सेना के सीक्रेट फण्ड का गलत इस्तेमाल करने और संकट का सामना कर रहे राज्य जम्मू कश्मीर मे सत्ता परिवर्तन के लिये राजनेताओं को रिश्वत देने के आरोपों की जांच की गुप्त रिपोर्ट का लीक होना एक दुर्घटना थी अथवा यह एक सोचा समझा काम था इस पर लंबे समय तक कयास लगाये जाते रहेंगे। इसने राजनेताओं को एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का मौका दिया है। इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर का सरकार द्वारा खंडन नहीं किये जाने के कारण यह मुद्दा सेना के अराजनीतिक चरित्र के नजरिये से काफी गंभीर हो गया है। यह एक बड़ी ही खराब तस्वीर पेश कर रहा है जहां सेना का एक मुखिया ना केवल राजनीति में शामिल है बल्कि गुटबाजी को बढ़ावा दे रहा है और इसे प्राथमिकता के आधार पर संबोधित किये जाने की जरूरत है।
प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जनरल वी.के.सिंह ने सेना के गुप्तचर विभाग (आईएम) से अलग एक संदिग्ध सीक्रेट एजेंसी बनाई थी जिसे टेक्नीकल सपोर्ट डिवीजन (टीएसडी) का नाम दिया गया था और राजनीतिक मामलों में दखल करने के लिये इसको पैसा भी मुहैय्या कराया गया था। पूर्व सेना प्रमुख ने इस रिपोर्ट से इंकार नहीं किया बल्कि दावा किया कि सेना आजादी के बाद से ही राजनेताओं को पैसा दे रही है। इसका आठ पूर्व सेना प्रमुखों ने एक संयुक्त बयान द्वारा विरोध किया है। यह स्वाभाविक है कि जनरल सिंह ने जो दोनों काम किये हैं वह स्पष्टतया सेना के परंपरागत चरित्र के विपरीत हैं। जहां हमारे पड़ोसी देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश में सेना सत्ता में आने के लिये तख्ता पलट करती रही है वहीं हमारी सेना ने अपने अराजनीतिक चरित्र को सावधानी से सहेज कर रखा है। वी.के.सिंह ने अपनी अवैध और असंवैधानिक गतिविधियों से इस पर एक सवालिया निशान लगा दिया है।
वास्तव में जनरल वी.के.सिहं अपना पदभार ग्रहण करने के पहले दिन से ही विवादों के घेरे में हैं। इनमें से अधिकतर विवाद स्वयं को प्रोजेक्ट करने के लिये ही है। इसके लिये उन्होंने अपने मातहातों को निशाने पर लेना शुरू किया उनके खिलाफ कार्यवाही की। उन्होंने सुकना जमीन घोटाले में लेफ्टिनेंट जनरल अवधेश कुमार के खिलाफ कोर्ट मार्शल का फैसला लिया और असम में एक सैनिक ऑपरेशन में विफल होने पर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह को सेंसर होने का नोटिस दे डाला। उनके यह कदम अब पलट चुके हैं।
उन्होंने अपनी जन्म तिथि को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ी (वास्तव में अपनी सेनानिवृत्ति को लेकर) और इसके लिये वह सुप्रीम कोर्ट तक भी गये। एक ऐसी भी रिपोर्ट है कि जब सुप्रीम कोर्ट की जन्म तिथि याचिका पर फैसला आने वाला था सेना की दो टुकड़ियों ने बगैर सरकार को सूचित किये हिसार से दिल्ली की ओर कूच किया था। ऐसा भी आरोप लगाया जाता है कि जनरल की उस समय एक गुप्त मंशा थी परंतु सेना ने उस समय आगे बढ़ने से मना कर दिया था। अब सिंह के कुछ दोस्तों ने इसकी पुष्टि की है कि वह टुकड़ियां हिसार से चली थी, परंतु दावा किया जाता है कि उनका कोई गुप्त मकसद नहीं था। उनका तक है कि दिल्ली में पहले से ही 30 हजार के लगभग फौज है इसीलिये और हजार लोगों का चलना कोई मायने नहीं रखता है। यह बकवास है।
हिसार प्रकरण के बाद मीडिया में कयास लगाये गये कि सेना प्रमुख के वफादार रक्षामंत्री ए.के.एंटोनी के घर और दफ्तर पर घेरा डालने वाले थे। इसके लिये जासूसी करने की नई प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया था। इसी दौरान जनरल सिंह द्वारा सेना की तैयारियों की कमी और अप्रचलित हथियारों के उपयोग पर प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र मीडिया को प्राप्त हुआ था। इस तरह के पत्र को लिखने और इस गुप्त संवाद को लीक कर देने में असली मकसद क्या था।
जब यह सब तरकाबे काम नहीं कर सकी, तो जनरल सिंह ने एक और लक्ष्य साधना शुरू किया। उन्होंने खुलासा किया कि लेफ्टिनेंट जनरल तेजेन्दर सिंह ने उन्हें सेना के ट्रकों की डील को हरी झण्डी देने के लिये 14 करोड़ रू. की रिश्वत की पेशकश की थी। कई पहलुओं के साथ यह मामला अभी तक कोर्ट के समक्ष लंबित है।
जनरल सिंह ने माना है कि उन्होंने टीएसडी नामक सीक्रेट संस्था बनाई थी जो संदिग्ध कामों में संलग्न थी, उन्होंने दावा किया कि यह मानव इंटेलीजेंस के लिये थी। सेना की आंतरिक रिपोर्ट कहती है कि जनवादी ढंग से चुनी गई उमर अब्दुल्ला सरकार को गिराने के लिये धन का उपयोग किया गया। जनरल ने इस भुगतान का विरोध नहीं किया परंतु उन्होंने दावा किया कि सेना ऐसी गतिविधियों में आजादी के बाद से ही लिप्त है। यह सत्य है तो इसके विस्तार में जाने की आवश्यकता है और यदि जनतंत्र को जिंदा रखना है तो दोषियांे के नाम सामने आने चाहिए और उन्हें सजा मिलनी चाहिये।
अब इसके बाद एक संदिग्ध गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) को पैसा मुहैय्या कराने का मामला भी है। एनजीओ को पैसा सेना के दो वरिष्ठ अधिकारियों को रोकने के लिये जनहित याचिका दाखिल करने के लिये दिया गया था जिसमें जनरल सिंह का स्थान लेने वाले वर्तमान प्रमुख भी शामिल थे।
हालांकि शुरू में भाजपा ने रेवाड़ी रैली में जनरल द्वारा मोदी के साथ मंच की शोभा बढ़ाने के बाद जनरल का पूरी तरह समर्थन किया था परंतु जैसे ही जनरल की महत्वाकांक्षाओं और सेना के अराजनीतिक चरित्र को बर्बाद करने की उनकी गतिविधियों पर दूसरे खुलासे सामने आने लगे उनका रूख नरम पड़ गया। परंतु भाजपा के राज्यसभा में नेता सदन अरूण जेटली ने इस विवाद में एक नया पहलू जोड़ दिया है। वह ना केवल सेना के आंतरिक मामलों को लीक करने को लेकर सरकार पर राजद्रोह के आरोप लगा रहे हैं बल्कि ऐसे सारे ऑपरेशनों को बचाने के लिये उन्हें ‘‘पवित्र गाय’ की प्रतिष्ठा भी प्रदान कर रहे है जिसमें उन मुठभेड़ों का संचालन भी है जो बाद में झूठे मामले सिद्ध हुए। यहां तक कि उन्होंने इशरत जहां केस की जांच करने के लिये भी सरकार पर राजद्रोह का आरोप मढ़ दिया है। जैटली नहीं चाहते कि इस मामले की जांच अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचे। उन्हें मालूम है कि यह उनके प्रधानमंत्री पद के महत्वाकांक्षी उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी तक जा सकती है, जो कि अधिकतर झूठी मुठभेड़ों के मास्टर माइंड हैं। वह कहते हैं कि जनतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार इंटेलिजेस ब्यूरो, रॉ. फौजी इंटेलिजेंस अथवा ऐसी ही किसी अन्य संस्था के पैसों की जांच नहीं कर सकते है कि उन्होंने यह पैसा कहां खर्च किया अथवा उचित ढंग से खर्च किया कि नहीं। इस प्रकार की गतिविधियां ना तो संसद के प्रति जवाबदेह है ना ही न्यायिक प्रणाली के प्रति।
इसीलिये जेटली संसदीय जनवादी व्यवस्था के ऊपर एक समान्तर व्यवस्था बनाने का तर्क दे रहे हैं। वास्तव में यह ‘‘पवित्र गाय’’ का यही तर्क है जिसका नरसिम्हा राव सरकार के समय रक्षा सौदों में किया गया था कि कोई इसे छेड़ नहीं सकता है ना ही इस पर बहस कर सकता है। पुरुलिया में हथियार गिराने के समय सरकार ने इसी तर्क का सहारा लिया था तो भाकपा के वरिष्ठ सांसद इंन्द्रजीत गुप्त ने ना केवल इसे संसद में धराशायी किया था बल्कि रक्षा मामलों की संसदीय समिति की अध्यक्षता से भी इस्तीफा दे दिया था।
- शमीम फैजी
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