Saturday, June 29, 2013

असली माजरा क्या है?---डॉ गिरीश

पेट्रोल की कीमतें फिर बढ़ा दी गईं.जबसे पेट्रोल-डीजल की कीमतों को नियंत्रण से मुक्त किया गया है तब से यह सवाल बेमानी हो गया है कि इतनी जल्दी फिर बढ़ोत्तरी.इसी माह में यह तीसरी बढ़ोत्तरी है.पहले अन्तराष्ट्रीय बाज़ारों में कच्चे तेल की कीमतों में वृध्दि को बहाना बनाया जाता था,और अब रूपये के मूल्य में गिरावट को बहाना बनाया जा रहा है.बहाना कोई भी हो इस वृध्दि को भुगतना तो जनता को ही है .उस असहाय जनता को जो पहले से ही कमरतोड़ महंगाई की मार से त्रस्त है.
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जब भी डीजल या पेट्रोल के दाम बढ़ते हैं राज्य सरकारों को खुद ब खुद इसका लाभ पहुंचता है क्योंकि बढ़ी कीमतों पर स्वतः ही वेट (राज्य का कर )लग जाता है.कई राज्य सरकारों ने इन पर वेट में छूट दे रखी है और वहां की जनता को थोड़ी सी राहत मिली हुई है .लेकिन अपनी उत्तर प्रदेश की सरकार तो हर चीज के दाम बढाने में लगी है तो फिर इन पर ही वेट घटा कर अपनी नाक कैसे कटवा सकती है.शायद इसी लिए सपा ने केंद्र सरकार को समर्थन दे रखा है कि वे वहां बढ़ाते रहें और ये यहाँ उस पर बड़ा टेक्स बसूलते रहें.
एक बात और...दो दशक पहले एक आन्दोलन चल रहा था-मन्दिर निर्माण का .उसी के साथ-साथ वही ताकतें एक और आन्दोलन चला रहीं थीं-निजीकरण का. गला फाड़-फाड़ कर कहा जारहा था कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं,उद्योग चलाना नहीं.सब्सिडी देना नहीं,सार्वजनिक क्षेत्र के लोग काम नहीं करते और वे घाटे में हैं अतः सबका निजीकरण कर देना चाहिये .शायद मन्दिर आन्दोलन तो छतरी था,छुपा एजेंडा यही था.मन्दिर तो बना नहीं लेकिन शिक्षा इलाज उद्योग बैंक बीमा आदि सभी का निजीकरण हो गया और पेट्रोल डीजल गैस सभी नियन्त्रण मुक्त हो गये .अब इसके कुफल जनता भुगत रही है. लेकिन अभी भी बहुतों की समझ में नहीं आरहा कि असली माजरा क्या है?

Thursday, June 27, 2013

बिखरा राजग, अब संप्रग-2 की बारी

जैसे-जैसे लोक सभा चुनाव 2014 नजदीक आ रहे हैं, राष्ट्रीय राजनीति में नैसर्गिक रूप से एक नए ध्रुवीकरण की प्रक्रिया भी गति पकड़ रही है। जिस राजग में कभी भाजपा के साथ 23 और क्षेत्रीय दल हुआ करते थे, उसमें शुरू हुआ बिखराव एक तरह से अपने चरम पर पहुंच चुका है। सम्प्रति राजग में भाजपा के साथ केवल शिरोमणि अकाली दल और शिव सेना बचे हैं। मोदी के नाम पर शिव सेना भी आक्रामक रूख दिखा रही है, बात दीगर है कि उसे बाद में स्पष्टीकरण देकर नरम कर दिया जा रहा है। शिव सेना के मुखपत्र ‘सामना’ के सम्पादकीय में उत्तराखंड त्रासदी में मोदी के हवाले से किये गये इस दावे पर हमला किया गया था कि उन्होंने देहरादून जाकर उत्तराखंड में फंसे 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित निकाल कर गुजरात वापस पहुंचा दिया। वैसे तो यह दावा स्वयं में हास्यास्पद था परन्तु आम जनता पर उसकी प्रतिक्रिया कुछ दूसरी तरह की थी। लोगों को यह कहते सुना गया कि इसी तरह अगर अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी देहरादून जाकर अपने-अपने राज्य के पर्यटकों को निकाल लाते तो अच्छा होता। इसके मद्देनज़र इस दावे की हकीकत पर यहां गौर करना जरूरी हो जाता है।
मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मजबूत कैडर हैं, संघ ने बहुत कुछ हिटलर और मुसोलिनी से सीखा और हिटलर के गुरू का यह कहना था कि किसी झूठ को सौ बार बोलने पर वह सच लगने लगता है। इतिहास में हमने स्टोव बाबा और गणेश जी के दुग्धपान जैसे तमाम झूठों का सच देखा है। मोदी इस गुरूवाणी पर बहुत यकीन रखते हैं और उन्होंने मीडिया - इलेक्ट्रानिक, प्रिन्ट एवं सोशल को प्रभावित करने का एक शक्तिशाली तंत्र विकसित कर रखा है। मोदी उत्तराखंड एक चाटर्ड हवाई जहाज से जाते हैं, वहां वे 80 इनोवा कारों को किराए पर लेते हैं और उसके ठीक 24 घंटों के बाद 15,000 गुजरातियों को बचा कर गुजरात पहुंचाने का दावा कर दिया जाता है। प्राकृतिक विपदा से जहां इतनी बड़ी विभीषिका आई हुई हो, रास्ते बंद हों, 10 दिन से अधिक का समय बीत जाने पर भी सेना हेलीकाप्टरों से लोगों को निकाल नहीं पाई है, वहां 80 इनोवा 24 घंटों में कैसे 15,000 गुजरातियों को गुजरात पहुंचा देती हैं, इसकी मीमांसा हम सुधी पाठकों पर छोड़ देते हैं। वे खुद तय कर लें कि मोदी से बड़ा मक्कार राजनीतिज्ञ हिन्दुस्तान में कोई दूसरा नहीं होगा। इसी के साथ हम अपने मूल विषय पर लौट चलते हैं।
राजग के विघटन के बाद क्या? यह एक सवाल है, जिस पर आज-कल हर आदमी बात करना चाहता है। क्या संप्रग-2 मजबूत हो रहा है? क्या तमाम घपले-घोटालों और महंगाई के बावजूद संप्रग-2 फिर एक बार सत्ता की ओर लौट रहा है? वैसे तो संप्रग-2 का विकल्प राजग नहीं था क्योंकि दोनों की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है। जनता जो बदलाव चाहती है वह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के रास्ते आने वाला नहीं है। भाजपा खुद अपनी दुर्गति का एहसास कर छटपटा रही थी और इसी छटपटाहट में उसने मोदी का कार्ड खेलने की कोशिश की। यहां स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है कि गुजरात गुजरात है, महाराष्ट्र महाराष्ट्र है और तमिलनाडु तमिलनाडु है। इन राज्यों में जो राजनीतिक युक्तियां कामयाब हो जाती हैं, वे पूरे हिन्दुस्तान में कामयाब हो ही नहीं सकती हैं। आडवाणी और नितीश की छटपटाहट के पीछे यही सत्य था, जिसे भाजपा अपनी छटपटाहट में देखना ही नहीं चाहती क्योंकि ऊपर यानी संघ के आदेश हैं।
संप्रग-2 आसन्न लोकसभा चुनावों में विजय प्राप्त करेगी, ऐसा तो वर्तमान हालातों में लगता नहीं है। जनता में भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से को शान्त करने का सरमायेदारों ने जो गैर-राजनीतिक तरीका यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल कानून का आन्दोलन चलाया था, उसका असर एक बार फिर समाप्त हो रहा है। जनता में गुस्सा पनप रहा है। जब गुस्सा पनप रहा है तो वह कहीं तो कहीं निकलेगा ही और अगर चुनाव सामान्य परिस्थितियों में हो जाते हैं, तो संप्रग-2 का सत्ता में वापस आना नामुमकिन लगता है।
संप्रग-2 में भी इस समय कुल 24 दल हैं। कुछ अन्दर तक शामिल हैं तो कुछ बाहर बैठ कर सहारा दिये हुये हैं। कोई मंत्री बन कर सहारा दिये हुये है तो कोई सीबीआई के खौफ से सहारा दिये हुये है। काठ की हांड़ी के नीचे जल रही आग ने हाड़ी के अधिसंख्यक हिस्से को जला दिया है। संप्रग-2 एक डूबता हुआ जहाज है और राजनीति में डूबते हुए जहाज से पहले चूहे भागते हैं और एक बार जो भगदड़ शुरू होती है तो रूकने का नाम नहीं लेती। देखना दिलचस्प होगा कि यह भगदड़ कब शुरू होती है - चुनावों के कितना पहले? कांग्रेसी बहुत खुश हैं कि वे 24 हैं लेकिन उनकी खुशी जल्दी ही काफूर होने वाली है। जमाना था जब राजग में 24 दल थे और इतिहास में यही लिखा जाने वाला है कि संप्रग-2 में 24 दल थे।
किसी मोर्चे के रूप में चुनावों के पूर्व कोई विकल्प उभर सकेगा ऐसा नहीं लगता है परन्तु वामपंथ को अपने इतिहास से सबक लेते हुए बहुत संभल-संभल कर चलना होगा। पहली बात, उसे अपनी वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की स्पष्ट व्याख्या करनी होगी। जब तक यह अंक आम जनता तक पहुंचेगा, 1 जुलाई को दिल्ली सम्मेलन में वामपंथ उस वैकल्पिक नीति को पेश कर चुका होगा और उसी के इर्द-गिर्द एक सैद्धान्तिक मोर्चा खड़ा करने की शुरूआत करेगा। जनता ऐसे आर्थिक-राजनैतिक विकल्प के इर्द-गिर्द लामबंद हो सकती है। दूसरे उसे पिछले चुनावों की अपेक्षा अपने अधिक उम्मीदवार देने का प्रयास करना चाहिए और अधिक से अधिक सीटों को जीतने के लिए लड़ना चाहिए जिससे वह अपने पिछले आकड़े 60 के आगे निकल सके। 60 से आगे निकलने का मतलब होगा कि चुनाव पश्चात् होने वाले ध्रुवीकरण का केन्द्र यानी न्यूक्लियस वामपंथ होगा न कि कोई अन्य क्षेत्रीय दल। वामपंथी कतारों को भी अभी से ही जुट जाना चाहिए। यह वक्त धन इकट्ठा करने का है, जनता को लामबंद करने का है और जनता के गुस्से को धार देने का है। उन्हें इस समय इसी मुहिम पर जुटना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी, 23 जून 2013

वामपंथी लोकतान्त्रिक विकल्प ---डॉ.गिरीश

लखनऊ-27  जून-मुद्दाविहीन,जाति-पांति और सांप्रदायिकता पर आधारित राजनीति के दुर्ग को तोड़ कर मुद्दों तथा कार्यक्रमों पर आधारित राजनीति को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से वामपंथी दल 1  जुलाई को दिल्ली के मावलंकर हाल में एक संयुक्त 'कन्वेंशन' आयोजित करने जा रहे हैं। कन्वेंशन को वामदलों के शीर्षस्थ नेता संबोधित करेंगे।  उपर्युक्त जानकारी देते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य एवं राज्य सचिव डॉ.गिरीश ने बताया कि कन्वेंशन में वामदल एक 'जन कार्यक्रम'पेश करेंगे.यह कार्यक्रम आर्थिक नव उदारवाद की उन नीतियों का विकल्प होगा जिनके चलते विकासदर घट कर 5  के अंक के नीचे पहुंच गई है,डालर के मुकाबले रुपया 60  के ऊपर पहुंच चुका है,रोजगारों में भारी कटौती हुई है,महंगाई ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं,गरीबी और अमीरी के बीच खाई लगातार चौड़ी होरही है और भ्रष्टाचार सारी सीमायें लांघ चुका ह। .जनता के हित में बने इस कार्यक्रम को लेकर आन्दोलन खड़े किये जायेंगे और आंदोलनों में अधिक से अधिक जनवादी शक्तियों को भागीदार बनाने का प्रयास किया जायेगा।  डॉ.गिरीश ने कहा कि लोकसभा चुनाव ज्यों-ज्यों निकट आ रहे हैं पूंजीवादी दलों में नये-नये मोर्चे खड़े करने की आतुरता दिखाई दे रही है। पर पूर्व में ऐसे सभी मोर्चे इसलिए विफल होगये क्योंकि वे नीतियों तथा कार्यक्रमों पर आधारित न होकर कांग्रेस और भाजपा के विरोध के नाम पर बने थे। भाकपा और वामदल ऐसे किसी नीति विहीन जमाबड़े के पक्ष में नहीं हैं। उन्होंने कहा कि भाकपा वामपंथी लोकतान्त्रिक विकल्प बनाना चाहती है और उसकी स्पष्ट राय है कि यह विकल्प जनमुद्दों पर छोटे-बड़े तमाम संघर्षों के आधार पर ही विकसित होगा.'दिल्ली कन्वेंशन'इस दिशा में एक ठोस पहलकदमी साबित होगा।

Sunday, June 23, 2013

जनता के आर्थिक सहयोग से काम चलाती है भाकपा

कल एक मित्र ने आश्चर्य व्यक्त किया कि ये वामपंथी दल सुचना के अधिकार के अधीन आने का विरोध क्यों कर रहे हैं ? उनकी इस जिज्ञासा का स्वागत करते हुए कहना चाहूँगा कि वामपंथी दल अपना लेखा जोखा देने से नहीं कतरा रहे . अपितु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तो हर वर्ष न केवल अपना लेखा-जोखा आयकर विभाग के सामने प्रस्तुत करती है अपितु आय-व्यय का ऑडिट भी कराती है . वह इस लिए भी निश्चिन्त हैकि पूंजीवादी दलों की तरह वह ...कार्पोरेट घरानों से धन नहीं लेती . भाकपा जनता की पार्टी है और जनता के दिए धन से अपने क्रिया-कलाप चलाती है . पार्टी का हर सदस्य अपनी आय का एक भाग पार्टी को नियमित तौर पर देता है . इसके अतिरिक्त कुछ पार्टी हमदर्द भी हैं जो समय समय पर मदद करते हैं .अतएव लेख-जोखा देने में पार्टी को कोई आपत्ति नहीं .
लेकिन सूचना के अधिकार के तहत पार्टियों के आजाने के बाद तो पार्टी की अंदरूनी बहसें , प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया आदि भी उसे मुहय्या करनी पड़ सकती हैं और इसका लाभ धनाढ्य पार्टियाँ उठा सकती हैं . दुसरे पार्टी का ताना-बाना देश भर में फैला है और इसका प्रमुख काम शोषित पीड़ित जनता के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करना है .इन संघर्षों के लिए स्थानीय जनता ही फण्ड इकठ्ठा करती है और आन्दोलन में मदद करती है . इस सबका लेखा-जोखा रखना न तो संभव है न ही व्यावहारिक . इसकी अधिकतर जिला कमेटियां एवं राज्य कमेटियां हमेशा आर्थिक अभाव से जूझती रहती हैं . उनके लिए हर सुचना मुहय्या कराने हेतु स्टाफ रख पाना भी तब तक संभव नही जब तक वे अन्य दलों की तरह लूट-खसोट मचा कर अपनी तिजोरी न भर लें .
एक मित्र ने ये भी सवाल उठाया की उन पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं . विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा कि भाकपा की पहली सरकार काम.अच्युत मेनन के नेत्रत्व में १९५७ में केरल में बनी थी . आज पूरा देश जानता है कि काम.मेनन और उनके मंत्रियों काम. मेनन और उनके मंत्रियों पर कोई दाग नहीं लगा .संयुक्त मोर्चे की सरकार में हमारे दोनों मंत्रियों गृहमंत्री का.इन्द्रजीत गुप्त और काम.चतुरानन मिश्रा की ईमानदारी और कार्य पध्दति की आज तक चर्चा होती है.दो-दो बार केंद्र सरकार को हमने बाहर से समर्थन दिया .कोई लें-दें का आरोप नहीं लगा .कई राज्य सरकारों में पार्टी भागीदार बनी. सब जगह बेदाग रही.

Saturday, June 22, 2013

नेताओं की अवांछित सुरक्षा समाप्त की जाये.

लखनऊ २२ जून २०१३. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की है कि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं को मिली सुरक्षा के सम्बन्ध में श्वेत पत्र जारी करे.
    यहाँ जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डॉ गिरीश ने कहा कि नेताओं की सुरक्षा के नाम पर जनता की गाढ़े पसीने की कमाई का भारी अपव्यय हो रहा है. आजकल लोग धन कमाने को राजनीति में आ रहे हैं और ज्यादा धन कमाने के लिए तमाम नाजायज कामों में लिप्त हैं. इसके लिए वे सरकारी सुरक्षा कवच का बेजा स्तेमाल करते हैं.
    इतना ही नहीं सुरक्षा कवच हासिल करने के लिए अपने ऊपर हमलों और धमकियों की तमाम फर्जी वारदातें कराते हैं और उसके आधार पर न्यायालय से सुरक्षा के लिए आदेश कराने में कामयाब हो जाते हैं. सत्ता पक्ष की लचर पैरवी के कारण भी यह सब आसानी से हो जाता है.
    यहाँ यह सवाल खड़ा होता है कि यदि वे जन सेवक अथवा जन नेता हैं तो उन्हें सुरक्षा की क्या ज़रुरत है?लेकिन वे माफियागीरी में लिप्त रहते हैं और इसी प्रतिद्वन्दिता में उन्हें सुरक्षा की चिंता लगी रहती है. डॉ गिरीश ने कहा कि भाकपा और वामपंथ के सभी नेता पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, भ्रष्टाचारी नौकरशाही और माफियाओं से हमेशा संघर्ष करते हैं लेकिन इनमें से कोइ सुरक्षा लेकर नहीं चलता. सामान्य तौर पर जनता के हितों के लिए लड़ने वालों की रक्षा भी जनता करती है.
    डॉ गिरीश ने कहा कि अपने श्वेत पत्र में राज्य सरकार स्पष्ट करे कि किस नेता को किस्से खतरा है और क्यों? सुरक्षा पाने को गढ़े गए फर्जी मामलों की सच्चाई उजागर की जायेऔर फिर इस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय से आदेश प्राप्त किया जाए कि ऐसे लोग अपनी सुरक्षा का खुद इंतजाम करें.

  

Friday, June 21, 2013

धन कमाने को सरकारी सुरक्षा का स्तेमाल करते हैं नेता और माफिया

पहले धन कमाओ और धन के बल पर राजनीति करो ! फिर राजनीति से हासिल दबंगई के बल पर और दौलत लूटो. इस लूट के लिए दबदबा जरूरी है. दबदबे के लिए सरकारी सुरक्षा जरूरी है. उसे किसी भी कीमत पर हासिल करो.जनता के गाड़े पसीने की कमाई से चलने वाले सुरक्षाबलों की संरक्षा में फिर लूट मचाओ .यही क्रिया बन गयी है आज नेता वेशधारी माफियाओं की.
सुरक्षा हासिल करने के लिए अपनाये जाने वाले हथकंडे भी नायब हैं.इसके लिए फर्जी धम...कियों से लेकर फर्जी हमले प्रायोजित कराये जाते हैं.सरकार फिर भी सुरक्षा न दे तो बड़ी से बड़ी पंचायत में दस्तक दी जाती है . बड़ी पंचायत फटकार लगाती है कि आप अपनी निजी सुरक्षा क्यों नहीं रखते,लेकिन छोटी पंचायत बिना लिहाज किये आँख मूँद कर सुरक्षा दिए जाने का आदेश कर देती है.सरकार को इन सारे कथित असुरक्षित मफियायों पर एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिये कि आखिर इन्हें किससे खतरा है और क्यों? नहीँ तो मानना ही पड़ेगा की अंधायुग आगया है

डॉ.गिरीश

Thursday, June 20, 2013

रक्षा संपदा पर भू-माफियाओं द्वारा किये गए कब्जों को हटाया जाए


लखनऊ २०जून २०१३ . भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डॉ गिरीश ने रक्षा मंत्री एवं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मांग की है कि वे गाज़ियाबाद में करोड़ों की रक्षा संपदा पर भू-माफियाओं द्वारा किये गए कब्जों की जांच सी. बी.आई.से कराएं तथा इसे कब्जा मुक्त कराने हेतु तत्काल कार्यवाही करें.
       दोनों को लिखे पत्र में भाकपा राज्य सचिव ने आरोप लगाया है कि गत दिनों सपा के झंडे लगे वाहनों में भर कर आये हथियार बंद लोगों ने गाज़ियाबाद के विजय नगर थाना अंतर्गत वार्ड -१५ में स्थित सेना की रायफल रेंज की एक एकड़ से अधिक जमीन पर कब्जा कर लिया और उसके चारों और दीवार खड़ी कर ली.
       इस घटना से क्षेत्रीय नागरिक सकते में आ गए और उन्होंने स्थानीय प्रशासन ही नहीं रक्षामंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री तक को शिकायती पत्र भेजे हैं. भाकपा के सांसद का. गुरुदास दासगुप्त ने भी रक्षामंत्री को पत्र लिख कर समुचित कार्यवाही की मांग की है. स्थानीय समाचार पत्रों में इस सम्बन्ध में लगातार बड़े-बड़े समाचार प्रकाशित हो रहे हैं. स्थानीय नागरिक आरोप लगा रहे हैं कि करोड़ों रूपये की संपत्ति के इस घोटाले में स्थानीय राजस्व विभाग के अधिकारी/कर्मचारी तथा कुछ सैन्य अधिकारी भी लिप्त हैं.
       डॉ गिरीश ने बताया है कि उक्त जमीन पर आज भी हथियार बंद लोग कब्जा जमाये बैठे हैं और वे इस प्रकरण का विरोध कर रहे नागरिकों को धमकियाँ दे रहे हैं. अतः भाकपा देश हित में और जन हित में मांग करती है कि इस बड़े भूमि घोटाले की जांच सी.बी.आई. से कराई जाए और इसे तत्काल कब्ज़ा मुक्त कराया जाए .






 

Wednesday, June 19, 2013

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चुनाव फंड के लिए अपील

प्रिय मित्रो,
हमारी पार्टी एवं अन्य वामपंथी पार्टियां इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रही हैं। पांच राज्यों के चुनाव 2013 में और लोकसभा चुनाव 2014 में आने वाले हैं। हमें आप सबके सहयोग से इन चुनावों में भाग लेना है।
गत चार वर्षों में कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केन्द्र की संप्रग-2 सरकार अपने तथाकथित आर्थिक सुधारों के एजेण्डे पर चल रही है। उसकी आर्थिक नवउदारवाद की इन नीतियों के परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति, महंगाई, बेरोजगारी में भारी वृद्धि हुई है और रोजगार के अवसर कम हुये हैं। आम जनता और नौजवानों को इससे भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। जनता के जनवादी अधिकारों में कटौती हुई है और अनियंत्रित भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। भ्रष्टाचार समाज में कैंसर की तरह फैल चुका है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के नेता भ्रष्टाचार में लिप्त पाये गये हैं। केवल वामपंथी दल हैं जिन पर भ्रष्टाचार का आरोप आज तक नहीं लग पाया।
भाजपा शासित राज्यों में भी वही सब किया जा रहा है जोकि संप्रग द्वारा किया जा रहा है। दोनों में कोई अंतर नहीं। भाजपा भी आर्थिक नवउदारवाद के प्रति पूरी तरह समर्पित है। कर्नाटक की उनकी सरकार का भ्रष्टाचार जगजाहिर है। उनके दो-दो पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष भ्रष्टाचार के आरोपों में बेनकाब हो चुके हैं। मुख्य विपक्षी दल के तौर पर भाजपा संप्रग के खिलाफ दिखावटी लड़ाई करती है। राजग शासन संप्रग का विकल्प नहीं हो सकता। चेहरे और दल बदल जाने मात्र से स्थिति में कोई बदलाव आने वाला नहीं है।
उत्तर प्रदेश की सरकार ने भी प्रदेश की जनता को हर तरह निराश किया है। चारों ओर निराशा का माहौल बना है। लेकिन यहां भी मुख्य विपक्षी दल गाली-गलौज और बयानबाजी की राजनीति तक सीमित है।
जनता नाखुश और नाराज है। सभी तबके आवाज उठा रहे हैं। जमीन की रक्षा व बेरोजगारी और महंगाई के खिलाफ; पेट्रोल, गैस, डीजल, बिजली और पानी के दामों में बढ़ोतरी के खिलाफ, लैंगिक समानता और महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिये देश के कई हिस्सों में खुद-ब-खुद आन्दोलन खड़े हुये हैं। 20-21 फरवरी को देश के मेहनत करने वाले तबकों की दो दिवसीय राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल इन आन्दोलनों का एक ऊंचा शिखर थी।
भाकपा एवं वामपंथी दल इन संघर्षों में पूरी शिद्दत से जनता के साथ थे। भाकपा धर्मनिरपेक्षता की मजबूती के लिये संघर्ष कर रही है। लोकतंत्र की रक्षा के लिये लड़ रही है। दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और समानता के लिये लड़ रही है।
हम उनके लिये संसद और विधान सभाओं तथा सड़कों पर उतर कर लड़ते हैं। दरअसल भाकपा और वामपंथ को मजबूत बनाने से ये सभी लड़ाइयां और भी मजबूत बनेंगी।
सारे हालातों को लोग समझ रहे हैं, वे बदलाव चाहते हैं। वे वामपंथ को अपना सबसे भरोसेमंद साथी मानते हैं। अतएव वामपंथियों के साथ जनवादी ताकतें मिलकर कांग्रेस और भाजपा की नीतियों का विकल्प बन सकती हैं। हमारा प्रयास उसी ओर है।
भाकपा लोकसभा की लगभग 60 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। पांच राज्यों के आगामी विधान सभा चुनावों में भी कुछ सीटों पर लड़ेगी। हमें अपनी राजनैतिक एवं सांगठनिक गतिविधियों को भी चलाना है। जगजाहिर है कि हमारे क्रियाकलाप और चुनाव अभियान आप लोगों के सहयोग से ही चलते हैं। अतएव हमें आपकी सहायता की बेहद आवश्यकता है।
हम आप सभी से जो मौजूदा व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, आर्थिक योगदान की पुरजोर अपील करते हैं। भाकपा ने पूरे देश से 15 करोड़ रूपये का चुनाव फंड/पार्टी फंड एकत्रित करने का निश्चय किया है। हम आपसे दिल खोल कर दान करने की अपील करते हैं।
जिलों-जिलों में हमारे साथी अथवा साथियों की टीमें धन संग्रह हेतु आप तक पहुंचेगी। आप उन्हें अवश्य ही अपना योगदान दें। यदि आप तक हमारे साथी किसी कारण नहीं पहुंच पाते तो हमारे राज्य कार्यालय को आर्थिक सहयोग की धनराशि अवश्य भेजें।
आप अपना सहयोग ”कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया, उत्तर प्रदेश स्टेट कौंसिल“ के नाम मल्टी सिटी चेक अथवा ड्राफ्ट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश स्टेट कौंसिल, 22-कैसरबाग, लखनऊ - 226 001 के पते पर भेज सकते हैं अथवा आरटीजीएस/एनईएफटी के जरिेये हमारे निम्न खाते में अपने बैंक के माध्यम से भेज सकते हैं या फिर निम्न खाता संख्या तथा खातेदार का नाम लिखकर यूनियन बैंक आफ इंडिया की किसी भी शाखा पर जमा कर सकते हैं।
खाता संख्या: 353302010017252
खातेदार का नाम: कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया, उत्तर प्रदेश स्टेट कौंसिल
बैंक का नाम: यूनियन बैंक आफ इंडिया, क्लार्कस अवध शाखा, लखनऊ
आईएफएससी कोड : UBIN0535338 , बैंक शाखा का कोड: 535338  माईकर कोड सं. 226026006
सहयोग के लिए अग्रिम धन्यवाद के साथ,
निवेदक:
(डा. गिरीश)
राज्य सचिव
09412173664, 07379697069
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल

'ए.के.सिंह भवन' नए कैडर के निर्माण का केंद्र

 ट्रेड युनियन आन्दोलन के समक्ष गंभीर चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए कामरेड ए. के. सिंह के बहुआयामी व्यक्तित्व के अनुरूप 'ए.के.सिंह भवन' नए कैडर के निर्माण का केंद्र बनेगा, इस आशय की सदिच्छा व्यक्त करते हुए केनरा बैंक इम्पलाईज यूनियन के 63 वें स्थापना दिवस 10 मई को आल इण्डिया बैंक इम्लाईज एसोसियेशन के महामंत्री कामरेड सी.एच.वेंकटाचलम ने गोमती नगर, लखनऊ में यूनियन कार्यालय व् ट्रेड यूनियन केंद्र का उदघाटन किया. इस अवसर पर सम्पूर्ण वातावरण जहां जोश-खरोश, ढोल, नगाड़े,पटाखों तथा क्रांतिकारी नारों से लवरेज था, वहीं हर किसी के मन में का. ए.के. सिंह के न होने की गहरी टीस भी थी, जिनका 7 मई 2011 को 56 वर्ष की आयु में निधन हो गया था. उदघाटन के पूर्व केनरा बैंक इम्पलाईज यूनियन के ६३ वें स्थापना दिवस के अवसर पर साथी सुनील गुप्ता चेयरमैन केनरा बैंक इम्पलाईज यूनियन राज्य समिति उ.प्र. ने झंडारोहण करके कार्यक्रम का आरम्भ किया तथा साथी जी. वी. साम्बाशिव राव ने सभी उपस्थित साथियों को संकल्प दिलाया/संबोधित किया.
भवन के उदघाटन के पश्चात ए.आई.बी.ई.ए.के महामंत्री का. सी.एच. वेंकटाचलम ने स्वर्गीय ए. के.सिंह की माता श्रीमती रामेश्वरी देवी को शाल देकर सम्मानित किया. (का. ए.के.सिंह अविवाहित थे तथा उनका सम्पूर्ण जीवन ट्रेड यूनियन आंदोलनों को समर्पित था). तत्पश्चात का. वेंकटाचलम सहित सभी ने का. ए.के. सिंह के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित कर अपनी श्रधान्जली दी.
उदघाटन के अवसर पर संगठन के शीर्षस्थ नेतृत्व के साथी सी.एच. वेंकटाचलम महामंत्री  ए.आई. बी. का भी उदघाटन किया. इस हाल की बैंक इम्पलाईज यूनियन, साथी जी. वी. साम्बाशिव राव अध्यक्ष केनरा बैंक इम्पलाईज यूनियन, साथी एन.के.बंसल प्रांतीय अध्यक्ष यू.पी.बैंक इम्पलाईज यूनियन,साथी सुनील गुप्ता प्रांतीय अध्यक्ष व् उपाध्यक्ष केनरा बैंक इम्पलाईज यूनियन, साथी सुधीर सोनकर सचिव केनरा बैंक इम्पलाईज यूनियन, साथी अनिल श्रीवास्तव महामंत्री सिंडीकेट बैंक इम्पलाईज यूनियन,साथी आर.के. अग्रवाल अध्यक्ष आल इंडिया यूनियन बैंक इम्पलाईज एसोसिएशन साथी राकेश उपाध्यक्ष उ.प्र.ट्रेड यूनियन कांग्रेस, राज्य समिति के सभी सदस्य /पदाधिकारी सहित लखनऊ के सभी बैंकों के नेतृत्व के साथियों तथा सदस्यों ने विशाल संख्या में भाग लिया.
इस अवसर पर केनरा बैंक इम्पलाईज यूनियन के महामंत्री का. डी.डी.रुस्तगी ने 'का. एम्.एकनाथ पई हाल'का भी उदघाटन किया. का. पई १९९० से २००० तक यूनियन के महामंत्री रहे तथा उनका कार्यकाल केनरा बैंक के साथियों के लिए स्थायित्व व सेवा शर्तों में सुधार का दशक रहा. उनके कार्यकाल में स्थानान्तरण नीति में भेदभाव, पक्षपात एवं उत्पीडन को दूर करने में सफलता मिली.
उद्घाटन के पश्चात प्रांतीय अध्यक्ष साथी सुनील गुप्ता की अध्यक्षता में एक सभा संपन्न हुई. राज्य सचिव साथी वी. के. सिंह ने सभी आगंतुकों का स्वागत करते हुए 'ए. के. सिंह भवन' की परिकल्पना पर प्रकाश डाला एवं कहा कि यों तो सिंह साहब का व्यक्तित्व बहुआयामी था किन्तु उनका मुख्य सरोकार बैंक ट्रेड यूनियन आन्दोलन था.
साथी सी.एच. वेंकटाचलम महामंत्री ए.आई.बी.ई.ए.ने साथी ए.के.सिंह की स्मृति में ट्रेड यूनियन की गतिविधियों को संचालित करने हेतु भवन के निर्माण को अत्यंत सराहनीय कार्य बताते हुए कहा कि इसका निर्माण सिर्फ सदस्यों के आर्थिक सहयोग से संभव हुआ. उन्होंने कहा कि हमारा ट्रेड यूनियन आन्दोलन गंभीर चुनौतियों के दौर में खडा है. जबकि हम सेवा शर्तों में सुधार को आगे ले चलने की कोशिश में लगे हैं तो अनेकों प्रतिगामी ताकतें हमें पचास के दशक की और धकेंलने पर जुटी हैं. सरकार की नीतियाँ छलपूर्ण हैं. सरकार अब अल्ट्रा स्मार्ट ब्रांच तथा बिज़नेस करेस्पोंडेंट के नाम पर गाँव में छद्म बैंकिंग ले जाने में जुटी है. यह आम आदमी के पैसे को जोखिम में डालने की योजना है, जो वास्तव में बिना किसी जवाबदेही के बैंकिंग व्यवसाय में घुसना है. इन परिस्थितिओं में ट्रेड यूनियन कि जिम्मेदारियां बढ़ी है और उनको उठाने वालों की तैयारी में ए.के. सिंह भवन जैसे ट्रेड यूनियन के संसथान महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे.
सी. बी. ई. यू के महामंत्री साथी डी.डी. रुस्तगी ने साथी ए.के. सिंह को ऐसा व्यक्ति बताया जो मूल रूप से कार्यकर्ता बने रहते हुए भी संगठन के शीर्ष नेत्रत्व तक को प्रभावित करते रहे. उन्होंने यह सिद्ध किया कि पद नहीं व्यक्ति का काम और लक्ष्य के प्रति गंभीरता महत्वपूर्ण होती है.
यू.पी.बी.ई.यू. के महामंत्री साथी पी.एन. तिवारी ने ए.के. सिंह को चिरस्थाई हंसमुख व्यक्ति बताते हुए कहा कि ए. के. सिंह भवन ट्रेड यूनियन गतिविधिओं का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनेगा. उन्होंने यू.पी. बैंक एम्प्लाइज यूनियन के केंद्रीय कार्यालय द्वारा 51000 रुपये के योगदान की भी घोषणा की.केनरा बैंक के उप महाप्रबंधक ए. थान्गावेलु ने करना बैंक एम्प्लाइज यूनियन के 63वें स्थापना दिवस पर सुभकामनाएँ देते हुए, ए.के. सिंह के व्यक्तित्व कि सराहना की एवं उन्हें श्रधांजलि अदा की.
इस अवसर पर साथी ए.के. सिंह के अनन्य मित्र एवं पूर्व राज्य समिति सदस्य श्रीमती सुनीता दयाल के पति डॉ. राकेश्वर दयाल ने गरीब एवं निराश्रित बालिकाओं के लिए प्रति वर्ष 51000 का योगदान देने कि घोषणा की. उनके साथ-साथ, उत्तर भारत के उत्तम संस्थान महेन्द्रा इंस्टिट्यूट ऑफ़ बैंकिंग सर्विसेज के महाप्रबंधक साथी राम प्रकाश सिंह ने गरीब एवं योग्य छात्रों के लिए निःशुल्क कोचिंग देने कि घोषणा की.
इस अवसर पर स्वर्गीय साथी ए. के. सिंह के बड़े भाई  सहित साथी वेंकताचम, साथी डी.डी. रुस्तगी, साथी पी.एन. तिवारी, साथी एन.के. बंसल, साथी साम्बशिवराव, साथी अनूप माथुर को स्मृति चिन्ह भेट किये गए.
अध्यक्ष साथी सुनील कुमार गुप्ता ने साथी सी.एच. वेंकटचलम, साथी पी.एन. तिवारी, साथी डी.डी. रुस्तगी, साथी साम्बशिवराव, साथी अनूप माथुर तथा उप महाप्रबंधक ए. थान्गावेलू के साथ सभी उपस्थित जनसमुदाय का स्वागत करते हुए, उद्घाटन सभा का समापन किया.
11 मई 2013 को केनरा बैंक एम्प्लाइज यूनियन ने ए.आई.बी.ई.ए. की परंपरा के अनुरूप समाज के हाशिये पर पड़े लोगों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को मजबूत करते हुए गैर सरकारी संगठन एहसास के सहयोग से ऐशबाग की एक मलिन बस्ती के बच्चों के सर्वाग्रीण विकास के लिए आगामी पांच वर्षों तक चलने वाले एक कार्यक्रम की शुरुआत की. ए.आई.बी.ई.ए. के महामंत्री सी.एच. वेंकटचलम इस उद्देश्यपरक एवं सकारात्मक कार्यक्रम की सराहना करते हुए सभी बैंक कर्मचारी संगठनों का आह्वाहन किया कि वे इस तरह के कार्यक्रमों को अंगीकार करें. इस कार्यक्रम की परिकल्पना के लिए यूनियन की राज्य समिति की उपाध्यक्षा श्रीमती विभा माथुर बधाई की पात्र हैं.
ए.के. सिंह भवन का निर्माण केनरा बैंक के साथिओं को ट्रेड यूनियन कार्य के लिए प्रशिक्षित करने के लिए किया गया है. इस भवन की उपयोगिता केनरा बैंक के साथिओं की सक्रिय भागीदारी एवं सहयोग से ही सार्थक होगी. ''केनरा बैंक एम्प्लाइज यूनियन के सभी पदाधिकारी और सदस्य बधाई के पात्र है जिनके बिना इस भवन का न तो निर्माण संभव था और न ही इसकी उपयोगिता साबित हो पाएगी.'', यह उद्गार थे केनरा बैंक एम्प्लाइज यूनियन से राज्य सचिव साथी वी.के. सिंह के जो उद्घाटन कार्यक्रम के समापन पर सभा को संबोधित कर रहे थे.

Tuesday, June 18, 2013

जयललिता ने डी राजा का समर्थन किया

  सोमवार, जून 17, 2013
तमिलनाडु में 27 जून को होने वाले राज्यसभा चुनाव के अचानक बदले परिदृश्य में अन्नाद्रमुक ने भाकपा उम्मीदवार और पार्टी के राष्ट्रीय सचिव डी. राजा के समर्थन में अपने एक उम्मीदवार को चुनाव मैदान से हटाने का फैसला किया है।

तमिलनाडु में राज्यसभा की छह सीटों के लिए होने वाले चुनाव के लिए नामांकन पत्र भरने के अंतिम दिन आज डी राजा ने अपना नामांकन भरा। इससे पहले उन्होंने वरिष्ठ पार्टी नेताओं के साथ अन्नाद्रमुक प्रमुख जे. जयललिता से मुलाकात की। करीब आधे घंटे की बैठक के बाद जयललिता ने अपने उम्मीदवार के थंगमुथु को हटाने का फैसला किया।

द्रविड मुनेत्र कषगम ने पार्टी अध्यक्ष एम.करुणानिधि की बेटी कनिमोझी को उम्मीदवार बनाया है। उधर, प्रमुख विपक्षी दल देशीय मुरपोककु मुनेत्र कषगम (डीएमडीके) ने पार्टी कोषाध्यक्ष ए. आर. इलांगोवन को अपने उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया है। उन्होंने नामांकन पत्न दाखिल करने का समय समाप्त होने से कुछ ही देर पहले अपना पर्चा पेश किया। अब छह सीटों के लिए चुनाव मैदान में अन्नाद्रमुक के चार, डीएमडीके, द्रमुक और भाकपा के एक-एक उम्मीदवार हैं।
(साभार-कुसुम ठाकुर,आर्यावर्त)

Friday, June 14, 2013

आडवाणी निष्कलंक नहीं - भाकपा

लखनऊ 14 जून। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल की बैठक आज यहाँ पार्टी के राज्य सचिव डॉ. गिरीश की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। बैठक में देश और प्रदेश की राजनैतिक स्थिति पर चर्चा हुई तथा हाल ही में भाकपा द्वारा जन समस्यायों को लेकर चलाये गये प्रदेशव्यापी आन्दोलन की सफलता पर संतोष व्यक्त किया गया। पार्टी ने भविष्य में इन आंदोलनों की धार और तेज करने को 7 जुलाई को पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक बुलाये जाने का निश्चय किया है।
बैठक में भाजपा में चल रहे भारी घमासान पर भी चर्चा की गई और पार्टी की राज्य मन्त्रिपरिषद ने अपने स्थापित दृष्टिकोण को दोहराया कि श्री लालकृष्ण अडवाणी हों या श्री नरेंद्र मोदी, दोनों ही आरएसएस की खतरनाक सांप्रदायिक नीतियों के वाहक हैं। भाकपा की स्पष्ट राय है कि गत शताब्दी के नवें दशक में श्री अडवाणी ने जो रथयात्रा निकाली थी उसके कारण देश में हुए दंगों में सैकड़ों लोगों की जानें चली गई थीं। इस यात्रा की चरम परिणति बाबरी मस्जिद के ध्वंस के रूप में हुई। ये भी जगजाहिर है कि बाबरी विध्वंस के लिये 6 दिसंबर को अयोध्या में जमा भीड़ को श्री अडवाणी ने उकसाया था। अभी भी बाबरी विध्वंस का मामला अदालत में विचाराधीन है और श्री अडवाणी उसमें ‘निष्कलंक’ घोषित नहीं किये गये है।
इसी तरह मोदी गुजरात नरसंहार के लिए कुख्यात हैं और भाजपा अपने इन दोनों घोर सांप्रदायिक मुखौटों के इर्द गिर्द ही गोलबंद है। भाकपा राज्य मंत्रिपरिषद ने स्पष्ट किया कि 11 जून को राष्ट्रीय सहारा एवं अन्य समाचार पत्रों में प्रकाशित तथा एक एजेंसी द्वारा प्रसारित भाकपा के सचिव का. अतुल कुमार सिंह अनजान का बयान जिसमें कि अडवाणी को ‘निष्कलंक’ बताया गया है, भाकपा की राय नहीं है। भाकपा लगातार दोहराती रही है कि श्री अडवाणी की राजनीति बेहद सांप्रदायिक है और उसने देश के सौहार्द तथा शांति को हमेशा पलीता लगाया है।



कार्यालय सचिव

इस परिवर्तन को हमें समझना पड़ेगा---अनिल राजिमवाले


(विगत 26 अप्रेल 2013 को कॉमरेड अनिल राजिमवाले का व्याख्यान रायगढ़ इप्टा और प्रलेस के संयुक्त आयोजन में हुआ था। इसके बाद 27 तथा 28 अप्रेल को रायगढ़ इप्टा द्वारा वैचारिक कार्यशाला भी आयोजित की गयी। अनिल जी ने मध्यवर्ग के बदलते चरित्र पर विस्तार से रोशनी डाली। उनके व्याख्यान का लिप्यांतरण, उषा आठले के सौजन्य से :'इप्टानामा'में 31 मई को प्रकाशित हुआ था। हम इप्टानामा से साभार इसे यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। )


ज के भारत की कई विशेषताओं में एक विशेषता यह है कि मध्यवर्ग एक ऐसा उभरता हुआ तबका है, जिसकी संख्या, जिसका आकार और जिसकी अंतर्विरोधी भूमिका बढ़ती जा रही है। इस विषय को लेकर कई तरह के मत प्रकट किए जा रहे हैं, चिंताएँ प्रकट की जा रही हैं, आशाएँ प्रकट की जा रही हैं। और कभी-कभी यह देखने को मिलता है कि प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलन के अंदर एक प्रकार की आशंका भी इस बात को लेकर प्रकट की जा रही है।

जिसे हम मध्यम वर्ग कहते हैं, मिडिल क्लास, हालाँकि इसे मिडिल क्लास कहना कहाँ तक उचित है, यह भी एक शोध कार्य का विषय है - यह हमारे समाज का, दुनिया के समाज का काफी पुराना तबका रहा है। इतिहास में इसने हमारे देश में और दुनिया में बहुत महत्वपूर्ण भूमिकाएँ अदा की हैं, इसे मैं रेखांकित करना चाहूँगा। आप सब औद्योगिक क्रांति और उस युग के साहित्य से परिचित हैं। मार्क्स और दूसरे महान विचारकों, जिनमें वेबर और दूसरे अनेक समाजशास्त्रियों ने इस विषय पर काफी कुछ अध्ययन किया है, लिखा है। इसलिए मध्यवर्ग एक स्वाभाविक परिणाम है, वह दरमियानी तबका, जो औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप  पैदा हुआ। इसका चरित्र अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों और कारकों से तय होता है। जब इस दुनिया में पूंजीवाद आया, और जब हमारे देश में भी जब पूँजीवाद आया तो उसकी देन के रूप में मध्यवर्ग आया - उसका एक हिस्सा मिडिलिंग सेक्शन्स थे। फ्रेंच में एक शब्द आता है - बुर्जुआ, जो अंग्रेजी में आ गया है और बाद में हिंदी में भी आ गया है। दुर्भाग्य से आज क्रांतिकारी या चरम क्रांतिकारी लोग हैं, वे इस शब्द का उपयोग गाली देने के लिए इस्तेमाल करते हैं। बुर्जुआ का अर्थ होता है मध्यम तबका। यह मध्यवर्ग तब पैदा हुआ जब यूरोप में सामंती वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच में एक वर्ग पैदा हुआ।

अगर आप फ्रांसिसी क्रांति और यूरोपीय क्रांतियों पर नज़र डालें तो इसमें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों और क्रांतियों में मध्यम वर्ग की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका नज़र आती है। मध्यम वर्ग वह वर्ग था, जिसने उस दौर में सामंती मूल्यों, सामंती संस्कृति, और सामंती परम्पराओं के खिलाफ़ विद्रोह की आवाज़ उठाई। जिसका एक महान परिणाम था 1779 की महान फ्रांसिसी क्रांति। फ्रांसिसी क्रांति एक दृष्टि से मध्यम वर्ग के नेतृत्व में चलने वाली राज्य क्रांति के रूप में इतिहास में दर्ज़ हो चुकी है। सामंतवाद विरोधी क्रांतियाँ तब होती हैं, जब पुराने संबंध समाज को जकड़ने लगते हैं, परंपराएँ जकड़ने लगती हैं और जब मशीन पर आधारित उत्पादन, नई संभावनाएँ खोलता है। हमारे यहाँ भी भारत में अंग्रेजों के ज़माने में एक विकृत किस्म की औद्योगिक क्रांति हुई थी आगे चलकर। यूरोप पर अगर नज़र डाली जाए तो यूरोप में बिना मध्यम वर्ग के किसी भी क्रांति की कल्पना नहीं की जा सकती है। महान अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, विचारधारा को जन्म देने वाले विद्वान मुख्य रूप से मध्यवर्ग से ही आए थे। वॉल्टेयर, रूसो, मॉन्टिस्क्यो, एडम स्मिथ, रिकार्डो, मार्क्स, एंगेल्स, हीगेल, जर्मन दार्शनिक, फ्रांसिसी राजनीतिज्ञ, इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्रियों ने औद्योगिक क्रांति के परिणामों का अध्ययन और विश्लेषण कर नई ज्ञानशाखाओं को जन्म दिया। सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में, साहित्य में, प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में - चार्ल्स डार्विन को कोई भुला नहीं सकता, न्यूटन तथा अन्य वैज्ञानिकों ने हमारी विचार-दृष्टि, हमारा दृष्टिकोण बदलने में सहायता की है। और इसलिए जब हम औद्योगिक क्रांति की बात करते हैं तो यह मध्यम तबके के पढ़े-लिखे लोग, जो अभिन्न रूप से इस नई चेतना के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। यह भी एक विचारणीय विषय है कि औद्योगिक क्रांति से पहले का जो मानव-विकास का युग रहा है, उसमें जो बुद्धिमान लोग रहे हैं और औद्योगिक क्रांति के युग में जो बुद्धिमान विद्वान पैदा हुए हैं, उनमें क्या अंतर है? उन्होंने क्या भूमिका अदा की है? मैं समझता हूँ कि जो पुनर्जागरण पैदा हुआ, जो एक नई आशा का संचार हुआ, जो नए विचार पैदा हुए - समाज के बारे में, समानता के बारे में, प्राकृतिक शक्तियों को अपने नियंत्रण में लाने, सामाजिक शक्तियों पर विजय पाने, कि ये जो आशाएँ पैदा हुईं इससे बहुत महत्वपूण्र किस्म की खोजें हुईं और इनसे मानव-मस्तिष्क का विकास, मानव-चेतना का विकास इससे पहले उतना कभी नहीं हुआ था, जितना औद्योगिक क्रांति के दौरान हुआ। और इसका वाहक था - मध्यम वर्ग। इस मध्यम वर्ग की खासियत यह है, उस के साथ एक फायदा यह है कि वह ज्ञान के संसाधनों के नज़दीक है। इसपर गहन रूप से विचार करने की ज़रूरत है। जब हम मध्यम वर्ग के एक हिस्से को बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं, इंटिलिजेंसिया, जो ज्ञान के स्रोतों, उन संसाधनों के नज़दीक है, यह उनका इस्तेमाल करता है, जो समाज के अन्य वर्ग नहीं कर पाते हैं, दूर हैं। पूँजीपति वर्ग उत्पादन में लगा हुआ है, पूँजी कमाने में लगा हुआ है और उसके लिए ज्ञान का महत्व उतनी ही दूर तक है, जिससे कि उत्पादन हो, कारखाने लगें, यातायात के साधनों का प्रचार-प्रसार हो, उसी हद तक वह विज्ञान का इस्तेमाल करता है। अन्यथा उसे उतनी दिलचस्पी नहीं भी हो सकती है और हो भी सकती है।

वैसे मार्क्स ने मेनिफेस्टो में पूँजीपति वर्ग को अपने ज़माने में सामंतवाद के साथ खड़ा करते हुए कहा था कि यह एक क्रांतिकारी वर्ग है, जो निरंतर उत्पादन के साधनों में नवीनीकरण लाकर समाज का क्रांतिकारी आधार तैयार करता है। और समाज का नया आधार तैयार करते हुए शोषण के नए स्वरूपों को जन्म देता है। दूसरी ओर मज़दूर वर्ग मेहनत करने में लगा हुआ है, किसान मेहनत करने में लगा हुआ है और अपनी जीविका अर्जन करने में, अपनी श्रमशक्ति बेचने में, मेहनत बेचने में लगा हुआ है। इसलिए मध्यम वर्ग की भूमिका बढ़ जाती है। क्योंकि मध्यम वर्ग ज्ञान के, उत्पादन के, संस्कृति क,े साहित्य के उन स्रोतों के साथ काम करता है, जो सामाजिक विकास का परिणाम होते हैं। फैक्ट्री में क्या होता है, उसका अध्ययन; खेती में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; विज्ञान में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; राज्य क्या है, राजनीति क्या है, राजनीतिक क्रांतियाँ कैसी होनी चाहिए या राजनीतिक परिवर्तन कैसे होने चाहिए; जनवादी मूल्य या जनवादी संरचनाएँ कायम होनी चाहिये कि नहीं होनी चाहिये - इस पर मध्यम वर्ग ने कुछ एब्स्ट्रेक्ट थिंकिंग की। इसलिए बुद्धिजीवियों का कार्य हमेशा ही रहा है, खासकर आधुनिक युग में, कि वह जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक घटनाएँ होती हैं, उस का सामान्यीकरण करते हैं, उनसे जनरलाइज़्ड नतीजे निकालते हैं। फ्रांसिसी क्रांति नहीं होती, अगर वॉल्टेयर और रूसो के विचार क्रांतिकारियों के बीच प्रसारित नहीं होते। रूसी क्रांति नहीं होती, अगर लेनिन के विचार, या अन्य प्रकार के क्रांतिकारी विचार या मार्क्स के विचार जनता के बीच नहीं फैलते। और हम सिर्फ मार्क्स और लेनिन का ही नाम न लें, बल्कि इतिहास में ऐसे महान बुद्धिजीवी, ऐसे महान विचारक पैदा हुए हैं, जिन्होंने हमारे मानस को, हमारी चेतना को तैयार किया है। आज हम उसी की पैदाइश हैं। कार्ल ट्रात्स्की, डेविड रिकार्डो, बर्नस्टीड, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, ब्रिटिश पार्लियामेंटरी सिस्टम, इससे संबंधित जो एक पूरी विचारों की व्यवस्था है; आधुनिक दर्शन, जिसे भौतिकवाद और आदर्शवाद के आधार पर श्रेणीबद्ध किया जाता है। और अर्थशास्त्र से संबंधित सिद्धांत - आश्चर्य और कमाल की घटनाएँ हैं कि अर्थशास्त्र जैसा विषय, जो पहले अत्यंत ही सरल हुआ करता था, पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के साथ, उस उत्पादन पद्धति का एक एक तंतु वह उजागर करके रखता है, जिससे कि हम पूरी अर्थव्यवस्था को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं, यह बुद्धिजीवियों का काम है। या अर्थशास्त्रियों ने ये महान काम इतिहास में किये हैं। समाजशास्त्रियों ने हमें समाज के बारे में बहुत कुछ बताया है। यह मंच मुख्य रूप से संस्कृति और लेखन का मंच है, सांस्कृतिक और साहित्यिक हस्तियाँ इतिहास में किसी के पीछे नहीं रही हैं। मैक्सिम गोर्की, विक्टर ह्यूगो, दोस्तोव्स्की जैसी महान हस्तियों ने, ब्रिटिश लिटरेचर, फ्रेंच लिटरेचर, रूसी लिटरेचर ने खुद हमारे देश में भी पूरी की पूरी पीढ़ियों को तैयार किया है। इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि बुद्धिजीवी समाज की चेतना का निर्माण करता है, समाज की चेतना को आवाज़ देता है। लेकिन वह आवाज़ देता है - सामान्यीकृत, जनरलाइज़ कन्सेप्शन्स के आधार पर; सामान्यीकृत प्रस्थापनाओं के आधार पर, यहाँ बुद्धिजीवी तबका बाकी लोगों से अलग है।


बहुत सारे लोग यह कहते हुए पाए जाते हैं कि ये बुद्धिजीवी है, मध्यम वर्ग के लोग हैं, पढ़े-लिखे लोग हैं, इनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। मैं इस से थोड़ा मतभेद रखता हूँ। जनता से सरोकार तो होना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन जनता से सरोकार किस रूप में होना चाहिए? मसलन, मार्क्स क्या थे? मार्क्स का जनता से सरोकार किस रूप में था? मार्क्स या वेबर या स्पेंसर या रॉबर्ट ओवेन या हीगेल या ग्राम्शी - इनका जनता से गहरा सरोकार था। मसलन मार्क्स का ही उदाहरण ले लें। और अगर मैं मार्क्स का उदाहरण ले रहा हूँ तो अन्य सभी बुद्धिजीवियों का उदाहरण भी ले रहा हूँ कि उन्होंने बहुत अध्ययन किया। मेरा ख्याल है, उन्होंने ज़्यादा समय मज़दूर बस्तियों में बिताने की बजाय पुस्तकालयों में जाकर समय बिताया - किताबों के बीच। लेकिन लाइब्रेरी में किताबों के बीच समय बिताते हुए उन्होंने जनता नामक संरचना, जनसमूह, समाज और प्रकृति के बारे में जो अमूर्त विचार थे, जितना अच्छा मार्क्स ने प्रकट किया है, उतना अच्छा और किसी ने नहीं किया है। और कार्ल मार्क्स इसीलिए युगपुरुष कहलाते हैं क्योंकि उनके विचार में पूरे युग का सार - द एसेन्स ऑफ दि एज - को उन्होंने पकड़ा, समझा और प्रकट किया। मज़दूर वर्ग पहले भी संघर्षशील था लेकिन मार्क्स के सिद्धांतों ने या अन्य सिद्धांतकारों के सिद्धांतों ने संघर्षशील जनता को नए वैचारिक हथियार प्रदान किए। और मैं समझता हूँ कि बुद्धिजीवियों का यह सबसे बड़ा कर्तव्य है। बुद्धिजीवी का यह कर्तव्य हो सकता है, होना चाहिए कि वह झंडे लेकर जुलूस में शामिल हो, और नारे लगाए ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के, लेकिन मैं यह नहीं समझता हूँ कि इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगा देने से ही बुद्धिजीवी क्रांतिकारी हो जाता है। क्रांति की परिभाषा ये है - औद्योगिक क्रांति ने जो सारतत्व हमारे सामने प्रस्तुत किया कि क्या हम परिवर्तन को समझ रहे हैं! समाज एक परिवर्तनशील ढाँचा है, प्रवाह है। और प्रकृति भी एक परिवर्तनशील प्रवाह है, जिसके विकास के अपने नियम हैं, जिसकी खोज मार्क्स या डार्विन या न्यूटन या एडम स्मिथ ने की और जब उन्होंने की तो इनसे मज़दूरों को, किसानों को मेहनतकशों को परिवर्तन के हथियार मिले। इसलिए सामाजिक और प्राकृतिक परिवर्तन जब सिद्धांत का रूप धारण करता है, तो वह एक बहुत बड़ी परिवर्तनकारी शक्ति बन जाता है। और उसी के बाद हम देखते हैं कि वास्तविक रूप में, वास्तविक अर्थों में क्रांतिकारी, परिवर्तनकारी मेहनतकश आंदोलन पैदा होता है। मेहनतकशों का आंदोलन पहले भी था, लेकिन ये उन्नीसवीं सदी में ही क्यों क्रांतिकारी आंदोलन बना? इसलिए, क्योंकि एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ, जिसकी स्थिति उत्पादन में क्रांतिकारी थी। यह खोज मार्क्स की थी, जो उन्होंने विकसित की ब्रिटिश राजनीतिक अर्थव्यवस्था से। ब्रिटिश साहित्य या फ्रेंच साहित्य इस बात को प्रतिबिम्बित करता है कि कैसे मनी-कमोडिटी रिलेशन्स, वस्तु-मुद्रा विनिमय, दूसरे शब्दों में आर्थिक संबंध - मनुष्यों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, धार्मिक संबंधों को तय करते हैं। अल्टीमेट एनालिसिस! आखिरकार। यह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी खोज थी। दोस्तोव्स्की ने एक जगह लिखा है, बहुत इंटरेस्टिंग है - ‘नोट्स फ्रॉम द प्रिज़न हाउस’ में उन्होंने लिखा है कि एक कैदी भाग रहा है, भागने की तैयारी कर रहा है साइबेरिया से, कैम्प से। वह पैसे जमा करता है। उनका कमेंट है, ‘‘मनी इज़ मिंटेट फ्रीडम’’ - ‘‘सिक्का मुद्रा के रूप में ढाली गई आज़ादी है।’’ कितने गहरे रूप में पूँजीवादी युग में मुक्ति, व्यक्ति और वर्ग की आज़ादी को सिर्फ एक लाइन में फियोदोर दोस्तोव्स्की ने अपनी किताब में प्रदर्शित किया है।

इसीलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। अगर मज़दूर वर्ग को समझना है तो इस बात को समझेंगे। हालाँकि साहित्य में मेरा कोई दखल नहीं है मगर अगर मज़दूर ओर किसानों को समझना है तो विश्व साहित्य को समझना पड़ेगा। उसका अध्ययन करना पड़ेगा। क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, प्रतिबिम्ब होता है, जो समय के अंतर्विरोधों और टकरावों के बीच, गति के बीच व्यक्ति के संघर्षों को चरित्रों के रूप में प्रतिबिम्बित करता है और जो लेखक या लेखिका या कवि या कवयित्री इन बिंदुओं को समझ लेते हैं, वे महान साहित्यकारों की श्रेणी में आ जाते हैं। ये है मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग द्वारा रचित महान साहित्य।
साथियो, एक बात की ओर अक्सर ही इशारा किया जाता है बातचीत के दौरान, कि मार्क्स ने यह बात कही थी कि जैसे-जैसे पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली आगे बढ़ती जाएगी, मध्यम वर्ग दो हिस्सों में बँटता जाएगा। लेनिन ने भी इस ओर इशारा किया है। मध्यम वर्ग एक ढुलमुल वर्ग है। वह बनना तो चाहता है पूँजीपति, लेकिन सारे तो पूँजीपति नहीं बन सकते। यह संभव नहीं है। इसीलिए ज़्यादातर मध्यम तबके या छोटे उत्पादक या टीचर, डॉक्टर, वकील या दूसरे मध्यम वर्ग के तथाकथित हिस्से आम मेहनतकशों की ओर धकेले जाते हैं। यह पूँजीवाद का अंतर्विरोध है। इस बात की ओर मार्क्स और अन्य विद्वानों की रचनाओं में इशारा किया गया है कि कैसे दरमियानी तबके हैं, जब हम पूँजीवाद की बात करते हैं तो पूँजीवाद में केवल एकतरफ पूँजीपति और दूसरी ओर सिर्फ मेहनतकश वर्ग नहीं होता है, इन दोनों से भी बड़ा एक तबका होता है, जिसे हम दरमियानी तबका कहते हैं, मध्यम वर्ग कहते हैं। उनमें हमेशा अंतर्विरोधी परिवर्तन होता रहता है। उनका झुकाव आज यहाँ है तो कल वहाँ है, तो परसो और कहीं, उसके एक हिस्से के रूझान इस तरफ है तो दूसरे हिस्से के रूझान दूसरी तरफ हैं। लेकिन दुर्भाग्य से या सौभाग्य से, दुनिया का या हमारे देश का भी ज़्यादातर राजनैतिक नेतृत्व मध्यम तबके से ही आया है।  हिटलर का जब उदय हो रहा था जर्मनी में, तो मिडिल क्लास उसका बहुत बड़ा आधार था और उसे हिटलर से बहुत आशाएँ थीं।


जब पूँजीवाद शोषण करता है, खासकर बड़ा पूँजीवाद, तो मज़दूर वर्ग से ज़्यादा नाराज़गी इसी मध्यम वर्ग को होती है। उसके थोड़े-थोड़े, छोटे-छोटे विशेषाधिकार भी, या सम्पत्ति भी अगर उसके हाथ से निकल जाए तो विद्रोह की भावना से वह भर जाता है। विद्रोह भी कई प्रकार के होते हैं। एक विद्रोह अपने लिए होता है, व्यक्ति के लिए, अपनी सम्पत्ति, अपने मकान के लिए होता है, अपनी ज़मीन के लिए होता है। एक विद्रोह समुदाय के लिए होता है। एक विद्रोह इस या उस पूँजीपति को हटाने के लिए होता है और एक विद्रोह जो होता है, वह व्यवस्था को बदलने के लिए किया जाता है। इसमें अंतर किया जाना चाहिए। और यह अंतर करने का काम बुद्धिजीवियों का है। इसीलिए समाजवाद भी कई प्रकार के होते हैं - ये आज की बात नहीं है, बहुत पुरानी बात है। इन समाजवादों को आप एक जगह नहीं ला सकते। सर्वहारा समाजवाद होता है, पूँजीवादी समाजवाद होता है, सामंती समाजवाद होता है, मध्यवर्गीय समाजवाद होता है, टुटपूँजिया समाजवाद होता है, बदलता हुआ - परिवर्तनीय समाजवाद होता है। जो हमारा औद्योगिक समाज है, वह लगातार व्यक्तियों में परिवर्तन लाता है और उनको अपनी वर्तमान स्थिति से वंचित करता है, यह बात सही है। इसीलिए पढ़े-लिखे लोग, छात्र, नौजवान, टीचर, नेता, मध्यम तबके के लोग नाराज़ रहते हैं जो आखिरकार विद्रोह की भावना का रूप धारण करता है। लेकिन यह विद्रोह दो प्रकार का हो सकता है - पूँजीवाद का नाश कर के उसकी जितनी उपलब्धियाँ हैं, उन्हें हम नष्ट कर सकते हैं। उसने जो प्रगतिशील काम किया है इतिहास में, उसे नष्ट करके उसकी जगह प्रतिक्रियावादी सत्ता कायम कर सकते हैं। इसे ही फासिज़्म कहते हैं। मुसोलिनी और हिटलर ने यही किया था। एंटोनियो ग्राम्शी नाम के बहुत बड़े इटालियन दार्शनिक हो चुके हैं। उन्होंने बड़े अच्छे तरीके से इस मध्यवर्गीय प्रक्रिया और फासिज़्म के मध्यवर्गीय आधार को उजागर किया है। लेकिन ग्राम्शी तो स्वयं फासिज़्म विरोधी बुद्धिजीवी थे और ग्राम्शी और तोग्लियाकी जैसे महान विचारकों ने फासिज़्म का पर्दाफाश किया। लेकिन वे इटली या जर्मनी में फासिज़्म को रोक नहीं सके क्योंकि बुद्धिजीवियों के दूसरे तबके फासिज़्म से, फासिज़्म की चमक दमक से चमत्कृत थे। यह अंतर्विरोध इस तबके में होता है लेकिन फिर भी फासिज़्म से लड़ने का बीड़ा मध्यवर्गीयों ने ही उठाया, उनके बुद्धिजीवियों ने उठाया, उनके बुद्धिजीवियों ने उठाया। ऐसे बुद्धिजीवियों को ग्राम्शी ने कहा है - आर्गेनिक इंटिलेक्चुअल - जो मेहनतकशों का, आम जनता का, आम लोगों के हितों का, मेहनतकश जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहूँगा कि किसी भी प्रस्थापना को यांत्रिक रूप से नहीं लिया जाना चाहिए। मार्क्स और लेनिन खास परिस्थितियों में, खास प्रक्रिया का विश्लेषण कर रहे थे। लेकिन साथ-साथ त्रात्स्की ने भी एक बात कही कि इज़ारेदार पूँजीवाद के विकास के साथ मध्यवर्ग बढ़ रहा है योरोपीय देशों में। यह बात और भी कई विचारकों ने कही है। बाद का इतिहास यह साबित करता है - खासकर प्रथम विश्वयुद्ध एवं द्वितीय महायुद्ध के बीच का जो इतिहास है और उसके बाद का इतिहास, कि उनकी यह बात सही है। जहाँ इज़ारेदार पूँजीवाद विनाश करता है, वहीं गैरइज़ारेदार पूँजीवाद उत्पादन के साधनों का विकास भी करता है। और उत्पादन के साधनों और संचार साधनों के विकास के साथ, अखबारों के विकास के साथ, यातायात के साधनों के विकास के साथ मध्यवर्ग का जन्म होता है, आगे विकास होता है। इसीलिए इंग्लैण्ड, अमेरिका या फ्रांस जैसे देशों में और स्वयं तत्कालीन सोवियत संघ में भी बुद्धिजीवियों ने एक बहुत बड़ी भूमिका अदा की है - बहुत बड़ी संख्या में। रोम्यां रोला जैसे महान लेखक, इलिया एहरेनबर्ग, शोलोखोव या मैक्सिम गोर्की या हमारे देश में राहुल सांकृत्यायन हो, इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

इसीलिए बुद्धिजीवियों की भूमिका इतिहास में घटी नहीं है, बल्कि बढ़ी है, उनकी संख्या बढ़ी है। विज्ञान और तकनीक के विकास में, अर्थतंत्र और अर्थशास्त्र के विकास ने हमारे सामने नए तथ्य लाए हैं। इन तथ्यों का अध्ययन करना बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। और इसीलिए विचारधारा की लड़ाई चलती है। हम अक्सर विचारधारा की लड़ाई या विचारधारा के संघर्ष की बात करते हैं। लेकिन एक बात को, कम से कम मेरे व्यक्तिगत विचार से, हम भूल जाते हैं, इस बात को दरकिनार करते हैं, खासकर उस सच्चाई को, जब हम कहते हैं कि विचारधारा या विचार, चाहे वे किसी भी किस्म के हों, वे हमारे मानस या मस्तिष्क से जुड़े होते है और इसलिए यह सीधे मध्यवर्ग से भी जुड़े होते हैं। मध्यवर्ग ने ही फासीविरोधी चेतना पैदा की है और उसका विरोध किया है। भारत के आज़ादी का आंदोलन अगर देखा जाए तो उसमें पढ़े-लिखे लोगों की भूमिका निर्णायक रही। हमारे यहाँ पश्चिमी शिक्षा अंग्रेजों ने लागू की - सीमित रूप में, और अंग्रेजों के राज में कुछ मुट्ठी भर विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल बने, उनमें शिक्षित वर्ग पैदा हुआ। यह शिक्षित वर्ग राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और उसका एक हिस्सा आगे चलकर समाजवाद का वाहक बना। हमारे देश में वह इतिहास पैदा हुआ, वह संस्कृति पैदा हुई, वह साहित्य पैदा हुआ, जिसने साम्राज्यवादविरोध की आवाज़ बुलंद की, जनता को शिक्षित किया। उस साहित्य के बिना हमें आज़ादी नहीं मिलती। राहुल सांकृत्यायन की रचनाएँ पढ़कर आज भी नौजवान, बिना किसी प्रगतिशील लेखक संघ या पार्टी के, क्रांतिकारी और समाजवादी विचारों की ओर झुकते हैं, यह सच्चाई है। और इसीलिए प्रिंटेड वर्ड्स, मुद्रित साहित्य में बड़ी ताक़त होती है, वो ताक़त हथियारों में नहीं होती, आर्म्स और आर्मामेंड्स में वह ताकत नहीं होती है, जो किताबों, अखबारों और छपी हुई रचनाओं में होती है क्योंकि वह बच्चों से लेकर बड़ों तक, पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी चेतना का विकास करती हैं, हमें तैयार करती हैं, हमें मानव बनाती हैं।

और इसीलिए मध्यवर्ग बहुत महत्वपूर्ण स्थिति में है आज । आज इसका चरित्र बदल रहा है। यह एक अंतर्विरोधी वर्ग है। इसमें विभिन्न रूझानें हैं, इसका विकास द्वंद्वात्मक है। लेकिन इतना समझना या कहना काफी नहीं है। इतना कह लेने के बाद, समझ लेने के बाद इसमें यह अनिश्चितता कैसे कम की जाए, इसके नकारात्मक रूझानों को कैसे कम किया जाए और सकारात्मक रूझानों को कैसे मजबूत किया जाए? मेरा ख्याल है कि सचेत और सोद्देश्य आंदोलन बुद्धिजीवियों की, जो अपने को सोद्देश्य होने का दावा करते हैं, उनकी यह बड़ी जिम्मेदारी है।

साथियो, मैं इस बात पर जोर देना चाहूँगा कि आज हम एक अन्य औद्योगिक क्रांति से गुज़र रहे हैं। हम बड़े सौभाग्यशाली हैं, हमारी आँखों के सामने दुनिया बदल रही है। किसी जमाने में, औद्योगिक क्रांति के जरिए खेती की जगह मशीन का युग आया था। उसमें पूरा शतक या दो शतक लग गए थे। लेकिन आज कुछ दशकों के अंदर, तीस-चालीस वर्षों में ये परिवर्तन हुए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, खासकर पिछले तीस-चालीस वर्षों के अंदर दुनिया में वो परिवर्तन हुए है और चल रहे हैं, जो इतिहास में आज तक नहीं हुए हैं। ये परिवर्तन विज्ञान से संबंधित हैं, ये परिवर्तन तकनीक से संबंधित हैं। आज का विज्ञान बहुत जल्दी तकनीक में बदल जाता है। पहले विज्ञान को तकनीक में बदलने के लिए सौ साल लगते थे अगर, या दो सौ साल लगते थे, वहीं आज दस साल, पाँच साल, दो साल, एक साल के अंदर-अंदर विज्ञान तकनीक में बदल जाता है। आज से तीन-चार दशकों पहले हम इलेक्ट्रॉनिक युग की एक कल्पना-सी करते थे, दूर से बात करते थे, वो चीज़ हमें योरोप की चीज़ लगती थी लेकिन आज वह हमारे देश के विकास का अभिन्न अंग बन चुका है। और न सिर्फ हमारे देश का, बल्कि पूरी दुनिया की जो अर्थव्यवस्था है, पूरे दुनिया का जो समाज है, उसका निर्णायक तत्व वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति है। निर्णायक तत्व इसलिए है, कई कारणों से है कि वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति हमारी चेतना को तैयार करती है, हमारी चेतना का निर्माण कर रही है।    

किसी जमाने में आजादी के दीवाने भगतसिंह या कम्युनिस्ट पार्टी के लोग और कांग्रेस पार्टी के लोग कंधे पर झोला लटकाए, कुछ पतली-पतली किताबें लेकर गाँव में जाया करते थे और ज्ञान फैलाया करते थे। बड़े-बड़े नेताओं ने आज़ादी के आंदोलन में यह काम किया है। वे भी बुद्धिजीवी थे। उन्होंने ज्ञान दिया कि आज़ादी के लिए कैसे लड़ा जाए और आज़ादी के बाद नए भारत का निर्माण कैसे करें - वे सपने थे। कई लोग कहते हैं कि वे सपने टूट गए। खैर, यह एक अलग विषय है। आज वह जमाना गया। हालाँकि आज भी वे इलाके ज़रूर हैं, जहाँ झोला लेकर जाना पड़ता है, जहाँ पैदल चलना होता है। लेकिन आज सूचना, जानकारी, ज्ञान लोगों तक वर्षों में नहीं, घंटों, मिनटों और सेकंडों में पहुँच जाता है। इसका हमारे समाज के ढाँचे पर बहुत बड़ा असर पड़ रहा है। हमारा सामाजिक ढाँचा बदल रहा है और बहुत तेज़ी से बदल रहा है। पिछले दस वर्षों में भारत बदल चुका है। अगर हम प्रगतिशील हैं (प्रगतिशील वह है, जो सबसे पहले परिवर्तनों को पहचानता है) तो शर्त यह है कि इस परिवर्तन को हमें समझना पड़ेगा। यह परिवर्तन चीन में हो रहा है, नेपाल में हो रहा है, वेनेजुएला में, ब्राजील, क्यूबा में हो रहा है और योरोप और अमेरिका में तो हो ही रहा है। इसीलिए आज के आंदोलनों का चरित्र दूसरा है। आज मध्यम वर्ग बड़ी तेज़ी से बेहिसाब फैल गया है। इसलिए पुराने सूत्रों को ज्यों का त्यों लागू करना सही नहीं होगा। उसमें परिवर्तन, सुधार, जोड़-घटाव करना पड़ेगा। मसलन, आज बड़े कारखानों का युग जा चुका है। चिमनियों से धुआँ छोड़ने वाले कारखाने इतिहास के पटल से जा रहे हैं। उनके स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक कारखाने आ रहे हैं। मज़दूर वर्ग की संरचना बदल रही है। आप लोग औद्योगिक नगरी में रहते हैं, आपको ज़्यादा अच्छीतरह पता है कि कम्प्यूटरों का किसतरह इस्तेमाल हो रहा है, इलेक्ट्रॉनिक्स का किसतरह इस्तेमाल हो रहा है प्रोडक्शन में। और इलेक्ट्रॉनिक्स का इस्तेमाल करने का मतलब है सूचना का इस्तेमाल करना। सूचना का इस्तेमाल करने का अर्थ ही है मध्यवर्ग का बदलना, मध्यवर्गीय चेतना का बढ़ना, मध्यम तबकों का बढ़ना। यह बात मज़दूर वर्ग पर भी लागू है। पब्लिक सेक्टर का मज़दूर या मज़दूर वर्ग और कारखाने से बाहर दफ्तर में काम करने वाले, विश्वविद्यालय, कॉलेजों या अन्य जगहों में काम करने वाले कर्मचारी, पदाधिकारी और जो भी लोग हैं, जिन्हें हम आम तौर पर मिडिल क्लास की कैटेगरी में रखते हैं; इन दोनों के बीच का अंतर कम हो रहा है। न सिर्फ मध्यम वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है, स्वयं मज़दूर वर्ग का संरचनात्मक ढाँचा, उसकी संरचना भी बदल रही है। वह अब सीधे तौर पर प्रोडक्शन के साथ काम नहीं कर रहा है। और इसीलिए हमारे सामने यह महत्वपूर्ण टास्क है कि इस बदलते हुए का, परिवर्तन का विश्लेषण करना। अब समस्या यह है, संकट यह है कि ये जो नए तबके हैं, युवा वर्ग है, ये उस इतिहास को नहीं जानते हैं। इन्होंने उन उत्पादन के साधनों से काम नहीं किया है। गाँव खाली हो रहे हैं। गाँव की जो खेती है, पंजाब-हरियाणा जैसी जगहों में, उसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लग रहे हैं। हमारा जो काम करने का तरीका है कम्प्यूटर, इंटरनेट, ईमेल के साथ, वह दूसरा रूप धारण कर रहा है।


अभी मैं अपनी अगली किताब के लिए फैक्ट्रियों का अध्ययन कर रहा हूँ। देखकर आश्चर्य होता है। पूरे हॉल में आठ सौ स्पीकर्स लगे हुए हैं। गुजरात की एक फैक्ट्री है, उसके पहले गुंटूर की एक फैक्ट्री, उसके बाद पंजाब की एक फैक्ट्री में जाने का मौका मिला। पूरे हॉल के अंदर मुश्किल से दस-बारह वर्कर होंगे। लंच अवर चल रहा था। खाना-वाना खाकर एक-एक बिस्तर लेकर वे लोग लेटे हुए थे। मालिक और मैनेजर उनके सामने से गुज़र रहे थे। थोड़ी देर में उनका आराम करने का समय खत्म होने वाला था और वे लोग काम पर आने वाले थे। मार्क्स ने जब पूंजी लिखी तो लिखने के पहले आरम्भ में उसकी एक आउटलाइन या रूपरेखा लिखी, जिसे साहित्य में ‘ग्रुंड्रिस’ के रूप में जाना जाता है, यह ‘पूंजी की रूपरेखा कहलाती है। उसमें वे लिखते हैं कि अगर प्रोडक्शन ऑटोमेटेड होता है, तो मज़दूर, मज़दूर से ऑब्ज़र्वर के रूप में बदल जाता है। वह मशीन चलाता नहीं, मशीन चलती है और मज़दूर का काम है - उसकी देखरेख करना, उसका ध्यान रखना। आज जो इलेक्ट्रॉनीकरण हो रहा है, उसके जरिये इसमें भी भारी परिवर्तन हो रहे हैं।

साथियो, आज इस देश में तीस करोड़ या चालीस करोड़ मध्यमवर्ग का हिसाब लगाया जा रहा है। हमारे देश की एक चौथाई से एक तिहाई आबादी मध्यवर्ग की हो गई है, बनती जा रही है। क्या हम इस सच्चाई से इंकार कर सकते हैं? इनके बीच भी तरह-तरह की विचारधाराएँ काम करती हैं। कम से कम सौ-डेढ़ सौ चैनल्स काम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में, जो पिछड़ा हुआ माना जाता था और अभी भी है, यहाँ से भारी संख्या में अखबार निकलते हैं, पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं। हमारे देश में बड़े पैमाने पर सूचना की भूमिका बढ़ती जा रही है। छोटी से छोटी खबर बड़ी बनकर या बनाकर लोगों के सामने आती है। जब हम बुद्धिजीवियों या इंटेलिजेंसिया की बात करते हैं तो विचारों या विचारधाराओं का टकराव निर्णायक बनता जा रहा है। इस बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूँ। प्रगतिशील शक्तियाँ अगर इसकी उपेक्षा करती हैं, इस परिवर्तन की - जो परिवर्तन अंतर्विरोधी है, जिसमें बहुत सारी गलत बातें हैं। जैसे बहुत सारी गलत रूझानें हैं उसीतरह बहुत सी सही रूझानें भी हैं। इन्हें सही रूझानों की ओर झुकाया जा सकता है। अगर हम नए उत्पादन के साधनों को बड़े इजारेदारों के हाथ में छोड़ देते हैं तो समाज की जकड़न बढ़ जाती है। अगर नए उत्पादन के साधनों को मेहनतकश मध्यवर्ग और बुद्धिजीवी इस्तेमाल करता है सही तरीके से, तो बड़ी पूंजी की जकड़न कमज़ोर पड़ती है। वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति ने यह संभव बना दिया है कि जो उत्पादन, जो काम, पहले इस पूरे भवन में हुआ करता था, वह पाँच बाय पाँच के एक छोटे कमरे में हो सकता है। और इसीलिए छोटे पैमाने के उत्पादन की भूमिका बढ़ गई है। घर में बैठकर पढ़ने और काम करने की भूमिका बढ़ गई है। छोटे कार्यालयों की भूमिका बढ़ गई है। यातायात बहुत तेज़ी से बढ़ा है। इस चर्चा को आगे बढ़ाया जाए तो कहा जा सकता है कि देश और दुनिया के पैमाने पर स्थान और काल मिलकर एक नए स्थान और काल का निर्माण कर रहे हैं। That is collapse of Time and Space- जब टाइम और स्पेस कोलॅप्स करता है, तब चेतना का निर्माण नए तरीके से होता है। नया मध्यमवर्ग इसकी देन है - अंतर्विरोधों से भरा हुआ। इसीलिए मैं समझता हूँ कि आज नए सिरे से विश्लेषण की आवश्यकता है। इतिहास में पहली बार दुनिया के ज़्यादातर लोग शहरों में रहने लगे हैं। बहुत जल्दी भारत और चीन के लोग भी, पचास प्रतिशत या आधे से अधिक लोग शहरों में रहने लगेंगे। अब शहरों में ज़्यादातर औद्योगिक कामकाजी वर्ग ही नहीं रहता है, बल्कि मध्यम वर्ग रहता है। उनके बीच संगठन कैसे किया जाए? उनके बीच प्रगतिशील विचारों का प्रसार कैसे किया जाए? ये हमारे सामने चुनौती हैं। फ्लैटों में, कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटियों में, शहरीकृत इलाकों में, यहाँ तक कि उन हिस्सों में भी, जहाँ शहरीकरण हो गया है, हम अपने नए विचारों को कैसे पहुँचाएँ? इसमें इलेक्ट्रॉनिक तरीका भी शामिल है - यह प्रगतिशील ताकतों के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। इन विचारों के टकराव में अगर थोड़ी भी देर होती है तो जिन्हें हम गैरवैज्ञानिक विचार कहते हैं, वे बहुत जल्दी पनपते हैं। इसकी शिकायत करने से काम नहीं चलेगा। यह शिकायत का सवाल नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम इन वस्तुगत परिवर्तनों को देख रहे हैं या नहीं देख रहे हैं? इसलिए आज एक नए किस्म के बुद्धिजीवी की ज़रूरत है। जो बढ़ते हुए मध्यवर्ग से, जो देश की नीतियाँ निर्मित करता है या कम से कम प्रस्थापित करता है या प्रस्थापनाएँ तैयार करता है, उसमें इनपुट्स डालता है, चेतना को फैलाता है, उसकी बहुत बड़ी सामाजिक भूमिका है, उसके अंतर्विरोध हैं, उसकी कमियाँ हैं - उनका इस्तेमाल प्रगतिशील आंदोलन कैसे करता है! इनके बीच हम अपना साहित्य कैसे ले जाएँ? कितना है हमारा साहित्य इनके बीच? अगर हम छोड़ दें तो पूंजीवाद इनका इस्तेमाल करता है। वह तो करेगा ही। क्यों नहीं करेग कर ही रहा है।  प्रगतिशील ताकतों के पास कितने टीवी चैनल्स हैं? कितने अखबार प्रगतिशील तबके निकालते हैं? सन् 1907 में जर्मन डेमोक्रेटिक पार्टी, जो मज़दूरों की पार्टी थी जर्मनी की, एक सौ सात दैनिक अखबार निकालती थी। जर्मनी एक छोटा सा देश है, हमारे एक राज्य के बराबर। आज हमारे यहाँ कितने प्रगतिशील दैनिक अखबार निकलते हैं? कितने चैनल्स हैं, कितने ब्लॉग्स हैं? कितने ई-मेल और ई-स्पेस पर हमारा दखल है? हम प्रगतिशील साहित्य को कितने लोगों तक पहुँचा रहे हैं? या लोगों तक केवल त्रिशूल ही पहुँच रहा है? क्योंकि हमने जगह खाली छोड़ रखी है त्रिशूल पहुँचाने के लिए, कि पहुँचाओ भाई त्रिशूल! जतिवाद करने के लिए खुला मैदान छोड़ा हुआ है, इसकी जिम्मेदारी हमारे ऊपर भी है। रजनी पामदत्त ने एक जगह लिखा है कि Fascism is the punishment for not carries out Revolution उसी तर्ज़ पर आज हम कह सकते हैं कि प्रतिक्रियावादी विचारों का प्रसार, हमारे द्वारा काम नहीं करने या उचित तरीके से नहीं समझने की सजा है। जब इसतरह के संगठन वैज्ञानिक समझ रखने का दावा करते हैं तो उन्हें यह समझना चाहिए कि विज्ञान वो है, जो आने वाली घटनाओं की दिशा को भी पहले से समझ ले। इसीलिए मैं इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि तेज़ी से बदलती दुनिया में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है - भारत के मध्यवर्ग के बीच ज़्यादा से ज़्यादा काम करना। इसके अलावा भी उन्हें मज़दूरों, किसानों के बीच काम करना है ताकि भारत के जनता की चेतना, बुद्धिजीवियों की चेतना विज्ञान और सामाजिक शास्त्रों के सिद्धांत और नए सिद्धांतों की रचना कर सके। पुराने सिद्धांतों को, पुरानी बातों को बार-बार तोता रटंत की तरह दोहराते जाना काफी नहीं है। यह नुकसानदेह है। अब नए सिद्धांतों की रचना कितनी कर रहे है - नए सिद्धांतों की? क्या हममें वो सैद्धांतिक हिम्मत है? क्या हममें वह वैचारिक या विचारधारात्मक हिम्मत है? क्या हममें हिम्मत है कि हम नए वैज्ञानिक विचारों की रचना करें? जो आज के वैज्ञानिक, तकनीकी और इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के अनुरूप हो? हम जितना इस नई चेतना का निर्माण करेंगे, उतना ही मध्यवर्ग के बीच और सबके बीच हम प्रगतिशील विचारों का प्रसार कर सकेंगे।

Sunday, June 9, 2013

लखनऊ इप्टा ने मनाया 70वां स्थापना दिवस



 सेंसेक्स के मायाजाल में गोते लगाता आदमी, किसान क्रेडिट कार्ड तथा लुभावने कृषि ऋण में उलझता भोला किसान, इलेक्ट्रानिक मीडिया की चकाचौंध में भ्रमित नव युवतियां, सुबह से शाम तक मेहनत करता संविदा कर्मी, भविष्य के सुनहरे सपने देखता नव युवक यह  सभी फंसे हैं फन्दों में जिनका संचालन अपने को सर्वशक्तिमान मानने वाली शक्तियों द्वारा होता है। इन सभी को जाग्रत  करता है समाज का प्रगतिशील नौजवान। एक फंदे से छूटने के बाद यही वर्ग फंसता है जाति-धर्म के फंदे में, जहां केवल समस्याएँ हैं समाधान कोई नहीं। यह भाव है नाटक ‘मकड़जाल’ का, जिसका लेखन एवं निर्देशन इप्टा उत्तर प्रदेश के महामंत्री का.राकेश ने किया. इसका मंचन इप्टा की 70वी वर्षगाँठ पर 25 मई 2013 को इप्टा प्रांगण, कैसर बाग़, लखनऊ में दर्शकों की भारी भीड़ के मध्य हुआ. इसमें विभिन्न पात्रों को सशक्त रूप से राजू पांडे, देवाशीष, इच्छा शंकर, श्रद्धा, अनुज,विकास मिश्र, अनुराग तथा राकेश दिवेदी ने अभिनीत किया।इसके पूर्व एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसका विषय था ”मूल्य हीनता के दौर में प्रतिबद्धता एवं व्यापक सांस्कृतिक एकता की ज़रुरत“। विषय प्रवर्तन करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी तथा सुपरिचित आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि २५ मई १९४३ को जब इप्टा की स्थापना हुई थी तब कोई लेखक,साहित्यकार,संगीतकार या बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बद्ध ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो इप्टा से जुड़ा न हो, लेकिन आज इसका दायरा कुछ लोगों तक ही सीमित है। आज साहित्य की कसौटी से लेकर सामाजिक आन्दोलन में कोई भी खरा नहीं उतर रहा है। हम न आंदोलनों से न ही विचारों से कोई बड़ी मुहिम खड़ा कर पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि इप्टा को आत्मालोचना व बदलाव की ज़रुरत है। गोष्ठी में भाग लेते हुए जन संस्कृति मंच के कौशल किशोर ने कहा कि जो संगठन जन-सांस्कृतिक आन्दोलनों का उद्देश्य लेकर बनाए गए थे उनका इतिहास बेहद शानदार रहा है, लेकिन अब यह औपचारिकता भर रह गए हैं। प्रो. रूप रेखा वर्मा का विचार था कि इस तरह की विचारधारा वाले सभी संगठनों को अपनी असमानताओं के बजाये समानताओं को ध्यान में रखते हुए आगे बढना होगा। डॉ. रमेश दीक्षित की चिंता थी कि जनता के किसी वर्ग के साथ किसी संगठन का जीवंत सम्पर्क नहीं है। सारे वामपंथी कार्यक्रम केवल माध्यम वर्ग तक ही सीमित हैं. गोष्ठी में सर्वश्री शकील सिद्दीकी, अनीता श्रीवास्तव, सुशीला पुरी, सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ,दीपक कबीर ने भी अपने विचार रखे। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि मूल्य हीनता के इस दौर में आम लोगों को बहुत ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। स्थिति यह हो गयी है कि कार्य पालिका पर सवाल तो उठाये जाते रहे हैं लेकिन मौजूदा समय में कुछ मामले ऐसे आये कि न्यायपालिका पर भी लोगों को भरोसा करना मुश्किल हो गया है। अब इस स्थिति में आम जन जाए तो कहाँ जाए। इस मुश्किल दौर में व्यापक सांस्कृतिक एकता की ज़रुरत है जिसमें आम लोगों की समस्या पर संघर्ष किया जा सकता है।
गोष्ठी का सन्चालन करते हुए का. राकेश ने कहा कि आज के समय में लोगों के पास रंगमंच के अतिरिक्त भी मनोरंजन के साधन उपलब्ध हैं और दूसरी तरफ रंगकर्मी भी जल्द सफल होने की कामना रख रहे हैं। यही कारण है कि सामाजिक चेतना को बनाए रखने के लिए किया जाने वाला रंगकर्म कुछ कमज़ोर हुआ है। यात्राओं के नाम पर लोगों को जुटाया जाएगा और उनमें मानवीय मूल्यों को बचाने की कोशिश होगी. प्रयास किया जाएगा कि आपसी भाई-चारा कायम रहे।
इस आयोजन में इप्टा के जुगल किशोर, अखिलेश दीक्षित, ओ.पी अवस्थी, प्रदीप घोष, सुखेन्दु मंडल, ज्ञान चन्द्र शुक्ल, राजीव भटनागर, मुख्तार अहमद, विपिन मिश्रा, शैलेन्द्र आदि ने सक्रिय भूमिका निभाई।
(प्रस्तुति - ओ.पी अवस्थी )          

Saturday, June 8, 2013

सूचना आयोग का राजनीति दलों के बारे में फैसला

कानून के जानकारों के लिए केन्द्र सूचना आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों को सार्वजनिक अधिकरण घोषित करने का फैसला आश्चर्यचकित करने वाला है। आयोग ने अपने फैसले के जो भी आधार गिनाये हैं, उनका स्वयं का कोई कानूनी आधार नहीं है। निश्चित रूप से फैसले के खिलाफ न्यायपालिका में कई अपीलें प्रस्तुत की जायेंगी और कानून के विभिन्न पहलूओं पर विचार-विमर्श होगा, मीडिया खुद इस मुद्दे का ट्रायल शुरू कर पूरे देश में एक जन उभार पैदा करने की कोशिश करेगा। इन सबके परिणामों से इतर लोकतंत्र के वर्तमान हालातों में कुछ मुद्दे हैं, जिन पर गंभीरता से चिन्तन की जरूरत है।
वैसे केन्द्रीय सूचना आयोग की दलीलें तकनीकी और खोखली हैं। आयकर में छूट, पार्टी कार्यालयों के निर्माण के लिए भूमि का आबंटन, वोटर लिस्टों का दिया जाना उन्हें केन्द्र सरकार द्वारा फंडेड संगठन की श्रेणी में नहीं लाता है। जन प्रतिनिधित्व कानून कंे प्रभावी क्रियान्वयन के लिए लोकतंत्र में राजनीतिक तंत्र के प्रभावी रूप से कार्यशील होने के लिए उक्त सुविधायें सरकार द्वारा राजनीतिक दलों को दिया जाना लाजमी है। इसी देश में ऐसी तमाम कंपनियां और संगठन हैं, जिन्हें सरकार तमाम सुविधायें मुहैया कराती है। परन्तु वे सूचना के अधिकार कानून के बाहर हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग ने हास्यास्पद रूप से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को नई दिल्ली में 78 करोड़ की भूमि निःशुल्क दिये जाने की बात की है। ज्ञात होना चाहिए कि 4 दशक पहले कोटला रोड पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को अजय भवन के निर्माण के लिए जो भूमि का छोटा सा टुकड़ा दिया गया था, उसकी कीमत चन्द लाख रूपये थी। उस वक्त वह जगह वीरान थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार को भूमि की कीमत अदा करना चाहती थी परन्तु तत्कालीन सरकार ने कीमत लेने से मना कर दिया था।
राजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र की रक्त-मज्जा हैं। राजनीतिक दलों से स्वस्थ लोकतंत्र में अपेक्षा होती है कि वे लोकतंत्र को होने वाले तमाम बाहरी संक्रमणों (बीमारियों) से रक्षा करने की ताकत (एंटी बॉडीज) पैदा करें  परन्तु आज का कटु सत्य यह है कि हमारे वर्तमान पूंजीवादी राजनीतिक तंत्र ने भ्रष्टाचार रूपी एक ऐसी ताकत यानी एंटी बॉडीज का निर्माण कर दिया है जो भारतीय लोकतंत्र को ही चट किये जा रहा है। लाजिमी है कि एक जागरूक लोकतंत्र की जागरूक जनता में इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ एक गुस्सा हो। यह गुस्सा जायज है और हम इसके खिलाफ कुछ भी कहने नहीं जा रहे हैं।
ऐसे माहौल में अगर जनता राजनीतिक दलों की आमदनी के श्रोतों तथा खर्चों के बारे में जानना चाहती है, तो उसमें कुछ भी बुरा नहीं है। कुछ व्यक्ति विशेष ऐसा करते हुए, केन्द्रीय सूचना आयोग तक पहुंच गये तो इसका दोष उन्हें भी नहीं दिया जा सकता। हमारे विचार से उनकी इच्छा इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं थी। सरकार, राजनैतिक दलों और भारतीय संसद का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे इस जन भावना का आदर करते हुए इस बारे में एक प्रायोगिक एवं लागू किये जा सकने वाली संहिता के बारे में गंभीर मंथन करें। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। स्वैच्छिक संगठन (वालेंटरी अर्गनाईजेशन) होने के बावजूद उन्हें अपनी आमदनी एवं खर्चों को पारदर्शी बनाना चाहिए। ‘जन लोकपाल आन्दोलन’ के गर्भ से हाल ही में पैदा हुई आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल का यह दावा कि उनकी पार्टी ने एक रूपया चंदा देने वाले तक का नाम वेब साइट पर डाल दिया है, एक लफ्फाजी है, एक गैर जिम्मेदाराना बयान है, जिस पर चर्चा नहीं की जानी चाहिए। पूरे हिन्दुस्तान में फैले संजाल वाली किसी भी पार्टी के लिए ऐसा कर पाना बिलकुल असम्भव है। इसकी कामना भी लोगों को नहीं करनी चाहिए।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत अगर राजनीतिक दल फार्म 24 पर बीस हजार रूपये से ज्यादा का धन जमा करने वालों के नाम निर्धारित अवधि में भारत निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत नहीं करते हैं तो आय कर अधिनियम के अंतर्गत उन्हें अपनी आमदनी पर आयकर से मिलने वाली छूट नहीं मिलेगी। थोड़े दिनों पहले वित्तमंत्री ने इस सीमा को समाप्त कर सभी चंदा देने वालों का नाम इसमें घोषित करने की बात की थी और कहा था कि चुनाव आयोग की संस्तुति पर ही ऐसा किया जा सकता है। चुनाव आयोग ने जवाब दिया था कि यह कार्यपालिका का कार्य है। परन्तु इसे घटा कर हजार-दो हजार करना हास्यास्पद ही कहा जायेगा। इस सम्बंध में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 15 जुलाई 1998 और 5 जुलाई 2004 को सरकार को भेजे गये सुक्षाव स्पष्ट हैं। आयोग ने राजनीतिक दलों के लिए अपने खातों का अंकेक्षण अनिवार्य करने तथा उससे जनता को सुलभ कराने के बावत कानून बनाये जाने की जरूरत रेखांकित की थी। इस पर राजनीतिक दलों में बहस हो सकती है।
सन 2009 में आयकर अधिनियम में धारा 80 जीजीबी और 80 जीजीसी जोड़ कर कंपनियों एवं व्यक्तियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले चन्दे पर आयकर माफ कर दिया गया था। यह कानून जनता के अधिसंख्यक लोगों को मालूम नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह इस बारे में जनता की जागरूकता के लिए विज्ञापन जारी करे। निश्चित रूप से आयकर से छूट प्राप्त करने के लिए चन्दा देने वाले लोग रसीद को आयकर विभाग में प्रस्तुत करेंगे और आयकर विभाग के केन्द्रीय प्रॉसेसिंग सेन्टर को स्वतः इसका पूरा डाटा मिल जायेगा।
परन्तु लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी बैठकों में हुई बहस की जानकारी को गोपनीय रखने की अनुमति दी जानी चाहिए। बैठक के बाद हर राजनैतिक दल बैठक के फैसलों को प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से सार्वजनिक करता है। सामान्य व्यक्तियों को राजनीतिक दलों के अंदरूनी मसलों में नाक घुसेड़ने की आदत नहीं है। परन्तु सूचना आयोग ने जो करने की कोशिश की है, वह निश्चित रूप से राजनीतिक तंत्र में दलों में तोड़-फोड़ करने के लिए दूसरे सक्षम दलों को और सक्षम करने जैसा है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसा उचित नहीं होगा। केन्द्रीय सूचना आयोग को अपने फैसले पर स्वयं पुनर्विचार करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी

Tuesday, June 4, 2013

महिला हिंसा, उत्पीड़न,बलात्कार एवं ह्त्या की घटनाओं के विरुद्ध महिला फेडरेशन ने की आवाज़ बुलंद

महिला हिंसा, उत्पीड़न,बलात्कार एवं ह्त्या की घटनाओं के विरुद्ध विशाल धरना व प्रदर्शन


 

यह हैं कु.आन्या (अंशु )सुपुत्री श्री प्रांशु मिश्रा। आन्या अभी चार वर्ष पूर्ण कर पांचवें वर्ष में चल रही हैं और 'ला मार्टीनियर कालेज' की 'प्रीपेटरी' कक्षा की छात्रा हैं। आन्या के दादाजी कामरेड अशोक मिश्रा जी  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में राष्ट्रीय -स्तर के जाने-माने वरिष्ठ नेता हैं और उत्तर प्रदेश भाकपा के राज्य सचिव भी रह चुके हैं। आन्या की दादी जी   कामरेड आशा मिश्रा जी भी पार्टी की राष्ट्रीय -स्तर की नेत्री हैं जो 'महिला फेडरेशन', उत्तर प्रदेश की महासचिव भी हैं। 

 'आन्या'धरने  को संबोधित करते हुये एक क्रांतिकारी गीत का पाठ कर रही हैं। कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं : 

"कौन गिराए बम बच्चों पर  ?
कौन उजाड़े     उनके     घर   ?  
चलो पकड़ कर    लाएँ  उनको। 
मुर्गा अभी हम बनाएँ  उनको। । " 

 
अमर उजाला,लखनऊ सिटी परिशिष्ठ-5 जून 2013



आज 4 जून2013 को प्रदेश की राजधानी लखनऊ सहित पूरे प्रदेश में भयावह रूप से बढ़ रही महिला हिंसा,उत्पीड़न, बलात्कार एवं ह्त्या की घटनाओं को रोकने हेतु प्रदेश सरकार द्वारा अब तक कोइ कारगर कदम न उठाये जाने से आक्रोशित भारतीय महिला फेडरेशन की सैंकड़ों महिलाओं ने आज विधानसभा के सामने धरना व प्रदर्शन करके यौनिक अपराधों के मामले में तत्काल प्रभावी कदम उठाये जाने की मांग को लेकर मुख्यमंत्री को संबोधित 6 सूत्रीय ज्ञापन प्रेषित किया.
      प्रदर्शनकारी महिलाओं को संबोधित करते हुए फेडरेशन की महासचिव आशा मिश्रा ने कहा कि,दिल्ली की घटना के बाद पूरे देश व लखनऊ की सड़कों पर उमड़े जन आक्रोश व तमाम जन  आन्दोलनों के बाद भी उनकी मांगों पर सरकार ने अब तक कोइ कदम नहीं उठाये.
      उन्होंने शीघ्र प्रदेश के हर जिले में फास्ट ट्रेक कोर्ट गठित किये जाने तथा यौनिक अपराधों के मामलों की दिन प्रतिदिन सुनवाई कराकर पीडिता को शीघ्र न्याय दिलाये जाने की मांग की.
      जिला अध्यक्ष कान्ति मिश्रा ने पुलिस रिफोर्म बिल लागू करने,थाने  स्तर पर तत्काल प्रभावी कार्यवाही करने तथा थानों का कोइ त्वरित सहायता नंबर जारी करने की मांग की. जिला सचिव बबिता सिंह ने हिंसा से पीड़ित महिलाओं को सरकार द्वारा कानूनी मदद एवं बेसहारा महिलाओं के लिए पुनर्वास की व्यवस्था किये जाने की मांग उठाई.
      नव जाग्रति की सिस्टर प्रफुल्ला व संगीता शर्मा ने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 का प्रभावी क्रियान्वन किये जाने की मांग की. पी.यू.सी.एल. की वंदना मिश्र ने कहा कि शासन प्रशासन की संवेदनहीनता,पुलिस व थानों की लचर कार्यवाही तथा दुरूह व् जटिल न्यायिक प्रक्रिया के चलते महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता.
      प्रदर्शनकारी महिलाओं को प्रमिला बाजपेयी,शमीम बानों,ईजोंस,सुधा सिन्हा,सुनीता घोष,आशा चार्ल्स,चंद्रकला जोशी,गिरिजा त्रिपाठी,लाड़ली जायसवाल,विजय लक्ष्मी,अंशु,जेवियर,कमला यादव,शन्नो मिश्र व् अल्पना बाजपेयी आदि ने भी सम्भोधित किया

Saturday, June 1, 2013

बिजली तथा पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी के खिलाफ भाकपा करेगी 10 जून को प्रदेशव्यापी धरना-प्रदर्शन

पेट्रोल एवं डीजल पर वैट घटाने की भी मांग
लखनऊ 1 जून। घरेलू बिजली दरों में बेपनाह बढ़ोतरी पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आक्रोश जाहिर करते हुए कटु शब्दों में निन्दा की है और इसे तत्काल वापस लेने की मांग की है।
यहां पर जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में भाकपा के राज्य सचिव मंडल ने कहा है कि इस बढ़ोतरी से महंगाई की मार से पहले से ही व्यथित जनता एवं आम उपभोक्ता और भी तबाह हो जायेंगे। उपभोक्ताओं पर यह भारी भार इसलिए भी असहनीय हो जाता है कि उनको बहुत ही कम मात्रा में बिजली मिल रही है। बिजली की अंधाधुंध कटौती से लघु उद्योग और खेती तो प्रभावित हो ही रहे हैं, इतनी भीषण गर्मी ने आम नागरिक भी बेहद त्रस्त है। जितना खर्च राज्य सरकार ने लैपटॉप वितरण पर किया है, उससे कई गुना ज्यादा वसूलने का इंतजाम कर दिया है।
केन्द्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के चलते डीजल एवं पेट्रोल की कीमतों में एक बार फिर हुई बढ़ोतरी की भी निन्दा करते हुए भाकपा ने राज्य सरकार से मांग की है कि उसे उ.प्र. में पेट्रोल एवं डीजल पर कम से कम 2 प्रतिशत वैट कम करे ताकि पेट्रोल और डीजल की कीमतें उत्तर प्रदेश में दिल्ली एवं हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों के समकक्ष राज्य की जनता को मिल सकें। भाकपा ने कहा है कि समाजवाद लाने की बात करने वाली सपा सरकार को कम से कम इतना समाजवाद तो लाना ही चाहिए।
भाकपा ने ऐलान किया है कि बिजली तथा पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी के साथ-साथ प्रदेष की बद से बदतर हुई कानून-व्यवस्था को पटरी पर लाने, साम्प्रदायिक शक्तियों को षिकस्त दिये जाने, सभी बैंकों से लिये गये किसानों के कर्जे माफ किये जाने, महंगाई एंव भ्रष्टाचार पर अंकुष लगाने, चीनी मिलों पर गन्ने के समस्त बकायों का मय ब्याज के तत्काल भुगतान कराने, भुगतान में आनाकानी कर रहे मिल मालिकों के विरूद्ध मुकदमा दर्ज कराने, मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने तथा मजदूरी बढ़ाकर रू. 300.00 प्रतिदिन किये जाने तथा साल में 200 दिन काम की व्यवस्था किये जाने, खाद्य सुरक्षा कानून - जिसमें 35 किलो अनाज प्रति माह हर परिवार को रू. 2.00 प्रति किलो की दर से दिये जाने की गारंटी हो, शीघ्र से शीघ्र पारित कराने, महारानी लक्ष्मी बाई योजना के अंतर्गत समस्त पात्रों को बीपीएल दर पर 35 किलो अनाज देने के आदेष की धज्जियां बिखेर कर जनवरी, फरवरी और मार्च महीने में प्रदेष भर में हुये खाद्यान्न घोटाले की जांच सतर्कता अधिष्ठान से कराने आदि मुद्दों को लेकर भाकपा कार्यकर्ता पूरे प्रदेश में जिला मुख्यालयों पर धरना-प्रदर्शन आयोजित करेंगे।
कार्यालय सचिव