वामपक्ष की पेशकदमी पर ‘भारत बंद’ हुए- 27 अप्रैल और 8 जुलाई को; और सभी टेªड यूनियनों के आह्वान पर 7 सितम्बर 2010 को देशव्यापी आम हड़ताल की गई।



नीतिश सरकार के काले कारनामे बाढ़-सुखाड़ की त्रासदी और लापरवाह सरकार



बिहार कृषि प्रधान राज्य है। लेकिन चिन्ता का विषय है कि यहां की कृषि अत्यंत पिछड़ी है। यहां के किसान हर साल बाढ़-सुखाड़ की त्रासदी झेलने के लिए अभिशप्त हैं।



पिछले साल सम्पूर्ण बिहार सुखाड़ से पीड़ित था। इस संबंध में वामपंथ ने राज्य सरकार को सुझाव दिए थे-



1. संपूर्ण बिहार को सूखा क्षेत्र घोषित किया जाये, लेकिन राज्य सरकार ने सिर्फ 26 जिलों को ही सूखाग्रस्त घोषित किया।



2. वामपंथ ने मांग की कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों की मालगुजारी माफ कर दी जाये। सभी किसानों के लिए संभव नहीं हो तो मध्यम, लघु और सीमांत किसानों की तो अवश्य ही। राज्य सरकार ने किसी भी किसान की मालगुजारी माफ नहीं की।



3. वामपंथ ने मांग की कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों के सभी तरह के ऋणों की वसूली स्थगित कर दी जायें और मध्यम, लघु और सीमान्त किसानों के ऋण माफ किए जाये। राज्य सरकार ने ऋण वसूली तो तत्काल स्थगित की, किन्तु ब्याज किसी का माफ नहीं किया।



4. वामपंथ ने मांग की कि सभी किसानों को सस्ती ब्याज दर (चार प्रतिशत) पर कृषि ऋण दिया जाय। सरकार ने ऐसा नहीं किया।



5. वामपंथ ने कहा कि राज्य में बंद पड़े सभी लगभग 6 हजार सरकारी नलकूपों को चालू कराया जाय ताकि सुखाड़ का मुकाबला किया जा सके। लेकिन राज्य सरकार ने सिर्फ 1719 नलकूप चालू करने का दावा किया।



6. वामपंथ ने कहा था कि सभी अधूरी परियोजनाओं को ूपरा किया जाये ताकि सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी मिल सके। लेकिन सरकार एक भी परियोजना पूरी नहीं कर सकी।



7. वामपंथ ने सुझाव दिया कि सोन नहर और अन्य नहरों की मरम्मत और उनका आधुनिकीकरण किया जाये। सरकार यह काम भी नहीं कर सकी।



8. वामपंथ ने सुझाव दिया सुखाड़ के कारण ग्रामीण बेराजगारी को दूर करने के लिए नरेगा कानून को शिथिल करते हुए काम चाहने वाले सभी मजदूरों को काम दिया जाये। सरएकार ने यह काम नहीं किया।



9. वामपंथ ने सुझाव दिया, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भुखमरी से राहत दिलाने के लिए सस्ती भोजन की दुकानें खोली जायें। सरकार ने इसे भी नहीं किया।



10. वामपंथ ने मांग की थी कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों में मवेशियों के लिए सस्ती दर पर चारा उपलब्ध कराया जाये। सरकार इस काम में भी विफल रही।



वामपंथ के उपर्युक्त सुझावों को अमल में नहीं लाने का परिणाम है कि आज फिर समूचार बिहार सुखाड़ की लौ में झुलस रहा है। इस साल सुखाड़ के कारण अभी तक 1200 सौ करोड़ रुपये का नुकसान किसानों को हो चुका है। राज्य सरकार ने सिर्फ 28 जिलों को सूखा क्षेत्र घोषित किया है। पर इन 28 जिलों में सरकार की ओर से कोई राहत कार्य नहीं चलाया जा रहा है।



बाढ़ की स्थिति बिहार में और ज्यादा भयानक है। हर साल बाढ़ के कारण यहां के किसानों की हजारों करोड़ रुपये की फसल बर्बाद होती है। सैकड़ों जानें जाती हैं। हजारों पशु पानी में बह जाते हैं। लाखों परिवार बेघर हो जाते हैं। अरबों अरब रुपये की सरकारी और गैर-सरकारी सम्पत्तियों की बर्बादी होती है। लेकिन सरकार की ओर से बाढ़-सुखाड़ के स्थायी निदान के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया जा रहा है।



अपने साढ़े चार साल की कार्य अवधि में नीतिश सरकार एक भी नयी चीनी मिल नहीं खोल सकी; और न ही किसी पुरानी चीनी मिल का जीर्णोद्वार करके फिर से चालू ही कर सकी। सरकार की इस कार्य अवधि में कृषि आधारित उद्योग बिल्कुल उपेक्षित पड़े रहे।



राज्य में बिजली की स्थिति अत्यंत ही खराब है। सरकार अब तक के कार्यकाल में बिजली की कोई नई इकाई खड़ी नहीं कर सकी और न ही बिजली का एक यूनिट भी अतिरिक्त पैदा कर सकी।



नीतिश सरकार अब तक के अपने कार्यकाल में अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए सारा दोष केन्द्र सरकार पर मढ़ती रही है। अभी सरकार ने 2 8 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया है। पर यह सरकार जनता को कोई राहत देने वाली नहीं है। उसने आठ हजार करोड़ रुपये की मांग केन्द्र सरकार से की है। मदद नहीं मिलने पर केन्द्र पर दोष मढ़कर हमले करने की यह नीतिश सरकार की पूर्व की तैयारी है।



अपराध रोकने का भी ढिंढोरा नीतिश सरकार पीट रही है। पर अब तक के अपने कार्यकाल में पुलिस के बर्ताव में यह सरकार ऐसा कोई बदलाव नहीं ला सकी है जिसमें एक संगठित अपराधकर्मी के रूप में पुलिस की छवि में सुधार हो सके।



हजारों करोड़ रुपये का महाघोटाला



लोगों में प्रचार किया जा रहा है कि बिहार में अभी सुशासन वाली सरकार चल रही है। लेकिन सरकार के काले कारनामों से साबित होता है कि यहां सुशासन वाली नहीं दुशासन की सरकार चल रही है। भारत के महालेखाकार एवं नियंत्रक की रिपोर्ट से यह उजागर हुआ कि 2002-03 से लेकर 2007-08 तक सरकारी खजाने से विभिन्न कार्यों के लिए 11,412 करोड़ रुपये निकाले गए जिसके खर्च का कोई हिसाब नहीं दिखाया गया। मामला हाईकोर्ट में भी गया। हाईकोर्ट ने सुनवाई करते हुए इस मामले की जांच सीबीआई से कराने का आदेश दिया। यह सरकर ‘चोर न सहे इंजोर’ वाली कहावत को चरितार्थ करने पर तुल गई। सरकार भी पटना हाईकोर्ट की जांच सीबीआई से न कराने की मांग हाईकोर्ट से की। अगर यह घोटाला नहीं है तो राज्य सरकार सीबीआई से जांच से क्यों घबरा रही है। ‘सांच को आंच क्या’ को चरितार्थ करने के लिए सरकार क्यों तैयारी नहीं हो रही? अनुमान किया जा रहा है कि 2010 तक लगभग 25 हजार करोड़ रुपये का हिसाब-किताब सरकार के पास नहीं है। सीबीआई की जांच के इस डर से फर्जी वाउचरों के आधार पर राज्य सरकार खर्चें का हिसाब-किताब महालेखाकार को देने का असफल प्रयास कर रही है।



इतना ही नहीं, ‘एक तो चोरी, दूसरे सीनाजोरी’ वाली कहावत को राज्य सरकार ने विधानमंडल के दोनों सदनों में बड़ी बेशर्मी से चरितार्थ कर दिखाया। इस घोटाले से

संबंधित मामले को जब विपक्ष ने सदन में उठाया तो सत्तापटल की ओर से उन पर जान-लेवा हमला हुआ। इन हमलों में राज्य सरकार के कई मंत्री भी शामिल हुए। दोनों सदनों में वह सब कुछ हुआ जो कभी देखा, सुना नहीं गया। सदन को यातनागृह बना दिया गया। विधानसभा में रातभर धरने पर बैठे विपक्षी सदस्यों को जो यातनाएं दी गई वह निन्दनीय तो हैं ही उसे संसदीय लोकतंत्र का कलयुगी चीरहरण भी कहा जा सकता है। यह सबकुछ मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और उपमंख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के इशारे पर और उनकी आंखों के सामने हुआ।



इसके पूर्व में भी एक घोटाला उजागर हुआ जिसे शराब घोटाला कहते हैं। तत्कालीन विभागीय मंत्री ने जब इस घोटाले की जांच निगरानी ब्यूरो से कराने की मांग की तो मुख्यमंत्री ने उन विभागीय मंत्री को ही मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। स्पष्ट है कि नीतिश कुमार की सरकार घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों की सरकार है।



वामंपथ ने मांग की है कि-



1. टेªजेरी महाघोटाले की जांच पटना उच्च न्यायलय की निगरानी में सीबीआई से करायी जाये।



2. मुख्यमंत्री सहित घोटाले में संबंधित सभी विभागों के मंत्रियों को बर्खास्त किया जाये।



3. इस घोटाले में नामजद आरोपियों के खिलाफ आर्थिक अपराध का मुकदमा चलाया जाये।



4. नामजद आरोपियों की सम्पत्तियों को जब्त किया जाये।



भूमि सुधार की दुश्मन सरकार



भूमि सुधार के मामले में नीतिश सरकार राज्य की पूर्ववर्ती सरकारों के नक्शे कदम पर चल रही है। पूर्व की राज्य सरकारें और वर्तमान राज्य सरकार भूमि सुधार की दुश्मन है। बिहार में अब तक भूमि सुधार संबंधी जो भी कानून बनाये गये या

भूमिसुधार लागू किया गया है वह सब वामपंथ के कठिन संघर्षों, बलिदानों और आम गरीबों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना का परिणाम है।



नीतिश सरकार ने शहरी भूहदबंदी कानून को निरस्त करके शुरू में ही भूमि सुधार विरोधी अपने चरित्र को उजागर कर दिया। आम लोगों को भरमाने और ठगने के लिए एक भूमि सुधार आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी अनुशंसाओं के साथ अपनी एक रिपोर्ट सरकार को दी। यह रिपोर्ट नीतिश सरकार के लिए एक कठिन परीक्षा बन गई। रिपोर्ट को लागू करने से मना करके इस सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह भूमाफियाओं, पूर्व-सामंतों और बड़े भूस्वामियों की चाकरी करने वाली सरकार है। इसने यह भी साबित कर दिया है कि भूमिहीनों, बटाईदारों और बेघरों की कोई परवाह इसे नहीं है।



वामपंथ मांग करता रहा है किः-



1. भूमि सुधार कानूनों को सख्ती से पालन किया जाये, लेकिन सरकारी नौकरशाह इन कानूनों का भीतरघात करते रहे हैं। सत्ता में बैठे रालनीतिज्ञ भी इन कानूनों का मखौल उड़ाते हैं।



2. भूहदबंदी कानून, भूदान कानून, आवासीय भूमि कानून आदि रहने के बावजूद बिहार में 20,95,000 एकड़ भूमि भूमाफियाओं, पूर्व-जमींदारों और बड़े भूस्वामियों के अवैध कब्जे में है। न उन्हें कानून की परवाह है और न सरकार ही उन कानूनों को लागू करने की इच्छुक है। आज भी 22 लाख परिवार भूमिहीन हैं। 5 लाख भूमिहीन परिवार बेघर है। सरकार को उनकी कोई चिन्ता नहीं है। बिहार में 30-35 प्रतिशत खेती बटाईदारी पर होती है। बटाईदारी, व्यवस्था राज्य की कृषि में बहुत पुरानी है। लेकिन वर्तमान में इस व्यवस्था को संचालित करने के लिए कोई भी कानून व्यवहार में नहीं है, जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले कानून से यह व्यवस्था चलायी जा रही है।



वामपंथी चाहते हैं कि:-



1. बिहार में सख्ती और ईमानदारी से भूमि सुधार किया जाये। भूमि

सुधार का भीतरघात करने वाले सरकारी अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाये।



2. बंद्योपाध्याय भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को शीघ्र लागू किया जाये।



3. प्रत्येक भूमिहीन परिवार को एक-एक एकड़ भूमि दी जाए।



4. प्रत्येक भूमिहीन बेघर परिवार को दस डिसमिल आवासीय भूमि दी जाये, भूदान की अवितरित जमीन को भूमिहीनों में बांटा जाये।



5. बेदखल पर्चाधारियों को उनकी जमीन पर कब्जा दिलाया जाये।



6. लम्बे काल से बसे हुए भूमिहीनों को उस जमीन का पर्चा दिया जाये।



7. अदालतों में लंबित भूमि सुधार संबंधी मामलों का शीघ्र निपटारा विशेष अदालत गठित कर किया जाए।



8. बटाई कृषि व्यवस्था में एक ऐसा कानून बनाया जाये जिसमें जमीन मालिकों और बटाईदारों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी हो।



नीतिश सरकार इन सुझावों में एक भी सुझाव मानने के लिए तैयार नहीं है। तब ऐसी सरकार को भूमि सुधार की दुश्मन नहीं तो और क्या कहा जाए।



महंगाई के मोर्चे पर सरकार विफल



महंगाई के मोर्चे पर भी बिहार की जदयू-भाजपा सरकार के भी काले कारनामे कोई कम नहीं हैं।



1. सरकार ने राज्य कर घटाकर महंगाई से राहत देने को कोई कदम नहीं उठाया (सिर्फ डीजल के भाव में किसानों को थोड़ी राहत दी जो कुछ ही किसानों को मिल सकी)।



2. अनिवार्य वस्तु कानून को हथियार बनाकर न तो जमाखोरों के गोदामों पर छापेमारी की, और न ही किसी जमाखोर को पकड़कर जेल में डाला।



3. महंगाई से राहत दिलाने वाले एक कारगर औजार जनवितरण प्रणाली को काला बाजारी और लूट का अखाड़ा बना दिया। यहां तक कि लाल कार्डधारी अत्यंत गरीबों और पीला कार्डधारी-बेसहारा लोगों को राशन को काला बाजार में बिकने दिया।



4. बीपीएल सूची बनाने में धांधली की खुली छूट दे दी। नतीजा यह हुआ कि नयी सूची में करीब एक तिहाई पुराने लाल कार्डधारियों के नाम गायब हैं जिसको लेकर हंगामा मचा है।



16-22 अगस्त अभियान



वामपंथ की स्पष्ट समझ है कि सशक्त जन आंदोलन से ही केन्द्र और राज्य सरकार को महंगाई पर लगाम लगाने, खाद्य संकट हल करने और सबको भोजन का अधिकार देने के लिए मजबूर किया जा सकता है और महंगाई से पीड़ित जनता की शिरकत से ही जन आंदोलन सशक्त होगा।



इसलिए वामपंक्ष (भाकपा, भाकपा {मा}, फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी) ने पूरे अगस्त महीने में देशव्यापी सघन अभियान चलाने का फैसला किया। बिहार में यह सघन अभियान 16 से 22 अगस्त तक चलाया गया। जिसके दौरान पूरे राज्य में नुक्कड़ सभाएं तथा छोटी-बड़ी सभाएं की गयी।

- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बिहार राज्य परिषद



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद



Thursday, September 30, 2010

आदिवासी स्वशासन के लिये समग्र एजेण्डा शांति अभी, न्याय अभी, अनुपालन अभी




“आदिवासियों का संकट और समाधान” विषय पर अखिल भारतीय आदिवासी महासभा द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में प्रस्तुत आधार पत्र:-



छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में विकास की समस्याओं पर आयोजित इस सेमिनार में हम छत्तीसगढ़ की विशिष्ट समस्याओं पर गहराई से चर्चा करना चाहेंगे। किन्तु छत्तीसगढ़ के साथ अन्य आदिवासी बहुलता वाले राज्यों में समस्याएं एक जैसी हैं। इसलिए हमें समग्र आदिवासी आन्दोलन निर्मित करने के लिए विचार करना होगा।



देश का आदिवासी समाज अपने लंबे इतिहास में सबसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है। कई प्रजातियों के मामले में यह ‘इतिहास का अंत’ साबित हो सकता है। यही नहीं, अगर यही हालत बनी रही तो विश्वव्यापी साम्राज्यवादी- पूंजीवादी हल्ले के सामने ‘ग्रामीण भारत’ भी बहुत दिनों तक नहीं टिक सकेगा। ग्रामीण भारत पर इस बढ़ते दबाव के चलते आदिवासी संकट और भी तेज होना समय की बात है। इसलिये हमें ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ के इस निर्णायक दौर में आदिवासी इलाकों पर अपना ध्यान ‘आज और अभी’ केन्द्रित करना होगा।



आजादी के बाद की विडंबना -



आदिवासियों और राज्य के बीच वर्चस्व का संघर्ष अंग्रेजी राज के समय से ही शुरू हो गया था। ताना भगत उसके सबसे उत्कृष्ट उदाहरण हैं। आजादी के बाद उसमें कुछ ठहराव आया। परन्तु 1960 के दशक बाद वह फिर तीखा होने लगा। वह धीरे-धीरे अब इतना व्यापक हो गया है कि आज शासक वर्ग उसे ‘आन्तरिक सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा’ मान रहा है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि उसी शासक वर्ग ने उनके संरक्षण के लिये औपचारिक रूप से संविधानिक प्रावधानों, कानूनों और नीतियों का अंबार जैसा लगा लिया है। इस नीतिगत ‘व्यवहार संपदा’ को दुनिया में कहीं भी ‘कानून के राज्य’ के प्रति आस्थावान देश के रूप में गर्व के साथ प्रदर्शित किया जा सकता है। परन्तु वहीं दूसरी ओर हमारा महान भारत देश ‘वायदा खिलाफी’ के ओलम्पिक आयोजन में ‘स्वर्ण पदक’ भी आनन-फानन जीत सकता है।



आज तक की कार्रवाई -



हमारे देश के अनेक संवेदनशील और संकल्पित लोगों ने आदिवासी इलाकों में अनगिनत मुद्दों में हस्तक्षेप किया है। उनसे लोगों को राहत भी मिली है। यही नहीं, कई बड़ी उपलब्धियां भी है जिन पर हमें गर्व है। तथापि अभी तक ये लाभ एकाकी और क्षणिक साबित हुये हैं। जागतिक साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतों के बढ़ते दबाव के चलते आदिवासी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था लगातार कमजोर होती जा रही है। इसी के चलते कई भोले-भाले आदिवासी समाज विनाश के कगार पर पहुंचते जा रहे हैं। इस विनाश लीला से तब तक बचना असंभव है जब तक ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ वाली स्थिति के गहराई से अहसास के साथ ‘समग्र आदिवासी आन्दोलन’ छेड़ा जाय। इस आन्दोलन में वायदा खिलाफी सहित व्यवस्था के सभी जन-विरोधी पहलुओं को शामिल किया जाय। उसी हालत में, और सिर्फ उसी हालत में राज्य को अपनी गलतियों और कु-कृत्यों को मंजूर करने के लिये मजबूर किया जा सकता है। उसी के साथ-साथ समय-समय पर किये गये ‘वायदों’ को नये संकल्प के साथ पूरा करना सुनिश्चित किया जा सकता है।



मुझे इस बात का पूरा अहसास है कि साम्राज्यवादी पूंजीवादी दुर्दान्त हमले के आज के दौर में मेरे इस प्रस्ताव को आदर्शवादी कह कर खारिज किया जा सकता है। फिर भी आज की चुनौती का मुकाबला करने के लिये किसी भी संघर्ष का पहला कदम यही हो सकता है कि उसके भुक्त-भोगी उस चुनौती के सही रूप को पहिचाने और उसका एक जुट होकर मुकाबला करने का अवसर पैदा करें। मुझे विश्वास है कि वायदा खिलाफी, संकटकालीन एजेंडा और ‘समग्र आदिवासी एजेण्डा’ की यह प्रस्तुति इसके लिये उपयुक्त अवसर प्रस्तुत करेगी।



आइये अब हम वायदा खिलाफी का विन्दुसार जायजा ले कर संकटकालीन एजेंडे पर नजर डालते हुए समग्र आदिवासी एजेण्डे पर विचार विमर्ष के लिए आगे बढे़।



1. वायदा खिलाफी: आदिवासियों केा दिये गये वायदे बार-बार टूटते रहे!



- सन् 1950 में भारतीय संविधान लागू हो गया परंतु आदिवासी परंपरा के लिये कानून में स्थान नहीं बनाया गया जिसमें ‘आदिवासी समाज’ कानून की नजर में ‘अपराधी’ को गया।



- ‘अनुसूचित क्षेत्र’ के रक्षा-कवच को पहले तो सन् 1960 में ‘जरूरी नहीं’ मान लिया गया। उसके बाद 1975 में उसकी पुनर्प्रतिष्ठा हुई। परन्तु 1980 के बाद उसे फिर भुला दिया गया।



- अनुच्छेद 275 (1) के परंतुक में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन को सुयोग्य बनाने के लिये जो संविधान संकल्प है, उन पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।



- ‘सजा के बतौर नियुक्ति’ के चलन के बने रहने से आदिवासी इलाकों में शंाति और सुशासन के लिये राज्य का संकल्प एक फरेब है।



- आदिम जन जातियों की हालत बद से बदतर होती गई है।



- साहूकारों और जमीन हड़पने वालों के नियंत्रण के लिये कानून और नीतियों के सही अमल के बिना आदिवासी इलाकों में उनका भारी दबदबा है।



- बंधुआ मजदूरी के खिलाफ 1975 में प्रभावी पहल के बाद आज हालत और भी गंभीर हैं।



- शराब के व्यवसाय से राज्य द्वारा आदिवासियों का सीधा शोषण 1974 की आबकारी नीति के चलते समाप्त हुआ। वही शोषण आज और भी बुरी तरह हावी है।



- लघुवनोपज पर, जो आदिवासियों की आजीविका का विशेष आधार है, समाज की मालिकी की तीन बार (1976, 1996 और 2006) घोषणाओं के बावजूद, व्यवहार में आज भी उनकी मालिकी सपने जैसी है।



- पेसा की संवैधानिक व्यवस्था, जिसमें स्व-शासन, स्वयं-सशक्तीकरण और संसाधनों पर स्वाधिकार की मूलभूत व्यवस्थाऐं हैं, आज तक सही तौर से लागू नहीं हुई हैं।



- उन कंपनियों ने, जो आदिवासियों के नैसर्गिक संसाधनों को हड़पने के लिये शिकारी की तरह आमादा हैं, कई इलाकों को तहस-नहस कर दिया है और उसे जारी रखने के लिये भी सरकारी ‘इकरारनामों’ की बाढ़ जैसी आ गई है। इसमें भूरिया समिति व उच्चतम न्यायालय के समता के मामले में निर्णय को नजर-अन्दाज कर दिया गया है।



वन अधिकार अधिनियम, 2006 में जमीन, लघुवनोपज और ग्राम सभा

संबंधी व्यापक अधिकारों की व्यवस्था होने के बावजूद उनका अमल न के बराबर है।



- हर बच्चे के अपने मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा के मौलिक अधिकार की अनदेखी होने से कई आदिवासी समाजों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।



- दण्डकारण्य विकास प्राधिकरण (1952) का मूल उद्देश्य आदिवासी- केन्द्रित क्षेत्रीय विकास था परंतु उसे शुरू आती दौर में ही भुला दिया गया।



2. संकटकालीन एजेंडा



- पेसा कानून के तहत जल-जंगल- जमीन और खनिज पर राज्य की प्रभुसत्ता की बजाय समाज की प्रभुसत्ता को स्थापित करना।



- सभी इकरारनामें (एम.ओ.यू.) तत्काल स्थगित हों। संसाधनों पर समाज के नैसर्गिक अधिकार में आस्था के साथ उन सबका पुनरावलोकन किया जाय।



- ग्राम सभाओं से परामर्श के उन सभी मामलों के निर्णयों का पुनरावलोकन कर खारिज किया जाय जहां हेरा-फेरी, जोर-जबरदस्ती या और किसी तरह का कोई गोलमाल हुआ हो।



- सजा के बतौर नियुक्तियों की समाप्ति, एक-रेखीय प्रशासनिक व्यवस्था और ‘पेसा’ की भावना के अनुरूप स्वशासी व्यवस्था सुनिश्चित हो।



- विकास खंडों, तालुक/तहसीलों या जिलों के सीमान्तों पर स्थित सभी आदिवासी इलाकों का प्रशासनिक पुनर्गठन हो।



- आज की घोर अराजकता के सही समाधान के लिये मैदानी हल्कों से लेकर सर्वोच्च स्तर तक स्पष्ट और खुले संवदेनशील व्यवस्था-तंत्र की स्थापना हो।



3. समग्र आदिवासी एजेण्डा: शांति अभी, न्याय अभी, अनुपालन अभी अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा के रूप में समाज द्वारा स्वयं सशक्तीकरण, संसाधनों पर समाज की प्रभुसत्ता और सामाजिक तथा व्यक्तिगत अधिकारों का प्रभावी संरक्षण ‘पेसा’ कानून के सार-तत्व हैं।



- ‘पेसा’ कानून के सभी प्रावधानों को आज और अभी स्वीकार किया जाय और भक्षक तत्वों को दूर किया जाय।



- आदिवासी उपयोजना में शामिल शेष आदिवासी इलाकों को तत्काल अनुसूचित किया जाये और उनके अलावा सभी राज्यों के अन्य आदिवासी इलाकों को एक साल में चिन्हित और अनुसूचित किया जाये।



- अपने कर्तव्यों के लिये ‘सक्षम’ ग्राम सभा सलाह तो किसी से भी कर सकती है परन्तु वह सरकारी नियमों के अधीन काम करने के लिये बाध्य नहीं है।



- अनुसूचित क्षेत्रों में समाज की प्रभुसत्ता के उसूल का पालन हो, जिसमें

संसाधनों के उपयोग पर आधारित उपक्रमों में समाज की मालिकी भी शामिल है।



- आबकारी नीति का पालन हो, संदिग्ध दायित्व खारिज हो, साहूकारी पर अंकुश लगे, बंधुआ व्यवस्था का सख्ती से निर्मूलन हो, अच्छा काम सम्मानित हो।



- पांचवी अनुसूची के तहत् ‘शांति और सुरक्षा’ के लिये संकल्पित पूरा प्रशासन ग्रामसभा के प्रति उत्तरदायी हो।



- सजा के बतौर नियुक्तियों की कुप्रथा समाप्त कर संघ सरकार अनुच्छेद 275 (1) के परंतुक के तहत अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन की वार्षिक समीक्षा कर उसे बेहतर बनाये।

- मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था तुरंत की जाय।



आर्थिक व्यवस्था पर प्रभावी अधिकार -



- ‘पेसा’ अधिनियम के तहत् सरकारी कार्यक्रमों सहित सभी आर्थिक

गतिविधियों की नियमित सामाजिक संपरीक्षा सुनिश्चित हो।



- लघु वनोपज पर मालिकी की व्यवस्था तुरंत प्रभावी हो, उसे इकट्ठा करनेवाले को पूरा-पूरा भाव मूल्य मिले, उसकी ढुलाई और अन्य व्यवसायिक खर्च सरकार वहन करे।



- हड़पी गई जमीनें वापिस हों, वनों पर ग्राम सभा के कानूनी अधिकारों पर अमल हो और वनीकरण में आदिवासियों को हिस्सेदार बनाया जाये।



- विलुप्त हो रही जनजातियों पर विशेष व्यक्तिगत ध्यान हो।



- विस्थापन नहीं होगा वरन् परियोजना की प्रकृति के अनुसार जैसे एकरेखीय, औद्योगिक या सिंचाई-बिजली, उनसे जुड़ी नई अर्थ-व्यवस्था में सम्मानपूर्ण स्थान सुनिश्चित हो।



एक श्रमिक के काम की हकदारी इस तरह तय की जाये जिससे ‘श्रमिक और उसके परिवार’ के लिये अच्छी जिन्दगी संभव हो।



आज सवाल है कि सरकार किसके साथ खड़ी है?



उधर आदिवासी के अधिकारों के मामले में माओवादी धीरे-धीरे उसके आगे निकल गये हैं। स्वाधिकार संपन्नता के बिना आदिवासी इलाकों के विकास की बात सिर्फ नौटंकी है।



पहली जीत



मेरा विश्वास है कि हमारी पहली जीत 24 जुलाई 2010 को सम्पन्न राष्ट्रीय विकास परिषद में हो गई है। उसके समापन सत्र में प्रधानमंत्री महोदय ने यह स्वीकार किया कि आदिवासी क्षेत्रों में ‘शांति और सुशासन’ की कुंजी ‘पेसा अधिनियम’ है। परंतु यहां पर मैं आगाह करना चाहूंगा कि अगर हम इस बावत सचेत नहीं रहे तो उनकी यह भंगिमा भी नौटंकी के प्रहसन जैसी हो जायेगी और ‘टूटे वायदों’ की आकाश गंगा में एक नई तारिका जैसी बन कर रह जायेगी।



आवाहन



आज आपकी इस सभा के माध्यम से मैं पूरे देश में सभी संवदेनशील मित्रों का आवाहन करना चाहूंगा कि आज तक के हर तरह के भेद भावों को भुला कर सच्चे अर्थाें में आदिवासी स्वशासन के इस अभियान में शामिल हों। यहां पर मैं पूरे विश्वास के साथ एक बात जोड़ना चाहूंगा कि आदिवासी इलाकों के संदर्भ में लोकतांत्रिक परंपरा की जो बुनियादी मान्यताएं ‘पेसा’ की संविधानिक व्यवस्था में उभरकर सामने आई है, वे सार्वभौम हैं। इसलिए आंदोलन देशव्यापी होना चाहिये। परंतु व्यवहारिक रणनीति के रूप में हमें इस संघर्ष की शुरूआत आदिवासी इलाकों में ही करना होगी जहां स्वशासन की परंपराए अभी भी जीवन्त और प्रभावी हैं।



आदिवासी इलाकों में आम लोग यदि एक बार साम्राज्यवादी ताकतों के सामने अपने ‘नैसर्गिक अधिकारों’ की पुनरस्थापना करने में सफल हो जाते हैं, तो वह विचार जंगल की आग की तरह तेजी से फैलेगा, उसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकेगी।



पहला राष्ट्रीय सम्मेलन



‘आदिवासी एजेंडा’ के बाबत हम साथियों की प्रतिक्रिया को ध्यान में रखकर प्रारंभिक बैठकंे सितम्बर महीने में कुछ क्षेत्रीय केन्द्रों पर करना चाहेंगे। मैं आपको यहां पर इस बात का ध्यान दिला दूं कि हमारे देश में कुल 9 राज्य ऐसे हैं जहां अनुसूचित क्षेत्र हैं। 6 राज्य और 2 संघीय क्षेत्र (यानि यूनियन टेरेटरी) ऐसे हैं जिनमें अनुसूचित जन जातियां तो हैं परन्तु अनुसूचित क्षेत्र नहीं हैं। उत्तर पूर्व के आदिवासी बहुल राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में आदिवासी बहुल इलाकों के लिये छठी अनुसूची की विशेष व्यवस्था है। उत्तर- पूर्व को छोड़ शेष राज्यों में प्रस्तावित क्षेत्रीय बैठकों के बाद हम अक्टूबर 2010 के अंत तक ‘आदिवासी एजेण्डा’ को पूरा करने के लिये कार्य-नीति तय करने के लिये एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करेंगे।



मुझे पूरा विश्वास है कि आज के सम्मेलन के सभी साथी हमारे इस आग्रह को स्वीकार करेंगे। मुुझे आपने अपनी बात रखने का अवसर दिया उसके लिये आप सबका और खास तौर से कामरेड चित्तरंजन बक्शी जी और मनीष कुन्जाम का आभारी हूं।



- ब्रह्मदेव शर्मा


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल

Saturday, September 25, 2010

आर्थिक सवालों को पृष्ठभूमि में न जाने दें!

इधर कुछ दिनों से साम्प्रदायिक ताकतें अयोध्या के जिन्न को फिर झाड़-पोछ रहीं हैं। एक बार फिर मन्दिर निर्माण के लिए लोगों को भड़काने का विश्व हिन्दू परिषद ने कार्यक्रम बनाया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की हाल ही में जोधपुर में सम्पन्न बैठक में इस कार्यक्रम को अंगीकृत किया गया है।

सोलह अगस्त से विहिप अयोध्या से हनुमान शक्ति जागरण अभियान छेड़ चुकी है। इस अभियान को देश के दो लाख गांवों में ले जाने की उसकी महत्वाकांक्षी योजना है। रथ यात्रा और राम शिला पूजन के बाद की यह उसकी सबसे व्यापक योजना है।

ये सब उस समय किया जा रहा है जब अयोध्या के विवादित स्थल के मालिकाना हक के मुकदमें का फैसला आने के करीब है। इस संभावित फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पूरे देश में तनाव बढ़ाने की कोशिशें चल रहीं हैं। विहिप और आरएसएस का इरादा यह है कि फैसला कुछ भी हो, उन्हें मन्दिर निर्माण के लिए हिन्दूओं को भड़काना और समाज में सद्भाव के वातावरण को दूषित करना है - यदि वे हारते हैं तो आस्था के नाम पर और जीतते हैं तो सर्वोच्च न्यायालय में अपील के खिलाफ एक उभार पैदा करके। उनके राजनीतिक हित बिना भड़कावे के पूरे नहीं हो सकते हैं।

आज पूरे देश की जनता महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही है। बाजार में खाद्यान्नों की कीमतें आसमान पर पहुंच जाने के बावजूद किसानों को उनकी फसलों का लाभप्रद मूल्य नहीं मिल पा रहा है। सरकार को महंगाई थामने की कोई चिन्ता नहीं है जिसके कारण महंगाई कुलांचे भर रही है। संगठित क्षेत्र में रोजगार कम होते जाने के कारण बेरोजगारी बढ़ रही है। अनौपचारिक क्षेत्रों में रोजगार चले जाने के कारण कहने को तो पूर्णकालिक रोजगार मिलता है परन्तु मिलने वाला वेतन या मजदूरी अर्द्धरोजगार से भी बदतर होती है। अपनी मेहनत से होने वाली कमाई पर निर्भर आम जन-मानस परेशान हाल है।

देश के जन-मानस में महंगाई और आर्थिक नीतियों के खिलाफ आक्रोश बढ़ रहा है। आन्दोलन खड़े हो रहे हैं। किसान जगह-जगह पर सड़कों पर आ रहे हैं। आर्थिक नीतियों और महंगाई के खिलाफ खड़े हो रहे आन्दोलन वर्गीय चेतना से लैस नहीं हैं परन्तु उनका आधार निश्चित रूप से वर्गीय ही है। कोई सरमायेदार अथवा भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा व्यक्ति इन आन्दोलनों में शिरकत नहीं कर रहा है।

केन्द्र एवं कई राज्यों में सत्तासीन कांग्रेस और उसके सहयोगी दल इन आन्दोलनों को भ्र्रमित कर उन्हें समाप्त करना और कुंठित कर देना चाहते हैं। भाजपा भी अच्छी तरह जानती है कि महंगाई एवं आर्थिक नीतियों के खिलाफ पनप रहा जनाक्रोश उसके हित में नहीं है क्योंकि वह भी उन्हीं आर्थिक नीतियों की पैरोकार है जिन्हें कांग्रेस चला रही है। उसका जनाधार सिकुड़ रहा है। अपने जनाधार को व्यापक करने के लिए आक्रोशित जनता का ध्यान आर्थिक मुद्दों से वह भी हटाना चाहती है।

साम्प्रदायिक या किसी अन्य संकीर्ण उभार की क्रिया और प्रतिक्रिया अंतोगत्वा वर्गीय आधार पर संघर्षों के लिए तैयार हो रही जनता की एकता को ही छिन्न-भिन्न करेंगे और उससे फायदा पूंजीवाद और पूंजीवाद के पैरोकार राजनीतिक दलों को ही होगा। इन तथ्यों के मद्देनजर हमें पूरी चौकसी रखनी है और साजिशों को पराजित कर महंगाई और अन्य आर्थिक मुद्दों पर संघर्षों को और तेज करना और उन्हें धार देना है।

- प्रदीप तिवारी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल

Tuesday, August 31, 2010

Women activist storm into the parliament demanding 33% reservation organised by NFIW and ANHAD

Women activist storm into the parliament demanding 33% reservation organised by NFIW and ANHAD over 30 women activist wearing specially designed aprons with image of parliament 33% women reservation written on the one side and on the other side slogan “Pass the Reservation Bill Now”. They storm the parliament house to protest against the UPA governments lack of political bill to pass the Women Reservation Bill in Lok Sabha. The protesting women surrounding by the police about 15 minutes of the protest arrested and taking to Parliament Street Police Station. Those who have been arrested include Annie Raja (General Secretary, NFIW), Nisha Sidhu, Shyamkali, Aruna Sinha, Deepti Bharati, Rekhana Begum from NFIW and Shabnam Hashmi , Seema Duhan, Priynanka Jaiswal, Sonam Gupta, Lakshmi, Manish Trivedi from ANHAD.


The arrested women are in Parliament Street Police Station Presently.

Monday, August 30, 2010

किसानों की उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण के खिलाफ भाकपा द्वारा प्रदेशव्यापी आन्दोलन

लखनऊ 30 अगस्त। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आह्वान पर आज पूरे प्रदेश के सभी जिला मुख्यालयों पर भाकपा कार्यकर्ताओं ने किसानों की उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण के खिलाफ जुलूस निकाले और धरना दिये।



गाजियाबाद, मेरठ एवं नोएडा में किसान मंच और महाराणा संग्राम सिंह किसान कल्याण समिति के कार्यकर्ताओं ने भी भाकपा कार्यकर्ताओं के साथ जुलूस और धरना में अपनी भारी सक्रिय भागीदारी दर्ज की।



प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को सम्बोधित ज्ञापन जिलाधिकारियों को दिये जिसमें उन्होंने तथाकथित विकास के नाम पर चल रही उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण की तमाम कार्यवाहियों को तत्काल निरस्त करने, विकास योजनाओं को गैर उपजाऊ जमीनों पर चलाने, भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में उचित बदलाव करने जिससे सरकार केवल अस्पताल, स्कूल जैसे जनोपयोगी उद्देश्य के लिए ही भूमि अधिग्रहण कर सके, दादरी आन्दोलन से लेकर आज तक भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चलाये गये आन्दोलनों में दर्ज मुकदमों को वापस लेने, गिरफ्तार किसानों को रिहा करने, आजादी के बाद से आज तक अधिगृहीत जिन जमीनों का मुआवजा आज तक नहीं दिया गया है, उसका मुआवजा वर्तमान बाजार-भाव पर करने तथा विवादों को निपटाने के लिए राज्य स्तरीय मुआवजा प्राधिकरण बनाने, बन्द हो चुके उद्योगों की जमीनों को किसानों को वापस करने की मांग की।



लखनऊ में भाकपा कार्यालय से जिला सचिव मो. खालिक के नेतृत्व में जुलूस निकाला जो शहीद स्मारक पहुंच कर धरने में परिवर्तित हो गया। प्रदर्शनकारियों को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं ने सरकार पर एक निजी व्यापारिक घराने को फायदा पहुंचाने के लिए औने-पौने दामों पर अंधाधुंध भूमि अधिग्रहण का आरोप लगाया। वक्ताओं ने कहा कि कांग्रेस एवं भाजपा उन आर्थिक नीतियों के जनक और पालनहार हैं जिसके अंतर्गत सरमायेदारों के लिए भूमि अधिग्रहण का खेल चलना शुरू हुआ है तो सपा ने अपने शासनकाल में अंबानी जैसों को फायदा पहुंचाने के लिए दादरी से भूमि अधिग्रहण का खेल शुरू किया था। अब किसानों को भ्रमित करने तथा किसानों के चल रहे आन्दोलन को पटरी से उतारने के लिए यह राजनैतिक दल किसानों के हितैषी बनने का नाटक खेल रहे हैं। वक्ताओं ने कहा कि दादरी हो अथवा किसानों का कोई अन्य भूमि आन्दोलन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा किसानों के साथ रही है और हमेशा रहेगी। वक्ताओं ने कहा कि सरकारों को खाद्य सुरक्षा, रोजगार सुरक्षा आदि को ध्यान में रखना चाहिए।



भाकपा राज्य कार्यालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में इस आन्दोलन को किसानों की विजय तक अनवरत पूरे प्रदेश में चलाने का संकल्प व्यक्त किया गया है।



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद