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Thursday, October 31, 2013

भारतीय लोकतंत्र और ह्रासमान जनसत्ता

‘‘पांच गेंदों से एक साथ खेलने की कला को राजनीति कहते हैं, जिसमें दो गेंदे तो हमेशा हाथ में रहती हैं और तीन हवा में।’ महान राजनेता और जर्मन साम्राज्य के निर्माता बिस्मार्क ने राजनीति की ऐसी ही परिभाषा दी थी। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में बनी केन्द्रीय अल्पमत सरकार से लेकर एनडीए और संप्रग-1 तथा 2 की सरकारों के घटनाक्रम पर सरसरी निगाह डालने से कुछ ऐसा ही लगता है कि किस कलाबाजी से ऐसी पार्टी ने देश में राज किया, जिसका संसद में बहुमत नहीं था। इसी अवधि में हमने देखा कि नव उदार की आर्थिक नीति के चलते देश में भ्रष्टाचार और अपराधों की बाढ़ आ गयी और सरकारी खजाने एवं राष्ट्रीय संपदा की लूट, घूसखोरी आदि रोजमर्रा की बात हो गयी। हर्षद मेहता शेयर घोटाला से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम, कोयला आबंटन, हेलीकॉप्टर आदि कांड इसके प्रमाण है। सच ही पूंजीवाद, भ्रष्टाचार एवं अपराध की उर्वर भूमि पर फलता-फूलता है।
इस परिस्थिति के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दागी सांसदों विधायकों को अयोग्य घोषित करने के फैसले से उत्पन्न चिंता, जो वर्तमान सरकार के मैनेजरों मे ंसमा गयी, को हम आसानी से समझ सकते हैं। सरकार ने इस फैसले पर पुनर्विचार करने की याचिका दाखिल की, जिसे भी कोर्ट ने खारिज कर दिया। इस न्यायिक फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिये सरकार ने जब प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का विधेयक संसद में पेश किया। लोकसभा ने इसे पास कर दिया, किंतु राज्यसभा ने इसे विचार के लिये स्टैंडिंग कमेटी को प्रेषित कर दिया। तब सरकार ने आनन-फानन में अध्यादेश जारी करने का फैसला किया।
आम चुनाव सिर पर है। शासक पार्टी का गठबंधन दागी सांसदों के चालाक समूहों से है। सरकार चलाने के लिये इनका संरक्षण और समर्थन महत्वपूर्ण है। सरकार के प्रबंधक इनके अयोग्य हो जाने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। सामान्य संसदीय प्रक्रिया में समाधान की अनिश्चितता से बेचैन दागी सांसदों का भारी दबाव था। इसलिये सरकार ने अध्यादेश का रास्ता अपनाया। इस तथ्य को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस के सामने कबूल किया कि राजनीतिक दबाव में तैयार किये गये ऐसे अध्यादेश को फाड़कर फेंक देना चाहिये। यह अध्यादेश बकवास (नॉनसंेस) है।
इसी बीच चुनाव प्रणाली से संबंधित सर्वोच्च अदालत के कई निर्णय आये हैं। जैसे नकारात्मक मत डालने का अधिकार। इसके ऐसे परिणाम हो सकते हैं जिसका हल वर्तमान कानून में नहीं है। अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा नकारात्मक मत किसी पक्ष में डाले गये तो क्या बाकी बचे अल्पमतों में जिसे ज्यादा मत प्राप्त होगा उसे ही विजयी घोषित किया जायेगा? यह तो अल्पमत का बहुमत पर राज थोपना होगा। इसलिये जरूरत है अपने देश की चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूल-चूल बदलाव की। संसद में पेश संशोधन विधेयक का अत्यंत सीमित उद्देश्य है जो जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करता है। कुछ दागी पर ईमानदार सांसदों को बचाना एक मुद्दा हो सकता है, किंतु ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि चुनाव प्रणाली में व्यापक सुधार की, जिससे इन अधिकारों की रक्षा की जा सके।
भारतीय संविधान लागू होने के 50 साल पूरा होने पर संविधान के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के एक उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया गया। उस आयोग ने एक विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है। प्रतिवेदन में एक सनसनी तथ्य उद्घाटित किया गया है कि देश के कुल सांसदों, विधायकों में से दो-तिहाई सांसद विधायक उनके क्षेत्रों में डाले गये कुल मतों के मात्र एक तिहाई मतों से निर्वाचित हुए हैं। दूसरा वर्तमान संसद व विधानसभाएं केवल 30 प्रतिशत के आसपास मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा चुनाव का बरतानवी औपनिवेशक तरीका अपनाने के कारण हुआ है। चुनाव का बरतानवी मॉडल फर्स्ट पास्ट व पोस्ट (एफपीटीपी) में प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों में जिसे ज्यादा मत मिलते हैं, उसे विजयी घोषित किया जाता है। चुनाव की यह प्रणाली दोषपूर्ण है। सन 1952 से अब तक इस चुनाव प्रणाली के फलाफल निम्न प्रकार दर्ज किये जा सकते हैं -
द अल्पमत पर आधारित धनतंत्रीय संसद एवं राज्य विधान सभाओं का निर्माण।
द कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता। 
द चुनाव में अपराध और धन का बढ़ता हस्तक्षेप।
द राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन विधेयक पर संसद मेें बहस के दौरान बहुत से सांसदों ने न्यायपालिका के फैसले पर ऐतराज जताया तथा संसद की वरीयता बहाल करने पर जोर दिया। सुनने में अच्छा लगता है कि फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि शासक पार्टी ने बजाय बहुमत के बल के संसदीय मंच का बेजा इस्तेमाल किया है। सन 1974 में नागरिक स्वतंत्रता का हनन करने वाली आपातकाल घोषणा का अनुमोदन संसद द्वारा किया गया। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि स्पेन में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने पार्लियामेंट पर संसद की वरीयता कायम करने का मंतव्य भ्रामक है। संसदीय बहस में जब प्रतिनिधित्व कानून के कार्यान्वयन की समीक्षा नहीं की गयी। पूरी बहस सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी बनाने तक सीमित थी। मीडिया की भी दिलचस्पी राजनेताओं की तुलना अपराधियों से करने की थी। संसदीय स्तर के निरंतर हो रहे क्षरण के मूल कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संवैधानिक निकाय है इसकी वरीयता, प्राथमिकता और स्वतन्त्रता के प्रश्न का हल संविधान में ही दिया गया है। संविधान में जनता को सर्वोपरि माना गया है। भारतीय संविधान जनता को समर्पित है। संविधान में इन तीनों निकायों के कार्यक्षेत्र और इनके कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या के साथ इनकी सीमाओं को भी रेखांकित किया गया है। संविधान में किसी को भी वरीय और कनिष्ठ नहीं बताया गया है। किसी की वरीयता किसी पर थोपी नहीं गयी है। इन तीनों निकायों को संविधान प्रदत्त अधिकारों और सीमाओं के अंदर जनता की की सेवा करनी है। इनमें किसी के भी सीमित अधिकार नहीं है। सभी की सीमाएं निर्धारित हैं। संविधान में जन अधिकार सर्वोपरि है। असीमित अधिकार केवल जनता को प्राप्त है। जनता सब कुछ कर सकती है और कुछ भी मिटा सकती है। यही सच्चा लोकतंत्र है।
धनतंत्रीय संसद
दिग्गज कम्युनिस्ट कामरेड ए.बी.बर्धन हाल के वर्षों में बराबर कहते रहे हैं कि संसद करोड़पतियों का क्लब बन गया है। भाकपा की पटना कांग्रेस के दस्तावेजों में भी यह तथ्य दर्ज किया गया है। चुनावों में जाति, संप्रदाय, धन और आम राय की भूमिका निर्णायक हो गयी है। इलेक्शन वॉच द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में 306 सांसद करोड़पति है। इनमें 160 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवारों में 32 प्रतिशत सांसदों के पास 5 करोड़ रूपये से ज्यादा की संपत्ति है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन उम्मीदवारों के पास 10 लाख रूपये से नीचे की सम्पत्ति है उनके चुनाव जीतने का चांस मात्र 2.6 प्रतिशत है। जिन उम्मीदवारों के पास 50 लाख से 5 करोड़ रूपये की संपत्ति है। उनके जीतने का चांस 18.5 प्रतिशत हैं। इससे पता चलता है कि धनबल चुनावों के नतीजों को किस हद तक प्रभावित करता है।
देश के सांसदों और विधायकों की कुल संख्या 4835 है। इनमें 1448 अपराधी पृष्ठभूमि वाली दागी हैं और इनके विरूद्ध अदालतों में मुकदमें चल रहे हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि दो-तिहाई से ज्यादा सांसद अपने क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का मात्र 30 प्रतिशत या इससे भी कम मतों से चुने गये हैं। इस तरह एफपीटीपी चुनाव प्रणाली का ब्रिटिश मॉडल बहुमत पर अल्पमत का प्रतिनिधित्व थोपता है। यह पूरी तरह अनैतिक है, किंतु मौजूदा कानून में यह पूरी तरह कानूनी है। चुनाव के इस बरतानवी मॉडल में धूर्तता, चालबाजी का पूरा मौका है जिससे मतदाता विभाजित होते हैं और अल्पमत का प्रतिनिधि चुन लिया जाता है। इसीलिये भारत में बहुमत के लोकतंत्र के बजाय अल्पमत का धनतंत्र मजबूत हो रहा है।
लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल और विख्यात विधि विशेषज्ञ डॉ. सुभाष कश्यप लिखते हैं: ‘‘भारतीय संविधान का लगभग 75 प्रतिशत गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की प्रतिलिपि है।’ वे भी सांसदों और विधायकों की प्रतिनिधित्व हीनता पर सवाल उठाते हैं और चुनाव की बरतानबी पद्धति को दोषी ठहराते हैंः’ फस्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली के तहत विधायकों सांसदों का बहुमत उनके क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का अल्पमत द्वारा निर्वाचित होता है।’
मैं एक कांग्रेसी उम्मीदवार को जानता हूं, जो बिहार विधानसभा के कांही क्षेत्र से चुनाव लड़े और उनकी जमानत जब्त हो गयी, फिर भी वे विजयी घोषित किये गये, क्योंकि लड़ रहे उम्मीदवारों में उन्हें ही ज्यादा मत मिले थे। वे बिहार सरकार के मंत्री भी बने। जमानत जब्त होने का मतलब है 6 प्रतिशत से कम मत मिलना। वर्तमान चुनाव प्रणाली में यह स्थिति आती है कि कंटेस्ट कर रहे सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाए। ऐसी स्थिति में उनमें जिसे ज्यादा मत प्राप्त होता हे, वह विजयी घोषित किया जाता है। इसका मतलब है कि डाले गये मतपत्रों में 6 प्रतिशत से कम मत प्राप्त करने वाला विधायक 96 प्रतिशत के विशाल मतदाताओं के ऊपर थोप दिया जाता है। यह लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है?
निरंकुश कार्यपालिका
 संपूर्ण परिदृश्य का दूसरा चिंताजनक पहलू है कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता और बेलगाम हो  रही अफसरशाही। सरकार वह करती है, जो चाहती है और वह नहीं करती है, जो नहीं चाहती। पसंद और नापसंद के आधार पर काम होता है। इसके लिये संसद को दरकिनार कर दिया जाता है। लोकतांत्रिक निकायों, आयागों एवं विशेषज्ञ समितियों की अनुशंसाओं एवं निर्णयों की उपेक्षा चलती है। इसके चंद नमूने निम्न प्रकार देखे जा सकते हैं -
1. भारत सरकार खा़़द्य सुरक्षा योजनाएं ज्यादा उत्साहित देखी गयी। यह योजना राज्य स्तर पर लागू होनी है और राज्यों को भी इसके खर्च में हाथ बंटाना है। संसद का अधिवेशन होना तय था। इसलिये विपक्ष चाहता था कि संसद में इस योजना पर मांग विचार-विमर्श किया जाये। लेकिन सरकार ने पहले अध्यादेश जारी कर दिया। सरकार का मकसद जनमानस में मात्र भं्राति फैलाना था कि सरकार तो जनता की खाद्य सुरक्षा चाहती है, किंतु विपक्ष अड़चनें डाल रहा है। जाहिर है कि सरकार की निगाह आगामी चुनाव पर है।
2. नयी पेंशन योजना के बारे में कर्मचारियों के तीव्र विरोध को जानते हुए सरकार ने इसे संसद में नहीं पेश किया और कार्यकारी आदेश पारित कर दिया। कई वर्षों से सरकार बिना कानून बनाये कार्यकारी आदेश पारित कर कर्मचारियों से पैसे वसूलती रही है। यह गैर-कानूनी था। अब संसद के पिछले सत्र में यह कानून पास हुआ है।
3. बहुप्रचारित आधार कार्ड को लें, जिसे सरकार ने सभी तरह की वित्तीय सहायता राशि पाने के लिये अनिवार्य बना दिया था। यह आधारकार्ड यूआईडी का विधेयक साल 2010 से संसद की स्थायी समिति के समक्ष विचाराधीन है। समिति को कई आपत्तियां हैं और नये सुझाव हैं। किंतु संसद की उपेक्षा करके सरकार ने इसे कार्यकारी आदेश पारित करके लागू कर दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अनिवार्यता पर रोक लगायी है।
4. आवश्यकता आधारित न्यूनतम मजदूरी तय करने की प्रणाली सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 1991 में निर्धारित की गयी, किंतु सरकार ने उस पर अमल अब तक नहीं किया है। इसीलिये देश की विभिन्न अदालतों द्वारा मजदूरों के पक्ष में दिये फैसले/एवार्ड/एवं अनुशंसाएं जिसकी संख्या लाखों में हैं, वे कार्यान्वयन के इंतजार में अफसरशाही की फाइलों के ढेरों में धूल चाट रहे हैं।
5.  असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 सबसे बदतर उदाहरण है। पहले तो कोई उस वर्षों तक सरकार ने ट्रेड यूनियनों की वार्ताओं के दौर में उलझाये रखा। जब विधेयक के प्रारूप पर सहमति हुइ तो उसकी उपेक्षा पर मामलों को असंगठित उपक्रम आयोग को सुपुर्द कर दिया। जब आयोग ने अपना प्रतिवेदन दाखिल किया तो उस पर अमल के बजाय सरकार ने फिर विचार के लिये संसदीय स्थायी समिति को प्रेषित किया। जब संसदीय स्थायी समिति ने अपने प्रतिवेदन के साथ विधेयक का सर्वसम्मत प्रारूप पेश किया तो सरकार ने उसे खारिज कर दिया और अपना एकतरफा तैयार किया विधेयक संसद में पेशकर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हितोें की रक्षा नहीं करता है। सभी केंद्रीय मजदूर संगठन इसका विरोध करते हैं। कोई दो दशकों से ज्यादा दिनों से सरकार श्रम संहिता का त्रिपक्ष वाद से लोक संसदीय समिति का सर्वसम्मत  अनुशंसा की उपेक्षा करती रही और मनमाना एकतरफा विधेयक संसद में पेश कर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हित में नहीं है। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच से चलाये जा रहे वर्तमान मजदूर आंदोलन की यह प्रमुख मांग है।
6. इसी तरह भारत के 12 करोड़ खेत मजदूरों के लिये केंद्रीय कानून आज तक नहीं बनाया गया। इस बारे में भी संसदीय समिति की अनुशंसा की उपेक्षा की गयी है।
अपराध और भ्रष्टाचार
नवउदारवाद आर्थिक व्यवस्था के प्रारंभ के बाद आर्थिक अपराध और भ्रष्टाचार मुक्त बाजार का अंग बन गया है। विकास और कल्याण योजना कोष सरकारी खजाने और राष्ट्रीय संपदा की लूट रोजमर्रा की बात हो गयी है। इस तथ्य की ओर उंगली उठाते हुए पूर्व सीएजी विनोद राय ने कहा कि सरकारी नीतियों से देश में चाहे तो पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का निर्माण हो रहा है।
2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आबंटन में लाखों करोड़ के घोटालों के बारे में सरकार की ओर से कहा गया कि ये काम सरकारी नीति के तहत किया गया। इसलिये ये कारनामे भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार नीति से राष्ट्रीय संपदा का दोहन चंद व्यक्तियों के हित में नहीं तकया जा सकता। लेकिन प्रकट है कि लोकतंत्र के नाम पर देश मे अल्पमत का धनतंत्र कायम हो गया है जो अपने वर्गीय हित में राष्ट्रीय संपदा की लूट मचाये हैं।
समाज विकास का इतिहास गवाह है कि पूंजीवाद और लोकतंत्र सहयात्री नहीं बन सकते। लोकतंत्र बहुजन आम आदमी के हित में है, किंतु इसके उल्ट पूंजीवाद चंद धनिकों के स्वार्थों का पोषक है। पूंजीवाद सही मायने में लोकतंत्र का निषेध है। इसलिए आज मूल प्रश्न सरकार की स्वेच्छाचारिता पर काबू पाने का अर्थात् कार्यपालिका की बढ़ती निरंकुशता पर लोकतांत्रिक अंकुश लगाने का, क्योंकि यह सरकार है जो लोकतांत्रिक अंकुश के अभाव में तानाशाह बन जाती है।
जनसत्ता का क्षरण रोको
लोकतंत्र में सत्ता लोगों के हाथों में होती है। जनता सर्वशक्तिमान होती है। जनता अपनी शक्ति का इस्तेमाल अपने चुने प्रतिनिधियों द्वारा करती है पर अपने देश में प्रतिनिधि चुनने का जो तरीका अपनाया गया, वह दोषपूर्ण साबित हुआ। इस दोषपूर्ण तरीके से जनसत्ता के बजाय धनसत्ता कायम हुई, जिसमें कुछ लोग मालोमाल हुए और आम लोग का विशाल समुदाय भूख और अभाव की जिंदगी जीने को मजबूर हुआ। योजना आयोग के ताजा आंकलन के मुताबिक 54 प्रतिशत अर्थात 83.75 करोड़ जनता भूख और गरीबी की अवस्था में है। अर्जुन सेन गुप्ता कमीशन के मुताबिक देश की 77 प्रतिशत अर्थात 96.25 करोड़ जनता 20 रूपये रोजाना से कम पर गुजारा करती है। दूसरी ओर भारत दुनिया के दूसरे नंबर का देश है जहां सर्वाधिक करोड़पति हैं। यह स्थिति बदलनी होगी।
इसीलिये चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूलचूल सुधार की जरूरत है। इसके लिये निम्नांकित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है-

  • कुल मतदाताओं का आधे से अधिक को बहुमत के रूप में परिभाषित किया जाय और सांसदों-विधायकों के निर्वाचन के लिये यह बहुमत प्राप्त करना अनिवार्य बनाया जाय।
  • निकम्मे, भ्रष्ट सांसदों को वापस बुलाने का जन अधिकार सुरक्षित किया जाय।
  • मतदाताओं को नापसंदगी व्यक्त करने का प्रावधान।
  • चुनाव में उम्मीदवारों का चयन मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा हो और बाकी स्वतंत्र उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिये मतदाताओं की पूर्व अनुमति आवश्यक बनायी जाय। जनता की पूर्वानुमति हासिल करने की प्रणाली विकसित की जा सकती है।
  • समानुपातिक चुनाव प्रणाली।
  • चुनाव खर्च और सरकारी कोष से पार्टियों को प्रचार खर्च का भुगतान।
  • नीति निर्धारण और विकास योजनाओं के निर्माण में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना।

- सत्य नारायण ठाकुर

Monday, January 14, 2013

मानेसर सुजुकी के सबक - कार्पोरेट शासन पर हल्ला बोल

    मानेसर सुजुकी प्लांट में गत 18 जुलाई के हादसे के बारे में अब यह तथ्य पूरी तरह उजागर हुआ है कि उस दिन की हिंसक घटना प्रबंधन द्वारा पूर्व नियोजित थी, जिसका उद्देश्य मजदूरों को सबक सिखाना था। कारखाना परिसर में अभी भी पुलिस बल की भारी तैनाती और बाद की घटनाओं से जाहिर है कि हरियाणा राज्य सरकार किस हद तक विदेशी कंपनियों की गिरफ्त में है। हरियाणा सरकार पूरी तरह विदेशी पूंजी की सेवा में समर्पित हो गयी है।
    राज्य सरकार द्वारा गठित विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) के सुपुर्द प्रतिवेदन में लिखा गया है कि राज्य पुलिस प्रशासन द्वारा कोर्ट में दाखिल चार्जशीट में गवाहों के नाम नहीं दिये गये हैं और न अभियोगों के पक्ष में समुचित कागजात एवं दस्तावेज दाखिल किये गये हैं। इन दो तथ्यों के अभाव में मामले की न्यायिक जांच को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। विशेष जांच दल ने यह भी सुझाव दिया है कि सरकार उन मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से हटा दें जिन पर हिंसा फैलाने का आरोप नहीं है। इसके बावजूद निर्दोष मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से नहीं हटाया गया है और ऐसे बेगुनाह मजदूरों को काम पर वापस भी नहीं लिया गया है। इस तरह मारूति सुजुकी प्रबंधन एवं हरियाणा राज्य सरकार के नापाक गठबंधन से मनमानीपूर्वक बेगुनाह मजदूरों को गोलमटोल अभियोगों के आधार पर जेल में बंद कर आतंक का माहौल बनाया हुआ है।
    अब तक बिना किसी ठोस आधार के 546 स्थायी कर्मचारियों को और 1800 से ठेका मजदूरों को बर्खास्त किया गया है। पुलिस ने 149 मजदूरों को गिरफ्तार कर जेल मेें बंद रखा है, जिसें यूनियन के अनेक पदाधिकारी शामिल हैं। इन गिरफ्तार लोगों में 125 मजदूर तो घटना के दिन कारखाने में मौजूद ही नहीं थे। विशेष जांच दल द्वारा ऐसे ही लोगों के नाम हिंसा के अभियोगों की सूची से हटाने का सुझाव दिया है।
    ‘ट्रेड यूनियन रिकार्ड’ के पिछले अंकों में गुड़गांव सहित नोएडा, फरीदाबाद, गाजियाबाद, धारूहेड़ा के औद्योगिक क्षेत्र में फैल रही अनेकानेक हिंसक घटनाओं का कारण अंधाधंुंध गैरकानूनी ठेका प्रथा के प्रचलन को बताया है। दिल्ली समेत यू.पी. और हरियाणा सरकार का श्रम विभाग ठेका प्रथा उन्मूलन एवं नियमन कानून के प्रावधानों के कार्यान्वयन के प्रश्न पर नीतिगत रूप से कान में तेल डालकर सोया है। इस प्रकार शासन में देशी-विदेशी कार्पोरेट घराने के बढ़ते प्रभाव और उसके चलते हो रही हिंसक घटनाएं देश को खतरनाक औद्योगिक अराजकता में धकेल रही है। भारत के सस्ता श्रम के दोहन के लिये विदेशी कंपनियां बेताब हैं। अब वालमार्ट जैसी दैत्याकार अमेरिकी कंपनियां भी भारत के कृषि उत्पाद तथा उपभोक्ता बाजार के शोषण के लिये मैदान में उतर रही है।
    शासक दल के राजनेताओं को ‘‘शिक्षित करने’’ के लिये बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों द्वारा भारी रकम खर्च करने की खबरें पहले भी आयी थीं। बोफोर्स तोप घोटाले में भी विक्रय प्रोत्साहन (सेल्स प्रमोशन) के लिये किया गया खर्च को रिश्वत नहीं माना गया था। योरोप के अनेक देशों में घूस की रकम को अनैतिक नहीं माना जाता है।
    बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियां कारोबार को आगे बढ़ाने के लिये राजनेताओं को पटाते हैं और इसके लिये भारी रकम खर्च करते हैं। ऐसी खर्च रकम को वे लाबियिंग एक्पेंडीचर कहते हैं और बजाप्ता नियमित खाता में डालत हैं। अभी वालमार्ट कंपनी ने 125 मिलियन डालर भारत में खुदरा बाजार हासिल करने के लिये ‘लाबियिंग खर्च’ दिखाया है अमेरिका में ऐसा ‘लाबियिंग खर्च’ कानूनी तौर पर वैध है। यह मुद्दा संसद में भी गरमाया और सरकार ने इसकी न्यायिक जांच कराने की घोषणा की।
    सर्वविदित है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में राबर्ट क्लाइब ने भारत में पैर जमाने के लिये किस तरह देशी रजवाड़े को घूस देकर पटाया था। भारत में विदेशी कंपनियोें के आचरण अत्यंत आपत्तिजनक हैं। वे भारत के श्रम कानूनों की उपेक्षा करते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य भारतीय श्रम बाजार का शोषण और कृषि उत्पादों को लूटना एवं उपभोक्ता बाजार में सामान बेचकर मुनाफा कमाना है। अतएव अब समय आ गया है कि भारतीय जनगण कार्पोरेट घरानें के शिकंजों के खिलाफ हल्ला बोलें।
    केंद्रीय ट्रेड यूनियन अधिकारों की रक्षा में संयुक्त संघर्ष 20-21 फरवरी 2013 को दो-दिवसीय आम हड़ताल को कामयाब करें। भारत का लोकतंत्र कार्पोरेट शासन के गिरफ्त में हैं। यह हमारी आजादी और सार्वभौमिकता पर खतरा है। इसलिये जरूरी है कि कार्पोरेट शासन के बढ़ते शिकंजे के खिलाफ जोरदार हल्ला बोलें।
- सत्य नारायण ठाकुर

Friday, November 18, 2011

चार रुपये का मासिक पेंशन: योजना का कैसा मजाक?

भारत सरकार हाल के दिनों में लगातार असंगठित मजदूरों के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना का ढोल पीटती रही है। इसने नयी पेंशन योजना बनायी है, जिसमें कामगारों की योगदान राशि को निश्चित किया गया है, किंतु पेंशन कितना मिलेगा, इसका कोई आश्वासन नहीं है। नीचे कतिपय बीड़ी कामगारों की सूची और उन्हें मिलनेवाले पेंशन रकम उल्लिखित है, जिनसे पता चलता है कि कामगार पेंशन योजना 1995 के अंतर्गत किस प्रकार दृरिद्रों को मिलनेवाले पेंशन से भी कम मजदूरों का पेंशन निर्धारित किया गया है। उड़ीसा के बीड़ी मजदूर बिजली पटेल का पेंशन 4 रुपये मासिक निर्धारित किया गया है। क्या यह पेंशन योजना का मजाक नहीं है?
पेंशनरों के नाम          पेंशन रकम      पी एफ एकाउंट नंबर                    प्रदेश
बिजली पटेल              4/-                    ओआर438/705                              उड़ीस
मल्लाम्मा                  66/-                   एपी/5276/14950                            आंध्र प्रदेश
के. राजेश्वरी              42/-                   एपी/5276/14903                            आंध्र प्रदेश
इला बाई                  42/-                    एपी/5276/14908                            आंध्र प्रदेश
वेंकट लक्ष्मी             64/-                   एपी/5276/14944                             आंध्र प्रदेश
इमाम बी                  92/-                   एपी/5276/14932                             आंध्र प्रदेश
वी. राजेश्वरी             55/-                   एपी/5276/14892                             आंध्र प्रदेश
राजू                          66/-                   एपी/5207/6640                               आंध्र प्रदेश
वीरालक्ष्मी                54/-                   एपी/5276/14318                             आंध्र प्रदेश
आरूधाम                  47/-                    टीएन/8213/1549                            तमिलनाडु
रामायी                     93/-                   टीएन/8213/1522                             तमिलनाडु
सागर                      90/-                    टीएन 19844/91                              तमिलनाडु
एम. मुरगन             72/-                   टीएन 21270/2634                           तमिलनाडु
मुरगन                    94/-                   टीएन 9627/98                                 तमिलनाडु
जय लक्ष्मी            69/-                    टीएन 23092/120                             तमिलनाडु
मो. मेहबुबिया      134/-                    एपी/5276/14880                              आंध्र प्रदेश
...............            116/-                    एपी/8213/1563                                आंध्र प्रदेश
चौ. कट्टक्का        197/-                     एपी/5276/14953                              आंध्र प्रदेश
एम. मल्लम्मा    114/-                     एपी/5276/14902                              आंध्र प्रदेश
इंदराम               120/-                     टीएन 8213/1549                             तमिलनाडु
सेमिउल्लाह        132/-                    टीएन 19844/132                              तमिलनाडु
अल्लाबकश        163/-                    टीएन 18420/17                               तमिलनाडु
एम. राजी           107/-                    टीएन 21270/279                              तमिलनाडु
वी.पी.  समराज  184/-                     टीएन 18787/94                               तमिलनाडु
के. चेन्नप्पन      318/-                    टीएन 1270/2655                              तमिलनाडु
के.पी. मणि         150/-                   टीएन 18657/988                              तमिलनाडु
उपर्युक्त नाम केवल सांकेतिक उदाहरण है। अनुमान किया जाता है कि केवल बीड़ी मजदूरों की संख्या पांच लाख है, जिन्हें दो सौ  रूपये मासिक के आस-पास पेंशन निर्धारित किया गया है।
- सत्य नारायण ठाकुर

Thursday, November 17, 2011

‘वाल स्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन का बेबाक संदेश

पूंजीवाद और लोकतंत्र सहयात्री नहीं हो सकते। पूंजीवाद वस्तुतः लोकतंत्र का निषेध है। यह बात पूंजीवाद का गढ़ अमेरिका में ही सिद्ध हो रही है, जहां लोगों ने एक फीसद धन पशुओं के खिलाफ 99 फीसद जनता का जनयुद्ध घोषित किया है। जनता के लिये जनता द्वारा जनता का जनतंत्र धनिकों के लिये धनिकों द्वारा धनिकों का धनतंत्र में तब्दील हो चुका है। ‘वालस्ट्रीट पर कब्जा करो’ के बैनर तले जुक्कोटी पार्क में बैठे नौजवान धनपशुओं के आवास मैनहट्टन में घुसकर लाभ-लोभ-लालच पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को ललकार रहे हैं। साम्राज्यवादी दौलत की विश्व राजधानी न्यूयार्क डगमगा रहा है। फलतः औपनिवेशिक लूट का जमा धन पर मौज-मस्ती करने वाले अपने ही घरेलू असंतोष से लड़खड़ाते यूरो- अमेरिकी साम्राज्यवादी फिर से जड़ जमाने के लिए अपने आक्रामक मिसायलों को अरब- अफ्रीका की तरफ भिड़ा दिया है। लेकिन क्या एशिया- अफ्रीका के जाग्रत जनगण अपने अजस्र कच्चामाल के स्रोत खनिज संपदा, तेल भंडार और सबसे बढ़कर सस्ता श्रम और विशाल उपभोक्ता बाजार को फिर से विकसित औद्योगिक राष्ट्रों का चारागाह बनने देंगे? निश्चय ही ऐसा इतिहास फिर से नहीं दोहरायेगा। वॉलस्ट्रीट में बैठे आंदोलनकारियों की स्पष्ट मांग है कि पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजनीति को आर्थिक समानता के साथ जोड़कर सार्थक जनवादी अर्थतंत्र बनाया जाय। उनका संदेश साफ हैः पूंजीवाद संकट पैदा करता है, स्वयं अपने लिये भी।
 ‘वाल स्ट्रीट कब्जा करो’ (ऑक्यूपाई वाल स्ट्रीट) आंदोलन शुरू हुए एक महीना से ज्यादा हो गया है। ऑक्यूपाई वाल स्ट्रीट का ;व्ॅैद्ध प्रारंभ 17 सितम्बर, 2011 को हुआ, जब सैकड़ों युवक युवतियांॅ न्यूयार्क के जुक्कोटी पार्क में जाकर बैठ गयी तो फिर वहां से हटने का नाम नहीं लिया। जुक्कोटी पार्क न्यूयार्क का हृदयस्थल मैनहट्टन इलाका में है। मैनहट्टन क्षेत्र में अमेरिका के बड़े धनाढ़यो के आलिशान आवास और दैत्याकार कार्पोरेट कार्टेलो के मुख्यालय है। सब जानते हैं कि वाल स्ट्रीट दुनिया का सट्टाबाजार और वित्त पूंजी का पर्याय है। स्वाभाविक ही था कि आंदोलनकारियों ने इसे ही अपना लक्ष्य बनाया। आंदोलनकारियों का प्रकट गुस्सा कार्पोरेट लूट के खिलाफ है। इन्होंने अमेरिका के एक फीसद धनिकों के खिलाफ 99 फीसद आम लोगों का युद्ध घोषित किया है।
 देखते-देखते इस आंदोलन का फैलाव संपूर्ण अमेरिका, योरप और विकसित देशों मे हो गया। अमेरिका के प्रायः सभी शहरों में जुलूस निकाले जा रहे हैं। मुख्य रूप से इनका लक्ष्य बैंक और वित्तीय संस्थान हैं। सभी जगह स्टॉक मार्केट और बैंकों के सामने आक्रोशपूर्ण विरोध प्रदर्शन लगातार हो रहे हैं। अखबारों के मुताबिक दुनिया के कोई एक हजार से ज्यादा शहरों में विरोध प्रदर्शन हुए।
कौन हैं ये आंदोलनकारी
 इस आंदोलन का नेतृत्व कोई राजनीतिक दल नहीं करता है। इसका कोई एक नेता भी नहीं है। कार्पोरेट लोभ-लालच विरोधी कनाडियन ग्रुप एडबस्टर्स ने एक बड़ा आकर्षक पोस्टर तैयार किया, जिसमें शेयर मार्केट का प्रतीक सांड और पृष्ठभूमि में उपद्रवी पुलिस ;त्वपज चवसपबमद्ध की आक्रमकता चित्रित है। पोस्टर को विगत जुलाई महीने में न्यूयार्क के व्यस्त इलाके में लगाया गया। पोस्टर में आक्यूपाई वाल स्ट्रीट की अपील है। इस पोस्टर ने जनता का ध्यान बड़े पैमाने पर खींचा। तब अगस्त महीना में एक आई टी विशेषज्ञ ओ ब्रीयन ने इंटरनेट पर ट्वीटिंग और बहुत कुछ प्रारंभिक प्रचारात्मक काम न्ै क्ंल व ित्ंहम नाम से किया। किंतु आम लोगों के बीच जाने और जन आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने की निर्णायक भूमि का श्रेय न्यूयार्क के युवकों, कलाकारों और छात्रों की एक संगठित टोली को है। ”न्यूयार्कर्स एगेंस्ट बजट कट“ के बैनर तले पहले भी एक बड़ा आंदोलन चलाने का तजुर्बा इस टोली को था। इन लोगों ने छात्र संगठनों और ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर न्यूयार्क सिटी के मेयर द्वारा बजट प्रावधानों में कटौतियां और ले-आफ के विरूद्ध ब्लूमबर्गविले कार्यालय पर तीन सप्ताहों तक कब्जा कर लिया था। इसमें इन्हें कामयाबी मिली। मेयर ने बजट के कई जन विरोधी प्रावधान वापस लिये। आंदोलन के इस व्यवहारिक अनुभव ने इन्हें उत्साहित किया और ये वाल स्ट्रीट कब्जा के लिए आगे बढ़े। कारपोरेट/कार्टेल के भ्रष्ट कारनामे और मुनाफा कमाने का अनंत लोभ ने अमेरिकी जनगण को उस चौराहे पर पहुंॅचा दिया है, जहांॅ से आगे बढ़ने के लिए उसे नया रास्ता की तलाश है।
 इस आंदोलन को नेतृत्व करने का दावा, कोई व्यक्ति या समूह नहीं करता है। सभी फैसले जुक्कोटी पार्क में बैठे जनरल एसेम्बली में आम राय से किये जाते हैं। वे विभिन्न कामों के लिये अलग-अलग समूहों में भी बैठते हैं, चर्चा करते हैं और निर्णय लेते हैं। कभी-कभी आम राय बनाने में कई दिन लग जाते हैं। तब आम राय बनती है तो पार्क में उल्लास छा जाता है। यह बड़ा ही उत्तेजित करने वाला प्रेरक प्रसंग है। इस आंदोलन की विशेषताओं को निम्न प्रकार दर्ज किया जा सकता है:-
न यह एक व्यापक जन आंदोलन है। इसका कोई एक नेता नहीं है और ना ही कोई एक निश्चित विचारधारा, जिसकी पहचान विद्यमान राजनीति के फ्रेमवर्क में की जा सके।
न फिर भी आंदोलन लक्ष्यविहीन नहीं है और ना ही है दिशा विहीन। यह निश्चय ही वर्तमान अर्थव्यवस्था के खिलाफ विस्फोट है।
न इस आंदोलन में अराजकतावादियों समेत विभिन्न मतावलंबियों का पंचमेल संगम प्रकट है। इसके बावजूद इनका मजबूत नेटवर्किंग है और फैसला लेने के लिये एक ‘जनरल एसेम्बली’ भी है, जहां आमराय से सभी फैसले किये जाते हैं।
न आंदोलन का अब तक कोई मांग पत्र (चार्टर) तैयार नहीं है, फिर भी इनके नारों में मांगे स्पष्ट है। जैसे कार्पोरेट/कार्टेल का भ्रष्टाचार, लूट और लाभ- लोभ का विरोध, सैन्य उद्योग समूह नष्ट करना, मृत्युदंड समाप्त करना, सबको स्वास्थ्य प्रावधान, आर्थिक विषमता और बेरोजगारी।
न इनके नारों में ‘मुनाफा के पहले जनता’ ;च्मवचसम इमवितम चतवपिजद्ध और सीधा लोकतंत्र ;क्पतमबज क्मउवबतंबलद्ध बहुत लोकप्रिय है।
न आंदोलन के स्वरूप के बारे में इनकी ‘जनरल एसेम्बली’ की एकमात्र पसंदीदा मार्ग है ”सीधी अहिंसक कार्रवाई“ ;छवद अपवसमदज क्पतमबज ।बजपवदद्ध
न अनेक स्थानों में पुलिस हस्तक्षेप और गिरफ्तारियों के बावजूद आंदोलन आश्चर्यजनक शांतिपूर्ण है।
न आंदोलन का मुख्य निशाना बैंक, शेयर बाजार और वित्तीय संस्थान है।
गैर बराबरी तबाही का कारण
 नौजवानों के इस आंदोलन ने निःसंदेह अमेरिकी समृद्धि के गुब्बारे की हवा निकाल दी है। अमेरिका के लाखों लोग आज फूड कूपन पर गुजारा करते हैं। वे स्वास्थ्य बीमा के कवरेज से बाहर है। बेरोजगारी दो अंकों को चूमने को है। आर्थिक विषमता और नाबराबरी का फर्क आकाश पाताल का है। सिर्फ 400 अमेरिकी धनाढ्यों के पास इतनी संपदा इकट्ठी हो गयी है, जो 15 करोड़ आम अमेरिकियों की कुल जमा संपत्ति से ज्यादा है। अर्थात नीचे के 90 प्रतिशत जनसंख्या की सम्मिलित कुल संपदा से ज्यादा धन महज एक प्रतिशत धनिकों के हाथों में बंद है। ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक अमेरिकी की कुल आर्थिक उपलब्धियों को 65 प्रतिशत केवल एक प्रतिशत धनी हड़प लेते हैं।
 जहांॅ तक कर्मचारियों के वेतन में व्याप्त विषमता का प्रन है न्यूयाक्र स्टाक एक्सचेंज में कार्यरत कर्मचारियों का औसत वेतन 3,61,330 डालर है, जो अमेरिका के अन्य निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों के वेतन की तुलना में साढ़े पांच गुना अधिक है। इसका अर्थ यह है कि औद्योगिक मजदूरों का वेतन वित्तीय क्षेत्र के मुकाबले साढ़े पांच गुना कम है। वर्ष 2010 के सर्वेक्षण के मुताबिक अमेरिका के 100 बड़ी कम्पनियों के प्रमुख कार्यकारी अफसरों का वेतन उस कम्पनी के द्वारा सभी तरह के टैक्स भुगतान की कुल धनराशि से ज्यादा था। प्रदर्शनकारियों ने बैनर लगाया है। ठंदामते ंतम इंपसमक वनजए ूम ंतम ेवसक वनज (बैंकर्स को राहत आम आदमी को आफत) प्रदर्शनकारी सख्त एतराज जताते हैं कि बैंकों के डूबने का जिम्मेदार आम आदमी नहीं है तो फिर आम आदमी बैंक डूबने की सजा क्यों भुगते?
 आम आदमी के कंधों पर वित्त संकट का हल निकाला जा रहा है। बैंक प्रमुखों के वेतन/पर्क्स नहीं काटे गये, जबकि कर्मचारियों का वेतन फ्रीज किया गया।
पूंजीवाद का अंतर्विरोध उबाल पर
 मंदी और वित्त संकट पर हाल के वर्षों में अनेक शोध ग्रंथ छपे हैं। उन शोध ग्रंथों की समीक्षा करते हुए प्रसिद्ध स्तंभकार निकोलस क्रीस्टौफ का न्यूयार्क टाइम्स मंे प्रकाशित एक आलेख काफी चर्चित हुआ है, जिसमें बताया गया है कि अमेरिका में उभर रही आर्थिक नाबराबरी न केवल सामाजिक तनाव पैदा करती है, बल्कि अर्थव्यवस्था को ही बर्बाद कर रही है।
 अर्थव्यवस्था के अमेरिकी शोधकर्ता कार्ल मार्क्स के कथन को सही ठहरा रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि पूंजीवाद अपना कब्र खुद खोदता है। सभी शोध ग्रंथों का निचोड़ है कि सरकार के बेल आउट पैकेजों के अपेक्षित परिणाम नहीं आये।
 कार्नल विश्वविद्यालय के प्रो0 राबर्ट फ्रैंक ने अपनी पुस्तक ”द डार्विन इॅकानामी“ में दुनिया के 65 औद्योगिक देशों की अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया गया है। इसमें इस तथ्य को उजागर किया गया है कि अर्थव्यवस्था में ज्यादा विषमता की अवस्था विकास दर को धीमा करती है। पुस्तक में यह निचोड़ निकाला गया है कि आय में अपेक्षाकृत ज्यादा समानता विकास दर तेज करती है, जबकि विषम आय की अवस्था में स्लोडाउन देखा गया है।
 इन शोध ग्रंथों के हवाले से निकोलस क्रीस्टौफ लिखते हैं कि अमेरिका के मामले में इन शोध ग्रंथों का यह मंतव्य बिल्कुल सही है। 1940 से 1970 तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का मजबूती से तेज विकास हुआ, क्योंकि लोगों ने ज्यादा समानता का उपभोग किया। उसके बाद विषमता फैली तो विकास धीमा दर्ज हुआ है। इसलिए आर्थिक विषमता जाहिरा तौर पर अर्थव्यवस्था को वित्तीय संत्राश और दिवालियापन में धकेलती है। (इंडियन एक्सप्रेसः 17 अक्टूबर, 2011)
एकमात्र पसंदीदा मार्ग
 इस आंदोलन के बारे में राजनेताओं में अल गौरे का बयान ध्यान देने लायक है। अल गौरे ने इसे ”लोकतंत्र का बुनियादी चित्कार“ ;च्तपउंस ैबतमंउे व िक्मउवबतंबलद्ध कहा है। अमेरिकी लोकतंत्र के बारे में प्रो0 नोम चौम्स्की का कथन है कि ”अमेरिका में लोकतंत्र काम नहीं करता है और यहां संसदीय पद खरीदे जाते हैं।
 पहले पहल अमेरिकी जनगण को इस तथ्य का अहसास हो रहा है कि राजनीतिक लोकतंत्र के साथ आर्थिक लोकतंत्र भी जरूरी है। लोकतंत्र की सार्थकता जनगण की आर्थिक खुशहाली में निहित है। अर्थपूर्ण लोकतंत्र के लिये जनगण की खुशहाली पहली शर्त है।
 कुछ दिन पूर्व एक अमेरिकी अर्थशास्त्री मुक्त बाजारवाद के गीत गाते थे। उनका उपदेश थाः सरकार का काम राज करना है। सरकार के लिए व्यापार और उद्योग परिचालन में दखल देना अनैतिक है। आज वे ही अर्थशास्त्री डूबे बैंकों को उबारने के लिये सरकारी सहायता के लिए हाथ फैला रहे हैं और सरकार भी मुक्तहस्त से उन्हें उपकृत भी कर रही है। यह बात जनता की समझ में आ गयी है कि सरकारी चिंता केवल कार्पोरेट मुनाफा को बचाने की है। इसलिये उन्होंने ‘मुनाफा के पहले इंसान’ ;च्मवचसम ठमवितम च्तवपिजद्ध का नारा दिया है।
 यहां यह बात खाश तौर पर गौर करने की है कि आंदोलनकारियों की रणनीति लंबी लड़ाई की है। इसलिये वे आंदोलन को शांतिपूर्ण बनाये रखने के लिए दृढ़ है। वे आंदोलन के दरम्यान ही संगठन का लोकतांत्रिक ढांचा भी तैयार करने में जुटे हैं। उनके सामने मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से जनता की व्यापक लामबंदी का प्रत्यक्ष इतिहास है। इसलिये आंदोलन की जनरल एसेम्बली ने काफी विचार विमर्श के बाद ”अहिंसक सीधी कार्रवाई“ ;छवद टपवसमदज क्पतमबज ।बजपवदद्ध को ”एकमात्र पसंदीदा मार्ग“ ;व्दसल बीवपबमद्ध का अवलंबन तय किया है। जाहिर है, लोक आकांक्षा की अभिव्यक्ति पर आधारित जनता का शांतिपूर्ण आंदोलनात्मक क्रियाकलाप एक शक्तिशाली विश्वव्यापी आयाम ग्रहण कर चुका है।
 आंदोलनकारी पूंजीवाद, समाजवाद जैसे प्रचलित जुमले इस्तेमाल नहीं करते हैं, पर वे कार्पोरेट लोभ और आर्थिक विषमता को बेबाक तरीके से बेनकाब करते हैं। इतना तय है कि अमेरिकी इतिहास में पहली मरतबा नौजवानों और आम लोगों ने बहुप्रचारित अमेरिकी समृद्धि पर सीधी ऊंगली उठायी है। पूंजी के जंगल में आग लगा चुकी है। यह दावानल रूकनेवाला नहीं है। इसे कतिपय रियायतों की घोषणा से दबाया नहीं जा सकता। यह संपूर्ण पूंजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध प्रकट वर्ग युद्ध है। लोग समझने लगे हैं कि पूंजीवाद अपने आप में एक संकट है। पूंजीवाद समाधान नहीं है। जनगण की समस्याओं का समाधान कर पाने में विफल पूंजीवादी अर्थतंत्र में अंतर्निहित अंतविरोध का स्वतस्फूर्त विस्फोट है यह नौजवानों द्वारा शुरू किया गया आंदोलन। इसलिये ट्रेड यूनियनें, विभिन्न नागरिक समूह और आम लोग भी इसमें खींचते चले आ रहे हैं।
- सत्य नारायण ठाकुर

Saturday, October 15, 2011

भाकपा की 21वीं कांग्रेस का महत्व

यों प्रत्येक कम्युनिस्ट के लिए तीन साल पर होने वाली हर पार्टी कांग्रेस महत्वपूर्ण होती है, पर पटना में अगले वर्ष होने वाली 21वीं कांग्रेस निश्चय ही विशिष्ट होंगी। इसकी विशिष्टता को भाकपा का राष्ट्रीय परिषद (18-19 जून, 2011) ने अपने प्रस्ताव में निम्नांकित शब्दों में प्रकट किया है।
    ”वामपंथ को स्वयं अपने नेतृत्व में राजनीतिक विकल्प पेश करना होगा, जिसका आधार होगा वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम और सम्प्रदाय निरपेक्ष लोकतंत्र के लिये प्रतिबद्धता, क्योंकि भारत की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर भी, आर्थिक नव उदारवाद का समर्थन करती है।“
    यहांॅ उपर्युक्त उद्धरण की चार बातें ध्यातव्य हैं -
क.    नवउदारवादी आर्थिक नीति की समर्थक पार्टियों की पहचान,
ख.    सम्प्रदाय निरपेक्ष लोकतंत्र की रक्षा,
ग.    वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम का निर्माण, और
घ. वैकल्पिक राजनीति का वामपंथी नेतृत्व
    भारत के स्वातंत्रयोत्तर- कालीन युग में गैर कांग्रेस वाद और गैर संप्रदायवाद के आधार पर राजनीतिक धु्रवीकरण होता जा रहा है। प्रकटतः इसके व्यावहारिक परिणाम ने देश में द्विदलीय शासन प्रणाली का दस्तक दी है। इससे आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर राजनीतिक धु्रवीकरण का प्रश्न पृष्ठिभूमि में ओझल हुआ है। यही कारण है कि केन्द्र में कमजोर सरकारों के अस्तित्व के बावजूद नवउदारवादी आर्थिक नीति का घोड़ा बेरोकटोक सरपट दौंड़ता गया है। इस परिस्थिति में वामपंथ के नेतृत्व में वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर राजनीतिक विकल्प तैयार करने का प्रस्ताव वर्तमान अनिश्चित वातावरण में भरोसा पैदा करने वाला महत्वपूर्ण दिशा सूचक निर्णय है। इसका आवश्य ही सर्वत्र स्वागत किया जायेगा।
    बिहार के लिए पार्टी कांग्रेस आयोजित करने का यह तीसरा मौका है। पहला मौका 1968 में आठवीं कांग्रेस आयोजित करने का मिला था। इसे पटना के ऐतिहासिक मैदान में संपन्न किया गया। उस महाधिवेशन के समय बिहार में प्रथम गैर कांग्रेसी संविद सरकार थी, जिसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। कांग्रेस कुशासन के अंत में पूरे राज्य में जन उत्साह का माहौल था। इस महाधिवेशन में शामिल प्रतिनिधियों के बारे में प्रमाण समिति ने अपने प्रतिवेदन में दर्ज किया कि वे सभी के सभी जेल जीवन बिताये संघर्षों के तपे-तपाये नेता थे। इस
महाधिवेशन की विशेषता थी कि इसमें शामिल एक भी प्रतिनिधि ऐसा नहीं था, जिन्होंने अपने जीवन का एक भाग ब्रिटिश राज में अथवा आजाद भारत में जेल की सलाखों में नहीं बिताया हो। यह संपूर्ण पार्टी द्वारा चलाये गये जनसंघर्षों का इजहार था और साथ ही पार्टी कांग्रेस में उपस्थित प्रतिनिधियों की वर्ग निष्ठा और उनके जुझारूपन का प्रमाण भी।
    दूसरा मौका, 1987 में महाधिवेशन आयोजन का था। यह भी पटना में संपन्न हुआ। इस महाधिवेशन में चतुरानन मिश्रा द्वारा प्रस्तुत महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वालों के हितों की रक्षा करने का आह्वान किया गया।
    पार्टी कांग्रेस आयोजित करने का यह तीसरा अवसर बिहार की अपेक्षाकृत विपरीत परिस्थिति में मिला है। राज्य में भाजपा-जदयू की सरकार है। पार्टी को विगत विधान सभा में अपेक्षित सफलता नहीं मिली। बंगाल और केरल के चुनाव परिणामों ने भी असर डाला है। बिहार के साथियों ने पार्टी कांग्रेस आयोजन को एक चुनौती के रूप में लिया है। पार्टी कांग्रेस आयोजन साथियों का प्रथम कर्तव्य बन गया है। इस टास्क को पूरा करने में साथी मुस्तौदी से लग गये हैं। सभी स्तर की कमेटियां कोष संग्रह में लग गयी हैं। साथियों में विश्वास है कि बिहार की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप पार्टी कांग्रेस का आयोजन अवश्य ही कामयाब होगा।
निःसंदेह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 21वीं कांग्रेस सफल होगी और इसके फैसले भारतीय राजनीति में वर्ग आधारित वामपंथी धु्रवीकरण को प्रारंभ करेंगे।
- सत्य नारायण ठाकुर

Friday, May 27, 2011

....... मेरे मरने के बाद - लोहिया


डा. राम मनोहर लोहिया की जन्मशती के मौके पर अखबारों में प्रकाशित एक लेख का शीर्षक है - ”मुझे याद करेंगे लोग मेरे मरने के बाद“। मरने के बाद मनुष्य की अच्छाइयों को याद करने की प्राचीन भारतीय परम्परा है। इसलिये स्वाभाविक ही लोहिया ने ऐसी आशा की होगी। महाभारत युद्ध की विनाश लीला का सेनापति भीष्म ने भी मरने के ठीक पहले शरशैया पर लेटे अपनी ‘प्रतिज्ञा’ के दुष्परिणामों और यहां तक कि उस प्रतिज्ञा को न तोड़ पाने की अपनी विवशता पर अफसोस जाहिर किया था। लोहिया आज जिन्दा होते तो यह मानने के अनेक कारण हैं कि वे भीष्म की तरह विवेकहीन प्रतिज्ञा से बंधे रहने की गलती नहीं दोहराते और वे खुलकर अपने शिष्यों के कारनामों के विरूद्ध खड़े हो जाते। उन्होंने केरल में अपनी सोशलिस्ट पार्टी की सरकार द्वारा गोली चलाये जाने का विरोध किया और सरकार से इस्तीफा की मांग की थी।

 
लोहिया अपने को ‘कुजात गांधीवादी’ कहते थे और गांधी जी के शिष्यों को ‘मठवादी’ कह कर निंदा करते थे। पर लोहिया की विडंबना यह रही कि उन्होंने व्यावहारिक राजनीति में गांधी जी के साधन और साध्य की शुद्धता के सिद्धान्त से हमेशा परहेज किया। लोहिया ने आजादी के बाद फैल रही आर्थिक विषमता के प्रश्न को लेकर बहुत ही जोरदार तर्कपूर्ण तरीके से आम आदमी की वास्तविक आमदनी ‘तीन आने’ का कठोर सत्य उजागर किया, किन्तु आर्थिक विषमता को पाटने के जिस कार्यक्रम पर अमल किया, उसका समाजवाद से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं था। कहते हैं, नरक जाने का रास्ता नेक इरादे से खोदे गये थे। एक जमाने में कांग्रेस का विकल्प बनने का सशक्त दावेदार समाजवादी आन्दोलन का आज कहीं अता-पता नहीं है। नाम के समाजवादी भी आज कोई समाजवादी नहीं रह गये। लोहिया जन्मशती के मौके पर मूल्यांकन जरूरी है कि ऐसा क्यों हुआ?

 
राजनीति में विचार और आचार का मेल कठिन होता है। लेकिन राजनीति के मदारी कठिन से कठिन बेमेल कामों को सहज भाव से अंजाम देते हैं। लोहिया भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पक्के समर्थक थे, किन्तु वे कट्टर रूढ़िविरोधी प्रतिमाभंजक भी थे। वे राजनीति के चमकते सितारों का प्रतिमाभंजन कठोरता से करते थे। उनके तर्कों के तीक्ष्ण वाण राजनीति के बड़े से बड़े स्थापित सूरमाओं को विचलित करते थे। लोहिया ने एक तरफ जाति तोड़ो अभियान चलाया तो दूसरी तरफ ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के नारे के साथ जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण और सत्ता में भागीदारी का राजनीतिक दावा प्रस्तुत किया। इस नारे का व्यावहारिक परिणाम, या यों कहें कि लाजिमी नतीजा यह हुआ कि गरीबी-अमीरी का संघर्ष पृष्ठभूमि में ओझल हो गया और जातीय एवं साम्प्रदायिक अस्मिता का टकराव भारतीय राजनीति का मुख्य एजेंडा बन गया।

 
यद्यपि जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव संविधान विरूद्ध है, किन्तु लोहिया ने जाति आधारित पिछड़ावाद को क्रान्तिकारी घोषित किया। बाद के दिनों में जातिवाद और सम्प्रदायवाद लोकतांत्रिक चुनाव के अचूक हथकंडे बने। एक ने कहा: ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ तो दूसरे ने कहा: ‘गर्व से कहो हम चमार हैं’। ‘जाति तोड़ो’ का सामाजिक आन्दोलन ‘जाति समीकरण’ के राजनीतिक प्रपंच में तब्दील हो गया। समाजवादी आंदोलन के जिन नेताओं ने अपने नामों से जाति सूचक पदवी हटा ली थी, उनके शिष्यों ने मतदाताओं के मध्य अपनी जातीय पहचान बनाने के लिये फिर से जाति सूचक पदवी (टाइटल) धारण कर ली। मुलायम सिंह ‘मुलायम सिंह यादव’ हो गये। उसी प्रकार लालू प्रसाद ‘लालू प्रसाद यादव’ हो गये। अपने विचारों और आचारों के परस्पर विरोधी मिश्रण के ऐसे ही अद्भूत प्रतिनिधि थे लोहिया। यहां यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि ऐसी ही उनकी मंशा थी, प्रत्युत ऐसे नारों का यही हस्र होना था। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खायें?

 
राजनीति की तात्कालिक आवश्यकताएं अनेक अवसरवाद को जन्म देती हैं और फिर उस अवसरवाद का औचित्य ठहराने के लिए सिद्धांत और तर्क ढूंढ़ लिये जाते हैं। ऐसा ही एक नारा था ‘गैर-कांग्रेसवाद’। सत्ता में कांग्रेसी एकाधिकार तोड़ने के लिए लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का मोर्चा खोला। उन्होंने सरकार को बराबर उलटने-पलटने की प्रक्रिया को ‘जिन्दा लोकतंत्र’ बताया और सत्ता पर कब्जा करने के लिए टूटो, जुड़ो और ताबे की रोटी को उलटने-पलटने की व्यूह-रचना विकसित की। पर उनके जीते जी उन्हीं की देखरेख में इस सिद्धान्त पर बिहार में बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की हवा निकाल दी उनके ही परम शिष्य बी.पी.मंडल ने। ताबे की रोटी को उलटने-पलटने की लोहियावादी तकनीक अजमाते हुए बी. पी. मंडल बिहार के मुख्यमंत्री बन गये। बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार को तोड़ दिया लोहिया के ही शिष्यों ने, और वह भी कांग्रेस की सहायता से। ऐसा कर लोहिया के शिष्यों ने बिहार में फिर से कांग्रेस राज की वापसी का मार्ग प्रशस्त किया।

 
सर्वविदित है कि यही बी. पी. मंडल बाद में पिछड़ावाद के पुरोधा बने। इनके नाम पर मंडलवाद का झंडा लहराया जो लोहियावाद से भी ज्यादा तेजी से लोकप्रिय हुआ। फिर भी मंडलवादियों के प्रेरणाश्रोत लोहिया ही बने रहे।

 
गैर-कांग्रेसवाद के लोहियावादी पुरोधाओं में मंडल अकेले नहीं रहे, जिन्होंने सत्ता के लिये कांग्रेसी बैशाखी को थामने में कभी संकोच नहीं किया और कांग्रेस को स्थायित्व प्रदान किया। ख्यात लोहियावादी मुलायम सिंह और चर्चित जेपी आन्दोलन के वीर बांकुड़ा लालू प्रसाद ने भी कांग्रेस की बैशाखी से कभी संकोच नहीं किया। परमाणु के मुद्दे पर जब वामपक्ष ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व की कांग्रेस नीत संप्रग-एक सरकार से समर्थन वापस लिया तो समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह ने कांग्रेस सरकार को संजीवनी बूटी प्रदान किया। यही नहीं 1.76 लाख करोड़ के 2-जी घोटाले की जांच कर रही लोक लेखा समिति में मतदान के समय सपा और बसपा कांग्रेस सरकार के संकटमोचक की भूमिका में सामने आये।

 
लोहिया समानता और सादगी के प्रतीक और भ्रष्टाचार के प्रखड़ विरोधी थे, किन्तु उनके आधुनिक शिष्य चारा घोटाला और आय से अधिक अप्रत्याशित धन-सम्पदा रखने के अभियुक्त हैं। अपने शिष्यों के कारनामों को देखकर लोहिया की आत्मा निश्चय ही विचलित होती होगी।

 
देश में आज भी अनेक व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह हैं, जो दूसरों को अशुद्ध और अपने को विशुद्ध लोहियावादी होने का दावा करते हैं। उन सबों को वैसा करने का बराबर का हक है। पर प्रश्न यह है कि यदि आज लोहिया जिन्दा होते तो क्या वे अपने आधुनिक शिष्यों की पंक्ति में खड़ा होना पसन्द करते?

 
गतिशील उत्पादक शक्तियां

 
लोहिया ने अनेक पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं। उनमें एक है ‘इकोनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ (मार्क्स से आगे का अर्थशास्त्र)। मार्क्सवादी वर्ग दृष्टिकोण की चर्चा करते हुए लोहिया कहते हैं: ‘गतिहीन वर्ग जाति है और गतिशील जाति वर्ग है।’ उनका यह जुमला भी उनके गंभीर अंतर्द्वन्द्व को प्रकट करता है। यह जुमला मुर्गी से अंडा कि अंडा से मुर्गी जैसी पहेली है। यद्यपि लोहिया अपने इस कथन में गति कि सत्यता स्वीकारते हैं, किन्तु साथ ही गति के स्वाभाविक फलाफल को नकारते हैं। इस जुमले के दोनों विशेषण ‘गतिहीन’ और ‘गतिशील’ आकर्षक किन्त अर्थहीन और मिसफिट आभूषण मात्र हैं।

 
समाजशास्त्री हमें बताते हैं कि गति के अभाव में विकास प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ती है। विकास प्रक्रिया में गति अंतर्निहित होती है और उसी प्रकार उसका प्रतिफल परिवर्तन भी। वर्ग और वर्ग दृष्टिकोण औद्योगिक क्रान्ति के बाद पैदा हुआ कारक है। उसके पहले जातियां जन्म ले चुकी थीं। सामंती युग में जातियां अस्तित्व में आयीं। सामंती युग के पहले वर्गों का उदय ही नहीं हुआ था तो उसका जाति में संक्रमण कैसे संभव हुआ होगा? अगर यह मान भी लिया जाये कि लोहिया का यहां मतलब आदिम श्रम विभाजन से है, जिसका जातीय रूपांतरण सामंती समाज में हुआ तो यह मानना और भी ज्यादा तार्किक होगा कि सामंती युग की ‘गतिशील जातियां’ ही औद्योगिक युग का आधुनिक मजदूर है। जाहिर है, ऐसी अवधारण हमें अंधगली में धकेलती है।

 
मानव विकास की प्रक्रिया किसी भी अवस्था में गतिहीन नहीं होती है। समाज विकास निरंतर गतिशील प्रक्रिया है, जो हमेशा इतिहास के एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु की तरफ बढ़कर परिवर्तन और फिर परिवर्तन को जन्म देती है। समाज विकास में कभी भी गतिहीन अवस्था नहीं आती। इसलिये ‘गतिहीन वर्ग’ और ‘गतिशील जाति’ की अवधारणा गुमराह करने वाली भ्रामक मुहावरेबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

 
मार्क्स ने मजदूर वर्ग को सामाजिक प्रगति का वाहक बताया और वर्ग विहीन, शोषण विहीन और शासन विहीन समाज का खाका तैयार किया, जबकि लोहिया मजदूर वर्ग को ‘गतिहीन’ वर्ग बता कर उसे जाति की जड़ता में डूबने का दोषी मानते हैं और जातियों को गतिशील बनाकर जातिविहीन समाज निर्माण का खाका बुनते हैं। 1980 के बाद के तीन दशकों में हमने देश की ‘गतिशील जातियों’ का जलवा देखा है। क्या इससे लोहिया का सपना पूरा होता दिखता है? लोहिया की जन्मशती के मौके पर इसका मूल्यांकन जरूरी है।

 
इन वर्षों के व्यावहारिक जीवन में हमने देशा है कि यथास्थितिवाद की शासक पार्टियां - कांग्रेस और भाजपा ने जातीय राजनीति का प्रबंधन (उनके शब्दों में सोशल इंजीनियरिंग) ज्यादा सक्षम तरीके से किया और इसी अवधि में बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान समेत केन्द्र में भी भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई। इस कवायद में लोहियावादी सोशलिस्ट भी जहां-तहां तांक-झांक करते और कभी इधर तो कभी उधर कंधा लगाते देखे गये। गरीबों की खुशहाली का संघर्ष संप्रदायवाद और जातिवाद की मधांधता में डूब गया। गतिशील जाति और संप्रदाय ने पूंजीवादी सत्ता को स्थायित्व प्रदान किया। पूंजीवाद सामंती पारंपरिक सामाजिक विभाजन को सहलाकर अपना आधार मजबूत करता है और बदले में कुछ रियायतें भी पेश करता है। देश में जब मंडल-कमंडल युद्ध चल रहा था तो उसी अवधि में वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीतियों का घोड़ा सरपट दौड़ रहा था।

 
यहां नस्लभेद का जातिभेद के साथ घालमेल करना गलत होगा। नस्ल का सम्बंध रक्त से होता है, जबकि जाति का सम्बंध आदिम श्रम विभाजन अर्थात कर्म से जो कालक्रम में जन्मजात हो गया। एक रक्त का जन समूह एक जगह पला-बढ़ा और इससे रक्त आधारित नस्लीय जनसमूह का निर्माण हुआ। कालक्रम में पलायन और प्रव्रजन से नस्लों का भी मिश्रण और समन्वय हुआ। खलीफा, सरदार, राजा, बादशाह, किंग, सम्राट आदि रक्त आधारित कबीलाई प्रभुत्व व्यवस्था की प्रारंभिक अभिव्यक्तियां हैं।

 
औद्यौगिक क्रान्ति के बाद जो नया पूंजीवादी बाजार बना, उसमें रक्त सम्बंधों पर आधारित पुराना नस्लीय विभाजन और जन्मजात जातियों के अस्तित्व अर्थहीन होते चले गये। पूंजीवादी अर्थतंत्र में जाति आधारित कार्यकलाप सिकुड़े और उनकी सामाजिक भूमिका शादी-विवाह और पर्व-त्यौहारों तक सीमित हो गयी।

 
पूंजीवाद माल उत्पादन और व्यापार का मकसद मुनाफा कमाना होता है। लाभ लिप्ता की पूर्ति के लिये इंसानी शोषण प्रणाली का दूसरा नाम पूंजीवादी निजाम है। लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक ही रक्त समूह का शोषक अपने ही रक्त समूह के लोगों का शोषण बेहिचक कर रहा है। इसलिये पूंजीवाद में स्वार्थ का सीधा टकराव शोषितों और शोषकों के बीच हो गया। एक तरफ सभी नस्लों व जातियों का विशाल शोषित जनसमूह का नया वर्ग मजदूरों और किसानों के रूप में प्रकट हुआ, वहीं दूसरी तरफ जमींदार और पूंजीपति के रूप में नया अत्यंत अल्पमत शोषक वर्ग चिन्हित हुआ।

 
क्रान्ति का अर्थ होता है व्यवस्था परिवर्तन इसलिये औद्योगिक क्रान्ति के बाद जो नई पूंजीवादी व्यवस्था उभरी उसने पुराने सामंती सम्बंधों को उलट-पुलट कर रख दिया। कार्ल मार्क्स बताते हैं आर्थिक परिवर्तन की गति तेज होती है, किन्तु आर्थिक प्रगति के मुकाबले सामाजिक रिश्तों में परिवर्तन की गति मंद होती है। फिर परिवर्तन के बाद भी नये समाज में पुराने सामाजिक सम्बंधों के अवशेष विद्यमान होते हैं।

 
उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों में निरन्तर हो रहे बदलाव का विशद विश्लेषण करते हुए मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचे कि वैज्ञानिक तकनीकी अनुसंधान के चलते उत्पादन शक्तियों का विकास तेज गति से होता है, किन्तु इसके मुकाबले उत्पादन सम्बंधों में परिवर्तन की विकास गति धीमी होती है। इसके चलते उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों में स्वाभाविक विरोधाभाष होता है। इस तरह उत्पादन शक्तियों में परिवर्तन की गति तीव्रतम होती है, वहीं उत्पादन सम्बंधों में परिवर्तन की गति मंदतर और सामाजिक सम्बंधों में परिवर्तन की गति मंदतम होती है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन का सम्बंध इंसान की आदतों, रीति-रिवाजों और स्वभाव के साथ जुड़ा होता है जो आसानी से पीछा नहीं छोड़ते। उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों का विरोधाभाष तथा उनका सामाजिक सम्बंधों में टकराव सामाजिक विकास के इतिहास के हर मंजिल पर भली प्रकार से देखा जा सकता है। ये टकराव अनेक सामाजिक विरोधाभाषों को जन्म देते हैं। नये आर्थिक टकरावों के परिणाम तीक्ष्ण, निर्णायक और अग्रगामी होते हैं, जबकि पुराने सामंती सामाजिक विरोधाभाषों के परिणाम शिथिल, गौण और प्रतिगामी होते हैं। इसलिये मार्क्स मानव इतिहास को वर्ग संघर्षों का इतिहास बताते हैं और वे मानवता की नियति पूंजीवाद में नहीं, बल्कि पूंजीवाद के विनाश में देखते हैं। मार्क्स पूंजीवाद से आगे बढ़कर समानता पर आधारित शोषणविहीन, शासन रहित समाज का नया नक्शा पेश करते हैं।

 
इसके विपरीत लोहिया मानव इतिहास को जातियों की लड़ाइयों की संज्ञा देते हैं। लोहिया यहीं नहीं रूकते, वे पूंजीवाद और साम्यवाद को पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता की जुड़वां संतान बताकर निंदा तो करते हैं किन्तु पूंजीवाद के विकल्प के रूप में जो कुछ उन्होंने परोसा, वह उनका ख्याली पुलाव साबित हुआ। लोहिया आजीवन फ्रांस और जर्मनी के मध्ययुगीन कल्पनावादी समाजवादियों की पांत में ही भटकते रहे और अपने समाजवादी कार्यक्रम को गांधी जी की विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के साथ घालमेल करते रहे।

 
मार्क्स ने अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कल्पनावादी समाजवादियों की अवधारणाओं के खोखलेपन की आलोचना की और उससे अलग हटकर वैज्ञानिक समाजवाद की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने सभी तरह के विरोधाभाषों पर काबू पाने के लिए पूंजीवादी उत्पादन शक्तियों पर सामाजिक स्वामित्व कायम करने का सुझाव दिया। किन्तु इस प्रश्न से लोहिया हमेशा बचते रहे और आजीवन गोल-मटोल बातें करते रहे।

 
अलबत्ता यह विवाद का विषय बना रहा कि उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व का क्या रूप होगा। अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत यूनियन में उत्पादन के तमाम साधनों का राष्ट्रीयकरण किया गया। यह समझा गया कि राष्ट्रीयकरण अर्थात सरकारी स्वामित्व उत्पादन के साधनों के सामाजिक स्वामित्व की दिशा में उठाया गया पहला कदम है। चूंकि राज्य सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में है, इसलिये सरकारी स्वामित्व को विकासक्रम में सामाजिक स्वामित्व में परिवर्तित किया जा सकेगा। समाजवादी विकास प्रक्रिया की उच्च अवस्था में धीरे-धीरे राज्य का अस्तित्व सूखता जायेगा और अंततः सरकारी स्वामित्व भी सामाजिक स्वामित्व में रूपांतरित हो जायेगा। समाजवाद के सोवियत प्रयोग में यह अपेक्षा पूरी नहीं हुई। समाजवाद एक व्यवस्था है, एक प्रणाली है, जिस पर चल कर साम्यवादी अवस्था हासिल की जाती है। समाजवाद के सोवियत मॉडल टूटने का यह अर्थ नहीं है कि समाजवाद असफल हो गया। पूंजीवाद संकट पैदा करता है, समाधान नहीं। समाधान समाजवाद में है, नये सिरे से दुनियां में समाजवादी प्रयोग का चिंतन चल रहा है।

 
लोहिया के आधुनिक शिष्य अपने कृत्यों को महिमामंडित करने के लिये लोहिया का नाम जपते हैं, किन्तु वास्तविकता में अपने कर्मो से वे लोहिया के उत्तराधिकारी नहीं रह गये हैं। वे लोहिया के विचारों और आदर्शों से काफी दूर विपरीत दिशा में भटक गये हैं, जहां से उनकी वापसी अब मुमकिन नहीं दिखती है। जिस प्रकार हाल के दिनों में श्रमिक वर्ग और उनके ट्रेड यूनियन इकट्ठे होकर संयुक्त कार्रवाई कर रहे हैं, उसी प्रकार कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट के बीच ईमानदान सह-चिंतन की आवश्यकता है।

 
दलित चेतना से वर्ग चेतना

 
दलित चेतना की चर्चा किये बगैर यह परिचर्चा पूरी नहीं होगी। डा. अम्बेडकर का राजनीतिक चिंतन भी जाति व्यवस्था से उत्पन्न परिस्थितियों से प्रभावित था। 1920 के दशक में ही वे दलितों के लिये पृथक मतदान की मांग करने लगे थे, जिसे उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट के बाद वापस ले लिया। जेएनयू के प्राध्यापक और दलित चिंतक डा. तुलसी राम लिखते हैं: ”डा. अम्बेडकर 1920 और 30 के दशक में जाति व्यवस्था के विरूद्ध उग्ररूप धारण किये हुए थे। वाद में उन्होंने ‘सत्ता में भागीदारी’ के माध्यम से दलित मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की। कांसीराम ने सत्ता में भागीदारी को ‘सत्ता पर कब्जा’ में बदल दिया। इस उद्देश्य से उन्होंने नारा दिया - ‘अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो’।“

 
इस नारे के तहत विभिन्न दलित एंव पिछड़ी जातियों के अलग-अलग सम्मेलन होने लगे। इस प्रकार सत्ता पर कब्जा करने के लिये जातीय समीकरण का नया दौर आरंभ हुआ। मंडल कमीशन लागू होने के बाद इस जातीय ध्रुवीकरण का बेहद उग्र रूप सामने आया। इससे उत्तर प्रदेश में बसपा को और बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी को बहुत फायदा हुआ। मायावती ने 1993 में पिछड़ा-दलित गठबंधन और 2007 में दलित-ब्राम्हण एकता समीकरण के सहारे उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। इसी तरह बिहार में लालू ने मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे वर्षों राज किया।

 
इन परिघटनाओं पर दलित चिंतक डा. तुलसी राम सवाल उठाते हैं: ”जातीय ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव जीतकर सत्ताधारी तो बना जा सकता है, किन्तु जाति उन्मूलन की विचारधारा को मूर्तरूप नहीं दिया जा सकता है।“ डा. तुलसी राम यहीं नहीं रूकते हैं। वे और आगे बढ़कर लिखते हैं कि ”बुद्ध से लेकर अम्बेडकर तक ने जातिविहीन समाज में ही दलित मुक्ति की कल्पना की थी, किन्तु आज का भारतीय जनतंण पूर्णरूपेण जातीय, क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक जनतंत्र में बदल चुका है। ऐसा जनतंत्र राष्ट्रीय एकता के लिए वास्तविक खतरा है।“ डा. तुलसी राम अपने आलेख का समापन डा. अम्बेडकर की प्रसिद्ध उक्ति से करते हैं: ”जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना स्वराज प्राप्ति का कोई महत्व नहीं है।“

 
पर जातिविहीन समाज की स्थापना कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर चर्चित दलित लेखक चन्द्रभान प्रसाद निम्न प्रकार से देते हैं: ”भारत को अगर जाति विहीन समाज बनाना है तो लाखों दलितों को पूंजीपति बनकर गैरदलितों को नौकरी पर रखना होगा। लाखों दलितों को प्रतिवर्ष गैर दलित साले-सालियां, सढुआइन एंव गैर दलित सास-ससुर बनाने चाहिये। इसी प्रक्रिया से जाति व्यवस्था टूटेगी, दलित-गैर दलित का भेद समाप्त होगा, समाज में भाईचारा बढ़ेगा तथा भारत एक सुपर पावर के रूप में दुनियां में अपनी पहचान बनायेगा। यही होगा डा. अम्बेडकर के सपनों का भारत।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)

 
कैसे लाखों दलित पूंजीपति बनेंगे और किस प्रकार लाखों दलित प्रतिवर्ष गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे? डा. अम्बेडकर के जन्मदिन के मौके पर लिखे अपने आलेख में चन्द्र भान प्रसाद इस प्रश्न के उत्तर में अमरीका का उदाहरण देते हैं, जहां उनकी राय में ”अश्वेत पूंजीवाद का उदय“ हुआ है। प्रसाद सूचित करते हैं कि ”ओबामा को राष्ट्रपति बनने के समय अमरीका में अश्वेतों के पास करीब दस लाख श्वेत साले, पांच लाख श्वेत सालियां एवं सरहज घूम रहीं थीं।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)

 
अमरीका के अश्वेतों के पास कितने श्वेत साले-सालियां हैं, इससे भारत को कोई लेना देना नहीं है। हां, अमरीका में सफेद पूंजीवाद है या काला, इस पर बहस हो सकती है, किन्तु यह निर्विवाद है कि अमरीका में जो कुछ है वह निःसंदेह नंगा पूंजीवाद है। प्रसाद अपने आलेख में इसका कोई संकेत नहीं देते हैं कि भारत में ‘दलित पूंजीवाद’ कायम करने की उनकी क्या योजना है? और यह भी वे कैसे गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे?

 
इस संदर्भ में अपने देश में घटित हाल की कतिपय घटनाओं पर विहंगम दृष्टि डालना प्रासंगिक होगा।

 
  • दक्षिण का ब्राम्हण-विरोधी आन्दोलन किस प्रकार दलित बनाम थेवर-बनियार में बदल गया? और यह भी कि यहां ब्राम्हण उद्योगपति बने तथा दलित-पिछड़े उनके कर्मचारी?
  • पश्चिम भारत का गैर-ब्राम्हण आन्दोलन क्यों दलित बनाम मराठा का रूप ले चुका है? इधर शिवसेना और आरपीआई के चुनावी तालमेल का ताजा समाचार भी प्राप्त हुआ है।
  • बिहार अगड़ा-पिछड़ा झगड़ा अब क्यों पिछड़ा बनाम अति पिछड़ा और दलित बनाम महा दलित के झगड़े में बदल चुका है। यद्यपि लालू और राम विलास पासवान ने दलितों और पिछड़ों का पुराना समीकरण बनाने में अपनी सम्पूर्ण ताकत झोंक दी फिर भी वे इस नये समीकरण के सामने बुरी तरह पिट गये।
  • उत्तर प्रदेश में 1993 की सम्पूर्ण शूद्र एकता (दलित पिछड़ा मिलन) आज क्यों शूद्र बनाम अतिशूद्र शत्रुता (मुलायम बनाम मायावती) में परिणत हो गयी? और यह भी कि मनुवाद विरोधी दलित नेताओं का मनुवादी ब्राम्हणों से कैसी भली दोस्ती चल रही है। क्या यहां मगध शूद्र सम्राट महानंद द्वारा नियुक्त ब्राम्हण मंत्री कात्यायन और वररूचि का इतिहास दोहराया जा रहा है?
  • क्यों राजस्थान में लड़ाकू गुर्जर आदिवासी बनना चाहते हैं और क्यों गैरद्विज बलशाली भूस्वामी जाट पिछड़ा वर्ग में नाम लिखाने को बेताब हैं?

 इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने का समय चन्द्रभान प्रसाद को नहीं है क्योंकि पूंजीवाद की विविधता का गुणगान करने के लिये उन्हें अक्सरहां अमरीका में व्यस्त रहना पड़ता है। वे क्यों भारत की विविधताओं में माथा खपायें? उनकी राय में पूंजीवाद का अमरीकी मॉडल ही भारत के लिये आदर्श है। उनके लिये यह समझना कठिन है कि पूंजीवाद किसी का भला नहीं करता। न तो दलितों का, न ही पिछड़ों का, न ही अगड़ों का और न आम आदमी का भला पूंजीवाद में है, चाहे वह ‘दलित पूंजीवाद’ ही क्यों न हो। पूंजीवाद का मकसद मुनाफा कमाना होता, जिसका श्रोत इंसान द्वारा इंसान का शोषण है। दलित पूंजीपति दलितों को भी नहीं बख्सता। दलित मुक्ति का मुद्दा आम आदमी की मुक्ति के साथ जुड़ा है। पूंजीवादी फ्रेमवर्क में दलित मुक्ति तलाशना मरूभूमि में पानी तलाशने का भ्रम पालना है। जातीय ध्रुवीकरण और उसके बनते-बिगड़ते समीकरणों से जो बात साफ तौर पर परिलक्षित होती है, वह यह कि रोजी-रोटी का प्रश्न हल करने में मौकापरस्त तात्कालिक गठबंधन पूरी तरह नाकाम है। इसलिये आगे आने वाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र का निर्णायक एजेंडा रोटी-कपड़ा-मकान होगा। जाहिर है, उपर्युक्त घटनाओं में जाति बोध से वर्ग बोध की ओर जनचेतना अभिमुख हो रही है।

 
लोकतंत्र का प्रश्न

 
भारतीय संविधान में राज्य के तीन स्तम्भ हैं - लोकतंत्र, समाजवाद और संप्रदाय निरपेक्षता। अर्थात देश को चलाने के लिये एक ऐसी सरकार हो, जिसे देश की जनता चुने, वह सरकार समाजवादी हो जो समाज में सुख-चैन स्थापित करे और वह सरकार संप्रदाय निरपेक्ष हो अर्थात किसी संप्रदाय विशेष की तरफदारी किये बगैर सभी जन सम्प्रदायों के प्रति समभाव का बर्ताव करे।

 
देश की जनता ने पूंजीवादी, उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी शोषण एवं दमन के खिलाफ लड़कर आजादी हासिल की थी। इसलिये यह स्वाभाविक ही था कि भारतीय संविधान का मूल चरित्र गैर-पूंजीवादी बनाया गया। देश की संपदा कुछेक व्यक्तियों के हाथों में सिमटने पर पाबंदी लगाने का प्रावधान संविधान के एक अनुच्छेद में किया गया। इस प्रावधान को मजबूती और स्पष्टता प्रदान करने के लिये बयालिसवें संशोधन के माध्यम से समाजवाद को संविधान का महत्वपूर्ण स्तम्भ घोषित किया गया।

 
भारतीय संविधान की विशेषता है कि सरकार को जनहित में क्या करना है, उसकी सूची राज्य के लिये निदेशक सिद्धान्तों के अध्याय में दी गयी है। इस अध्याय में राज्य के लिये स्पष्ट संवैधानिक निदेश है कि वह जनता की खुशहाली मुकम्मिल करने के लिए सबको रोजगार, जीने लायक आमदनी, आवास, स्वास्थ्य, चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा आदि प्रदान करेगा और बेरोजगार, अपंग, वृद्ध एंव अशक्त होने की स्थिति में सामाजिक सहायता का उपाय करे।

 
पर संविधान का कमजोर पक्ष यह है कि अनुच्छेद 37 में निदेशक सिद्धान्तों में वर्णित बातों का नागरिक अधिकार के रूप में न्यायालय में कानूनी दावा करने से मना कर दिया गया है। इसी अनुच्छेद का फायदा उठा कर शासक वर्ग ने जनता को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर रखा है। अब समय आ गया है कि अनुच्छेद 37 को विलोपित किया जाये और संविधान के निदेशक सिद्धांतों का कार्यान्वयन सरकार के लिए बाध्यकारी बनाया जाये।

 
आजाद भारत में विकास की जो योजना बनायी गयी वह गैर-पूंजीवादी योजना नहीं थी। उसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। देश के पूंजीपतियों के दवाब में निजी पूंजी की भूमिका निर्धारित कर दी गयी। शुरू में मूल उद्योगों में पूंजीपति निजी पूंजी लगाने को उत्सुक नहीं थे, क्योंकि गेस्टेशन पीरियड लम्बा होने के कमारण रिटर्न देर से मिलता था। इसलिए सरकार ने मूल उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखकर पूंजीवादी विकास पथ का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया और उपभोक्ता वस्तुओं को निजी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया।

 
आजादी के दूसरे और तीसरे दशक तक आते-आते पूंजीवाद की विफलता उजागर हुई। सरकार जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही। जनता का आक्रोश उबल पड़ा। साठ के दशक में आठ राज्यों से कांग्रेसी राज का खात्मा, सत्तर के दशक में आपातकाल की घोषणा, केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार और 1980 में कांग्रेस की वापसी आदि इतिहास की बातें हैं।

 
पूंजीवाद और लोकतंत्र एक राह के सहयात्री नहीं हो सकते। पूंजीवाद जमींदार और पूंजीपतियों का अत्यंत अल्पमत लोगों का शासन होता है। पूंजीवाद में शोषितों-पीड़ितों का विशाल बहुमत शासित होता है।

 
इसके विपरीत लोकतंत्र बहुमत लोगों का शासन होता है। इसलिए सच्चा लोकतंत्र का भय हमेशा पूंजीपतियों को सताता है। भयातुर पूंजीपति छल, बल और धन का इस्तेमाल करके शोषितों-पीड़ितों के समुदाय को एक वर्ग के रूप में संगठित होने से रोकता है और उन्हें अपने पीछे चलने को विवश करता है। देश की वर्तमान संसद में साढ़े तीन सौ करोड़पति चुने गये, जबकि देश में 77 प्रतिशत गरीब लोग बसते हैं। ऐसा धनवानों के अजमाये तिकड़मों के चलने संभव होता है।

 
1980 और 90 के दशक में जातियों एवं सम्प्रदायों की उग्र गोलबंदी देखी जाती है। इस अवधि में जातियों और संप्रदायों की अस्मिता के हिंसक टकराव होते हैं, जनता की आर्थिक खुशहाली का एजेन्डा पृष्ठभूमि में ओझल हो जाता है और मंदिर-मस्जिद और मंडल-कमंडल के छलावरण में नग्न पूंजीवाद की नव उदारवादी नीति बेधड़क आगे बढ़ती है। जातियों, सम्प्रदायों और क्षेत्रों में विभाजित मतदाताओं ने मतदान करते समय अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि जाति सरदारों, धर्माधिकारियों और क्षेत्र के फैसलों का अनुशरण किया। यह सच्चा लोकतंत्र नहीं है। पूंजीवादी शक्तियां जातीयता, सम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयता को हवा देकर संसद पर हावी हैं। इसी तरह संविधान को समाजवादी आदर्शों की बलि देकर प्रारम्भ हुआ है नग्न पूंजीवाद का वैश्वीकृत युग। नग्न पूंजीवाद भारतीय लोकतंत्र और संविधान में स्थापित मूल्यों का निषेध है। अगर इस प्रक्रिया को रोका नहीं गया तो दलित चिंतक डा. तुलसी राम की चेतावनी बिल्कुल सामयिक है कि इससे देश की राष्ट्रीय एकता को वास्तविक खतरा है।

 
- सत्य नारायण ठाकुर

 

Tuesday, April 26, 2011

मजदूर वर्ग का अंतर्राष्ट्रीय पर्व मई दिवस


प्रपंचपूर्ण पूंजीवादी निजाम पर करारी चोट करो

वर्ष 2011 के मई दिवस के मौके पर हम अरब और उत्तर अफ्रीकी देशों में लोकतंत्र की नई लहर का स्वागत करेंगे, वहीं जापान के त्रासद भूकंप में हजारों लोगों के जान-माल के नुकसान पर शोक प्रकट करेंगे। भूकंप से क्षतिग्रस्त फुकुशिमा डायची आणविक संयंत्र से फैले विनाशक विकिरण ने द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराये जाने की हृदय विदारक खौफनाक याद को फिर से ताजा कर दिया है।

इस वर्ष का मई दिवस दुनिया की पांच सबसे बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं - ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका (ब्रिक्स) के ऐतिहासिक सान्या सम्मेलन के महत्वाकांक्षी घोषणापत्र और उसके दूरगामी संदेशों को भी याद करेगा, जो मानवता के इतिहास में पहली मर्तबा साम्राज्यवादी विश्व शक्ति संतुलन की गंभीर चुनौती को स्वर देता है और आने वाले दिनों में अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों को नई दिशा और गति प्रदान करने का भरोसा उत्पन्न करता है। सोवियत यूनियन के टूटने के बाद साम्राज्यवादियों ने ‘इतिहास का अंत’ कहकर उत्सव मनाया था तथा पूंजीवाद को ‘मानवता की नियति’ घोषित किया था। लेकिन दुनियां ने जल्दी ही देखा कि किस तरह तथाकथित शीतयुद्ध का अंत करने वालों ने ही झूठे बहाने बनाकर इराक में और फिर अफगानिस्तान में क्रूर वास्तविक युद्ध छेड़ दिया। इन दो देशों में युद्ध की विभीषका की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि साम्राज्यवादी सैन्य संगठन नाटो ने लीबिया पर बमबारी शुरू कर दी है। इसलिए ब्रिक्स देशों के सान्या सम्मेलन ने उचित ही लीबिया पर बल प्रयोग की आलोचना की है। ब्रिक्स घोषणापत्र में कहा गया है कि लीबिया में तटस्थ पर्यवेक्षक भेजने के बजाय नाटो फौज द्वारा की जा रही अबाध बमबारी और विद्रोही गुटों को हथियारों की आपूर्ति सुरक्षा परिषद प्रस्ताव की सीमा का अतिक्रमण करता है और यह भी कि किसी देश के घरेलू मामलों में विदेशी हस्तक्षेप अनुचित है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी सरकार स्वयं चुनती है। सर्वविदित है कि साम्राज्यवादी घरेलू झगड़ों का फायदा उठाकर हमेशा अपनी युद्ध पिपाशा शांत करते हैं। इराक, अफगानिस्तान और अब लीबिया के अकूत तेल भंडारों पर कब्जा करने की साम्राज्यवादी मंसूबों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

इस साल के मई दिवस को बहुचर्चित वैश्वीकृत मुक्त बाजार व्यवस्था की विफलता, उसका प्रकट दिवालियापन और लूट-खसोट मचाने वाले पूंजीपतियों-कारपोरेटियों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए मजदूरों-कर्मचारियों के विश्वव्यापी अनवरत एकताबद्ध संघर्षों के लिए सर्वदा याद किया जाएगा। भारत समेत यूरोप और अमरीका में भी मजदूरों, कर्मचारियों एवं श्रमजीवियों ने लाखों की संख्या में सड़कों पर निकल कर अपने हकों की हिफाजत में आवाज बुलंद की है।

‘कोई विकल्प नहीं’ (टिना - देयर इज नो आल्टरनेटिव) के बहुप्रचारित गुब्बारे की हवा निकल गयी, जब अमेरिका और यूरोप के दैत्याकार बैंकों का विशाल वित्तीय साम्राज्य ताश के पत्ते की तरह बिखर गया। अभेद्य समझे जाने वाले उनके वित्तीय ताने-बाने बालू की दीवार साबित हुए। ‘सरकार का सरोकार व्यापार करना नहीं’ का राग अलापने वाले मगरमच्छों ने सरकारों के सामने हाथ फैलाकर याचनाएं कीं। सरकारों ने भी उन्हें उपकृत किया और अपने खजाने खोल दिए। आम जनता के कंधों पर वित्तीय संकट का समाधान किया जाने लगा। बजट घाटा कम करने और प्रशासकीय सादगी बरतने के नाम पर वेतन कटौती, छंटनी, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की वापसी और कटौतियां आम हो गयीं। इसके विरोध में लाखों मजदूर, कर्मचारी, छात्र, नौजवान और आम नागरिक सड़कों पर उतर आये। विश्वव्यापी स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध जाग उठा।

भारतीय शासकों ने जनता से वायदा किया कि उदारीकरण और निजीकरण की नई आर्थिक नीतियों के अवलंबन से रोजगार बढ़ेगा और लोगों की आमदनी भी बढ़ेगी, लेकिन व्यवहार में उल्टा हुआ। रोजगार घट गया और लोगों की आय भी घट गयी। मजदूरों के काम के घंटे बढ़ा दिये गये और उनका पारिश्रमिक घटा दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर हुआ और देश की निर्भरता विदेशों पर बढ़ गयी, यह सब उद्योग की प्रतियोगिता क्षमता बढ़ाने के नाम पर किया गया। फलतः पूंजीपतियों का मुनाफा बेशुमार बढ़ गया। देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ने लगी, किंतु दूसरी तरफ बेरोजगारी, भूख, गरीबी, बीमारी, कुपोषण और विपन्नता बढ़ गयी। जीवनोपयोगी चीजों के दाम आकाश छूने लगे, रोजगारविहीन विकास के पूंजीवादी पथ का यही लाजिमी नतीजा है। नयी वैज्ञानिक तकनीकी की उपलब्धियों को पूंजीपतियों ने हथिया लिया।

स्वाभाविक ही इसके विरोध में आपसी मतभेदों को भुलाकर श्रमिक वर्ग इकट्ठा हुए। ट्रेड यूनियनों की एकता बनी, लगातार एक के बाद एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाये गये। 7 सितम्बर 2009 की राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल और 23 फरवरी 2011 की दिल्ली महारैली को मजदूर आंदोलन के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।

सत्तासीन शासक वर्ग मदांध है। वह जन भावनाओं की उपेक्षा करता है। राजनेता और नौकरशाही अपराधकर्मियों की सांठगांठ से सरकारी खजाने को लूट रहे हैं। भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। सरकार लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति संवेदनाविहीन है। देश में हताशा और निराशा व्याप्त है।

फिर भी सब कुछ खो नहीं गया है। जनता जाग रही है। मेहनतकश आवाम हथियार नहीं डालने वाले हैं। वे फिर से कमर कस रहे हैं। नयी चेतना और उमंग के साथ श्रमिक वर्ग और उनकी ट्रेड यूनियनें शासक-शोषकों पर करारी चोट के लिए लामबंद हो रहे हैं। शासक वर्ग को उनके कुकर्मों का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।

मजदूर वर्ग के इस अंतर्राष्ट्रीय पर्व के मौके पर हम दुनियां में सुख, समृद्धि और शांति के निरंतर संघर्ष का संकल्प लें। यह मौका है, हम संगठित होकर मानवता के दुश्मन शासक-शोषकों के प्रपंचपूर्ण पूंजीवादी निजाम को शिकस्त देने के लिए करारी चोट करें।

लड़ने के दिन हैं, जीतने के दिन हैं,

आने वाले दिन, हमारे ही दिन हैं!!

- सत्य नारायण ठाकुर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Monday, April 4, 2011

लोकतंत्र का आयात-निर्यात नहीं हो सकता - लीबिया के घरेलू संकट का अमरीकी इलाज नहीं चलेगा

लोकतंत्र का आयात-निर्यात नहीं हो सकता

लीबिया के घरेलू संकट का अमरीकी इलाज नहीं चलेगा


संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद लीबिया को उड़ान क्षेत्र वर्जित क्षेत्र घोषित किया तो लीबिया सरकार ने इसका स्वागत करते हुए तुरन्त युद्ध स्थगन की घोषणा की। इसके कोई भी संकेत नहीं हैं कि लीबिया ने उड़ान-वर्जन घोषणा का उल्लंघन किया। फिर भी सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का बहाना बनाकर प्रथम दिन ही अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी के लड़ाकू विमानों ने ढ़ाई सौ से ज्यादा हमले किये, बम बरसाये और मिसायलें दागीं। युद्धक विमानों द्वारा नागरिक ठिकानों पर हमले किये गये, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों के घायल होने की खबर है। यह लीबिया पर खुल्लम-खुल्ला आक्रमण है। स्पष्ट है कि राष्ट्र संघ के ‘नो फ्लाई जोन’ के प्रस्ताव की मूल भावना का अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी ने उल्लंघन करके लीबियायी तेल क्षेत्र को कब्जाने की नीयत से लीबिया पर नंगा साम्राज्यवादी आक्रमण किया है। अरब लीग समेत भारत एवं अन्य देशों ने इस आक्रमण की निन्दा की है और बात-चीत के माध्यम से संकट के समाधान का रास्ता निकालने की अपील की है। भारत की संसद ने भी युद्ध बंदी की अपील की है और लीबिया के घरेलू मामले में विदेशी हस्तक्षेप पर विरोध जताया है।

यह भी ज्ञातव्य है कि लीबिया को उड़ान वर्जित क्षेत्र घोषित करने के प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद में भारत, चीन, रूस, जर्मनी और ब्राजील ने समर्थन नहीं किया था, क्योंकि पाश्चात्य देश आक्रमण की योजना पहले ही बना चुके थे। किसी देश के घरेलू मामले में विदेशी हस्तक्षेप करना उस देश की सार्वभौमिक प्रभुसत्ता पर हमला है।

पिछले हफ्ते साउदी अरब के शाह ने अपने देश में जन-प्रदर्शनों को इस्लाम विरूद्ध घोषित कर जुलूस निकालने पर और सभा करने पर पाबंदी लगायी है। भला जनता के हक के लिये प्रदर्शन करना धर्म विरूद्ध कैसे हो सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि जो शासक अपने देश में लोकतंत्र की हत्या करते हैं, वे लीबिया में लोकतंत्र की बहाली के नाम पर विदेशी सैनिक आक्रमण का समर्थन करते हैं। पिछले सप्ताह ही बहरीन में जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए साउदी अरब ने अपनी सेना भेजी है। साउदी अरब की सेना ने बहरीन में प्रदर्शनकारियों को टैंकों से रौंदा है और हेलिकाप्टरों से कहर बरसाये हैं। इस पर अमरीका सहित पश्चिमी राष्ट्राध्यक्षों ने चुप्पी साधी है। उन्हें वहां लोकतंत्र का हनन दिखाई नहीं पड़ता। अरब मुल्कों में शासकों द्वारा जनता को प्रताड़ित किया जाता है और शिया समुदाय को शिकार बनाया जा रहा है।

इराक में सद्दाम हुसैन के बहुप्रचारित विनाशक हथियारों का आज तक अता-पता नहीं चला, जिसके बहाने पर उस आक्रमण किया गया था। अफगानिस्तान में ओसामा बिन लादिन पकड़ा नहीं गया। इसल में दोनों ही आक्रमणों का उद्देश्य तेल भंडारों पर कब्जा करना था, सो पूरा हुआ। लीबिया अकेले यूरोपीय देशों को 20 प्रतिशत तेल की आपूर्ति करता है। इसलिये लीबिया पर आक्रमण भी लीबियाई तेल भंडारों को हथियाना होगा।

रही लोकतंत्र की बात, सो अरब मुल्कों में कहीं लोकतंत्र नहीं है, उसी प्रकार लीबिया में भी नहीं। कर्नल मैमर गद्दाफी को समझने के लिए लीबिया का इतिहास-भूगोल भी समझना उपयोगी है। वर्ष 1969 में ब्रिटिश-फ्रांसीसी कठपुतली बादशाह किंग इदरीश को हटाकर कर्नल गद्दाफी ने सत्ता संभाली को राजशाही को समाप्त कर लीबियन अरब रिपब्लिक की स्थापना की। नई सरकार का नारा था: ”आजादी, समाजवाद और एकता“।

मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, अलजीरिया और मोरक्को भूमध्य सागर के किनारे फैले उत्तरी अफ्रीकी देश हैं, जो स्वेज नहर की मार्फत अरब सागर से अटलांटिक महासागर तक जुड़े हैं। इस क्षेत्र में इन दिनों लोकतंत्र की बयान बह रही है। इसी क्षेत्र में हजारों वर्षों की प्राचीन सभ्यता फली-फूली थी, जिसके अवशेष मिस्र के पिरामिडों में आज भी देखे जा सकते हैं। तारीख और अंकों की ईजाद इन्हीं लोगों ने की थी। प्राचीनतम ग्रीक भाषा में यूरोप, एशिया और लीबिया की भौगोलिक चर्चा है। ‘लीबिया’ शब्द का अर्थ है ‘आजाद’। प्राचीन मिस्र में यह शब्द लड़ाकू बर्बर जनजाति के लिए प्रयुक्त होता था। लीबिया अर्थात बर्बर जनजाति का मुकाबला मिस्री फराहों से हुआ करता था। कालक्रम में दोनों मिल गये। कोई दो सौ वर्षों तक ईसापूर्व 945 से 730 तक मिस्र पर लीबिया वंश का शासन था।

ईसापूर्व दूसरी सदी में रोमनों ने लीबिया को गुलाम बनाया और बाद के सात सौ वर्षों (146 ई.पू. से 670 ई.) तक रोमनों ने यहां शासन किया। रोमन साम्राज्य के अधीन त्रिपोलितानिया और साइरेनायका की गिनती धनी प्रांतों में की जाने लगी। अलेक्जेंड्रिया और इसके कई बंदरगाह व्यापारिक नगर के रूप में विकसित और प्रसिद्ध हुए। इसी दौर में यहां ईसाई और यहूदी धर्म का प्रसार हुआ और प्रशासनिक मामलों में इस क्षेत्र को लीबिया पुकारा जाने लगा।

इस्लाम के उदय के बाद 647 ई. में लीबिया पर अरबों ने आक्रमण किया। 800 ई. तक यह बगदाद के कब्जे में रहा। बगदाद के खलिफाओं के कमजोर पड़ने के बाद इब्राहिम अधलाब ने लीबिया को स्वतंत्र घोषित किया। फिर 1050-52 ई. में इस पर बानू हिलाल ने कब्जा किया। हिलाल वंश का राज कोई 500 वर्षों तक रहा। बाद में इसे तुर्क आटोमान साम्राज्य ने कब्जाया। ढ़ाई सौ वर्षों तक लीबिया आटोमन साम्राज्य का अंग रहा। फिर 1911 ई. में इटली ने इस पर आक्रमण कर उपनिवेश बनाया। तानाशाह मुसोलिनी ने इसे इटली का प्रांत घोषित किया। द्वितीय विश्व युद्ध में मुसोलिनी के पराभव के बाद लीबिया पर फ्रांस और ब्रिट्रेन ने संयुक्त रूप से कब्जा किया। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद सोवियत यूनियन की पहल पर मित्र राष्ट्रों की सहमति से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लीबिया को 24 सितम्बर 1951 को स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया और पुराने बादशाह इदरीश को बुलाकर गद्दी पर बैठाया गया।

राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोकतंत्र के आधुनिक अर्थ में अरब और अफ्रीकी देशों के शासको के चरित्र को नहीं समझा जा सकता है। इन देशों के शासकों और शासन तंत्र में आज भी पुराने कबिलाई तत्व और व्यवहार मौजूद हैं, जो आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रीयता तथा लोकतंत्र के मार्ग में बाधक हैं। इसीलिए इन देशों में सेना की बड़ी भूमिका है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन देशों में फौज की बड़ी भूमिका राष्ट्र और राष्ट्रीयता के निर्माण में भी है।

लीबिया में ही कोई 15 कबिलाई समुदाय हैं और उनके अपने प्रभाव क्षेत्र भी हैं। कद्दाफी टाईटल भी एक कबिला विशेष की पहचान है। मौमर गद्दाफी की विशेषता है कि इसने लीबिया को लोकतंत्र घोषित किया और अरब राष्ट्रीयता का जोरदार प्रचार किया। इराक के सद्दाम हुसैन की तर्ज पर गद्दाफी ने कट्टर इस्लाम से अलग हटकर क्रांति और समाजवाद का नारा बुलन्द किया था। गद्दाफी ने महिलाओं की भर्ती फौज में की और महिला फौज की सुरक्षा टुकड़ी का निर्माण किया।

अन्य अरब देशों की तरह लीबिया में भी शासन की बुनियाद फौज रही है। पाकिस्तान से लेकर इरान, इराक, साउदी अरब, मिस्र, सूडान आदि तमाम देशों में सरकारों का स्थायित्व फौजों पर निर्भर है। लोकतांत्रिक बयार भी इन देशों की फौजों की सहमति से बहती है और मिटती है। इसे हमने पिछले दशकों में अपने पड़ोसी पाकिस्तान और बंगलादेश में भी देखा है। जाहिर है, फौजी शासन की सीमाएं होती हैं। फौजी शासन जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता। कोई दो हजार वर्षों के क्रूर आक्रमणों और विदेशी गुलामी से मुक्त लीबिया का आजाद मिजाज अवाम निश्चय ही किसी विदेशी प्रभुत्व को बर्दाश्त नहीं करेगा और न ही स्वीकार करेगा किसी स्वदेशी तानाशाह को भी।

शांति का नोबल पुरस्कार प्राप्त अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने लीबिया पर आक्रमण को अंजाम दिया है। इराक और अफगानिस्तान के बाद यह तीसरा देश है जहां के जनगण विदेशी आक्रमण की मुसीबतों के शिकार बनाये गये हैं। सोवियत यूनियन के ढहने के बाद विश्व जनमत भी मुखर नहीं प्रतीत होता है। लोगों को अभी भी याद है कि किस प्रकार स्वेज नहर संकट के समय सोवियत चेतावनी के सामने इसी अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी के हमलावर विमान छः घंटे के अंदर वापस अपने बिलों में समा गये थे।

शांति के हित में सर्वथा उचित होगा कि लीबिया में विदेशी हस्तक्षेप तुरन्त बंद किया जाये। लीबिया के घरेलू मसलों का हल लीबिया की जनता पर छोड़ना चाहिये। अगर इराक और अफगानिस्तान में विदेशी हस्तक्षेप समाधान साबित नहीं हुआ तो यह विदेशी हस्तक्षेप निश्चित ही लीबिया में भी नाकाम साबित होगा।

इस क्षेत्र में विशाल तेल भंडार पर कब्जा करने की साम्राज्यवादी वैश्विक लिप्ता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। साम्राज्यवादी ताकतें इराक की तरह लीबिया में भी कबिनाई विरोधाभाष को भड़काकर लीबिया को तोड़ने में लगी हैं। लोकतंत्र आयात-निर्यात की वस्तु नहीं है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी सरकार की किस्मत स्वयं तय करती है। लीबिया में भी बाहर से विदेशी कठपुतली सरकार बनाने की कवायद निश्चय ही नाकाम होगी।
 
- सत्य नारायण ठाकुर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Monday, August 16, 2010

निर्माण: संगठित उद्योग, किंतु असंगठित मजदूर?

निर्माण उद्योग सभी आर्थिक गतिविधियों को आधार प्रदान करनेवाले देश का उच्च कोटि का संगठित आधुनिक उद्योग है। इसमें अन्य उद्योगों की तुलना में सर्वाधिक पूंजी निवेश और श्रमशक्ति कार्यरत है, किंतु इस उद्योग का विचित्र विरोधाभास इस तथ्य में निहित है कि यह सौ फीसद औपचारिक उद्योग का दर्जा हासिल करने के बावजूद, इसमें काम करने वाले प्रायः अनौपचारिक श्रमिक हैं। यह अजीबोगरीब स्थिति है कि उद्योग संगठित है, जबकि इसमें कार्यरत मजदूर असंगठित। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन; आईएलओ के भारत स्थित कार्यालय के अध्ययन के मुताबिक भारत के निर्माण उद्योग में 82.58 फीसद श्रमिक कैजुअल और टेम्परेरी हैं, जिनके रोजगार बिचौलिये ठेकेदारों की मनमर्जी पर निर्भर है। इन आकस्मिक कहे जानेवाले मजदूरों का रोजगार टिकाऊ नहीं है, इन्हें न्यूनतम पारिश्रमिक नहीं मिलता, इन्हें सामाजिक सुरक्षा का लाभ नहीं है, आवास और स्वास्थ्य चिकित्सा नहीं, कार्यस्थल पर सुरक्षा नहीं, यहां तक कि इनके नियमित वेतन भुगतान की गारंटी भी नहीं है। क्या यह स्वस्थ भारतीय निर्माण उद्योग का प्रमाण है?
भारत के तेज आर्थिक विकास ने अधिसंरचना की जरूरतों, जैसे सड़क, रेल, बंदरगाह, हवाईअड्डा, बांध, नहर, बिजली, सिंचाई, आवास, शहरीकरण, भवन, कल-कारखाने, विशेष आर्थिक क्षेत्र आदि को बढ़ावा दिया है। इन सब जरूरतों को पूरा करने के लिये निर्माण उद्योग का विस्तार अनिवार्य हो गया है। निर्माण उद्योग के विस्तार के साथ अन्य धंधों का विस्तार भी जुड़ा है, जैसे सीमेंट, अलकतरा, लोहा इस्पात, ईंटभट्टा, पत्थरतोड़ आदि। इसके साथ ही इनमें सुरक्षा, कृषि, यातायात, ट्रांसपोर्ट सहित अनेक औद्योगिक गतिविधियां शामिल हैं। इसीलिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में निर्माण उद्योग में निवेश का आबंटन 20,00,000 करोड़ रुपये किया गया है।
योजना आयोग के आकलन के मुताबिक निर्माण उद्योग में 36,000 करोड़ रुपये का वार्षिक खर्च होगा। योजना आयोग ने यह भी बताया है कि निवेश की तुलना में इंजीनियरों, तकनीशियनों एवं कुशल श्रमिकों की संख्या में गिरावट हो रही है। मतलब जिस रफ्तार से निर्माण उद्योग में पूंजीनिवेश बढ़ रहा है, उस रफ्तार में कुशल श्रमिकों की संख्या बढ़ने के बजाय घट रही है। इसका मतलब यह निकलता है कि भारतीय निर्माण उद्योग में अकुशल मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। योजना आयोग को अंदेशा है कि यह रूझान चिंताजनक है और इसकी परिणति घटिया निर्माण कार्यों में होगी, जिससे भारत की औद्योगिक अधिसंरचना कमजोर पड़ेगी, जो स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि निर्माण उद्योग की घटिया गुणवत्ता से देश को उच्च पथ, बांध, पुल, मेट्रो, रेलमार्गों, बंदरगाह, हवाईअड्डा, विद्युत गृह, सामान्य आवास आदि कमजोर होंेगे।
क्या हम कमजोर और घटिया संरचना स्वीकार करेंगे? इस प्रश्न का उत्तर एक अन्य प्रश्न से किया जाना उचित है। क्या यह कहना सही है कि हमारे पास पर्याप्त कुशल मजदूर नहीं हैं?
नहीं, यह कथन सही नहीं है। हमारे देश में पर्याप्त कुशल श्रमिक मौजूद हैं। रिकार्ड पर कुशल श्रमिकों की बड़ी तादाद को अकुशल की श्रेणी में डाला जाता है, यह बताकर कि उन्हें औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं है। उन्हें अनौपचारिक कहा जाता है। दरअसल रोजगार नियोजन का अनौपचारिक नियोजकों के हाथों में क्रूर शोषण का वह गंदा हथियार है, जिसकी तरकीब से मजदूरों से कुशल श्रम लिया जाता है, किंतु उन्हें अकुशल श्रम का पारिश्रमिक भुगतान किया जाता है। शोषण का यह गंदा तरीका तुरंत खत्म किया जाना चाहिये।
यह सर्वविदित है कि भारत में कुशल श्रमिकों के भारी तादाद को औपचारिक शिक्षा नहीं है। उन्हें औपचारिक डिप्लोमा/डिग्री प्राप्त नहीं है। इसके बावजूद वे कुशल मजदूर हैं और कुशल कोटि के कामों को सफलतापूर्वक अंजाम देने में सक्षम हैं। वे कार्यस्थल पर वर्षों व्यावहारिक काम करते रहने के दौरान अनुभवी प्रशिक्षित मजदूर हैं। वे लंबे समय तक कार्यस्थल पर काम करते हुए प्रशिक्षित हुए हैं। इनके द्वारा संपन्न किया गया काम की गुणवत्त को किसी प्रकार भी डिग्रीधारी लोगों के कामों को गुणवत्ता से कम नहीं आंकी जाती है। वे घटिया काम नहीं करते, प्रत्युत्त वे अच्छे कामों को अंजाम देते हैं। जरूरत इस बात की है कि हम इस हकीकत को मंजूर करें और ऐसे कुशल एवं सक्षम मजदूरों के कौशल को कौशल का प्रमाणपत्र जारी करके मान्यता प्रदान करें।
आईएलओ की गणना के मुताबिक भारत में युवा कर्मियों की विशाल संख्या है, लेकिन उनमें (20 से 24 वर्ष के आयु समूह) सिर्फ पांच प्रतिशत मजदूरों ने औपचारिक तरीके से प्रशिक्षण प्राप्त किया है, जबकि औद्योगिक विकसित देशाों में यह संख्या 60 से 96 प्रतिशत तक है। भारत में कुल श्रमशक्ति का महज 2.3 प्रतिश्ता ने औपचारिक शिक्षा ग्रहण की है। ऊपर के आंकड़े यह साबित करने के लिये दर्शाये गये हैं कि किस प्रकार भारतीय निर्माण उद्योग में बढ़ते पूंजीनिवेश के मुकाबले औपचारिक रूप से प्रशिक्षित कुशल मजदूरों की संख्या में गिरावट हो रही है।
आईएलओ द्वारा प्रदर्शित इस चिंता की हम सराहना करते हैं, जिसमें अनौपचारिक श्रमिकों की बदतर कार्यदशा का वर्णन किया गया है, किंतु उनका यह निष्कर्ष सही नहीं है कि भारतीय निर्माण मजदूर प्रशिक्षित नहीं हैं और वे गुणवत्तापूर्ण कार्य को अंजाम देने में सक्षम नहीं हैं। आईएलओ के ऐसे निष्कर्ष का कोई औचित्य नहीं है। भारतीय निमाण मजदूरों की स्थिति का यह सही मूल्यांकन नहीं है। भारत के निर्माण मजदूर व्यावहारिक तौर पर प्रशिक्षित है। उन्हें भारतीय परिस्थिति में पारंपरिक तरीके से प्रशिक्षित किया गया है। अब यह सरकार का काम है कि श्रमिकों में विद्यमान कौशल की पहचान कर उनका समुचित प्रमाणीकरण किया जाय। इस सम्बंध में हमारा निम्नांकित सुझाव है:
क) अधिकार प्राप्त प्राधिकरण द्वारा उन सभी मजदूरों को समुचित श्रेणियों में योग्यता और कौशल का प्रमाण पत्र जारी करना, जिन्होंने पारंपरिक तरीके से व्यावहारिक कार्य करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त किया है।
ख) मजदूरों के कौशल समृद्धि के लिये कार्यस्थल पर काम करते समय प्रशिक्षण के स्थायी विशेष उपाय करना।
ग) श्रम समूह में निरंतर प्रशिक्षित श्रमिकों के आगमन सुनिश्चित करने को निमित्त प्रत्येक हाई स्कूल परिसर में नियोजकों के खर्चें से विभिन्न उद्योगों/धंधों का प्रशिक्षण सत्र चलाना। ऐसे प्रशिक्षण सत्र का खर्च नियोजकों द्वारा उठाना जाना उचित है, क्योंकि श्रमिकों का अंततः एकमात्र लाभार्थी नियोजक ही होता है।
निर्विवाद रूप से भारतीय निर्माण उद्योग में प्रशिक्षित श्रमिकों की भारी संख्या हैं, जिनका प्रशिक्षण व्यावहारिक काम करने की प्रक्रिया में हुआ है। जरूरत है उनकों मान्यता प्रदान करने की, जिसके वे पूर्ण हकदार है।
कुशल मजदूरों की निरंतर प्राप्ति के लिये हाई स्कूलों में निरंतर प्रशिक्षित सत्र आयोजित किया जाना उपयोगी होगा। बहुत से छात्र अनेक कारणों से कालेज में आगे की पढ़ाई के लिए दाखिला नहीं करा पाते हैं। उनको उचित प्रशिक्षित देकर काम का अवसर प्रदान किया जा सकता है। इस प्रकार का प्रशिक्षण शिक्षा की उपयोगिता बढ़ाने में योगदान करेगा और शिक्षा को रोजगारमुखी बनायेगा।
निर्माण उद्योग विभिन्न श्रेणियों के श्रमिकों की संख्या
1995 2005 10 वर्षों में वृद्धि का:
संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत
इंजीनियर्स 687,000 4.70 822,000 2.65 19.66
टैक्नीशियन और फोरमेन 359,000 2.46 573,000 1.85 59.61
सेक्रेटारियल 646,000 4.42 738,000 2.38 14.24
स्किल्ड वर्कर्स 2,241,000 15.34 3,267,000 10.54 45.78
अनस्किल्ड वर्कर्स 10,670,000 73.08 25,600,000 82.58 139.92
कुल 14,603,000100 31,000,000 100 112.28
- सत्य नारायण ठाकुर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद