(विगत 26 अप्रेल 2013 को कॉमरेड अनिल
राजिमवाले का व्याख्यान रायगढ़ इप्टा और प्रलेस के संयुक्त आयोजन में हुआ
था। इसके बाद 27 तथा 28 अप्रेल को रायगढ़ इप्टा द्वारा वैचारिक कार्यशाला
भी आयोजित की गयी। अनिल जी ने मध्यवर्ग के बदलते चरित्र पर विस्तार से
रोशनी डाली। उनके व्याख्यान का लिप्यांतरण, उषा आठले के सौजन्य से :'इप्टानामा'में 31 मई को प्रकाशित हुआ था। हम इप्टानामा से साभार इसे यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। )
आज के भारत की कई विशेषताओं में एक विशेषता यह है कि मध्यवर्ग एक ऐसा उभरता हुआ तबका है, जिसकी संख्या, जिसका आकार और जिसकी अंतर्विरोधी भूमिका बढ़ती जा रही है। इस विषय को लेकर कई तरह के मत प्रकट किए जा रहे हैं, चिंताएँ प्रकट की जा रही हैं, आशाएँ प्रकट की जा रही हैं। और कभी-कभी यह देखने को मिलता है कि प्रगतिशील और वामपंथी आंदोलन के अंदर एक प्रकार की आशंका भी इस बात को लेकर प्रकट की जा रही है।
जिसे हम मध्यम वर्ग कहते हैं, मिडिल क्लास, हालाँकि इसे मिडिल क्लास कहना कहाँ तक उचित है, यह भी एक शोध कार्य का विषय है - यह हमारे समाज का, दुनिया के समाज का काफी पुराना तबका रहा है। इतिहास में इसने हमारे देश में और दुनिया में बहुत महत्वपूर्ण भूमिकाएँ अदा की हैं, इसे मैं रेखांकित करना चाहूँगा। आप सब औद्योगिक क्रांति और उस युग के साहित्य से परिचित हैं। मार्क्स और दूसरे महान विचारकों, जिनमें वेबर और दूसरे अनेक समाजशास्त्रियों ने इस विषय पर काफी कुछ अध्ययन किया है, लिखा है। इसलिए मध्यवर्ग एक स्वाभाविक परिणाम है, वह दरमियानी तबका, जो औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पैदा हुआ। इसका चरित्र अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों और कारकों से तय होता है। जब इस दुनिया में पूंजीवाद आया, और जब हमारे देश में भी जब पूँजीवाद आया तो उसकी देन के रूप में मध्यवर्ग आया - उसका एक हिस्सा मिडिलिंग सेक्शन्स थे। फ्रेंच में एक शब्द आता है - बुर्जुआ, जो अंग्रेजी में आ गया है और बाद में हिंदी में भी आ गया है। दुर्भाग्य से आज क्रांतिकारी या चरम क्रांतिकारी लोग हैं, वे इस शब्द का उपयोग गाली देने के लिए इस्तेमाल करते हैं। बुर्जुआ का अर्थ होता है मध्यम तबका। यह मध्यवर्ग तब पैदा हुआ जब यूरोप में सामंती वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच में एक वर्ग पैदा हुआ।
अगर आप फ्रांसिसी क्रांति और यूरोपीय क्रांतियों पर नज़र डालें तो इसमें सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों और क्रांतियों में मध्यम वर्ग की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका नज़र आती है। मध्यम वर्ग वह वर्ग था, जिसने उस दौर में सामंती मूल्यों, सामंती संस्कृति, और सामंती परम्पराओं के खिलाफ़ विद्रोह की आवाज़ उठाई। जिसका एक महान परिणाम था 1779 की महान फ्रांसिसी क्रांति। फ्रांसिसी क्रांति एक दृष्टि से मध्यम वर्ग के नेतृत्व में चलने वाली राज्य क्रांति के रूप में इतिहास में दर्ज़ हो चुकी है। सामंतवाद विरोधी क्रांतियाँ तब होती हैं, जब पुराने संबंध समाज को जकड़ने लगते हैं, परंपराएँ जकड़ने लगती हैं और जब मशीन पर आधारित उत्पादन, नई संभावनाएँ खोलता है। हमारे यहाँ भी भारत में अंग्रेजों के ज़माने में एक विकृत किस्म की औद्योगिक क्रांति हुई थी आगे चलकर। यूरोप पर अगर नज़र डाली जाए तो यूरोप में बिना मध्यम वर्ग के किसी भी क्रांति की कल्पना नहीं की जा सकती है। महान अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, विचारधारा को जन्म देने वाले विद्वान मुख्य रूप से मध्यवर्ग से ही आए थे। वॉल्टेयर, रूसो, मॉन्टिस्क्यो, एडम स्मिथ, रिकार्डो, मार्क्स, एंगेल्स, हीगेल, जर्मन दार्शनिक, फ्रांसिसी राजनीतिज्ञ, इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्रियों ने औद्योगिक क्रांति के परिणामों का अध्ययन और विश्लेषण कर नई ज्ञानशाखाओं को जन्म दिया। सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में, साहित्य में, प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में - चार्ल्स डार्विन को कोई भुला नहीं सकता, न्यूटन तथा अन्य वैज्ञानिकों ने हमारी विचार-दृष्टि, हमारा दृष्टिकोण बदलने में सहायता की है। और इसलिए जब हम औद्योगिक क्रांति की बात करते हैं तो यह मध्यम तबके के पढ़े-लिखे लोग, जो अभिन्न रूप से इस नई चेतना के साथ जुड़े हुए हैं। ऐसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। यह भी एक विचारणीय विषय है कि औद्योगिक क्रांति से पहले का जो मानव-विकास का युग रहा है, उसमें जो बुद्धिमान लोग रहे हैं और औद्योगिक क्रांति के युग में जो बुद्धिमान विद्वान पैदा हुए हैं, उनमें क्या अंतर है? उन्होंने क्या भूमिका अदा की है? मैं समझता हूँ कि जो पुनर्जागरण पैदा हुआ, जो एक नई आशा का संचार हुआ, जो नए विचार पैदा हुए - समाज के बारे में, समानता के बारे में, प्राकृतिक शक्तियों को अपने नियंत्रण में लाने, सामाजिक शक्तियों पर विजय पाने, कि ये जो आशाएँ पैदा हुईं इससे बहुत महत्वपूण्र किस्म की खोजें हुईं और इनसे मानव-मस्तिष्क का विकास, मानव-चेतना का विकास इससे पहले उतना कभी नहीं हुआ था, जितना औद्योगिक क्रांति के दौरान हुआ। और इसका वाहक था - मध्यम वर्ग। इस मध्यम वर्ग की खासियत यह है, उस के साथ एक फायदा यह है कि वह ज्ञान के संसाधनों के नज़दीक है। इसपर गहन रूप से विचार करने की ज़रूरत है। जब हम मध्यम वर्ग के एक हिस्से को बुद्धिजीवी वर्ग कहते हैं, इंटिलिजेंसिया, जो ज्ञान के स्रोतों, उन संसाधनों के नज़दीक है, यह उनका इस्तेमाल करता है, जो समाज के अन्य वर्ग नहीं कर पाते हैं, दूर हैं। पूँजीपति वर्ग उत्पादन में लगा हुआ है, पूँजी कमाने में लगा हुआ है और उसके लिए ज्ञान का महत्व उतनी ही दूर तक है, जिससे कि उत्पादन हो, कारखाने लगें, यातायात के साधनों का प्रचार-प्रसार हो, उसी हद तक वह विज्ञान का इस्तेमाल करता है। अन्यथा उसे उतनी दिलचस्पी नहीं भी हो सकती है और हो भी सकती है।
वैसे मार्क्स ने मेनिफेस्टो में पूँजीपति वर्ग को अपने ज़माने में सामंतवाद के साथ खड़ा करते हुए कहा था कि यह एक क्रांतिकारी वर्ग है, जो निरंतर उत्पादन के साधनों में नवीनीकरण लाकर समाज का क्रांतिकारी आधार तैयार करता है। और समाज का नया आधार तैयार करते हुए शोषण के नए स्वरूपों को जन्म देता है। दूसरी ओर मज़दूर वर्ग मेहनत करने में लगा हुआ है, किसान मेहनत करने में लगा हुआ है और अपनी जीविका अर्जन करने में, अपनी श्रमशक्ति बेचने में, मेहनत बेचने में लगा हुआ है। इसलिए मध्यम वर्ग की भूमिका बढ़ जाती है। क्योंकि मध्यम वर्ग ज्ञान के, उत्पादन के, संस्कृति क,े साहित्य के उन स्रोतों के साथ काम करता है, जो सामाजिक विकास का परिणाम होते हैं। फैक्ट्री में क्या होता है, उसका अध्ययन; खेती में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; विज्ञान में क्या होता है, उसके परिणामों का अध्ययन; राज्य क्या है, राजनीति क्या है, राजनीतिक क्रांतियाँ कैसी होनी चाहिए या राजनीतिक परिवर्तन कैसे होने चाहिए; जनवादी मूल्य या जनवादी संरचनाएँ कायम होनी चाहिये कि नहीं होनी चाहिये - इस पर मध्यम वर्ग ने कुछ एब्स्ट्रेक्ट थिंकिंग की। इसलिए बुद्धिजीवियों का कार्य हमेशा ही रहा है, खासकर आधुनिक युग में, कि वह जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक घटनाएँ होती हैं, उस का सामान्यीकरण करते हैं, उनसे जनरलाइज़्ड नतीजे निकालते हैं। फ्रांसिसी क्रांति नहीं होती, अगर वॉल्टेयर और रूसो के विचार क्रांतिकारियों के बीच प्रसारित नहीं होते। रूसी क्रांति नहीं होती, अगर लेनिन के विचार, या अन्य प्रकार के क्रांतिकारी विचार या मार्क्स के विचार जनता के बीच नहीं फैलते। और हम सिर्फ मार्क्स और लेनिन का ही नाम न लें, बल्कि इतिहास में ऐसे महान बुद्धिजीवी, ऐसे महान विचारक पैदा हुए हैं, जिन्होंने हमारे मानस को, हमारी चेतना को तैयार किया है। आज हम उसी की पैदाइश हैं। कार्ल ट्रात्स्की, डेविड रिकार्डो, बर्नस्टीड, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, ब्रिटिश पार्लियामेंटरी सिस्टम, इससे संबंधित जो एक पूरी विचारों की व्यवस्था है; आधुनिक दर्शन, जिसे भौतिकवाद और आदर्शवाद के आधार पर श्रेणीबद्ध किया जाता है। और अर्थशास्त्र से संबंधित सिद्धांत - आश्चर्य और कमाल की घटनाएँ हैं कि अर्थशास्त्र जैसा विषय, जो पहले अत्यंत ही सरल हुआ करता था, पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के साथ, उस उत्पादन पद्धति का एक एक तंतु वह उजागर करके रखता है, जिससे कि हम पूरी अर्थव्यवस्था को स्पष्ट रूप से देख पाते हैं, यह बुद्धिजीवियों का काम है। या अर्थशास्त्रियों ने ये महान काम इतिहास में किये हैं। समाजशास्त्रियों ने हमें समाज के बारे में बहुत कुछ बताया है। यह मंच मुख्य रूप से संस्कृति और लेखन का मंच है, सांस्कृतिक और साहित्यिक हस्तियाँ इतिहास में किसी के पीछे नहीं रही हैं। मैक्सिम गोर्की, विक्टर ह्यूगो, दोस्तोव्स्की जैसी महान हस्तियों ने, ब्रिटिश लिटरेचर, फ्रेंच लिटरेचर, रूसी लिटरेचर ने खुद हमारे देश में भी पूरी की पूरी पीढ़ियों को तैयार किया है। इसलिए मैं कहना चाहूँगा कि बुद्धिजीवी समाज की चेतना का निर्माण करता है, समाज की चेतना को आवाज़ देता है। लेकिन वह आवाज़ देता है - सामान्यीकृत, जनरलाइज़ कन्सेप्शन्स के आधार पर; सामान्यीकृत प्रस्थापनाओं के आधार पर, यहाँ बुद्धिजीवी तबका बाकी लोगों से अलग है।
बहुत सारे लोग यह कहते हुए पाए जाते हैं कि ये बुद्धिजीवी है, मध्यम वर्ग के लोग हैं, पढ़े-लिखे लोग हैं, इनका जनता से कोई सरोकार नहीं है। मैं इस से थोड़ा मतभेद रखता हूँ। जनता से सरोकार तो होना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन जनता से सरोकार किस रूप में होना चाहिए? मसलन, मार्क्स क्या थे? मार्क्स का जनता से सरोकार किस रूप में था? मार्क्स या वेबर या स्पेंसर या रॉबर्ट ओवेन या हीगेल या ग्राम्शी - इनका जनता से गहरा सरोकार था। मसलन मार्क्स का ही उदाहरण ले लें। और अगर मैं मार्क्स का उदाहरण ले रहा हूँ तो अन्य सभी बुद्धिजीवियों का उदाहरण भी ले रहा हूँ कि उन्होंने बहुत अध्ययन किया। मेरा ख्याल है, उन्होंने ज़्यादा समय मज़दूर बस्तियों में बिताने की बजाय पुस्तकालयों में जाकर समय बिताया - किताबों के बीच। लेकिन लाइब्रेरी में किताबों के बीच समय बिताते हुए उन्होंने जनता नामक संरचना, जनसमूह, समाज और प्रकृति के बारे में जो अमूर्त विचार थे, जितना अच्छा मार्क्स ने प्रकट किया है, उतना अच्छा और किसी ने नहीं किया है। और कार्ल मार्क्स इसीलिए युगपुरुष कहलाते हैं क्योंकि उनके विचार में पूरे युग का सार - द एसेन्स ऑफ दि एज - को उन्होंने पकड़ा, समझा और प्रकट किया। मज़दूर वर्ग पहले भी संघर्षशील था लेकिन मार्क्स के सिद्धांतों ने या अन्य सिद्धांतकारों के सिद्धांतों ने संघर्षशील जनता को नए वैचारिक हथियार प्रदान किए। और मैं समझता हूँ कि बुद्धिजीवियों का यह सबसे बड़ा कर्तव्य है। बुद्धिजीवी का यह कर्तव्य हो सकता है, होना चाहिए कि वह झंडे लेकर जुलूस में शामिल हो, और नारे लगाए ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के, लेकिन मैं यह नहीं समझता हूँ कि इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगा देने से ही बुद्धिजीवी क्रांतिकारी हो जाता है। क्रांति की परिभाषा ये है - औद्योगिक क्रांति ने जो सारतत्व हमारे सामने प्रस्तुत किया कि क्या हम परिवर्तन को समझ रहे हैं! समाज एक परिवर्तनशील ढाँचा है, प्रवाह है। और प्रकृति भी एक परिवर्तनशील प्रवाह है, जिसके विकास के अपने नियम हैं, जिसकी खोज मार्क्स या डार्विन या न्यूटन या एडम स्मिथ ने की और जब उन्होंने की तो इनसे मज़दूरों को, किसानों को मेहनतकशों को परिवर्तन के हथियार मिले। इसलिए सामाजिक और प्राकृतिक परिवर्तन जब सिद्धांत का रूप धारण करता है, तो वह एक बहुत बड़ी परिवर्तनकारी शक्ति बन जाता है। और उसी के बाद हम देखते हैं कि वास्तविक रूप में, वास्तविक अर्थों में क्रांतिकारी, परिवर्तनकारी मेहनतकश आंदोलन पैदा होता है। मेहनतकशों का आंदोलन पहले भी था, लेकिन ये उन्नीसवीं सदी में ही क्यों क्रांतिकारी आंदोलन बना? इसलिए, क्योंकि एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ, जिसकी स्थिति उत्पादन में क्रांतिकारी थी। यह खोज मार्क्स की थी, जो उन्होंने विकसित की ब्रिटिश राजनीतिक अर्थव्यवस्था से। ब्रिटिश साहित्य या फ्रेंच साहित्य इस बात को प्रतिबिम्बित करता है कि कैसे मनी-कमोडिटी रिलेशन्स, वस्तु-मुद्रा विनिमय, दूसरे शब्दों में आर्थिक संबंध - मनुष्यों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, धार्मिक संबंधों को तय करते हैं। अल्टीमेट एनालिसिस! आखिरकार। यह उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी खोज थी। दोस्तोव्स्की ने एक जगह लिखा है, बहुत इंटरेस्टिंग है - ‘नोट्स फ्रॉम द प्रिज़न हाउस’ में उन्होंने लिखा है कि एक कैदी भाग रहा है, भागने की तैयारी कर रहा है साइबेरिया से, कैम्प से। वह पैसे जमा करता है। उनका कमेंट है, ‘‘मनी इज़ मिंटेट फ्रीडम’’ - ‘‘सिक्का मुद्रा के रूप में ढाली गई आज़ादी है।’’ कितने गहरे रूप में पूँजीवादी युग में मुक्ति, व्यक्ति और वर्ग की आज़ादी को सिर्फ एक लाइन में फियोदोर दोस्तोव्स्की ने अपनी किताब में प्रदर्शित किया है।
इसीलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है। अगर मज़दूर वर्ग को समझना है तो इस बात को समझेंगे। हालाँकि साहित्य में मेरा कोई दखल नहीं है मगर अगर मज़दूर ओर किसानों को समझना है तो विश्व साहित्य को समझना पड़ेगा। उसका अध्ययन करना पड़ेगा। क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, प्रतिबिम्ब होता है, जो समय के अंतर्विरोधों और टकरावों के बीच, गति के बीच व्यक्ति के संघर्षों को चरित्रों के रूप में प्रतिबिम्बित करता है और जो लेखक या लेखिका या कवि या कवयित्री इन बिंदुओं को समझ लेते हैं, वे महान साहित्यकारों की श्रेणी में आ जाते हैं। ये है मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग द्वारा रचित महान साहित्य।
साथियो, एक बात की ओर अक्सर ही इशारा किया जाता है बातचीत के दौरान, कि मार्क्स ने यह बात कही थी कि जैसे-जैसे पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली आगे बढ़ती जाएगी, मध्यम वर्ग दो हिस्सों में बँटता जाएगा। लेनिन ने भी इस ओर इशारा किया है। मध्यम वर्ग एक ढुलमुल वर्ग है। वह बनना तो चाहता है पूँजीपति, लेकिन सारे तो पूँजीपति नहीं बन सकते। यह संभव नहीं है। इसीलिए ज़्यादातर मध्यम तबके या छोटे उत्पादक या टीचर, डॉक्टर, वकील या दूसरे मध्यम वर्ग के तथाकथित हिस्से आम मेहनतकशों की ओर धकेले जाते हैं। यह पूँजीवाद का अंतर्विरोध है। इस बात की ओर मार्क्स और अन्य विद्वानों की रचनाओं में इशारा किया गया है कि कैसे दरमियानी तबके हैं, जब हम पूँजीवाद की बात करते हैं तो पूँजीवाद में केवल एकतरफ पूँजीपति और दूसरी ओर सिर्फ मेहनतकश वर्ग नहीं होता है, इन दोनों से भी बड़ा एक तबका होता है, जिसे हम दरमियानी तबका कहते हैं, मध्यम वर्ग कहते हैं। उनमें हमेशा अंतर्विरोधी परिवर्तन होता रहता है। उनका झुकाव आज यहाँ है तो कल वहाँ है, तो परसो और कहीं, उसके एक हिस्से के रूझान इस तरफ है तो दूसरे हिस्से के रूझान दूसरी तरफ हैं। लेकिन दुर्भाग्य से या सौभाग्य से, दुनिया का या हमारे देश का भी ज़्यादातर राजनैतिक नेतृत्व मध्यम तबके से ही आया है। हिटलर का जब उदय हो रहा था जर्मनी में, तो मिडिल क्लास उसका बहुत बड़ा आधार था और उसे हिटलर से बहुत आशाएँ थीं।
जब पूँजीवाद शोषण करता है, खासकर बड़ा पूँजीवाद, तो मज़दूर वर्ग से ज़्यादा नाराज़गी इसी मध्यम वर्ग को होती है। उसके थोड़े-थोड़े, छोटे-छोटे विशेषाधिकार भी, या सम्पत्ति भी अगर उसके हाथ से निकल जाए तो विद्रोह की भावना से वह भर जाता है। विद्रोह भी कई प्रकार के होते हैं। एक विद्रोह अपने लिए होता है, व्यक्ति के लिए, अपनी सम्पत्ति, अपने मकान के लिए होता है, अपनी ज़मीन के लिए होता है। एक विद्रोह समुदाय के लिए होता है। एक विद्रोह इस या उस पूँजीपति को हटाने के लिए होता है और एक विद्रोह जो होता है, वह व्यवस्था को बदलने के लिए किया जाता है। इसमें अंतर किया जाना चाहिए। और यह अंतर करने का काम बुद्धिजीवियों का है। इसीलिए समाजवाद भी कई प्रकार के होते हैं - ये आज की बात नहीं है, बहुत पुरानी बात है। इन समाजवादों को आप एक जगह नहीं ला सकते। सर्वहारा समाजवाद होता है, पूँजीवादी समाजवाद होता है, सामंती समाजवाद होता है, मध्यवर्गीय समाजवाद होता है, टुटपूँजिया समाजवाद होता है, बदलता हुआ - परिवर्तनीय समाजवाद होता है। जो हमारा औद्योगिक समाज है, वह लगातार व्यक्तियों में परिवर्तन लाता है और उनको अपनी वर्तमान स्थिति से वंचित करता है, यह बात सही है। इसीलिए पढ़े-लिखे लोग, छात्र, नौजवान, टीचर, नेता, मध्यम तबके के लोग नाराज़ रहते हैं जो आखिरकार विद्रोह की भावना का रूप धारण करता है। लेकिन यह विद्रोह दो प्रकार का हो सकता है - पूँजीवाद का नाश कर के उसकी जितनी उपलब्धियाँ हैं, उन्हें हम नष्ट कर सकते हैं। उसने जो प्रगतिशील काम किया है इतिहास में, उसे नष्ट करके उसकी जगह प्रतिक्रियावादी सत्ता कायम कर सकते हैं। इसे ही फासिज़्म कहते हैं। मुसोलिनी और हिटलर ने यही किया था। एंटोनियो ग्राम्शी नाम के बहुत बड़े इटालियन दार्शनिक हो चुके हैं। उन्होंने बड़े अच्छे तरीके से इस मध्यवर्गीय प्रक्रिया और फासिज़्म के मध्यवर्गीय आधार को उजागर किया है। लेकिन ग्राम्शी तो स्वयं फासिज़्म विरोधी बुद्धिजीवी थे और ग्राम्शी और तोग्लियाकी जैसे महान विचारकों ने फासिज़्म का पर्दाफाश किया। लेकिन वे इटली या जर्मनी में फासिज़्म को रोक नहीं सके क्योंकि बुद्धिजीवियों के दूसरे तबके फासिज़्म से, फासिज़्म की चमक दमक से चमत्कृत थे। यह अंतर्विरोध इस तबके में होता है लेकिन फिर भी फासिज़्म से लड़ने का बीड़ा मध्यवर्गीयों ने ही उठाया, उनके बुद्धिजीवियों ने उठाया, उनके बुद्धिजीवियों ने उठाया। ऐसे बुद्धिजीवियों को ग्राम्शी ने कहा है - आर्गेनिक इंटिलेक्चुअल - जो मेहनतकशों का, आम जनता का, आम लोगों के हितों का, मेहनतकश जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसीलिए मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहूँगा कि किसी भी प्रस्थापना को यांत्रिक रूप से नहीं लिया जाना चाहिए। मार्क्स और लेनिन खास परिस्थितियों में, खास प्रक्रिया का विश्लेषण कर रहे थे। लेकिन साथ-साथ त्रात्स्की ने भी एक बात कही कि इज़ारेदार पूँजीवाद के विकास के साथ मध्यवर्ग बढ़ रहा है योरोपीय देशों में। यह बात और भी कई विचारकों ने कही है। बाद का इतिहास यह साबित करता है - खासकर प्रथम विश्वयुद्ध एवं द्वितीय महायुद्ध के बीच का जो इतिहास है और उसके बाद का इतिहास, कि उनकी यह बात सही है। जहाँ इज़ारेदार पूँजीवाद विनाश करता है, वहीं गैरइज़ारेदार पूँजीवाद उत्पादन के साधनों का विकास भी करता है। और उत्पादन के साधनों और संचार साधनों के विकास के साथ, अखबारों के विकास के साथ, यातायात के साधनों के विकास के साथ मध्यवर्ग का जन्म होता है, आगे विकास होता है। इसीलिए इंग्लैण्ड, अमेरिका या फ्रांस जैसे देशों में और स्वयं तत्कालीन सोवियत संघ में भी बुद्धिजीवियों ने एक बहुत बड़ी भूमिका अदा की है - बहुत बड़ी संख्या में। रोम्यां रोला जैसे महान लेखक, इलिया एहरेनबर्ग, शोलोखोव या मैक्सिम गोर्की या हमारे देश में राहुल सांकृत्यायन हो, इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
इसीलिए बुद्धिजीवियों की भूमिका इतिहास में घटी नहीं है, बल्कि बढ़ी है, उनकी संख्या बढ़ी है। विज्ञान और तकनीक के विकास में, अर्थतंत्र और अर्थशास्त्र के विकास ने हमारे सामने नए तथ्य लाए हैं। इन तथ्यों का अध्ययन करना बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। और इसीलिए विचारधारा की लड़ाई चलती है। हम अक्सर विचारधारा की लड़ाई या विचारधारा के संघर्ष की बात करते हैं। लेकिन एक बात को, कम से कम मेरे व्यक्तिगत विचार से, हम भूल जाते हैं, इस बात को दरकिनार करते हैं, खासकर उस सच्चाई को, जब हम कहते हैं कि विचारधारा या विचार, चाहे वे किसी भी किस्म के हों, वे हमारे मानस या मस्तिष्क से जुड़े होते है और इसलिए यह सीधे मध्यवर्ग से भी जुड़े होते हैं। मध्यवर्ग ने ही फासीविरोधी चेतना पैदा की है और उसका विरोध किया है। भारत के आज़ादी का आंदोलन अगर देखा जाए तो उसमें पढ़े-लिखे लोगों की भूमिका निर्णायक रही। हमारे यहाँ पश्चिमी शिक्षा अंग्रेजों ने लागू की - सीमित रूप में, और अंग्रेजों के राज में कुछ मुट्ठी भर विश्वविद्यालय, कॉलेज, स्कूल बने, उनमें शिक्षित वर्ग पैदा हुआ। यह शिक्षित वर्ग राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और उसका एक हिस्सा आगे चलकर समाजवाद का वाहक बना। हमारे देश में वह इतिहास पैदा हुआ, वह संस्कृति पैदा हुई, वह साहित्य पैदा हुआ, जिसने साम्राज्यवादविरोध की आवाज़ बुलंद की, जनता को शिक्षित किया। उस साहित्य के बिना हमें आज़ादी नहीं मिलती। राहुल सांकृत्यायन की रचनाएँ पढ़कर आज भी नौजवान, बिना किसी प्रगतिशील लेखक संघ या पार्टी के, क्रांतिकारी और समाजवादी विचारों की ओर झुकते हैं, यह सच्चाई है। और इसीलिए प्रिंटेड वर्ड्स, मुद्रित साहित्य में बड़ी ताक़त होती है, वो ताक़त हथियारों में नहीं होती, आर्म्स और आर्मामेंड्स में वह ताकत नहीं होती है, जो किताबों, अखबारों और छपी हुई रचनाओं में होती है क्योंकि वह बच्चों से लेकर बड़ों तक, पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी चेतना का विकास करती हैं, हमें तैयार करती हैं, हमें मानव बनाती हैं।
और इसीलिए मध्यवर्ग बहुत महत्वपूर्ण स्थिति में है आज । आज इसका चरित्र बदल रहा है। यह एक अंतर्विरोधी वर्ग है। इसमें विभिन्न रूझानें हैं, इसका विकास द्वंद्वात्मक है। लेकिन इतना समझना या कहना काफी नहीं है। इतना कह लेने के बाद, समझ लेने के बाद इसमें यह अनिश्चितता कैसे कम की जाए, इसके नकारात्मक रूझानों को कैसे कम किया जाए और सकारात्मक रूझानों को कैसे मजबूत किया जाए? मेरा ख्याल है कि सचेत और सोद्देश्य आंदोलन बुद्धिजीवियों की, जो अपने को सोद्देश्य होने का दावा करते हैं, उनकी यह बड़ी जिम्मेदारी है।
साथियो, मैं इस बात पर जोर देना चाहूँगा कि आज हम एक अन्य औद्योगिक क्रांति से गुज़र रहे हैं। हम बड़े सौभाग्यशाली हैं, हमारी आँखों के सामने दुनिया बदल रही है। किसी जमाने में, औद्योगिक क्रांति के जरिए खेती की जगह मशीन का युग आया था। उसमें पूरा शतक या दो शतक लग गए थे। लेकिन आज कुछ दशकों के अंदर, तीस-चालीस वर्षों में ये परिवर्तन हुए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, खासकर पिछले तीस-चालीस वर्षों के अंदर दुनिया में वो परिवर्तन हुए है और चल रहे हैं, जो इतिहास में आज तक नहीं हुए हैं। ये परिवर्तन विज्ञान से संबंधित हैं, ये परिवर्तन तकनीक से संबंधित हैं। आज का विज्ञान बहुत जल्दी तकनीक में बदल जाता है। पहले विज्ञान को तकनीक में बदलने के लिए सौ साल लगते थे अगर, या दो सौ साल लगते थे, वहीं आज दस साल, पाँच साल, दो साल, एक साल के अंदर-अंदर विज्ञान तकनीक में बदल जाता है। आज से तीन-चार दशकों पहले हम इलेक्ट्रॉनिक युग की एक कल्पना-सी करते थे, दूर से बात करते थे, वो चीज़ हमें योरोप की चीज़ लगती थी लेकिन आज वह हमारे देश के विकास का अभिन्न अंग बन चुका है। और न सिर्फ हमारे देश का, बल्कि पूरी दुनिया की जो अर्थव्यवस्था है, पूरे दुनिया का जो समाज है, उसका निर्णायक तत्व वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति है। निर्णायक तत्व इसलिए है, कई कारणों से है कि वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति हमारी चेतना को तैयार करती है, हमारी चेतना का निर्माण कर रही है।
किसी जमाने में आजादी के दीवाने भगतसिंह या कम्युनिस्ट पार्टी के लोग और कांग्रेस पार्टी के लोग कंधे पर झोला लटकाए, कुछ पतली-पतली किताबें लेकर गाँव में जाया करते थे और ज्ञान फैलाया करते थे। बड़े-बड़े नेताओं ने आज़ादी के आंदोलन में यह काम किया है। वे भी बुद्धिजीवी थे। उन्होंने ज्ञान दिया कि आज़ादी के लिए कैसे लड़ा जाए और आज़ादी के बाद नए भारत का निर्माण कैसे करें - वे सपने थे। कई लोग कहते हैं कि वे सपने टूट गए। खैर, यह एक अलग विषय है। आज वह जमाना गया। हालाँकि आज भी वे इलाके ज़रूर हैं, जहाँ झोला लेकर जाना पड़ता है, जहाँ पैदल चलना होता है। लेकिन आज सूचना, जानकारी, ज्ञान लोगों तक वर्षों में नहीं, घंटों, मिनटों और सेकंडों में पहुँच जाता है। इसका हमारे समाज के ढाँचे पर बहुत बड़ा असर पड़ रहा है। हमारा सामाजिक ढाँचा बदल रहा है और बहुत तेज़ी से बदल रहा है। पिछले दस वर्षों में भारत बदल चुका है। अगर हम प्रगतिशील हैं (प्रगतिशील वह है, जो सबसे पहले परिवर्तनों को पहचानता है) तो शर्त यह है कि इस परिवर्तन को हमें समझना पड़ेगा। यह परिवर्तन चीन में हो रहा है, नेपाल में हो रहा है, वेनेजुएला में, ब्राजील, क्यूबा में हो रहा है और योरोप और अमेरिका में तो हो ही रहा है। इसीलिए आज के आंदोलनों का चरित्र दूसरा है। आज मध्यम वर्ग बड़ी तेज़ी से बेहिसाब फैल गया है। इसलिए पुराने सूत्रों को ज्यों का त्यों लागू करना सही नहीं होगा। उसमें परिवर्तन, सुधार, जोड़-घटाव करना पड़ेगा। मसलन, आज बड़े कारखानों का युग जा चुका है। चिमनियों से धुआँ छोड़ने वाले कारखाने इतिहास के पटल से जा रहे हैं। उनके स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक कारखाने आ रहे हैं। मज़दूर वर्ग की संरचना बदल रही है। आप लोग औद्योगिक नगरी में रहते हैं, आपको ज़्यादा अच्छीतरह पता है कि कम्प्यूटरों का किसतरह इस्तेमाल हो रहा है, इलेक्ट्रॉनिक्स का किसतरह इस्तेमाल हो रहा है प्रोडक्शन में। और इलेक्ट्रॉनिक्स का इस्तेमाल करने का मतलब है सूचना का इस्तेमाल करना। सूचना का इस्तेमाल करने का अर्थ ही है मध्यवर्ग का बदलना, मध्यवर्गीय चेतना का बढ़ना, मध्यम तबकों का बढ़ना। यह बात मज़दूर वर्ग पर भी लागू है। पब्लिक सेक्टर का मज़दूर या मज़दूर वर्ग और कारखाने से बाहर दफ्तर में काम करने वाले, विश्वविद्यालय, कॉलेजों या अन्य जगहों में काम करने वाले कर्मचारी, पदाधिकारी और जो भी लोग हैं, जिन्हें हम आम तौर पर मिडिल क्लास की कैटेगरी में रखते हैं; इन दोनों के बीच का अंतर कम हो रहा है। न सिर्फ मध्यम वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है, स्वयं मज़दूर वर्ग का संरचनात्मक ढाँचा, उसकी संरचना भी बदल रही है। वह अब सीधे तौर पर प्रोडक्शन के साथ काम नहीं कर रहा है। और इसीलिए हमारे सामने यह महत्वपूर्ण टास्क है कि इस बदलते हुए का, परिवर्तन का विश्लेषण करना। अब समस्या यह है, संकट यह है कि ये जो नए तबके हैं, युवा वर्ग है, ये उस इतिहास को नहीं जानते हैं। इन्होंने उन उत्पादन के साधनों से काम नहीं किया है। गाँव खाली हो रहे हैं। गाँव की जो खेती है, पंजाब-हरियाणा जैसी जगहों में, उसमें इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लग रहे हैं। हमारा जो काम करने का तरीका है कम्प्यूटर, इंटरनेट, ईमेल के साथ, वह दूसरा रूप धारण कर रहा है।
अभी मैं अपनी अगली किताब के लिए फैक्ट्रियों का अध्ययन कर रहा हूँ। देखकर आश्चर्य होता है। पूरे हॉल में आठ सौ स्पीकर्स लगे हुए हैं। गुजरात की एक फैक्ट्री है, उसके पहले गुंटूर की एक फैक्ट्री, उसके बाद पंजाब की एक फैक्ट्री में जाने का मौका मिला। पूरे हॉल के अंदर मुश्किल से दस-बारह वर्कर होंगे। लंच अवर चल रहा था। खाना-वाना खाकर एक-एक बिस्तर लेकर वे लोग लेटे हुए थे। मालिक और मैनेजर उनके सामने से गुज़र रहे थे। थोड़ी देर में उनका आराम करने का समय खत्म होने वाला था और वे लोग काम पर आने वाले थे। मार्क्स ने जब पूंजी लिखी तो लिखने के पहले आरम्भ में उसकी एक आउटलाइन या रूपरेखा लिखी, जिसे साहित्य में ‘ग्रुंड्रिस’ के रूप में जाना जाता है, यह ‘पूंजी की रूपरेखा कहलाती है। उसमें वे लिखते हैं कि अगर प्रोडक्शन ऑटोमेटेड होता है, तो मज़दूर, मज़दूर से ऑब्ज़र्वर के रूप में बदल जाता है। वह मशीन चलाता नहीं, मशीन चलती है और मज़दूर का काम है - उसकी देखरेख करना, उसका ध्यान रखना। आज जो इलेक्ट्रॉनीकरण हो रहा है, उसके जरिये इसमें भी भारी परिवर्तन हो रहे हैं।
साथियो, आज इस देश में तीस करोड़ या चालीस करोड़ मध्यमवर्ग का हिसाब लगाया जा रहा है। हमारे देश की एक चौथाई से एक तिहाई आबादी मध्यवर्ग की हो गई है, बनती जा रही है। क्या हम इस सच्चाई से इंकार कर सकते हैं? इनके बीच भी तरह-तरह की विचारधाराएँ काम करती हैं। कम से कम सौ-डेढ़ सौ चैनल्स काम कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में, जो पिछड़ा हुआ माना जाता था और अभी भी है, यहाँ से भारी संख्या में अखबार निकलते हैं, पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं। हमारे देश में बड़े पैमाने पर सूचना की भूमिका बढ़ती जा रही है। छोटी से छोटी खबर बड़ी बनकर या बनाकर लोगों के सामने आती है। जब हम बुद्धिजीवियों या इंटेलिजेंसिया की बात करते हैं तो विचारों या विचारधाराओं का टकराव निर्णायक बनता जा रहा है। इस बात पर मैं ज़ोर देना चाहता हूँ। प्रगतिशील शक्तियाँ अगर इसकी उपेक्षा करती हैं, इस परिवर्तन की - जो परिवर्तन अंतर्विरोधी है, जिसमें बहुत सारी गलत बातें हैं। जैसे बहुत सारी गलत रूझानें हैं उसीतरह बहुत सी सही रूझानें भी हैं। इन्हें सही रूझानों की ओर झुकाया जा सकता है। अगर हम नए उत्पादन के साधनों को बड़े इजारेदारों के हाथ में छोड़ देते हैं तो समाज की जकड़न बढ़ जाती है। अगर नए उत्पादन के साधनों को मेहनतकश मध्यवर्ग और बुद्धिजीवी इस्तेमाल करता है सही तरीके से, तो बड़ी पूंजी की जकड़न कमज़ोर पड़ती है। वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति ने यह संभव बना दिया है कि जो उत्पादन, जो काम, पहले इस पूरे भवन में हुआ करता था, वह पाँच बाय पाँच के एक छोटे कमरे में हो सकता है। और इसीलिए छोटे पैमाने के उत्पादन की भूमिका बढ़ गई है। घर में बैठकर पढ़ने और काम करने की भूमिका बढ़ गई है। छोटे कार्यालयों की भूमिका बढ़ गई है। यातायात बहुत तेज़ी से बढ़ा है। इस चर्चा को आगे बढ़ाया जाए तो कहा जा सकता है कि देश और दुनिया के पैमाने पर स्थान और काल मिलकर एक नए स्थान और काल का निर्माण कर रहे हैं। That is collapse of Time and Space- जब टाइम और स्पेस कोलॅप्स करता है, तब चेतना का निर्माण नए तरीके से होता है। नया मध्यमवर्ग इसकी देन है - अंतर्विरोधों से भरा हुआ। इसीलिए मैं समझता हूँ कि आज नए सिरे से विश्लेषण की आवश्यकता है। इतिहास में पहली बार दुनिया के ज़्यादातर लोग शहरों में रहने लगे हैं। बहुत जल्दी भारत और चीन के लोग भी, पचास प्रतिशत या आधे से अधिक लोग शहरों में रहने लगेंगे। अब शहरों में ज़्यादातर औद्योगिक कामकाजी वर्ग ही नहीं रहता है, बल्कि मध्यम वर्ग रहता है। उनके बीच संगठन कैसे किया जाए? उनके बीच प्रगतिशील विचारों का प्रसार कैसे किया जाए? ये हमारे सामने चुनौती हैं। फ्लैटों में, कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटियों में, शहरीकृत इलाकों में, यहाँ तक कि उन हिस्सों में भी, जहाँ शहरीकरण हो गया है, हम अपने नए विचारों को कैसे पहुँचाएँ? इसमें इलेक्ट्रॉनिक तरीका भी शामिल है - यह प्रगतिशील ताकतों के सामने बहुत बड़ी चुनौती है। इन विचारों के टकराव में अगर थोड़ी भी देर होती है तो जिन्हें हम गैरवैज्ञानिक विचार कहते हैं, वे बहुत जल्दी पनपते हैं। इसकी शिकायत करने से काम नहीं चलेगा। यह शिकायत का सवाल नहीं है। सवाल इस बात का है कि हम इन वस्तुगत परिवर्तनों को देख रहे हैं या नहीं देख रहे हैं? इसलिए आज एक नए किस्म के बुद्धिजीवी की ज़रूरत है। जो बढ़ते हुए मध्यवर्ग से, जो देश की नीतियाँ निर्मित करता है या कम से कम प्रस्थापित करता है या प्रस्थापनाएँ तैयार करता है, उसमें इनपुट्स डालता है, चेतना को फैलाता है, उसकी बहुत बड़ी सामाजिक भूमिका है, उसके अंतर्विरोध हैं, उसकी कमियाँ हैं - उनका इस्तेमाल प्रगतिशील आंदोलन कैसे करता है! इनके बीच हम अपना साहित्य कैसे ले जाएँ? कितना है हमारा साहित्य इनके बीच? अगर हम छोड़ दें तो पूंजीवाद इनका इस्तेमाल करता है। वह तो करेगा ही। क्यों नहीं करेग कर ही रहा है। प्रगतिशील ताकतों के पास कितने टीवी चैनल्स हैं? कितने अखबार प्रगतिशील तबके निकालते हैं? सन् 1907 में जर्मन डेमोक्रेटिक पार्टी, जो मज़दूरों की पार्टी थी जर्मनी की, एक सौ सात दैनिक अखबार निकालती थी। जर्मनी एक छोटा सा देश है, हमारे एक राज्य के बराबर। आज हमारे यहाँ कितने प्रगतिशील दैनिक अखबार निकलते हैं? कितने चैनल्स हैं, कितने ब्लॉग्स हैं? कितने ई-मेल और ई-स्पेस पर हमारा दखल है? हम प्रगतिशील साहित्य को कितने लोगों तक पहुँचा रहे हैं? या लोगों तक केवल त्रिशूल ही पहुँच रहा है? क्योंकि हमने जगह खाली छोड़ रखी है त्रिशूल पहुँचाने के लिए, कि पहुँचाओ भाई त्रिशूल! जतिवाद करने के लिए खुला मैदान छोड़ा हुआ है, इसकी जिम्मेदारी हमारे ऊपर भी है। रजनी पामदत्त ने एक जगह लिखा है कि Fascism is the punishment for not carries out Revolution उसी तर्ज़ पर आज हम कह सकते हैं कि प्रतिक्रियावादी विचारों का प्रसार, हमारे द्वारा काम नहीं करने या उचित तरीके से नहीं समझने की सजा है। जब इसतरह के संगठन वैज्ञानिक समझ रखने का दावा करते हैं तो उन्हें यह समझना चाहिए कि विज्ञान वो है, जो आने वाली घटनाओं की दिशा को भी पहले से समझ ले। इसीलिए मैं इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि तेज़ी से बदलती दुनिया में प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है - भारत के मध्यवर्ग के बीच ज़्यादा से ज़्यादा काम करना। इसके अलावा भी उन्हें मज़दूरों, किसानों के बीच काम करना है ताकि भारत के जनता की चेतना, बुद्धिजीवियों की चेतना विज्ञान और सामाजिक शास्त्रों के सिद्धांत और नए सिद्धांतों की रचना कर सके। पुराने सिद्धांतों को, पुरानी बातों को बार-बार तोता रटंत की तरह दोहराते जाना काफी नहीं है। यह नुकसानदेह है। अब नए सिद्धांतों की रचना कितनी कर रहे है - नए सिद्धांतों की? क्या हममें वो सैद्धांतिक हिम्मत है? क्या हममें वह वैचारिक या विचारधारात्मक हिम्मत है? क्या हममें हिम्मत है कि हम नए वैज्ञानिक विचारों की रचना करें? जो आज के वैज्ञानिक, तकनीकी और इलेक्ट्रॉनिक क्रांति के अनुरूप हो? हम जितना इस नई चेतना का निर्माण करेंगे, उतना ही मध्यवर्ग के बीच और सबके बीच हम प्रगतिशील विचारों का प्रसार कर सकेंगे।
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