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Wednesday, October 9, 2013

अंतरंग (क्रोनी) पूंजीवाद के युग में वैकल्पिक मीडिया की जरूरत

संप्रग शासन काल में पूंजीवाद के साथ जिस विशेषण का लगातार प्रयोग किया गया वह है ”क्रोनी“। अर्थशास्त्र का ज्ञान न रखने वाले लोग इसे छोटा पूंजीवाद, कारपोरेट पूंजीवाद या ऐसा ही कुछ और समझ लते हैं। अंग्रेजी में ‘क्रोनी’ संज्ञा है जिसका अर्थ है ‘अंतरंग मित्र’। अंग्रेजी भाषा की यह खासियत है कि संज्ञा को विशेषण और क्रिया के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अर्थशास्त्री ”क्रोनी कैपिटलिज्म“ को पूंजीवाद का वह भ्रष्टतम रूप बताते हैं जिसमें शासक और पूंजीपतियों में अंतरंग मित्रता हो और दोनों एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार हों। यानी पूंजीवाद के जिस दौर से हम हिन्दुस्तान में गुजर रहे हैं वह पूंजीवाद का वही भ्रष्टतम रूप है जिसमें पूंजीपति और पूंजीवादी राजनीतिक दल अंतरंग मित्र बन चुके हैं। हमने पिछले पांच सालों में देखा कि पूंजीवाद के इसी भ्रष्टतम रूप के कारण संप्रग-2 के सात मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में त्यागपत्र देने को मजबूर होना पड़ा परन्तु उनमें से केवल एक ए.राजा को छोड़ कर किसी को भी जेल की हवा काटने अभी तक नहीं जाना पड़ा है। भाजपा भी इस भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही।
यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि इलेक्ट्रानिक संमाचार माध्यम और प्रिंट मीडिया (विशेष रूप से अंग्रेजी और हिन्दी) के मालिकान कारपोरेट घराने हैं और निश्चित रूप से पूंजीवाद के वर्तमान रूप में वे अपने राजनीतिक मित्रों और हितचिन्तकों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। आज पत्रकारिता पत्रकारिता रह ही नहीं गई है। इसे पत्रकारिता का कौन सा रूप कहा जाये, इस पर हम सबको विचार करना चाहिए। मीडिया आज कल कारपोरेट पॉलिटिक्स का औजार बन कर रह गया है।
आइये कुछ घटनाओं के साथ-साथ कारपोरेट मीडिया और राजनीतिज्ञों की अंतरंगता की बात करते हैं। रविवार 29 सितम्बर को दिल्ली में प्रधानमंत्री के इकलौते घोषित भाजपाई प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी की मीडिया में बहुप्रचारित रैली आयोजित थी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार लगभग 7000 सुरक्षाकर्मियों और 5000 कार्यकर्ताओं को सम्बोधित कर मोदी प्रस्थान कर गये। ठीक उसी वक्त इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यम इस रैली का ‘लाइव’ प्रसारण कर रहे थे और रैली में आई भीड़ को पांच लाख बता रहे थे। अगले दिन समाचार पत्रों ने इस रैली के समाचारों को मुखपृष्ठों पर बड़े-बड़े मोटे टाईप में प्रकाशित किया। यह वास्तविकता थी कि न कहीं जाम लगा और न ही मीडिया को पांच लाख की भीड़ आने पर लगने वाले जाम के न लगने पर कोई परेशानी हुई।
यही मीडिया अगले लोक सभा चुनावों को मुद्दों के बजाय दो व्यक्तियों - भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के अघोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी राहुल गांधी के बीच केन्द्रित कर देना चाहती है। कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस जीते या भाजपा नीतियां वहीं रहेंगी जो देशी और विदेशी पूंजी चाहती है, आखिरकार दोनों ही पार्टियां कारपोरेट घरानों की अंतरंग मित्र हैं।
आइये अब हाल में बनी ‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में चर्चा करते हैं। यह पार्टी तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी (अन्ना) आन्दोलन की कोख से पैदा हुई है। इस आन्दोलन के शुरू होने के पहले ही चर्चा गरम थी कि एक के बाद एक भ्रष्टाचार के खुलते मामलों पर जनता में व्याप्त आक्रोश को शान्त करने के लिए कारपोरेट घरानों और सत्ताधीशों की अंतरंगता से यह आन्दोलन आयोजित किया जा रहा है। इस आन्दोलन के दौरान दो बातें सामने आयीं जिनका एक बार फिर उल्लेख जरूरी होगा। पहला जिस तादाद में पूरे हिन्दुस्तान में प्रचार सामग्री की बाढ़ आई थी, उसके लिए एक बड़े तंत्र की और करोड़ों के धन की जरूरत थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के पास एकाएक पैसा कहां से आया और एकदम से इतना बड़ा तंत्र कहां से खड़ा हो गया, इन दोनों बातों पर प्रश्नचिन्ह आज तक लगा हुआ है? दूसरा कारपोरेट मीडिया ने भ्रष्टाचार के राजनैतिक सवाल पर इसे एक गैर राजनैतिक पहलकदमी बताते हुए जितना प्रचार-प्रसार किया, वह आन्दोलन के फैलाव से कहीं बहुत अधिक था। पूंजी और उसके चन्द समाजवादी पैरोकार राजनीति का गैर राजनीतीकरण करने के लिए बहुत अरसे से काम करते रहे हैं। 1957 में समाजवादियों के मिलान सम्मेलन से विचारधारा विहीन मनुष्य की जिस परिकल्पना का जन्म हुआ था, जिसे आपातकाल के दौर में संजय गांधी ने पाला पोसा, उसे ही आज कारपोरेट मीडिया आगे बढ़ा रहा है। नवउदारवाद के जन्म के साथ उसके बरक्स वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की भी शुरूआत हो गयी थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और आम आदमी पार्टी ने वैकल्पिक राजनीति को भारी नुकसान पहुंचाया और उसके इस कारनामे में कारपोरेट मीडिया उसका सहोदर बना रहा है। आज इस ‘आम आदमी पार्टी’ को मीडिया जितना कवरेज दे रहा है, उसका दशांश भी मुख्य धारा की वैकल्पिक राजनीतिक पार्टियों को वह कवर नहीं करता है।
लखनऊ में 30 सितम्बर को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ! सद्भाव, विकास एवं कानून के राज के लिए!!” के नारे के साथ लखनऊ में एक विशाल जुलूस निकाला और ज्योतिर्बाफूले पार्क में एक विशाल जनसभा की। यह घटना उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए महत्वपूर्ण इसलिए थी कि यहां काफी अरसे से वामपंथी पार्टियों का जनाधार विशालतम नहीं रहा है। इस रैली में मोदी की दिल्ली रैली के मुकाबले चार-पांच गुना अधिक कार्यकर्ता मौजूद थे फिर भी किसी इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इसे कवर नहीं किया। अंग्रेजी और हिन्दी के समाचार-पत्रों ने केवल स्थानीय पन्नों पर इसका जिक्र किया। उर्दू अखबारों पर अभी भी कारपोरेट मीडिया का स्वामित्व नहीं है। उर्दू समाचार पत्रों ने इस घटना को पूरी गम्भीरता से स्थान दिया।
कुछ भी माह पहले सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों तथा स्वतंत्र फेडरेशनों ने दिल्ली में एक बड़ी रैली की थी जिसमें लगभग एक लाख के करीब भीड़ थी। इस घटना को भी किसी टी.वी. चैनल ने नहीं दिखाया और समाचार पत्रों में जाम के कारण जनता को होने वाली असुविधा के समाचार ही छपे थे। एक लाख मजदूर और कर्मचारी पूरे देश से राजधानी दिल्ली में क्यों जमा हुए, कारपोरेट मीडिया का इससे कोई सरोकार नहीं था।
लगभग एक साल पहले वामपंथी पार्टियों ने जिस समय ‘हर परिवार को हर माह दो रूपये के हिसाब से 35 किलो अनाज की कानूनी गारंटी’ के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक हफ्ते धरना दिया था, उसी समय ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का उसी जंतर-मंतर पर धरना चल रहा था। मीडिया ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के धरने को लगातार दिखा रहा था परन्तु उससे कहीं बहुत अधिक बड़े वामपंथी पार्टियों के धरने को कवर नहीं किया गया। कुछ यही समाचार पत्रों ने भी किया था।
मीडिया के यह दोहरे मानदण्ड यह इशारा करते हैं कि पूंजीवादी राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति - वाम राजनीति के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत जरूरी है कि आम जनता एक विशालकाय वैकल्पिक मीडिया खड़ा करे। इसे एक रात में खड़ा नहीं किया जा सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि ”पार्टी जीवन“ और ”मुक्ति संघर्ष“ के प्रसार को आम जनता के मध्य ले जाया जाये। हर बड़े जिले में इन समाचार पत्रों के कम से कम 200-200 ग्राहक तथा छोटे जिलों में कम से कम 100-100 ग्राहक जनता के मध्य बनाये जाये, जिससे वैकल्पिक राजनीति के समाचार और लेख आम जनता के मध्य पहुंच सके। शुरूआत इसी से करनी होगी और हम आशा करते हैं कि हमारे साथी इसे गम्भीरता से लेते हुए इस कार्यभार को भी अदा करेंगे।
- प्रदीप तिवारी

Tuesday, August 7, 2012

मीडिया की गैर जिम्मेदाराना भूमिका

देश सूखा, बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में उलझा है। किसानों को उनके उत्पादों का पूरा मूल्य नहीं मिलता। आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। कहीं किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं, कहीं बेरोजगारी से तंग नौजवान आत्महत्यायें कर रहे हैं और कहीं भूख से लोगों की जाने जा रही हैं तो कहीं लोग बिना इलाज के मर रहे हैं।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली ठप्प हो चुकी है। सट्टेबाजों के आगे सरकार नत-मस्तक है। विकास दर को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए तरह-तरह के उपक्रम चल रहे हैं। चालू खाते का घाटा बढ़ता चला जा रहा हैं। सरकार को केवल (विदेशी) निवेशकों की चिन्ता है। लोग भूख से मर रहे हैं तो मरते रहें। सरकार भारी सब्सिडी देकर खाद्यान्न का निर्यात तो कर सकती है परन्तु भूखे देशवासियों को निवाला नहीं दे सकती।
30 जुलाई से वामपंथी दलों - भाकपा, माकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने आम जनता के लिए ”खाद्य सुरक्षा“ पर पांच दिवसीय धरना दिल्ली के जंतर-मंतर पर दिया। धरने पर रोजाना 5000 से अधिक का जनमानस रोजाना शामिल होता रहा। धरने में शामिल होने वाले लोग प्रतिदिन बदल रहे थे। देश के कोने-कोने से प्रतीकात्मक रूप से जनता प्रतिदिन आती थी, धरने में शरीक होती थी और वापस लौट जाती थी।
इस आन्दोलन की एक प्रमुख मांग थी - एपीएल और बीपीएल की श्रेणियों को समाप्त कर देश के हर परिवार को 2 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से 35 किलो अनाज का पैकेट घर-घर पहुंचाने की व्यवस्था की कानूनी गारंटी की जाये।
इसी जंतर मंतर पर दूसरी ओर एक दूसरा आन्दोलन चल रहा था - अन्ना टीम का आन्दोलन। इस आन्दोलन को चलाने वालों में तरह-तरह के लोग शामिल थे। यह आन्दोलन पिछले साल जब शुरू हुआ था तब से ही इसे चलाने वालों के चरित्र पर उंगलियां उठी थीं। शुरूआती दौर में ही इस आन्दोलन पर लगभग एक सौ करोड़ रूपये का खर्चा आया था। पूरे देश में तिरंगा झंडा, अन्ना के चेहरे वाली टीशर्ट, बैनरों आदि की बाढ़ आई हुई थी। यह सब व्यवस्था रातों-रात सम्भव नहीं थी। लोगों ने इस खर्च के श्रोत पर भी सवाल खड़े किये थे।
यह दूसरा आन्दोलन भी 3 अगस्त को समाप्त हो गया - इस घोषणा के साथ कि वह अब राजनीतिक विकल्प पेश करने के लिए काम करेगा। हालांकि एक दिन पहले तक वे राजनीति से दूर रहने की कसमें खा रहे थे।
मध्यम वर्ग में इस दूसरे आन्दोलन के प्रति उपजी सहानुभूति के स्पष्ट कारण थे। एक के बाद एक लगातार खुलते घपले-घोटालों की खबरों से आम जनता उद्वेलित थी। उसमें गुस्सा था। आजकल का वह मध्यम वर्ग जो टीवी पर चैनलों को बदल-बदल कर अपनी शाम काटता है, वह इस आन्दोलन के पहले दौर में बहुत प्रभावित हुआ था।
पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यम (मीडिया) का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन की खबरों से अटा पड़ा था और पहले वाले आन्दोलन का उसने बहिष्कार कर रखा था। इस बहिष्कार का एक कारण तो मालिकों की नीति थी तो दूसरी ओर मीडिया में काम कर रहे अति उत्साही और अतार्किक लोग थे।
इंदौर में 5 अगस्त को वरिष्ठ पत्रकार महेन्द्र जोशी की याद में ‘अण्णा आन्दोलन, मीडिया और आन्दोलन की परिणति’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने मीडिया पर आरोप लगाते हुए कहा कि (अण्णा हजारे के) आन्दोलन के दौरान मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भावनाओं में बह गया और उसने गैर जिम्मेदाराना बर्ताव किया। काटजू ने स्पष्ट कहा कि तटस्थ भाव से रिपोर्टिंग करने के बजाय वे खुद आन्दोलन का हिस्सा बन गये। काटजू ने कहा, ”आपमें (पत्रकारों में) गुणदोष के आधार पर विवेचना की क्षमता होनी चाहिये। आपको घटनाओं का तार्किक विश्लेषण करना था। लेकिन आप भी उसी जज्बात में बह गए। .... बाबरी मस्जिद आन्दोलन के दौरान भी हिंदी प्रेस का एक हिस्सा कारसेवक हो गया था। यह मीडिया का भारी दोष था।”
इस आन्दोलन के बारे में बाकायदा दलील देते हुए काटजू ने कहा कि अगर उनकी बातें मान ली जायें तो भ्रष्टाचार दो गुना हो जायेगा क्योंकि आजकल की निम्न नैतिकता के चलते अधिकतर निरंकुश लोकपालों के ब्लैकमेलर हो जाने का खतरा है।
इस आन्दोलन द्वारा देश को राजनैतिक विकल्प देने के सवाल पर काटजू ने कहा कि अन्ना ने कहा कि वे खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे क्योंकि चुनाव लड़ने में 15-20 करोड़ रूपये खर्च होते है और इतनी मोटी रकम उनके पास नहीं है। उन्होंने सवाल किया कि फिर चुनाव में 15-20 करोड़ रूपये खर्च करने लायक ईमानदार उम्मीदवार वे कहां से लायेंगे? उन्होंने मीडिया पर आरोप जड़ते हुए कहा कि गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, दवाइयों की किल्लत के अहम मुद्दों को प्रमुखता से दिखाने के बजाय वे क्रिकेट को अफीम की तरह परोस रहे हैं। उन्होंने मीडिया को सलाह दी कि वह जनता के बौद्धिक स्तर को अपनी रिपोर्टिंग से ऊंचा उठायें।
वास्तविक मुद्दों पर चुप्पी तथा गैर मुद्दों को सनसनी के तौर पर पेश कर राजनीति को मुद्दाविहीन बनाना मीडिया को बन्द करना चाहिए। इस मामले में हम जो कुछ कहना चाहते थे, कमोबेश वही न्यायमूर्ति काटजू ने कह दिया। मीडिया को इससे सबक लेना चाहिए। वैसे हमें भी वैकल्पिक मीडिया के लिए कुछ करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी

Wednesday, August 1, 2012

क्या मीडिया का यह रोल उचित है?

लखनऊ 1 अगस्त। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य एवं उत्तर प्रदेश राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने निम्नलिखित प्रेस बयान जारी किया है:

उस समय जब 100 में से 77 लोग 20 रूपये रोज में गुजारा करने को मजबूर हैं उस समय बीपीएल और एपीएल का लफड़ा खतम कर क्या हर परिवार को 35 कि.ग्रा. अनाज हर परिवार को हर माह 2 रु. प्रति कि.ग्रा. की दर पर मुहैय्या कराने की मांग से बढ कर कोई और मांग उचित हो सकती है? उस समय जब देश का किसान अपना पसीना बहा कर खाद्यान्नों के उत्पादन में जुटा हो; उसे उसकी पैदावारों की बाजिव कीमतें दिलाने और उन्हें खाद, बीज, कीटनाशक तथा डीजल आदि उचित मूल्य पर दिलाने की की मांग से अधिक महत्वपूर्ण कोई और मांग हो सकती है क्या? बेहद मेहनत से पैदा किये खाद्यान्न भण्डारण की व्यवस्था के अभाव में नष्ट हो रहे हों तो उनके भण्डारण की समुचित व्यवस्था की मांग करना कोई गुनाह है क्या? और इन मुद्दों को प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम में शामिल कराने की आवाज उठाना अनुचित है क्या? इन प्रश्नों का केवल यह जवाब है कि यह मांगे अनुचित नहीं बल्कि उचित हैं।
और जब देश भर की जनता कमरतोड़ महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही हो तथा महाभ्रष्टाचार के खिलाफ सडकों पर उतर रही हो उस वक्त वामपंथी दलों द्वारा राजधानी दिल्ली में दिया जा रहा पांच दिवसीय महाधरना नजरअंदाज किये जाने योग्य है क्या? इस प्रश्न का केवल एक ही उत्तर है कि कदापि नहीं।
लेकिन यही हो रहा है. उपर्युक्त ज्वलंत सवालों पर देश के चारों वामदल जो देश की राजनीति को जनोन्मुख बनाने में अहम् भूमिका निभाते रहे हैं, 30 जुलाई से जंतर मंतर पर पांच दिवसीय धरना दे रहे हैं जिसमें प्रतिदिन हजारों गरीब, मजदूर ,किसान भाग ले रहे हैं। इतना ही नहीं चारों दलों का शीर्ष नेतृत्व प्रतिदिन धरने में कार्यकर्ताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर बैठ रहे हैं। लेकिन प्रमुख समाचार पत्रों और न्यूज़ चैनलों द्वारा इस धरने को अपने समाचारों में पूरी तरह से नजरअंदाज करना एकदम विचित्र मगर सही घटना है जिस पर सहज विश्वास करना बेहद कठिन है। मीडिया का यह रवैय्या न केवल आश्चर्यजनक है अपितु खुद उसकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाला है जिसका दावा मीडिया चीख कर करता रहा है।
डॉ. गिरीश ने मीडिया से अपेक्षा जताई है कि वह जन हित के इन प्रमुख सवालों पर अनुकूल रुख अपनाएगा और निष्पक्षता की अपनी छवि को बनाये रखने में अपनी ही मदद करेगा।


कार्यालय सचिव

Tuesday, February 28, 2012

बिना शीर्षक के कुछ बातें

उत्तर प्रदेश के चुनाव चल रहे हैं। जब तक यह अंक सुधी पाठकों तक पहुंचेगा चुनाव खत्म हो चुके होंगे और जनता परिणामों का इंतजार कर रही होगी। फिर शुरू होगा परिणामों की समीक्षा का एक दौर और सरकार बनाने के लिए सम्भवतः जोड़-तोड़ का खेल। फिर आम जनता के बीच शायद एक लम्बी खामोशी? हमें इस खामोशी को तोड़ना होगा।
अभी साल भर भी नहीं हुआ है जब मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल के लिए स्वयंभू सिविल सोसाइटी द्वारा चलाये गये आन्दोलन को चौबीसों घंटे दिखा रहा था या छाप रहा था। हमने तब भी मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये थे। इस आन्दोलन के समय जनता के मध्य गुस्सा था भ्रष्टाचार के खिलाफ और महंगाई के खिलाफ। उस गुस्से का इज़हार जनता को इस चुनाव में करना चाहिए था। यह इज़हार हुआ कि नहीं इसकी हकीकत तो 6 जून को ही पता चलेगी परन्तु मीडिया ने इन चुनावों से मुद्दों के अपहरण में जो भूमिका अदा की है, उसकी पड़ताल भी होनी ही चाहिए। सभी समाचार पत्रों एवं समाचार चैनलों पर केवल उन चार पार्टियों का प्रचार होता रहा जिन्होंने भ्रष्टाचार से कमाये गये अकूत पैसे में से कुछ सिक्के मीडिया को भी दे दिये थे। केवल इन्हीं दलों के प्रवक्ताओं को बुला-बुलाकर उन मुद्दों पर बहस की गयी जो मुद्दे चुनावों में होने ही नहीं चाहिए थे।
प्रदेश में वामपंथी दल अपने सहयोगी जनता दल (सेक्यूलर) के साथ लगभग सौ से अधिक सीटों पर चुनाव मैदान में थे। समाचार पत्रों ने इन दलों के प्रत्याशियों के प्रचार को प्रमुखता से छापने की तो बात ही न कीजिए, ‘अन्य’ और ‘संक्षेप’ में भी इन प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार को छापने की जहमत नहीं उठाई। समाचार चैनलों ने परिचर्चाओं में भाकपा नेताओं में से किसी को भी बुलाने की जहमत नहीं की।
प्रदेश के चारों प्रमुख राजनीतिक दल मुद्दों से दूर भागते रहे। ”तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार“ से चुनावी राजनीति का सफर शुरू करने वाली बसपा ”ब्राम्हण शंख बजायेगा, हाथी बढ़ता जायेगा“ और ”चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर“ के बरास्ते इस चुनाव में ”चढ़ विपक्ष की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर“ आ गयी। भाजपा ने राम मंदिर बनाने का मुद्दा फिर चुनाव घोषणापत्र में शामिल कर लिया। समाजवादी पार्टी का पूरा चुनाव अभियान मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण के इर्द गिर्द घूमता रहा। कांग्रेस सोनिया, राहुल और प्रियंका रोड शो करते रहे, सलमान खुर्शीद और बेनी बाबू मुसलमानों के आरक्षण का राग छेड़ते रहे। बहुत दिनों के बाद वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवार बड़ी संख्या में चुनाव मैदान में थे। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में जनता के मुद्दों को उठाया।
पिछले चुनावों की तुलना में जनता ज्यादा तादात में मतदान केंद्रों तक गयी, यह अच्छी बात है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बढ़े मतदान प्रतिशत की हकीकत क्या है। जनता ने चुनाव सुधारों के नाम पर ”राईट टू रिजेक्ट“ की हवा ही निकाल दी। बहुत कम मात्रा में चुनाव आयोग के इस हथियार का इस्तेमाल जनता ने किया। यह दोनों बातें लोकतंत्र के मजबूत होने का संकेत हैं।
- प्रदीप तिवारी