Saturday, May 5, 2012

भाकपा द्वारा पूर्व ऊर्जामंत्री के खिलाफ सीबीआई जांच की मांग

लखनऊ 5 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की है कि वे लोकायुक्त की सिफारिश पर प्रदेश के पूर्व ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय की अकूत सम्पत्तियों और गत दस सालों के भीतर उनके द्वारा किये गये घपले-घोटालों की जांच सीबीआई तथा प्रवर्तन निदेशालय से कराने के लिए शीघ्र ठोस कदम उठायें। भाकपा ने लोकायुक्त द्वारा दोषी ठहराये गये अन्य पूर्व मंत्रियों की सीबीआई जांच कराने हेतु शीघ्र निर्णय लेने का आग्रहण भी किया है।
भाकपा सचिव मंडल की ओर से जारी बयान में राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि प्रदेश की किसी जांच एजेन्सी से इन मंत्रियों की जांच कराना कारगर साबित नहीं होगा क्योंकि ये लोग इतने ताकतवर हैं कि प्रदेश की जांच एजेंसियों को अपने प्रभाव में ले सकते हैं। पूर्व में ऐसा हो भी चुका है। जांच में विलम्ब करने से ये शक्तिशाली नेतागण अपनी बचत के तमाम रास्ते ढूंढ लेंगे। सीबीआई से इनकी जांच कराना इसलिए भी जरूरी है कि इनका आर्थिक साम्राज्य पूरे देश में फैला है और संभव है कि इनका धन विदेशी बैंकों में भी जमा हो।
भाकपा राज्य सचिव मंडल ने कहा कि आज एक के बाद एक भ्रष्टाचार के मामले उजागर हो रहे हैं, फिर भी लोग भ्रष्टाचार करने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह पूंजीवादी व्यवस्था में पैदा हो रही सड़न का परिचायक है। जातिवाद ने भी इसको बढ़ाने में बड़ी मदद की है, जिसके चलते अपनी जाति के भ्रष्टाचारी नेताओं, अफसरों और यहां तककि डाकू, अपराधी, माफिया सरगनाओं को लोग खुलकर महिमामंडित करते हैं और उनके फंसने पर उनकी ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं। पूर्व ऊर्जा मंत्री जैसे नेता जातिवाद की बैसाखी पर चढ़कर ही अपना यह सारा साम्राज्य खड़ा किये हैं।
डा. गिरीश ने कहा कि लोकायुक्त के विरूद्ध की जा रही आपत्तिजनक टिप्पणियों, उनको दी जा रही धमकियों तथा शिकायतकर्ताओं को दी जा रही धमकियों को भी गम्भीरता से लिया जाना चाहिए और उचित धाराओं में मुकदमें दर्ज कर कार्यवाही की जानी चाहिए।

Thursday, April 26, 2012

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रों के पुलिसिया दमन की एआईएसएफ द्वारा भर्त्सना

लखनऊ 27 अप्रैल। कल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जबरन हॉस्टल खाली कराये जाने के मुद्दे पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे छात्र-छात्राओं पर पुलिस एवं पीएसी द्वारा पहले लाठियों से हमला, फिर आंसू गैस के हमले की आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) ने तीव्र भर्त्सना की है। पूरे शहर में आधी रात तक आंसू गैस छोड़े जाने को एआईएसएफ ने दमन की पराकाष्ठा बताया है। यह प्रदेश के छात्रों को युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार का दो माह के भीतर पहला तोहफा है।
एआईएसएफ की ओर से यहां जारी एक प्रेस बयान में एआईएसएफ की प्रांतीय संयोजिका कु. निधि चौहान ने कहा है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हास्टलों में बाहर से आकर शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्र-छात्रायें रहते हैं और परीक्षाओं के बाद वे आगे की कक्षाओं में प्रवेश एवं नौकरी के लिए कम्पटीशन की तैयारी करते हैं और वही से उन परीक्षाओं में भाग लेते हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय सिविल सर्विसेज परीक्षाओं के छात्र-छात्राओं का पुराने समय से केन्द्र रहा है। पहले तो विश्वविद्यालय प्रशासन को छात्रावास खाली कराने की बात नहीं करनी चाहिए थी और फिर पुलिस को परिसर में आमंत्रित नहीं करना चाहिए था। अन्य अनेक ऐसे तरीके हैं जिनसे छात्र-छात्राओं को बिना शारीरिक-मानसिक क्षति पहुंचाये कुलपति के घेराव को समाप्त कराया जा सकता था लेकिन पुलिस प्रशासन ने सीधे लाठी-डंडों और आंसू गैस का सहारा लिया। यह सर्वथा निन्दनीय है।
एआईएसएफ की राज्य संयोजिका कु. निधि चौहान ने जिला प्रशासन द्वारा छात्र-छात्राओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार पर हिंसक हमले को लोकतंत्र के माथे पर धब्बा बताते हुए इलाहाबाद के कार्यवाहक जिलाधिकारी और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के खिलाफ कठोर कार्रवाई की मांग की है। उन्होंने प्रदेश भर की एआईएसएफ की इकाईयों का आह्वान किया है कि वे महामहिम राष्ट्रपति एवं महामहिम राज्यपाल को घटना की उच्चस्तरीय जांच कराने की मांग करते हुए ज्ञापन जिलाधिकारियों को दें तथा इलाहाबाद के छात्र-छात्राओं के साथ अपनी एकजुटता प्रकट करें।


(कु. निधि चौहान)
राज्य संयोजिका

Sunday, April 22, 2012

विद्युत वितरण के निजीकरण का पुरजोर विरोध करेगी भाकपा

बिजली क्षेत्र की यूनियनों को पिछली गलती न दोहराने की चेतावनी

लखनऊ 23 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अखिलेश यादव सरकार द्वारा सात शहरों के विद्युत वितरण की व्यवस्था को मायावती सरकार की चहेती रही निजी कम्पनी टोरंट को सौंपने के फैसले को जनविरोधी बताते हुए उसकी कटु निन्दा करते हुए उसका पुरजोर विरोध करने का आह्वान किया है। भाकपा के राज्य सचिव मंडल की ओर से जारी एक प्रेस बयान में कहा गया है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार के इस फैसले के खिलाफ सातों शहरों में जनता को सड़कों पर उतारने का पूरा प्रयास किया जायेगा और सरकार को फैसला वापस लेने के मजबूर किया जायेगा।
भाकपा के वरिष्ठ नेता प्रदीप तिवारी ने प्रेस बयान में कहा है कि मायावती सरकार ने टोरंट के मालिकों से पैसा लेकर आगरा और कानपुर की विद्युत वितरण व्यवस्था को उसके हवाले करने का फैसला लिया था जिसका भाकपा ने दोनों शहरों में पुरजोर विरोध किया था। कानपुर में कर्मचारियों और जनता के व्यापक विरोध के चलते मायावती सरकार को अपने कदम पीछे खीचने पड़े थे परन्तु आगरा की विद्युत वितरण व्यवस्था को टोरंट को सौंपने में मायावती सरकार कामयाब हो गयी थी।
भाकपा के वरिष्ठ नेता प्रदीप तिवारी ने प्रेस बयान में कहा है कि आगरा की जनता विद्युत वितरण की बदहाली, टोरंट की नादिरशाही और लूट से त्राहि-त्राहि कर रही है और वहां टोरंट कम्पनी के खिलाफ माहौल बन रहा है। आगरा की जनता यह रास्ता देख रही थी कि सरकार बदलने पर शायद उसे टोरंट कम्पनी से मुक्ति मिल जाये परन्तु समाजवादी पार्टी की सरकार ने उसी टोरंट को सात अन्य शहरों की विद्युत व्यवस्था सौंपने का फैसला लेकर एक बार फिर यह दिखा दिया है कि समाजवादी पार्टी उसी पूंजीवादी नीतियों और भ्रष्टाचार की पोषक है जिन नीतियों पर कांग्रेस, भाजपा और बसपा चलती रही हैं।
भाकपा के वरिष्ठ नेता प्रदीप तिवारी ने प्रेस बयान में कहा है कि सपा सरकार के इस फैसले से इस बात की फिर पुष्टि हुई है कि पूंजीवाद में सरकारों को भ्रष्ट बनाकर सरमायेदार किस तरह जनता के धन की लूट कर अपना मुनाफा बढ़ाने में सफल होते रहते हैं। उन्होंने दावा किया है कि भाकपा सातों शहरों में इस फैसले के खिलाफ तुरन्त अपनी मुहिम शुरू कर देगी जिसमें जनता के व्यापक तबकों को लामबंद करने के लिए विचार-गोष्ठियों, विरोध प्रदर्शनों का आयोजन शामिल है।
प्रेस विज्ञप्ति में बिजली क्षेत्र की यूनियनों को आगाह किया गया है कि वे भ्रष्ट पूंजीवादी साजिशों से होशियार रहें और इस मसले पर सरकार के कदम वापस खींचने तक केवल संघर्ष करें। इस मामले में प्रबंधन और सरकार से यूनियनों के वार्तालाप की कोई जगह नहीं है और पिछली बार की गलती को इस बार न दोहराया जाये।


कार्यालय सचिव

Monday, April 16, 2012

भाकपा ने मनाया उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक मांग दिवस

लखनऊ 16 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और ”इंसाफ“ ने आज पूरे उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक मांग दिवस मनाया। पूरे प्रदेश में भाकपा और ”इंसाफ“ ने संयुक्त रूप से जुलूस निकाले, धरना-प्रदर्शन आयोजित किये और कुछ स्थानों पर विचारगोष्ठियों का आयोजन कर अल्पसंख्यकों को उनके मुद्दों पर लामबंद करने के प्रयास किये।
उपरोक्त सूचना देते हुए भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने बताया कि उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में प्रतिनिधिमंडल जिलाधिकारियों से मिले और उन्हें अल्पसंख्यकों की समस्याओं पर राष्ट्रपति को सम्बोधित ज्ञापन देकर सच्चर कमेटी एवं रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों पर अमल की मांग करते हुए  अल्पसंख्यकों के साथ किये जा रहे भेदभाव को समाप्त करने की अपील की गयी है।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने आज प्रदेश के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर आरोप लगाया है कि अल्पसंख्यक छात्रों को 3 प्रतिशत ब्याज पर मिलने वाला ऋण आज तक किसी अल्पसंख्यक छात्र को उत्तर प्रदेश में मुहैया नहीं कराया गया है जबकि देश भर में हजारों छात्र इस योजना के अंतर्गत लाभान्वित हो चुके हैं। उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक वित्त निगम के पास आज भी करीब ढाई हजार आवेदन लंबित हैं परन्तु लगातार बनती रही सपा-बसपा की सरकारों ने इस ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया है। राज्य सरकार को इन आवेदनों को जल्द से जल्द निस्तारित करना चाहिए जिससे अल्पसंख्यक छात्रों का भविष्य सुधरे। इसी तरह अल्पसंख्यकों को रोजगार मुहैया कराने के लिए हजारों आवेदन लम्बित पड़े हुए हैं जिस पर अल्पसंख्यक वित्त एवं विकास निगम द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है। राज्य सरकार इन आवेदनों को भी जल्दी से जल्दी निस्तारित करवाये जिससे अल्पसंख्यकों को रोजगार मुहैया हो सके और उनका जीवनस्तर सुधर सके। इस या उस धार्मिक नेता के दामाद और बेटों को राज्य सभा और विधान परिषद में जाने से अल्पसंख्यकों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है।



कार्यालय सचिव

Thursday, April 12, 2012

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और ”इंसाफ“ द्वारा 16 अप्रैल 2012 को किया जायेगा अल्पसंख्यक मांग दिवस का आयोजन

लखनऊ 13 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के हाल में पटना में सम्पन्न 21वें महाधिवेशन के आह्वान पर भाकपा और ”इंसाफ“ संयुक्त रूप से 16 अप्रैल को अल्पसंख्यक मांग दिवस के रूप में पूरे देश में मनायेंगे। इस आह्वान पर उत्तर प्रदेश के सभी जिला मुख्यालयों तथा प्रमुख शहरों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और ”इंसाफ“ संयुक्त रूप से जुलूस, धरना, प्रदर्शन, विचारगोष्ठियों आदि का आयोजन कर अल्पसंख्यकों को अपनी समस्याओं पर लामबंद करेंगे।
उपरोक्त सूचना यहां देते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश एवं ”इंसाफ“ के प्रांतीय महामंत्री इम्तियाज अहमद, पूर्व विधायक ने कहा है कि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्टों पर केन्द्र एवं राज्य सरकारें कोई अमल नहीं कर रही हैं। देश के अल्पसंख्यक बाहुल्य 121 पिछड़े जिलों में से 90 जिलों में मल्टी सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (एमएसडीपी) के लिए 3,632 करोड़ रूपयों की व्यवस्था की गयी थी जिसमें से अब तक केवल 33 प्रतिशत व्यय किया गया है, जिसमें से अधिकांश हिस्सा भ्रष्टाचार की भेट चढ़ चुका है। इंदिरा आवास योजना में उनकी आबादी के सापेक्ष मकान अल्पसंख्यकों को आबंटित नहीं किये गये और अल्पसंख्यकों को इस योजना से रंचमात्र फायदा नहीं पहुंचा है। देश की कुल आबादी का 15 प्रतिशत मुस्लिम अल्पसंख्यक होने के बावजूद विभिन्न समाज कल्याण योजनाओं में उनकी हिस्सेदारी केवल 0.6 प्रतिशत है।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश तथा ”इंसाफ“ के राज्य महासचिव इम्तियाज अहमद, पूर्व विधायक ने यहां जारी एक प्रेस बयान में मांग की है कि एमएसडीपी के लिए 25 प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी के मानक के बजाय 15 प्रतिशत का मानक अपनाया जाये और जिलों के बजाय मोहल्ला और गांवों को चयनित कर उन्हें धनराशि आबंटित की जाये। डा. गिरीश और इम्तियाज अहमद ने यह भी मांग की है कि विभिन्न समाज कल्याण योजनाओं में गरीब अल्पसंख्यकों को उनकी आबादी के अनुपात में हिस्सा मिलना सुनिश्चित किया जाये।
प्रदेश के बुनकरों (मुस्लिम और हिन्दू दोनों) की बर्बादी के लिए सपा, बसपा एवं कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए डा. गिरीश और इम्तियाज अहमद ने यू.पी. हैण्डलूम कारपोरेशन की बहाली तथा सूत मिलों को दुबारा चालू किये जाने की मांग करते हुए बुनकरों के बिजली के बिलों तथा बैंक बकायों को माफ किये जाने की भी मांग की है।
नेताद्वय ने संविधान के नाम पर आरक्षण में अल्पसंख्यकों के साथ किये जा रहे भेदभाव के लिए कांग्रेस, सपा, बसपा और भाजपा चारों को जिम्मेदार बताते हुए इस भेदभाव को समाप्त किये जाने की भी मांग की है।



कार्यालय सचिव

Wednesday, March 28, 2012

रैली से हुई भाकपा महाधिवेशन की शुरुआत

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के 21 वें राष्ट्रीय महाधिवेशन की शुरुआत विशाल रैली से हुई। गांधी मैदान में कार्यकर्ता करीब नौ बजे ही अपने-अपने जिलों के बैनर के पीछे कतारबद्ध हो गये थे। रैली गांधी मैदान से निकलती रही है और कार्यकर्ता लाल झंडा हाथ में थामे गाजे बाजे के साथ आते रहे। भाकपा की रैली गांधी मैदान से करीब 12 बजे निकली। 21 घोड़ों पर लाल झंडा लिए जनसेवा दल का सबसे आगे चल रहे थे। उसके पीछे 21 मोटरसाइकिलों पर 63 लाल वर्दीधारी जवान मार्च कर रहे थे। इनके जन सेवा दल के कई टुकड़ियां मार्च कर रही थी, जिसमें एक हजार युवक और युवतियां थीं। रैली का नेतृत्व भाकपा के राष्ट्रीय उप महासचिव एस सुधाकर रेड्डी, राष्ट्रीय सचिव अमजीत कौर, अतुल कुमार अंजान, गुरुदास दास गुप्ता, भाकपा के राज्य सचिव बद्रीनारायण लाल, पूर्व विधायक रामनरेश पांडेय, पूर्व विधान पाषर्द संजय कुमार सहित कई राष्ट्रीय नेताओं ने किया। इन नेताओं के पीछे-पीछे विभिन्न जिलों का जत्था मार्च कर रहा था। जन सेवा दल के जवान राज्य कमांडर चंदेरी प्रसाद सिंह और विद्या सिंह के नेतृत्व में पैदल मार्च कर रहे थे। वहीं पूर्व विधायक राजेंद्र सिंह घोड़े पर सवाड़ जनसेवा दल के का नेतृत्व कर रहे थे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एबी बर्धन ने पार्टी के 21 वें राष्ट्रीय महाधिवेशन का झंडोत्तोलन किया। इस मौके पर जनसेवा दल के सैकड़ों युवक युवतियों ने झंडे की सलामी दी और 21 बम पटाखे भी फोड़े गये। महासचिव श्री बर्धन और राज्य सचिव बद्रीनारायण लाल ने 21 लाल गुब्बारे हवा में उड़ाये। इस मौके पर भाकपा के उप महासचिव एस सुधाकर रेड्डी, राष्ट्रीय सचिव डी राज, अतुल कुमार अंजान, अमरजीत कौर, सचिव मंडल सदस्य जितेंद्रनाथ, पूर्व विधायक रामनरेश पांडेय, राज्य कार्यकारिणी सदस्य चंदेरी प्रसाद सिंह आदि मौजूद थे। भाकपा नेताओं ने झंडोत्तोलन के बाद शहीद वेदी पर माल्यार्पण भी किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने रैली शुरू होने से पहले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों की प्रतिमा और शहीद स्मारकों पर माल्यापर्ण भी किया। इनमें वीर कुवंर सिंह, शहीस स्मारक, करगिल शहीदों की याद में बनाये गये शहीद स्मारक, पीर अली, शहीदे आजम भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा शामिल है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक मंगलवार को हुई। बैठक में 21 वें राष्ट्रीय महाधिवेशन के संचालन को लेकर योजना बनायी गयी। महाधिवेशन का संचालन 31 सदस्यीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी करेगी। साथ ही चार दिवसीय प्रतिनिधि सत्र की अध्यक्षता की जिम्मेवारी नौ सदस्यीय अध्यक्ष मंडली को दी गयी है। अध्यक्ष मंडल का संयोजक अमरजीत कौर को बनाया गया है।

धरनास्थल बहाल होने पर पेट में दर्द क्यों?

प्रदेश की नई सरकार ने विधान सभा के सामने स्थित धरनास्थल को यह कहते हुए बहाल कर दिया कि विरोध के स्वर सत्ता की चौखट पर ही मुखर होने चाहिए। खैर यह फैसला और फैसले के पीछे बताया गया कारण राजनीतिक है और इसकी मीमांसा करना हमारा उद्देश्य नहीं है। लेकिन मीडिया के एक तबके के पेट में सरकार के इस फैसले से पता नहीं क्यों दर्द होने लगा है। कई अखबारों में पत्रकारों का दर्द कुछ यूं उभरा है कि विधान सभा के सामने धरनास्थल पर होने वाले धरना-प्रदर्शनों से प्रदेश की राजधानी की जीवन रेखा ”विधान सभा मार्ग“ पर जाम लगता है, स्कूलों के छोटे-छोटे बच्चे जाम में भूखों प्यासे घंटों फंसे रहते हैं, मरीज अस्पताल नहीं पहुंच पाते, कर्मचारी दफ्तर नहीं पहुंच पाते और लोगों की ट्रेन छूट जाती है, आदि-आदि। एक अखबार में एक फीचर छपा जिसे अंत में निदा फाजली का एक शेर दिया गया - ”मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन? आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन?“ यह शेर बहुत कुछ कह जाता है।
जिस दर्द को मीडिया उभारने की कोशिश करता दिख रहा है, वह एक मध्यमवर्गीय दर्द है। वह दिल में नहीं दिमाग में होता है। दिमाग में होता है, इसलिए कागजों पर उभरता है और अखबारों में छपता है। लेकिन जो दर्द भूखे पेट में होता है, वह आज-कल उत्तर प्रदेश में मुखर नहीं होता, मुखर होता तो निदा फाजली के शब्दों के अनुसार उसे सुना जाता। उन भूखे पेटों का प्रतिनिधित्व करने वाले अगर कुछ ज्यादा संख्या में कभी-कभार प्रदेश की राजधानी पहुंच जाते हैं, धरनास्थल से निकल कर प्रदेश की राजधानी की जीवन रेखा विधान सभा मार्ग पर ठीक विधान सभा के सामने आ जाते हैं, तो निश्चित रूप से कभी-कभार जाम की समस्या होती है। तेज रफ्तार से इस रोड पर चलता ट्रैफिक कुछ समय के लिए थम सा जाता है, तो उसमें समस्या क्या है? यह रास्ता कोई ऐसा रास्ता नहीं है जिसके दायें-बायें होकर गंतव्य तक पहुंचा न जा सकता हो।
हाल में अपदस्थ हुई मायावती के कार्यकाल में इस धरनास्थल को पहले शहीद स्मारक पहुंचा दिया गया था। प्रदेश के कोने-कोने से आये प्रदर्शनकारियों को कई बार पुलिस पीटती हुई गोमती के छोर तक ले गयी कि उन्हें गोमती नदी में फांद कर अपनी जान बचानी पड़ी। यह मध्यमवर्गीय सोच उस वक्त भी अखबारों में चीख रही थी जाम की समस्या को लेकर। धरनास्थल को फिर गोमती नदी के दूसरे किनारे झूलेलाल पार्क पहुंचा दिया गया। फिर वही लाठी-चार्ज और गोमती में कूदने की घटनायें। तब भी वही मध्यमवर्गीय सोच अखबारों में चीख रही थी कि जाम की समस्या को लेकर। हमारे इन स्वरों को अखबारों में जगह नहीं मिली कि बर्बर पुलिसिया युग में नदी के किनारे धरनास्थल कितना असुरक्षित है? इन जगहों पर जाम लगता था तो दायंे-बायें होकर भी निकला नहीं जा सकता था।
प्रदेश की राजधानी के तमाम मार्गों पर जाम की समस्या लगातार बनी रहती है। अखबार चुप रहते हैं। इस मध्यमवर्ग को वे जाम दिखाई नहीं देते। बच्चों और मरीजों का दर्द उसे महसूस नहीं होता। जब कोई राजनेता प्रदेश की सड़कों से गुजरता है, तब भी ट्रैफिक रोक कर जाम लगा दिया जाता है। सरकारी मशीनरी द्वारा लगाया गया जाम इस मध्यमवर्ग को नहीं दिखता। बच्चों और मरीजों का दर्द महसूस नहीं होता।
हमारी यही सलाह है कि मीडिया का मध्यमवर्ग भूखे पेटों से निकलने वाली आवाज और उसके कारण लगने वाले जाम को भी बर्दाश्त करने की आदत डाल ले क्योंकि यह आवाज प्रदेश की राजधानी में कभी कभार ही सुनाई देती है, बाकी वक्त तो प्रदेश के दूरस्थ अंचलों में यह आवाज दिलों में, करोड़ों दिलों में डूबी रहती है, जिसे कोई नहीं सुनता।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पुलिस आयुक्त प्रणाली का विरोध

    लखनऊ 28 मार्च। राज्य सरकार द्वारा राज्य के बड़े जिलों में पुलिस आयुक्त प्रणाली की स्थापना की घोषणा पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपना विरोध प्रकट करते हुए कहा है कि प्रदेश में पुलिस की कार्यप्रणाली, उसकी मानसिकता और उसका मौजूदा ढांचा पुलिस आयुक्त प्रणाली के लिए उपयुक्त नहीं है। पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू करने से जिला पुलिस और अधिक निरंकुश, अमानवीय तथा नियंत्रणविहीन हो जायेगी।

    यहां जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि प्रदेश की नई सरकार यह जताने की कोशिश कर रही है कि वह प्रदेश के प्रशासनिक तंत्र में आमूल-चूल सुधार करना चाहती है लेकिन इस तरह के बिना सोचे समझे किये गये परिवर्तन जनता के लिए नए संकटों और परेशानियों को जन्म देने वाले साबित हो सकते हैं। भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि बेहतर होगा कि राज्य सरकार जल्दबाजी में कोई कदम उठाने के बजाय राष्ट्रीय एवं राज्य के राजनीतिक दलों से विमर्श कर पुलिस कानून 1861 को निरस्त कर उसके स्थान पर राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों तथा सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों के अनुरूप लोकतांत्रिक कानून बनाने, आवश्यक पुलिस सुधारों को लागू करने, पुलिस को जनता के साथ मित्रवत मित्रवत बनाने, पुलिस हिरासत में मौतों को रोकने और इस तरह की किसी भी घटना पर कठोर तथा त्वरित कार्यवाही सुनिश्चित करने, अपराधों पर रोक के लिए पुलिस की जांच को पुख्ता करने के लिए अपराध विज्ञान प्रयोगशालाओं की जिला स्तर पर स्थापना करने जिससे अपराधियों को पकड़ने में पुलिस सक्षम हो सके और मुकदमों में सजा सुनिश्चित हो सके, पुलिस द्वारा निर्दोष व्यक्तियों के खिलाफ किसी भी कार्यवाही पर सख्त कार्यवाही के लिए तंत्र विकसित करने और एफआईआर दर्ज करने से जांच तक हर स्तर पर रिश्वतखोरी को समाप्त करने आदि की दिशा में आगे बढ़े जिससे कानून-व्यवस्था की हालत में सुधार हो सके तथा जनता राहत की सांस ले सके।

    भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि पुलिस के प्रशासनिक तंत्र में परिवर्तन करने से स्थितियां सुधारने वाली नहीं है, ज्यादा जरूरी है पुलिस की मानसिकता एवं उसके कार्य करने के तौर तरीकों में आमूल-चूल सुधार की और नई राज्य सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।

कार्यालय सचिव

Thursday, March 22, 2012

कामरेड सी. के. चन्द्रप्पन दिवंगत

लखनऊ 22 मार्च। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सचिव एवं पार्टी की केरल राज्य परिषद के सचिव कामरेड सी. के. चन्द्रप्पन का केरल की राजधानी स्थित तिरूअनन्तपुरम अस्पताल में आज दोपहर में निधन हो गया। वे केवल 67 वर्ष के थे। उनके शव को जनता के दर्शनार्थ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केरल राज्य मुख्यालय पर रखा गया है, जहां से उसे व्यालार ले जाया जायेगा जहां उनका अंतिम संस्कार कल दोपहर में होगा।
कामरेड चन्द्रप्पन पुन्नप्रा व्यालार जनसंघर्ष के अप्रतिम योद्धा सी. के. कुमार पनिक्कर तथा अम्मुकुट्टी की संतान थे जो अपने छात्र जीवन से ही राजनीति में आ गये थे। 11 नवम्बर 1936 को जन्मे कामरेड चन्द्रप्पन  1956 में आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) के केरल राज्य के अध्यक्ष चुने गये थे। बाद में वे आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईवॉयएफ) तथा अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लम्बे समय तक रहे। वे तीन बार 1971, 1977 तथा 2004 में लोकसभा के सदस्य चुने गये तथा एक बार केरल विधान सभा के भी सदस्य रहे। वनवासियों को वन उपजों का अधिकार देने वाले कानून को ड्राफ्ट करने में तथा उसे संसद में पास करवाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा।
कामरेड चन्द्रप्पन की शुरूआती शिक्षा चेरथला और थिरूपुंथुरा में हुई। बाद में उन्होंने चित्तूर राजकीय कालेज से स्नातक की उपाधि ली तथा परास्नातक स्तर की शिक्षा थिरूअनंतपुरम के यूनिवर्सिटी कालेज में ग्रहण की।
उन्होंने बहुत कम उम्र में गोवा की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में हिस्सा लिया था। वे कई बार जनता के लिए संघर्ष करते हुए गिरफ्तार किये गये और जेल भेज गये। जनसंघर्षों में उन्हें दिल्ली की तिहाड़ तथा कोलकाता की रेजीडेंसी जेल में लम्बे समय तक रहना पड़ा।
1970 में वे भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के लिए चुने गये और लम्बे समय तक उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी और सचिव मंडल के सदस्य रहे। मृत्युपर्यन्त वे राष्ट्रीय परिषद के सचिव तथा केरल के राज्य सचिव रहे। जनसंघर्षों के योद्धा कामरेड चन्द्रप्पन के निधन से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को बड़ा आघात लगा है। उनकी मृत्यु से उत्पन्न शून्य को निकट भविष्य में भरा नहीं जा सकेगा।
उनके निधन का समाचार मिलते ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य मुख्यालय पर उनके सम्मान में पार्टी का ध्वज झुका दिया गया। राज्य कार्यालय पर आयोजित एक शोक सभा में भाकपा के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र, प्रदीप तिवारी, आशा मिश्रा, शमशेर बहादुर सिंह, मुख्तार अहमद तथा ओ. पी. अवस्थी आदि ने उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये।

Tuesday, March 20, 2012

अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस की 50वीं वर्षगाँठ - 27 मार्च, 2012 - पर जॉन मायकोविच अभिनेता व निर्देशक सयुंक्त राज्य अमरीका का सन्देश

अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान (यूनेस्को), पेरिस
अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस की 50वीं वर्षगाँठ - 27 मार्च, 2012 - पर जॉन मायकोविच अभिनेता व निर्देशक सयुंक्त राज्य अमरीका का सन्देश

“अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच  संस्थान (आई टी आई) ने मुझसे यूनेस्को में अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच की 50वीं  वर्षगाँठ पर बधाई सन्देश देने का आग्रह किया है, मेरे लिए ये बड़े सम्मान का विषय है। मैं साथी रंगकर्मियों, सहकर्मियों और कामरेड्स के समक्ष अपनी बात संक्षिप्त में कहूँगा।
आपका का काम मौलिक, अकाट्य व विचलित करने वाला हो। संवेदनशील, गहन, विचारशील और विशिष्ट हो। वो हमें इस प्रश्न पर विचार करने के लिए प्रेरित करे कि मनुष्य होने का तात्पर्य क्या है, और यह विचार निष्कपट हो, स्पष्ट हो, सच्चाई, संवेदना व गरिमा से परिपूर्ण हो। आप तंगहाली, सेंसरशिप, ग़रीबी और अंधेरों को पराजित करें - जो आप में बहुत से लोग निश्चित रूप से करना चाहेंगे। आप प्रतिभा संपन्न व दृढ़ निश्चयी हों और हमें अपनी पूरी जटिलताओं के साथ धड़कते मानव हृदय के बारे बताएं - आपमें वो विनम्रता और उत्सुकता हो जो इस पथ को आपके जीवन का उद्देश्य बनाये। और आप में जो कुछ भी सबसे अच्छा है - क्योंकि वह केवल आप ही का सबसे अच्छा पक्ष होगा - और केवल तब बिरले और सूक्ष्मतम क्षणों में - आपको उस मूलभूत प्रश्न को चिन्हित करनें में सफल करे, “हम कैसा जीवन जियें / हमारा जीवन कैसा हो?” आपकी यात्रा सफल हो!”
- जॉन मायकोविच                                                              
हिंदी अनुवाद: अखिलेश दीक्षित

समस्त बेरोजगारों को भत्ता देने के लिए नौजवान सभा चलायेगी अभियान

लखनऊ 20 मार्च। सपा सरकार द्वारा 35 वर्ष से कम उम्र के बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता न देने के निर्णय के खिलाफ नौजवान सभा की आज यहां सम्पन्न राज्य कौंसिल की बैठक में प्रदेशव्यापी आन्दोलन चलाने का फैसला किया गया। बैठक में निर्णय लिया गया कि पूरे प्रदेश में नौजवान सभा 6 अप्रैल से 12 अप्रैल तक युवा जागरण अभियान चलायेगी और सरकार द्वारा 18 वर्ष से 35 वर्ष के नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देने की मांग पर लामबंद करेगी। युवा जागरण अभियान के तहत जनसम्पर्क, साईकिल अथवा पैदल मार्च, हस्ताक्षर अभियान, सभायें तथा नुक्कड़ सभायें आयोजित की जायेंगी। अभियान का मुख्य नारा होगा - ”समस्त  बेरोजगारों को भत्ता! वरना नहीं चलेगा सत्ता!!“ तत्पश्चात् 13 अप्रैल को हर जनपद के रोजगार कार्यालयों अथवा जिलाधिकारी कार्यालयों पर धरने, प्रदर्शन तथा आम सभायें कर राज्यपाल को सम्बोधित ज्ञापन प्रेषित कर प्रदेश के सभी बेरोजगार युवकों को बेरोजगारी भत्ता देने की मांग की जायेगी।
नौजवान सभा की राज्य कौंसिल बैठक ने एक प्रस्ताव पारित कर राज्य सरकार से मांग की कि 18 से 35 वर्ष तक की उम्र के सभी बेरोजगार युवकों को भत्ता दिया जाये जो रोजगार न मिलने पर स्वतः समाप्त हो जाये। साथ ही मनरेगा कार्ड धारक अथवा अन्य रोजगार योजनाओं के अंतर्गत नामित युवाओं को यदि रोजगार मुहैया नहीं कराया जा रहा है तो उन्हें भी बेरोजगारी भत्ता दिया जाये और उसकी धनराशि बढ़ाये जाने की भी मांग की गयी।
नौजवान सभा की राज्य कौंसिल ने प्रदेश भर की अपनी ईकाईयों का आह्वान किया कि वे 23 मार्च को पूरे प्रदेश में शहीदे आजम भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरू के बलिदान दिवस पर व्यापक तौर पर आयोजन करें और नौजवानों को भगत सिंह के स्वप्नों का भारत बनाने के लिए संघर्ष करने का संकल्प करायें।
बैठक की अध्यक्षता विनय पाठक ने की तथा संचालन महामंत्री नीरज यादव ने किया। बैठक में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश विशेष रूप से मौजूद थे और उन्होंने मजबूत नौजवान सभा की जरूरत बताते हुए उपस्थित नौजवानों से प्रदेश भर में संगठन को फैलाने की दिशा में अनथक परिश्रम करने का अनुरोध किया।


(नीरज यादव)
महामंत्री

Tuesday, March 13, 2012

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव परिणाम

जनता के दुर्दिन अभी जारी रहेंगे.......

6 मार्च को पांच राज्यों - उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा के चुनाव परिणाम आ गये। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों की ओर पूरे देश की नजर लगी हुई थी। परिणाम मूलतः चुनावों के दौरान के हमारे आंकलन के अनुरूप ही हैं। बसपा और सपा ने आपस में पाला बदल लिया है। सपा को पहली बार प्रदेश में पूर्ण बहुमत प्राप्त हो गया है और अगले सप्ताह उसकी सरकार शपथ ग्रहण कर लेगी।
आंकड़ों की बात की जाये तो 2007 के विधान सभा चुनावों में सपा को प्राप्त 25.4 प्रतिशत मतों में 3.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ 29.2 प्रतिशत मत पाकर 225 सीटों पर विजय प्राप्त कर ली। इस प्रकार सपा ने पिछले चुनाव की तुलना में 128 अधिक सीटों पर विजय प्राप्त की। बसपा ने 2007 के चुनावों में प्राप्त 30.4 प्रतिशत मतों में 4.5 प्रतिशत की कमी के साथ 25.9 प्रतिशत मत पाकर 79 सीटों पर विजय दर्ज की जोकि पिछले चुनाव की तुलना में 127 सीटें कम हैं। पिछले दो दशकों से प्रदेश में साम्प्रदायिक खतरे के रूप में प्रोजेक्ट की जाने वाली भाजपा दो कदम और पीछे हटी है। पिछले चुनाव में उसे 16.9 प्रतिशत वोट प्राप्त हुये जिसमें 1.9 प्रतिशत की और गिरावट आई है। भाजपा को इस चुनाव में केवल 15 प्रतिशत मत प्राप्त हुये और विधान सभा में उसकी सीटें 51 से घटकर 47 रह गयीं। महंगाई और भ्रष्टाचार के संगीन आरोप झेल रही कांग्रेस को पिछले विधान सभा चुनावों में प्राप्त 8.6 प्रतिशत वोट 3 प्रतिशत बढ़कर 11.6 प्रतिशत हो गये और उसे 6 सीटों के फायदे के साथ 28 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। हालांकि ध्यान दिये जाने वाला तथ्य है कि तीन साल पहले हुए लोकसभा चुनावों के उसे प्राप्त मतों की संख्या तथा विधान सभा क्षेत्रों में उसकी बढ़त की तुलना में जनता ने उसे काफी पीछे धकेल दिया है और कांग्रेस सदमे की स्थिति में हैं। अन्य दलों तथा निर्दलियों को प्राप्त वोटों में 0.4 प्रतिशत की कमी आयी है और उन्हें पिछले चुनाव की तुलना में 2 सीटों का नुकसान हुआ है।
जिक्र जरूरी है कि मतगणना के अंतिम चरणों में जब सपा लगभग 185 सीटों पर बढ़त की ओर अग्रसर थी, सपा के हार रहे उम्मीदवारों ने कई स्थानों पर गुण्डागर्दी कर चुनाव अधिकारियों पर मतगणना में हेरफेर कर जितवाने का दवाब बनाया। पूरी रिपोर्टें अभी प्राप्त नहीं हैं परन्तु समाचारपत्रों के अनुसार झांसी में बबीना से सपा उम्मीदवार चन्द्र पाल सिंह ने ईवीएम की सील टूटे होने का बहाना बनाते हुए जम कर पत्रकारों की धुनाई की और मतगणना स्थल पर उपस्थित हजारों सुरक्षाकर्मी इस गुंडई को मूकदर्शक बने देखते रहे। फिरोजाबाद में भाजपा उम्मीदवार मनीष कुमार को सपा कार्यकर्ताओं ने पत्थरबाजी कर घायल कर दिया तो सम्भल में 12 वर्षीय दानिश की विजयी सपा उम्मीदवार इकबाल महमूद ने जीत की खुशी में हत्या कर दी। प्रतापगढ़ में पुलिस वालों द्वारा पत्रकारों की जम कर ठुकाई के अपुष्ट समाचार हैं। अम्बेडकरनगर में बसपा के मंत्री राम अचल राजभर की राईस मिल को जलाकर खाक कर दिया गया तो सीतापुर में बसपा समर्थकों के घरों को जला दिया गया। समय बीतने के साथ-साथ कहां-कहां क्या-क्या हुआ पता चलेगा। वैसे इन घटनाओं ने पांच साल पहले चुनावों में लगे नारे - ”जिस गाड़ी पर सपा का झंडा, समझो उस पर बैठा गुंडा“ की याद जनता को ताजा करवा दी।
सरकार बदल गयी परन्तु नई सरकार से जनता के बहुमत को कोई उम्मीद नहीं है। समाजवादी पार्टी अब लोहिया की पार्टी नहीं है बल्कि मुलायम की पार्टी है जिसमें सहारा और अम्बानियों के हित साधन का एजेंडा है। सपा उन्हीं विनाशकारी आर्थिक नीतियों की समर्थक रही है जिसे केन्द्र में मनमोहन सिंह ने चालू किया तो उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा भी चलती रही हैं। उत्तर प्रदेश के किसान अगर दादरी को नहीं भूले हैं तो बुनकर भी मुलायम के पिछले राज में अपनी बर्बादी  के घटनाक्रम को भी। अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने की बात चल रही है जोकि कारपोरेट कल्चर पर ज्यादा विश्वास करते हैं और राजनीति में अभी भी अपरिपक्व हैं। उत्तर प्रदेश की जनता के दुर्दिन अभी जारी रहने हैं।
कई दशकों के बाद भाकपा प्रत्याशी लगभग 1/8 विधान सभा क्षेत्रों में मैदान में थे। हालांकि 75 जिलों में से केवल 40 जिलों में भाकपा प्रत्याशी मैदान में थे। पिछले चुनावों की विधान सभा क्षेत्र वार तुलना उचित नहीं होगी क्योंकि परिसीमन के बाद विधान सभा क्षेत्रों का आकार बदल गया है। फिर भी पिछली बार केवल एक चुनाव क्षेत्र में 5000 से अधिक वोट प्राप्त हुये थे जबकि केवल 2 विधान सभा क्षेत्रों में मतों की संख्या तीन हजार से साढ़े तीन हजार के बीच थी और 11 क्षेत्रों में दो हजार से तीन हजार के बीच। इस बार तीन विधान सभा क्षेत्रों में मत चार हजार से अधिक प्राप्त हुये हैं जबकि पांच विधान सभा क्षेत्रों में तीन हजार से चार हजार के मध्य मत प्राप्त हुये हैं। 13 विधान सभा क्षेत्रों में प्राप्त मतों की संख्या दो हजार से तीन हजार के बीच है।
चुनावों में भाकपा के कार्यनिष्पादन की समीक्षा नीचे से लेकर ऊपर तक होगी और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जायेगा। मुद्दे की अति सरलीकरण से बचा जाना चाहिए और भविष्य में बेहतर कार्यनिष्पादन की रणनीति सरलीकरण के रास्ते पर चल कर नहीं बनाई जा सकती। दो साल बाद लोकसभा चुनाव हैं। हमें अभी से उसके लिए रणनीति बनानी होगी और उस पर गम्भीरता से अमल करना होगा।
चुनावों में पैसा भी बांटा गया, शराब भी बांटी गयी, जनता को जांति-पांति और धर्मों में भी बांटा गया। मीडिया को भी खरीदा गया। पेड न्यूज भी छपती और प्रसारित होती रही। भारत निर्वाचन आयोग केवल दिखावा करता रह गया। यथार्थ में कोई सुधारात्मक कदम उसके द्वारा नहीं उठाये गये। जो कदम उठाये गये, उनसे हमारे लिए समस्यायें खड़ी हुईं। मसलन आयोग का कहना था कि चुनाव सामग्री भेजने के लिए तीन-चार ट्रक महीने भर के लिए हम किराए पर ले लें जिनका परमिट वे जारी कर देंगे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि तीन-चार ट्रकों का महीने भर का किराया हमारे जैसे ईमानदार छोटे राजनीतिक दल कहां से लायेंगे।
हमें चुनाव सुधारों पर चर्चा को भी तेज करना चाहिए जिससे भ्रष्टाचार और जनता के तल्ख संकीर्ण विभाजनों से लोकतंत्र को बचाया जा सके।
जब तक प्रदेश की जनता के सामने हम चारों प्रमुख राजनीतिक दलों के बरक्स कोई विकल्प प्रस्तुत करने की स्थिति में नहीं आते, जिन चंद सीटों से हम चुनाव लड़ रहे होते हैं, उन क्षेत्रों में जनता के मध्य हमारे पक्ष में झुकाव की उम्मीद हमें नहीं करनी चाहिए क्योंकि जनता चुनावों के दौरान अपनी पसन्द की सरकार बनाने के लिए मत देने के लिए निकलती है।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि अधिसंख्यक साथियों में कोई निराशा नहीं है बल्कि लड़ने की तमन्ना और अधिक बलवती होती दिख रही है। साथियों का यह टेंपरामेन्ट हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
- प्रदीप तिवारी

सवालों में घिरती चुनाव प्रणाली

भारत निर्वाचन आयोग यह दावा कर सकता है कि उसने पांच राज्यों में चुनावों को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न करा दिया। परन्तु वास्तविकता यह है कि पैसा, जाति और धर्म के घिनौने खेल ने एक बार फिर चुनावों को मखौल बना दिया।
जुलूस निकालने, झंडा लहराने, समूह में निकलने, पोस्टर-झंडिया लगाने, वाल-राईटिंग करने आदि पर पाबंदी लगाकर निर्वाचन आयोग ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। इस बार शराब एवं पैसों की जब्ती के लिए उसके द्वारा चलाये गये अभियान के बावजूद जितना काला धन इन चुनावों में खर्च हुआ, शायद ही इसके पहले किसी भी राज्य के विधान सभा चुनावों में उतना धन खर्च हुआ हो। काले धन की बड़े मात्रा में कहीं बरामदगी नहीं हुई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसी ईमानदार छोटी पार्टियों के लिए चुनाव आयोग के निर्देश समस्या खड़ी करने वाले रहे हैं। मसलन कोई छोटा राजनीतिक दल अगर दस-बीस हजार की चुनाव सामग्री किसी चुनाव क्षेत्र में भेजना चाहें तो उसे पसीना निकल आयेगा। एक ट्रक किराए पर लीजिए। उसे अपने दफ्तर में खड़ा रखिए। राज्य निर्वाचन आयोग से उस ट्रक का परमिट मांगिये। परमिट मिलने के बाद ही चुनाव सामग्री भेजी जा सकती है। दस-बीस हजार की चुनाव सामग्री भेजने के लिए उससे ज्यादा खर्च कीजिए।
गरीब उम्मीदवार वालराईटिंग कर अपना चुनाव प्रचार नहीं कर सकता परन्तु तमाम समाचार पत्रों में और न्यूज चैनलों पर लगातार विज्ञापन और पेड न्यूज का सिलसिला चलता रहा। हेलीकाप्टर उड़ते रहे। चुनावों की पूर्व संध्या पर रूपये और शराब के पाउच बांटे जाते रहे। जाति और मजहब के नाम पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण के लिए रोज भाषण होते रहे। चुनाव आयोग निरीह बना देखता रहा।
चुनाव आयोग ने कुछ करोड़ रूपये और शराब से लदे कुछ ट्रकों को जब्त किया लेकिन यह पूंजीवादी दलों तथा उनके उम्मीदवारों द्वारा खर्च किए गए धन का एक प्रतिशत भी नहीं है।
चुने जाने के लिए इतना अधिक पैसा लगाने वाले उम्मीदवार और राजनीतिक दल कहीं न कहीं से तो इसकी उगाही करेंगे और यह उगाही अंततः गरीब की जेब से ही होती है।
आदर्श आचार संहिता लागू होने के बावजूद कांग्रेस, सपा, बसपा और भाजपा के नेता उसका सरेआम उल्लंघन करते रहे। चुनाव आयोग नोटिस जारी करता रहा, नेताओं की पेशी करता रहा और बिना किसी कार्यवाही के उनको छोड़ता रहा। तमाम राजनीतिज्ञों ने आचार संहिता को ठेंगा दिखाने में कोई कोताही नहीं की। एक मामले में चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति तक को चिट्ठी लिख डाली। चिट्ठी लिखने का मंतव्य क्या था, यह साफ नहीं हो सका।
चुनावों के पहले चुनाव आयोग चुनाव सुधारों की बात कर रहा था। “राईट टू रेजेक्ट” समस्या का हल नहीं है। चुनाव सुधारों के लिए अभियान चलना चाहिए और इस बात की बहस होनी चाहिए कि इन चुनावों को धनबल, बाहुबल, जाति-मजहब से कैसे छुटकारा दिलाया जा सकता है। लोकतंत्र को बचाने के लिए फौरी तौर पर इसकी जरूरत है।
- प्रदीप तिवारी

Sunday, March 4, 2012

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने की 9 मार्च को निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट में अवकाश घोषित करने की मांग

    लखनऊ 5 मार्च। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस वर्ष निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के अंतर्गत प्रदेश सरकार द्वारा जारी अवकाश की सूची में होली के लिए केवल एक दिवस 8 मार्च को अवकाश घोषित करने की निन्दा करते हुए कहा है कि प्रदेश में होली का अवकाश लम्बे समय से दो दिनों का होता रहा है। 9 मार्च को सार्वजनिक अवकाश होने के कारण सभी कार्यालय एवं बाजार बन्द रहेंगे लेकिन कोषागार, बैंक एवं इंश्योरेन्स कम्पनियों के कर्मचारियों को ड्यूटी पर उपस्थित रहना है, जो इन क्षेत्रों के कर्मचारियों के साथ अन्याय है।

    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने यहां जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में प्रदेश सरकार से 9 मार्च को होली के अवकाश को निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के अंतर्गत भी अवकाश घोषित करने की मांग की है।

Tuesday, February 28, 2012

बिना शीर्षक के कुछ बातें

उत्तर प्रदेश के चुनाव चल रहे हैं। जब तक यह अंक सुधी पाठकों तक पहुंचेगा चुनाव खत्म हो चुके होंगे और जनता परिणामों का इंतजार कर रही होगी। फिर शुरू होगा परिणामों की समीक्षा का एक दौर और सरकार बनाने के लिए सम्भवतः जोड़-तोड़ का खेल। फिर आम जनता के बीच शायद एक लम्बी खामोशी? हमें इस खामोशी को तोड़ना होगा।
अभी साल भर भी नहीं हुआ है जब मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल के लिए स्वयंभू सिविल सोसाइटी द्वारा चलाये गये आन्दोलन को चौबीसों घंटे दिखा रहा था या छाप रहा था। हमने तब भी मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये थे। इस आन्दोलन के समय जनता के मध्य गुस्सा था भ्रष्टाचार के खिलाफ और महंगाई के खिलाफ। उस गुस्से का इज़हार जनता को इस चुनाव में करना चाहिए था। यह इज़हार हुआ कि नहीं इसकी हकीकत तो 6 जून को ही पता चलेगी परन्तु मीडिया ने इन चुनावों से मुद्दों के अपहरण में जो भूमिका अदा की है, उसकी पड़ताल भी होनी ही चाहिए। सभी समाचार पत्रों एवं समाचार चैनलों पर केवल उन चार पार्टियों का प्रचार होता रहा जिन्होंने भ्रष्टाचार से कमाये गये अकूत पैसे में से कुछ सिक्के मीडिया को भी दे दिये थे। केवल इन्हीं दलों के प्रवक्ताओं को बुला-बुलाकर उन मुद्दों पर बहस की गयी जो मुद्दे चुनावों में होने ही नहीं चाहिए थे।
प्रदेश में वामपंथी दल अपने सहयोगी जनता दल (सेक्यूलर) के साथ लगभग सौ से अधिक सीटों पर चुनाव मैदान में थे। समाचार पत्रों ने इन दलों के प्रत्याशियों के प्रचार को प्रमुखता से छापने की तो बात ही न कीजिए, ‘अन्य’ और ‘संक्षेप’ में भी इन प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार को छापने की जहमत नहीं उठाई। समाचार चैनलों ने परिचर्चाओं में भाकपा नेताओं में से किसी को भी बुलाने की जहमत नहीं की।
प्रदेश के चारों प्रमुख राजनीतिक दल मुद्दों से दूर भागते रहे। ”तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार“ से चुनावी राजनीति का सफर शुरू करने वाली बसपा ”ब्राम्हण शंख बजायेगा, हाथी बढ़ता जायेगा“ और ”चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर“ के बरास्ते इस चुनाव में ”चढ़ विपक्ष की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर“ आ गयी। भाजपा ने राम मंदिर बनाने का मुद्दा फिर चुनाव घोषणापत्र में शामिल कर लिया। समाजवादी पार्टी का पूरा चुनाव अभियान मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण के इर्द गिर्द घूमता रहा। कांग्रेस सोनिया, राहुल और प्रियंका रोड शो करते रहे, सलमान खुर्शीद और बेनी बाबू मुसलमानों के आरक्षण का राग छेड़ते रहे। बहुत दिनों के बाद वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवार बड़ी संख्या में चुनाव मैदान में थे। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में जनता के मुद्दों को उठाया।
पिछले चुनावों की तुलना में जनता ज्यादा तादात में मतदान केंद्रों तक गयी, यह अच्छी बात है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बढ़े मतदान प्रतिशत की हकीकत क्या है। जनता ने चुनाव सुधारों के नाम पर ”राईट टू रिजेक्ट“ की हवा ही निकाल दी। बहुत कम मात्रा में चुनाव आयोग के इस हथियार का इस्तेमाल जनता ने किया। यह दोनों बातें लोकतंत्र के मजबूत होने का संकेत हैं।
- प्रदीप तिवारी

हमे जरूरत है चुनाव सुधारों की

उम्मीदवाद को अस्वीकार करने (राईट टु रिजेक्ट) का चुनाव आयोग द्वारा जो सुझााव दिया गया है उस पर विचार करते हुए उसका संदर्भ महत्वपूर्ण हो जाता है। उनका सुझाव असल में कुछ अस्पष्ट सा है। उसके निहितार्थ स्पष्ट नहीं है। किसी चुनाव क्षेत्र में निर्वाचन आयोग जनता से क्या अपेक्षा करता है- वह क,ख,ग या सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दे? यदि मतदाताओं का कुछ प्रतिशत हिस्सा अस्वीकार करने के लिए कहे तो उस प्रतिशत को 50 से अधिक होना चाहिए। उसके बाद भी, मान लें यदि 49 प्रतिशत ने अस्वीकार करने के अपने विकल्प का प्रयोग नहीं किया तो यह एक मुद्दा बन जाता है जिस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
इसमें एक खतरा यह भी है कि चुनाव के बहिष्कार की बात भी बन सकती है। इससे लोकतंत्र को मजबूत करने के लक्ष्य के बजाय, एक विपरीत नतीजा निकल सकता है जो एक अराजकता की दिशा में ले जा सकता है। चुनाव आयोग द्वारा एक तदर्थ किस्म का सुझाव है।
इसके बजाय, समय आ गया है कि देश व्यापक चुनाव सुधारों पर विचार करे। वर्तमान “फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” (जिसे सबसे अधिक मत पड़े उसे जीता हुआ मानने) का तरीका संतृप्ति के स्तर पर पहुंच गया है। यह हमारे जैसे लोकतंत्र में एक हद से आगे सफल नहीं हो सकता। एक संभव तरीका समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली का हो सकता है। इस संबंध में हम अन्य देशों से भी सीख सकते हैं और सबसे बड़े लोकतंत्र में दूसरों से सीखने में कोई हानि नहीं।
“फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” की प्रणाली अब वास्तविकता को नहीं प्रतिबिंबित करती। उदाहरणार्थ, हाल के पंजाब में विधानसभा के चुनाव को लें जहां भारी मतदान हुआ। रिर्पोट थी कि 70 प्रतिशत के लगभग मतदान हुआ। पर काफी संभावना है कि ऐसे उम्मीदवार भी जीतेंगे जिन्हें लगभग 20 प्रतिशत मत ही मिले होंगे। यह हमारी व्यवस्था में एक अंतर्निहित कमजोरी है जिसे समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली दूर कर सकती है। सभी पार्टियों को समान अवसर मिलना चाहिए। यह तब ही संभव है जब सरकार सभी पार्टियों के चुनाव के खर्च अपने ऊपर लेने के लिए राजी हो। जब एनडीए सत्ता में थी तो इन्द्रजीत सेन गुप्ता के नेतृत्व में इस मुद्दे पर विचार करने के लिए एक समिति बनी थी, डा. मनमोहन सिंह भी उस समिति में थे। समिति ने स्टेट फंडिंग (चुनाव का खर्च सरकार करे) की सिफारिश की थी। चुनाव आयोग स्वयं इस संबंध में कोई फैसले नहीं ले सकता है। वह एक स्वतंत्र निकाय है पर उसे भी अपनी शक्तियां संविधान से मिली हैं।
भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। चुनाव ही इसके अकेले स्रोत नहीं है। यह मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर करता है, जब तक उसे न बदला जाये, भ्रष्टाचार जारी रहेगा।
- डी. राजा

Sunday, February 26, 2012

भविष्य के संघर्षों के लिए मार्गदर्शन करेगी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 21वीं कांग्रेस

    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस सामान्यतः हर तीसरे साल की जाती है। पार्टी कांग्रेस भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च निकाय है।
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 21वीं कांग्रेेस का आयोजन 27 से 31 मार्च 2012 तक पटना में किया जा रहा है। पार्टी कांग्रेस राष्ट्रीय परिषद द्वारा प्रस्तुत राजनैतिक और संगठनात्मक रिपोर्टों पर विचार-विमर्श करेगी, तदनुसार कार्य करेगी; पिछली अवधि में पार्टी के कामकाज की समीक्षा करेगी और वर्तमान स्थिति में पार्टी की कार्यनीतिक लाईन और नीति को तय करेगी।
    राजनैतिक प्रस्ताव और उसके साथ पेश की जाने वाली रिपोर्टें कांग्रेस के समक्ष बुनियादी दस्तावेज होंगे जिनमें उस कार्यनीतिक लाईन और नीति को शामिल किया गया है जिन पर पार्टी वर्तमान अवधि में अनुसरण करेगी। सभी राज्यो की समूची सदस्यता और पार्टी शाखाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग एक हजार डेलीगेट, वैकल्पिक डेलीगेट और पर्यवेक्षक कांग्रेस में भाग लेंगे और इन दस्तावेजों के आधार पर पार्टी कांग्रेस के इन पांच दिनों के दौरान विचार-विमर्श करेंगे।
    पार्टी संविधान के अनुसार, राजनीतिक प्रस्ताव के प्रारूप को पार्टी कांग्रेस के शुरु होने से दो महीने पहले प्रसारित किया जाता है। न केवल कांग्रेस के डेलीगेटों बल्कि पार्टी के सभी सदस्यों को राजनीतिक प्रस्ताव के प्रारूप पर अपने संशोधन एवं सुझाव भेजने का अधिकार है।
    राष्ट्रीय परिषद की 4 से 6 जनवरी 2012 तक हैदराबाद में सम्पन्न मीटिंग ने इस प्रारूप को अंतिम रूप दिया और प्रेस को जारी किया। पार्टी के जो भी लोग इस दस्तावेज को ध्यान से पढ़ना चाहते हैं इसके बारे में उनके सुझावों और आलोचना का स्वागत है और जब डेलीगेट सेशन में इन दस्तावेजों पर विचार-विमर्श किया जायेगा तो उनके विचारों पर समुचित ध्यान दिया जायेगा।
    यह कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक पार्टी लोकतंत्र का सबूत है, पंूजीवादी पार्टियों से इतर, जहां नेताओं द्वारा पूर्णाधिवेशन में दिये गये सुझावों को उन पार्टियों के वर्तमान नीतिगत बयान माल लिया जाता है।
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में देश को आगे ले जाने के लिए पार्टी की नीति, उसकी रणनीति और कार्यनीति को तय करने में उसकी सभी इकाईयों को हर स्तर के नेतृत्व की सामूहिक समझ शामिल रहती है।
    आज देश की स्थिति की गंभीरता एवं जटिलता और आगे बढ़ने का रास्ता तलाश करने के लिए आम लोगों की गहरी उद्धिनता और जबर्दस्त ललक इस गहन एवं सामूहिक प्रयास की अपेक्षा करती है।
    जैसा कि राजनीतिक प्रस्ताव की प्रस्तावना में ही कहा गया है:
    ‘‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 21वीं कांग्रेस एक ऐसे समय हो रही है जब देश अपने एक गंभीरतम संकट का सामना कर रहा है, अर्थव्यवस्था एक गंभीर गिरावट का शिकार हो रही है, मुद्रास्फीति आसमान छू रही है, निवेश कम हो रहा है, औद्योगिक उत्पादन में इतनी गिरावट आ रही है, जितनी पहले कभी नहीं आयी, कृषि विकास ह्वासोन्मुख है, रुपये का विनिमय मूल्य निम्नतम स्तर पर है, मेहनतकश लोगों की आमदनी पर जबर्दस्त हमला हो रहा है, अतिरिक्त रोजगार सृजन घटता जा रहा है, गरीबी बढ़कर नयी ऊंचाईयां छू रही है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, यहां तक कि किसान अपनी फसलों को जला रहे हैं। भारत का यह आर्थिक संकट दो वर्षों में दूसरी बार भूमंडलीय मंदी के एक अन्य दौर-दौरे की पृष्ठभूमिम में जारी है। जनता अभूतपूर्व कठिनाईयों की शिकार हैै।
    ‘‘भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की एक के बाद दूसरी रिपोर्ट में दोषी ठहरायी गयी यह दागदार सरकार कुछ भी नहीं कर रही है और आम आदमी की अभूतपूर्व तकलीफों के प्रति पूरी तरह असंवेदनशील है। वह केवल नवउदारवादी नीतियों के लिए पथ प्रशस्त करने में लगी है। यह सरकार आर्थिक संकट को अधिकाधिक संकटपूर्ण बनाते हुए और बेईमान तरीकोें के जरिये सत्ता में बने रहने की कोशिश करते हुए अपने तथाकथित आर्थिक सुधार कार्यक्रम के लिए संसद का अनुमोदन हासिल करने के लिए अक्सर भाजपा से साठगांठ करती रहती है।
    कोई भी याद कर सकता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीपति वर्ग और देश-विदेश में उसके पीछे चलने वाले लोगों ने दावा कर दिया था कि यह इतिहास का अंत है और उन्होंने नव-उदारवाद को विकास के एकमात्र रास्ते के रूप में प्रोजेक्ट किया। उन्होंने जोर देकर कहा कोई अन्य विकल्प है ही नहीं (देयर इज जो आल्टरनेटिव-टिना)। उन्होंने घोषणा कर डाली, मार्क्सवाद मर गया है और समाजवाद विफल हो गया है। वह जो कुछ लिख रहे थे उसकी रोशनाई भी सूखी न थी और वे विजयोत्सव के तौर पर जो शोर मचा रहे थे उसकी आवाज अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि दुनिया एक गहरे और लंबे आर्थिक, वित्तीय एंव मौद्रिक संकट में फंस गयी। इस संकट ने किसी एक देश को नहीं बल्कि विकसित विश्व के सभी देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।
    राजनीतिक प्रस्ताव के प्रारूप में इस संकट के बारे में, और मेहनतकश लोगों के कंधों पर इसका बोध डालकर पूंजीपति वर्ग जिस तरह इस संकट से पार पाने की कोशिश कर रहा है उसके बारे में सुस्पष्ट, तीक्ष्ण पर सारगर्भित विवेचना की गयी है।
    पर जनता पूंजीवाद के हमले को सिर झुकाकर स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जनता इस हमले के विरुद्ध कार्रवाईयों पर उतर रही है। यूरोपीय संघ में, ग्रीस, पुर्तगाल और इटली में लाखों लोग इसके विरुद्ध सड़कों पर उतरे हैं। अमरीका तक में भी ‘‘आक्युपाई वाल स्ट्रीट’’ (वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो) नामक आंदोलन में शामिल लोग पिछले कई महीनों से पूंजीवाद के सबसे बड़े किले पर चढ़ाई कर रहे हैं। वे उस बढ़ती बेरोजगारी और भयानक आर्थिक असमानता के विरुद्ध आवाज बुलंद कर रहे हैं जो पंूजीवादी विश्व के हालात का विशेष लक्षण है। वे इसे ‘‘99 प्रतिशत के संघर्ष’’ का नाम देते हैं।
    यूपीए-दो द्वारा सब कुछ ठीक-ठाक बताने की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत भी इस संकट का सामना कर रहा है। नवउदारवाद ने और कार्पोरेट इजारेदारों, ऊंचे पदों पर बैठे नौकरशाहों और शासक पार्टियों के अत्यंत ओछे राजनीतिज्ञों के बीच जो सांठगांठ कायम करता है उसने भ्रष्टाचार को आसमान की ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया है। देश के प्रशासन के हर स्तर पर भ्रष्टाचार है। आम जनता भ्रष्टाचार से हददर्जा पीड़ित और दुखी है। नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों और सर्वव्यापक भ्रष्टाचार ने देश के आम लोगों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध सड़कों पर उतार दिया है।
द    वास्तव में, देश के ज्यादातर हिस्सों की जनता के विभ्न्नि तबकें सरकार की नीतियों के चलते उन पर लाद दी गयी मुसीबतों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
द    वामपंथी एवं जनवादी पार्टियों द्वारा महंगाई के खिलाफ चलाये जा रहे निरंतर आंदोलनों और संघर्षों का असर भैंस के आगे बीन बजाने की तरह हो रहा है। और मानो उन्हें चिढ़ने के लिए तथा इजारेदारों की मदद करने के लिए, सरकार एक के बाद एक ऐसे कदम उठा रही है जो मुद्रास्फीति और महंगाई की आग में घी का काम कर रही है।
द    कई राज्यों में, राज्यों और केंद्र सरकारों द्वारा औद्योगीकरण के लिए, एसईजेड स्थापित करने के लिए, अथवा एक या दूसरे प्रोजेक्ट के नाम पर बड़े पैमाने पर जमीन हथियाने की चालों का किसान जबर्दस्त विरोध कर रहे हैं। हजारों एकड़ जमीन गैर-कृषि उद्देश्यों की भेंट चढ़ गयी है। इनमें से ज्यादातर भू-माफिया या बिल्डर माफियाओं तथा रीयल इस्टेट सट्टेबाजों द्वारा हथिया ली गयी है। इससे लाखों गरीब किसानों, खेत मजदूरों और अपनी आजीविका के लिए भूमि पर निर्भर अन्य लोगों के विस्थापित होने के अलावा और इन्हें पुनः बसाने और पुनः स्थापित करने की कोई उम्मीद भी नहीं है-इससे जरूरी खाद्य उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इससे देश पूरी तरह खाद्यान्नों का आयातक बनता जा रहा है। उपनिवेशी दौर के भूमि अधिग्रहण कानून 1884 की जगह एक न्यायपूर्ण और किसान समर्थक भूमि अधिग्रहण कानून लाने का काम आज तक सपना ही बना हुआ है।
द    सरकार की खाद्य सुरक्षा कानून लाने की बातें एक मजाक बन कर रह गयी हैं। इससे लाभ पाने वाले लोगों की श्रेणियों और संख्या के मामले में मनमानेपन से तथा प्रत्येक श्रेणी को दिये जाने वाले सब्सिडी अनाज की मात्रा में मनमानेपन से वास्तव में वे लोग इससे वंचित हो जायेंगे जो कुछ राज्यों में जैसे (केरल, तमिलनाडु में) पहले से बहुत अधिक सब्सिडी पर (अथवा मुफ्त तक) राशन पर रहे हैं।
    जनता के आम सरोकारों के मुद्दों पर तथा अपने जनवादी एवं दशकों पुराने ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमलों के खिलाफ फैक्टरी, आफिसरों और सेवा क्षेत्र के कर्मचारी और मजदूर स्त्री-पुरुष, संगठित एवं असंगठित लाखों लोग दो वर्ष से धिक समय से आंदोलन एवं संघर्ष की राह पर हैं।
    प्रसंगवश, ‘बदलाव’ के नारे के साथ पं.बंगाल में सत्ता में आने वाली ममता बनर्जी सरकार ने अभी हाल ही में बड़ी ढिठाई से यह घोषणा की है कि वह सरकारी दफ्तरों में न तो कर्मचारियों के संगठनों की इजाजत देगी और न ही उन्हें आंदोलन करने देगी।
    मजदूर और कर्मचारी ट्रेड यूनियन आंदोलन के 150 वर्षों से अधिक समय से इस तरह के दमन का सामना करते आ रहे हैं और वे ऐसी धमकियों से चुप बैठने वाले नहीं। केंद्रीय ट्रेड यूनियन संगठनों और औद्योगिक फेडरेशनों ने सरकार की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ 28 फरवरी को संयुक्त रूप से देशव्यापी हड़ताल का आह्वान दिया है। निस्संदेह इस हड़ताल से अन्य तबकों के आंदोलनों को भी जबर्दस्त प्रेरणा मिलेगी।
द    यूपीए सरकार ने देश के खुदरा व्यापारियों को भी नहीं बख्शा है। अमरीका और वालमार्ट जैसे बड़े बहुराष्ट्रीय खुदरा व्यापारियों के दबाव के आगे घुटने टेकते हुए उसने रिटेल कारोबार में एफडीआई की घोषणा की। भारत में रिटेल श्रंृखला की पहुंच केवल सभी शहरों और नगरों तक ही नहीं है बल्कि सभी गांवों और देश के सभी कोनों में हैं। तकरीबन 4.5 करोड़ लोग रिटेल के काम में लगे हैं जो उनके परिवारों के साथ हमारी जनता के लगभग  14-15 करोड़ लोगों को आजीविका प्रदान करते हैं। सरकार का यह कदम उनमें से अधिकांश को आजीविका से वंचित कर देगा जबकि इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अत्याधिक मुनाफे के दरवाजे खोल देगा। पहली बार ऐसे करोड़ों रिटेल कारोबारियों ने भी 1 दिसंबर 2011 को विरोध के लिए हड़ताल का सहारा लिया। वामपंथी और अन्य पार्टियों तथा यूपीए के सहयोगियों के विरोध के चलते तथा हड़ताल की इस कार्रवाई के चलते सरकार को इस कदम को फिलहाल टालने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन यह केवल अस्थायी राहत है, क्योंकि सरकार ने बाद में किसी अवसर पर एफडीआई लाने की अपनी मंशा की दृढ़ता से घोषणा की है। इससे संघर्ष का एक और मोर्चा ही खुला है।
द    आमतौर पर अपने को किसी भी जन आंदोलन से दूर रखने वाले मध्य वर्ग के तबके भी भ्रष्टाचार को खत्म करने की  मांग के साथ सरकार के खिलाफ खुले आंदोलन में खिंच आये गये हैं। भ्रष्टाचार देश के राष्ट्रीय संसाधनों को सोख ले रहा है, सरकार बड़ी संख्या के लोगों की जेबों को काटकर मुट्ठीभर लोगों की जेबें भर रही है और चौतरफा विकास में बाधा खड़ी कर रही है। भाकपा और वामपंथी पार्टियां लगातार भ्रष्टाचार से पर्दा हटाती रही हैं ओर इसके खिलाफ लड़ती रही हैं। वे इस बुराई को दूर करने के लिए एक मजबूत व कारगर लोकपाल कानून के साथ ही सभी आवश्यक कदमों की मांग कर रही हैं।
द    हम छात्रों के अच्छी शिक्षा के अधिकार के लिए, युवाओं के रोजगार के लिए और महिलाओं के लिंग समानता और सशक्तीकरण के लिए आंदोलनों को भी देख रहे हैं।
    राजनीतिक प्रस्ताव सामाजिक न्याय की जरूरत पर जोर देता है जिससे अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक और अन्य वंचित तबके शेष जनता की बराबरी का दर्जा हासिल कर सकंेगे। केवल इसी के जरिये वास्तविक समावेशी (इंकलूसिव) विकास और चौतरफा प्रगति सुनिश्चित हो सकती है।
    यह प्रस्ताव क्षेत्रीय पार्टियों, उनकी सकारात्मक एवं नकारात्मक विशेषताओं पर विशेष ध्यान देता है तथा आने वाली अवधि में सामाजिक बदलाव लाने के लिए व्यापक जनवादी एकता का निर्माण करने में उनकी भूमिका के महत्व पर जोर देता है।
    राजनीतिक प्रस्ताव इन सभी उभरते संघर्षों और जन आंदोलनों की ओर ध्यान आकर्षित करता है और सत्ता पर काबिज पंूजीपतियों और अर्द्ध-सामंती भूस्वामियों के खिलाफ इन सभी स्वतःस्फूर्त आंदोलनों और संगठित आंदोलनों के बीच समन्वय बनाने एवं उनसे संपर्क साधने की जरूरत को रेखांकित करता है। सही दिशा और स्पष्ट लक्ष्य और सकारात्मक दिशा के अभाव में बहुत-से संघर्ष और आंदोलन गतिरोध और अवरोध का शिकार हो गये हैं फिर चाहे वे कितने भी व्यापक और जुझारू हों।
    इसलिए जरूरत है एक सजग, सक्रिय और मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी की जो वास्तविक हालात की ठोस वास्तविक सच्चाई के अनुरूप मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक एवं क्रांतिकारी विचारधारा से लैस हो, जरूरत है एक ऐसी पार्टी की जिसका आम जनता से घनिष्ठ संपर्क हो। प्रस्येक वर्ग और जन संगठन में कम्युनिस्टों को ऐसे संघर्षों के जरिये मजदूर-किसान सहमेल का निर्माण करने और जनता के बाकी सभी संघर्षशील तबकों को उनके इर्द-गिर्द लामबंद करने के लिए कड़े प्रयास करने होंगे। उन्हें सत्ता में बने रहने के लिए दो पार्टियों की पूंजीवादी व्यवस्था थोपने के सभी प्रयासों का विरोध करना होगा।
    प्रस्ताव प्रमुख राजीनीतिक एवं सांगठनिक कार्यभार के रूप में भाकपा को मजबूत बनाने का आह्वान करता है। इससे वामपंथी एवं जनवादी एकता को व्यापक बनाने में, सभी जनतांत्रिक शक्तियो की व्यापकतम एकता कायम करने में तथा जनवादी क्रांति के कार्यभार को पूरा करने के लिए नेतृत्व में एक नया वर्ग समीकरण लाने में क्रांतिकारी रूपांतरण में सहायता मिलेगी।
    राजनीतिक प्रस्ताव के अंत में कहा गया है: ‘‘हमारा रास्ता मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रास्ता है जो हमारे आंदोलन के अनुभव के आधार पर हमारी अपनी स्थितियों पर लागू किया गया हो।’’
    ‘‘हमारा लक्ष्य समाजवाद बना हुआ है जो हमारे इतिहास से और हमारी विशिष्ट विशेषताओं के साथ विकसित है। पंूजीवाद का अंत तय है। समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है।’’
- ए.बी. बर्धन

Saturday, February 18, 2012

CPI SHALL PERFORM BETTER IN UTTAR PRADESH THAN PROJECTED BY MEDIA

PERFORMANCE OF COMMUNIST PARTY OF INDIA IN UTTAR PRADESH ASSEMBLY ELECTIONS

 
GENERAL ELECTION YEAR SEATS CONTESTED WON VOTES POLLED %AGE OF VOTES IN STATE %AGE VOTES AT CONTESTED SEATS
1951 43 0 155869 0.93 7.21
1957 90 9 840348 3.83 16.52
1962 147 14 905696 5.08 14.86
1967 96 13 692942 3.23 14.87
1969 106 4 715092 3.05 12.01
1974 40 16 672881 2.45 25.57
1977 29 9 611450 2.57 34.91
1980 155 7 917773 3.55 9.75
1985 161 6 894620 3.04 8.1
1989 68 6 606885 1.56 9.6
1991 44 4 388853 1.04 9.96
1993 37 3 321617 0.64 7.5
1996 15 1 327231 0.59 18.99
2002 5 0 69548 0.13 10.07
2007 21 0 48226 0.09 1.78

Monday, February 13, 2012

गला घोंटा जा रहा है अरब वसंत का

कई प. एशिया और उत्तरी अफ्रीकी देशों में अरब वसंत की शुरूआत की पहली वर्षगांठ के साथ यह साफ है कि अमरीकी साम्राज्यवादी इस क्षेत्र पर अपना दबदबा बनाने के लिये ही नही बल्कि उत्तर एवं पश्चिमी अफ्रीका के बाकी देशों पर भी अपना प्रभुत्व कायम करने के लिये भी इस अरब संत का गला घोंटने पर उतारू हैं। इन क्षेत्रों के अधिकांश देशों में अशांति के लिये सीधे-सीधे अमरीकी जिम्मेदार हैं या फिर अपने गुर्गों को बचा रहे हैं या जनवादी आंदोलनों की सहायता करने की आड़ में अपने हाथ की नयी कठपुतलियों को वहाँ सत्ता में बिठा रहे हैं।
 25 जनवरी को सैकड़ों हजारों लोग मिस्र की राजधानी कैरो के तहरीर चौक पर तथा अलैक्जेंडरिया सहित अन्य शहरों की सड़कों पर जमा हो गये। वे होसनी मुबारक के आतंक के खिलाफ विद्रोह की पहली वर्षगांठ मना रहे थे। होसनी मुबारक को केवल 18 दिन के जन विद्रोह के बाद सत्ता च्युत कर दिया गया था और अब उनके विरूद्ध अत्याचारों के कई मामलों पर और तीन दशकों के कुशासन के लिये कई मुकद्दमें चलाये जा रहे हैं।
 तहरीर चौक पर जमा भीड़ मोटा-मोटी नागरिकों पर सेना के नियंत्रण की फौरी खात्मे की मांग करने वाले युवकों और संसद में व्यापक सफलता पाने वाले राजनीतिक रूपांतरण का जश्न मना रहे इस्लामवादियों के बीच विभाजित थी। मुस्लिम ब्रदरहुड (अखवानुल मुसलमीन) ने, जो लगभग पूरी 20वीं शताब्दी में गैरकानूनी करार रहे, फ्रीडम एंड जस्टिस पार्टी (एफजेपी) के नाम से एक नयी राजनीतिक पार्टी गठित की और हाल में हुए चुनावों में वह अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और अब वह इस्लाम के समर्थक एक अन्य धार्मिक संगठन सलाफिस्ट के साथ बहुमत में है। सलाफिस्ट इस्लाम ने भी उन लोगों का साथ देने की कोशिश की जो कहते हैं कि क्रांति अभी खत्म नहीं हुई हैं। लेकिन व्यापक जमावड़े के बहुमत  ने उन्हें अलग-थलग कर दिया। जिस समय मुख्य तहरीर चौक पर उन नौजवानों का कब्जा था जिन्हें लगता था कि इसका जश्न मनाने वाले लोगों से क्रांति के साथ धोखा दिया, उस समय एफजेपी के समर्थकों को तहरीर चौक के बाहर एक कोने में धकेल दिया गया। मुबारक के सत्ता से बाहर होने के बाद से देश पर शासन कर रही सर्वोच्च सेना परिषद (एससीएएफ) पर तानाशाह हुकूमत की नीतियों को चलाने का आरोप लगाया जा रहा है। नौजवानों ने ट्रैफिक केंद्रो पर कई शिविर भी लगाये हैं और वे कह रहे हैं कि जब तक सशस्त्र सेनाएं सत्ता को संक्रमणकालीन नागरिक सरकार को नहीं सौंपती उनका धरना जारी रहेगा।
 हालांकि एससीएएफ बार-बार यह आश्वासन देती है कि वह फरवरी के तीसरे हफ्ते में राष्ट्रपति के चुनाव संपन्न हो जाने पर सत्ता नागरिक सरकार के हाथों में सौंप देगी, लेकिन युवा पीढ़ी उन पर यकीन करने को तैयार नहीं। दरअसल, यह आम आशंका है कि अमरीकी विदेशी मंत्री हिलेरी क्लिंटन कठपुतली शासन को जारी रखने के लिये सेना और एफजेपी के बीच सौदा कराने में कामयाब हो गयी हैं।
 लोगों को आशंका है कि अखवानुल मुसलमीन को जहां सरकार का गठन करने दिया जायेगा, वहीं असली ताकत राष्ट्रपति के हाथों में बनी रहेगी जिसे सशस्त्र सेना मनोनीत करेगी। स्वाभाविक है कि इस बात से मुबारक के आतंकवादी शासन के खिलाफ लड़ने वाली युवा पीढ़ी हताश है। मीडिया के मुख्य समाचारों में लोगों की यह भावना प्रतिबंबित हो रही है। अधिकांश समाचार पत्रों ने सड़कों पर जनतांत्रिक परिवर्तनों की मांग करते हुए व्यापक जनगण के सड़कों पर उतरने के बाद क्रांति के पुनः उठ खड़े होने की प्रशंसा की। दैनिक अल-शोरोक ने मुख्य शीर्षक ‘क्रांति जारी है’ के अंतर्गत कहा कि लाखों मिस्रवासी ‘‘सैन्य शासन का अंत’’ देखना चाहते हैं और सरकारी दैनिक अल-अहराम तक ने घोषणा की कि ‘‘लोग चाहते हैं कि क्रांति जारी रहे’’। तहरीर चौक पर व्यापक जमा होती भीड़ के एक बड़े चित्र के साथ उसने यह शीर्षक छापा।
 तहरीर चौक के एक कोने में धकेल दिये गये इस्लामीवाद जहां जनवाद की प्रशंसा में नारे लगा रहे थे वहीं, मुख्य भीड़ एससीएएफ के खिलाफ नारे बुलंद कर रही थी और उस पर प्रति क्रांति को चलाने का आरोप लगा रही थी। दोनों ओर ही जनवादी अधिकारों की गूंज थी, वहीं नौजवान रोटी, रोजगार और आर्थिक न्याय की मांग पर ज्यादा जोर दे रहे थे। स्वाभाविक रूप से, दृष्टिकोण में इस अंतर का परिणाम दोनों पक्षों के बीच झड़प था। अगले दिन शुक्रवार (27 जनवरी) को यही देखा गया और वहां उनके बीच झड़प हो गयी।
 शुक्रवार की नमाज के बाद विभिन्न मस्जिदों से हजारों लोग तहरीर चौक की ओर चल पड़े ताकि 25 जनवरी से वहां धरने पर बैठे लोगों के साथ शामिल हो सकें। नमाज के दौरान उनके मुल्लाओ ने अपनी तकरीर में कहा था कि ‘‘क्रांति ने अपने सभी लक्ष्य हासिल नहीं किये हैं’’ और सशस्त्र बल अरब वसंत का गला घोंट रहे हैं। जुम्मे की नमाज के बाद आने वालों में हजारों महिलाएं भी शामिल हो गयीं और वे चाहती थीं कि इस्लामवादी तहरीर चौक के आस-पास की जगह खाली कर दें जिससे टकराव भड़क उठा। यह कुछ हद तक तब शांत हुआ जब एफजेपी वालंटियरों ने अपने अनुयायियों से पीछे हट जाने को कहा क्योंकि लाखों प्रदर्शनकारी आम तौर पर सशस्त्र सेनाओं के खिलाफ थे और एफजेपी को उसी थैली का चट्टा-बट्टा माना जाता है।
 हालांकि अभी तक ऐसी कोई भी संगठित राजनीतिक शक्ति नहीं उभरी है जो जनवादी शक्तियों के साथ असली वर्ग संघर्ष का नेतृत्व करने में सक्षम हों, फिर भी नौजवान ऐसी क्रांति करने पर आमादा लगते हैं जिसके मुख्य नारे रोजगार एवं भोजन जैसे आर्थिक मुद्दों से ज्यादा जुड़ते जा रहे हैं।
 दूसरे देशों में भी स्थिति ऐसी ही लगती है। लीबिया में, जहां नाटों के क्रूर हमले के जरिये तानाशाह मोआमर गद्दाफी की सत्ता को पश्चिमी ताकतों ने उखाड़ फेंका था, पर त्रिपोली में सत्ता में बैठायी गई कठपुतली सरकार अब भी पूरे देश पर नियंत्रण की स्थिति में नहीं है। उसकी सत्ता राष्ट्रीय राजधानी और कुछ ऐसे स्थानों तक सीमित हैं जहां तेल के कुएं हैं। सबसे ज्यादा आबादी वाला खलीद शहर अब भी गद्दाफी के वफादारों के नियंत्रण में है।
 लेकिन अरब जगत के संबंध में सबसे ज्यादा चिढ़ पैदा करने वाला मुद्दा यह है कि सत्ताच्युत और निर्मम तरीके से मार डाले गये तानाशाह के कथित समर्थक स्त्री-पुरूषों को यातनाएं देना जारी है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव-अधिकार से जुडे़ अधिकारियों ने भी नागरिकों के विरूद्ध बढ़ती हिंसा पर चिंता व्यक्त की है। वहां 60 नजरबंदी केंद्र हैं जिनमें 8000 से अधिक नागरिकों को लगातार यातनाएं दी जा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार उच्च आयुक्त नयी पिलये ने कहा है कि गद्दाफी शासन से लड़ने के लिये यूरोप के विभिन्न देशों से मंगाये गये अलग-अलग भूतपूर्व विद्रोही ग्रुपों ने देश भर के सैकड़ों से अधिक नजरबंद कैंपो में हजारों नागरिकों को कैद कर रखा है। उन्होंने प्रेस को बताया कि वहां यातनाएं जारी हैं, अदालतों के फैसलों के बिना ही लोग फांसी पर लटकाये जा रहे हैं, स्त्री-पुरूष दोनों से बलात्कार हो रहा है।’’ पिलये ने कहा कि उन्हें उप-सहारा अफ्रीकी कैदियों की विशेष चिंता है जिन्हें ब्रिगेड अपने आप ही भूतपूर्व तानाशाह गद्दाफी के लिये लड़ने वाला मान लेते हैं।
 अरब टाइम्स के अनुसार, ऐड गु्रप डाक्टर्स विदाउट बोर्डर्स ने लीबिया की मिस्रेट सिटी की जेल में 26 जनवरी को अपना काम बंद कर दिया क्योंकि उन्होने कहा कि वहां इतनी अधिक यंत्रणाएं दी जाती हैं कि कुछ कैदियों को इलाज के लिये केवल इसलिय लाया जाता है ताकि उन्हें आगे की पूछताछ के लायक बनाया जा सकें।  लीबिया में फौजी अराजकता का एक और नतीजा है नाइजीरिया व चाड जैसे उन अन्य अफ्रीकी देशो में हथियारों की तस्करी जहाँ अल-कायदा से जुडे़ धार्मिक कट्टरपंथी मौजूदा शासकों को सत्ता से हटाने में लगे हैं। संयोगवश, यह अमरीका और उसके नाटो सहयोगियों के लिये किसी चिंता का कारण नहीं है क्योंकि उनकी दिलचस्पी तो केवल समूचे क्षेत्र में अपने लिये तेल संसाधनों को बचाने में है।
 एक और ज्वलत बिंदु है यमन जहां का तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह अपने परिवार के साथ न्यू-यार्क भाग गया है। लेकिन देश में आज भी उथल-पुथल मची है। हालांकि आधिकारिक रूप से, यह दावा किया जाता है कि सालेह इलाज के लिये बाहर गया है, लेकिन यह निश्चित है कि वह सऊदी अरब की अगुवाई वाले खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) में नहीं लौटेगा। लेकिन उनके हाथ की दूसरी कठपुतली, सालेह का डिप्टी आवेद राब्वो मंसूर हदी का 24 फरवरी को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के नाटक में सरकार का मुखिया बनना तय है। लेकिन सत्तारूढ़ गुट की सत्ता राजधानी सेना तक सीमित है। सेना के अधिकांश कर्मी और कबीलाई मुखिया उन विद्रोही बलों का हिस्सा बन गये हैं जिनका दक्षिण के ज्यादातर क्षेत्रों पर नियंत्रण है। निश्चय ही सऊदी अरब वालों के लिये यही मुख्य चिंता का विषय होगा क्योंकि इसकी सीमा उनके तेल वाले समृद्ध इलाकों पर पड़ती है। प्रसंगवश, सऊदी अरब का यह तेल समृद्ध इलाका भी पिछले दस महीनों से विरोध प्रदर्शनों का केंद्र रहा है। सऊदी अरब के शासक इस विरोध के लिये ईरान को दोषी ठहराते हैं क्योंकि इस इलाके में शिया मुसलमान बसते हैं।
 दरअसल, जीसीसी के अधिकांश कठपुतली शासनों के लिये ईरान की सच्चाई इतनी खतरनाक है कि वे अपनी आम जनता की साम्प्रदायिक सम्बद्धता के परे कुछ भी देखने को तैयार नहीं। बहरीन जीसीसी देशों में से एक ऐसा देश है जहां ट्यूनीशिया और मिस्र के जनवादी उभार के साथ व्यापक विद्रोह देखने को मिला। आबादी का व्यापक बहुमत शिया है और शासक अल-खलीफा, सुन्नी सम्प्रदाय से हैं। वहां की जनता विद्रोह में उठ खड़ी हुई और दो से अधिक सप्ताह तक पूरे देश को ठप्प कर दिया। जन-उभार का समर्थन करने की बजाय, अमरीका की सरपरस्ती में जीसीसी ने जन-विद्रोह को कुचलने के लिये सशस्त्र सेना भेज दी। सशस्त्र हस्तक्षेप की इस दलील को उचित ठहराया गया कि जन-विद्रोह ईरान का खेल था। कतर और यू ए ई में भी यही चाल अपनायी गयी। वहां भी जनता ने विद्रोह कर दिया था। जीसीसी का सैनिक हस्तक्षेप बहरीन में भी जारी है और वहां लोगों को फांसी पर लटकाया जा रहा है और उन्हें उत्पीड़ित किया जा रहा है। 25 जनवरी को भी 18 वर्षीय एक युवक को विद्रोह में शामिल होने के कारण फांसी पर लटका दिया गया।
 जबकि यमन और बहरीन पर अरब लीग, बल्कि सही कहें तो जीसीसी की नजर है-वहीं सऊदी शासक अब अमरीका और नाटो ताकतों को बुलाने को तैयार है। ताकि असद हुकूमत के खिलाफ उपयुक्त विद्रोह खड़ा करने के अपने सभी प्रयासों के तहत सीरिया में सीधे हस्तक्षेप कर सकें। हालांकि बढ़ते विद्रोह और नागरिकों पर अत्याचारों की खबरें मीडिया में लगातार दी जा रही है, तथ्य यह है कि असद हुकूमत ने अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ मसलों को कमोवेश सुलझा लिया है। इससे अरब लीग इतना कुढ़ गया है कि उसने एक महीने के भीतर 165 संसदीय आब्जर्वर मिशन को वापस बुलाने की घोषण कर दी है। सऊदी शासकों ने सीरियाई राष्ट्रीय परिषद, जो विद्रोहियों का संगठन है, को मान्यता देने की अपनी मंशा की घोषणा कर दी है हालांकि यह संगठन ज्यादातर कागजों पर ही है। कारण यह है कि सीरिया के वास्तविक प्रतिनिधि हस्तक्षेप के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के पास पहुंच गये हैं। यह स्मरण किया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के एक प्रस्ताव द्वारा अमरीका और नाटो को लीबिया में हस्तक्षेप की इजाजत दी गयी थी ‘ताकि नागरिकों की रक्षा की जा सके’। इसकी आड़ में लीबिया पर पूर्ण हमला बोल दिया गया। हजारों लोग मारे गये। सीरिया पर भी ऐसे हमले की योजना बनायी जा रही हैं। सऊदी अरब को डर हैं कि असद हुकूमत अरब शासकों की बजाय ईरान के ज्यादा करीब हैं।
 (शमीम फ़ैज़ी द्वारा मध्य पूर्व से)