यूरोपीय संघ के अधिकांश देश गहराते आर्थिक संकट के कारण सरकार के दिवालियेपन और आर्थिक रूप से धराशायी होने के कगार पर है। वहांॅ उमड़े संकट के ये बादल उन विकासमान देशों तक भी पहुंॅचने लगे हैं जो मई, 2008 से शुरू भूमंडलीय मंदी के अभी तक कम ही शिकार हुए हैं। इन हालात ने ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को इब्सा (इंडिया, ब्राजील, साउथ अफ्रीका- आईबीएसए) के अंतर्गत एकजुट कर दिया है ताकि वे इस भूमंडलीय संकट पर अपेक्षाकृत अधिक वस्तुगत तरीके से अपना दृष्टिकोण तय कर सके। इस प्रकार जब लगातार गहराते आर्थिक संकट से पार पाने के लिए कोई आर्थिक योजना तय करने के लिए पेरिस में जी-20 की मीटिंग एक ही महीने के बाद होने वाली है तो भारत के प्रधानमंत्री और ब्राजील एवं दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपतियों की प्रिटोरिया शिखर बैठक का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। एक तरफ यूरोप के विकसित देश हैं और दूसरी तरफ इब्सा के देश और साथ ही रूस और चीन जैसे देश हैं। पेरिस में इब्सा को रूस और चीन के साथ तालमेल रखनी होगी जो उनसे साथ ‘ब्रिक्स’ (ब्राजील, इंडिया, चाइना, साउथ अफ्रीका) संगठन में शामिल हैं।
इब्सा के घोषणा पत्र में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के कामकाज पर चर्चा की गयी। पर वह वर्तमान आर्थिक संकट के बुनियादी कारणों को नहीं छूता। यह सच है कि इन दोनों संगठनों पर विकसित देश या और अधिक सही कहंे तो अमरीका हावी है। वर्तमान आर्थिक संकट की जड़ में इन संस्थानों के जो नुस्खे जिम्मेदार हैं उनके बारे में घोषणा पत्र में कुछ भी नहीं कहा गया है। यह अब कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वर्तमान भूमंडलीय संकट पंूजीवाद का चक्रीय आर्थिक संकट नहीं है बल्कि यह संकट उस अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा निर्दिष्ट नीतियों के थोपने के कारण पैदा हुआ है जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने मुनाफों को अधिकाधिक बढ़ाना और हर हथकंडे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट करना है। न सिर्फ इन देशों के लोग कर्ज आधारित तौर तरीकों से जीवन गुजारते हैं बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्था भी उन कर्जों एवं बोर्डों पर आधारित हैं जिन्हें इस तरह के संकट में दुनिया को धकेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्त ने बढ़ावा दिया है। संकट से पार पाने के लिए विकसित देशों ने दिवालिया हुए बैंकों और वित्त संस्थानों को बेलआउट पैकेज देने और धाराशायी होती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कमखर्ची के कदम (ऑस्टेरिटी मेजर्स) उठाने के तरीके अपनाये। पर इससे संकट पर पार पाना तो दूर रहा, संकट और अधिक गहरा गया। हाल के दिनों में अमरीका और यूरोप के 1500 के करीब शहरों में लोग जिस तरह इन तरीकों के विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं वह इन देशों को राजनैतिक संकट की दिशा में ले जायेगा। 17 सितम्बर को न्यूयार्क में शुरू हुआ ”वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो“ आंदोलन अब तेजी से नये इलाकांे में फैल रहा है। सुदूर पूर्व जापान तक में जन प्रतिरोध की आंधी चल रही है। ग्रीस, जो पहले ही आर्थिक दिवालियेपन और धराशायी होने के कगार पर हैं वहांॅ जबर्दस्त विरोध आंदोलन हो रहा है। सरकार ताकत के बल पर उसे दबाने की कोशिश कर रही है। इस सप्ताह इटली में भी हिंसा हुई। संभव है स्पेन, पुर्तगाल और फ्रांस दिवालियापन के अगले शिकार बनें। कुछ दिन तक को सरकार विरोध प्रदर्शनों और आंदोलन को दबाने में कामयाब रह सकती है वह दिन दूर नहीं जब यह आंदोलन वर्ग युद्ध की प्रकृति हासिल कर ले। अभी अधिकांशतः ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त और दिशाविहीन हैं। जो ताकतें अन्ततः वर्ग संघर्ष की जीत में यकीन करती हैं जरूरत है कि वे आगे आयें और समय रहते इसे एक सही आकार दें।
इब्सा घोषणा पत्र में अरब जगत के संकट, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पुर्नगठन जैसी प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनओं पर समन्वित कार्रवाई के बारे में बाते कहीं गयी हैं। उसमें सीरिया को एक मंत्री स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की बात भी कही गयी है ताकि अमरीका- ब्रिटेन- फ्रांस की तिकड़ी द्वारा लीबिया पर हमले की तरह की सीरिया पर किसी कार्रवाई को रोका जा सके। यहां तक तो ठीक है पर इब्सा देशों को खासकर भारत को उन नीतियांे पर ध्यान देना होगा जिन पर वह चल रहे हैं।
डा0 मनमोहन सिंह के तहत यूपीए- दो सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसे उसके एजेंट संगठनों द्वारा निर्दिष्ट आर्थिक नव उदारवाद के नुस्खे को पूरी तरह हृदयंगम कर रखा है। यूपीए- दो सरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तो आर्थिक नव उदारवाद के अपरिहार्य सह उत्पादों- इसकी बुराईयों की बातें करती हैं पर देश में उन्हीं विनाशकारी नीतियों पर बेशर्मी के साथ अमल करी हैं। मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, बढ़ती बेरोजगारी और अमीरों एवं गरीबांे के बीच बढ़ती असमानता- ये सभी चीजें आर्थिक नव उदारवाद के उत्पाद हैं। देश में ऐसी ताकतें हैं जो जनता के दिलों- दिमाग पर पकड़ रखने वाले भावनात्मक मुद्दों को उछालकर जनता का ध्यान इन बुराईयों के बुनियादी कारणों से हटाने की कोशिश करेंगे। इस किस्म की गुमराह करने वाली कोशिशों से सावधान रहना होगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने व्यापक स्तर पर भूख हड़ताल के अभियान का आह्वान किया है। अच्छा होगा हम आर्थिक नव उदारवाद, अधिकांशतः पूंजीवाद परस्त पार्टियां जिसके लिए प्रतिबद्ध हैं, के विरूद्ध और अधिक सतत एवं संगठित आंदोलन के लिए इस भूख हड़ताल से शुरूआत करें।
इब्सा के घोषणा पत्र में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक के कामकाज पर चर्चा की गयी। पर वह वर्तमान आर्थिक संकट के बुनियादी कारणों को नहीं छूता। यह सच है कि इन दोनों संगठनों पर विकसित देश या और अधिक सही कहंे तो अमरीका हावी है। वर्तमान आर्थिक संकट की जड़ में इन संस्थानों के जो नुस्खे जिम्मेदार हैं उनके बारे में घोषणा पत्र में कुछ भी नहीं कहा गया है। यह अब कोई रहस्य नहीं रह गया है कि वर्तमान भूमंडलीय संकट पंूजीवाद का चक्रीय आर्थिक संकट नहीं है बल्कि यह संकट उस अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा निर्दिष्ट नीतियों के थोपने के कारण पैदा हुआ है जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने मुनाफों को अधिकाधिक बढ़ाना और हर हथकंडे अपनाकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट करना है। न सिर्फ इन देशों के लोग कर्ज आधारित तौर तरीकों से जीवन गुजारते हैं बल्कि इन देशों की अर्थव्यवस्था भी उन कर्जों एवं बोर्डों पर आधारित हैं जिन्हें इस तरह के संकट में दुनिया को धकेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्त ने बढ़ावा दिया है। संकट से पार पाने के लिए विकसित देशों ने दिवालिया हुए बैंकों और वित्त संस्थानों को बेलआउट पैकेज देने और धाराशायी होती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कमखर्ची के कदम (ऑस्टेरिटी मेजर्स) उठाने के तरीके अपनाये। पर इससे संकट पर पार पाना तो दूर रहा, संकट और अधिक गहरा गया। हाल के दिनों में अमरीका और यूरोप के 1500 के करीब शहरों में लोग जिस तरह इन तरीकों के विरूद्ध उठ खड़े हुए हैं वह इन देशों को राजनैतिक संकट की दिशा में ले जायेगा। 17 सितम्बर को न्यूयार्क में शुरू हुआ ”वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो“ आंदोलन अब तेजी से नये इलाकांे में फैल रहा है। सुदूर पूर्व जापान तक में जन प्रतिरोध की आंधी चल रही है। ग्रीस, जो पहले ही आर्थिक दिवालियेपन और धराशायी होने के कगार पर हैं वहांॅ जबर्दस्त विरोध आंदोलन हो रहा है। सरकार ताकत के बल पर उसे दबाने की कोशिश कर रही है। इस सप्ताह इटली में भी हिंसा हुई। संभव है स्पेन, पुर्तगाल और फ्रांस दिवालियापन के अगले शिकार बनें। कुछ दिन तक को सरकार विरोध प्रदर्शनों और आंदोलन को दबाने में कामयाब रह सकती है वह दिन दूर नहीं जब यह आंदोलन वर्ग युद्ध की प्रकृति हासिल कर ले। अभी अधिकांशतः ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त और दिशाविहीन हैं। जो ताकतें अन्ततः वर्ग संघर्ष की जीत में यकीन करती हैं जरूरत है कि वे आगे आयें और समय रहते इसे एक सही आकार दें।
इब्सा घोषणा पत्र में अरब जगत के संकट, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पुर्नगठन जैसी प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय घटनओं पर समन्वित कार्रवाई के बारे में बाते कहीं गयी हैं। उसमें सीरिया को एक मंत्री स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की बात भी कही गयी है ताकि अमरीका- ब्रिटेन- फ्रांस की तिकड़ी द्वारा लीबिया पर हमले की तरह की सीरिया पर किसी कार्रवाई को रोका जा सके। यहां तक तो ठीक है पर इब्सा देशों को खासकर भारत को उन नीतियांे पर ध्यान देना होगा जिन पर वह चल रहे हैं।
डा0 मनमोहन सिंह के तहत यूपीए- दो सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक जैसे उसके एजेंट संगठनों द्वारा निर्दिष्ट आर्थिक नव उदारवाद के नुस्खे को पूरी तरह हृदयंगम कर रखा है। यूपीए- दो सरकार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तो आर्थिक नव उदारवाद के अपरिहार्य सह उत्पादों- इसकी बुराईयों की बातें करती हैं पर देश में उन्हीं विनाशकारी नीतियों पर बेशर्मी के साथ अमल करी हैं। मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, बढ़ती बेरोजगारी और अमीरों एवं गरीबांे के बीच बढ़ती असमानता- ये सभी चीजें आर्थिक नव उदारवाद के उत्पाद हैं। देश में ऐसी ताकतें हैं जो जनता के दिलों- दिमाग पर पकड़ रखने वाले भावनात्मक मुद्दों को उछालकर जनता का ध्यान इन बुराईयों के बुनियादी कारणों से हटाने की कोशिश करेंगे। इस किस्म की गुमराह करने वाली कोशिशों से सावधान रहना होगा।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने व्यापक स्तर पर भूख हड़ताल के अभियान का आह्वान किया है। अच्छा होगा हम आर्थिक नव उदारवाद, अधिकांशतः पूंजीवाद परस्त पार्टियां जिसके लिए प्रतिबद्ध हैं, के विरूद्ध और अधिक सतत एवं संगठित आंदोलन के लिए इस भूख हड़ताल से शुरूआत करें।
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