7 नवंबर को हम फिर से एक बार हर वर्ष की तरह रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं। यह इतिहास की ऐसी असाधारण घटना है जिस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, लिखा जा रहा है और आगे भी उस पर लिखा जाता रहेगा।
यह बार-बार दोहराया जा चुका है और फिर कहा जाना चाहिए कि रूसी क्रांति एक महान ऐतिहासिक घटना, एक महान क्रांति थी। रूसी क्रांति और महान नेता लेनिन से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। हम उन्हें महान जरूर कहते हैं लेकिन उनका अध्ययन कितना करते हैं और उनसे कितना सीखते हैं इस पर हरेक व्यक्ति स्वयं ही विचार करे तो अच्छा रहेगा।
लेनिन: रूसी क्रांति के सिद्धांतकार लेनिन एक महान सिद्धांतकार थे जो मार्क्सवाद को नई मंजिलों पर ले गए। से साम्राज्यवादी युग के सिद्धांतकार माने जाते हैं। आजकल राजनीति में पढ़ने वालों की संख्या घटती जा रही है। स्वयं कम्युनिस्ट आंदोलन में मार्क्स और लेनिन के बारे में, उनकी प्रशंसा में तारीफ के पुल बांधे जाते हैं, लेकिन यह सब बिना यह जाने और पढ़े कि वास्तव में लेनिन ने क्या लिखा था और क्यों। उन्होंने न सिर्फ राजनीति, दर्शन और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया बल्कि अपने युग के सभी विज्ञानों का जहां तक हो सके गहन अध्ययन किया। मसलन उन्होंने 20वीं सदी के आरम्भ में रूस में कृषि में पंजीवाद के विकास संबंधी शोधकार्य किया और इसमें कई वर्ष लगाए। इसके लिए उन्होंने योरोप की लाइब्रेरियों में काफी समय बिताया। आजकल लाइब्रेरी में बैठने और किताबें पढ़ने का मजाक उड़ाया जाता है और कहा जाता है कि ”किताबें पढ़कर प्रोफेसर बनना है क्या? मैदान में जाओ और काम करो!“ उन्हें लेनिन से सीखने की आवश्यकता है। बिना इस प्रकार के अध्ययन के रूसी क्रांति संभव नहीं थी। लेनिन ने 1905-07 की प्रथम रूसी क्रांति की विफलता के बाद फिर गहन अध्ययन का सहारा लिया। इसी क्रांति के दौरान सोवियतों का जन्म हुआ था और इसी के दौरान जनवादी क्रांति की मंजिल का सिद्धांत उन्होंने अधिक ठोस रूप में विकसित किया।
लेनिन ने कई विषयों के अध्ययन के अलावा एटम संबंधी गहरी खोजों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उस समय तक एटम अंतिम कण माना जाता था लेकिन तब उसके अंदर इलेक्ट्रान तथा अन्य कणों की खोज की गई। इसका दर्शन के लिए बड़ा महत्व था। इससे पदार्थ की असीम गहनता का पता चलता है। कई लोग फिर भी पूछेंगे कि इस एटम और दर्शन के अध्ययन का क्रांति तथा समाजवाद से क्या मतलब है? शायद लोग सोचे कि ठीक है, लेनिन को शौक होगा या अपना ”सामान्य ज्ञान“ बढ़ाने के लिए उन्होंने कुछ पढ़ लिया होगा। लेकिन बात ऐसी नहीं थी। एटम के खंडन ने दर्शन में तीव्र विवाद को जन्म दिया। दार्शनिकों के एक हिस्से ने इसे पदार्थवाद का खंडन माना क्योंकि एटम ‘खंडित’ हो गया था।
लेनिन ने भौतिकवाद के समर्थन में ‘एम्पीरियो-क्रिटिसिज्म’ लिखा। उन्होंने साबित किया कि एटम के अंदर अन्य कणों एवं ऊर्जा स्रोतों की खोजों ने द्वंदात्मक भौतिकवाद को आगे विकसित किया है। उन्होंने अपने समय के सभी मुख्य वैज्ञानिक साहित्य, तथ्यों और खोजों का व्यापकता तथा गहराई से अध्ययन किया।
लेनिन ने यह कार्य इतना महत्वपूर्ण समझा कि उन्होंने इस पुस्तक के तुरन्त और बड़ी संख्या में प्रकाशन पर जोर दिया। पुस्तक ने उस समय के क्रांतिकारियों की दार्शनिक समझ स्पष्ट करने में बड़ी भूमिका अदा की।
साम्राज्यवाद का अध्ययन: रूस एक कमजोर कड़ी लेनिन साम्राज्यवादी युग के महान सिद्धांतकार थे। वे हॉब्सन और हिल्फरडिंग के सिद्धांतों को आगे ले गए। उन्होंने पंूजीवाद के विकास की नई मंजिल का विवेचन करते हुए साम्राज्यवाद का सिद्धान्त पेश किया जिसकी पांॅच विशेषताएं बताई।
साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से कई नतीजे निकलते हैं। इनमें क्रांति की जनवादी मंजिल महत्वपूर्ण है जिससे रूसी पार्टी में फूट पड़ गई और बोल्शेविक तथा मेंशेविक पार्टियां बनीं जो फिर कभी एक नहीं हो पाई। साम्राज्यवाद के बारे में भी उनमें गहरा मतभेद था। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद सैद्धांतिक थे, व्यक्तिगत नहीं।
औपनिवेशिक गुलाम देशों में आजादी की लड़ाई और उसके साथ रूसी क्रांतिकारियों की एकजुटता का सिद्धांत और व्यवहार भी इसी से विकसित हुआ। लेनिन ने साम्राज्यवाद- विरोधी मोर्चे का सिद्धांत पेश किया। लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में आर्थिक संकट के व्यवस्था के आम संकट में बदल जाने की ओर ध्यान दिलाया। साम्राज्यवाद ने विश्व अर्थव्यवस्था में असमान विकास को और भी तेज कर दिया तथा उसमें गुणात्मक परिवर्तन ला दिया।
इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण रूस में क्रांति की परिस्थितियांॅ पैदा हुई।
रूसी क्रांति के कारण 1917 की रूसी क्रांति के कारणों पर विचार करते हुए अक्सर ही एक महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी कर दी जाती है। लेनिन ने रूस को साम्राज्यवादी श्रंृखला की सबसे कमजोर कड़ी बताया। प्रथम विश्व युद्ध के आते-आते साम्राज्यवाद के सारे अंतर्विरोध तीखे होते गए और वे सबसे बढ़कर रूस पर केन्द्रित होते गए। यह रूसी क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण था, हालांकि कई अन्य कारण भी थे।
प्रथम सफल मजदूर क्रांति रूसी क्रांति एक ऐसी मूलगामी सर्वहारा समाजवादी क्रांति थी जो साम्राज्यवादी युग में हुई। साथ ही इसमें जनवादी क्रांति के शक्तिशाली तत्व थे। इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। लेनिन ने समाजवाद की ओर बढ़ने के लिए व्यापक एवं गहन जनवादी क्रांति की जरूरत पर जोर दिया। इसलिए उन्होंने क्रांति ‘नई अर्थनीति’ या ‘नेप’ अपनाया। आज रूसी क्रांति के पतन के कारणों के संदर्भ में लेनिन की इन रचनाओं पर अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
लेनिन ने रूसी क्रांति के फरवरी (मार्च) और अक्टूबर (नवम्बर) 1917 के बीच क्रांति के उतार-चढ़ावों, टेढ़े-मेढ़े रास्तों और डाइलेक्टिक्स पर जो लिखा है वह गंभीरता से पढ़ने लायक है। वह क्रांति के आंतरिक द्वन्द्व को दर्शाता है। पार्टी और सोवियतों के बीच संबंधों, क्रांति के शांतिपूर्ण और हथियारबंद मार्गो तथा तरीकों, सत्ता के बदलते स्वरूपों इत्यादि पर ये लेख अत्यंत ही शिक्षाप्रद है।
लेनिन ने अप्रैल, 1917 में एक असाधारण लेख लिखा जो ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जाना जाता है। वैसे जब क्रांति जोरों पर थी तो लेनिन सेंट पीटर्सबर्ग या पेट्रोग्राड (बाद में लेनिनग्राड) के बाहर एक कोने में बैठकर ‘राज्य और क्रांति’ नामक पुस्तक लिख रहे थे। इस पर उनके साथ रह रहे साथी को आश्चर्य हुआ था कि वे ऐसे उथल-पुथल के समय शांत भाव से ‘लिख’ क्यों रहे हैं?
‘अप्रैल थीसिस’ में लेनिन ने पहली बार ‘द्वैध सत्ता’ का सिद्धांत पेश किया था, अर्थात अब क्रांति किसी भी ओर जा सकती थी- जनता के हक में या राजतंत्र अथवा बड़े पूंजीपतियों के हक में। इसका कारण था सत्ता का दो हिस्सों में बंटना जो इतिहास की असाधारण घटना थी। आगे विकास इस पर निर्भर करता था कि सोवियत क्रांति का चरित्र पहचानती है या नहीं।
लेनिन और सोवियत सत्ता रूसी और सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका और लिखा जाना चाहिए। इतिहास में रूसी क्रांति के स्थान, योगदान और भूमिका को कोई मिटा नहीं सकता है। समाजवाद के निर्माण का यह पहला प्रयत्न था जिसने बहुत कुछ हासिल किया। आज साम्राज्यवादी शक्तियां रूसी क्रांति और उसके योगदान को न सिर्फ विकृत कर रही है बल्कि उसे मिटाने की कोशिश कर रही हैं यहां तक कि वे द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की भूमिका को तोड़-मरोड़ रही है।
सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के साथ-साथ हमें उसकी कमियों का भी ख्याल करना चाहिए ताकि भविष्य में बेहतर समाजवाद का निर्माण किया जा सके। इसके लिए इतिहास से और स्वयं लेनिन से सीखने की जरूरत है। क्रांति के बाद 1924 की जनवरी में अपनी मृत्यु तक लेनिन सोवियत सत्ता में नकारात्मक रूझानों के प्रति बड़े ही सचेत और चिंतित थे। उनकी चुनी हुई रचनाओं (‘सेलेक्टेड वर्क्स’) के तीसरे खंड का यदि गंभीरता से अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने सोवियत सत्ता में नौकरशाही के बढ़ते रूझान का बार-बार विरोध किया है। अपनी रचना ”आन कोआपरेशन“ (सहयोग के बारे में) में उन्होंने जनतंत्र पर जोर दिया है। रोजा लक्सेम्वर्ग (सुप्रसिद्ध जर्मन कम्युनिस्ट नेता) तथा स्वयं लेनिन इस तथ्य की आलोचना कर रहे थे कि सोवियतों की सत्ता वास्तव में पार्टी की सत्ता बनती जा रही थी। लेनिन ने सत्ता को जनतांत्रिक और जन आधारित बनाने की पूरी कोशिश की।
केन्द्रीकरण: समाजवाद-विरोधी 1922 में लेनिन की मर्जी के खिलाफ स्तालिन को पार्टी का महासचिव बनाया गया। उस वक्त महासचिव का पद ज्यादा महत्व का नहीं होता था लेकिन जल्द ही वह महत्व का बन गया और बात गंभीर हो गई, जैसा कि लेनिन ने पूर्वानुमान लगाया था। उन्होंने एक बार नहीं, कई बार स्तालिन को हटाने की मांग की। यह तथ्य लेनिन की संकलित रचनाआंे में मिल जाते हैं।
लेनिन की मृत्यु (जनवरी, 1924) के बाद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की। लेकिन साथ ही एक अत्यंत नकारात्मक और घातक रूझान भी पैदा हुई जो ‘स्तालिनवाद’ के नाम से जानी जाती है। यहां हम स्थान की कमी के कारण उस पर विस्तार से चर्चा नहीं कर पायेंगे। इतना कहना ही काफी होगा कि लेनिन का अंदेशा सही निकला। अतिकेन्द्रीकृत नौकरशाही और एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता के केन्द्रीकरण समाजवाद के लिए न सिर्फ हानिकारक है बल्कि घातक भी। सोवियत संघ के पतन के कारणों में यह भी है। इसलिए इससे बचने की आवश्यकता है।
समाजवाद, जनतंत्र और तकनीकी क्रांति का युग पिछले लगभग तीन दशकों में विश्व मंे भारी परिवर्तन हुए हैं और कई मायनों में वे गुणात्मक परिवर्तन है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में केन्द्रीकृत समाजवादी सत्ताओं का पतन हो गया। इनसे गंभीरता से सीख लेने की आवश्यकता है। जहांॅ रूसी क्रांति ने समाजवाद की प्रथम मिसाल पेश की, वहीं यह भी सिखाया कि समाजवाद के निर्माण में नकारात्मक तरीके नहीं अपनाए जा सकते हैं, समाजवाद का निर्माण गलत तरीकों से नहीं हो सकता। समाजवाद और कम्युनिज्म का ध्येय आज भी बरकरार है लेकिन उनकी ओर बढ़ने के तरीके एवं मार्ग बदल गए हैं। यहांॅ भी लेनिन से सीखने की जरूरत है उन्होंने बारम्बार दूसरे देशों से रूसी क्रांति का रास्ता नहीं अपनाने, उसकी नकल नहीं करने की अपील की थी और चेतावनी दी थी।
इतना स्पष्ट है कि आप बिना जनतंत्र के समाजवाद का रास्ता नहीं अपना सकते। आज की सूचना क्रांति के युग में यह बात और भी उजागर हो उठती है। सूचना और तकनीकी क्रांति वर्गों और व्यक्तियों को अधिक जनतांत्रिक बनाती हैं, उनके हाथों में जनतांत्रिक माध्यम पेश करती है। पिछले दो-तीन दशकों में हमारी आंखों के सामने सूचना तकनीकी क्रांति का असाधारण प्रसार हुआ है। क्या समाजवादी शक्तियां इनका पूरा इस्तेमाल कर रही हैं? इसके अलावा बाजार की शक्तियों का भी बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ है। भविष्य में समाजवाद में बाजार समाप्त करने का नहीं, बल्कि बाजार के जनवादीकरण का प्रश्न होगा। आज वियतनाम, चीन, क्यूबा, लैटिन अमरीकी देशों के सामने यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।
समाज और मजदूर वर्ग की बदलती संरचना और समाजवाद खेद का विषय है कि इस प्रश्न पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। रूसी क्रांति के समय खास तरह का मजदूर वर्ग था और एक अलग किस्म की सामाजिक संरचना थी। आज के मजदूर वर्ग की संरचना (ढांचा) बदल रही है। सूचना और सेवा में कार्यरत श्रमिकों की संख्या तथा प्रतिशत बढ़ रहा है। इसके अलावा समाज की भी संरचना तेजी से बदल रही है, खासतौर पर उसका शहरीकरण हो रहा है जिसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं।
इसलिए भावी सामाजिक परिवर्तनों और समाजवाद को इन बदली परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ेगा। रूसी क्रांति के रास्ते और तौर-तरीकों को छोड़ना होगा। आज लैटिन अमरीका के दर्जन से अधिक देशों में मूलगामी परिवर्तन चल रहे हैं। वे भले ही क्यूबा की प्रशंसा करते हों, उससे दोस्ती रखते हों लेकिन वे क्यूबा से बिल्कुल अलग रास्ता अपनाए हुए हैं। जब हम रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं तो एक और बात का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह यह कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के नियम समाजवाद पर भी लागू होते हैं, आज भी लागू हैं। यह महत्वपूर्ण पहलू रूस और पूर्वी योरप के शासक भूल गए थे। परिवर्तन, द्वन्द्व, अंतर्विरोध और उनका हल, निरंतर गति, नई और बदलती आवश्यकताएं एवं मांगें, विचारों- मतों का अंतर और द्वन्द्व, यहां तक कि खुला विरोध, समाजवाद का नई मंजिलों में पहुंॅचने, वस्तुगत नियम, संकट इत्यादि समाजवाद में भी होते हैं। समाजवाद में भी वस्तुगत परिस्थितियां ही निर्माण के तौर- तरीके तय करेंगी, पार्टी नहीं। पार्टी, अन्य संगठन मात्र माध्यम होंगे। सोवियत संघ में अक्सर ही यह बात भुलाकर वस्तुगत परिस्थितियों पर मनोवादी विचार थोपे गये थे। समाजवाद के अंतर्गत भी उत्पादन के साधनों और उत्पादन संबंधों के बीच टकराव चलता है। इनकी ओर भी स्वयं लेनिन ने कई बार ध्यान खींचा था।
भावी समाजवाद के संदर्भ में हमें रूसी क्रांति के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से काफी कुछ सीखना है।
- अनिल राजिमवाले
यह बार-बार दोहराया जा चुका है और फिर कहा जाना चाहिए कि रूसी क्रांति एक महान ऐतिहासिक घटना, एक महान क्रांति थी। रूसी क्रांति और महान नेता लेनिन से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। हम उन्हें महान जरूर कहते हैं लेकिन उनका अध्ययन कितना करते हैं और उनसे कितना सीखते हैं इस पर हरेक व्यक्ति स्वयं ही विचार करे तो अच्छा रहेगा।
लेनिन: रूसी क्रांति के सिद्धांतकार लेनिन एक महान सिद्धांतकार थे जो मार्क्सवाद को नई मंजिलों पर ले गए। से साम्राज्यवादी युग के सिद्धांतकार माने जाते हैं। आजकल राजनीति में पढ़ने वालों की संख्या घटती जा रही है। स्वयं कम्युनिस्ट आंदोलन में मार्क्स और लेनिन के बारे में, उनकी प्रशंसा में तारीफ के पुल बांधे जाते हैं, लेकिन यह सब बिना यह जाने और पढ़े कि वास्तव में लेनिन ने क्या लिखा था और क्यों। उन्होंने न सिर्फ राजनीति, दर्शन और अर्थशास्त्र का अध्ययन किया बल्कि अपने युग के सभी विज्ञानों का जहां तक हो सके गहन अध्ययन किया। मसलन उन्होंने 20वीं सदी के आरम्भ में रूस में कृषि में पंजीवाद के विकास संबंधी शोधकार्य किया और इसमें कई वर्ष लगाए। इसके लिए उन्होंने योरोप की लाइब्रेरियों में काफी समय बिताया। आजकल लाइब्रेरी में बैठने और किताबें पढ़ने का मजाक उड़ाया जाता है और कहा जाता है कि ”किताबें पढ़कर प्रोफेसर बनना है क्या? मैदान में जाओ और काम करो!“ उन्हें लेनिन से सीखने की आवश्यकता है। बिना इस प्रकार के अध्ययन के रूसी क्रांति संभव नहीं थी। लेनिन ने 1905-07 की प्रथम रूसी क्रांति की विफलता के बाद फिर गहन अध्ययन का सहारा लिया। इसी क्रांति के दौरान सोवियतों का जन्म हुआ था और इसी के दौरान जनवादी क्रांति की मंजिल का सिद्धांत उन्होंने अधिक ठोस रूप में विकसित किया।
लेनिन ने कई विषयों के अध्ययन के अलावा एटम संबंधी गहरी खोजों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उस समय तक एटम अंतिम कण माना जाता था लेकिन तब उसके अंदर इलेक्ट्रान तथा अन्य कणों की खोज की गई। इसका दर्शन के लिए बड़ा महत्व था। इससे पदार्थ की असीम गहनता का पता चलता है। कई लोग फिर भी पूछेंगे कि इस एटम और दर्शन के अध्ययन का क्रांति तथा समाजवाद से क्या मतलब है? शायद लोग सोचे कि ठीक है, लेनिन को शौक होगा या अपना ”सामान्य ज्ञान“ बढ़ाने के लिए उन्होंने कुछ पढ़ लिया होगा। लेकिन बात ऐसी नहीं थी। एटम के खंडन ने दर्शन में तीव्र विवाद को जन्म दिया। दार्शनिकों के एक हिस्से ने इसे पदार्थवाद का खंडन माना क्योंकि एटम ‘खंडित’ हो गया था।
लेनिन ने भौतिकवाद के समर्थन में ‘एम्पीरियो-क्रिटिसिज्म’ लिखा। उन्होंने साबित किया कि एटम के अंदर अन्य कणों एवं ऊर्जा स्रोतों की खोजों ने द्वंदात्मक भौतिकवाद को आगे विकसित किया है। उन्होंने अपने समय के सभी मुख्य वैज्ञानिक साहित्य, तथ्यों और खोजों का व्यापकता तथा गहराई से अध्ययन किया।
लेनिन ने यह कार्य इतना महत्वपूर्ण समझा कि उन्होंने इस पुस्तक के तुरन्त और बड़ी संख्या में प्रकाशन पर जोर दिया। पुस्तक ने उस समय के क्रांतिकारियों की दार्शनिक समझ स्पष्ट करने में बड़ी भूमिका अदा की।
साम्राज्यवाद का अध्ययन: रूस एक कमजोर कड़ी लेनिन साम्राज्यवादी युग के महान सिद्धांतकार थे। वे हॉब्सन और हिल्फरडिंग के सिद्धांतों को आगे ले गए। उन्होंने पंूजीवाद के विकास की नई मंजिल का विवेचन करते हुए साम्राज्यवाद का सिद्धान्त पेश किया जिसकी पांॅच विशेषताएं बताई।
साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से कई नतीजे निकलते हैं। इनमें क्रांति की जनवादी मंजिल महत्वपूर्ण है जिससे रूसी पार्टी में फूट पड़ गई और बोल्शेविक तथा मेंशेविक पार्टियां बनीं जो फिर कभी एक नहीं हो पाई। साम्राज्यवाद के बारे में भी उनमें गहरा मतभेद था। दोनों पार्टियों के बीच मतभेद सैद्धांतिक थे, व्यक्तिगत नहीं।
औपनिवेशिक गुलाम देशों में आजादी की लड़ाई और उसके साथ रूसी क्रांतिकारियों की एकजुटता का सिद्धांत और व्यवहार भी इसी से विकसित हुआ। लेनिन ने साम्राज्यवाद- विरोधी मोर्चे का सिद्धांत पेश किया। लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में आर्थिक संकट के व्यवस्था के आम संकट में बदल जाने की ओर ध्यान दिलाया। साम्राज्यवाद ने विश्व अर्थव्यवस्था में असमान विकास को और भी तेज कर दिया तथा उसमें गुणात्मक परिवर्तन ला दिया।
इन्हीं प्रक्रियाओं के कारण रूस में क्रांति की परिस्थितियांॅ पैदा हुई।
रूसी क्रांति के कारण 1917 की रूसी क्रांति के कारणों पर विचार करते हुए अक्सर ही एक महत्वपूर्ण कारक की अनदेखी कर दी जाती है। लेनिन ने रूस को साम्राज्यवादी श्रंृखला की सबसे कमजोर कड़ी बताया। प्रथम विश्व युद्ध के आते-आते साम्राज्यवाद के सारे अंतर्विरोध तीखे होते गए और वे सबसे बढ़कर रूस पर केन्द्रित होते गए। यह रूसी क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण था, हालांकि कई अन्य कारण भी थे।
प्रथम सफल मजदूर क्रांति रूसी क्रांति एक ऐसी मूलगामी सर्वहारा समाजवादी क्रांति थी जो साम्राज्यवादी युग में हुई। साथ ही इसमें जनवादी क्रांति के शक्तिशाली तत्व थे। इसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। लेनिन ने समाजवाद की ओर बढ़ने के लिए व्यापक एवं गहन जनवादी क्रांति की जरूरत पर जोर दिया। इसलिए उन्होंने क्रांति ‘नई अर्थनीति’ या ‘नेप’ अपनाया। आज रूसी क्रांति के पतन के कारणों के संदर्भ में लेनिन की इन रचनाओं पर अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
लेनिन ने रूसी क्रांति के फरवरी (मार्च) और अक्टूबर (नवम्बर) 1917 के बीच क्रांति के उतार-चढ़ावों, टेढ़े-मेढ़े रास्तों और डाइलेक्टिक्स पर जो लिखा है वह गंभीरता से पढ़ने लायक है। वह क्रांति के आंतरिक द्वन्द्व को दर्शाता है। पार्टी और सोवियतों के बीच संबंधों, क्रांति के शांतिपूर्ण और हथियारबंद मार्गो तथा तरीकों, सत्ता के बदलते स्वरूपों इत्यादि पर ये लेख अत्यंत ही शिक्षाप्रद है।
लेनिन ने अप्रैल, 1917 में एक असाधारण लेख लिखा जो ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जाना जाता है। वैसे जब क्रांति जोरों पर थी तो लेनिन सेंट पीटर्सबर्ग या पेट्रोग्राड (बाद में लेनिनग्राड) के बाहर एक कोने में बैठकर ‘राज्य और क्रांति’ नामक पुस्तक लिख रहे थे। इस पर उनके साथ रह रहे साथी को आश्चर्य हुआ था कि वे ऐसे उथल-पुथल के समय शांत भाव से ‘लिख’ क्यों रहे हैं?
‘अप्रैल थीसिस’ में लेनिन ने पहली बार ‘द्वैध सत्ता’ का सिद्धांत पेश किया था, अर्थात अब क्रांति किसी भी ओर जा सकती थी- जनता के हक में या राजतंत्र अथवा बड़े पूंजीपतियों के हक में। इसका कारण था सत्ता का दो हिस्सों में बंटना जो इतिहास की असाधारण घटना थी। आगे विकास इस पर निर्भर करता था कि सोवियत क्रांति का चरित्र पहचानती है या नहीं।
लेनिन और सोवियत सत्ता रूसी और सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका और लिखा जाना चाहिए। इतिहास में रूसी क्रांति के स्थान, योगदान और भूमिका को कोई मिटा नहीं सकता है। समाजवाद के निर्माण का यह पहला प्रयत्न था जिसने बहुत कुछ हासिल किया। आज साम्राज्यवादी शक्तियां रूसी क्रांति और उसके योगदान को न सिर्फ विकृत कर रही है बल्कि उसे मिटाने की कोशिश कर रही हैं यहां तक कि वे द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की भूमिका को तोड़-मरोड़ रही है।
सोवियत क्रांति की उपलब्धियों के साथ-साथ हमें उसकी कमियों का भी ख्याल करना चाहिए ताकि भविष्य में बेहतर समाजवाद का निर्माण किया जा सके। इसके लिए इतिहास से और स्वयं लेनिन से सीखने की जरूरत है। क्रांति के बाद 1924 की जनवरी में अपनी मृत्यु तक लेनिन सोवियत सत्ता में नकारात्मक रूझानों के प्रति बड़े ही सचेत और चिंतित थे। उनकी चुनी हुई रचनाओं (‘सेलेक्टेड वर्क्स’) के तीसरे खंड का यदि गंभीरता से अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने सोवियत सत्ता में नौकरशाही के बढ़ते रूझान का बार-बार विरोध किया है। अपनी रचना ”आन कोआपरेशन“ (सहयोग के बारे में) में उन्होंने जनतंत्र पर जोर दिया है। रोजा लक्सेम्वर्ग (सुप्रसिद्ध जर्मन कम्युनिस्ट नेता) तथा स्वयं लेनिन इस तथ्य की आलोचना कर रहे थे कि सोवियतों की सत्ता वास्तव में पार्टी की सत्ता बनती जा रही थी। लेनिन ने सत्ता को जनतांत्रिक और जन आधारित बनाने की पूरी कोशिश की।
केन्द्रीकरण: समाजवाद-विरोधी 1922 में लेनिन की मर्जी के खिलाफ स्तालिन को पार्टी का महासचिव बनाया गया। उस वक्त महासचिव का पद ज्यादा महत्व का नहीं होता था लेकिन जल्द ही वह महत्व का बन गया और बात गंभीर हो गई, जैसा कि लेनिन ने पूर्वानुमान लगाया था। उन्होंने एक बार नहीं, कई बार स्तालिन को हटाने की मांग की। यह तथ्य लेनिन की संकलित रचनाआंे में मिल जाते हैं।
लेनिन की मृत्यु (जनवरी, 1924) के बाद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने बहुत सारी उपलब्धियां हासिल की। लेकिन साथ ही एक अत्यंत नकारात्मक और घातक रूझान भी पैदा हुई जो ‘स्तालिनवाद’ के नाम से जानी जाती है। यहां हम स्थान की कमी के कारण उस पर विस्तार से चर्चा नहीं कर पायेंगे। इतना कहना ही काफी होगा कि लेनिन का अंदेशा सही निकला। अतिकेन्द्रीकृत नौकरशाही और एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता के केन्द्रीकरण समाजवाद के लिए न सिर्फ हानिकारक है बल्कि घातक भी। सोवियत संघ के पतन के कारणों में यह भी है। इसलिए इससे बचने की आवश्यकता है।
समाजवाद, जनतंत्र और तकनीकी क्रांति का युग पिछले लगभग तीन दशकों में विश्व मंे भारी परिवर्तन हुए हैं और कई मायनों में वे गुणात्मक परिवर्तन है। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में केन्द्रीकृत समाजवादी सत्ताओं का पतन हो गया। इनसे गंभीरता से सीख लेने की आवश्यकता है। जहांॅ रूसी क्रांति ने समाजवाद की प्रथम मिसाल पेश की, वहीं यह भी सिखाया कि समाजवाद के निर्माण में नकारात्मक तरीके नहीं अपनाए जा सकते हैं, समाजवाद का निर्माण गलत तरीकों से नहीं हो सकता। समाजवाद और कम्युनिज्म का ध्येय आज भी बरकरार है लेकिन उनकी ओर बढ़ने के तरीके एवं मार्ग बदल गए हैं। यहांॅ भी लेनिन से सीखने की जरूरत है उन्होंने बारम्बार दूसरे देशों से रूसी क्रांति का रास्ता नहीं अपनाने, उसकी नकल नहीं करने की अपील की थी और चेतावनी दी थी।
इतना स्पष्ट है कि आप बिना जनतंत्र के समाजवाद का रास्ता नहीं अपना सकते। आज की सूचना क्रांति के युग में यह बात और भी उजागर हो उठती है। सूचना और तकनीकी क्रांति वर्गों और व्यक्तियों को अधिक जनतांत्रिक बनाती हैं, उनके हाथों में जनतांत्रिक माध्यम पेश करती है। पिछले दो-तीन दशकों में हमारी आंखों के सामने सूचना तकनीकी क्रांति का असाधारण प्रसार हुआ है। क्या समाजवादी शक्तियां इनका पूरा इस्तेमाल कर रही हैं? इसके अलावा बाजार की शक्तियों का भी बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ है। भविष्य में समाजवाद में बाजार समाप्त करने का नहीं, बल्कि बाजार के जनवादीकरण का प्रश्न होगा। आज वियतनाम, चीन, क्यूबा, लैटिन अमरीकी देशों के सामने यह एक महत्वपूर्ण समस्या है।
समाज और मजदूर वर्ग की बदलती संरचना और समाजवाद खेद का विषय है कि इस प्रश्न पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। रूसी क्रांति के समय खास तरह का मजदूर वर्ग था और एक अलग किस्म की सामाजिक संरचना थी। आज के मजदूर वर्ग की संरचना (ढांचा) बदल रही है। सूचना और सेवा में कार्यरत श्रमिकों की संख्या तथा प्रतिशत बढ़ रहा है। इसके अलावा समाज की भी संरचना तेजी से बदल रही है, खासतौर पर उसका शहरीकरण हो रहा है जिसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं।
इसलिए भावी सामाजिक परिवर्तनों और समाजवाद को इन बदली परिस्थितियों का ध्यान रखना पड़ेगा। रूसी क्रांति के रास्ते और तौर-तरीकों को छोड़ना होगा। आज लैटिन अमरीका के दर्जन से अधिक देशों में मूलगामी परिवर्तन चल रहे हैं। वे भले ही क्यूबा की प्रशंसा करते हों, उससे दोस्ती रखते हों लेकिन वे क्यूबा से बिल्कुल अलग रास्ता अपनाए हुए हैं। जब हम रूसी क्रांति की वर्षगांठ मना रहे हैं तो एक और बात का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह यह कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के नियम समाजवाद पर भी लागू होते हैं, आज भी लागू हैं। यह महत्वपूर्ण पहलू रूस और पूर्वी योरप के शासक भूल गए थे। परिवर्तन, द्वन्द्व, अंतर्विरोध और उनका हल, निरंतर गति, नई और बदलती आवश्यकताएं एवं मांगें, विचारों- मतों का अंतर और द्वन्द्व, यहां तक कि खुला विरोध, समाजवाद का नई मंजिलों में पहुंॅचने, वस्तुगत नियम, संकट इत्यादि समाजवाद में भी होते हैं। समाजवाद में भी वस्तुगत परिस्थितियां ही निर्माण के तौर- तरीके तय करेंगी, पार्टी नहीं। पार्टी, अन्य संगठन मात्र माध्यम होंगे। सोवियत संघ में अक्सर ही यह बात भुलाकर वस्तुगत परिस्थितियों पर मनोवादी विचार थोपे गये थे। समाजवाद के अंतर्गत भी उत्पादन के साधनों और उत्पादन संबंधों के बीच टकराव चलता है। इनकी ओर भी स्वयं लेनिन ने कई बार ध्यान खींचा था।
भावी समाजवाद के संदर्भ में हमें रूसी क्रांति के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से काफी कुछ सीखना है।
- अनिल राजिमवाले
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