Thursday, November 17, 2011

अंजुमन तरक्की पसंद मुसनफीन का राष्ट्रीय सम्मेलन

 कोलकाताः रचनात्मक लेखन के जरिए तर्कबुद्धिवाद, मानव मूल्यों, समानता, शांति, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के लिए अपनी प्रतिद्धता को दोहराते हुए अंजुमन तरक्कीपसन्द मुसनफीन (प्रगतिशील लेखक संघ- उर्दू) ने 29 और 30 अक्टूबर को यहां मुस्लिम हॉल में आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में लेखकों, कवियों, साहित्य- आलोचकों और बुद्धिजीवियों का आह्वान किया कि वे पहले से अधिक सतर्क एवं सक्रिय रहें क्योंकि आज की चुनौतिया पहले कभी से अत्यंत गंभीर हैं।
 सम्मेलन में देश के 10 राज्यों से आये 102 डेलीगेटों समेत एक हजार से अधिक लोग शामिल थे। सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रख्यात शायर और गीतकार अख्तर जावेद ने कहा कि 1930 के मध्य दशक में जब प्रगतिशील लेखक संघ बना था उस समय अंग्रेजों की औपनिवेशिक गुलामी को खत्म करना मुख्य लक्ष्य था, पर आज हमारे सामने उससे भी अधिक दुश्मन और चुनौतियां हैं। स्वाधीनता संघर्ष में और स्वाधीनता के बाद सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के लिए संघर्ष में लेखकों एवं कवियों द्वारा गौरवपूर्ण योगदान को याद कराते हुए जावेद अख्तर ने कहा कि भूमंडलीकरण ने हमारे सामने दो चुनौतियां पेश कर दी हैं। एक तरफ, जो लोग एक धु्रवीय व्यवस्था थोपना चाहते हैं और समाज एवं प्रकृति प्रदत्त समस्त चीजों को हड़पना चाहते हैं, वे तमाम उदात्त मानवीय मूल्यों एवं परम्पराओं पर हमले कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ टेक्नालोजी का विकास आम जनगण से सम्प्रेषण करने के प्रश्न पर गंभीर खतरा पेश कर रहा है। ‘हम’ का स्थान ‘मैं’ ले रहा है। उन्होंने फिल्म उद्योग का उदाहरण दिया और कहा कि 1960-60 के दशकों में फिल्में आम लोगों के जीवन और समस्याओं को प्रदर्शित करती थी जबकि आज की फिल्मों का मनोरंजन के जरिए पैसा कमाने के लिए पूरी तरह व्यवसायीकरण किया जा रहा है। कम्प्यूटर के आविष्कार और सम्प्रेक्षण के नये मंच के कारण पैदा होने वाली समस्याओं का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ को अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन नये रूपों का इस्तेमाल करने की संस्कृति को विकसित करना होगा।
 उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात विद्वान एवं धर्मनिरपेक्षता के एक योद्धा डा0 असगर अली इंजीनियर ने कहा कि धार्मिक रूढ़िवादी एवं कट्टरपंथी ताकतों का खतरा कई गुना बढ़ गया है। ये विचारधाराएं केवल आतंकवाद को ही नहीं पैदा करती और बढ़ाती बल्कि वे वास्तव में तमाम मानवीय मूल्यों एवं संस्कृति को बरबाद करने पर आमादा हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ हमेशा से तर्कसंगत सोच पर डटा रहा है और आज यह और भी अधिक जरूरी हो गया है कि हम इस परम्परा पर दृढ़तापूर्वक चलें। आम जनता जिन परेशानियों- मुसीबतों से दो-चार हैं उन्हें सामने लाते हुए धर्मनिरपेक्षता और तर्कसंगत सोच को आगे बढ़ाना है। उन्होंने कहा कि ”वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो“ का जो आंदोलन न्यूयार्क से शुरू होकर यूरोपीय संघ देशों के 1500 शहरों तक फैल चुका है उसने उन एक प्रतिशत लोगों को, जो सब कुछ हड़पना चाहते हैं और ऐसी व्यवस्था थोपना चाहते हैं जिसमें जनता की कोई आवाज न हो, जनता की कोई सुनवाई न हो, अपना निशाना बनाते हुए एक नया नारा दिया है ”हम 99 प्रतिशत हैं“
 कोलकाता सम्मेलन की पृष्ठभूमि में जाते हुए बहुभाषी प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव डा0 अली जावेद ने कहा कि उर्दू के रचनाकार लेखकों का एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का फैसला 1975 में प्रगतिशील लेखक संघ फेडरेशन के गया सम्मेलन में लिया गया था। उसके अनुसार 1976 में इसे दिल्ली में गठित किया गया। गठन के बाद पहले दशक में इसने ठीकठाक काम किया पर जब इसके महासचिव डा0 कमर रईस को पेशेवर नियुक्ति पर देश से बाहर जाना पड़ा तो संगठन का काम ठप्प हो गया। 1995 में हैदराबाद में एक सम्मेलन किया गया। पर नया नेतृत्व एक नियमित तरीके से इसकी गतिविधियां नहीं चला पाया। इसके विभिन्न कारण थे। अन्ततः 2008 में आजमगढ़ में एक सम्मेलन किया गया और नया नेतृत्व कई राज्य इकाईयों को फिर से सक्रिय कर सका। यह सम्मेलन निर्धारित समय पर हो रहा है, इसमें 10 राज्यों के प्रतिनिधि हिस्सा ले रहे हैं।
 उद्घाटन सत्र को उर्दू माहनामा हयात के सम्पादक शमीम फैजी, डा0 शारीब रूदौलवी, डा0 खगेन्द्र ठाकुर और प्रो0 लुतुर रहमान ने भी संबोधित किया। पश्चिम बंगाल प्रगतिशील लेखक संघ के अमिताभ चक्रवर्ती और पश्चिम बंगाल प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी) के बृजमोहन ने अपने संगठनों के अभिनन्दन संदेश पढ़े। अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ के महासचिव डा0 मुरली मनोहर  प्रसाद सिंह और प्रगतिशील लेखक संघ के वेटरन और रोजाना आबशार के संपादक सालिक लखनवी और अकील रिज्वी जैसे लोगों के भी अभिनन्दन संदेश मिले। पीडब्लूए (उर्दू) की महासचिव डा0 अर्जुमंद आरा ने उद्घाटन सत्र की कार्यवाही का संचालन किया। मुख्य आयोजनकर्ता जमील मंजर ने स्वागत भाषण पढ़ा।
 सम्मेलन की एक विशेष बात थी महिलाओं की बड़ी संख्या में शिरकत जो न केवल दूसरे राज्यों से बल्कि मेजबान राज्य से भी आयी। मंच का नाम डा0 राजबहादुर गौड़ के नाम पर रखा गया जिनका 7 अक्टूबर को निधन हो गया था।
 उद्घाटन सत्र के बाद दो दिनों में दो और सत्र हुए। ”75 वर्ष और लेखकों की जिम्मेदारियां” पर बड़ा अच्छा सेमिनार हुआ। देश भर से आये सम्मेलन में शिरकत करने वाले 23 लोगों ने उद्घाटन सत्र के दौरान व्यक्त भावना का प्रदर्शन किया और अत्यंत उपयोगी सुझाव एवं राय दी। इलाहाबाद के डा0 अली अहमद फातमी ने साहित्य एवं संस्कृति पर भूमंडलीकरण के असर पर विस्तारपूर्वक बातें की और कहा कि बहुराष्ट्रीय निगमों का हमला उस हमले से भी अधिक गंभीर है जिससे हमें उस वक्त दो चार होना पड़ा था। जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ब्रिटिश उपनिवेशीकरण शुरू किया था। विचार विमर्श में हारून बीए, लतीफ जाफरी एवं एम0 हबीब (दोनों महाराष्ट्र से), फखरूल करीम, शाहीना रिजवी, डा0 तसद्दुक हुसैन एवं नरगिस फातिमा (उत्तर प्रदेश से), सलमान खुर्शीद एवं शकील अफरोज (पश्चिम बंगाल से), शाहिद महमूद (आंध प्रदेश से) डा0 सरवत खान (राजस्थान), डा0 अफसाह जफर, कृष्णानंदन एवं लुफ्तुर रहमान (बिहार), डा0 बदर आलम (झारखंड), डा0 अबु बकर अब्बाद एवं डॉ0 काजिम (दिल्ली) के अलावा आरिफ नकवी ने भी भाग लिया जो सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए खासतौर पर बर्लिन से आये थे। नकवी ने सत्रों को भी संबोधित किया। ख्वाजा नसीम अख्तर ने कार्यवाहियों का संचालन किया।
 अगले दिन की सुबह कोलकाता के प्रख्यात उर्दू शायर परवेज शाहिदी की जन्मशताब्दी जयन्ती को समर्पित थी। डा0 अफसाह जफर ने परवेज शाहिदी के जीवन एवं कृतित्व पर एक बड़ा ही दिलचस्प पेपर पढ़ा। परवेज शाहिदी एक शायर तो थे ही वह अपने जमाने के एक जाने- पहचाने कम्युनिस्ट नेता भी थे। इस प्रसंग में लेखकों एवं कवियों द्वारा सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने के बारे में एक सवाल उठाया गया। सम्मेलन में शिरकत करने वाले अनेक लोगों ने मखदूम मोहिउद्दीन और पाब्लो नेरूदा के उदाहरा बताये जो महान कवि भी थे और साथ ही महान राजनेता भी। यह उल्लेख किया गया कि परवेज शाहिदी को वह अहमियत नहीं मिली जिसके वह हकदार थे। डा0 आसिम शाहनवाज शिब्ली ने कार्यवाहियों का संचालन किया।
 अंतिम सत्र में संगठन पर विचार-विमर्श हुआ। अर्जुमंद आरा ने आजमगढ़ सम्मेलन के बाद से किये गये कामों पर रिपोर्ट पेश की। प्रगतिशील लेखक संघ (उर्दू) के भावी ढांचे पर दिलचस्प, कभी-कभी गर्मागर्म बहस हुई। गया के इस फैसले की फिर से पुष्टि करने के लिए कि प्रगतिशील लेखक संघ (उर्दू) बहुभाषी प्रगतिशील लेखक संघ (संघात्मक इकाई) का एक सम्बद्ध संगठन है, एक प्रस्ताव पारित किया गया।
 नये पदाधिकारियों की सूची का अनुमोदन किया गया जिसमें संरक्षकों का एक पैनल, एक अध्यक्षमंडल और एक सचिव मंडल शामिल है। रतन सिंह, कश्मीरी लाल जाकिर, डा0 अकील रिज्वी, जोगिन्दर पाल, इकबाल मजीद सालिक लखनवी, डा0 असगर अली इंजीनियर, इकबाल मतीन, आबिद सुहैल और जावेद अख्तर जैसे उर्दू के बड़े लेखक और कवि संरक्षक मंडल में हैं। डा0 शारिब रूदौलवी अध्यक्षमंडल के चेयरमैन हैं। डा0 अली अहमद फातमी और डा0 अर्जुमंद आरा को नये महासचिव चुना गया। नुसरत मोहिउद्दीन, हरगोविन्द शाह और डा0 शाहिनी परवीन को सचिव चुना गया। जमील मंजर, जिन्होंने इस दो दिवसीय सम्मेलन के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, कोषाध्यक्ष चुना गया। 21 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति चुनी गयी जिसकी वर्ष में एक बार बैठक होगी। बिहार प्रगतिशील लेखक संघ ने पहली कार्यकारिणी की बैठक की मेजबानी के लिए और इलाहाबाद ने दिसंबर में पदाधिकारियों की पहली बैठक के लिए मेजबानी की दावत दी।
 मुस्लिम इंस्टीट्यूट हॉल में एक मुशायरे के साथ दो दिवसीय सम्मेलन का समापन हुआ। मुशायरे में देश के विभिन्न हिस्सों से आये शायरों ने अपने गजलें और नज्में सुनायी। मुशायरा सुनने के लिए बड़ी तादाद में लोग आये।
 95 वर्षीय सालिक लखनवी उन बहुत ही चंद लोगों में से है जिन्होंने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में भाग लिया था। वह इस सम्मेलन में नहीं आ पाये। डॉ0 अली जावेद, डा0 अर्जुमंद आरा और शमीम फैजी उनसे मिलने उनके आवास पर गये और प्रगतिशील लेखक संघ के इस वेटरन के लिए खासतौर पर तैयार किया गया मीमेंटो (स्मृति चिन्ह) उन्हें भेंट किया।

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