Thursday, June 30, 2011

चुभती हुई चुप्पी


प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने पिछले दिनों मसूरी में ‘सत्ता और शब्द’ विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी में हिंदी के लेखकों से किसानों द्वारा अपनी भूमि बचाने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाने की अपील की थी। हिंदी के लेखकों से उनकी अपील कारूणिक अपेक्षा के साथ-साथ एक शिकायत भी थी। शिकायत यह कि इतिहास के इस सर्वग्रासी समय में जब हिंदी समाज के किसान अपनी जमीन और रोजी बचाने के लिए राजसत्ता, कॉरपोरेट जगत और बाजार से जद्दोजहद कर रहे हैं, उनकी लड़ाई में हिंदी के लेखक शामिल क्यों नहीं हो रहे हैं? वे चुप क्यों हैं?

आज उत्तर प्रदेश के बलिया से लेकर नोएडा तक बनने वाले गंगा-यमुना एक्सप्रेस-वे, बनारस के पास कटेसर में जबरन भूमि अधिग्रहण, इलाहाबाद के पास कचरी में लगने वाली जेपी समूह की ताप विद्युत परियोजना आदि के खिलाफ किसान लड़ाई लड़ रहे हैं। नोएडा के पास भट्टा-पारसौल और अच्छेपुर संघर्ष का मैदान बन चुके हैं। जिन लोगों की जमीन का अधिग्रहण हो रहा है उनमें बड़े-छोटे और सीमांत सभी तरह के किसान शामिल हैं। जिनके पास छोटे भूखंड हैं उनके लिए जमीन की लड़ाई ‘जान’ की लड़ाई बन चुकी है।

पहले किसानों को अपने पड़ोसी और शक्तिशाली सामंतों से अपनी जमीन बचानी पड़ती थी। इसमें राजसत्ता, थाना, कचहरी से अपेक्षा थी कि वे इन्हें बचाने में मदद करेंगे। पर आज दुखद है कि राजसत्ता खुद उनकी भूमि हड़प कर उसे जमीन-जायदाद के कारोबारियों और भू-माफिया को महंगे दामों पर बेच रही है। किसानों को बारह सौ रूपए प्रति वर्ग गज जमीन लेकर भवन निर्माताओं को आठ हजार रुपए प्रति वर्ग गज की दर से, वह भी बीस साल में चुकाने की छूट देकर, बेचा जा रहा है। जिस विकास के नाम पर खेती योग्य जमीन का अधिग्रहण जारी है, उसमंे राजसत्ता की छत्र छाया में सिर्फ जमीन-जायदाद के कारोबारियों और भवन निर्माताओं को फायदा पहुंचाया जा रहा है। राजसत्ता का चरित्र धीरे-धीरे ‘बिल्डर्स स्टेट’ और ‘मर्केंटाइल स्टेट’ में बदलता जा रहा है। सरकार का काम जैसे केवल किसानों से जमीन लेकर भू-माफिया को बेचना और इस प्रक्रिया में कमीशन और भ्रष्टाचार को वैधानिक बनाते जाना रह गया है।

बंगाल के नंदीग्राम और सिंगूर में जब खेती लायक जमीन अधिग्रहीत कर टाटा को कारखाना लगाने के लिए दी जा रही थी तो किसानों के संघर्ष में वहां के लेखक, कलाकर, बुद्धिजीवी खुल कर सड़कों पर उतरे थे। उनके फेसबुक, ब्लॉग वगैरह नंदीग्राम और सिंगूर के खिलाफ चल रहे संघर्ष की सूचनाओं और अपीलों से भर गए थे। मगर हिंदी के साहित्यकार-चाहे प्रगतिवादी हों, दलितवादी, जनवादी, आत्मवादी, आत्मरतिवादी, विश्व पर्यटनवादी - सब चुप है।

हिंदी क्षेत्र की युवा पीढ़ी, युवा लेखकों के साइबर स्पेस, फेसबुक आदि से बढ़ते संबंधों को ज्ञान और अभिव्यक्ति के अवसरों के जनतांत्रिकीकरण की दिशा मंे महत्वपूर्ण कदम माना गया था। मगर हिंदी लेखकों के साइबर स्पेस में (कुछ को छोड़ कर) भट्टा-पारसौल जैसी घटनाओं पर बहुत कम संवाद दिखता है। उनका ज्यादातर साइबर स्पेस या तो फूलों की घाटियों, प्रेम, विदेश यात्रा, साहित्यिक उपलब्धि की खबरों, आपसी साहित्य विवरणों से भरा दिखता है। इन जनतांत्रिक - सी माने जानी वाली संचारी जगह में किसानों के दुख, उनके संघर्ष के प्रति बहुत कम लगाव दिखता है। हिंदी पत्र - पत्रिकाओं, अखबारों में भी साहित्यकारों की ऐसे मामलों पर प्रतिबद्ध प्रतिरोध न के बराबर है। कोई विदेशों में काव्यपाठ पर मस्त है, कोई अपने साहित्यक गौरव को ओढ़-बिछा रहा है तो कोई अपने ही साहित्यिक बंधुओं को गला रेतने में लगा है।

नंदीग्राम और सिंगूर मामले में एक सक्षम और जागरूक नागरिक समाज काफी आक्रामक रूप में सक्रिय था। इस मुद्दे पर वहां के समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी सार्वजनिक रूझान बनाने वाले माध्यमों में मुखर थे। नाट्य मंडलियां, कलाकर सब लामबंद हो गए थे। वहां का विपक्ष उस लड़ाई को गतिमान बना ही रहा था। मगर हिंदी पट्टी में एक तरह से भू-माफिया का साम्राज्य फैलता जा रहा है और विपक्ष पांच सितारा राजनीति तक महदूद होता गया है। लेखक, बुद्धिजीवी सब चुप हैं। यहां नागरिक समाज राजनीतिक नहीं, एनजीओ केंद्रित हो गया है, जिसमें लगभग दो तिहाई से ज्यादा सिर्फ फर्जी रूप में कागजों पर चल रहे हैं और जो सचमुच अस्तित्व में हैं उनमें से ज्यादातर उसे नौकरी के विकल्प के रूप में देखते हैं। ऐसे में हिंदी क्षेत्र में किसानों को सरकार और बाजार की लूट से कौन बचाए?

आज जब राजसत्ता का दमन इतना संगठित, सुव्यवस्थित और आक्रामक हो चुका है, क्या किसान अकेले खुद को सरकार और बाजार के जुल्म से बचा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि अभी किसानों की अपनी कोई राजनीति और राजनीतिक शक्ति बनती नहीं दिख रही है। जो कम्युनिस्ट उनकी लड़ाई लड़ते थे वे आज हाशिये पर है।

आजादी से पहले और दशकों में उत्तर प्रदेश विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में गरीब, दलित और पिछड़े किसानों का मजबूत संघर्ष उभरा था। प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता जेडए अहमद की पुस्तक ‘मेरे जीवन की कुछ यादें’ पर भरोसा करें तो 1935 में मेरठ में गठित अखिल भारतीय किसान सभा अवध, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में काफी मजबूत हो चुकी थी। 1937 में फैजाबाद में हुए अखिल भारतीय किसान सम्मेलन मंे ही प्रो. एनजी रंगा अध्यक्ष चुने गए थे। अवध में बाबा रामचंद्र, जानकीदास, बिहार में स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, पूर्वी उत्तर प्रदेश में सरजू पांडे और जयबहादुर सिंह जैसे किसान नेता लघु और सीमांत किसानों, खेतिहर मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश में कृषक महिलाओं का नेतृत्व भी आजाद भारत में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा था। सिंहासनी देवी, मराछी देवी, सुबंसा देवी, कुसुमा देवी जैसी कृषक और निचली समूहों की महिलाएं कम्युनिस्टों और किसान सभा के नेतृत्व मंे आजादी के तुरंत बाद, 1950 के आसपास, किसान शक्ति का प्रतीक बन कर उभरी थी।

इस कृषक शक्ति ने साठ के दशक तक भारतीय राज्य पर कृषक हितों के लिए दबाव बनाए रखा। फिर सत्तर के दशक मंे बिहार के नक्सलवादी आंदोलन ने किसानों के सवाल को महत्वपूर्ण बनाया। पर उसके बाद चौधरी चरण सिंह, देवी लाल जैसे नेताओं के नेतृृत्व में लघु और सीमांत किसानों से जुड़े मुद्दों की जगह बड़े किसानों का हित प्रभावी हो गया। इससे सीमांत और लघु किसानों, कृषक मजदूरों में ऐसे किसान नेतृत्व के प्रति निराशा का भाव पैदा हो गया। उत्तर भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों का निष्प्रभावी होते जाना, लघु किसानों और खेतिहर मजदूरों में, जो ज्यादातर दलित और पिछड़े समूहों से थे, किसान अस्मिता के प्रति निराशाभाव, जातीय राजनीतिक अस्मिताओं के उभार, राज्य और बाजारजनित आकांक्षाओं का जनमन पर बढ़ते प्रभाव- सबने मिल कर धीरे-धीरे कृषक अस्मिता और कृषक शक्ति को अप्रासंगिक बना कर रख दिया। ऐसे में क्या कृषक शक्ति फिर से प्रभावी हो सकती है?

आज के संदर्भ में कृषक शक्ति के प्रभावशाली होने के लिए उसे अपने साठ से पहले के संघर्षशील अतीत को आविष्कृत कर अपनी शक्ति को जगाना होगा। विपक्षी राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों को कृषक प्रतिरोध के साथ कंधा मिला कर सरकार और बाजार के इस भूमि लूट को रोकना होगा।

- बद्री नारायण

Tuesday, June 28, 2011

ताकतवर कम्युनिस्ट आंदोलन गारंटी करेगा मजबूत भारत की - ए.बी. बर्धन

मानस (पंजाब) में विशाल रैली

ताकतवर कम्युनिस्ट आंदोलन गारंटी करेगा मजबूत भारत की - ए.बी. बर्धन
5 जून को मानसा पंजाब में युवा कामरेड श्योपॉल पाला की पहली पुणयतिथि पर एक राज्य स्तर विशाल रैली और आम सभा का अयोजन किया गया। आमसभा की अध्यक्षता बूटा सिंह ने की। सभा को संबोधित करने वालों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य जोगेन्दर दयाल पार्टी के राज्य सचिव निर्मल सिंह धालीवाल और पंजाब राज्य सचिव मंडल के सदस्य हरदेव अर्शी के अलावा भाकपा महासचिव ए.बी. बर्धन भी शामिल थे।

रैली मंे युवा एवं महिलाऐं भारी संख्या में शामिल थी। वक्ताओं ने युवा का. श्योपॉल को श्रद्धाजंलि अर्पित की जिन्होंने स्वयं को मेहनतकशों के लिए प्रतिबद्ध कर रखा था और जो एक अच्छे आंदोलनकारी और एक विनम्र कम्युनिस्ट थे।

हरदेव अर्शी ने अत्यधिक गर्मी के बावजूद सभा में शामिल होने के लिए आये विशाल जनसमुदाय का स्वागत करते हुए का. श्योपॉल के जीवन और युवा एवं कम्युनिस्अ आंदोलन को उनके योगदान के बारे में बताया। इस बवसर पर का. शिवपाल के पिता का. रूपचंद्र भी वहां मंच पर उपस्थित थे। अर्शी ने बताया की रैली की तैयारियों के दौरान आम लोगों मंे उत्साहपूर्वक पार्टी को चंदा दिया। उन्होंने इस तरह चंदे से जमा पांच लाख रुपयों और रैली में खर्च का अकाउंट सार्वजनिक तौर पर बताया और कहा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एक पारदर्शी पार्टी है, और जो जनता उस पर आस्था रखती है उसके प्रति उत्तरदायी है।

ए.बी. बर्धन ने रैली को संबोधित करते हुए यूपीए-दो सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाये जा रहे निरंतर संघर्ष में अधिकाधिक संख्या में शामिल होने के लिए जनता से अपील की। पार्टी लगातार बढ़ती महंगाई, खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण, बढ़ते भ्रष्टाचार और योजना आयोग द्वारा पेश गरीबी की परिभाषा के मुद्दों पर राष्ट्रव्यापी संघर्ष चला रही है। बर्धन ने कम्युनिस्ट विरोधी अभियान और कार्पोरेट मीडिया के इस दावे को अनर्गल बताया कि पश्चिम बंगाल में हार के बाद कम्युनिस्ट पूरी तरह हाशिये पर चले गये हैं। उन्होंने कहा कि 34 वर्ष के शासन के बाद चुनावी हार का ये मतलब नहीं कि कम्युनिस्ट खत्म हो गये हैं। भूलना नहीं चाहिये कि ताकतवर कम्युनिस्ट आंदोलन ही भारत को मजबूत बना सकता है। यह कम्युनिस्टांे का ही विश्वास नहीं है बल्कि भारत के व्यापक लोकतांत्रिक एवं प्रगतिशत तबकों का भी यही विचार है। उन्होंने जोर देकर कहा कि सरकार राष्ट्रविरोधी, जन विरोधी नीतियों-उन नवउदारवाद की नीतियों को जो मजदूर विरोधी, किसान विरोधी और मोटे तौर पर जन विरोधी हैं उन्हें यदि किसी ने लगातार चुनौती दी है और उनके खिलाफ निरंतर संघर्ष किया है तो वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी है, अन्य वामपंथी पार्टियां और वामपंथी जनसंगठन हैं। यदि इन नीतियों का जबर्दस्त विरोध न किया गया होता तो सरकार अब तक सार्वजिक क्षेत्र को सारे के सारे को बेच चुकी होती, सामाजिक सुरक्षा की सारी बातें बाजार के हवाले की जा चुकी होती।

बर्धन ने कहा कि कम्युनिस्ट संसद में कम संख्या में होते हुए भी मेहनतकश लोगों, समाज के कमजोर तबकों के हितों को बुलंद करने वाली सबसे बड़ी आवाज हैं। उन्होंने पार्टी के कार्यकर्ताओं हमदर्दो और समर्थकों से अपील की कि जनता एवं राष्ट्र हित में संघर्ष को तेज करने के लिए आगे बढ़े।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय सचिवमंडल की सदस्य और एटक की राष्ट्रीय सचिव अमरजीत ने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि यूपीए-दो सरकार देश में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और बढ़त हुई महंगाई के लिए जिम्मेदार है। महंगाई के कारण लोगों का जीना मुश्किल हो गया है। यूपीए-दो सरकार के कार्यकाल में इतने घोटाले सामने आये हैं कि पुराने रिकार्ड ही टूट गये है। यह भ्रष्टाचार, महंगाई और कालेधन की सरकार है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तो बहुत पहले से ही भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाती आयी हैै। पार्टी ने 42 साल पहले ही भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कानून बनाने की मांग उठायी थी।

भाकपा नेता इन्द्रजीत गुप्त ने जब वह देवेगौड़ा सरकार में गृहमंत्री थे लोकपाल बिल लाने की प्रक्रिया को शुरू किया था।

अमरजीत कौर ने कहा कि भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था और नवउदार आर्थिक नीतियों का नतीजा है। ये नीतियां अभूतपूर्व पैमाने पर बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भ्रष्टाचार विरोधर हर अभियान का समर्थन करती है पर ऐसे किसी अभियान में शामिल होना पसंद नहीं करेगी जो कार्पोरेट घरानों द्वारा प्रायोजित या समर्थित हो या जिसे ऐसे लोग चला रहे हों जो स्वयं भ्रष्टाचार में डूबे हैं। उन्होंने जोर दिया कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए व्यवस्था को बदलने की जरूरत है। उन्होंने मांग की कि 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को बदला जाये, उसे आदिवासियों और किसानों के हितों को ध्यान में रखकर बनाया जाये। उन्होंने ससंद और विधानसभाओं में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व की मांग को दोहराया।

जोगेन्दर दयाल और निर्मल धालीवाल ने अपने संबोधनों में पंजाब की अकाली दल-भाजपा सरकार की भर्त्सना करते हुए कहा कि यह सरकार पंजाब की अर्थव्यवस्था को तबाह कर रही है। पंजाब एक बार कांग्रेस की तो दूसरी बार अकालियों की सरकारों को भुगत रहा है जिनमें चंद लोग भ्रष्ट तरीकों से अथाह संसाधनों पर कब्जा कर रहे हैं और किसान आत्महत्या कर रहे हैं। पंजाब में भयानक बेरोजगारी है और पंजाब के लोगों के ऊपर 35000 करोड़ रुपये का कर्ज है। कानून का राज काम नहीं करता, अपराध बढ़ रहे हैं। इन सरकारों के कार्यकाल में इन पार्टियों के कई नेता और मंत्री घोटालों में शामिल रहे हैं। बादल सरकार जन आंदोलन को कुचलने और दबाने के लिए, रोजगार कम करने के लिए, मजदूरी घटाने के लिए नये कानून लेकर आयी है।

उन्होंने जनता का आह्वान किया कि ऐसी जन विरोधी पार्टियांें और ताकतों को हटाने के लिए तैयारियां करे और आगामी चुनावों में वामपंथी और लोकतांत्रिक विकल्प के लिए रास्ता तैयार करे।

रैली के अवसर पर पार्टी की मानसा जिला ईकाई ने राज्य पार्टी को 31,000 रुपये की राशि भेंट की। का. श्योपॉल की पत्नी श्रीमती ऊषा और उनके परिवार के लोग इस विशाल स्मृति रैली में मंच पर उपस्थित थे। रैली के दौरान सांस्कृतिक जत्थे ने क्रांतिकारी गीत गाये।

उत्तर प्रदेश में असली जंगल राज


गत दिनों बालिकाओं एवं महिलाओं के साथ बलात्कार और फिर उनकी हत्या के इतने मामले अखबारों में प्रकाशित हुए कि प्रदेश सरकार का पूरा अमला उन्हें नकारने में लगा रहा लेकिन सरकार का हर दावा अगले दिन ही झूठा साबित हो गया। लखीमपुर के निघासन थाने के परिसर में एक दलित बालिका का शव लटका हुआ पाया गया था। मायावती सरकार ने इसे खुदकुशी बता कर लीपापोती की भरसक कोशिश की। पुलिस वालों ने लाश को बाकायदा नहला-धुला कर पोस्टमार्टम के लिए भेजा लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ कि दलित बालिका की हत्या की गयी है। अगले ही दिन बाराबंकी के घुंघटेर थाने में एक व्यक्ति की हत्या कर दी गयी। मुजफ्फरनगर के बसपा विधायक के गुर्गों ने दिल्ली की देा लड़कियों का राष्ट्रीय राजमार्ग से अपहरण कर उनकी इज्जत लूटने की सरेआम कोशिश की। विधायक के सरकारी अंगरक्षक भी इस अपराध में शरीक हो गये। फिर भी मायावती के खास सांसद बाबू मुनकाद ने बेशर्मी से बयान दिया कि घटना में शामिल लोगों का बसपा से कोई नाता नही था।

बसपा के नेताओं और पुलिस कर्मियों द्वारा बलात्कारों और हत्याओं को झुठलाने में लगी मुख्यमंत्री मायावती के राज में लखनऊ जेल में निरूद्ध लखनऊ के उप मुख्य चिकित्साधिकारी डा. वाई.एस. सचान की हत्या कर दी गयी। डा. सचान पर मायावती की पुलिस ने लखनऊ के पिछले दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की हत्या का आरोप लगाते हुए उनकी पुलिस रिमांड के लिए अदालत में आवेदन दिया था। अदालत ने डा. सचान को अगले दिन अदालत में तलब किया था। उसके एक दिन पहले ही जेल में उनकी हत्या ने कई नये सवाल खड़े कर दिये हैं जिनके जवाब आसानी से मिलने वाले नहीं हैं। आम जनता तक कह रही है कि नेशनल रूरल हेल्थ मिशन में अरबों रूपयों का घोटाला मायावती के दो खास कारिंदों बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत मिश्रा ने करवाया है और चूंकि डा. सचान के दिल में इस लूट के तमाम राज दफन थे जिन्हें वे अदालत के सामने सरेआम बोल सकते थे, इसलिए उनकी हत्या मायावती सरकार द्वारा करवाई गयी है। इस मृत्यु को जिस प्रकार आत्महत्या बताने के लिए जेल और पुलिस के उच्चाधिकारियों के साथ ही मायावती के खास कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह व्यस्त थे, उससे कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ नजर आ रहा था। लखनऊ मेडिकल विश्वविद्यालय में पांच डाक्टरों के पैनल ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु पूर्व के आठ जख्मों तथा मृत्यु के बाद के गर्दन के जिस एक जख्म का जिक्र किया, उससे साफ है कि डा. सचान की हत्या के बाद उनके शव को बेल्ट से लटकाया गया था। लखनऊ की उच्च सुरक्षा जेल के अन्दर बेल्ट से डा. सचान की लाश लटकी बताई गयी थी तथा पोस्टमार्टम में जिन घावों का जिक्र है वह किसी धारदार भारी हथियार से ही किये जा सकते हैं। वो बेल्ट और धारदार हथियार जेल में कैसे पहुंचे, इसका कोई स्पष्टीकरण मायावती के सरकारी कारकुनों के पास नहीं है। जेल में हत्या की यह पहली घटना नहीं है। इसके पहले कविता चौधरी हत्याकांड के आरोपी रवीन्द्र तथा पीएफ घोटाले के मुख्य आरोपी आशुतोष अस्थाना की हत्यायें गाजियाबाद जेल में हुई थीं। जेलों में हुई कुछ अन्य मौतों पर भी सवालिया निशान लगे थे।

दरअसल मायावती के राज में हर कोई लूट में लगा है। निदेशालयों से लेकर थानों तक पर तैनाती की बाकायदा नीलामी होती है। बसपा के सांगठनिक तंत्र में अध्यक्ष और मंत्री जैसे किसी पदाधिकारी की कोई औकात नहीं होती। जिला, मंडलीय और राज्य स्तरीय कोआर्डिनेटर मायावती द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। कहा जाता है कि यही कोआर्डिनेटर मायावती के पूरे भ्रष्ट तंत्र के खेवनहार हैं। कोआर्डिनेटर नियुक्त होने के पहले भूखों मरने वाला कोआर्डिनेटर बनने के 3-4 महीने में ही किसी महंगी बड़ी कार (एसयूवी) से चलता हुआ दिखता है। स्थानान्तरण और पोस्टिंग के लिए सरकारी मुलाजिम इनके आगे-पीछे टहलते हुए नजर आते हैं।

अगले साल उत्तर प्रदेश में विधान सभा का चुनाव होना है। इन चुनावों के मद्देनजर कई तरह की बातें की जा रहीं हैं। हर कोई अपने नफा-नुकसान के लिहाज से व्याख्यायें कर रहा है। उससे इतर प्रदेश की आम जनता मायावती के राज को जंगल राज बता रही है।

- प्रदीप तिवारी

Monday, June 27, 2011

अदालतें भ्रष्टाचार से मुक्त हों

न्यायपालिका के पास विशाल शक्तियां है क्योंकि वह जो कहती है अंतिम बात होती है, अचूक एवं अमोध। इतनी शक्तिशली है न्यायपालिका कि जब कार्यपालिका का कोई अधिकारी कानून का उल्लंघन करता है तो जज उसके आदेश को निरस्त कर सकते हैं और हुक्मनामे की अपनी ताकत से दिशा-निर्देश दे सकते हैं। जब संसद कोई कानून पास करती है और कानून का अतिक्रमण कर देती है या मौलिक अधिकारों की सीमाओं से बाहर निकल कर आदेश जारी करती है तो अदालत उस आदेश और कार्रवाई को खारिज कर सकती है। पर जब उच्च न्यायालय कानून के बेरोकटोक उल्लंघन के अपराधी हों तो उनकी इस चूक, उनकी इस गलती के लिए न कोई तरीका है न संहिता। हर संविधान का एक सामाजिक दर्शन होता है, खासकर भारत के संविधान का एक सामाजिक दर्शन है। हम एक समाजवादी लोकतांत्रिक गणतंत्र हैं। यदि संविधान के इन आदेशों का उल्लंघन होता है और जजों से जिस तरह के बरताव की उम्मीद की जाती है वे उस बरताव को धता बता देते हैं तो किसी को अधिकार नहीं कि उन्हें सही रास्ते पर लाये और उनके दुराचार को ठीक करे।

“जज लोग तत्वतः दूसरे सरकारी अधिकारियों से कुछ अलग नहीं हैं। न्यायिक ड्यूटियों पर आकर भी सौभाग्य से वे इंसान बने रहते हैं। अन्य इंसानों की तरह उन पर भी समय-समय पर गर्व और मनोविकारों का, तुच्छता एवं चोट खायी भावनाओं का, गलत समझ या फालतू जोश का असर पड़ता है।” - ह्यूगो ब्लैक

अपनी पुस्तक में डेविड पैमिक जजों के बारे में लिखते हैंः

“अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस जैक्सन ने 1952 में टिप्पणी की कि “जो लोग कुर्सी पर पहुंच जाते हैं कभी-कभी घमंड, गुस्सेपन, तंग नजरी, हेकड़ी और हैरान करने वाली कमजोरियों जैसी उन कमजोरियों का परिचय देते हैं जो इंसानियत को विरासत में मिली हुई है। यह हैरानी की बात होगी, असल में चिंताजनक बात होगी यदि जो प्रख्यात दिमाग लोग इंग्लैंड की न्यायापालिका में हैं यदि वे अपने अवकाश, जो उन्हें विरले ही मिलता है, के दिनों में गैरन्यायिक तरीके से काम करें। हाल में लॉर्ड चांसलर हेल्शाम ने स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि जो लोग जज की कुर्सी पर बैठते हैं कभी वे उस चीज का शिकार हो जाते हैं जिसे जजी का रोग कहते हैं अर्थात एक ऐसी हालत जिसके लक्षण हैं तड़क-भड़क , चिड़चिड़ापन, बातूनीपन, ऐसी बातें कहने की प्रवृत्ति जो मामले में फैसला करने में जरूरी नहीं होती और शोर्टकट का रूझान।”

दुख की बात है कि कानून के अंदर महाभियोग-जो इस बीमारी के बढ़ने से रोकने के लिए एक राजनैतिक इलाज है- के अलावा इसका अन्य कोई इलाज नहीं। इन चिंताजनक बातों से भी बदतर बात है वो जो लार्ड एक्शन ने ही है- ”सत्ता भ्रष्ट बनाती है और चरम भ्रष्ट बनाती है।” लोकतंत्र में लोगों को न्यायपालिका की आलोचना करने का अधिकार है जिससे पारदर्शी, स्वतंत्र, अच्छे व्यवहार वाली, पक्षपात से दूर और हर किस्म की कमजोरियों से मुक्त होने की अपेक्षा की जाती है। कितना भी महत्वपूर्ण मामला क्यांे न हो हर विवाद मंे जज जो फैसला करते हैं वह उस संबंध में अंतिम फैसला होता है। अतः जजों का चयन जांच-पड़ताल के बाद और उनकी वर्ग राजनीति और वर्ग पूर्वाग्रहों के समीक्षात्मक मूल्यांकन के बाद हद दर्जे की सावधानी के साथ किया जाना चाहिये। (देखिये, पोलिटिक्स ऑफ जुडिशयरी, लेखक प्रो. ग्रिफिथ)।

“जज लोगंों आप कहां निष्पक्ष हैं?” वे सभी कर्मचारियों की तरह उसी गोल चक्कर में चलते रहते हैं और नियोक्ता लोग जिन विचारों में शिक्षित हुए हैं और पले-बढ़े हैं जज लोग भी उन्हीं शिक्षित और पले-बढ़े हैं। किसी मजदूर या टेªड यूनियन कार्यकर्ता को इंसाफ कैसे मिल सकता है? जब विवाद का एक पक्ष आपके वर्ग का होता है और दूसरा आपके वर्ग का नहीं होता तो कभी-कभी यह सुनिश्चित करना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि आपने इन दो पक्षों के बीच स्वयं को पूरी तरह निष्पक्ष स्थिति में रखा है।”

- लॉर्ड जस्टिस स्क्रटून

न्याय और न्यायतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और भाई-भतीजावाद। हाल के दिनों में न्यायापालिका में भ्रष्टाचार बहुत अधिक बढ़ा है यहां तक कि सर्वोच्च स्तर पर भी। गुनाहगार जजों पर संसद में महाभियोग का तरीका पूरी तरह नाकाफी और बेकार साबित हुआ है, इसका ज्वलंत उदाहरण है रामास्वामी का मामला। प्रशांत भूषण ने मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार का जो आरोप लगाया है, और जिसका समर्थन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वर्मा ने किया है, क्या उसमें रत्तीभर भी अतिशयोक्ति है? जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप दिन दूना रात चौगुना बढ़ते ही जा रहे हैं। महाभियोग इनका कतई कोई समाधान नहीं है। अदालतों में बकाया पड़े-मुकदमों का अम्बार बढ़ता जा रहा है, पार्किन्सन्स कानून (संख्या बढ़ा दो) और पीटर प्रिंसिपल (अयोग्यता में वृद्धि) कोई इलाज नहीं, इसका इलाज है नियुक्ति आयोग (अपॉइटमेंट कमीशन) और एक ऐसा कार्य निष्पादन आयोग (परफोर्मेन्स) कमीशन जिनके पास काफी अधिक शक्तियां हों। नियुक्ति आयोग के पास यह शक्ति हो कि वह कार्य पालिका द्वारा नियुक्ति के लिए सुझाये गये नामों को खारिज कर सके और नियुक्ति से पहले उनके नाम सार्वजनिक कर सके। परफोर्मेन्स कमीशन के पास जजों के दुराचार के खिलाफ जांच करने की और दोषी पाये जाने पर उन्हें बर्खास्त करने की शक्तियां हों। ये चीजें संविधान में संशोधन कर न्यायिक आचरण संहिता का हिस्सा होना चाहिये। प्रस्तावित उम्मीदवार के बारे में कुछ कहने का अधिकार हर नागरिक को होना चाहिए। क्यों?

एक रोमन कहावत हैः जिस चीज का हम सब पर असर पड़ता है उसका फैसला सबके द्वारा होना चाहिये। हमारी न्यायापालिका अभी भी एक प्रतिष्ठित संस्था है। उनके नियतकालिक पाठ्यक्रम होने चाहिये ताकि वे अपने विषय में पूरी तरह पारंगत रहें।

- वी.आर. कृष्ण अय्यर

Saturday, June 25, 2011

ईंधन की कीमतें बढ़ाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का आह्वान


लखनऊ 25 जून। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने केन्द्र सरकार द्वारा डीजल, रसोई गैस एवं केरोसिन कीमतों में फिर एक बार बढ़ोतरी की कड़ी आलोचना की है और आम आदमी को तबाह करने वाली इस वृद्धि को तत्काल वापस लेने की मांग की है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि डीजल के दामों में रू. 3 प्रति लीटर, रसोई गैस के सिलेंडर पर रू. 50 तथा केरोसिन के दामों में रू. 2 प्रति लीटर की वृद्धि करके संप्रग-2 सरकार ने महंगाई की मार से पहले से पीड़ित आम आदमी पर एक और कुठाराघात किया है। महंगाई की दर पहले ही 9 अंक का आंकड़ा पार कर चुकी है। डीजल के दामों में वृद्धि से माल भाड़ा बढ़ेगा जो हर जरूरी चीज के दाम बढ़ा देगा। यह पूरी तरह असहनीय है और शासक वर्ग की संवेदनहीनता का जीता-जागता प्रमाण है।
भाकपा राज्य सचिव ने कहा कि पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि का प्रमुख कारण केन्द्र सरकार द्वारा कच्चे तेल पर गत वर्ष बढ़ाया गया आयात कर है तथा बड़ी मात्रा में लगने वाला उत्पाद कर है। अब सरकार ने इसी आयात कर में मात्र 5 प्रतिशत की घटोत्तरी कर जनता की आंखों में धूल झोंकने का काम किया है। ये सरकार अब भी पेट्रोलियम पदार्थों के कर ढांचे को बदलने और मूल्य आधारित करों को त्यागने को तैयार नहीं है। राज्य सरकार भी बढ़ी हुई कीमतों की एवज में अतिरिक्त वैट वसूलने से बाज नहीं आ रही है। हर तरह से तबाही आम और गरीब आदमी की हो रही है।
प्रदेश भाकपा ने अपनी तमाम जिला एवं स्थानीय इकाइयों को निर्देश दिया है कि वे तत्काल इस मूल्यवृद्धि का असरदार तरीके से विरोध करें और जगह-जगह संप्रग-2 सरकार के पुतले जलायें, विरोध प्रदर्शन एवं आम सभायें आयोजित करें। आन्दोलन को और प्रभावी तथा धारदार बनाने को भाकपा ने अपने तमाम राज्य कौंसिल सदस्यों और जिला सचिवों को 2 एवं 3 जुलाई को लखनऊ पहुंचने का निर्देश दिया है ताकि बैठक कर आवश्यक निर्णय लिये जा सकें।

Wednesday, June 22, 2011

पॉस्को के खिलाफ संघर्ष जनता के साथ एकजुटता प्रकट करने के लिए 24 जून को पॉस्को विरोधी दिवस मनाओ


लखनऊ 22 जून। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी केन्द्र एवं उड़ीसा सरकार द्वारा जगतसिंहपुर जिले में पॉस्को के संयंत्र की स्थापना के लिए दी गयी मंजूरी के खिलाफ संघर्षरत है। सरकारों द्वारा इस मामले में अब तक उठाये गये सभी कदम देश के कानूनों का उल्लंघन हैं। पुराने एमओयू की अवधि समाप्त हो चुकी है। कोई नया एमओयू अस्तित्व में नहीं है। फिर भी सरकार आगे बढ़ती जा रही है। भूमि के अधिग्रहण के लिए उड़ीसा की राज्य सरकार बदतर पुलिस उत्पीड़न का सहारा ले रही है। सरकार पॉस्को को संयंत्र लगाने के लिए जिस भूमि को देना चाहती है वह महानदी डेल्टा में एक अति उपजाऊ भूमि है। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने के बहाने बदनाम पॉस्को को हर सम्भव मदद मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्ध है और उसे पर्यावरण, सागर तट की प्रतिरक्षा, बड़ी संख्या में जनता के प्रतिस्थापन की रंचमात्र चिन्ता नहीं है।



अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के बढ़ते राजनीतिक दवाब में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी खुद की विशेषज्ञ कमेटी की अनुशंसा के विपरीत सभी अनुमतियां जारी कर दी हैं। लेकिन अभय साहू के नेतृत्व में पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के बैनर तले वहां की जनता पिछले छः सालों से भूमि के अधिग्रहण के खिलाफ संघर्षरत है। प्रतिरोध की अगुआ कतारों में महिलायें एवं बच्चे के शामिल होने के तथ्य ने पूरे देश एवं पूरी दुनियां का ध्यान इस आन्दोलन की ओर खींचा है।



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पॉस्को विरोधी जन आन्दोलन की अगुआ कतारों में रही है। अब यह केवल उड़ीसा की जनता का संघर्ष नहीं रह गया है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य परिषद अपने सभी सदस्यों एवं शुभचिंतकों के साथ उत्तर प्रदेश की जनता का आह्वान करती है कि जगतसिंहपुर की संघर्षरत जनता के साथ एकजुटता प्रकट करने के लिए 24 जून को पॉस्को विरोधी दिवस मनायें।

Observe June 24, 2011 as Anti POSCO Day in Solidarity with the fighting People

Lucknow 22nd June. Communist Party of India has been opposing the approval given to POSCO to set up its plant in Jagatsinghpur district of Orissa by the Central and State governments. The steps so far taken by the governments are all in violation of the laws of the country. The old MOU has expired a year back. Even a new MOU does not exist. Yet government is going ahead. The Orissa government has been resorting to worst form of Police repression and vandalism in order to acquire the land. The land which is proposed for POSCO is a fertile agricultural land in Mahanadi delta. In the name of attracting FDI, Government is determined to do everything possible for the notorious POSCO, not having an iota of concern for the environment, protection of sea shore and above all the huge displacement of the people.




Forest and Environment Ministry, has given all clearance, contrary to its own experts committee’s views. It was due to tremendous political pressure from International Finance Capital. But the people led by POSCO Pratirodh Sangram Samithi headed by Abhay Sahoo have been valiantly fighting and resisting all the moves to acquire land for POSCO for the last six years. Women and children are also in the front ranks of the resistance. It has attracted the attention of the entire country and also at international level.



CPI has been in the forefront of the Anti-POSCO People’s Movement. It is not only a struggle of the people of Orissa. Communist Party of India, Uttar Pradesh calls upon the rank & file and also the public of the state to raise this issue all over the state by observing June 24th 2011 as ‘the Anti-POSO Day’ in solidarity with the fighting people of Jagatsinghpur.

Saturday, June 18, 2011

धरती

यह धरती है उस किसान की
जो बैलों के कंधों पर
बरसात धाम में,
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में,
पैनी कुर्सी खेत के भीतर,
दूर कलेजे तक ले जाकर,
जोत डालता है मिट्टी को,
पांस डाल कर,
और बीच फिर बो देता है
नये वर्ष में नयी फसल के
ढेर अन्न का लग जाता है।
यह धरती है उस किसान की।
नहीं कृष्ण की,
नहीं राम की,
नहीं भीम की, सहदेव, नकुल की
नहीं पार्थ की,
नहीं राव की, नहीं रंक की,
नहीं तेग, तलवार, धर्म की
नहीं किसी की, नहीं किसी की
धरती है केवल किसान की।
सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों
सोना ही सोना बरसा कर
मोल नहीं ले पाए इसको;
भीषण बादल
आसमान में गरज गरज कर
धरती को न कभी हर पाये,
प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर
उभर-उभर आयी है ऊपर।
भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है।
यह धरती है उस किसान की,
जो मिट्टी का पूर्ण पारखी,
जो मिट्टी के संग साथ ही,
तप कर,
गल कर,
मर कर,
खपा रहा है जीवन अपना,
देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना,
मिट्टी की महिमा गाता है,
मिट्टी के ही अंतस्तल में,
अपने तन की खाद मिला कर,
मिट्टी को जीवित रखता है;
खुद जीता है।
यह धरती है उस किसान की!
- केदारनाथ अग्रवाल

हमारा झंडा


शेर है चलते हैं दर्राते हुए

बादलों की तरह मंडलाते हुए

जिन्दगी की रागनी गाते हुए

लाल झंडा है हमारे हाथ में



हां ये सच है भूक से हैरान हैं

पर ये मत समझो कि हम बेजान हैं

इस बुरी हालत में भी तूफान हैं

लाल झंडा है हमारे हाथ में



हम वो हैं जो बेरूखी करते नहीं

हम वो हैं जो मौत से डरते नहीं

हम वो हैं जो मरके भी मरते नहीं

लाल झंडा है हमारे हाथ में



चैन से महलों में हम रहते नहीं

ऐश की गंगा में हम बहते नहीं

भेद दुश्मन से कभी कहते नहीं

लाल झंडा है हमारे हाथ में



जानते है एक लश्कर आएगा

तोप दिखलाकर हमें धमकाएगा

पर ये झंडा यूं ही लहरायेगा

लाल झंडा है हमारे हाथ में



कब भला धमकी से घबराते हैं हम

दिल में जो होता है, कह जाते हैं हम

आसमां हिलता है जब गाते हैं हम

लाल झंडा है हमारे हाथ में



लाख लश्कर आऐं कब हिलते हैं हम

आंधियों में जग की खुलते हैं हम

मौत से हंसकर गले मिलते हैं हम

लाल झंडा है हमारे हाथ में
 
- मजाज

Friday, June 17, 2011

ग़ज़ल

राह तो एक थी हम दोनों की

आप किधर से आए-गए।

हम जो लूट गए पिट गए,

आप जो राजभवन में पाए गए!



किस लीलायुग में आ पहुंचे

अपनी सदी के अंत में हम

नेता, जैसे घास-फूंस के

रावन खड़े कराए गए।



जितना ही लाउडस्पीकर चीखा

उतना ही ईश्वर दूर हुआ

(-अल्ला-ईश्वर दूर हुए!)

उतने ही दंगे फैले, जितने

‘दीन-धरम’ फैलाए गए।



मूर्तिचोर मंदिर में बैठा

औ’ गाहक अमरीका में।

दान दच्छिना लाखों डालर

गुपुत दान करवाये गये।

दादा की गोद में पोता बैठा,

‘महबूबा! महबूबा...’ गाए।

दादी बैठी मूड़ हिलाए

‘हम किस जुग में आए गए।’

गीत ग़ज़ल है फिल्मी लय में

शुद्ध गलेबाजी, शमशेर

आज कहां वो गीत जो कल थे

गलियों-गलियों गाए गए!


- शमशेर बहादुर सिंह

न्यायपालिका में पसरा भ्रष्टाचार

यह बात अब जन सामान्य में ही नहीं वरन् न्याय के सर्वोच्च मन्दिर में भी गूंज रही है कि न्यायपालिका में भ्रष्ट, पतित, बेईमान और रिश्वतखोर न्यायाधीशों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है।

अप्रैल 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एच. कपाडिया ने एम.सी. सीतलवाड स्मृति व्याख्यान माला में भाषण देते हुए कहा कि “बेईमान और भ्रष्ट न्यायधीशों को राजनीतिक संरक्षण नहीं प्रदान किया जाना चाहिए। यदि न्यायपालिका से भ्रष्टचार को समाप्त करना है तो भ्रष्ट न्यायधीशों के साथ किसी भी प्रकार की दयालुता, कृपा या मेहरबानी नहीं दिखायी जानी चाहिए।” अपने भाषण में उन्होंने एक ओर तो राजनीतिज्ञों को सुझाव दिया कि वे भ्रष्ट एवं बेईमान न्यायाधीशों से दूर रहे वहीं दूसरी ओर उन्होंने न्यायाधीशों को सलाह दिया कि वे सुविधादायक व्यवहार, सुविधाजनक बर्ताव तथा सेवानिवृत्ति के पूर्व ही या बाद में पद पाने की लालसा में किसी राजनैतिक संरक्षण प्राप्त करने की कामना के साथ राजनीतिज्ञों, विशेषकर सत्ताधारी राजनीतिज्ञों से निकटता न बनायें।” न्यायमूर्ति एस.एच. कपाडिया ने चेतावनी देते हुए कहा कि “न्यायाधीश राजनीतिज्ञों से दूरी बना कर रखें।“ यह प्रवृति “तुम मेरे काम आओ, मैं तुम्हारे काम आऊंगा” या “तुम मेरी मदद करो, मैं तुम्हारी मदद करूंगा“ को जन्म देती है और भ्रष्टाचार को पोषित करती है।“

उन्होंने आगे कहा कि यदि “कोई न्यायाधीश पक्षपात के आरोप से बचे रहना चाहता है तो उसे चाहिये कि वह समाज से थोड़ी दूरी और अलगाव बना कर रखे।

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि “एक व्यक्ति जो न्यायाधीशों के संसार में प्रवेश करता है उसे स्वयं में अपने ऊपर कुछ नियंत्रण रखने होंगे। उसे वकीलों से राजनीतिक दलों, उनके नेताओं से, मंत्रियों आदि से सामाजिक समारोहों के अतिरिक्त अन्य प्रकार के मेल मिलाप नहीं रखना चाहिये।“ उन्होंने कहा कि “न्यायपालिका अपने गुप्त भवनों में, जिन्हें भ्रष्ट और बेईमान न्यायाधीश सुरक्षा कवच समझते हैं, सूर्य का प्रकाश आने से भयभीत नहीं है परंतु सूर्य का प्रकाश आने से भयभीत नहीं है परंतु सूर्य का प्रकाश इतना अधिक और प्रभावी न हो जाय कि उससे शरीर की खाल ही जल जाय।“

यह सत्य है कि पिछले कुछ महिनों से, विशेषकर जब से न्यायमूर्ति एस.एच. कपाडिया सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर आसीन हुए हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने जनता की आशाओं में पर लगा दिये हैं, न्यायापालिका के प्रति सम्मान बढ़ा है और लोकतंत्र को मजबूती प्रदान हुई है परंतु भ्रष्ट न्यायाधीशों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। हम भूले नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश रामा स्वामी पर संसद में जब भ्रष्टाचार का महाअभियोग चला था उस समय उनके भ्रष्टाचार की पैरवी करने में, उसे सही ठहराने में केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल आगे आये थे, उन्हीं तर्कों के साथ जो आज वह टू जी स्पैक्ट्रम और कामनवेल्थ खेल घोटालों के बचाव में दे रहे हैं- “कोई घोटाला नहीं हुआ”, “कोई नुकसान नहीं हुआ” इत्यादि-इत्यादि।

आज भी भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह से घिरे सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिकरन के प्रकरण पर अच्छी-अच्छी, सुन्दर-सुन्दर और उपदेशात्मक बातें करने वाले उच्चतम न्यायालय के व्यवहार पर आश्चर्य होता है। सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनने के पूर्व वह कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। उनका नाम उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद के लिये प्रस्तावित किया गया था, यद्यपि वह भ्रष्टाचार के अनेकों आरोपों में लांक्षित थे। उन पर जमीन घोटालों, आय से कई हजार गुना अधिक सम्पति बटोरने, भूमि सीमाबन्दी से अधिक जमीन रखने, सार्वजनिक, सरकारी एवं दलितों की भूमि पर जबरदस्ती कब्जा करने, साक्ष्यों को नष्ट करने, विक्रय प्रपत्रों में सम्पति का वास्तविक मूल्य से कम मूल्य दिखाने और इस प्रकार कर चोरी करने, स्टैम्प ड्यूटी की चोरी करने, गैर कानूनी निर्माण करने, बेनामी ट्रांसज्कशनस करनें, तमिननाडु हाउसिंग बोर्ड द्वारा अपनी पत्नी एंव पुत्रियों के नाम से पांच प्लाट आबंटित कराने इत्यादि के अनेकों आरोप हैं। इतना ही नहीं दिनकरन पर आरोप हैं कि उन्हांेपे कर्नाटक हाईकोट के मुख्य न्यायधीश पद पर रहते समय नियमों के विरूद्ध जानबूझ कर गलत एवं बेईमानी भरा प्रबन्धन किया, वह न्यायाधीशों का क्रम इस प्रकार निश्चित करते थे जिससे बेईमानीपूर्ण न्यायिक निर्णय दिये जा सकें। उनको अविलम्ब हटाने, उनके ऊपर लगे आरोपों की जांच के लिये, कर्नाटक के अधिवक्ताओं ने धरना दिया, प्रदर्शन किये, हड़तालों की, अदालतों का बहिष्कार किया। संसद में भी इस भ्रष्टाचारी न्यायाधीश के करतूतों की गूंज उठी।

इन तमाम आन्दोलनों की अगुवाई मुख्यतः कर्नाटक उच्च न्यायालय के वरिष्ठ एडवोकेट श्री पी.पी. राव एवं कमेटी फार जुडीशियल एकाउन्टेबिलिटी के संयोजक वरिष्ठ एडवोकेट श्री वागाई कर रहे थे। अन्ततः दिकरन के ऊपर लगे आरोपों की जांच के लिये एक तीन सदस्यीय कमेटी गठित की गई जिसमें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति आफताब आलम, कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. केहर एवं वरिष्ठ एडवोकेट श्री पी.सी. राव थे। जनता और अधिवक्ताओं के दबाव के चलते पी.डी. दिनकरन को कर्नाटक उच्च न्यायाधीश के मुख्य न्यायाधीश के पद से सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य पद पर स्थानान्तरण कर दिया गया। प्रश्न उठता है कि यदि सरकार और उच्चतम न्यायालय ने दिनकरन जैसे बेईमान और भ्रष्ट न्यायाधीश को जेल की राह नहीं दिखाई तो उन्हें कम से कम कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन की भांति, जिनके ऊपर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जबरन छुट्टी पर क्यों नहीं भेजा? जिसके ऊपर भ्रष्टाचार के अनेकों गंभीर आरोप लगे हों, उनकी जांच चल रही हो और जांच समिति में उच्चतम न्यायालय का एक वर्तमान न्यायाधीश हो, उस आरोपित न्यायाधीश को दूसरे राज्य का मुख्य न्यायाधीश बना दिया जाय? यह कैसी और किस प्रकार की न्यायिक पारदर्शिता और निर्णय है?

इतना ही नहीं पराकाष्ठा तो उस समय हो गई जब उच्चतम न्यायालय की जस्टिस एस.एस. बेदी और जस्टिस के.सी. प्रसाद की खण्डपीठ ने दिकरन के इम्पीचमेंट (न्यायाधीश की नौकरी से बर्खास्त किये जाने की कार्यवाही) से पूर्व होने वाली जांच को ही रोक दिया। स्मरण रहे कि दिनकरन के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए बनायी गयी तीन सदस्यीय समिति को राज्य सभा ने बनाया था जिसमें उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आफताब आलम, कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. केहर और कर्नाटक उच्च न्यायालय के वरिष्ठ एडवोकेट श्री पी.पी. राव थे।

इस तीन सदस्यीय समिति ने दिनकरन को नोटिस भेज कर चेताया था कि वे अपने ऊपर लगाये गये 16 आरोपों का 20 अप्रैल, 2011 तक उत्तर दें अन्यथा समिति अपनी आगे की कार्यवाही करेगी।

इस बीच दिनकरन ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की कि चूंकि वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.पी. राव, जो समिति के सदस्य हैं उनसे (दिनकरन से) दुराग्रह रखते हैं अतः जब तक वह जांच समिति में हैं तब तक समिति निष्पक्ष जांच नहीं कर सकती। उच्चतम न्यायालय ने इसी अपील के आधार पर पूरी जांच पर ही रोक लगा दी। वाह! बहुत खूब! प्रश्न उठता है कि राज्य सभा के निर्णय पर उच्चतम न्यायालय ने रोक क्यों लगायी? हमारे देश में तो संसद ही सर्वोपरि है। इसके उपरान्त भी यदि श्री पी.पी. राव, एडवोकेट, से दिनकरन को निष्पक्षता की आशा नहीं थी तो उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आफ़ताब आलम और कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति केहर भी क्या दिनकरन से दुराग्रह रखते थे? यदि उच्चतम न्यायालय इतनी निष्पक्षता और पादर्शिता का हिमायती है और भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कृत संकल्प है, तो उसे श्री पी.पी. राव, एडवोकेट, के स्थान पर किसी अन्य को समिति में नियुक्त करने का आदेश देना चाहिए था। क्या उच्चतम न्यायालय का यह आदेश न्यायमूर्ति आफ़ताब आलम और न्यायमूर्ति केहर का अपमान नहीं है? उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय से कौन से तत्वों को, किस प्रकार के लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा?

दिनकरन की ही भांति उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष के.जी. बालाकृष्णन पर भी आय से अधिक सम्पत्ति रखने, बेनामी सम्पत्तियां रखने, अपने परिवार के सदस्यों द्वारा की गयी बेईमानी, भ्रष्टाचार आदि कुकृत्यों पर पर्दा डालने के आरोप हैं। बालाकृष्णन तो अपनी सम्पत्ति का विवरण देने के लिए भी तैयार नहीं है। उन्होंने जो आयकर रिटर्न दाखिल किये हैं उसका भी वह खुलासा करने से मना कर रहे हैं।

दिनकरन, सौमित्र सेन बालकृष्णन की भांति ही देश के लगभग पचास से अधिक न्यायाधीशों के विरूद्ध बेईमानी, भ्रष्टाचार, आय से अधिक सम्पत्ति रखने, हेराफेरी, धोखाधड़ी, नाजायज सम्पत्ति रखने, अपने मित्रों/सम्बन्धियांे के साथ पक्षपात करने और उनको लाभ पहुंचाने आदि के मुकदमें चल रहे हैं।

देखना है कि उच्चतम न्यायालय कब अपने घर-न्यायापालिका में गंदगी फैलाने वालों पर चाबुक चलाती है, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाती है।
- राम किशोर

सरकार का पीछा कर रहे हैं भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे

भ्रष्टाचार का मुद्दा कांग्रेस नीत यूपीए-दो सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा है। इसका कारण स्पष्ट हैं इस सरकार के पहले दो साल के अरसे में सरकार की ऊंची जगहों पर भ्रष्टाचार के इतने मामले बेनकाब हुए हैं जैसे पहले कभी नहीं हुए। इन घोटालों में शामिल रकम इतनी बड़ी हैं कि दिमाग चकरा जाता है। देश की जनता ने मनमोहन सिंह की सरकार को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची मानना शुरू कर दिया है।

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता की बढ़ती जागरूकता ने यूपीए सरकार को सांसत में डाल दिया है। भ्रष्टाचार शब्द के जिक्र मात्र से सरकार को सांप सूंघ जाता है। केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था बनाने के लिए कानून बनाने की मांग करते हुए जब सामाजिक कार्यर्ता अन्ना हजारे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे तो हमने सरकार को बचाव का कोई रास्ता तलाश करने के लिए व्याकुल होते देखा। चार ही दिन के अंदर सरकार ने घुटने टेक दिये और एक दस सदस्यीय संयुक्त मसविदा समिति (ज्वायंट ड्राफ्टिंग कमेटी) बना दी गयी जिसमें पांच सदस्य अन्ना हजारे द्वारा नामित थे।

अब योग गुरू रामदेव खासतौर पर विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मुद्दे पर भूख हड़ताल पर जाने पर अड़ गये हैं तो सरकार के हाथ पांव फूल गये हैं सरकार बुरी तरह हड़बड़ायी हुई है। मंत्रीगण और वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारी योग गुरू के पास भागे फिर रहे हैं। अन्ना हजारे के मामले मेें शीर्ष कार्पोरेटों द्वारा समर्थित नवगठित सिविल सोसायटी ने भूख हड़ताल पर बैठे हजारे के साथ एकजुटता का तमाम

प्रबंध किया था। पर रामदेव के साथ अपने सवयं के योग शिविरों के अनुयायी हैं। उन्होंने दावा किया कि 4 जून से एक करोड़ लोग उनकी भूख हड़ताल में शामिल होंगे। जाहिर है सरकार इस तरह के जबर्दस्त आंदोलन के हलके तरीके से नहीं ले सकती।

इन दो आंदोलनों को जनता का स्वतः स्फूर्त समर्थन मिला है क्योंकि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और आदर्श सोसायटी घोटाले के मामले में सरकार जिस तरह से पेश आयी लोगों ने उसे मामलों को रफा-दफा करने की कोशिश के रूप में देखा। लोगों को सीबीआई (सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन) और सीवीसी (चीफ़ विजिलेंस कमिश्नर) जैसी वर्तमान संस्थाओं से विश्वास ही उठ गया। सरकार ने एक आरोपित एवं दागदार नौकरशाह पीजे थॉमस को सीवीसी नियुक्त किया, पर सर्वोच्च न्यायालय ने उस नियुक्ति को खारिज कर दिया। इससे स्वयं इस संस्थान की ही साख कम हो गयी है।

जहां तक सीबीआई की बात है, एक के बाद दूसरी सरकारों ने उसे अपने राजनैतिक औजार के रूप मंे इस्तेमाल किया है जिससे उसकी साख एवं विश्वसनीयता खत्म ही हो गयी है। यदि कोई पार्टी या व्यक्ति आसानी से सरकार के पक्ष में नहीं आता तो सीबीआई को उसके विरूद्ध जांच में तेजी लाने के लिए कह दिया जाता है, वह घुटने टेक देता है; तो उसकी फाइलों को ताक पर रखवा दिया जाता है। इस गंदे खेल में कांग्रेस और भाजपा दोनों बरारबर की गुनाहगार हैं। लोगों को निराश और परेशान करने वाली बात है लम्बी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया जिसका वास्तव में भ्रष्ट लोग वाजिब सजा से बचने के लिए बुरी तरह फायदा उठाते हैं।

इस तरह की हालत में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए किसी नये तंत्र की ललक एक स्वाभाविक सी बात है। जनता एक ऐसा तंत्र चाहती है जो कठोर और पारदर्शी हो, जो जांच-पड़ताल करे, गलत कामों का पता लगाये और अपराधियों को सजा दिलाने में मददगार की भूमिका अदा करे। इस पृष्ठभूमि में केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था की अवधारणा लोगों के दिलों-दिमाग में घर कर गयी है।

सरकार यद्यपि अभी भी दावा कर रही है कि संयुक्त मसविदा समिति 10 जून तक अपना काम पूरा कर लेगी और संसद के मानसूत्र सत्र में बिल पेश किया जा सकता है पर मसविदा तैयार करने के लिए अपनायी गयी प्रक्रिया और कुछ मुद्दों पर विवाद से यह नजर आता है कि यह काम निर्धारित समय में संभवतः नहीं हो पायेगा।

पर विवादित मुद्दों में से कुछ पर जाने से पहले यह बताना संदर्भ से हटकर नहीं होगा कि लोकपाल की संस्था के निर्माण का विचार पहली बार 1997 में उस समय लाया गया था जब देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में थी। यही वह एकमात्र मौका था जब केन्द्र सरकार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो मंत्री थे। आज बहुत से जिन मुद्दों को ताजे और नये मुद्दों का नाम दिया जा रहा है वे उस समय तैयार दस्तावेज में शामिल थे।

उस समय भी यह खुलासा किया गया कि लोकपाल का संस्थान एक “सुपरकोप” (यानी ऐसा अधिकारी जिसकी हैसियत सबसे ऊपर हो) नहीं होगा। वह जांच-पड़ताल करने वाला, मुकदमा चलाने वाला और जज-तीनों काम एक ही संस्थान के हाथ में हों, ऐसा संस्थान नहीं होगा। तीनों शक्तियां एक ही संस्थान में रहे, हमारा

संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। संयोग से, संयुक्त मसविदा समिति के एक सदस्य प्रशांत भूषण ने भी इसी बिन्दु को दोहराया है। उन्होंने लिखा है:

“लोकपाल के प्रशासकीय एवं सुपरवाइजरी अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक जांच पड़ताल शाखा और एक मुकदमा चलाने वाली (प्रोसीक्यूटिंग) शाखा होगी। यदि जांच-पड़ताल शाखा पाती है कि भ्रष्टाचार का अपराध किया गया है तो वह मामले को प्रोसीक्यूटिंग शाखा को भेज देगी जो स्पेशल कोर्ट-जो सामान्य न्यायिक व्यवस्था का एक हिस्सा होगा- में उस मुकदमें को चलायेगी। स्पेशल कोर्ट लोकपाल के तहत नहीं होगा। लोकपाल केवल समय-समय पर यह मूल्यांकन एवं निर्धारण करेगा कि भ्रष्टाचार के मुकदमों की सुनवाई को तेजी से पूरा करने के लिए इस तरह के कितने कोर्टो की जरूरत है और सरकार की जिम्मेदारी होगी कि उतनी संख्या में स्पेशल कोर्ट बनायें” (टाईम्स ऑफ इंडिया, 1 जून, 2011)।

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि स्पेशल कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी।

30 मई को संयुक्त मसविदा समिति की अंतिम बैठक में जो पांच विवादस्पद मुद्दे उभर कर आये हैं, उनमें यह भी शामिल है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एनडीए के शासन के दिनों में भी इस मांग का समर्थन किया था। एक अन्य कुछ जटिल मुद्दा इस मांग के संबंध में है कि बिल में यह प्रावधान भी होना चाहिए कि संसद में संसद सदस्यों के आचरण भी उसके दायरे में आयें। यह सच है कि निर्णायक विश्वासमत के दौरान संसद सदस्यों की खरीद-फरोख्त हुई और कई संसद सदस्यों को (अधिकांशतः वे भाजपा के हैं) को प्रश्न पूछने के एवज में पैसा लेने के आरोप में सजा दी गयी। जो भी, हम इस मुद्दे पर बहस करना चाहते हैं क्योंकि इसके साथ संसद की सर्वाेच्चता की बात जुड़ी हुई है।

सभी नौकरशाहों को लोकपाल के दायरे में लाने जैसे मुद्दों पर कोई विवाद नहीं होगा हालांकि संयुक्त मसविदा समिति में यूपीए-दो के प्रतिनिधि इस पर बतंगड़ खड़ा कर रहे हैं। इसी प्रकार सीबीआई और सीवीसी जैसी अन्य जांच एजेंसियों को लोकपाल के तहत लाने के मुद्दे पर विचार-विमर्श की जरूरत है। जैसा कि पहले कहा गया इन संस्थानों की साख एवं विश्वसनीयता खत्म हो गयी है क्योंकि सरकारों ने अपने हितों के लिए इनका घोर दुरूपयोग किया है। मुद्दा यह हैः क्या इन सब को लोकपाल संस्थान के साथ मिला देने पर वही उद्देश्य खत्म नहीं हो जायेगा जिसके लिए यह संस्थान बनाया जा रहा है। यह कहना काफी नहीं होगा कि लोकपाल पारदर्शी तरीके से काम करेगा और उसका सारा कार्यकलाप वेबसाईट पर होगा। उसे एक सतर्क प्रहरी की तरह रहना चाहिए।

जैसा कि संयुक्त मसविदा समिति के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि इन सब विवादस्पद मुद्दों को राज्यों और राजनैतिक पार्टियों और सिविल सोसायटी के अन्य तबकों को उनकी राय जानने के लिए भेजा जाएगा। आशा करें कि संविधान के फ्रेमवर्क के अंदर ही एक बेहतर मतैक्य बन जाएगा।

कालेधन के जिस मुद्दे को योगगुरू रामदेव ने अपने आंदोलन का मुख्य बिन्दु बनाया है उस संबंध में वास्तव में तेजी से समाधान निकालने की जरूरत है। वामपंथी पार्टियां लम्बे अरसे से मांग करती रही है कि विदेशी बैंकों में जमा पैसे को वापस लाया जाए। यह राष्ट्रीय परिसम्पत्ति है जिसे गैर कानूनी तरीके से दूर विदेश में जमा किया गया है। इसी के साथ ही देश के अंदर काले धन का पता लगाने की जरूरत है क्यांेकि इसने देश में अनाचार मचा रखा है। देश में काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है जो कभी-कभी वास्तविक अर्थव्यवस्था से भी बड़ी नजर आती है।

भ्रष्टाचार और काले धन के विरूद्ध संघर्ष करते हुए तमाम बुराईयों की जड़ को नहीं भूलना चाहिये। इन सब बुराईयों का मूलभूत कारण है लालच। अधिकांश राजनैतिक पार्टियां आर्थिक नवउदारवाद की जिन नीतियों के लिए प्रतिबद्ध है उन नीतियों ने लोगों में बड़े पैमाने पर लालच पैदा कर दिया है। हर कोई जैसे-तैसे किसी भी तिकड़म से सुपर मुनाफा कमाना चाहता है। इसके फलस्वरूप सर्वव्यापक भ्रष्टाचार और काले धन के सृजन में बेतहाशा वृद्धि हुई हैं। अर्थव्यवस्था की अनेक बुराईयों में इस या उस बुराई के विरूद्ध संघर्ष के भेष में पूंजीवाद के खिलाफ, आर्थिक नवउदारवाद के इसके वर्तमान अवतार के खिलाफ असली संघर्ष से ध्यान डाइवर्ट नहीं होना चाहिए।
- शमीम फ़ैजी

प्रगतिशील कविता के शलाका पुरूषों की प्रतिनिधि रचनाओं का प्रकाशन


वर्ष 2011 अनेक प्रगतिशील शायरों और कवियों का जन्म शताब्दी वर्ष है जैसे शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी), फ़ैज अहमद फैज (13 फरवरी), केदारनाथ अग्रवाल (1 अप्रैल), नागार्जुन (25 जून), असरारूल हक मजाज (19 अक्टूबर) आदि। इन महान कवियों और शायरों के जन्म शताब्दी के अवसर पर न केवल अनेक समारोह हो रहे हैं बल्कि उनके लेखन के संबंध में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक निकल रहे हैं, समाचार पत्रों में उनके जीवन एवं कृतित्व पर लेख प्रकाशित हो रहे हैं और प्रगतिशील आंदोलन में उनके योगदान का स्मरण किया जा रहा है।

इस सिलसिले में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने कुछ प्रगतिशील कवियों और शायरों की प्रतिनिध रचनाओं का प्रकाशन कर एक सराहनीय कार्य किया है। पीपीएच ने इस क्रम में निम्न पुस्तकें प्रकाशित की हैंः

1. फै़ज़ अहमद फ़ैज़: प्रतिनिधि कविताएं, सम्पादक: अली जावेद

2. शमशेर बहादुर सिंह: प्रतिनिधि कविताएं, संपादकः लीलाधर मंडलोई

3. मजाजः प्रतिनिधि शायरी, संपादक: अर्जुमंद आरा

4. केदारनाथ अग्रवाल: प्रतिनिधि कविताएं संपादक: द्वारिका प्रसाद चारूमित्र, शाहाबुद्दीन

5. प्रगतिशील कविता के पांच प्रतिनिधि, संपादक: वरूण कमल, राजेन्द्र शर्मा (इस पुस्तक में शमशेर बहादुर सिंह, फै़ज़ अहमद फै़ज़, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और असरारूल हक मजाज को शामिल किया गया है)।

6. नागार्जुनः प्रतिनिधि कविताएं, सम्पादक: वेद प्रकाश

7. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: प्रतिनिधि कविताएं, संपादक: शकील सिद्दीकी

25 मई को सायं 6 बजे अजय भवन नई दिल्ली में इन पुस्तकों का विमोचन किया गया। इस अवसर पर भारी संख्या में साहित्यकार और पत्रकार उपस्थित थे। पुस्तकों का विमोचन वरिष्ठ आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, जनवादी लेखक संघ के महासचिव प्रो. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उप महासचिव और पीपीएच के डायरेक्टर एस. सुधाकर रेड्डी और भाकपा के केन्द्रीय सचिवमंडल के सदस्य और पीपीएच के मैनेजिंग डायरेक्टर शमीम फैजी ने किया।

इस अवसर पर संबोधित करते हुए डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने याद दिलाया कि जिन कवियों और शायरों की हम जन्म शताब्दी मना रहे हैं और जिनके संबंध में पुस्तकों का हमने विमोचन किया है उनका जन्म 1911 में हुआ था और 1930 के दशक में उन्होंने अपना रचना कार्य शुरू किया था। उन्होंने याद दिलाया कि 1930 और 1940 के दशक भारत के राजनैतिक और साहित्यक जीवन में जबर्दस्त चेतना और क्रांति की अवधि रहे हैं। इस दौरान सभी भाषाओं के साहित्यकार प्रगतिशील विचारों को आगे बढ़ाने के लिए साहित्य सृजन कर रहे थे। इन प्रगतिशील कवियों और शायरों ने उस दशक में वाम चेतना और व्यापक जन चेतना को आगे बढ़ाने में जबर्दस्त योगदान दिया। प्रगतिशील कवियों और लेखकों ने देश के वैचारिक-सांस्कृतिक आंदोलन में अग्रणी भूमिका अदा की थी।

प्रो. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने भी उस दौर की राजनैतिक एवं साहित्यक चेतना पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रगतिशील कवियों, लेखकों ने देश में व्यापक जनचेतना विकसित करने में और स्वतंत्रता आंदोलन में वामपंथी विचारों को आगे बढ़ाने में जबर्दस्त काम किया। उस दौर के सभी भाषाओं के साहित्यकार प्रगतिशील लेखन से जुड़े थे। उन्होंन जनचेतना को बढ़ाया। 1930 के दशक में ही प्रगतिशील लेखक संगठन का निर्माण हुआ। उन्होंने इन पुस्तकों के प्रकाशन के लिए पीपीएच की सराहना की। उन्होंने कहा कि पीपीएच पिछले कई दशकों से देश में वामपंथी और तर्क एवं विज्ञानसमत विचारों के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान देता रहा है। हममें से सभी लोगों ने वामपंथी विचारधारा का अध्ययन पीपीएच के प्रकाशनों के जरिये किया था। उन्होंने आग्रह किया कि पीपीएच आज के जमाने के संदर्भ में अपने इस काम में और तेजी लाये। भाकपा महासचिव ए.बी. बर्धन ने कहा कि प्रगतिशील लेखन ने हमारे देश के लोगों को जाग्रत करने का काम किया। उन्होंने बताया कि जिन महान कवियों और शायरों की हम इस वर्ष जन्म शताब्दियां मना रहे हैं उन्हें उनमें से कई को सुनने और उनसे बात करने का मौका मिला।
- आर.एस. यादव

Thursday, June 9, 2011

अमरीका में एक और मंदी के आसार


अमरीकी अर्थतंत्र में एक और मंदी आने के आसार व्याप्त हैं। 31 मई को अमरीका के शेयर बाजारों में ग्रीस को एक और बेलआउट पैकेट मिलने की उम्मीद में तेजी आई थी लेकिन अगले ही दिन 1 जून को अमरीकी शेयर बाजारों में अगस्त 2010 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट ने यह संकेत दे दिये कि अमरीकी अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। यह गिरावट आज तक जारी है। कल अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन बेन बर्नानके ने स्वीकार किया कि अमरीकी अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ गई है। हालांकि मंदी से उबरने के लिए किसी तरह की कदम उठाने की घोषणा नहीं की गई है। बाजार को उम्मीद थी कि फेडरल रिजर्व तीसरे राहत पैकेज की घोषणा कर सकता है परन्तु ऐसा नहीं हुआ।

अमरीकी राष्ट्रपति का चुनाव नजदीक आता जा रहा है। वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा जनता के मध्य अपनी छवि को दूसरे देशों की प्रभुसत्ता के उल्लंघन द्वारा, जिसका ताजा उदाहरण पाकिस्तान में बिना पाकिस्तानी सरकार को बताये घुस कर ओसामा बिन लादेन का शिकार करना रहा है, निखारने और जनप्रिय होने का प्रयास कर रहे हैं परन्तु वे अपना घर ठीक तरह से नहीं चला पा रहे हैं। अमरीकी अर्थव्यवस्था संकटों से उबर नहीं पा रही है और हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि अमरीका द्वारा अपने कर्जों और उस पर ब्याज की अदायगी में डिफाल्टर होने की कगार पर पहुंच गया है। पूरी दुनियां में उसके इस संकट से कई देशों की सरकारें चिन्ताग्रस्त हैं। चीन के केन्द्रीय बैंक के एक सलाहकार ली डाउकोई ने बुधवार 8 जून को कहा कि अगर अमरीकी सरकार अपने ऋणों की अदायगी में डिफाल्ट करती है तो वह आग से खेलेगी। ज्ञातव्य हो कि चीन अमरीकी सरकार को ऋण देने वाला दुनिया का सबसे बड़ा निवेशक है जिसने 1.14 ट्रिलियन अमरीकी डालर अमरीकी सरकार को उधार दे रखे हैं। भारत ने भी अमरीकी सरकार को 39.8 बिलियन अमरीकी डालर अमरीकी सरकार को उधार दे रखे हैं और भारतीय रिजर्व बैंक मामले पर नजर रखे हुये है।

अमरीकी अर्थव्यवस्था का घाटा इस साल 1.4 ट्रिलियन अमरीकी डालर तक पहुंचने के उम्मीद जताई जा रही है और इसे कम करने के लिए ओबामा प्रशासन हर सम्भव उपाय करने के प्रयास कर रहा है।

अगर अमरीकी ट्रेजरी ऋणों पर ब्याज की अदायगी नहीं कर पाती है तो अमरीकी अर्थव्यवस्था के एक बार फिर मंदी से घिरने की आशंका पूरे विश्व में जतायी जा रही है। अगर ऐसा होता है तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में डालर के नीचे गिरने की पूरी संभावना है।

बार-बार मंदी का शिकार होना पूंजीवादी व्यवस्था का अंतर्निहित चरित्र है। इसे रोके जाने के प्रयास तो किये जा सकते हैं लेकिन इसे अधिक दिनों तक टाला नहीं जा सकता है। सम्प्रति जिस तरह का अंतर्राष्ट्रीय अर्थतंत्र काम कर रहा है, उसमें अमरीकी अर्थव्यवस्था के मंदी में जाने से पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। चीन के एक अर्थशास्त्री ने तो स्वीकार किया है कि यदि अमरीका अपने ऋणों और उस पर देय ब्याज में डिफाल्ट करता है, तो उसका असर चीनी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा।

- प्रदीप तिवारी

Wednesday, June 8, 2011

CPI DECLARES NORMS FOR MP LAD FUND UTILISATION BY IT'S MEMBERS OF PARLIAMENT

National Executive (24th May 2011) adopted the following norms for the allotment of MP Lad funds by CPI Members of Parliament.
Earlier Members of Parliament were given Rs. 2 crore to allot for local area development. Now recently it has been increased to Rs. five crores. We have nine Members of Parliament four in Lok Sabha and five in Rajya Sabha. Some norms were decided a few years back, how to spend the money. Once again it has became necessary to decide the norms on MP Lad funds, to be allotted by our comrades.

  1. There is criticism generally, that some times the MP Lad funds are unutilized, misused and even corruption. Our comrades should take all care not to face such criticism. Though funds are earmarked, it will not be used as the local officers, cannot get the land as dispute arises in the village. The carelessness of department concerned will be responsible for non-implementation. Hence regular check up on the execution of all works should be taken up.
  2. Specific instructions from Government are given to earmark 10% or more for works in S.C. localities. This should be implemented strictly.
  3. Generally there are complaints of misuse of funds, in works like road formations, compound walls, drainage works etc. These should be avoided, as these works will not be remembered by the people except in remote villages. The Member of Parliament is to be accountable to party while distributing the funds.

 

 

 
a) The Lok Sabha members are bound to accept the advice of the concerned district committee on 80% of the funds. The district committee secretariat or a three-member committee should give the proposals in writing to the Member of Parliament. No funds should be allotted by M.P directly overtaking the concerned committee. It can be distributed assembly segments wise. The committee should respect the friendly parties needs also while finalizing the works. MPs proposals should be given the first priority

 

 

 
b) Rajya Sabha Members should be accountable to the state committee. A small committee including the state secretary can make the allotments, keeping the interest of different districts.

 

 

 
c) As the Member of Parliament will be approached directly by some individuals, friends, other parties etc. He should have the discretion to allot 20% of the total funds. However these allotments also should be informed to the committee.

 

 

 

 

 
d) District Parties should take all care that funds are not misused, at any cost and inform to MP from time to time on the progress of execution.

 

 

 
e) Efforts can be made to create permanent assets like Hospitals, Primary health centres, Schools, Community halls, Anganwadi, Panchayat offices, which will stand permanently. Concerned committees can take decisions.

 

 

 
f) There should be press statement from time to time on allotment of MP Lad funds by the concerned M.P. A register should be available with the concerned Party Committee on the allotment of funds. If possible it should be put on online. Our allotment of MP Lad funds and execution should be as transparent as possible.

Monday, June 6, 2011

जन लोकपाल बिल के प्रारूप पर संप्रग सरकार द्वारा मांगे गये सुझावों पर भाकपा महासचिव का पत्र


4 जून 2011

प्रिय श्री प्रणब बाबू,

आपका पत्र मिला।

आप चाहते हैं कि हमारी पार्टी, और अन्य दूसरी पार्टियां भी, जन लोकपाल बिल के सम्बंध में कतिपय बिन्दुओं पर अपने विचार 6 जून 2011 तक प्रेषित करें, क्योंकि जैसा कि आप कहते हैं, ”संयुक्त प्रारूपण समिति को निर्देश है कि वह अपना कार्य 30 जून 2011 तक पूर्ण कर ले।“

हमको यह जानकारी नहीं है कि किसने यह निर्देश संयुक्त प्रारूपण समिति को दिया है।

संयुक्त प्रारूपण समिति के गठन की प्रक्रिया के दौरान किसी भी स्तर पर न तो राजनैतिक पार्टियों को शामिल किया गया और न ही उनसे किसी प्रकार का सलाह-मशविरा किया गया। उन्हें जानबूझ कर नजरंदाज किया गया। हम एक राजनैतिक पार्टी की हैसियत से यह नहीं देख पा रहे हैं कि अब इस मुकाम पर संयुक्त प्रारूपण समिति में बहस के दौरान उठे कतिपय मुद्दों पर कैसे हमसे जवाब देने की अपेक्षा की जा रही है और वह भी ऐसी बहस जिसमें हमारी कोई पहुंच ही नहीं रही और न कोई जानकारी ही। आपके द्वारा जवाब भी ‘हां’ या ‘ना’ में मांगे गये हैं जैसे कोई वस्तुनिष्ठ टेस्ट लिया जा रहा हो। हमारी यह समझ है कि इतने जरूरी, संवदेनशील एवं महात्वपूर्ण मुद्दों पर हमसे इतने लापरवाह ढंग से राय मांगी जा रही है।

कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक असरदार लोकपाल बिल के हम समर्थक हैं। हम जोर देकर कह रहे हैं कि उसका प्रारूप लोकसभा के आसन्न मानसून सत्र में पेश किया जाये। उसमें और अधिक विलम्ब नहीं किया जाये। हम राजनैतिक पार्टी की हैसियत से निश्चित तौर पर अपने विचारों एवं सुझावों को संसद में होने वाली बहस के दौरान प्रस्तुत करेंगे, और हम आवश्यकता होने पर इसके बारे में लिखेंगे भी।

सादर,

भ व दी य

हस्ताक्षर

(ए. बी. बर्धन)



सेवा में

श्री प्रणब मुखर्जी

वित्त मंत्री

भारत सरकार

नई दिल्ली