Thursday, June 30, 2011

चुभती हुई चुप्पी


प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने पिछले दिनों मसूरी में ‘सत्ता और शब्द’ विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी में हिंदी के लेखकों से किसानों द्वारा अपनी भूमि बचाने के लिए लड़ी जा रही लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाने की अपील की थी। हिंदी के लेखकों से उनकी अपील कारूणिक अपेक्षा के साथ-साथ एक शिकायत भी थी। शिकायत यह कि इतिहास के इस सर्वग्रासी समय में जब हिंदी समाज के किसान अपनी जमीन और रोजी बचाने के लिए राजसत्ता, कॉरपोरेट जगत और बाजार से जद्दोजहद कर रहे हैं, उनकी लड़ाई में हिंदी के लेखक शामिल क्यों नहीं हो रहे हैं? वे चुप क्यों हैं?

आज उत्तर प्रदेश के बलिया से लेकर नोएडा तक बनने वाले गंगा-यमुना एक्सप्रेस-वे, बनारस के पास कटेसर में जबरन भूमि अधिग्रहण, इलाहाबाद के पास कचरी में लगने वाली जेपी समूह की ताप विद्युत परियोजना आदि के खिलाफ किसान लड़ाई लड़ रहे हैं। नोएडा के पास भट्टा-पारसौल और अच्छेपुर संघर्ष का मैदान बन चुके हैं। जिन लोगों की जमीन का अधिग्रहण हो रहा है उनमें बड़े-छोटे और सीमांत सभी तरह के किसान शामिल हैं। जिनके पास छोटे भूखंड हैं उनके लिए जमीन की लड़ाई ‘जान’ की लड़ाई बन चुकी है।

पहले किसानों को अपने पड़ोसी और शक्तिशाली सामंतों से अपनी जमीन बचानी पड़ती थी। इसमें राजसत्ता, थाना, कचहरी से अपेक्षा थी कि वे इन्हें बचाने में मदद करेंगे। पर आज दुखद है कि राजसत्ता खुद उनकी भूमि हड़प कर उसे जमीन-जायदाद के कारोबारियों और भू-माफिया को महंगे दामों पर बेच रही है। किसानों को बारह सौ रूपए प्रति वर्ग गज जमीन लेकर भवन निर्माताओं को आठ हजार रुपए प्रति वर्ग गज की दर से, वह भी बीस साल में चुकाने की छूट देकर, बेचा जा रहा है। जिस विकास के नाम पर खेती योग्य जमीन का अधिग्रहण जारी है, उसमंे राजसत्ता की छत्र छाया में सिर्फ जमीन-जायदाद के कारोबारियों और भवन निर्माताओं को फायदा पहुंचाया जा रहा है। राजसत्ता का चरित्र धीरे-धीरे ‘बिल्डर्स स्टेट’ और ‘मर्केंटाइल स्टेट’ में बदलता जा रहा है। सरकार का काम जैसे केवल किसानों से जमीन लेकर भू-माफिया को बेचना और इस प्रक्रिया में कमीशन और भ्रष्टाचार को वैधानिक बनाते जाना रह गया है।

बंगाल के नंदीग्राम और सिंगूर में जब खेती लायक जमीन अधिग्रहीत कर टाटा को कारखाना लगाने के लिए दी जा रही थी तो किसानों के संघर्ष में वहां के लेखक, कलाकर, बुद्धिजीवी खुल कर सड़कों पर उतरे थे। उनके फेसबुक, ब्लॉग वगैरह नंदीग्राम और सिंगूर के खिलाफ चल रहे संघर्ष की सूचनाओं और अपीलों से भर गए थे। मगर हिंदी के साहित्यकार-चाहे प्रगतिवादी हों, दलितवादी, जनवादी, आत्मवादी, आत्मरतिवादी, विश्व पर्यटनवादी - सब चुप है।

हिंदी क्षेत्र की युवा पीढ़ी, युवा लेखकों के साइबर स्पेस, फेसबुक आदि से बढ़ते संबंधों को ज्ञान और अभिव्यक्ति के अवसरों के जनतांत्रिकीकरण की दिशा मंे महत्वपूर्ण कदम माना गया था। मगर हिंदी लेखकों के साइबर स्पेस में (कुछ को छोड़ कर) भट्टा-पारसौल जैसी घटनाओं पर बहुत कम संवाद दिखता है। उनका ज्यादातर साइबर स्पेस या तो फूलों की घाटियों, प्रेम, विदेश यात्रा, साहित्यिक उपलब्धि की खबरों, आपसी साहित्य विवरणों से भरा दिखता है। इन जनतांत्रिक - सी माने जानी वाली संचारी जगह में किसानों के दुख, उनके संघर्ष के प्रति बहुत कम लगाव दिखता है। हिंदी पत्र - पत्रिकाओं, अखबारों में भी साहित्यकारों की ऐसे मामलों पर प्रतिबद्ध प्रतिरोध न के बराबर है। कोई विदेशों में काव्यपाठ पर मस्त है, कोई अपने साहित्यक गौरव को ओढ़-बिछा रहा है तो कोई अपने ही साहित्यिक बंधुओं को गला रेतने में लगा है।

नंदीग्राम और सिंगूर मामले में एक सक्षम और जागरूक नागरिक समाज काफी आक्रामक रूप में सक्रिय था। इस मुद्दे पर वहां के समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी सार्वजनिक रूझान बनाने वाले माध्यमों में मुखर थे। नाट्य मंडलियां, कलाकर सब लामबंद हो गए थे। वहां का विपक्ष उस लड़ाई को गतिमान बना ही रहा था। मगर हिंदी पट्टी में एक तरह से भू-माफिया का साम्राज्य फैलता जा रहा है और विपक्ष पांच सितारा राजनीति तक महदूद होता गया है। लेखक, बुद्धिजीवी सब चुप हैं। यहां नागरिक समाज राजनीतिक नहीं, एनजीओ केंद्रित हो गया है, जिसमें लगभग दो तिहाई से ज्यादा सिर्फ फर्जी रूप में कागजों पर चल रहे हैं और जो सचमुच अस्तित्व में हैं उनमें से ज्यादातर उसे नौकरी के विकल्प के रूप में देखते हैं। ऐसे में हिंदी क्षेत्र में किसानों को सरकार और बाजार की लूट से कौन बचाए?

आज जब राजसत्ता का दमन इतना संगठित, सुव्यवस्थित और आक्रामक हो चुका है, क्या किसान अकेले खुद को सरकार और बाजार के जुल्म से बचा सकता है? शायद नहीं। क्योंकि अभी किसानों की अपनी कोई राजनीति और राजनीतिक शक्ति बनती नहीं दिख रही है। जो कम्युनिस्ट उनकी लड़ाई लड़ते थे वे आज हाशिये पर है।

आजादी से पहले और दशकों में उत्तर प्रदेश विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में गरीब, दलित और पिछड़े किसानों का मजबूत संघर्ष उभरा था। प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता जेडए अहमद की पुस्तक ‘मेरे जीवन की कुछ यादें’ पर भरोसा करें तो 1935 में मेरठ में गठित अखिल भारतीय किसान सभा अवध, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में काफी मजबूत हो चुकी थी। 1937 में फैजाबाद में हुए अखिल भारतीय किसान सम्मेलन मंे ही प्रो. एनजी रंगा अध्यक्ष चुने गए थे। अवध में बाबा रामचंद्र, जानकीदास, बिहार में स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, पूर्वी उत्तर प्रदेश में सरजू पांडे और जयबहादुर सिंह जैसे किसान नेता लघु और सीमांत किसानों, खेतिहर मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश में कृषक महिलाओं का नेतृत्व भी आजाद भारत में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा था। सिंहासनी देवी, मराछी देवी, सुबंसा देवी, कुसुमा देवी जैसी कृषक और निचली समूहों की महिलाएं कम्युनिस्टों और किसान सभा के नेतृत्व मंे आजादी के तुरंत बाद, 1950 के आसपास, किसान शक्ति का प्रतीक बन कर उभरी थी।

इस कृषक शक्ति ने साठ के दशक तक भारतीय राज्य पर कृषक हितों के लिए दबाव बनाए रखा। फिर सत्तर के दशक मंे बिहार के नक्सलवादी आंदोलन ने किसानों के सवाल को महत्वपूर्ण बनाया। पर उसके बाद चौधरी चरण सिंह, देवी लाल जैसे नेताओं के नेतृृत्व में लघु और सीमांत किसानों से जुड़े मुद्दों की जगह बड़े किसानों का हित प्रभावी हो गया। इससे सीमांत और लघु किसानों, कृषक मजदूरों में ऐसे किसान नेतृत्व के प्रति निराशा का भाव पैदा हो गया। उत्तर भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों का निष्प्रभावी होते जाना, लघु किसानों और खेतिहर मजदूरों में, जो ज्यादातर दलित और पिछड़े समूहों से थे, किसान अस्मिता के प्रति निराशाभाव, जातीय राजनीतिक अस्मिताओं के उभार, राज्य और बाजारजनित आकांक्षाओं का जनमन पर बढ़ते प्रभाव- सबने मिल कर धीरे-धीरे कृषक अस्मिता और कृषक शक्ति को अप्रासंगिक बना कर रख दिया। ऐसे में क्या कृषक शक्ति फिर से प्रभावी हो सकती है?

आज के संदर्भ में कृषक शक्ति के प्रभावशाली होने के लिए उसे अपने साठ से पहले के संघर्षशील अतीत को आविष्कृत कर अपनी शक्ति को जगाना होगा। विपक्षी राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों को कृषक प्रतिरोध के साथ कंधा मिला कर सरकार और बाजार के इस भूमि लूट को रोकना होगा।

- बद्री नारायण

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