3 अगस्त को लोकसभा में महंगाई की समस्या पर बहस में हिस्सा लेते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरूदास दासगुप्ता ने कहा:
”अंततः महंगाई पर बहस हो रही है। बहस इस पर है कि क्या मुद्रास्फीति एवं महंगाई को बढ़ने से रोकने के लिए पूरी कोशिश की है। सरकार यदि पूरी कोशिश करती तो स्थिति अलग होती। यदि सरकार ने पूरी कोशिश की होती तो सदन में काम रोको की मांग ही नहीं उठती, विशेष बहस की जरूरत नहीं होती और सरकार को संसदीय सलाह देने के लिए प्रस्ताव पारित करने के लिए मतैक्य की भी जरूरत नहीं होती। अतः मुद्दा यह है कि क्या सरकार ने देश में महंगाई एवं मुद्रास्फीति को रोकने के लिए पूरी कोशिश की।
लम्बे समय से मुद्रास्फीति के इस संकट पर पार पाने में सरकार की नाकामयाबी से यह संकेत मिलता नजर आता है कि सरकार को मुद्रास्फीति और देश के अधिकांश उन गरीबों की काई फिक्र नहीं है जिनकी आमदनी क्रयशक्ति कम होने के कारण घट गयी है। लगता है सरकार को मुद्रास्फीति की कोई परवाह ही नहीं। सरकार आज जिस सांचे में ढली है वह उसकी सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक स्थिति है। कारण क्या है? मुद्रास्फीति को देश में आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए समायोजन का अपरिहार्य नतीजा माना जा रहा है। सरकार की समझ है कि अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है, देश में आर्थिक वृद्धि हो रही है तो मुद्रास्फीति तो होगी ही। पर यह एक बेकार का आर्थिक सिद्धान्त है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा पेश कुछ तथ्य इस मिथक को तोड़ देते हैं। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) का कृषि नजरिया - एक अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज है। उसमें साफ तौर पर कहा गया है कि भारत उन चन्द देशों में से है जहां खाद्य मुद्रास्फीति दो अंकों में है। मैं नहीं, एफएओ यह कहता है। इसके अलावा उसमें यह भी कहा गया है कि जिन देशों को बढ़ती मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ा वे काफी समय बाद मूल्यों को स्थिर करने में कामयाब हो गये हैं। भारत इसका अपवाद क्यों है? यह बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला देश है। दूसरी बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में मूल्य स्थिर हो गये हैं तो भारत में क्यों नहीं?
मैं चीन की बात नहीं कहता। मुझे पता है कि वहां दूसरी राजनीतिक व्यवस्था है। दोनों विकासमान विश्व में सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं। चीन में खाद्य में मुद्रास्फीति की दर क्या है? 2009 में एक प्रतिशत से भी कम। सरकार की निष्ठुर आर्थिक नीतियों से गरीबों को नहीं कार्पोरेट पूंजीपतियों को फायदा पहुंचता हैं। इन नीतियों के खिलाफ अभिव्यक्त जनाक्रोश उतना अधिक सामने नहीं आया है तो हमारे देश की अनोखी एवं अनूठी राजनैतिक स्थिति के कारण यह हो सकता है। पर पिछले दिनों में जनाक्रोश का बढ़ता यह तथ्य सड़कों पर अधिकाधिक विरोध प्रदर्शनों के रूप में सामने आ रहा है। सड़कों पर अधिकाधिक और संयुक्त विरोध कार्रवाईयां उभर कर आ रही हैं। सरकार इसे जानती है। विभिन्न राजनैतिक दृष्टिकोण रखने वाली राजनैतिक पार्टियां - वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी - सब इस मुद्दे पर एकजुट हो गयी हैं। यह किसी अवसरवादी फायदे के लिए नहीं बल्कि इस जबर्दस्त भरोसे का कारण है कि वे देश की जनता की तरफ से इस मांग को उठा रही हैं।
यह विरोध की आवाज है जो सामूहिक तौर पर बुलंद की गयी है। इसे अवसरवादी गठबंधन नहीं कहा जा सकता। हमने जनता की आवाज उठायी, परेशानहाल लोगों की आवाज उठायी, सरकार की नीतियों के बदलाव के लिए आवाज उठायी।
यह एक निकम्मी सरकार है जो निरंकुश हेकड़ी के साथ जनविरोधी नीतियों पर बढ़ती ही जा रही है। मैं इसे हेकड़ी कहता हूं क्योंकि यह किसी आलोचना पर, यहां तक कि इसी सदन में इसके स्वयं के पार्टनरों एवं मित्रों द्वारा की गयी आलोचना पर भी ध्यान नहीं देती। पिछले दिनों इसने कहना शुरू कर दिया कि महंगाई घट रही है। दुर्भाग्य से असलियत इससे बिलकुल अलग है।
जुलाई 2010 के थोक मूल्य सूचकांक से तीन अत्यंत अपशकुन भरी बातें सामने आती हैं। पहली, लगातार पांच महीने से मुद्रास्फीति दो अंकों में चल रही है। दूसरी, इस स्थिति के फलस्वरूप एक समूह के रूप में खाने पीने की चीजों के दाम 16.5 प्रतिशत बढ़ गये हैं। यह सबसे ताजा आंकड़ा है। इतना ही नहीं, ईंधन की कीमतें 13 प्रतिशत और कल-कारखानों में बनने वाले सामानों की कीमतें 6 से 7 प्रतिशत बढ़ गयी हैं। तीसरी खास बात क्या है? खुदरा बाजार में मुद्रास्फीति या महंगाई बढ़ने की दर थोक बाजार में महंगाई की दर से बहुत अधिक तेजी से बढ़ी है। इसके क्या उदाहरण हैं? मैं एकतरफा बात तो नहीं कह रहा? नहीं! उदाहरण देखिये - जुलाई में पिछले दो साल के मुकाबले गेहूं के दाम 19 प्रतिशत, तूर दाल के दाम 58 प्रतिशत, उड़द की दाल के 71 प्रतिशत, मूंग की दाल के 113 प्रतिशत, आलू एवं प्याज के दाम 32 प्रतिशत और चीनी के दाम 73 प्रतिशत बढ़े हैं। जब आलू की बात करतें तो मैं मानता हूं इसे औने पौने दामों पर भी बेचा गया।
यह साफ तस्वीर है। सरकार को मुगालते में नहीं रहना चाहिये कि दाम गिर रहे हैं। यही कारण है कि विपक्ष ने सदन को चलने भी नहीं दिया और इतना हल्ला कर रहा है। मैं इसका समर्थक नहीं हूं कि सदन का काम चलने न दिया जाये। यह सदन बहस, विचार-विमर्श के लिए है, बहस कितनी ही कड़वाहट भरी क्यों न हो। पर सवाल यह है कि काम रोको प्रस्ताव की जरूरत क्यों पड़ी? एक प्रस्ताव पास करने की जरूरत क्यों पड़ी? यह इस कारण की स्थिति चिंताजनक है, अधिकाधिक चिंताजनक होती जा रही है; हो सकता है ऐसे में जबकि देश में कम वर्षा होने की स्पष्ट असलियत सामने आ रही है तो एक विभीषिका ही सामने पैदा हो जाये। अतः यह कहना गलत है कि कीमतें गिर रही हैं।
अब मैं बुनियादी मुद्दे पर आता हूं। हालत इतनी चिंताजनक क्यों है? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? यह सरकार इसके लिए जिम्मेदार है। मैं क्यों कहता हूं कि सरकार जिम्मेदार है?
पहला कारण यह है कि सरकार ने देशी और विदेशी कार्पोरेटों को खाद्यान्न बाजार में प्रवेश की इजाजत दी। इस क्षेत्र में विदेशी कार्पोरेटों को प्रवेश की इजाजत क्यों दी गयी? उनके इस क्षेत्र में आने का नतीजा है कि वितरण में एक संकेन्द्रण हो गया है (यानी वितरण चंद हाथों के नियंत्रण में आ गया है)। अतः खुदरा कीमतें और थोक कीमतों में फर्क बढ़ रहा है। किसान जिस भाव पर बेचता है उसमें फर्क बढ़ता जा रहा है। इसका क्या मतलब है? आपने न्यूनतम समर्थन मूल्य कुछ भी रखा है, किसान को फायदा नहीं पहुंचा। साथ ही उपभोक्ता को भी नुकसान पहुंचा है।
एक अन्य कारक जिसने इस संकट को और भी तेज कर दिया है वह है कृषि की पूरी तरह उपेक्षा। कृषि पिछले कई वर्षों से उपेक्षा का शिकार है। यह सरकार सात सालों से सरकार में है। कृषि की बहाली करने के लिए यह कोई कम समय नहीं? कृषि को संकट से निजात दिलाने के लिए क्या यह कोई कम समय है?
हरित क्रांति बहुत अर्सा पहले हुई और अब कमी का उल्टा चक्कर चल पड़ा है। सरकार कृषि की उपेक्षा के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। कृषि की पूरी तरह उपेक्षा की गयी, कृषि में सरकार और निजी निवेश में कमी आयी। यही मूल कारण है कि आज सट्टेबाजों और ऑन लाईन ट्रेडिंग करने वालों ने देश के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं।
तीसरी बात है अनुदान को खत्म करना और अनुदान को खत्म करने का ढांचागत असर और अंत में, अच्छे मानसून की संभावना से बाजार में कीमतें कम नहीं हुई। सबसे बड़ी बात ये है कि इस मसले पर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को देश में विस्तारित करने की और प्रभावी बनाने की कोशिश नहीं की गयी। अतः यह तीन कारक इस महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं - कृषि संकट, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की असफलता और भारत के बाजार पर सट्टेबाजों का कब्जा। इस सबके लिए सरकार जिम्मेदार है।
किस बात के लिए मैं सरकार को जिम्मेदार ठहराता हूं? इस बात के लिए कि उसने आवश्यक वस्तु कानून को मजबूत नहीं किया। भाजपा सरकार ने इस कानून को कमजोर कर दिया था। इस सरकार ने उसे मजबूत नहीं किया। दूसरा, बैंकों को खाद्यान्नों की जमाखोरी के लिए पैसा देने से नहीं रोका गया। जनता के पैसे को जनता पर मुसीबतें ढाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। बैंकों ने खाद्यान्नों की जमाखोरी और सट्टेबाजी के लिए बड़ी उदारता से पैसा दिया। तीसरा, सिंचाई को विस्तारित नहीं किया गया। आज भी 60 प्रतिशत खेती कृषि पर निर्भर है। चौथी बात यह है कि सरकार खाद्यान्नों की सट्टेबाजी की इजाजत देने में बड़ी उदार रही।
अतः महंगाई का मुख्य कारण क्या है? कौन जिम्मेदार है? सट्टेबाजी की अर्थव्यवस्था को कायम करने के लिए सरकार जिम्मेदार है। सट्टेबाजी की अर्थव्यवस्था, वायदा कारोबार की अर्थव्यवस्था, खाद्यान्नों में देशी विदेशी कारपोरेटों के प्रवेश की अर्थव्यवस्था - इन्होंने खाद्य उत्पादन में कमी का जमकर फायदा उठाया और देश को बेहाल कर दिया।
सरकार ने क्या किया? महंगाई रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। क्या इस कारण कि वह उदारीकरण में यकीन रखती है? सरकार उदारीकरण की सोच में यकीन रखती है। सरकार समझती है कि बाजार की ताकतें अपने आप ही समायोजन कर लेंगी, सरकार के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं। सरकार के हस्तक्षेप न करने की यह नीति, उदारीकृत अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक भरोसा और बाजार की ताकतों पर निर्भरता - इन्हीं चीजों ने देश को इस विभीषिका में लाकर पटक दिया। अतः जो कुछ हुआ उसके लिए मैं सरकार को जिम्मेदार ठहराता हूं। ऐसा नहीं है कि विकासमान अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति होगी; ऐसा नहीं कि देश में महंगाई तो होगी ही; विकास की कीमत तो चुकानी ही ही पड़ेगी और महंगाई का शिकार तो होना ही पड़ेगा। अतः मेरा सरकार को कहना है कि उदारीकरण की अपनी सोच को बदले और इस तरह के मामलों में हस्तक्षेप करे।
विश्व भर में, और अमरीका में जो संकट आया उससे निपटने में राज्य ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दुनिया भर में लोग राज्य के सक्रिय हस्तक्षेप की चर्चा कर रहे हैं। दुनिया भर में उदारीकरण के सिद्धान्त की भर्त्सना की गयी है। मैं विश्वास करता हूं कि सरकार कुछ समझेगी और मुद्रास्फीति से निपटने के लिए कुछ करेगी और मुसीबतजदा जनता को बचाने के लिए आगे आयेगी। मुझे आशा है कि संसद जिस प्रस्ताव को पारित करेगी वह सरकार को संसद के निर्देश का काम करेगा और संसदीय व्यवस्था की प्रतिपादक होने के नाते सरकार इस सामूहिक इच्छा को और इस सत्ता यानी संसद के मूल्यांकन को मानेगी।“
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