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Monday, November 28, 2011

संदर्भ: फैज अहमद फ़ैज़ जन्मशती वर्ष

फैज अहमद फै़ज़: अवाम का महबूब शायर
साल 2011 हिंदी- उर्दू के कई बड़े कवियों का जन्मशताब्दी साल है। यह एक महज इत्तेफाक है कि हिंदी में जहां हम इस साल बाबा नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह और अज्ञेय को उनकी जन्मशती पर याद कर रहे हैं वहीं उर्दू के दो बड़े शायर मज़ाज और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी यह जन्मशती साल है। बहरहाल, इन सब दिग्गज कवियों के बीच फ़ैज़ का मुकाम कुछ जुदा है। वे न सिर्फ उर्दूभाषियों के पसंदीदा शायर हैं, बल्कि हिंदी और पंजाबीभाषी लोग भी उन्हें उतने ही शिद्दत से प्यार करते हैं। गोया कि फ़ैज़ भाषा और क्षेत्रीयता की सभी हदें पार करते हैं। एक पूरा दौर गुजर गया, लेकिन फ़ैज़ की शायरी आज भी हिंद उपमहाद्वीप के करोड़ों- करोड़ों लोगों के दिलों दिमाग पर छाई हुई है। उनकी नज्मों- गजलों के मिसरे और टुकड़े लोगों की जबान पर कहावतों की तरह चढ़े हुए हैं। सच मायने में कहंे तो फ़ैज़ अवाम के महबूब शायर हैं और उनकी शायरी हरदिल अजीज।
 अविभाजित भारत के सियालकोट जिले के छोटे से गांव कालाकादिर में 13 फरवरी, 1911 को जन्मे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शुरूआती तालीम मदरसे में हुई। बचपन में ही उन्होंने अरबी व फारसी की तालीम मुकम्मल कर ली थी। बाद में उन्होंने स्कॉट मिशन स्कूल में दाखिल लिया। अदबी रूझान फ़ैज़ को विरासत में मिला। आपके वालिद सुल्तान मोहम्मद खान की गहरी दिलचस्पी अदब में थी। उर्दू के अजीम शायर इकबाल और सर अब्दुल कदीर से उनके नजदीकी संबंध थे। जाहिर हैं, परिवार के अदबी माहौल का फ़ैज़ पर भी असर पड़ा। स्कूली तालीम के दौरान ही उन्हें शायरी से लगाव हो गया। वे शायरी की किताबें किराये पर ले- लेकर पढ़ते। गोया कि शायरी का जुनून उनके सिर चढ़कर बोलता। शायरी के जानिब फ़ैज़ के इस लगाव को देखकर स्कूल के हेड मास्टर ने एक दिन उन्हें एक मिसरा दिया और उस पर गिरह लगाने को कहा। फ़ैज़ ने उनके कहने पर पाँच-छः अस आर की गजल लिख डाली। जिसे बाद में इनाम भी मिला। इसी के साथ ही उनके नियमित लेखन का सिलसिला शुरू हो गया। स्कूली तालीम के बाद उनकी आगे की पढ़ाई सियालकोट के मरे कॉलेज और लाहौर के ओरियंटन कॉलेज में हुई। वहांॅ उन्होंने अरबी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में एम0ए0 किया। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का परिवार, बड़ा परिवार था, जिसमें पांॅच बहनें और चार भाई थे। परिवार की आर्थिक मुश्किलों को देखते हुए, तालीम पूरी होते ही उन्होंने 1935 में एमएओ कॉलेज, अमृतसर में नौकरी ज्वाईन कर ली। वे अंग्रेजी के लेक्चरर हो गये।
 अमृतसर में नौकरी के दौरान उनकी मुलाकात महमूदज्जफर, डॉ0 रशीद जहां और डॉ0 मोहम्मद दीन तासीर से हुई। बाद में उनके दोस्तों की फेहरिस्त में सज्जाद जहीर का नाम भी जुड़ा। यह वह दौर था, जब भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ आजादी का आंदोलन चरम पर था और हर हिंदोस्तानी अपनी- अपनी तरह से इस आंदोलन में हिस्सेदारी कर रहा था। ऐसे ही हंगामाखेज माहौल में सज्जाद जहीर और उनके चंद दोस्तों ने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। जिसके पहले अधिवेशन के अध्यक्ष महान कथाकार- उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद चुने गए। बहरहाल, फ़ैज़ भी लेखकों के इस अंादोलन से जुड़ गए। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद फ़ैज़ की शायरी में एक बड़ा बदलाव आया। उनकी शायरी की अंतर्वस्तु का कैनवास व्यापक होता चला गया। इश्क, प्यार- मोहब्बत की रूमानियत से निकलकर फ़ैज़ अपनी शायरी में हकीकतनिगारी पर जोर देने लगे। इसके बाद ही उनकी यह मशहूर गजल सामने आई- ”और भी दुख हैं, जमाने में मुहब्बत के सिवा/ राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा/ मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरी महबूब न मांग।“ फ़ैज़ की शायरी में ये प्रगतिशील, जनवादी चेतना आखिर तक कायम रही। कमोबेश उनकी पूरी शायदी, तरक्की पसंद ख्यालों का ही आइना है। उनके पहले के ही काव्य संग्रह ”नक्शे फरियादी“ की एक गजल के कुछ अस आर देखिए- ”आजिजी सीखी, गरीबों की हिमायत सीखी/ यासो हिर्मा के दुख दर्द के मानी सीखे/ जेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा/ सर्द आहों के, रूखेजर्द के मानी सीखे।“
 साल 1941 में ‘नक्शे फरियादी’ के प्रकाशन के बाद फ़ैज़ का नाम उर्दू अदब के अहम रचनाकारों में शुमार होने लगा। मुशायरों में भी वे शिरकत करते। एक इंकलाबी शायर के तौर पर उन्होंने जल्द ही मुल्क में शोहरत हासिल कर ली। अपने कलाम से उन्होंने बार- बार मुल्कवासियों को एक फैसलाकुन जंग के लिए ललकारा। ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं“ शीर्षक नज्म में वे कहते हैं- ”सब सागर शीशे लालो- गुहर, इस बाजी में बद जाते हैं/ उठो, सब खाली हाथों को इस रन से बुलावे आते हैं।“ फ़ैज़ की ऐसी ही एक दीगर गजल का शेर है- ”लेकिन अब जुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं। इस जरा सब्र कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।“ मुल्क में आजादी की यह जद्दोजहद चल रही थी कि दूसरा महायुद्ध शुरू हो गया। जर्मनी ने रूस पर हमला कर दिया। यह हमला हुआ तो लगा कि अब इंग्लैण्ड भी नहीं बचेगा। भारत में फासिज्म की हुकूमत हो जाएगी। लिहाजा, फासिज्म को हराने के ख्याल से फ़ैज़ लेक्चरर का पद छोड़कर फौज में कप्तान हो गए। बाद में वे तरक्की पाकर कर्नल के ओहदे तक पहुंॅचे। आखिरकार, लाखों लोगों की कुर्बानियों के बाद 1947 में भारत को आजादी हासिल हुई। पर यह आजादी हमें बंटवारे के रूप में मिली। मुल्क दो हिस्सों में बंट गया। भारत और पाकिस्तान। बंटवारे सेे पहले हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने पूरे मुल्क को झुलसा के रख दिया। रक्तरंजित और जलते हुए शहरों को देखते हुए फ़ैज़ ने ‘सुबहे-आजादी’ शीर्षक से एक नज्म लिखी। इस नज्म में बंटवारे का दर्द जिस तरह से नुमाया हुआ वैसा उर्दू अदब में दूसरी जगह मिलना बमुश्किल हैं- ”ये दाग दाग उजाला, ये शब गजीदा सहर/ वो इंतिजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं/ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरजू लेकर/ चले थे यार कि मिल जाएगी, कहीं न कहीं।“ इस नज्म में फ़ैज़ यहीं नहीं रूक गए, बल्कि वे आगे कहते हैं- ”नजाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई/चले चलो कि वो मंजिल अभी नहीं आई।“ यानि, फ़ैज़ मुल्क की खंडित आजादी से बेहद गमगीन थे। यह उनके ख्यालों का हिंदोस्तान नहीं था और उन्हें उम्मीद थी कि जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाएगा।
 बहरहाल, बंटवारे के बाद फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने पाकिस्तान टाईम्स, इमरोज और लैलो निहार के संपादक के रूप में काम किया। पाकिस्तान में भी फ़ैज़ का संघर्ष खत्म नहीं हुआ। यहांॅ भी वे सरकारों की गलत नीतियों की लगातार मुखालफत करते रहे। इस मुखालफत के चलते उन्हें कई बार जेल भी हुई। लेकिन उन्होंने फिर भी अपने विचार नहीं बदले। जेल में रहते हुए ही उनके दो महत्वपूर्ण कविता संग्रह ‘दस्ते सबा’ और ‘जिंदानामा’ प्रकाशित हुए। कारावास में एक वक्त ऐसा भी आया, जब जेल प्रशासन ने उन्हें परिवार- दोस्तों से मिलवाना तो दूर, उनसे कागज- कलम तक छीन लिए। फ़ैज़ ने ऐसे ही हालात में लिखा- ”मताए लौहो कलम छिन गई, तो क्या गम है/ कि खूने दिल में डुबो ली है उंगलियां मैने/जबां पे मुहर लगी है, तो क्या कि रख दी है/हर एक हल्का-ए-जंजीर में जबां मैंने।“ कारावास के दौरान फ़ैज़ की लिखी गई गजलों और नज्मों ने दुनिया भर की आवाम को प्रभावित किया। तुर्की के महान कवि नाजिम हिकमत की तरह उन्होंने भी कारावास और देश निकाला जैसी यातनाएं भोगी। लेकिन फिर भी वे फौजी हुक्मरानों के खिलाफ प्रतिरोध के गीत गाते रहे। ऐसी ही प्रतिरोध की उनकी एक नज्म है- ”निसार मैं तेरी गलियों पे ए वतन कि जहांॅॅ/चली है रस्म की कोई न सर उठाके चले/जो कोई चाहने वाला तवाफ को निकले/नजर चुरा के चले, जिस्मों- जां को बचा के चले।“
 फ़ैज़ की सारी जिंदगी को यदि उठाकर देखे तो उनकी जिंदगी कई उतार-चढ़ाव और संघर्षों की दास्तान है। बावजूद इसके उन्होंने अपना लिखना नहीं छोड़ा। उनकी जिंदगानी में और उसके बाद कई किताबें प्रकाशित हुई। दस्ते-तहे-संग, वादी-ए-सीना, शामे-शहरे-यारां, सारे सुखन हमारे, नुस्खहा-ए-वफा, गुबारे अयाम जहां उनके दीगर काव्य संग्रह हैं। वहीं मीजान और मताए-लौहो-कलम किताबों में उनके निबंध संकलित है। फ़ैज़ ने रेडियो नाटक भी लिखें। जिनमें दो नाटक-अजब सितमगर है और अमन के फरि ते काफी मकबूल हुए। उन्होंने जागो हुआ सबेरा नाम से एक फिल्म भी बनाई। जो लंदन के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में पुरस्कृत हुई। 1962 में उन्हें लेनिन शांति सम्मान से नवाजा गया। फ़ैज़ पहले एशियाई शायर बने, जिन्हें यह सम्मान बख्शा गया।
 भारत और पाकिस्तान के तरक्कीपसंद शायरों की फेहरिस्त में ही नहीं बल्कि समूचे एशिया उपमहाद्वीप और अफ्रीका के स्वतंत्रता और समाजवाद के लिए किए गए संघर्षों के संदर्भ में भी फ़ैज़ सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रासंगिक शायर है। उनकी शायरी जहां इंसान को शोषण से मुक्त कराने की प्रेरणा देती है, वहीं एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना का सपना भी जगाती है। उन्होंने अवाम के नागरिक अधिकारों के लिए, सैनिक तानाशाही के खिलाफ जमकर लिखा। ‘लाजिम है कि हम देखेंगे’, ‘बोल कि लब आजाद है तेरे’, ‘कटते भी चलो बढ़ते भी चलो’ उनकी ऐसी ही कुछ इंकलाबी नज्में हैं। अपने जीवनकाल में ही फ़ैज़ समय और मुल्क की सरहदें लांघकर एक अंतर्राष्ट्रीय शायर के तौर पर मकबूल हो चुके थे। दुनिया के किसी भी कोने में जुल्म होते उनकी कलम मचलने लगती। अफ्रीका के मुक्ति संघर्ष में उन्होंने जहांॅ ‘अफ्रीका कम बैक का’ नारा दिया, वहीं बेरूत में हुए नरसंहार के खिलाफ भी उन्होंने एक नज्म ‘एक नगमा कर्बला-ए-बेरूत के लिए’ शीर्षक से लिखी। गोया कि दुनिया में कहीं भी नाइंसाफी होती, तो वे अपनी नज्मों और गजलों के जरिये प्रतिरोध दर्ज करते थे।
 कुल मिलाकर फ़ैज़ की शायरी आज भी दुनिया भर में चल रहे लोकतांत्रिक संघर्ष को आवाज देती है। स्वाधीनता, जनवाद और सामाजिक समानता उनकी शायरी का मूल स्वर है। फ़ैज़ अपनी सारी जिंदगी में इस कसम को बड़ी मजबूती से निभाते रहे- ”हम परविशे- लौह-ओ-कलम करते रहेंगे/ जो दिल पे गुजरती है, रकम करते रहेंगे।“ एक मुकम्मल जिंदगी जीने के बाद फ़ैज़ ने 20 नवम्बर, 1984 को इस दुनिया से रूखसती ली। अवाम का यह महबूब शायर शारीरिक रूप से भले ही हमसे जुदा हो गया हो, लेकिन उनकी शायरी हमेशा जिंदा रहेगी और प्रेरणा देती रहेगी- ”बोल, कि लब आजाद हैं तेरे/बोल कि अब तक जुबा है तेरी।“
- जाहिद खान

Saturday, November 19, 2011

फैसले का पैगाम

संदर्भ: वचाटी गांव के आदिवासियों को दो दशक के इंतजार के बाद इंसाफहमारे मुल्क में फरियादियों को समय पर अदालत से इंसाफ मिलना कितना मुश्किल भरा काम है, यह बात कई बार जाहिर हो चुकी है। गोया कि यदि पीड़ित परिवार आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है, तो उसकी लड़ाई और भी ज्यादा लंबी हो जाती है। इंसाफ के लिए उसे लंबा इंतजार करना पड़ता है। इंसाफ पाने के लिए ऐसा ही एक लंबा इंतजार, वचाटी गांव के आदिवासियों को करना पड़ा। तमिलनाडु में कृष्णगिरी जिले के वचाटी गांव में आदिवासी महिलाओं से बलात्कार, लूटपाट, हमले और दीगर तरह के जुल्म की वारदातें आज से 19 साल पहले हुई थी। दो दशक की पीड़ादायक प्रतीक्षा के बाद अब जाकर उन्हें इंसाफ मिला है। हाल ही में धर्मपुरी की एक विशेष अदालत ने साल 1992 के बहुचर्चित वचाटी मामले के 215 गुनहगारों को सजा सुनाई है। फैसले में वन महकमे के 126 कर्मियों, पुलिस के 84 और राजस्व महकमें के 5 कर्मियों को दोषी करार दिया गया। इस लंबे अरसे में पीड़ित परिवारों की कैसी मनोदशा रही होगी, इसका हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते। साधनहीन आदिवासियों की यह लड़ाई, शासन के सबसे शक्तिशाली तबके पुलिस, वन और राजस्व महकमे के 2 सैकड़ा से ज्यादा अफसरों के खिलाफ थी जो कि किसी भी लिहाज से आसान नहीं थी। फिर भी उन्होंने आखिर तक अपनी हिम्मत नहीं हारी और इंसाफ पा ही लिया।
 गौरतलब है कि इंसानियत को झिंझोड़ देने वाला यह लोमहर्षक मामला उस समय का है, जब चंदन तस्कर वीरप्पन की खोज में तमिलनाडु पुलिस और वन महकमे के लोग जंगल में जगह-जगह छापेमारी कर रहे थे। इसी सिलसिले में वचाटी गांव पहुंचे इस अमले ने वहां के आदिवासियों पर पूछताछ की आड़ में खुले आम कहर ढाया। पुलिस, वन और राजस्व महकमे के कोई पौने तीन सौ लोगों ने मिलकर वहां रहने वाले आदिवासियों को घरों से खींच-खींचकर जानवरों की तरह पीटा। यहां तक कि उनकी औरतों और बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके घर तोड़ दिए गए। घटना का सबसे शर्मनाक पहलू यह है कि पुलिसवालों ने 18 आदिवासी महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। अपनी वहशियाना हरकतों को सही साबित करने के लिए पुलिस ने उस वक्त कहा, इस गांव में गैरकानूनी तरीके से चंदन की लकड़ियों की तस्करी की जा रही थी और यह आदिवासी चंदन तस्कर वीरप्पन से मिले हुए हैं। लेकिन इस इल्जाम के बावजूद पुलिस को यह हक कैसे हासिल हो जाता है कि वह बिना किसी पर दोष साबित हुए, उसके साथ अमानवीय और नियम- कायदों के खिलाफ पेश आए। सजा देना कानून का काम है, न कि पुलिस का।
 बहराल, इंसाफ का तकाजा तो यह कहता था कि वचाटी गांव में आदिवासियों पर पुलिस के बर्बर अत्याचार के बाद, प्रशासन मुल्जिमों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करता। लेकिन हुआ इसके उलट। तत्कालीन सूबाई सरकार ने तमाम इल्जामों को खारिज करते हुए, वचाटी गांव के आदिवासियों को ही कसूरवार माना। उन पर इल्जाम लगाया कि वे चंदन लकड़ियों की तस्करी में मुब्तिला थे। तत्कालीन प्रशासन के हठधर्मी भरे रवैये का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस मुद्दे पर वामपंथी पार्टियों के लगातार विरोध- प्रदर्शनों के बावजूद 3 साल तक इस घटना की एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई। आखिर जांॅच तब शुरू हुई, जब 1995 में एक जनहित याचिका के बाद मद्रास हाईकोर्ट ने इसकी जिम्मेदारी सीबीआई को सौंपी। सीबीआई जांॅच के बाद पूरा सच मुल्क के सामने आ गया। मामले की जांच कर रही सीबीआई ने 269 लोगों को आरोपी बनाते हुए अदालत में सभी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किए थे, लेकिन मामले की 19 साल तक चले सुनवाई के दौरान 54 आरोपियों की मौत हो गई। जबकि 215 आरोपियों के खिलाफ सुनवाई जारी रही।
 पुलिस के अत्याचार और मानवाधिकारों के उल्लंघन की मुल्क में यह कोई पहली घटना नहीं है। बल्कि उनके द्वारा यह घिनौने कारनामे बार- बार दोहराए जाते हैं। अदालतों के तमाम आदेश और फटकारों के बाद भी पुलिस अपनी कार्यप्रणाली बिल्कुल नहीं सुधारती। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब छत्तीसगढ़ के दक्षिणी बस्तर में पुलिस और अर्धसैनिक बल के जवानों ने आदिवासियों के तीन सौ से ज्यादा घरों को फूंका, लोगों की बड़ी बेरहमी से पिटाई की ओर उनकी औरतों के साथ दुर्व्यवहार किया। यहांॅ भी अर्धसैनिक बल के जवानों ने उन्हीं दलीलों का सहारा लेकर अपने आप को सही साबित करने की कोशिश की, जिस तरह से वचाटी गांव की घटना के बाद वहां के पुलिसवालों ने की थी। अर्धसैनिक बल के जवानों का कहना था कि आदिवासी नक्सलियों से मिले हुए हैं और उनकी सहायता करते हैं। यानि, गलत को सही साबित करना, तो जैसे पुलिसवालों की फितरत मंें ही आ गया है। मुल्क के जो हिस्से बरसों से अलगाववाद, नक्सलवाद और दहशतगर्दी से जूझ रहे हैं, वहां अक्सर पुलिस व सुरक्षाबलों की कार्रवाई के दौरान मानवाधिकारों के बड़ी तादाद में उल्लंघन और वचाटी गांव जैसी घटनाओं की शिकायतें सामने आती हैं। मगर फिर भी हमारे सरकारें इन घटनाओं के जानिब असंवेदनशील बनी रहती हैं। उनकी प्राथमिकताओं में कभी यह बातें शामिल नहीं हो पाती कि किस तरह से पुलिस और सुरक्षा बलों का चेहरा मानवीय बनाया जाए। मीडिया में जब मामला उछलता है, तब जाकर वह कुछ सक्रिय होती है। लेकिन यह सक्रियता भी मामले को गोलमाल करने से ज्यादा कुछ नहीं होती। पहले घटना की जांच के लिए आयोग बनता है। फिर कुछ सालों के इंतजार के बाद आयोग की रिपोर्ट आती है और आखिर में जाकर रिपोर्ट की अनुशंसाओं पर कोई अमल किए बिना उन्हें बिसरा दिया जाता है।
 कुल मिलाकर, वचाटी मामले में आदिवासियों को यदि इंसाफ मिल सका तो यह सियासी, समाजी संगठनों की सक्रियता और न्यायपालिका के हस्तक्षेप का नतीजा है। गर सामूहिक दबाव नहीं बनता तो यह मामला भी दीगर मामलों की तरह कभी का रफा-दफा हो गया होता। देर से ही सही, धर्मपुरी की स्थानीय अदालत के फैसले के बाद मुल्क में हाशिए पर डाल दिए गए समूहों का यकीन निश्चित रूप से एक बार फिर हमारे न्यायपालिका पर बढ़ेगा। अदालत का ताजा फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें पहली बार इतनी बड़ी तादाद में पुलिसवालों और वनकर्मियों को सजा सुनाई गई है। लेकिन दोषी पुलिसवालों को सजा मिलने के बाद क्या अब हमें चुप बैठ जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं। अब वक्त आ गया है कि सरकार पर, पुलिस सुधारों के लिए पूरे मुल्क में एक व्यापक दबाव बनाया जाए। क्योंकि, जब तलक पुलिस सुधार नहीं होंगे, तब तक न तो पुलिस की कार्यप्रणाली में बदलाव आएगा और न ही मानवाधिकारों की हिफाजत हो पाएगी।
- जाहिद खान