राह तो एक थी हम दोनों की
आप किधर से आए-गए।
हम जो लूट गए पिट गए,
आप जो राजभवन में पाए गए!
किस लीलायुग में आ पहुंचे
अपनी सदी के अंत में हम
नेता, जैसे घास-फूंस के
रावन खड़े कराए गए।
जितना ही लाउडस्पीकर चीखा
उतना ही ईश्वर दूर हुआ
(-अल्ला-ईश्वर दूर हुए!)
उतने ही दंगे फैले, जितने
‘दीन-धरम’ फैलाए गए।
मूर्तिचोर मंदिर में बैठा
औ’ गाहक अमरीका में।
दान दच्छिना लाखों डालर
गुपुत दान करवाये गये।
दादा की गोद में पोता बैठा,
‘महबूबा! महबूबा...’ गाए।
दादी बैठी मूड़ हिलाए
‘हम किस जुग में आए गए।’
गीत ग़ज़ल है फिल्मी लय में
शुद्ध गलेबाजी, शमशेर
आज कहां वो गीत जो कल थे
गलियों-गलियों गाए गए!
- शमशेर बहादुर सिंह
2 comments:
वे धर्म नहीं हैं केवल ढोंग-पाखण्ड हैं.धर्म वह होता है जो धारण करता है.यथार्थ का सत्य चित्रण है इस गजल में.
शमशेर जी,
भई अच्छी खोज-खबर ली आपने आज के हालात की, हमें तो इसके दूसरे भाग का इंतज़ार रहेगा....
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