एक आग है जो जलती है अभी
भारत के सांस्कृतिक इतिहास का यह कोई विरल संयोग अथवा सहसा घटित घटना नहीं है कि युगान्तकारी विकराल मूर्ति भंजक प्रगतिशील लेखन आन्दोलन तथा अपने समय के सामाजिक यथार्थ के सबसे कुशल चित्रेता कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द्र के काल-जयी उपन्यास ‘गोदान’ की पचहततरवीं वर्षगांठ एक साथ मनायी जा रही है। साथ ही ऐसी यागदार विभूतियों की जन्म शताब्दियांॅ भी, जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ व आन्दोलन की संस्थापना, उसकी वैचारिकी व सैद्धान्तिकी रचने एवम् उसके चतुर्दिक विस्तार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। जैसे कि फैज, नागार्जुन, केदारनाथ अगव्राल, शमशेर बहादुर सिंह, मजाज तथा भगवत् शरण उपाध्याय। सज्जाद जहीर, डॉ0 रशीद जहांॅ, डॉ0 अब्दुल अलीम, मुल्कराज आनन्द इत्यादि की जन्म शताब्दियांॅ निकट अतीत की ही घटनाएंॅ हैं। एक ही वर्ष में प्रगतिशील आन्दोलन का आरम्भ तथा गोदान का प्रकाशन (जून 36) काल विशेष में व्याप्त सामाजिक व्याकुलता तथा बदलाव की छटपटाहट की अभिव्यक्ति के दो रूप ही माने जा सकते हैं। यह कांग्रेस के नेतृत्व से भारतीय बुद्धिजीवियों के मोहभंग का दौर था और सामंती साम्राज्यवाद की संगठित शक्ति से मुठभेड़ की छटपटाहट का भी।
इतिहास का क्रमिक विकास बताता है कि लन्दन में जुलाई, 1935 में प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोसिएशन के गठन, जिसका प्रथम अधिवेशन ई0एम0 फॉस्टर के सभापतित्व में हुआ तथा इसके ऐतिहासिक महत्व के घोषणा पत्र के जारी होने के उपरान्त सज्जाद जहीर की लन्दन से वापसी पर तब की सांस्कृतिक राजधानी इलाहाबाद में जस्टिस वजीर हसन (सज्जाद जहीर के पिता) के आवास पर दिसम्बर, 1935 में प्रेमचन्द्र की उपस्थिति में प्र0ले0सं0 की पहले इकाई के गठन का फैसला हुआ। इसी बैठक में अप्रैल, 1936 में लखनऊ में प्र0ले0सं0 का प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन करने का भी निर्णय किया गया। बैठक में प्रेमचन्द्र व सज्जाद जहीर के अतिरिक्त मुंशी दयानारायण निगम, मौलवी अब्दुल हक, अहमद अली, डॉ0 रशीद जहांॅ, जोश मलीहाबादी व फिराक गोरखपुरी इत्यादि उपस्थित थे। एजाज हुसैन भी। प्रगतिशीलता को ठोस वैचारिक- सांस्कृतिक अभियान का रूप देने के पक्ष में व्यवहारिक रणनीति बनाने का अवसर दिया था, ”हिन्दुस्तान एकेडमी“ (इलाहाबाद) के एक समारोह ने जिसमें हिन्दी- उर्दू के अनेक विख्यात रचनाकार सम्मिलित हुए थे।
तीव्र होते सघन संक्रमण के उस दौर में अप्रैल 36 आते-आते सृजन व बौद्धिकता के क्षेत्र में बहुत कुछ घटित हो चुका था। रूसी इंकिलाब, हाली का मुकदमा-ए-शेरो शायरी, सरसैय्यद तहरीक, प्रेमाश्रम, सेवासदन और कर्मभूमि, माधुरी, हंस तथा रामेश्वरी नेहरू की पत्रिका स्त्री दर्पण के साथ ही शेख अब्दुल्लाह की खातून (अलीगढ़) और सत्य जीवन वर्मा की पहल पर बना हिन्दी लेखक संघ फांसीवाद के विरूद्ध कला और संस्कृृति की रक्षा के लिए 1935 में पेरिस में सम्पन्न हुआ लेखकों और संस्कृति कर्मियों का ऐतिहासिक सम्मेलन, जिसने सज्जाद जहीर को गहरे तक प्रभावित किया। वे उस सम्मेलन में मौजूद थे। साहित्य, अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों मेें प्रगतिशीलता, मानवीय कला दृष्टि व जीवन मूल्य की हैसियत पाने के सघर्ष में थी। राम विलास शर्मा जिसे स्वतः स्फूर्त यथार्थवाद कहते आये हैं। सौन्दर्य के प्रति दृष्टिकोण में भी सन् 1936 के बाद जैसी न सही परन्तु तब्दीली अवश्य आई थी। नवम्बर, 1932 में सज्जाद जहीर के सम्पादन में चार कहानीकारों के कहानी संग्रह ‘अंगारे’ का प्रकाशित होना तथा मार्च 1933 में उस पर प्रतिबन्ध लग जाना। 15 अप्रैल, 1933 को महत्वपूर्ण अंग्रेजी दैनिक ”लीडर“ में अंगारे के कहानीकारों द्वारा इस प्रतिबन्ध के विरोध व भर्त्सना में एक संयुक्त बयान प्रकाशित होना, भविष्य में भी ऐसा लेखन जारी रखने का संकल्प प्रकट करना तथा यथास्थितिवादी ह्रासोन्मुख पतन शील सामंती जीवन व कला मूल्य के विरूद्ध प्रगतिशील बदलाव परक दृष्टिकोण के प्रचार- प्रसार केा रचनात्मक अभियान की शक्ल देने के उद्देश् से ”लीग ऑफ प्रोग्रेसिव आथर्स“ का प्रस्ताव इस प्रेस वक्तव्य में प्रस्तुत किया गया था। यह शोध अभी शेष है कि आखिर क्यों प्रगतिशील लेखकों की लीग बनाने के प्रस्ताव को उस समय अमली जाना नहीं पहनाया जा सका। जबकि बाद के वर्षों में प्र्रगतिशील लेखक संगठन- आन्दोलन को बनाने- फैलाने में अंगारे के इन चारों कहानीकारों की भूमिका अत्यन्त महतवपूर्ण थी और यह कि किन कारणों से सज्जाद जहीर ने प्रगतिशील आन्दोलन के दस्तावेज की हैसियत रखने वाली पुस्तक ”रौशनाई“ में ”लीडर“ में प्रकाशित बयान व उसमें ”लीग ऑफ प्रोग्रेसिव आथर्स“ के गठन के प्रस्ताव का उल्लेख नहीं किया। क्या इस कारण कि ‘अंगारे’ के प्रकाशन के बाद से ही उनके और अहमद अली के बीच मतभेद आरम्भ हो गये थे, जो आगे अधिक तीखे होते गये और यह कि लीडर में छपे बयान में मुख्य भूमिका अहमद अली ही की थी। यहांॅ उस विभाजक रेखा पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है जो अंगारे की कहानियों के कथा तत्व, उनकी वैचारिक भूमि तथा प्रेमचन्द्र के अध्यक्षीय सम्बोधन में निहित वृहत्तर सामाजिक यथार्थ की चिन्तनशीलता के बीच ख्ंिाचती दिखाई पड़ी थी, जिसने 1945 में हैदराबाद में हुए प्रगतिशील लेखकों के एक सम्मेलन में बड़े विवाद का रूप ले लिया था। यशपाल के दादा कामरेड (1943) को लेकर भी राम विलास शर्मा ने ऐसी ही एक रेखा खींची है।
इतिहास का यह भी एक विस्मयकारी तथ्य है कि राम विलास शर्मा ने 1950 में प्र0ले0 संघ में प्रगतिशील शब्द को लेकर भी आशंका प्रकट की थी। उनकी आपत्ति प्रगतिशीलता के लिए बुद्धिवाद की अनिवार्यता पर भी थी। डॉ0 नामवर सिंह के अनुसार, “उन्होंने लेखकों को शिविरों में बांॅटने वाले इस संगठन का नाम अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ, अथवा परिसंघ ;।सस प्दकपं न्दपवद वत थ्मकमतंजपवद व िक्मउवबतंजपब ॅतपजमतेद्ध रखने का प्रस्ताव दिया था।“
बहरहाल प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कई सारे जरूरी प्रश्नों के साथ ही इस प्रकार के लुप्त हो आये प्रश्नों से भी मुठभेड़ की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। भुला दिये गये इस प्रसंग को भी याद किया जा सकता है कि लंदन (1935), लखनऊ (1936) घोषणा पत्रों के जारी होने तथा प्रेमचन्द के ऐतिहासिक अध्यक्षीय सम्बोधन से पूर्व 1935 में ही उर्दू में प्रकाशित अख्तर हुसैन रायपुरी के लेख ”अदब और जिन्दगी“ का व्यापक स्वागत हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका हिन्दी अनुवाद कराकर ”माधुरी“ में प्रकाशित किया। 1936 में नागपुर में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में इस लेख पर आधारित घोषणा पत्र पर मौलवी अब्दुल हक और प्रेमचन्द के साथ ही पण्डित जवाहर लाल नेहरू तथा आचार्य नरेन्द्र देव ने भी हस्ताक्षर किये। लेख में अख्तर हुसैन रायपुरी का जोर इस बात पर है कि साहित्य को जीवन की समस्याओं से अलग नहीं किया जा सकता, समाज को बदलने की इच्छा जगाने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। लन्दन से जारी घोषणा पत्र पर अख्तर हुसैन रायपुरी के भी हस्ताक्षर थे। भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता विषय पर शिवदान सिंह चौहान के लेख ने जो 1937 में ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित हुआ, प्रगतिशीलता के पक्ष में फिज़ा को साज़गर बनाने में मदद की। हालांकि नामवर सिंह ने इसे आन्दोलन को क्षति पहुंॅचाने वाला लेख बताया है। जबकि राम विलास शर्मा इसके प्रशंसक थे।
यह छोटी सी भूमिका इस कारण कि नित नये आते हिन्दी पाठक आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कुछ अचर्चित रह जाने वाली जरूरी सच्चाईयों से परिचित हो सके। और इसलिए भी कि प्रगतिशील आन्दोलन की सुसंगत वैचारिक शुरूआत की समग्र प्रेरणाएंॅ यूरोपीय नहीं थी, जिसका आरोप इस पर दक्षिणी पंथी प्रतिक्रियावादी धार्मिक व अन्य विभिन्न विचार क्षेत्रों तथा सत्ता समर्थक खेमों की ओर से लगाया जाता रहा है। कभी अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्रसमैन’ ने इस अभियान में अग्रणी भूमिका ली थी तथा समाज में हिंसा व आराजकता फैलाने का आरोप लगाते हुए प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रतिबन्ध लगाने की गुहार लगायी थी। प्रगतिशील दृष्टि सम्पन्न साहित्यिक संगठन के निर्माण की चर्चा के दौर में ही ‘गोदान’ जैसे किसान केन्द्रित महाकाव्यात्मक उपन्यास की, बदलाव की चेतना जिसमें एक आग की तरह प्रवाहित है, रचना प्रक्रिया का गतिशील होना तथा लन्दन प्रवास से वापस आये सज्जाद जहीर का पहले अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए प्रेमचन्द से आग्रह करना संकेत करता है कि दोनों की बुनियादी चिन्ताओं में कोई विपरीतता नहीं थी। ठीक उन्हीं दिनों किसानों के अखिल भारतीय संगठन का अस्तित्व में आना और किसान आन्दोलन का तेज होना, इस संकेत को अधिक चमकदार बनाता है। यहांॅ अधिवेशन की तिथियों का भी अपना महत्व है। ये तिथियांॅ (9-10 अप्रैल) लखनऊ में आयोजित किसान सम्मेलन के साथ जोड़ कर निश्चित की गयी थी, कुछ किसान लेखकों के अधिवेशन में शरीक भी हुए थे। (ऐसे ही एक किसान नेता ने पंजाब में आन्दोलन के आरंभिक विस्तार में मदद की थी) तब और भी जब हम पाते हैं कि सज्जाद जहीर आन्दोलन के आरम्भिक दिनों में किसानों के बीच कवि सम्मेलन, मुशायरे तथा साहित्यिक सभाओं की परम्परा स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे जैसा कि बाद के वर्षों में कानपुर, बम्बई, अहमदाबाद, मालेगांॅव इत्यादि औद्योगिक नगरों में मजदूरों के बीच घटित होती दिखाई पड़ी। यह आयोजन आमतौर पर टिकट से होते थे। इनके विज्ञापन ‘नया पथ’ तथा दूसरी पत्रिकाओं में अब भी देखे जा सकते हैं। यानि कि ‘गोदान’ प्रगतिशीलता के महाभियान के गति पकड़ने से पहले ही प्रगतिशील रचना कर्म के उच्च प्रतिमान के रूप में सामने आ चुका था। 75वें वर्ष में इसकी आलोचना के कुछ नये आयाम अवश्य निर्मित हुए है।
फलस्वरूप प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तर वर्ष के इतिहास को गोदान व प्रेमचन्द से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भले ही कथा सम्राट आन्दोलन का भौतिक नेतृत्व बहुत कम समय ही कर पाये हों। उसी तरह जैसे अंगारे, हंस, माधुरी, विशाल भारत, रूपाभ तथा नया अदब व नया साहित्य, इण्डियन लिट्रेचर, परिचय को अलग नहीं किया जा सकता और न ही उसे उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण से असम्बद्ध किया जा सकता है और न सदी के उत्तरार्द्ध में अंकुरित उन बहसों से जो आस्था, ज्ञान जीवन पद्धति तथा मानव अधिकारों से सम्बन्धित थी। नवजागरण ने अपने को खोजने, पाने तथा स्वाधीनता की लालसा को बौद्धिक आवेग दिया था, कारणवष प्रेमचन्द्र का समूचा लेखन तथा प्रगतिशील आन्दोलन परस्पर पूरक होते दिखाई पड़े तो यह स्वाभाविक तरीके से हासिल हुई बड़ी उपलब्धि ही थी। सर सैय्यद तहरीक और प्रेमचन्द्र के साहित्य के समान प्रगतिशील रचनाओं ने भी समाज को प्रभावित किया तथा राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण में अपने हस्तक्षेप की ऐतिहासिकता प्राप्त की। अवश्य ही भक्तिकाल के बाद जीवन व कला कर्म को राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित करने वाला यह अकेला आन्दोलन था।
प्रगतिशील कवियों- शायरों की रचनाएंॅ न केवल मजदूरों- किसानों के आन्दोलनों को गति व धार दे रही थी बल्कि आजादी के मतवालों के दिलों में भी आग भर रही थी। बताने की जरूरत नहीं कि इंकलाब की एक काव्य रचना में सबसे पहले राजनैतिक अर्थों में प्रयुक्त हुआ ”इंकिलाब“ शब्द कहांॅ से आया था और कैसे वह बहुत थोड़े समय में समूचे उत्तरी- पूर्वी भारत में परिवर्तनकारी उत्तेजना का प्रतीक बन गया कि उसने क्रान्तिकारी आन्दोलन के भी अति-प्रिय उद्बोधन की हैसियत प्राप्त की। एक शब्द के भीतर छिपे हुए महाप्रलय के संकेत से लोग पहली बार परिचित हुए, याद कीजिए फैज का तराना। एक अकेला शब्द दमित जनता की मूल्यवान पूंॅजी के रूप में जन संघर्ष की थाती बन गया, उसी तरह जैसे भोर, सुबह या सहर शब्द जो उम्मीद और बदलाव का रूपक बन गया। भोर या सुबह होने का मतलब केवल उजाला होना नहीं बल्कि एक अंधकारमयी सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था से उजासमयी व्यवस्था में जाना, समय का साम्यवादी होना अथवा अमीरों की हवेली का गरीबों की पाठशाला बनना, तख्तों का गिरना, ताजों का उछलना या राज सिंहासन का डांॅवाडोल होना हो गया। प्रगतिशील आन्दोलन जिन कुछ खास लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ रहा था, उनमें विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच अजनबीपन व दूरियों को कम करना भी था। यह कोई साधारण घटना नहीं है कि सन् 1936 के ठीक दो वर्ष बाद संघ का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हो रहा था। जहांॅ यदि एक ओर महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर एक संदेश के द्वारा आन्दोलन व अधिवेशन का स्वागत कर रहे थे, और जनता से अलग-थलग रहने पर अपनी आलोचना तो दूसरी ओर बंगभाषी महानगरी में उर्दू, अरबी व जर्मन भाषाओं के एक विद्वान डॉ0 अब्दुल अलीम को प्र0ले0 संघ का महासचिव बनाया गया था। उनके द्वारा दिया गया भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखे जाने का विवादास्पद प्रस्ताव इसी समय आया था। बांग्ला, उर्दू, हिन्दी के अतिरिक्त अधिवेशन में पंजाबी, तेलुगू इत्यादि भाषाओं के लेखक भी सम्मिलित हुए थे। बलराज साहनी और उनकी नव वधू दमयन्ती थी। छायावाद के इसी अवसान काल में सुमित्रानन्दन पंत व निराला भी प्रगतिशीलता की ओर आकृष्ट हुए थे। अज्ञेय के आकर्षण का भी तकरीबन यही काल है। संयोग से ये तीनों ही आन्दोलन के साथ दूर तक नहीं चल पाये। पन्त ने ‘रूपाभ’ को एक तरह से आन्दोलन के लिए समर्पित कर दिया था। डॉ0 नामवर सिंह इसे संयुक्त मोर्चे की साहित्यिक अभिव्यक्ति कहते हैं। लेकिन आन्दोलन के कर्णधारों को आर्थिक चिंता उत्तरी- पूर्वी भारत में उर्दू- हिन्दी लेखकों के संयुक्त मोर्चा को लेकर थी। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा अंजुमन तरक्की उर्दू इत्यादि के भाषागत अभियानों से दोनों भाषाभाषी श्ंाका व संशय के घेरे में थे। हिन्दुस्तानी के विकल्प ने हिन्दी भाषियों की शंका को अधिक गहरा किया था, कारणवश यदि कुछ लोगों को उर्दू लेखकों की पहल पर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना भी उर्दू के पक्ष में कोई रणनीतिक कार्यवाही महसूस हुई हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए और न आरम्भिक वर्षों में आन्दोलन के प्रति उनके ठण्डे रवैये पर। यकीनी तौर पर थोड़े अन्तरालोपरान्त वे बड़ी संख्या में आन्दोलन के साथ आये, उनकी सम्मिलिति से संगठन व आन्दोलन दोनों को अप्रतिम बल व विस्तार प्राप्त हुआ। अपनी शिनाख्त के प्रति संदनशील रहते हुए वे एक दूसरे के निकट आये। फलस्वरूप औपनिवेशक साम्राज्यवाद, फासीवाद, युद्ध सांप्रदायिकता, धर्मोन्माद, बंगाल के महादुर्भिंक्ष के खिलाफ तथा जनसंघर्षों के विविध अवसरों पर दोनों भाषाओं के रचनाकार साझे मंच पर दिखाई पड़े। फासीवादी युद्ध के विरूद्ध उर्दू- हिन्दी लेखकों का साझा बयान इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आया, जो नया साहित्य में प्रकाशित हुआ। अब इसको क्या कीजिए कि जिस प्रकार अनेक लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अन्तिम सांॅस तक प्रगतिशील आन्दोलन से अपनी सम्बद्धता को खण्डित नहीं होने दिया उसी प्रकार विडम्बनाओं ने भी इतिहास का साथ नहीं छोड़ा। देश विभाजन से पूर्व यदि 1945 में उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हैदराबाद में हो रहा था तो सन् 1947 में विभाजन के ठीक एक माह बाद हिन्दी के प्रगतिशील रचनाकारों का अधिवेशन साम्प्रदायिक तनाव के बीच इलाहाबाद में आयोजित हुआ। उसी इलाहाबाद में जहांॅ प्रगतिशील लेखन आन्दोलन की नींव पड़ी थी, रमेश सिन्हा द्वारा लिखित जिसकी रिपोर्ट कम्युनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक ”जनयुग“ तथा अन्य पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुर्ठ। उसी अधिवेशन में उर्दू का एक नौजवान जोशीला शायर (अली सरदार जाफरी) उर्दू लेखकों के अकेले प्रतिनिधि के रूप में हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों को समूचे सहयोग का आश्वासन देते हुए उनसे राष्ट्र भाषा के मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई फैसला न लेने की मार्मिक अपील कर रहा था। जबकि 31 अगस्त को बम्बाई में हुई प्रलेस की बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि पाकिस्तान में उर्दू के साथ हिन्दी को भी राष्ट्रभाषा बनाये जाये। बैठक में उपस्थित सभी लेखक उर्दू के थे। बम्बई में ही 24 सितम्बर की बैठक में अली सरदार जाफरी ने इलाहाबाद सम्मेलन की रिपोर्ट प्रस्तुत की और कहा कि हिन्दी लेखकों में उर्दू का उतना विरोध नहीं है जितना हम समझते हैं। अलग- अलग अधिवेशनों का यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा। दूसरे रूपों में भाषा विवाद भी जारी रहा। उत्तर प्रदेश में माहौल ज्यादा उत्तेजना पूर्ण था। कभी-कभी कटुता इतनी गहरी हुई कि एक ही संगठन के लोग भिन्न शिविरों में विभाजित एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकते नजर आये, जिसका दुखद उदाहरण प्र0ले0 संघ के स्वर्ण जयन्ती समारोह (अप्रैल, 1986, लखनऊ) में देखने में भी आया। गौरवपूर्ण इतिहास के पचहत्तरवें वर्ष का यथार्थ यह है कि प्रमुख रूप से कुछ उर्दू लेखकों द्वारा आरम्भ किये गये इस आन्दोलन में उर्दू रचनाकारों की भागीदारी लगातार कम होती गयी है। वैसे केन्द्रीय धारा के लेखकों एवम् महिला रचनाकारों की दूरी भी आन्दोलन से बढ़ी है।
भाषा के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ देने वाले राहुल सांकृत्यायन ने देश की तमाम जनपदीय बोलियों को जातीय भाषा मानते हुए उनके अपने- अपने प्रदेश बनाने का सुझाव रखा तो उर्दू के मुद्दे पर उनसे सहमति रखने वाले राम विलास शर्मा ने इस पर घोर आपत्ति की। विडम्बना यहांॅ भी है। पचहत्तर वर्ष के पूर्णता काल में यह मुद्दा नया ताप ग्रहण कर रहा है। जनपदीय बोलियों की रक्षा और अधिकार के प्रति संवेदनशीलता का विस्तार हुआ है। जाहिर सी बात है ऐसे में प्रगतिशील लेखक संघ को निश्चित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत पड़ सकती है। यों बम्बई प्रलेस की बैठक में प्रो0 मुम्ताज हुसेन ने भी कुछ ऐसे ही प्रस्ताव रखा था।
पूरी पौन सदी में विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच जीवन्त संवाद- गतिशील आवाजाही का उद्देश्य भले पूर्णतः न प्राप्त कर पाया हो, इन भाषाओं का विशाल एका बनाने का स्वप्न जरूर पूरा हुआ। जहीर कश्मीरी व रंजूर जैसे प्रखर जनवादी रचनाकार देने वाला आन्दोलन कश्मीरी भाषा में खास कारणों से अवश्य शून्य तक पहुंॅच गया। डोगरी में उसकी गतिशीलता बनी रही। देखने वालों ने वह मंजर भी देखा कि उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से सम्बन्ध रखने वाले परिवार का एक युवा तेलंगाना के निर्माण तथा तेलुगू- उर्दू भाषी आयाम के अधिकारों के लिए जुझारू संघर्ष के मैदान में था। वह अपने उर्दू गीतों से तेलुगू भाषी जनता के दिलों में आग भर रहा था। अकेले मख्दूम के कारण तेलुगू भाषी क्षेत्र में प्रगतिशील आन्दोलन के विस्तार में बड़ी मदद मिली। ठीक उसी तरह जैसे मलियाली क्षेत्र में वल्लत्तोल और बिहार के एक बड़े क्षेत्र में नागार्जुन के कारण। बंगाल में हीरेन मुखर्जी की वजह से तो पंजाब में फैज के प्रयासों से। बम्बई में अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानिवी, मजाज इत्यादि के कारण। जैसे वामिक जौनपुरी की अकेली नज्म ”भूका है बंगाल रे साथी“ से प्र0ले0 संघ व इप्टा दोनों तहरीकों को बड़ी शक्ति प्राप्त हुई। शील के इस गीत से भी कि ”नया संसार बसायेंगे, नया इंसान बनायेंगे.......“
इस लम्बे दौर में विस्मृति के धंुधलके में चले गये आन्ध्र प्रदेश के वामपंथी- प्रगतिशील संस्कृति कर्मी डॉ0 कृष्णा राव ने अपने एक नाटक के जरिये आन्ध्र प्रदेश के किसानों को उद्वेलित व संगठित करने का जो ऐतिहासिक कारनामा अंजाम दिया, उसे याद रखना आवश्यक है। कृष्णा राव ही उस नाटक के लेखक, निदेशक व केन्द्रीय पात्र थे। इससे इप्टा व प्रलेस दोनों के प्रसार में मदद मिली। एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय डॉ0 राजबहादुर गौड़ को भी हम याद करते चलें।
आन्दोलन की शुरूआती सैद्धान्तिकी में ही विभिन्न कला माध्यमों के बीच उद्देश्यपरक वैचारिक रागात्मकता की जरूरत को रेखांकित किया गया था, उस ओर उत्तेजक अग्रसरता आन्दोलन की विशिष्ट उपलब्धि है। प्रमुख रूप से साहित्य के पारम्परिक चरित्र को बदलते हुए आन्दोलन ने केन्द्रीय धारा के विभिन्न कला माध्यमों में सक्रिय लोगों, बौद्धिकों व विद्वानों को भी गहरे तक प्रभावित किया था। मई 1943 में इप्टा के अस्तित्व में आने से स्वप्न को नये रंग मिले थे। साहित्य, संगीत, रंग कर्म को सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के पक्ष में इस तरह एकाकार होते कब किसने देखा था। कला जीवन में उत्साह, उमंग, ऊर्जा और चेतना भर रही थी। आनन्दित होने के क्षणों से गुजरते हुए व्यवस्था द्वारा सताये गये गरीब जन संघर्ष का संकल्प ले रहे थे। लेखन आन्दोलन अपनी समूची सदाशयता के बावजूद लोक साहित्य में वैसी हलचल घटित नहीं कर सका था जैसी जन नाट्य आन्दोलन ने लोक संगीत, लोक नाट्य तथा लोक साहित्य में संभव की। रंगमंच के साथ मजदूरों किसानों का ऐसा जीवन्त रिश्ता पहले कब बन पाया था। इसे संभव करने में प्रगतिशील रचनाकारों की सक्रिय भूमिका थी। हम यहांॅ प्रलेस द्वारा ‘मई दिवस’ के आयोजन की परम्परा को भी याद कर सकते हैं।
”आवामी थियेटर और प्रगतिशील लेखकों के आन्दोलन में चोली दामन का साथ था। प्रगतिशील लेखकों की संस्था के बहुत से कार्यकर्ता आवामी थियेटर में भी काम करते थे और उसे संगठित करने में उन्होंने बहुत अहम हिस्सा लिया।“
मराठी लम्बी कविता पावड़ा और तेलुगू की बुर्रा कथाओं ने प्रासंगिकता के नये शिखर प्राप्त किये। अन्नाभाऊ साठे के पावड़े सर्वाधिक लोकप्रिय हुए। साठे प्रलेस के सक्रिय साथी थे। अवश्य ही विविध लोक नाट्यांे को नया जीवन प्राप्त हुआ, परन्तु उसके पीछे मुख्य भूमिका लोक नाट्य कर्मियों की थी। इप्टा की सफलता ने फिल्म निर्माण की ओर अग्रसरता को सहज बना दिया। इस क्रम में ख्वाजा अहमद अब्बास की किसान केन्द्रित फिल्म ”धरती के लाल“ एक विस्फोट की तरह थी। इस बिन्दु पर जो बात ध्यान देने की है वह यह है कि इन तमाम पड़ावों के दौरान होरी, धनिया और गोबर के तनावों व संघर्षों को केन्द्रीयता प्राप्त रही। एक तरह से ‘गोदान’ आन्दोलन का सहयात्री बना रहा। कभी-कभी पथ प्रदर्शक भी। इससे दूसरी सामाजिक समस्याओं, राजनैतिक चुनौतियों, सांस्कृतिक संकटों व अन्तर्राष्ट्रीय व्याकुलताओं को नेपथ्य में ढकेल देने का तात्पर्य नहीं ले लेना चाहिए।
विशिष्टताओं की बात जब चल ही निकली है तो यह जिक्र भी होता चले कि प्रगतिशील राजनैतिक शक्तियांॅ जिन मोर्चों पर विजय की मुद्रा बनाये नहीं रख पायीं असफलता उनकी नियति बनी प्रगतिशील साहित्यिक मोर्चे या लेखन आन्दोलन ने उन्हीं मोर्चांे पर ताबनाक कामयाबियांॅ अर्जित की।
इनमें सबसे प्रमुख है साहित्य में दक्षिण पंथी साम्प्रदायिक पुनरूत्थान वादी शक्तियों का प्रगतिशील जनवादी रचनाकारों की सक्रियता के कारण हाशिये पर चले जाना। जातिवादी, नस्लभेदी, स्त्री विरोधी मानसिकता का व्यापक तिरस्कार। जनविरोधी सामंतवादी शक्तियों के विरूद्ध निरन्तरता प्राप्त करती सजगता, अन्ततः साहित्य में उनका अपदस्थ होना, साहित्यिक जन-तांत्रिकता की वैभवपूर्ण सम्पन्नता के बीच ‘जन’ का केन्द्रीयता प्राप्त करना। बताने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय राजनीति के बड़े फलक पर जहांॅ ‘जन’ बहुलता में सत्ता की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल होता रहा है, अपने बारे में अराजकशोर के बीच उसकी निःस्वरता आह में भी नहीं बदल पाती। जबकि साहित्य में उसकी वंचना, अभाव, पीड़ा, चीख, संघर्ष और प्रतिवाद सब लगातार घटित होता आया है। शब्द जैसे उसके भीतर उतर पाने की अपूर्व सामर्थ्य से समृद्ध हुआ।
ऐसा सत्ता के किसी शिखर पर पहुंॅचने के लिए नहीं बल्कि प्रगतिशीलता की कसौटी के रूप में स्थापित हुई सामाजिक प्रतिबद्धता तथा यथार्थ के प्रति संवेदनशील, मानवीय वैज्ञानिक दृष्टि के कारण संभव हो पाया। यानि ऐसा साहित्यिक जिम्मेदारी के तहत हुआ। एक मोर्चे पर जन की गुहार यदि संभावना पूर्ण अवसरों का निर्माण करती है तो साहित्य में जन प्रतिबद्धता कई अवसरों से वंचित। उदाहरणों की कमी नहीं है। खतरे और भी हैं। तनिक सी जल्दबाजी या असावधानी के कारण ‘जन’ से प्यार पर लिजजिली भावुकता या सपाट समझ का आरोप भी लग सकता है। यानि ”खुदा मिला न विसाले सनम“। बीते पचहत्तर साल ऐसी कई त्रासदियों के साक्षी हैं। इसे प्रगतिशील आन्दोलन की उपलब्धि ही कहा जायेगा कि विपरीतता के बावजूद आन्दोलन से जुड़े या उसकी आंॅच से तपे रचनाकर जनसंघर्षों से भले दूर होते चले गये हैं (वह भी एक दौर था जब अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में भारत का प्रतिनिधित्व मख्दूम ने किया तो पाकिस्तान का फैज ने। बाद के वर्षों में भी मजदूर मोर्चे पर लेखकों की सक्रिया जारी रही) जन से उसी अनुपात में विमुख नहीं हुए। वह साहित्य के केन्द्र में है। जबकि भारतीय राजनीति में वह हाशिये पर चला गया है। तकरीबन यही स्थिति दलित व स्त्री की भी है। अधिकांश राजनैतिक दलों के लिए ये सत्ता सोपानों से अधिक महत्व नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं। जबकि साहित्य में ये अनिवार्यता प्राप्त कर रहे स्थाई विमर्श का विषय है। विमर्श वृहत्तर संदर्भों से सम्बद्ध हुआ है। अनुभूति परक संवेदनशीलता तथा वैचारिक दायित्व बोध जिसका खास अवलम्ब है। जहांॅ समानता और आजादी किसी एक फूल या रंग का नाम नहीं बल्कि समग्र बदलाव का प्रतीक है। रात से भोर की ओर जाने की यात्रा जैसा अल्पसंख्यकों तथा जनजातियों के सामाजिक यथार्थ से यदि साहित्य वंचित नहीं रह गया तो इसमें प्रगतिशील आन्दोलन का कुछ योगदान अवश्य है, जबकि स्त्री मुक्ति के स्वप्न को फ्रायडवादी, यौनकेन्द्रित, मनोविज्ञान एवम् दलित दमित वर्ग के लिए नई सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की चेतना को एकान्तिकता, आध्यात्मवादी परोपकारी मानवतावाद से बचाने की चुनौती सामने थी।
प्रगतिवाद के उभार के तीव्रतम दौर में ही प्रयोगवाद भी बहुत गतिशील रहा है। इसे सिद्धान्त विशेष की शक्ति ही माना जायेगा कि प्रयोगवाद ने प्रगतिशील रचना कर्म को प्रभावित तो अवश्य किया परन्तु वह कोई कठिन चुनौती खड़ी नहीं कर पाया। अवश्य ही अनेकानेक प्रगतिशील रचनाकारों ने परिपाटी तथा शिल्पवादी आवेग से मुठभेड़ करते हुए भाषा व शिल्प के स्तर पर प्रयोग किये। कुछ आलोचक शिल्पवाद को साम्राज्यवादी कुचक्र घोषित करते रहे। अन्तर्वस्तु का पुराना लोक जैसे अदृश्य ही हो गया। कथा परिदृश्य पर ग्रामीण परिवेश के प्रभुत्व, सामान्य पारिवारिक व उपेक्षित जातीय पृष्ठभूमि से आये पात्रों उनके संघर्ष ने पाठकों को पहली बार अपनी जमीन का साहित्य होने की अनुभूति दी। मध्यवर्गीय वर्चस्व ने इसे थोड़ा धुंॅधलाया अवश्य फिर भी वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार तथा विस्थापित स्त्री की स्थापना ने यह भरोसा तो दिया ही कि समाज बदल भी सकता है। यथार्थ की खोज में पेड़ से गिरे फल पर उन्होंने भरोसा नहीं किया। सम्पूर्ण मनुष्य के यथार्थ को उद्घाटित करने के क्रम में जीवनानुभव और गहन अन्वेषण के साथ वैज्ञानिक पुनर्रचना की दिशा में वो गये। प्रगतिशील जनवाद की तीव्रता के क्षणों में कला के प्रति बढ़ते सम्मोहन से जो आत्मसंघर्ष निर्मित हुआ उसने कई यादगार कृतियों के लिए फिज़ा साज़गार की।
प्रगतिशील जीवन दर्शन से हासिल हुई समय व समाज को समझने की अन्तर्दृष्टि ने स्वानुभूति को सामूहिक अनुभूति में रूपान्तरित करते हुए उसे उच्चतम स्तरों तक ले जाने की चुनौती उन्होंने स्वीकार की। दृष्टि की संकीर्णता तथा स्थानीयता के अतिक्रमण की ओर जाते हुए वे जिस विराटता की ओर गये उसने उन्हें सर्वदेशीय विश्व दृष्टिकोण तक पहंॅुचाया। स्थापना के दिन से ही प्रगतिशील आन्दोन के निश्चित अन्तर्रष्ट्रीय सरोकार रहे हैं। ये सरोकार वृहत्तर भारतीय चिंता के रूप में स्थापित हुए, यह याद रखने वाली घटना है। फै़ज़ की कई नज़्में जिसका बेहतर उदाहरण है। शमशेर की कुछ कविताएं भी इस ओर ध्यान खींचती है। विश्वदृष्टि का अर्थ भारतीय सीमाओं के पार की सच्चाईयों को पकड़ना ही नहीं, वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में यथार्थ को देखना था।
आन्दोलन के कम्युनिस्ट पार्टी से प्रेरित या उससे निर्देशित होने के आरोपों को झुठलाने के प्रयास अब लगभग नहीं होते। स्वयम् संगठन के अन्दर पार्टी की नीतियों से आन्दोलन के प्रभावित होने के मुद्दे पर विवाद उठना अतीत की बात हो चुकी है। पार्टी के प्रति उन्मुखता से जहांॅ एक ओर आन्दोलन के व्यापक विस्तार में मदद मिली वहीं उसकी नीतियों से प्रभावित होने ने कई आघात भी पहुंॅचाये। विश्व युद्ध व भारत छोड़ों आन्दोलन के प्रति दृष्टिकोण, पाकिस्तान की मांॅग का समर्थन,प्रगतिशील आन्दोलन के संस्थापक सज्जाद जहीर को पार्टी निर्माण के लिए पाकिस्तान भेजना, उनका वहांॅ, फैज तथा कई सैनिक अधिकारियों के साथ राजद्रोह के आरोप में पकड़े जाना, कांग्रेस के प्रति भिन्न अनुपातों में आकर्षण का लगातार बने रहना, अन्ततः आपातकाल की हिमायत ने भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के सामान्य नागरिकों, विशेष रूप से मध्य वर्ग के मनोविज्ञान पर नकारात्मक प्रभाव छोड़े। हालांकि इन कारणों से कम्युनिस्ट पार्टी को जितनी क्षति उठानी पड़ी उतनी प्रगतिशील आन्दोलन को नहीं, फिर भी उसे आघात तो पहुंॅचते ही रहे। पार्टी बीस धड़ों में विभाजित हुई तो आन्दोलन प्रमुखतः तीन धड़ों में। जहांॅ आन्दोलन नहीं है, वहांॅ पार्टी भी नहीं है, परन्तु जहांॅ पार्टी नहीं है वहांॅ आन्दोलन शेष है। मध्य प्रदेश जिसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जम्मू, मालेगांॅव, भिवण्डी तथा पाकिस्तान के भी कुछ शहर। यह स्थिति जनता के विराट हृदय से समझ भरे सम्पर्क के कारण ही संभव हो पायी है। जनाकांक्षाओं से जुड़ने के लिए हथियार उठाना अथवा सड़कों पर उत्तेजक नारों के साथ उतरना ही हमेशा जरूरी नहीं होता, आकांक्षाओं की प्रभावपूर्ण कलात्मक अभिव्यक्ति, जनवादी लयात्मकता वंचित वर्ग के लोगों को साथ करने में सहायक हो सकती है। भौतिक आवश्यकताओं से अलग जनता की सांस्कृतिक आकांक्षाएंॅ भी होती हैं। बिहार, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र इत्यादि में प्रगतिशीलों ने जनता की सांस्कृतिक आकांक्षाओं की भी चिंता की है। प्रश्न इतना भर है कि नेतृत्व किन लोगों के पास है।
संयोग नहीं हालात की स्वाभाविक परिणति है कि ऐसे ही समय में जब विशाल कम्युनिस्ट या वामपंथी एका की बात चल रही है तभी वृहद सांस्कृतिक मोर्चा बनाने की जरूरत भी शिद्दत से महसूस की जा रही है। सांस्कृतिक मोर्चे के निश्चित राजनैतिक परिप्रेक्ष्य हो सकते हैं। सावधानी चाहिए तो बस इतनी ही कि वह पार्टी की जरूरतों पर आधारित न हो। ”साहित्य को राजनीतिक चेतना से सम्पन्न बनाने का अर्थ साहित्य- सृजन और चिंतन में राजनीतिक संघर्ष की रणनीति और कार्य नीति का अमल नहीं है।“
समय का साम्यवादी होना दिवास्वप्न की तरह है तो स्टालिनग्राड के मोर्चे पर हिटलर की सेनाओं के ध्वंस से उत्साहित होकर मख्दूम का झूम-झूमकर गाया गीत ”यह जंग है जंगे आजादी“ दिलों में पहले जैसा ओज भरने की सामर्थ्य खो चुका है। सुमन की लालसेना पूंॅजीवाद की चाकरी में है तो फैज के आश्वासनों के बावजूद सहर अब भी बहुत दूर है, एक हथौड़े वाले से कई हथौड़े वाले और फौलादी हाथों वाले होते चले जाने के बावजूद पूंॅजीवाद का कुछ नहीं बिगड़ा है। कई दिनों बाद घर में दाने आने की दारूण स्थिति अब भी शेष है। वाम दिशा विहान दिशा हो आयी है। कारण वश प्रगतिशील आन्दोलन की प्रासंगिकता भी शेष है और उसकी जरूरत भी। उसी तरह जैसे गोदान की। बावजूद इसके यह नहीं कहा जा सकता कि भोर का स्वप्न अपना समूचा सम्मोहन खो चुका है, भूमण्डलीकरण और बाजार वाद द्वारा प्रस्तुत कलाकर्म को हाशिये पर डालने, इलेक्ट्रानिक चैनल्स द्वारा उसे जीवन से बाहर निकालने तथा सांस्कृतिक प्रदूषण की चुनौती ने प्रगतिशील आन्दोलन, सांस्कृतिक एका तथा अमानवीय लूट के विरूद्ध वैचारिक सृजनात्मकता तथा मानवीय संवेदना के हस्तक्षेप दोनों को अधिक जरूरी बनाया है। बदलाव की इच्छा आवेगपूर्ण हो आई हो तो संकीर्णता व अतिवाद के खतरे पैदा हो ही जाते हैं। कविता नारा बन जाती है। लड़ाई के दौर में नारों की अपनी भूमिका होती है। यह लड़ाई का दौर है। नारे फैज ने भी लगाये, शमशेर, नागार्जुन, मख्दूम, मजाज और केदारनाथ अग्रवाल ने भी, शिवमंगल सिंह सुमन, शील, मजरूह, तोप्पिल भासी और कैफी आजमी, नियाज हैदर ने भी। नारों से साहित्य को उतनी बड़ी क्षति नहीं पहुंॅचती जितनी नारे न होने पर जनसंघर्षों को, इंसान की भलाई की लड़ाई को पहुंॅच सकती है। इससे साहित्य को नारा बनाने की पक्षधरता का तात्पर्य नहीं लेना चाहिए, कहना मात्र इतना है कि यदि साहित्य का इंसानी भलाई से कोई सरोकार है तो नारों के लिए कुछ गंुजाइश तो होनी ही चाहिए। नारा भी कलात्मक अनुभव हो सकता है। अब इसे सम्मानीय आलोचक रोमांटिक और अंधलोकवादी रूझान कहे तो कहें।
हबीब जालिब की शायरी का बड़ा हिस्सा नारा है। फैज की कुछ नज्में भी। पाकिस्तान की निरंकुश सत्ताएं दोनों से लगातार भयभीत रही। वहांॅ प्रगतिशील आन्दोलन को अपनी यात्रा कठिन परिस्थितियों में तय करनी पड़ी। रावल पिण्डी साजिश केस (1948) ने हालात को अधिक दुरूह बनाया। प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। कई लेखक गिरफ्तार कर लिये गये (1954) इनमें वहांॅ के राष्ट्रीय सचिव अहमद नदीम कासमी भी थे। लाहौर में प्रगतिशील लेखकों के पहले अखिल पाकिस्तान सम्मेलन (नवम्बर, 1949) पर लाठी डण्डों से हमला किया गया। लेखकों पर पाकिस्तान-इस्लाम विरोधी नारों का इल्जाम लगाते हुए उनके विरूद्ध मुकदमें दर्ज हुए। रावल पिण्डी साजिश केस के बाद चालीस मस्जिदों के इमामों ने फैज व दूसरे प्रगतिशील लेखकों के खिलाफ बयान जारी किये। यहांॅ तक कि लन्दन में प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक दीन मुहम्मद तासीर भी मुखालिफों में शामिल हो गये। पंजाब के गवर्नर के रूप में जिनके पुत्र सलमान तासीर की हाल ही में हत्या हुई है। मतलब यह है कि जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे। पाकिस्तान में प्रलेस द्वारा आयोजित मई दिवस के जलसों पर भी हमले किये गये।
पाकिस्तान बनने के तुरन्त उपरान्त तक उस क्षेत्र यानि कि पश्चिमी पाकिस्तान की कई भाषाओं जैसे सिन्धी, पंजाबी, पश्तो, मुल्तानी, सरायकी इत्यादि भाषाओं में प्रगतिशील आन्दोलन की जड़े कहीं गहरी, कहीं कम गहरी हो चुकी थी। पूर्वी पाकिस्तान की भी लगभग यही स्थिति थी। वहांॅ आन्दोलन के कार्यकर्ता अब भी मौजूद हैं। कुछ साल पहले तक सिन्धी अदबी संगत की शाखाएंॅ सिन्ध से बाहर रावल पिण्डी, कोयटा तथा जद्दा तक में सक्रिय थी। कई बड़े शहरों में प्रगतिशील लेखक कहीं मूल कहीं बदले हुए नामों वाले संगठनों के बैनर तले संगठित हैं। स्वर्ण जयन्ती समारोह (लखनऊ 1986) में वहांॅ से बड़े प्रतिनिधि मण्डल का आना और वहांॅ स्वर्ण जयन्ती का भव्य आयोजन तथा 1936 से 1986 तक के अधिवेशनों की रिपोर्टों पर आधारित दस्तावेज का प्रकाशित होना, एकतरफा, मंशूर, अफकार, आज, फुनून, सीप जैसी पत्रिकाएं, वहांॅ रचे जा रहे साहित्य यह संकेत देते रहे हैं कि 1936 में रौशन चिंगारी वहांॅ बुझी नहीं है। साहित्य का केन्द्रीय स्वर अब भी प्रगतिशील है। साम्राज्यवादी विस्तार, पूंॅजीवादी लूट, जन दमन, एकाधिकार वाद, लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन, स्त्रियों की बाड़े बन्दी तथा धार्मिक उन्माद उससे पैदा हुआ आतंकवाद, उसकी व्यावसायिकता के विरूद्ध लेखक खतरे उठा कर भी लिख रहे हैं। महिला रचनाकारों की साहसिकता ने हदों को तोड़ा है और साबित किया है कि संगठन के बगैर भी आन्दोलन चलते रह सकते हैं। पाकिस्तान के प्रगतिशील रचनाकारों ने अमन व मित्रता के पक्ष में शस्त्रों की होड़ तथा युद्ध विरोधी अभियानों की भी अगुवाई की हैं पाकिस्तान के रचनाकारों ने प्रगतिशीलता के संदेश को कई अमरीकी, यूरोपीय तथा एशियाई देशों में पहंॅुचाने की पहल अर्जित की है। कहीं- कहीं संगठन भी मौजूद है, जैसे लन्दन में जिसने 1985 में स्वर्ण जयन्ती का भव्य आयोजन भी किया। ब्वउउमदजउमदज नाम से एक दस्तावेज भी प्रकाशित किया। पत्रिकाएं तो निकलती ही हैं। निःसन्देह प्युपिल्स पार्टी के शासन काल में प्रलेस की गतिविधियांॅ ज्यादा तेज हुई। बंगाल, केरल, त्रिपुरा में वामपंथी शासन के बावजूद ऐसा नहीं हो पाया यह अलग बात है।
भारत हो या पाकिस्तान संकरी संकीर्णता ने आन्दोलन को जो क्षति पहुंॅचाई वह अपनी जगह। उल्लेखनीय है कि फैज पाकिस्तान प्र0ले0सं0 से उसके नेतृत्व तथा भारत में कुछ रचनाकार राम विलास शर्मा व अली सरदार जाफरी के अतिवादी रवैये के कारण ही अलग हुए थे। अति उदारता ने भी आन्दोलन को बहुत नुकसान पहुंॅचाया, कृश्नचन्दर के सचिव काल में तो जैसे अराजकता की स्थिति पैदा हो गई थी। राजीव सक्सेना के काल में भी लगभग यही स्थिति थी। भीष्म साहनी तथा डॉ0 कमला प्रसाद का नेतृत्व आन्दोलन की बड़ी उपलब्धि है। सज्जाद जहीर के समय की अखिल भारतीयता आन्दोलन को उन्हीं के काल में प्राप्त हो पायी। उनकी सक्रियता ने आन्दोलन में जैसे नये प्राण फूंॅक दिये। बांॅदा, गया और जबलपुर- जयपुर के अधिवेशनों ने आन्दोलन को विनाश की हद तक पहुंॅचने से बचाया। सिकुड़ती हुई सीमाओं के बीच गया सम्मेलन ने संघ को महासंघ बना दिया। उत्तर प्रदेश में 1975 के बाद आया नया उभार यहीं से प्रेरित था। जबलपुर का अधिवेशन (1980) इस अर्थ में महत्वपूर्ण साबित हुआ कि उसने कम से कम मध्य प्रदेश में संगठनात्मक लक्ष्यों की पूर्ति तथा आन्दोलन के फैलाव में बड़ी मदद की। समूचे उत्तरी पूर्वी व पश्चिमी भारत में आन्दोलन, उससे भी ज्यादा प्रगतिशील लेखन के पक्ष में समर्थन का उत्तेजनापूर्ण वातावरण बनाने में लघु पत्रिका आन्दोलन ऐतिहासिक महत्व का योगदान दे रहा था। ”पहल“ की उसमें विशेष भूमिका थी। बहुत कुछ हार कर खास वर्गों का हित पोषण करने वाली अन्याय परक व्यवस्था के विरूद्ध शब्दकर्म का वह महा अभियान अब अतीत का यथार्थ हो गया है। लेकिन धमनियों में शिथिल होते रक्त को प्रवाह देने का सामर्थ्य अब भी उसके पास हैं। सच पूछिये तो आधुनिकता- स्वच्छंदतावादी, विसर्जोन्मुखी प्रवृत्तियों को, तथा निराकारी आत्मोन्मुखी शमशानी मनोविज्ञान के धराशाई होने में लघुपत्रिका आन्दोलन की शक्ति प्रमुख थी। ऊर्जा समानान्तर सिनेमा से भी मिल रही थी। ”प्रगतिशील आन्दोलन अपनी भूमिका निभा चुका है, उसे भंग कर देना चाहिये“ का उद्घोष करने वाली विसर्जनवादी प्रवृत्ति विभाजन के बाद ज्यादा सक्रिय दिखाई दी थी। हताश होकर उसका स्वयम् विसर्जित हो जाना इतिहास की बड़ी घटना है। कमोवेश यही स्थिति लगभग इसी काल में पारम्परिकता के पूर्ण निषेध आधुनिकतावाद पोषित अमूर्त्तता, कलावाद, वैयक्तिकता, सामाजिक उद्देश्य से विमुखता, अकहानी, नई कहानी, प्रतीक वाद तथा साहित्य की स्वायत्तता आदि प्रवृत्तियों का संगठित आक्रमण भी तेज हुआ। उर्दू में अपेक्षाकृत यह ज्यादा सघन था। इससे आन्दोलन को कुछ चोट अवश्य पहुंॅची। परन्तु इसका अंजाम भी विर्सजनवाद के जैसा ही हुआ। सामाजिक प्रतिबद्धता अग्नि परीक्षा के बाद कुन्दन सी आभामयी हो गयी। 1953 के दिल्ली व 1954 के कराची अधिवेशनों में इसका खास नोटिस लिया गया।
पूंॅजीवादी प्रलोभनों, अमरीका प्रेरित कल्चरल फ्रीडम के नारों, तीव्र होते व्यवसायीकरण और महंगाई में आटा गीला हो जाने के समान सोवियत संघ तथा दूसरी साम्यवादी सत्ताओं का पतन, लाखों- लाख लोगों को सम्मोहित करने वाला सुनहरा स्वप्न ही बिखर गया, निराशाजन्य अवसद के बीच आन्दोलन की यात्रा अधिक कठिन हो गयी। कामरेड का कोट चीथड़े हो गया। वोदका का मादक स्वाद जीवन की कसैली याद जैसा हो आया। इन हालात में यगाना चंगेजी की वह फब्ती कौन दोहराता जो उन्होंने 1857 के संदर्भ में मिर्जा गालिब पर कसी थी
शहजादे पड़े फिरंगियों के पाले
मिर्जा के गले में मोतियों के माले
या यह कि -
तलवार से गरज न भाण्डे से गरज
मिर्जा को अपने हलवे माण्डे से गरज
उपलब्धियों के कई तमगो के बीच एक दाग भी है, लेखकों, विशेष रूप से युवा लेखकों के हित में आन्दोलन या प्र0ले0सं0 का कोई ठोस काम न कर पाना। प्रकाशकों के शोषण से उन्हें बचाने के लिए कोई कारगर रणनीति न अपना सका। एक केन्द्रीय प्रकाशन गृह और पत्रिका का निरन्तरता न प्राप्त कर पाना। प्रलेस के अधिवेशनों की रिपोर्टों का संकलित न हो सकता। दाग और भी है लेकिन यह दाग़ धब्बे दिखाने का अवसर नहीं है। इसकी जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह पर नहीं, आन्दोलन में शामिल सभी रचनाकारों पर आती है। यह समय आत्मविश्लेषण का जरूरी है। गहरे आत्ममंथन का समय है। जो आग या मशाल 1936 में रौशन हुई थी, उसकी आंॅच कम हुई है पर वह बुझी नहीं है। उस आग में, मशाल में पूर्वजों ने इतनी आंॅच और रौशनी भर दी है कि वह आसानी से बुझेगी भी नहीं, नये रचनाकार आते रहेंगे वो उसके होने से इंकार करेंगे और उसकी तपन से प्रभावित भी होते रहेंगे। कोई भी रचनाकार भले वह कितना ही ऊर्जावान हो परम्परा से कटकर बहुत दूर तक नहीं जा सकता। जब परम्परा की याद आयेगी तो प्रेमचन्द याद आयेंगे, जब प्रेमचंद याद आयेंगे तो प्रगतिशील लेखन आन्दोलन याद आयेगा। यह स्मरण की उस आग को बाकी रखेगा, यों तो जो लिखा जा रहा है उसका बहुतांश ही उसके शेष रह जाने का संकेत है।
डॉ0 नामवर सिंह ने 1986 में प्रगतिशील आन्दोलन की पचासवीं वर्षगांॅठ के अवसर पर लिखे गये अपने एक लेख में रेखाकित किया है कि ”वस्तुतः सन् 1936 के बाद का हिन्दी साहित्य प्रगतिशील आन्दोलन के सचेत और संगठित हस्तक्षेप का पात्र है“ और उसे हम चाहें तो वाल्टर वेन्जामिन के शब्दों में ”इतिहास के नैरंतर्य में विस्फोट की संज्ञा दे सकते हैं....“
इतिहास के इस नैरंतर्य को आगे जारी रखने की कठिन चुनौती आन्दोलन के सहयात्रियों के सम्मुख है। डा0 नामवर सिंह ने लेख की शुरूआत में यह भी याद दिलाया है कि ”पचास साल पहले, जैसी और जिन चुनौतियों का सामना करने के लिए, प्रगतिशील लेखक संघबद्ध हुए थे, आज वैसी ही, किन्तु उनसे भी अधिक गंभीर चुनौतियांॅ हमारे सामने हैं .....“
तब भी कुछ खास चुनौतियों के संदर्भ अन्तर्राष्ट्रीय थे, आज वे संदर्भ अधिक भयावह रूप में प्रस्तुत है। संयोग से गोदान भी जिन चुनौतियों से टकराते हुए पूर्णता प्राप्त करता है, बिगड़ी हुई शक्ल में वे चुनौतियांॅ भी हमारे सम्मुख है। धार्मिक- सांप्रदायिक फासीवपाद से बाजारवादी शक्तियों के गठजोड़ ने प्रगतिशील लेखन का संकट बढ़ाया। संस्कृति इतिहास के तीव्रतम आक्रमण की चपेट में है, जनपक्षधर शक्तियों के लगातार कमजोर होते जाने के कारण चुनौतियांॅ अधिक दुरूह तथा आक्रमण अधिक सघन हुआ है। लेखन को प्रमुखता देते हुए बहुआयामी सक्रियता से ही इनका कारगर मुकाबला किया जा सकता है। प्रगतिशीलता की आरंभिक अवधारणा भी यही रही है। जाहिर सी बात है इसके लिए दृष्टिकोण में बदली हुई व्यापकता तो लानी ही होगी। प्रगति की समय सापेक्षता का चिंतन तो साथ रहेगा ही।
”जो साहित्य मनुष्य के उत्पीड़न को छिपाता है, संस्कृति की झीनी चादर बुनकर उसे ढांॅकना चाहता है, वह प्रचारक न दीखते हुए भी वास्तव में प्रतिक्रियावाद का प्रचारक होता है।
संदर्भ:
1. नामवर सिंह, वाद- विवाद संवाद, पृ. 89
2. वही
3. वही, पृ. 91
4. हमीद अख्तर, रूदादे अन्जुमन, पृ. 190
5. वही, पृ. 198
6. वही, पृ. 190
7. सज्जाद जहीर, रौशनाई (हिन्दी अनुवाद), पृ. 243
8. डा. नामवर सिंह, वाद-विवाद संवाद
9. चन्द्रबली सिंह, ‘कथन’ त्रैमासिक, जुलाई-सितम्बर, 2011
10. नामवर सिंह, वाद-विवाद संवाद, पृ. 87
11. वही
12. राम विलास शर्मा, प्रगति और परम्परा, पृ. 50
- शकील सिद्दीकी