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Saturday, June 18, 2011

धरती

यह धरती है उस किसान की
जो बैलों के कंधों पर
बरसात धाम में,
जुआ भाग्य का रख देता है,
खून चाटती हुई वायु में,
पैनी कुर्सी खेत के भीतर,
दूर कलेजे तक ले जाकर,
जोत डालता है मिट्टी को,
पांस डाल कर,
और बीच फिर बो देता है
नये वर्ष में नयी फसल के
ढेर अन्न का लग जाता है।
यह धरती है उस किसान की।
नहीं कृष्ण की,
नहीं राम की,
नहीं भीम की, सहदेव, नकुल की
नहीं पार्थ की,
नहीं राव की, नहीं रंक की,
नहीं तेग, तलवार, धर्म की
नहीं किसी की, नहीं किसी की
धरती है केवल किसान की।
सूर्योदय, सूर्यास्त असंख्यों
सोना ही सोना बरसा कर
मोल नहीं ले पाए इसको;
भीषण बादल
आसमान में गरज गरज कर
धरती को न कभी हर पाये,
प्रलय सिंधु में डूब-डूब कर
उभर-उभर आयी है ऊपर।
भूचालों-भूकम्पों से यह मिट न सकी है।
यह धरती है उस किसान की,
जो मिट्टी का पूर्ण पारखी,
जो मिट्टी के संग साथ ही,
तप कर,
गल कर,
मर कर,
खपा रहा है जीवन अपना,
देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना,
मिट्टी की महिमा गाता है,
मिट्टी के ही अंतस्तल में,
अपने तन की खाद मिला कर,
मिट्टी को जीवित रखता है;
खुद जीता है।
यह धरती है उस किसान की!
- केदारनाथ अग्रवाल