भ्रष्टाचार का मुद्दा कांग्रेस नीत यूपीए-दो सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहा है। इसका कारण स्पष्ट हैं इस सरकार के पहले दो साल के अरसे में सरकार की ऊंची जगहों पर भ्रष्टाचार के इतने मामले बेनकाब हुए हैं जैसे पहले कभी नहीं हुए। इन घोटालों में शामिल रकम इतनी बड़ी हैं कि दिमाग चकरा जाता है। देश की जनता ने मनमोहन सिंह की सरकार को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची मानना शुरू कर दिया है।
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता की बढ़ती जागरूकता ने यूपीए सरकार को सांसत में डाल दिया है। भ्रष्टाचार शब्द के जिक्र मात्र से सरकार को सांप सूंघ जाता है। केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था बनाने के लिए कानून बनाने की मांग करते हुए जब सामाजिक कार्यर्ता अन्ना हजारे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे तो हमने सरकार को बचाव का कोई रास्ता तलाश करने के लिए व्याकुल होते देखा। चार ही दिन के अंदर सरकार ने घुटने टेक दिये और एक दस सदस्यीय संयुक्त मसविदा समिति (ज्वायंट ड्राफ्टिंग कमेटी) बना दी गयी जिसमें पांच सदस्य अन्ना हजारे द्वारा नामित थे।
अब योग गुरू रामदेव खासतौर पर विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मुद्दे पर भूख हड़ताल पर जाने पर अड़ गये हैं तो सरकार के हाथ पांव फूल गये हैं सरकार बुरी तरह हड़बड़ायी हुई है। मंत्रीगण और वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारी योग गुरू के पास भागे फिर रहे हैं। अन्ना हजारे के मामले मेें शीर्ष कार्पोरेटों द्वारा समर्थित नवगठित सिविल सोसायटी ने भूख हड़ताल पर बैठे हजारे के साथ एकजुटता का तमाम
प्रबंध किया था। पर रामदेव के साथ अपने सवयं के योग शिविरों के अनुयायी हैं। उन्होंने दावा किया कि 4 जून से एक करोड़ लोग उनकी भूख हड़ताल में शामिल होंगे। जाहिर है सरकार इस तरह के जबर्दस्त आंदोलन के हलके तरीके से नहीं ले सकती।
इन दो आंदोलनों को जनता का स्वतः स्फूर्त समर्थन मिला है क्योंकि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और आदर्श सोसायटी घोटाले के मामले में सरकार जिस तरह से पेश आयी लोगों ने उसे मामलों को रफा-दफा करने की कोशिश के रूप में देखा। लोगों को सीबीआई (सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन) और सीवीसी (चीफ़ विजिलेंस कमिश्नर) जैसी वर्तमान संस्थाओं से विश्वास ही उठ गया। सरकार ने एक आरोपित एवं दागदार नौकरशाह पीजे थॉमस को सीवीसी नियुक्त किया, पर सर्वोच्च न्यायालय ने उस नियुक्ति को खारिज कर दिया। इससे स्वयं इस संस्थान की ही साख कम हो गयी है।
जहां तक सीबीआई की बात है, एक के बाद दूसरी सरकारों ने उसे अपने राजनैतिक औजार के रूप मंे इस्तेमाल किया है जिससे उसकी साख एवं विश्वसनीयता खत्म ही हो गयी है। यदि कोई पार्टी या व्यक्ति आसानी से सरकार के पक्ष में नहीं आता तो सीबीआई को उसके विरूद्ध जांच में तेजी लाने के लिए कह दिया जाता है, वह घुटने टेक देता है; तो उसकी फाइलों को ताक पर रखवा दिया जाता है। इस गंदे खेल में कांग्रेस और भाजपा दोनों बरारबर की गुनाहगार हैं। लोगों को निराश और परेशान करने वाली बात है लम्बी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया जिसका वास्तव में भ्रष्ट लोग वाजिब सजा से बचने के लिए बुरी तरह फायदा उठाते हैं।
इस तरह की हालत में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए किसी नये तंत्र की ललक एक स्वाभाविक सी बात है। जनता एक ऐसा तंत्र चाहती है जो कठोर और पारदर्शी हो, जो जांच-पड़ताल करे, गलत कामों का पता लगाये और अपराधियों को सजा दिलाने में मददगार की भूमिका अदा करे। इस पृष्ठभूमि में केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था की अवधारणा लोगों के दिलों-दिमाग में घर कर गयी है।
सरकार यद्यपि अभी भी दावा कर रही है कि संयुक्त मसविदा समिति 10 जून तक अपना काम पूरा कर लेगी और संसद के मानसूत्र सत्र में बिल पेश किया जा सकता है पर मसविदा तैयार करने के लिए अपनायी गयी प्रक्रिया और कुछ मुद्दों पर विवाद से यह नजर आता है कि यह काम निर्धारित समय में संभवतः नहीं हो पायेगा।
पर विवादित मुद्दों में से कुछ पर जाने से पहले यह बताना संदर्भ से हटकर नहीं होगा कि लोकपाल की संस्था के निर्माण का विचार पहली बार 1997 में उस समय लाया गया था जब देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में थी। यही वह एकमात्र मौका था जब केन्द्र सरकार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो मंत्री थे। आज बहुत से जिन मुद्दों को ताजे और नये मुद्दों का नाम दिया जा रहा है वे उस समय तैयार दस्तावेज में शामिल थे।
उस समय भी यह खुलासा किया गया कि लोकपाल का संस्थान एक “सुपरकोप” (यानी ऐसा अधिकारी जिसकी हैसियत सबसे ऊपर हो) नहीं होगा। वह जांच-पड़ताल करने वाला, मुकदमा चलाने वाला और जज-तीनों काम एक ही संस्थान के हाथ में हों, ऐसा संस्थान नहीं होगा। तीनों शक्तियां एक ही संस्थान में रहे, हमारा
संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। संयोग से, संयुक्त मसविदा समिति के एक सदस्य प्रशांत भूषण ने भी इसी बिन्दु को दोहराया है। उन्होंने लिखा है:
“लोकपाल के प्रशासकीय एवं सुपरवाइजरी अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक जांच पड़ताल शाखा और एक मुकदमा चलाने वाली (प्रोसीक्यूटिंग) शाखा होगी। यदि जांच-पड़ताल शाखा पाती है कि भ्रष्टाचार का अपराध किया गया है तो वह मामले को प्रोसीक्यूटिंग शाखा को भेज देगी जो स्पेशल कोर्ट-जो सामान्य न्यायिक व्यवस्था का एक हिस्सा होगा- में उस मुकदमें को चलायेगी। स्पेशल कोर्ट लोकपाल के तहत नहीं होगा। लोकपाल केवल समय-समय पर यह मूल्यांकन एवं निर्धारण करेगा कि भ्रष्टाचार के मुकदमों की सुनवाई को तेजी से पूरा करने के लिए इस तरह के कितने कोर्टो की जरूरत है और सरकार की जिम्मेदारी होगी कि उतनी संख्या में स्पेशल कोर्ट बनायें” (टाईम्स ऑफ इंडिया, 1 जून, 2011)।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि स्पेशल कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी।
30 मई को संयुक्त मसविदा समिति की अंतिम बैठक में जो पांच विवादस्पद मुद्दे उभर कर आये हैं, उनमें यह भी शामिल है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एनडीए के शासन के दिनों में भी इस मांग का समर्थन किया था। एक अन्य कुछ जटिल मुद्दा इस मांग के संबंध में है कि बिल में यह प्रावधान भी होना चाहिए कि संसद में संसद सदस्यों के आचरण भी उसके दायरे में आयें। यह सच है कि निर्णायक विश्वासमत के दौरान संसद सदस्यों की खरीद-फरोख्त हुई और कई संसद सदस्यों को (अधिकांशतः वे भाजपा के हैं) को प्रश्न पूछने के एवज में पैसा लेने के आरोप में सजा दी गयी। जो भी, हम इस मुद्दे पर बहस करना चाहते हैं क्योंकि इसके साथ संसद की सर्वाेच्चता की बात जुड़ी हुई है।
सभी नौकरशाहों को लोकपाल के दायरे में लाने जैसे मुद्दों पर कोई विवाद नहीं होगा हालांकि संयुक्त मसविदा समिति में यूपीए-दो के प्रतिनिधि इस पर बतंगड़ खड़ा कर रहे हैं। इसी प्रकार सीबीआई और सीवीसी जैसी अन्य जांच एजेंसियों को लोकपाल के तहत लाने के मुद्दे पर विचार-विमर्श की जरूरत है। जैसा कि पहले कहा गया इन संस्थानों की साख एवं विश्वसनीयता खत्म हो गयी है क्योंकि सरकारों ने अपने हितों के लिए इनका घोर दुरूपयोग किया है। मुद्दा यह हैः क्या इन सब को लोकपाल संस्थान के साथ मिला देने पर वही उद्देश्य खत्म नहीं हो जायेगा जिसके लिए यह संस्थान बनाया जा रहा है। यह कहना काफी नहीं होगा कि लोकपाल पारदर्शी तरीके से काम करेगा और उसका सारा कार्यकलाप वेबसाईट पर होगा। उसे एक सतर्क प्रहरी की तरह रहना चाहिए।
जैसा कि संयुक्त मसविदा समिति के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि इन सब विवादस्पद मुद्दों को राज्यों और राजनैतिक पार्टियों और सिविल सोसायटी के अन्य तबकों को उनकी राय जानने के लिए भेजा जाएगा। आशा करें कि संविधान के फ्रेमवर्क के अंदर ही एक बेहतर मतैक्य बन जाएगा।
कालेधन के जिस मुद्दे को योगगुरू रामदेव ने अपने आंदोलन का मुख्य बिन्दु बनाया है उस संबंध में वास्तव में तेजी से समाधान निकालने की जरूरत है। वामपंथी पार्टियां लम्बे अरसे से मांग करती रही है कि विदेशी बैंकों में जमा पैसे को वापस लाया जाए। यह राष्ट्रीय परिसम्पत्ति है जिसे गैर कानूनी तरीके से दूर विदेश में जमा किया गया है। इसी के साथ ही देश के अंदर काले धन का पता लगाने की जरूरत है क्यांेकि इसने देश में अनाचार मचा रखा है। देश में काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है जो कभी-कभी वास्तविक अर्थव्यवस्था से भी बड़ी नजर आती है।
भ्रष्टाचार और काले धन के विरूद्ध संघर्ष करते हुए तमाम बुराईयों की जड़ को नहीं भूलना चाहिये। इन सब बुराईयों का मूलभूत कारण है लालच। अधिकांश राजनैतिक पार्टियां आर्थिक नवउदारवाद की जिन नीतियों के लिए प्रतिबद्ध है उन नीतियों ने लोगों में बड़े पैमाने पर लालच पैदा कर दिया है। हर कोई जैसे-तैसे किसी भी तिकड़म से सुपर मुनाफा कमाना चाहता है। इसके फलस्वरूप सर्वव्यापक भ्रष्टाचार और काले धन के सृजन में बेतहाशा वृद्धि हुई हैं। अर्थव्यवस्था की अनेक बुराईयों में इस या उस बुराई के विरूद्ध संघर्ष के भेष में पूंजीवाद के खिलाफ, आर्थिक नवउदारवाद के इसके वर्तमान अवतार के खिलाफ असली संघर्ष से ध्यान डाइवर्ट नहीं होना चाहिए।
- शमीम फ़ैजी
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनता की बढ़ती जागरूकता ने यूपीए सरकार को सांसत में डाल दिया है। भ्रष्टाचार शब्द के जिक्र मात्र से सरकार को सांप सूंघ जाता है। केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था बनाने के लिए कानून बनाने की मांग करते हुए जब सामाजिक कार्यर्ता अन्ना हजारे अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे तो हमने सरकार को बचाव का कोई रास्ता तलाश करने के लिए व्याकुल होते देखा। चार ही दिन के अंदर सरकार ने घुटने टेक दिये और एक दस सदस्यीय संयुक्त मसविदा समिति (ज्वायंट ड्राफ्टिंग कमेटी) बना दी गयी जिसमें पांच सदस्य अन्ना हजारे द्वारा नामित थे।
अब योग गुरू रामदेव खासतौर पर विदेशी बैंकों में जमा काले धन के मुद्दे पर भूख हड़ताल पर जाने पर अड़ गये हैं तो सरकार के हाथ पांव फूल गये हैं सरकार बुरी तरह हड़बड़ायी हुई है। मंत्रीगण और वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारी योग गुरू के पास भागे फिर रहे हैं। अन्ना हजारे के मामले मेें शीर्ष कार्पोरेटों द्वारा समर्थित नवगठित सिविल सोसायटी ने भूख हड़ताल पर बैठे हजारे के साथ एकजुटता का तमाम
प्रबंध किया था। पर रामदेव के साथ अपने सवयं के योग शिविरों के अनुयायी हैं। उन्होंने दावा किया कि 4 जून से एक करोड़ लोग उनकी भूख हड़ताल में शामिल होंगे। जाहिर है सरकार इस तरह के जबर्दस्त आंदोलन के हलके तरीके से नहीं ले सकती।
इन दो आंदोलनों को जनता का स्वतः स्फूर्त समर्थन मिला है क्योंकि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और आदर्श सोसायटी घोटाले के मामले में सरकार जिस तरह से पेश आयी लोगों ने उसे मामलों को रफा-दफा करने की कोशिश के रूप में देखा। लोगों को सीबीआई (सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन) और सीवीसी (चीफ़ विजिलेंस कमिश्नर) जैसी वर्तमान संस्थाओं से विश्वास ही उठ गया। सरकार ने एक आरोपित एवं दागदार नौकरशाह पीजे थॉमस को सीवीसी नियुक्त किया, पर सर्वोच्च न्यायालय ने उस नियुक्ति को खारिज कर दिया। इससे स्वयं इस संस्थान की ही साख कम हो गयी है।
जहां तक सीबीआई की बात है, एक के बाद दूसरी सरकारों ने उसे अपने राजनैतिक औजार के रूप मंे इस्तेमाल किया है जिससे उसकी साख एवं विश्वसनीयता खत्म ही हो गयी है। यदि कोई पार्टी या व्यक्ति आसानी से सरकार के पक्ष में नहीं आता तो सीबीआई को उसके विरूद्ध जांच में तेजी लाने के लिए कह दिया जाता है, वह घुटने टेक देता है; तो उसकी फाइलों को ताक पर रखवा दिया जाता है। इस गंदे खेल में कांग्रेस और भाजपा दोनों बरारबर की गुनाहगार हैं। लोगों को निराश और परेशान करने वाली बात है लम्बी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया जिसका वास्तव में भ्रष्ट लोग वाजिब सजा से बचने के लिए बुरी तरह फायदा उठाते हैं।
इस तरह की हालत में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए किसी नये तंत्र की ललक एक स्वाभाविक सी बात है। जनता एक ऐसा तंत्र चाहती है जो कठोर और पारदर्शी हो, जो जांच-पड़ताल करे, गलत कामों का पता लगाये और अपराधियों को सजा दिलाने में मददगार की भूमिका अदा करे। इस पृष्ठभूमि में केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोक आयुक्त संस्था की अवधारणा लोगों के दिलों-दिमाग में घर कर गयी है।
सरकार यद्यपि अभी भी दावा कर रही है कि संयुक्त मसविदा समिति 10 जून तक अपना काम पूरा कर लेगी और संसद के मानसूत्र सत्र में बिल पेश किया जा सकता है पर मसविदा तैयार करने के लिए अपनायी गयी प्रक्रिया और कुछ मुद्दों पर विवाद से यह नजर आता है कि यह काम निर्धारित समय में संभवतः नहीं हो पायेगा।
पर विवादित मुद्दों में से कुछ पर जाने से पहले यह बताना संदर्भ से हटकर नहीं होगा कि लोकपाल की संस्था के निर्माण का विचार पहली बार 1997 में उस समय लाया गया था जब देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार सत्ता में थी। यही वह एकमात्र मौका था जब केन्द्र सरकार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दो मंत्री थे। आज बहुत से जिन मुद्दों को ताजे और नये मुद्दों का नाम दिया जा रहा है वे उस समय तैयार दस्तावेज में शामिल थे।
उस समय भी यह खुलासा किया गया कि लोकपाल का संस्थान एक “सुपरकोप” (यानी ऐसा अधिकारी जिसकी हैसियत सबसे ऊपर हो) नहीं होगा। वह जांच-पड़ताल करने वाला, मुकदमा चलाने वाला और जज-तीनों काम एक ही संस्थान के हाथ में हों, ऐसा संस्थान नहीं होगा। तीनों शक्तियां एक ही संस्थान में रहे, हमारा
संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। संयोग से, संयुक्त मसविदा समिति के एक सदस्य प्रशांत भूषण ने भी इसी बिन्दु को दोहराया है। उन्होंने लिखा है:
“लोकपाल के प्रशासकीय एवं सुपरवाइजरी अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत एक जांच पड़ताल शाखा और एक मुकदमा चलाने वाली (प्रोसीक्यूटिंग) शाखा होगी। यदि जांच-पड़ताल शाखा पाती है कि भ्रष्टाचार का अपराध किया गया है तो वह मामले को प्रोसीक्यूटिंग शाखा को भेज देगी जो स्पेशल कोर्ट-जो सामान्य न्यायिक व्यवस्था का एक हिस्सा होगा- में उस मुकदमें को चलायेगी। स्पेशल कोर्ट लोकपाल के तहत नहीं होगा। लोकपाल केवल समय-समय पर यह मूल्यांकन एवं निर्धारण करेगा कि भ्रष्टाचार के मुकदमों की सुनवाई को तेजी से पूरा करने के लिए इस तरह के कितने कोर्टो की जरूरत है और सरकार की जिम्मेदारी होगी कि उतनी संख्या में स्पेशल कोर्ट बनायें” (टाईम्स ऑफ इंडिया, 1 जून, 2011)।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि स्पेशल कोर्ट के फैसले को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी।
30 मई को संयुक्त मसविदा समिति की अंतिम बैठक में जो पांच विवादस्पद मुद्दे उभर कर आये हैं, उनमें यह भी शामिल है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में आना चाहिये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एनडीए के शासन के दिनों में भी इस मांग का समर्थन किया था। एक अन्य कुछ जटिल मुद्दा इस मांग के संबंध में है कि बिल में यह प्रावधान भी होना चाहिए कि संसद में संसद सदस्यों के आचरण भी उसके दायरे में आयें। यह सच है कि निर्णायक विश्वासमत के दौरान संसद सदस्यों की खरीद-फरोख्त हुई और कई संसद सदस्यों को (अधिकांशतः वे भाजपा के हैं) को प्रश्न पूछने के एवज में पैसा लेने के आरोप में सजा दी गयी। जो भी, हम इस मुद्दे पर बहस करना चाहते हैं क्योंकि इसके साथ संसद की सर्वाेच्चता की बात जुड़ी हुई है।
सभी नौकरशाहों को लोकपाल के दायरे में लाने जैसे मुद्दों पर कोई विवाद नहीं होगा हालांकि संयुक्त मसविदा समिति में यूपीए-दो के प्रतिनिधि इस पर बतंगड़ खड़ा कर रहे हैं। इसी प्रकार सीबीआई और सीवीसी जैसी अन्य जांच एजेंसियों को लोकपाल के तहत लाने के मुद्दे पर विचार-विमर्श की जरूरत है। जैसा कि पहले कहा गया इन संस्थानों की साख एवं विश्वसनीयता खत्म हो गयी है क्योंकि सरकारों ने अपने हितों के लिए इनका घोर दुरूपयोग किया है। मुद्दा यह हैः क्या इन सब को लोकपाल संस्थान के साथ मिला देने पर वही उद्देश्य खत्म नहीं हो जायेगा जिसके लिए यह संस्थान बनाया जा रहा है। यह कहना काफी नहीं होगा कि लोकपाल पारदर्शी तरीके से काम करेगा और उसका सारा कार्यकलाप वेबसाईट पर होगा। उसे एक सतर्क प्रहरी की तरह रहना चाहिए।
जैसा कि संयुक्त मसविदा समिति के अध्यक्ष प्रणव मुखर्जी ने कहा है कि इन सब विवादस्पद मुद्दों को राज्यों और राजनैतिक पार्टियों और सिविल सोसायटी के अन्य तबकों को उनकी राय जानने के लिए भेजा जाएगा। आशा करें कि संविधान के फ्रेमवर्क के अंदर ही एक बेहतर मतैक्य बन जाएगा।
कालेधन के जिस मुद्दे को योगगुरू रामदेव ने अपने आंदोलन का मुख्य बिन्दु बनाया है उस संबंध में वास्तव में तेजी से समाधान निकालने की जरूरत है। वामपंथी पार्टियां लम्बे अरसे से मांग करती रही है कि विदेशी बैंकों में जमा पैसे को वापस लाया जाए। यह राष्ट्रीय परिसम्पत्ति है जिसे गैर कानूनी तरीके से दूर विदेश में जमा किया गया है। इसी के साथ ही देश के अंदर काले धन का पता लगाने की जरूरत है क्यांेकि इसने देश में अनाचार मचा रखा है। देश में काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है जो कभी-कभी वास्तविक अर्थव्यवस्था से भी बड़ी नजर आती है।
भ्रष्टाचार और काले धन के विरूद्ध संघर्ष करते हुए तमाम बुराईयों की जड़ को नहीं भूलना चाहिये। इन सब बुराईयों का मूलभूत कारण है लालच। अधिकांश राजनैतिक पार्टियां आर्थिक नवउदारवाद की जिन नीतियों के लिए प्रतिबद्ध है उन नीतियों ने लोगों में बड़े पैमाने पर लालच पैदा कर दिया है। हर कोई जैसे-तैसे किसी भी तिकड़म से सुपर मुनाफा कमाना चाहता है। इसके फलस्वरूप सर्वव्यापक भ्रष्टाचार और काले धन के सृजन में बेतहाशा वृद्धि हुई हैं। अर्थव्यवस्था की अनेक बुराईयों में इस या उस बुराई के विरूद्ध संघर्ष के भेष में पूंजीवाद के खिलाफ, आर्थिक नवउदारवाद के इसके वर्तमान अवतार के खिलाफ असली संघर्ष से ध्यान डाइवर्ट नहीं होना चाहिए।
- शमीम फ़ैजी
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