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Thursday, July 4, 2013

वामपंथी दल नीतियों और कार्यक्रम आधारित विकल्प के निर्माण में जुटे.


देश भर की जनता केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ पूंजीवादी दलों की सरकार द्वारा लागू की जारही नीतियों के परिणामों से खिन्न है और वह एक नये नीतिपरक सार्थक विकल्प के लिए उत्सुक है . जनता की इस बेदारी को केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल भी खूब समझ रहे हैं और वे इस जनाक्रोश को पथ विचलित करने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं . लेकिन अब यह भी प्रायः सुस्पष्ट हो गया है की जनता की चेतना में अब किसी नीति और कार्य क्रम से रहित राजनीतिक जमाबड़े के लिए कोई जगह नहीं है . यह प्रमुख संदेश है अभी १ जुलाई को दिल्ली के मावलंकर हाल में सम्पन्न देश के चारों प्रमुख वामपंथी दलों के संयुक्त राजनीतिक सम्मेलन का . भाग लेने वाले कार्य कर्ताओं का उत्साह ऐसा कि सम्मेलन हाल की गैलरी और सीढ़ियों तक में साथी ठसा-ठस भर गये और महसूस हुआ कि इस कार्यवाही के लिए निश्चय ही कोई बड़ा हाल होना चाहिये था . वरिष्ठ वामपंथी नेता और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव का ० ए ० बी ० बर्धन ने अपने समापन भाषण में जब कहा कि चर्चा तो हो गयी अब इस संदेश को जन-जन तक लेजाना है और इसे आन्दोलन के रूप में जमीन पर उतरना है तो कार्य कर्ताओं का जोश उमड़ पड़ा और मीटिंग हाल संकल्प से लबरेज जोशीले नारों से गूँज उठा . कन्वेंशन के घोषणा पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि देश की दुर्दशा का कारण पूंजीवादी विकास का वह चरित्र है जो अमीरों को फायदा और गरीबों को नुकसान पहुंचाता है . सरकार की नीतियाँ बड़े कारोबारियों , अमीरों और ताकतवरों के हितों के हिसाब से तय होती हैं . इसका नतीजा यह है कि जनता का विशाल हिस्सा अब भी गरीबी में रहता है , भूख और बेकारी का शिकार है और उसे शिक्षा , स्वास्थ्य और जीवनयापन के समुचित अवसर उपलब्ध नहीं हैं . देश की राजनीति पर पैसे की ताकत का प्रभुत्व है . सांप्रदायिक और विभाजनकारी ताकतों को खुल कर खेलने का पूरा मौका है . एक स्वतंत्र विदेश नीति और राष्ट्रीय संप्रभुता की हिफाजत के साथ बार-बार समझौते किये गये हैं . कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के शासनकाल में महंगाई की मार ने जनता के जीवन को बेहद कठिन बना दिया है और वह जरूरी चीजों खास कर खाने-पीने की वस्तुओं की लगातार बढ़ती कीमतों से त्रस्त है . किसान अपनी उपज के उचित मूल्य न मिल पाने , उनकी जरूरत की चीजें बेहद महंगी होने और विकास के नाम पर उनकी जमीनों के अधिग्रहण से परेशान हैं और तमाम किसानों ने तो आत्महत्याएं की हैं .ज्यादातर युवा लोगों के पास उचित रोजगार नहीं है . राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के एक तजा सर्वे के मुताबिक जनवरी २०१० से जनवरी २०१२ के बीच में ही बेरोजगारी १०.२ प्रतिशत की दर से बढ़ी है . पांच साल की आयु से कम के ४५ फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं . पहली कक्षा में दाखिल कुल बच्चों में से केवल १६ फीसदी ही १२ वीं तक पहुँच पाते हैं . शिक्षा का बजट घटाया जारहा है जबकि आबादी बढ रही है . पूरी शिक्षा व्यवस्था को निजी क्षेत्र का चरागाह बना दिया गया है और वह बेहद महंगी तथा आम नागरिकों की पहुँच से बाहर होती जारही है . यही हाल दवाओं और दूसरी स्वास्थ्य सुविधाओं का है . घोषणापत्र में ठीक ही कहा गया है कि एक और जनता इस जबरदस्त तंगहाली से गुजर रही है वहीं यूपीए सरकार अपने नव उदारवाद के एजेंडे पर आगे बढ रही है . उसने कारपोरेटों और बढ़े कारोबारियों को जमीन , खनिज , गैस तथा स्पेक्ट्रम जैसे प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की इजाजत दी है . जनता को दी जारही सब्सिडी ख़त्म की जा रही हैं जबकि पिछले बजट में इन अमीरों पर ५ लाख करोड़ रु . का टेक्स यूँ ही छोड़ दिया गया . विदेशी वित्तीय पूँजी को तमाम रियायतें देकर हमारे घरेलू बाज़ार को चौपट किया जारहा है . इस सबके ऊपर है वह विशालकाय भ्रष्टाचार जो जनता के गाड़े पसीने की कमाई को खुल कर हड़प रहा है . सरकार की इन्हीं नीतियों के चलते दलित , आदिवासी ,अल्पसंख्यक और महिलाएं सामाजिक अत्याचारों के शिकार हुए हैं . महिलाओं के साथ एक यौन वस्तु के तौर पर वर्ताब किया जारहा है और उनके प्रति यौन हमलों और हिंसा की वारदातों में भारी वृध्दि हुई है . उन्हें समाज में बराबरी और सम्मान का दर्जा नहीं मिल पा रहा है . दलित लगातार उत्पीडन का शिकार तो हो ही रहे हैं उनके बुनियादी हक तक उन्हें नहीं मिल पा रहे हैं .अपनी जमीन और परिवेश से विस्थापन के चलते आदिवासियों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है . मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सामाजिक-आर्थिक बदहाली को सच्चर कमेटी ने उजागर किया था जिस पर कोई सार्थक पहल की नहीं गयी है . आतंकवाद से निपटने के नाम पर अक्सर ही मुस्लिम नौजवानों को निशाना बनाया जाता है . कांग्रेसनीत सरकार ने एक ऐसी विदेशी नीति को आगे बदाय है जो भारत को अमेरिका के साथ नत्थी करना चाहती है . सीरिया में बढ़ते अमेरिकी-नाटो हस्तक्षेप के साथ भारत की गुपचुप सहमति और अमेरिकी दबाब में इरान से तेल की आपूर्ति में कटौती इसके ताजा उदहारण हैं . यूपीए सरकार द्वारा आगे बढ़ायी गयी नीतियाँ निश्चय ही जनविरोधी और जनवाद विरोधी हैं . यदि वैकल्पिक नीतियों को स्थापित किया जाना है तो कांग्रेस और यूपीए को पराजित करना ही होगा . यह इस कन्वेंशन का निश्चित अभिमत है . कन्वेंशन के घोषणापत्र की राय है कि भाजपा मौजूदा निजाम के एक कहीं ज्यादा प्रतिगामी रूप का प्रतिनिधित्व करती है . भाजपा उस घनघोर सांप्रदायिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है जो मुक्त बाजार के पूंजीवादी चरित्र को आत्मसात किये हुए है . उसके द्वारा आगामी लोक सभा चुनाव के लिये नरेंद्र मोदी को आगे बदाया गया है जो इस प्रतिक्रियावादी मिश्रण का प्रतीक हैं . मोदी का गुजरात माडल मुसलमानों के सामूहिक कत्लेआम और कार्पोरेट्स को मालामाल करने वाला है . बड़े सरमायेदारों द्वारा किया जा रहा मोदी का गुणगान गुजरात के गाँव गरीब और आदिवासियों की बदहाली को छुपा नहीं सकता . यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार पर हाय-तौबा मचा कर फायदे की उम्मीद लगाये बैठी भाजपा का खुद का दामन भी भ्रष्टाचार और घोटालों की गंदगी से अटा पड़ा है . कर्नाटक की उसकी सरकार तो खनन माफिया के हितों की रक्षक ही बन गयी थी . अवैध खनन से वहां हजारों करोड़ की लूट की गयी . आर एस एस /भाजपा की जोड़ी ने पिछले दो सालों में उत्तर प्रदेश के कई शहरों-कस्बों में सांप्रदायिक तनाव एवं हिंसा फ़ैलाने का काम किया ही और तमाम निर्दोषों के जान-माल की तबाही की है . वे अपना खूंख्वार सांप्रदायिक एजेंडा और चेहरा आगे कर वोट बटोरना चाहते हैं . कन्वेंशन की निश्चित राय हैकि कार्यक्रम और नीतियों के संबंध में भाजपा कांग्रेस की विकल्प नहीं हो सकती . दोनों ही आर्थिक नवउदारवाद के विनाशकारी तन्त्र को आगे बढाना चाहते हैं . सभी देशभक्त , धर्मनिरपेक्ष और जनवादी ताकतों का यह कर्तव्य है कि भाजपा को सत्ता से दूर , बहुत दूर रखें . देश की राजनीति में पैसे की ताकत और व्यापारिक समूहों का दबाब और प्रभुत्व लगातार बढ़ता चला जारहा है . इसे रोकना होगा . इसके लिए चुनाव सुधारों की फौरी जरूरत है . बुनियादी सुधार के तौर पर आंशिक सूची व्यवस्था के साथ समानुपातिक प्रतिनिधित्व को लागू करने की जरूरत है . इससे धनबल और बाहुबल पर बहुत हद तक रोक लगेगी . देश को और अधिक संघीय व्यवस्था की जरूरत है . केंद्र के हाथों में शक्तियों और संसाधनों का संकेन्द्रण कम किया जाना चाहिये . राज्यों की शक्तियों और अधिकारों में इजाफा करना होगा . संसाधनों के हस्तांतरण के लिए पिछड़े राज्यों को विशेष दर्जा दिया जाना चाहिये . इसके लिए केंद्र राज्य संबंधों के पुनर्गठन की आवश्यकता है . कांग्रेस नीत यूपीए और भाजपा नीत एनडीए दोनों ही अनेक किस्म के अंतर्विरोधों में फंसे हुए हैं और दोनों का ही दायरा काफी सिकुड़ा है . ऐसा इसलिए हुआ की दोनों ही दल उन नीतियों और कार्य क्रमों को आगे बडाने वाले हैं जो जनता के हित में न होकर एक छोटे से तबके का प्रतिनिधित्व करते हैं . आज की जरूरत यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों की नीतियों और उनके राजनीतिक मंचों को ख़ारिज किया जाये . देश को एक विकल्प की जरूरत है . ऐसा विकल्प केवल वैकल्पिक नीतियों के आधार पर ही उभर सकता है . एक वैकल्पिक नीति मंच होना चाहिये जिसके इर्द-गिर्द एक राजनीतिक विकल्प बनाया जा सकता है . वैकल्पिक आर्थिक नीतियां , धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की हिफाजत , संघीय ढाँचे की मजबूती और एक स्वतन्त्र विदेश नीति , ये सभी वैकल्पिक नीति मंच की विशेषताएं हैं . इसी विषयवस्तु के आधार पर एक १० सूत्रीय मांगपत्र भी घोषित किया गया है जिसे सही मायने में जन मांगपत्र कहा जाना चाहिये . घोषणापत्र के अंत में वामदलों ने सभी जनवादी ताकतों और जन संगठनों से अपील की है कि वे इस वैकल्पिक नीतियों के राजनीतिक मंच को अपना समर्थन प्रदान करें . वामदलों ने संकल्प लिया कि वे इस मंच के पक्ष में समर्थन जुटाने को एक राजनीतिक अभियान चलाएंगे . इस कन्वेंशन को माकपा महासचिव प्रकाश करात , भाकपा महासचिव एस.सुधाकर रेड्डी , फार्बर्ड ब्लाक के महासचिव देवब्रत विस्वास , आरएसपी के नेता अवनी राय , ए.बी .बर्धन एवं सीताराम येचुरी ने भी संवोधित किया . डॉ . गिरीश

Sunday, June 23, 2013

जनता के आर्थिक सहयोग से काम चलाती है भाकपा

कल एक मित्र ने आश्चर्य व्यक्त किया कि ये वामपंथी दल सुचना के अधिकार के अधीन आने का विरोध क्यों कर रहे हैं ? उनकी इस जिज्ञासा का स्वागत करते हुए कहना चाहूँगा कि वामपंथी दल अपना लेखा जोखा देने से नहीं कतरा रहे . अपितु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तो हर वर्ष न केवल अपना लेखा-जोखा आयकर विभाग के सामने प्रस्तुत करती है अपितु आय-व्यय का ऑडिट भी कराती है . वह इस लिए भी निश्चिन्त हैकि पूंजीवादी दलों की तरह वह ...कार्पोरेट घरानों से धन नहीं लेती . भाकपा जनता की पार्टी है और जनता के दिए धन से अपने क्रिया-कलाप चलाती है . पार्टी का हर सदस्य अपनी आय का एक भाग पार्टी को नियमित तौर पर देता है . इसके अतिरिक्त कुछ पार्टी हमदर्द भी हैं जो समय समय पर मदद करते हैं .अतएव लेख-जोखा देने में पार्टी को कोई आपत्ति नहीं .
लेकिन सूचना के अधिकार के तहत पार्टियों के आजाने के बाद तो पार्टी की अंदरूनी बहसें , प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया आदि भी उसे मुहय्या करनी पड़ सकती हैं और इसका लाभ धनाढ्य पार्टियाँ उठा सकती हैं . दुसरे पार्टी का ताना-बाना देश भर में फैला है और इसका प्रमुख काम शोषित पीड़ित जनता के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करना है .इन संघर्षों के लिए स्थानीय जनता ही फण्ड इकठ्ठा करती है और आन्दोलन में मदद करती है . इस सबका लेखा-जोखा रखना न तो संभव है न ही व्यावहारिक . इसकी अधिकतर जिला कमेटियां एवं राज्य कमेटियां हमेशा आर्थिक अभाव से जूझती रहती हैं . उनके लिए हर सुचना मुहय्या कराने हेतु स्टाफ रख पाना भी तब तक संभव नही जब तक वे अन्य दलों की तरह लूट-खसोट मचा कर अपनी तिजोरी न भर लें .
एक मित्र ने ये भी सवाल उठाया की उन पर भी भ्रष्टाचार के आरोप हैं . विनम्रता के साथ कहना चाहूँगा कि भाकपा की पहली सरकार काम.अच्युत मेनन के नेत्रत्व में १९५७ में केरल में बनी थी . आज पूरा देश जानता है कि काम.मेनन और उनके मंत्रियों काम. मेनन और उनके मंत्रियों पर कोई दाग नहीं लगा .संयुक्त मोर्चे की सरकार में हमारे दोनों मंत्रियों गृहमंत्री का.इन्द्रजीत गुप्त और काम.चतुरानन मिश्रा की ईमानदारी और कार्य पध्दति की आज तक चर्चा होती है.दो-दो बार केंद्र सरकार को हमने बाहर से समर्थन दिया .कोई लें-दें का आरोप नहीं लगा .कई राज्य सरकारों में पार्टी भागीदार बनी. सब जगह बेदाग रही.

Tuesday, February 28, 2012

बिना शीर्षक के कुछ बातें

उत्तर प्रदेश के चुनाव चल रहे हैं। जब तक यह अंक सुधी पाठकों तक पहुंचेगा चुनाव खत्म हो चुके होंगे और जनता परिणामों का इंतजार कर रही होगी। फिर शुरू होगा परिणामों की समीक्षा का एक दौर और सरकार बनाने के लिए सम्भवतः जोड़-तोड़ का खेल। फिर आम जनता के बीच शायद एक लम्बी खामोशी? हमें इस खामोशी को तोड़ना होगा।
अभी साल भर भी नहीं हुआ है जब मीडिया भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल के लिए स्वयंभू सिविल सोसाइटी द्वारा चलाये गये आन्दोलन को चौबीसों घंटे दिखा रहा था या छाप रहा था। हमने तब भी मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये थे। इस आन्दोलन के समय जनता के मध्य गुस्सा था भ्रष्टाचार के खिलाफ और महंगाई के खिलाफ। उस गुस्से का इज़हार जनता को इस चुनाव में करना चाहिए था। यह इज़हार हुआ कि नहीं इसकी हकीकत तो 6 जून को ही पता चलेगी परन्तु मीडिया ने इन चुनावों से मुद्दों के अपहरण में जो भूमिका अदा की है, उसकी पड़ताल भी होनी ही चाहिए। सभी समाचार पत्रों एवं समाचार चैनलों पर केवल उन चार पार्टियों का प्रचार होता रहा जिन्होंने भ्रष्टाचार से कमाये गये अकूत पैसे में से कुछ सिक्के मीडिया को भी दे दिये थे। केवल इन्हीं दलों के प्रवक्ताओं को बुला-बुलाकर उन मुद्दों पर बहस की गयी जो मुद्दे चुनावों में होने ही नहीं चाहिए थे।
प्रदेश में वामपंथी दल अपने सहयोगी जनता दल (सेक्यूलर) के साथ लगभग सौ से अधिक सीटों पर चुनाव मैदान में थे। समाचार पत्रों ने इन दलों के प्रत्याशियों के प्रचार को प्रमुखता से छापने की तो बात ही न कीजिए, ‘अन्य’ और ‘संक्षेप’ में भी इन प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार को छापने की जहमत नहीं उठाई। समाचार चैनलों ने परिचर्चाओं में भाकपा नेताओं में से किसी को भी बुलाने की जहमत नहीं की।
प्रदेश के चारों प्रमुख राजनीतिक दल मुद्दों से दूर भागते रहे। ”तिलक, तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार“ से चुनावी राजनीति का सफर शुरू करने वाली बसपा ”ब्राम्हण शंख बजायेगा, हाथी बढ़ता जायेगा“ और ”चढ़ गुंडों की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर“ के बरास्ते इस चुनाव में ”चढ़ विपक्ष की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर“ आ गयी। भाजपा ने राम मंदिर बनाने का मुद्दा फिर चुनाव घोषणापत्र में शामिल कर लिया। समाजवादी पार्टी का पूरा चुनाव अभियान मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण के इर्द गिर्द घूमता रहा। कांग्रेस सोनिया, राहुल और प्रियंका रोड शो करते रहे, सलमान खुर्शीद और बेनी बाबू मुसलमानों के आरक्षण का राग छेड़ते रहे। बहुत दिनों के बाद वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवार बड़ी संख्या में चुनाव मैदान में थे। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में जनता के मुद्दों को उठाया।
पिछले चुनावों की तुलना में जनता ज्यादा तादात में मतदान केंद्रों तक गयी, यह अच्छी बात है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बढ़े मतदान प्रतिशत की हकीकत क्या है। जनता ने चुनाव सुधारों के नाम पर ”राईट टू रिजेक्ट“ की हवा ही निकाल दी। बहुत कम मात्रा में चुनाव आयोग के इस हथियार का इस्तेमाल जनता ने किया। यह दोनों बातें लोकतंत्र के मजबूत होने का संकेत हैं।
- प्रदीप तिवारी

हमे जरूरत है चुनाव सुधारों की

उम्मीदवाद को अस्वीकार करने (राईट टु रिजेक्ट) का चुनाव आयोग द्वारा जो सुझााव दिया गया है उस पर विचार करते हुए उसका संदर्भ महत्वपूर्ण हो जाता है। उनका सुझाव असल में कुछ अस्पष्ट सा है। उसके निहितार्थ स्पष्ट नहीं है। किसी चुनाव क्षेत्र में निर्वाचन आयोग जनता से क्या अपेक्षा करता है- वह क,ख,ग या सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दे? यदि मतदाताओं का कुछ प्रतिशत हिस्सा अस्वीकार करने के लिए कहे तो उस प्रतिशत को 50 से अधिक होना चाहिए। उसके बाद भी, मान लें यदि 49 प्रतिशत ने अस्वीकार करने के अपने विकल्प का प्रयोग नहीं किया तो यह एक मुद्दा बन जाता है जिस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।
इसमें एक खतरा यह भी है कि चुनाव के बहिष्कार की बात भी बन सकती है। इससे लोकतंत्र को मजबूत करने के लक्ष्य के बजाय, एक विपरीत नतीजा निकल सकता है जो एक अराजकता की दिशा में ले जा सकता है। चुनाव आयोग द्वारा एक तदर्थ किस्म का सुझाव है।
इसके बजाय, समय आ गया है कि देश व्यापक चुनाव सुधारों पर विचार करे। वर्तमान “फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” (जिसे सबसे अधिक मत पड़े उसे जीता हुआ मानने) का तरीका संतृप्ति के स्तर पर पहुंच गया है। यह हमारे जैसे लोकतंत्र में एक हद से आगे सफल नहीं हो सकता। एक संभव तरीका समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली का हो सकता है। इस संबंध में हम अन्य देशों से भी सीख सकते हैं और सबसे बड़े लोकतंत्र में दूसरों से सीखने में कोई हानि नहीं।
“फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट” की प्रणाली अब वास्तविकता को नहीं प्रतिबिंबित करती। उदाहरणार्थ, हाल के पंजाब में विधानसभा के चुनाव को लें जहां भारी मतदान हुआ। रिर्पोट थी कि 70 प्रतिशत के लगभग मतदान हुआ। पर काफी संभावना है कि ऐसे उम्मीदवार भी जीतेंगे जिन्हें लगभग 20 प्रतिशत मत ही मिले होंगे। यह हमारी व्यवस्था में एक अंतर्निहित कमजोरी है जिसे समानुपाती प्रतिनिधित्व की प्रणाली दूर कर सकती है। सभी पार्टियों को समान अवसर मिलना चाहिए। यह तब ही संभव है जब सरकार सभी पार्टियों के चुनाव के खर्च अपने ऊपर लेने के लिए राजी हो। जब एनडीए सत्ता में थी तो इन्द्रजीत सेन गुप्ता के नेतृत्व में इस मुद्दे पर विचार करने के लिए एक समिति बनी थी, डा. मनमोहन सिंह भी उस समिति में थे। समिति ने स्टेट फंडिंग (चुनाव का खर्च सरकार करे) की सिफारिश की थी। चुनाव आयोग स्वयं इस संबंध में कोई फैसले नहीं ले सकता है। वह एक स्वतंत्र निकाय है पर उसे भी अपनी शक्तियां संविधान से मिली हैं।
भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। चुनाव ही इसके अकेले स्रोत नहीं है। यह मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर करता है, जब तक उसे न बदला जाये, भ्रष्टाचार जारी रहेगा।
- डी. राजा

Monday, October 17, 2011

वामपंथी दलों का प्रदेश स्तरीय एक दिवसीय अनशन हेतु अपील

    वामपंथी दलों - भाकपा, माकपा, फारवर्ड ब्लाक, आरएसपी का महंगाई, भ्रष्टाचार, उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण, शिक्षा के बाजारीकरण, बेरोजगारी एवं जर्जर हो चुकी कानून-व्यवस्था के खिलाफ तथा मजबूत लोकपाल कानून बनवाने के लिए राज्यस्तरीय एक दिवसीय अनशन स्थानीय झूले लाल पार्क में कल दिनांक 18 अक्टूबर 2011 को सुबह 10.00 बजे से शुरू होगा।

    वामपंथी दल आम जनता से अपील करते हैं कि वे इस अभियान में शामिल होकर अपनी एकजुटता दिखाएं तथा मीडिया कर्मियों से इस कार्यक्रम को कवर करने की अपील करते हैं।

Monday, June 27, 2011

अदालतें भ्रष्टाचार से मुक्त हों

न्यायपालिका के पास विशाल शक्तियां है क्योंकि वह जो कहती है अंतिम बात होती है, अचूक एवं अमोध। इतनी शक्तिशली है न्यायपालिका कि जब कार्यपालिका का कोई अधिकारी कानून का उल्लंघन करता है तो जज उसके आदेश को निरस्त कर सकते हैं और हुक्मनामे की अपनी ताकत से दिशा-निर्देश दे सकते हैं। जब संसद कोई कानून पास करती है और कानून का अतिक्रमण कर देती है या मौलिक अधिकारों की सीमाओं से बाहर निकल कर आदेश जारी करती है तो अदालत उस आदेश और कार्रवाई को खारिज कर सकती है। पर जब उच्च न्यायालय कानून के बेरोकटोक उल्लंघन के अपराधी हों तो उनकी इस चूक, उनकी इस गलती के लिए न कोई तरीका है न संहिता। हर संविधान का एक सामाजिक दर्शन होता है, खासकर भारत के संविधान का एक सामाजिक दर्शन है। हम एक समाजवादी लोकतांत्रिक गणतंत्र हैं। यदि संविधान के इन आदेशों का उल्लंघन होता है और जजों से जिस तरह के बरताव की उम्मीद की जाती है वे उस बरताव को धता बता देते हैं तो किसी को अधिकार नहीं कि उन्हें सही रास्ते पर लाये और उनके दुराचार को ठीक करे।

“जज लोग तत्वतः दूसरे सरकारी अधिकारियों से कुछ अलग नहीं हैं। न्यायिक ड्यूटियों पर आकर भी सौभाग्य से वे इंसान बने रहते हैं। अन्य इंसानों की तरह उन पर भी समय-समय पर गर्व और मनोविकारों का, तुच्छता एवं चोट खायी भावनाओं का, गलत समझ या फालतू जोश का असर पड़ता है।” - ह्यूगो ब्लैक

अपनी पुस्तक में डेविड पैमिक जजों के बारे में लिखते हैंः

“अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस जैक्सन ने 1952 में टिप्पणी की कि “जो लोग कुर्सी पर पहुंच जाते हैं कभी-कभी घमंड, गुस्सेपन, तंग नजरी, हेकड़ी और हैरान करने वाली कमजोरियों जैसी उन कमजोरियों का परिचय देते हैं जो इंसानियत को विरासत में मिली हुई है। यह हैरानी की बात होगी, असल में चिंताजनक बात होगी यदि जो प्रख्यात दिमाग लोग इंग्लैंड की न्यायापालिका में हैं यदि वे अपने अवकाश, जो उन्हें विरले ही मिलता है, के दिनों में गैरन्यायिक तरीके से काम करें। हाल में लॉर्ड चांसलर हेल्शाम ने स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि जो लोग जज की कुर्सी पर बैठते हैं कभी वे उस चीज का शिकार हो जाते हैं जिसे जजी का रोग कहते हैं अर्थात एक ऐसी हालत जिसके लक्षण हैं तड़क-भड़क , चिड़चिड़ापन, बातूनीपन, ऐसी बातें कहने की प्रवृत्ति जो मामले में फैसला करने में जरूरी नहीं होती और शोर्टकट का रूझान।”

दुख की बात है कि कानून के अंदर महाभियोग-जो इस बीमारी के बढ़ने से रोकने के लिए एक राजनैतिक इलाज है- के अलावा इसका अन्य कोई इलाज नहीं। इन चिंताजनक बातों से भी बदतर बात है वो जो लार्ड एक्शन ने ही है- ”सत्ता भ्रष्ट बनाती है और चरम भ्रष्ट बनाती है।” लोकतंत्र में लोगों को न्यायपालिका की आलोचना करने का अधिकार है जिससे पारदर्शी, स्वतंत्र, अच्छे व्यवहार वाली, पक्षपात से दूर और हर किस्म की कमजोरियों से मुक्त होने की अपेक्षा की जाती है। कितना भी महत्वपूर्ण मामला क्यांे न हो हर विवाद मंे जज जो फैसला करते हैं वह उस संबंध में अंतिम फैसला होता है। अतः जजों का चयन जांच-पड़ताल के बाद और उनकी वर्ग राजनीति और वर्ग पूर्वाग्रहों के समीक्षात्मक मूल्यांकन के बाद हद दर्जे की सावधानी के साथ किया जाना चाहिये। (देखिये, पोलिटिक्स ऑफ जुडिशयरी, लेखक प्रो. ग्रिफिथ)।

“जज लोगंों आप कहां निष्पक्ष हैं?” वे सभी कर्मचारियों की तरह उसी गोल चक्कर में चलते रहते हैं और नियोक्ता लोग जिन विचारों में शिक्षित हुए हैं और पले-बढ़े हैं जज लोग भी उन्हीं शिक्षित और पले-बढ़े हैं। किसी मजदूर या टेªड यूनियन कार्यकर्ता को इंसाफ कैसे मिल सकता है? जब विवाद का एक पक्ष आपके वर्ग का होता है और दूसरा आपके वर्ग का नहीं होता तो कभी-कभी यह सुनिश्चित करना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि आपने इन दो पक्षों के बीच स्वयं को पूरी तरह निष्पक्ष स्थिति में रखा है।”

- लॉर्ड जस्टिस स्क्रटून

न्याय और न्यायतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और भाई-भतीजावाद। हाल के दिनों में न्यायापालिका में भ्रष्टाचार बहुत अधिक बढ़ा है यहां तक कि सर्वोच्च स्तर पर भी। गुनाहगार जजों पर संसद में महाभियोग का तरीका पूरी तरह नाकाफी और बेकार साबित हुआ है, इसका ज्वलंत उदाहरण है रामास्वामी का मामला। प्रशांत भूषण ने मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार का जो आरोप लगाया है, और जिसका समर्थन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वर्मा ने किया है, क्या उसमें रत्तीभर भी अतिशयोक्ति है? जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप दिन दूना रात चौगुना बढ़ते ही जा रहे हैं। महाभियोग इनका कतई कोई समाधान नहीं है। अदालतों में बकाया पड़े-मुकदमों का अम्बार बढ़ता जा रहा है, पार्किन्सन्स कानून (संख्या बढ़ा दो) और पीटर प्रिंसिपल (अयोग्यता में वृद्धि) कोई इलाज नहीं, इसका इलाज है नियुक्ति आयोग (अपॉइटमेंट कमीशन) और एक ऐसा कार्य निष्पादन आयोग (परफोर्मेन्स) कमीशन जिनके पास काफी अधिक शक्तियां हों। नियुक्ति आयोग के पास यह शक्ति हो कि वह कार्य पालिका द्वारा नियुक्ति के लिए सुझाये गये नामों को खारिज कर सके और नियुक्ति से पहले उनके नाम सार्वजनिक कर सके। परफोर्मेन्स कमीशन के पास जजों के दुराचार के खिलाफ जांच करने की और दोषी पाये जाने पर उन्हें बर्खास्त करने की शक्तियां हों। ये चीजें संविधान में संशोधन कर न्यायिक आचरण संहिता का हिस्सा होना चाहिये। प्रस्तावित उम्मीदवार के बारे में कुछ कहने का अधिकार हर नागरिक को होना चाहिए। क्यों?

एक रोमन कहावत हैः जिस चीज का हम सब पर असर पड़ता है उसका फैसला सबके द्वारा होना चाहिये। हमारी न्यायापालिका अभी भी एक प्रतिष्ठित संस्था है। उनके नियतकालिक पाठ्यक्रम होने चाहिये ताकि वे अपने विषय में पूरी तरह पारंगत रहें।

- वी.आर. कृष्ण अय्यर