संप्रग शासन काल में पूंजीवाद के साथ जिस विशेषण का लगातार प्रयोग किया गया वह है ”क्रोनी“। अर्थशास्त्र का ज्ञान न रखने वाले लोग इसे छोटा पूंजीवाद, कारपोरेट पूंजीवाद या ऐसा ही कुछ और समझ लते हैं। अंग्रेजी में ‘क्रोनी’ संज्ञा है जिसका अर्थ है ‘अंतरंग मित्र’। अंग्रेजी भाषा की यह खासियत है कि संज्ञा को विशेषण और क्रिया के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अर्थशास्त्री ”क्रोनी कैपिटलिज्म“ को पूंजीवाद का वह भ्रष्टतम रूप बताते हैं जिसमें शासक और पूंजीपतियों में अंतरंग मित्रता हो और दोनों एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार हों। यानी पूंजीवाद के जिस दौर से हम हिन्दुस्तान में गुजर रहे हैं वह पूंजीवाद का वही भ्रष्टतम रूप है जिसमें पूंजीपति और पूंजीवादी राजनीतिक दल अंतरंग मित्र बन चुके हैं। हमने पिछले पांच सालों में देखा कि पूंजीवाद के इसी भ्रष्टतम रूप के कारण संप्रग-2 के सात मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में त्यागपत्र देने को मजबूर होना पड़ा परन्तु उनमें से केवल एक ए.राजा को छोड़ कर किसी को भी जेल की हवा काटने अभी तक नहीं जाना पड़ा है। भाजपा भी इस भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही।
यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि इलेक्ट्रानिक संमाचार माध्यम और प्रिंट मीडिया (विशेष रूप से अंग्रेजी और हिन्दी) के मालिकान कारपोरेट घराने हैं और निश्चित रूप से पूंजीवाद के वर्तमान रूप में वे अपने राजनीतिक मित्रों और हितचिन्तकों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। आज पत्रकारिता पत्रकारिता रह ही नहीं गई है। इसे पत्रकारिता का कौन सा रूप कहा जाये, इस पर हम सबको विचार करना चाहिए। मीडिया आज कल कारपोरेट पॉलिटिक्स का औजार बन कर रह गया है।
आइये कुछ घटनाओं के साथ-साथ कारपोरेट मीडिया और राजनीतिज्ञों की अंतरंगता की बात करते हैं। रविवार 29 सितम्बर को दिल्ली में प्रधानमंत्री के इकलौते घोषित भाजपाई प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी की मीडिया में बहुप्रचारित रैली आयोजित थी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार लगभग 7000 सुरक्षाकर्मियों और 5000 कार्यकर्ताओं को सम्बोधित कर मोदी प्रस्थान कर गये। ठीक उसी वक्त इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यम इस रैली का ‘लाइव’ प्रसारण कर रहे थे और रैली में आई भीड़ को पांच लाख बता रहे थे। अगले दिन समाचार पत्रों ने इस रैली के समाचारों को मुखपृष्ठों पर बड़े-बड़े मोटे टाईप में प्रकाशित किया। यह वास्तविकता थी कि न कहीं जाम लगा और न ही मीडिया को पांच लाख की भीड़ आने पर लगने वाले जाम के न लगने पर कोई परेशानी हुई।
यही मीडिया अगले लोक सभा चुनावों को मुद्दों के बजाय दो व्यक्तियों - भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के अघोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी राहुल गांधी के बीच केन्द्रित कर देना चाहती है। कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस जीते या भाजपा नीतियां वहीं रहेंगी जो देशी और विदेशी पूंजी चाहती है, आखिरकार दोनों ही पार्टियां कारपोरेट घरानों की अंतरंग मित्र हैं।
आइये अब हाल में बनी ‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में चर्चा करते हैं। यह पार्टी तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी (अन्ना) आन्दोलन की कोख से पैदा हुई है। इस आन्दोलन के शुरू होने के पहले ही चर्चा गरम थी कि एक के बाद एक भ्रष्टाचार के खुलते मामलों पर जनता में व्याप्त आक्रोश को शान्त करने के लिए कारपोरेट घरानों और सत्ताधीशों की अंतरंगता से यह आन्दोलन आयोजित किया जा रहा है। इस आन्दोलन के दौरान दो बातें सामने आयीं जिनका एक बार फिर उल्लेख जरूरी होगा। पहला जिस तादाद में पूरे हिन्दुस्तान में प्रचार सामग्री की बाढ़ आई थी, उसके लिए एक बड़े तंत्र की और करोड़ों के धन की जरूरत थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के पास एकाएक पैसा कहां से आया और एकदम से इतना बड़ा तंत्र कहां से खड़ा हो गया, इन दोनों बातों पर प्रश्नचिन्ह आज तक लगा हुआ है? दूसरा कारपोरेट मीडिया ने भ्रष्टाचार के राजनैतिक सवाल पर इसे एक गैर राजनैतिक पहलकदमी बताते हुए जितना प्रचार-प्रसार किया, वह आन्दोलन के फैलाव से कहीं बहुत अधिक था। पूंजी और उसके चन्द समाजवादी पैरोकार राजनीति का गैर राजनीतीकरण करने के लिए बहुत अरसे से काम करते रहे हैं। 1957 में समाजवादियों के मिलान सम्मेलन से विचारधारा विहीन मनुष्य की जिस परिकल्पना का जन्म हुआ था, जिसे आपातकाल के दौर में संजय गांधी ने पाला पोसा, उसे ही आज कारपोरेट मीडिया आगे बढ़ा रहा है। नवउदारवाद के जन्म के साथ उसके बरक्स वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की भी शुरूआत हो गयी थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और आम आदमी पार्टी ने वैकल्पिक राजनीति को भारी नुकसान पहुंचाया और उसके इस कारनामे में कारपोरेट मीडिया उसका सहोदर बना रहा है। आज इस ‘आम आदमी पार्टी’ को मीडिया जितना कवरेज दे रहा है, उसका दशांश भी मुख्य धारा की वैकल्पिक राजनीतिक पार्टियों को वह कवर नहीं करता है।
लखनऊ में 30 सितम्बर को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ! सद्भाव, विकास एवं कानून के राज के लिए!!” के नारे के साथ लखनऊ में एक विशाल जुलूस निकाला और ज्योतिर्बाफूले पार्क में एक विशाल जनसभा की। यह घटना उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए महत्वपूर्ण इसलिए थी कि यहां काफी अरसे से वामपंथी पार्टियों का जनाधार विशालतम नहीं रहा है। इस रैली में मोदी की दिल्ली रैली के मुकाबले चार-पांच गुना अधिक कार्यकर्ता मौजूद थे फिर भी किसी इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इसे कवर नहीं किया। अंग्रेजी और हिन्दी के समाचार-पत्रों ने केवल स्थानीय पन्नों पर इसका जिक्र किया। उर्दू अखबारों पर अभी भी कारपोरेट मीडिया का स्वामित्व नहीं है। उर्दू समाचार पत्रों ने इस घटना को पूरी गम्भीरता से स्थान दिया।
कुछ भी माह पहले सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों तथा स्वतंत्र फेडरेशनों ने दिल्ली में एक बड़ी रैली की थी जिसमें लगभग एक लाख के करीब भीड़ थी। इस घटना को भी किसी टी.वी. चैनल ने नहीं दिखाया और समाचार पत्रों में जाम के कारण जनता को होने वाली असुविधा के समाचार ही छपे थे। एक लाख मजदूर और कर्मचारी पूरे देश से राजधानी दिल्ली में क्यों जमा हुए, कारपोरेट मीडिया का इससे कोई सरोकार नहीं था।
लगभग एक साल पहले वामपंथी पार्टियों ने जिस समय ‘हर परिवार को हर माह दो रूपये के हिसाब से 35 किलो अनाज की कानूनी गारंटी’ के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक हफ्ते धरना दिया था, उसी समय ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का उसी जंतर-मंतर पर धरना चल रहा था। मीडिया ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के धरने को लगातार दिखा रहा था परन्तु उससे कहीं बहुत अधिक बड़े वामपंथी पार्टियों के धरने को कवर नहीं किया गया। कुछ यही समाचार पत्रों ने भी किया था।
मीडिया के यह दोहरे मानदण्ड यह इशारा करते हैं कि पूंजीवादी राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति - वाम राजनीति के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत जरूरी है कि आम जनता एक विशालकाय वैकल्पिक मीडिया खड़ा करे। इसे एक रात में खड़ा नहीं किया जा सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि ”पार्टी जीवन“ और ”मुक्ति संघर्ष“ के प्रसार को आम जनता के मध्य ले जाया जाये। हर बड़े जिले में इन समाचार पत्रों के कम से कम 200-200 ग्राहक तथा छोटे जिलों में कम से कम 100-100 ग्राहक जनता के मध्य बनाये जाये, जिससे वैकल्पिक राजनीति के समाचार और लेख आम जनता के मध्य पहुंच सके। शुरूआत इसी से करनी होगी और हम आशा करते हैं कि हमारे साथी इसे गम्भीरता से लेते हुए इस कार्यभार को भी अदा करेंगे।
- प्रदीप तिवारी
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