21 नवम्बर उत्तर प्रदेश के राजनैतिक पटल पर हलचल भरा दिन रहा। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने आगरा में एक रैली को सम्बोधित किया जिसमें मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपियों - संगीत सोम, सुरेश राणा और वीरेन्द्र गुर्जर का अभिनन्दन किया गया तो बरेली में समाजवादी पार्टी की रैली को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने सम्बोधित किया जिसमें इन नेताओं के बगलगीर थे मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपी मौलाना तौकीर। कांग्रेस ने प्रदेश में खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की मांग को लेकर लखनऊ में प्रदर्शन किया। प्रदर्शन पर प्रदेश सरकार ने लाठी चार्ज करवाया और कांग्रेसी नेतृत्व डरपोकों की तरह एक ही कार पर चढ़ कर अपने को बचाता हुआ नजर आया। इस दृश्य की फोटो तमाम अखबारों ने प्रकाशित की है। एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ितों में से केवल एक वर्ग को राहत देने की अधिसूचना वापस ले।
नरेन्द्र मोदी भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं तो दूसरी ओर सपा सुप्रीमो बार-बार तीसरे मोर्चे के केन्द्र में सत्ता में आने और खुद के प्रधानमंत्री बनने की घोषणा करते रहते हैं। प्रधानमंत्री बनने के लिए व्याकुल दोनों नेताओं और उनकी पार्टियों ने मुजफ्फरनगर के दंगों के आरोपियों को जिस प्रकार महिमा मंडित किया वह संविधान में निर्दिष्ट धर्म निरपेक्षता की मूल भावना की हत्या तो है ही साथ ही अनैतिक और गैर कानूनी भी है। इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिन लोगों को दंगे जैसे सामाजिक और राष्ट्रीय अपराध के लिए जेल के अन्दर होना चाहिए, वे न केवल खुले घूम रहे हैं बल्कि चुनाव जीतने के लिए राजनीतिज्ञ उनका महिमा मंडन कर रहे हैं। लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगा पीड़ितों को भी धर्म के आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया। उसने केवल दंगा पीड़ित मुस्लिम अल्पसंख्यकों को ही पांच-पांच लाख मुआवजा देने की घोषणा की। ध्यान देने योग्य बात है कि शरणार्थी शिविरों में रह रहे हिन्दू और मुस्लिम दंगा पीड़ित समाज के वंचित तबके से ही हैं। इनमें कोई भी बड़ा आदमी नहीं है। यह उनमें एकता का आधार था परन्तु सरकार ने इन वंचित तबकों में भेदभाव करने का संविधानविरोधी फैसला लिया। सपा सरकार ने अपनी विभाजनकारी नीतियों के चलते विभाजन पैदा करने की कोशिश की और निश्चित रूप से भाजपा को इसका फायदा उठाने को विभाजन की प्रक्रिया की तीव्र करने का एक मौका मुहैया कराया। इसकी घोर निन्दा की जानी चाहिए।
चुनावों में हार-जीत का फैसला अंतोगत्वा आम जनता के वोटों के होता है। फैसलों के बाद बनी सरकारों का खामियाजा भी इसी जनता को भुगतना होता है। इसलिए इस तरह महिमा मंडित होने वाले और ऐसे लोगों को महिमा मंडित करने वालों, दोनों के बारे में आम जनता को ही विचार करना चाहिए कि वे इनके साथ आसन्न चुनावों में किस तरह का व्यवहार करें। जनता अगर इससे चूकती है, तो चुनावों के बाद खामियाजा भी उसे ही भुगतना होगा।
शासक पुराने समय से समाज को विभाजित कर शासन करने की राज नीति का पालन करते आये हैं। लोकतंत्र में भी यह प्रवृत्ति जारी है। देश की अधिसंख्यक जनता मेहनतकश है। वह अपनी मेहनत के बल पर की गई कमाई के सहारे ही अपना जीवनयापन करती है। यह मेहनतकश जनता अगर चुनावों के दौरान विभाजनकारी राजनीति का शिकार होने से खुद को बचा सके तो वह अपना जीवन बदल सकती है, अपना जीवन स्तर बदल सकती है। परन्तु वास्तव में ऐसा हो नहीं रहा है। विभाजनकारी शक्तियां उसे धर्मो, जातियों और क्षेत्रों में बांटने में लगातार सफल होती रही हैं। विभाजनकारी शक्तियों की सफलता के कारण ही जनता चुनावों के पहले ही ऐसे शक्तियों के हाथों हार चुकी होती है। जनता 1947 के बाद से अपनी विफलता का परिणाम लगातार भुगत रही है। विभाजनकारी शक्तियों और विभाजनकारी कारकों की संख्या में खतरनाक बढ़ोतरी लगातार जारी है।
यह प्रक्रिया लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक है। इस प्रक्रिया को रोकने के लिए हमें लगातार प्रयास करते रहने होंगे। जनता में समझदारी विकसित करने के लगातार प्रयास किये जाने चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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