Monday, February 11, 2013

सती से सशक्तीकरण तक का लम्बा सफर

इस समय महिलाओं के सशक्तीकरण का वैष्विक संघर्ष सारे संसार में एक समान प्रबलता के साथ लड़ा जा रहा है। परन्तु दो सौ साल पहले भारत और यूरोप की महिलाओं ने अपना सफर अलग-अलग मार्गो से शुरू किया था।
यूरोप में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप की महिलाओं ने सबसे पहले आधुनिक उद्योगों के संसार में प्रवेश किया। क्लारा जे़टकिन का जन्म बर्लिन में सन 1857 में हुआ और उन्होंने पोशाक बनाने वाली एक फैक्ट्री में 18 वर्ष की आयु में नौकरी शुरू की। उन्होंने फैक्ट्री के अन्दर महिलाओं और पुरूषों के मध्य समानता का मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी महिला मजदूरों को ट्रेड यूनियन में शामिल करने के लिए प्रेरित किया। एक हड़ताल में भाग लेने के लिए क्लारा को उनके पति ओसिप सहित जर्मनी से निकाल दिया गया। दोनों पेरिस चले गये। फ्रांस की पुलिस ने भी उनका पीछा किया। भूख से क्लारा के पति ओसिप और उनके बच्चे मर गये। क्लारा बर्लिन वापस चली आयीं। क्लारा ने सन 1890 में लिब्नेख्त के साथ जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया।
कोपेनहागन में सन 1907 में क्लारा जे़टकिन ने समाजवादी महिलाओं का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। सन 1910 में ‘काम के घंटे आठ’ की मांग कर रही अमरीका की फैक्ट्रियों में काम कर रही महिलाओं पर गोली चलाई गयी जिसमें 8 महिला मजदूरों की मृत्यु हो गयी। क्लारा ने सन 1910 में समाजवादी महिलाओं के दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 8 मार्च को महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया। उसके बाद से हर साल 8 मार्च को सारे संसार में रैलियां, प्रदर्शन, सभायें और तमाम आयोजन होते हैं और उनमें:
  • पूरे संसार की महिलाओं के साथ एकजुटता प्रदर्शित की जाती है;
  • संसार में शान्ति की स्थापना और युद्ध के अन्त की मांग की जाती है;
  • लैंगिक समानता की मांग करते हुए उनके लिए अनवरत संघर्ष का प्रण किया जाता है; और
  • तीन ‘के’ के अंत की मांग की जाती है।
आखिर क्या हैं यह तीन ‘के’
जर्मन भाषा में चर्च, शिशु और रसोई के शब्द ‘के’ अक्षर से शुरू होते हैं। चर्च की अगुआई में जर्मनी के सामन्ती समाज में कहा जाता था कि महिलायें केवल खाना बनाने वाली के रूप में, मां के रूप में और पादरियों की सेविका के रूप में ही अच्छी दिखाई देती हैं। क्लारा जे़टकिन ने सभी महिलाओं से इसी तीन ‘के’ के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान किया।
अक्टूबर क्रान्ति के बाद का. क्लारा जे़टकिन का सम्मान करने के लिए का. लेनिन ने उन्हें पेत्रोग्राद सोवियत में निर्वाचित करवाया। सन 1921 में क्लारा ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की कार्यकारिणी के लिए निर्वाचित हुयीं।
सन 1933 में अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सारे संसार के महिला आन्दोलन की प्रथम नायिका, पहली महिला शहीद और अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की पहली महिला नेत्री बनी रहीं।
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत
यूरोप के विपरीत भारत में महिलाओं ने आधुनिक विचार और कार्यवाहियों के मार्ग पर चलना समाज सुधार आन्दोलन के जरिये शुरू किया।
महिलाओं के साथ सबसे अधिक पशुवत व्यवहार बंगाल में किया जाता था। जवान हिन्दू लड़कियों को उनके पति के शव के साथ बांध कर जला दिया जाता था। सती प्रथा के खिलाफ राजा राम मोहन राय (सन 1772-1833) ने अपनी जोरदार आवाज उठाई। ईष्वर चन्द्र विद्यासागर (सन 1820-1891) ने महिलाओं के लिए पहला आधुनिक विद्यालय खोला। उन्होंने विधवा विवाह के लिए कानून बनाने की मांग की और अपने पुत्र की शादी एक विधवा से की। इसी तरह मोहन गोविन्द रानाडे (सन 1842-1901), ज्योतिबा फूले (सन 1827-1890), विरसा लिंगम (सन 1848-1956), नारायण गुरू (सन 1855-1925), डा. भीमराव अम्बेडकर (सन 1890-1956) और पेरियार (सन 1879-1973) ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष किये। यह पहली धारा थी जिसके जरिये भारतीय महिलाओं ने पढ़ना-लिखना, घरों से बाहर निकलना, नौकरियां करना और समान नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के लिए जागरूक होना शुरू किया।
स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भागीदारी
महिला जागरण की दूसरी धारा स्वतंत्रता संग्राम के जरिये शुरू हुई। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई धारायें शामिल थीं। स्वतंत्रता संग्राम की हर धारा ने कुछ न कुछ उत्कृष्ट महिला नायिकाओं को पैदा किया। सन 1857 के गदर ने महान कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों में ‘तलवार लिए हुए घोडे पर बैठी हुई’ नायिका रानी लक्ष्मी बाई को पैदा किया।
सन 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लोकतांत्रिक आन्दोलन का एक नया अध्याय शुरू हुआ। सन 1916 में जब महात्मा गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाली तो जनांदोलनों के द्वार महिलाओं के लिए खुल गये। गांधी जी जानते थे कि अंग्रेजी राज को तभी समाप्त किया जा सकेगा जब उनके अनोखे सत्याग्रह में सड़कांे पर करोड़ों लोग जुट जायेंगे। गांधी जी ने लाखों महिलाओं को अपने घरों से निकल कर जेल जाने के लिए प्रेरित किया। एक बार जेल पहुंच कर महिलाओं ने न केवल सामंती बाधाओं को पार कर लिया बल्कि गांधी जी द्वारा स्वयं निर्धारित सीमाओं को भी लांघ गयीं। गांधी जी ने हमेशा भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। सन 1925 में कांग्रेस की अध्यक्षा निर्वाचित होने वाली सरोजिनी नायडू ने घोषणा कि - ”भारतीय महिलाओं के लिए सीता और सावित्री कभी आदर्श नहीं हो सकती। हमें सभी लक्ष्मण रेखाओं को तोड़कर पुरूषांे के बराबर बनना होगा।“
शिक्षित विद्यार्थियों के नेतृत्व में राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों की धारा ने हाथ में बन्दूक लिए हुए कई उत्कृष्ट महिला संग्रामियों को पैदा किया। प्रीति लता और कल्पना दत्त इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें हैं।
सन 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। मार्क्सवाद और समाजवादी विचारों से लैस होकर महिलाओं ने विद्यार्थियों, मजदूर संघों और तिभागा, तेलंगाना, पुन्नप्रा व व्यलार सरीखे क्रान्तिकारी किसान संघर्षो का नेतृत्व करना शुरू कर दिया। मणिकुंतला सेन, रेमी चक्रवर्ती, कमला मुखर्जी, कनक मुखर्जी, इला रीड, अनिला देवी, लतिका सेन, बेलालाहिणी, गीता मलिक, नजीमुन्निसां अहमद, सुप्रिया आचार्य, गोदावरी पुरूलेकर, संतोष गुप्ता, प्रभा दासगुप्ता, सकीना बेगम, सुरजीत कौर, हाजरा बेगम और इला मित्रा आदि इस धारा की प्रसिद्ध नायिकायें में से कुछ नाम हैं।
संगठन के स्वरूप
क्षेत्रीय आन्दोलनों के फलस्वरूप उत्पन्न समस्याओं से निपटने के लिए स्वयं स्फूर्त ढ़ंग से महिलाओं ने जिला एवं राज्य स्तरीय संगठनों को खड़ा किया।
  1. घरों से बाहर निकलने का फैसला करने वाली महिलाओं के खिलाफ सामंती एवं पुनर्जागरण की ताकतों द्वारा चालू की गयी गुंडागर्दी से निपटने के लिए शुरूआती दौर में ही महिलाओं ने स्वःरक्षा दस्तों की आवष्यक महसूस की।
  2. महिलाओं ने विशिष्ट चिकित्सा परामर्श और सहायता की आवष्यकता महसूस कर चिकित्सा सहायता कमेटियों का गठन किया। महिलाओं ने इसी आवष्यकता के मद्देनजर चिकित्सा शिक्षा लेना शुरू किया।
  3. महिलाओं ने धर्म एवं राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों की जानकारी की आवष्यकता महसूस की और इसके लिए कानूनी सहायता कमेटियों का गठन किया।
इन स्थानीय संगठनों से होते हुए महिलाओं ने सन 1927 में पहले अखिल भारतीय संगठन ”आल इंडिया वीमेन कांफ्रेंस“ (एआईडब्लूसी) का गठन किया। यह संगठन किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध नहीं था और सन 1953 तक अकेले भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा।
सन 1953 में वीमेन इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (डब्लूआईडीएफ) की स्थापना हुई। डब्लूआईडीएफ का. क्लारा जे़टकिन द्वारा स्थापित ”इंटरनेशनल कांफ्रेंस आफ सोशलिस्ट वीमेन“ की उत्तराधिकारी संगठन था। डब्लूआईडीएफ से सम्बद्धता के प्रष्न पर एआईडब्लूसी में विभाजन हो गया और सन 1954 में ”नेशनल फेडरेशन आफ इंडियन वीमेन“ (एनएफआईडब्लू) की स्थापना हुई। अपनी स्थापना के समय से ही एनएफआईडब्लू महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए पूरे विष्व में संघर्षरत महिलाओं के साथ एकजुटता हेतु प्रतिबद्ध है।
भारत में महिला आन्दोलन के विभिन्न दौर और दृष्टिकोण
1 - सुधार एवं कल्याण का दृष्टिकोण :
भारत में महिला आन्दोलन की शुरूआत ही हिन्दू समाज सुधार आन्दोलन से हुई। समाज सुधार आन्दोलन की जरूरत अभी तक समाप्त नहीं हुई है। सुधार के पहले क्षण से ही सुधार का विरोध यानी पुनर्जागरण की ताकतों का जन्म हो गया।
समय के साथ पुनर्जागरण की ताकतों को पीछे हटना पड़ा परन्तु दुर्भाग्य से पिछले दस सालों से इन्हीं पुनर्जागरण की ताकतों का भारत में केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा हो गया है। इसीलिए समाज सुधार के आन्दोलन को ढीला नहीं छोड़ा जा सकता है। पिछले तीन दशकों के दौरान जातिवादी ताकतों ने ताकतवर राजनीतिक दलों का गठन कर लिया। पुनर्जागरण और जातिवादी दोनों ताकतें महिलाओं के सशक्तीकरण के खिलाफ हैं। दहेज, बलात्कार, महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा, बालिकाओं की भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराईयां उफान पर हैं। इन बुराईयों का उन्मूलन केवल कानून बना कर नहीं किया जा सकता। पितृसत्तात्मक विचारों के दिमागी नजरिये को ध्वस्त किये बगैर महिला आन्दोलन इन बुराईयों को रोक नहीं सकता।
मुसलमान सम्प्रदाय में सुधार आन्दोलन की शुरूआत एक सकारात्मक पहल है। ईरान की शिरीन इबादी को नोबल पुरस्कार एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। एक वकील, एक न्यायाधीश, एक विष्वविद्यालय शिक्षक रही शिरीन इबादी ने महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए कई बार जेल यात्रा की। नोबल पुरस्कार प्राप्त करते हुए शिरीन ने दृढ़ता के साथ घोषणा की - ”मेरा संघर्ष इस्लाम के खिलाफ नहीं बल्कि पुरूषों को अति के खिलाफ है।“
पिछले वर्ष वदोदरा में मुसलमान बुद्धिजीवियों के एक सम्मेलन ने हिम्मत के साथ घोषणा की - ”मुसलमान स्वयं अपने कट्टरवाद से छुटकारा पाये बिना हिन्दू कट्टरवादी ताकतों से संघर्ष नहीं कर सकते। मुसलमानों को समय के साथ स्वयं में सुधार करना चाहिए।“
स्पष्ट है कि महिलाओं को अपने सशक्तीकरण के लिए संघर्ष के दौरान सुधार और कल्याण के दृष्टिकोण को साथ लेकर चलना होगा।
2 - विकास में सहभागिता का अधिकार :
पुरूष प्रधान समाज द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि महिलायें केवल अध्यापक और नर्सिंग के कामों के ही योग्य हैं और अन्य कामों के लिए वे अयोग्य हैं।
स्वतंत्रता के बाद जब विकास की प्रक्रिया देश में शुरू हुई तो महिलाओं ने सभी प्रकार के काम - पुलिस और सेना में, नागरिक प्रशासन और न्यायालयों में, चिकित्सा एवं संचार में, सामाजिक गतिविधियों और खेलकूद में सहभागी होना शुरू किया। उन्होंने सभी क्षेत्रों में दखल दिया और यह साबित कर दिया कि योग्यता, क्षमता, साहस, प्रतिबद्धता और समर्पण में वे पुरूषों से किंचित मात्र भी कम नहीं हैं।
महिलायें अब सामाजिक आर्थिक सभी क्षेत्रों में दखल बना रहीं हैं। वे हर विभाग में महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग कर रहीं हैं। जिसके फलस्वरूप जातिवादी राजनैतिक संगठनों ने महिला आन्दोलन में जाति के आधार पर दरार डालने के प्रयास करने शुरू कर दिये हैं। महिलाओं को और अधिक दृढ़ता के साथ जातिवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। स्वतंत्रता एवं समानता के लिए महिलाओं के संघर्ष में जातिवाद उनका सबसे बड़ा दुष्मन है।
3 - सशक्तीकरण :
महिलाओं ने अपने सफर की शुरूआत सभी जगहों पर अलग-अलग मार्गो से शुरू की जो इतिहास ने उनके लिए खोला परन्तु अब अपने अनुभवों और संघर्षो से एक समान रास्ते पर आ गयीं है जो उनके सशक्तीकरण की ओर जाता है।
महिलाओं ने अपने पूरे संघर्ष में सामन्ती और धार्मिक ताकतों के प्रतिरोध को झेला है। परन्तु अब पूंजीवाद कथित ”वैज्ञानिक“ सत्यों के द्वारा उनके मार्ग पर प्रतिरोध के लिए आ गया है। उदाहरण स्वरूप:
  • विज्ञान बताता है कि एक स्वस्थ बच्चे के लिए एक ऐसी मां की जरूरत होती है जो गृहणी हो।
  • काम करने वाली महिला एक स्वस्थ बच्चे का जन्म नहीं दे सकती।
  • जन्म के बाद यदि बच्चे की देखरेख मां नहीं करती है तो बच्चा असामान्य, अपराधी और बुद्धिहीन हो जाता है।
  • काम करने वाली महिलायें पुरूषों को नैतिकता से डिगाती हैं। समाज में नैतिकता के हित में जरूरी है कि महिलायें घरों पर ही रहें।
सन 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद मातृसत्तात्मक सत्ता का मानव समाज के विकास की नीव के रूप में रक्षा नहीं की और मानव विज्ञान के क्षेत्र में पुरूष प्रधानता के कारण यह साबित करने की कोशिश की गयी कि मानव समाज का जन्म पितृसत्तात्मक था। अब यूरोप और अमरीका में महिला मानववैज्ञानिकों ने इस प्रतिपादन को ललकारना शुरू किया है।
इस प्रकार इन चारों तर्को के पीछे केवल एक उद्देष्य छिपा हुआ है - महिलाओं के सशक्तीकरण को रोकना।
सभी महिला संगठनों को ध्यान रखना होगा कि उनका संघर्ष पुरूषों या धर्मो से नहीं है बल्कि पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ है।
- का. हरबंस सिंह

Wednesday, January 30, 2013

कांट्रेक्ट फार्मिंग एवं जेनेटिकली मॉडिफाइड बीज खेती को बरबाद कर देंगे - भाकपा

लखनऊ 29 जनवरी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने कांट्रेक्ट फार्मिंग और मॉडिफाइड बीजों को उत्तर प्रदेश में चालू करने के प्रदेश सरकार के मंसूबे को किसान, कृषि एवं पर्यावरण के लिए घातक बताया है। भाकपा ने इस मंसूबे का परित्याग करने की मांग राज्य सरकार से की है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि 30 अगस्त 2012 को भी राज्य सरकार ने कांट्रेक्ट फार्मिंग को लागू करने का मंशा जाहिर किया था लेकिन भाकपा और तमाम दलों के द्वारा विरोध जताने पर सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे। एक बार फिर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति मुख्यमंत्री का प्रेम उमड़ा है और कृषि के विकास के नाम पर उन्होंने इनको खेती में प्रवेश देने की मंशा जतायी है।
भाकपा का आरोप है कि सपा और उसकी राज्य सरकार एफडीआई के सवाल पर तो अपनी दोहरी नीतियों का परिचय पहले ही दे चुकी है, अब खेती में भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भागीदारी को आगे बढ़ा कर उसने साबित कर दिया है कि वह केंद्र सरकार की जनविरोधी आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों को ही प्रदेश में आगे बढ़ा रही है।
डा. गिरीश ने साफ कहा कि कांट्रेक्ट फार्मिंग के जरिये विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां छोटे और मंझोले किसानों को खेती से ही बाहर खदेड़ देंगी। इससे भूमिहीनों और बेरोजगारों की संख्या में भारी इजाफा होगा। साथ ही मंडी समितियां भी लडखडा कर रह जायेंगी। जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों को बेहद महंगा और पर्यावरण के प्रतिकूल बताते हुए भाकपा ने कहा कि सरकार के इस कदम से मोनसेंटो और कारगिल जैसी विदेशी कम्पनियां ही भारी लाभ उठाएंगी।

Monday, January 14, 2013

साम्प्रदायिक दंगे और पुलिस की भूमिका

    यह अंदर की बात है, पुलिस हारे साथ है दंगाई विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल एवं शिवसैनिकों ने 6 दिसंबर, 1992 को पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की उपस्थिति में यह नारा लगाते हुए बाबरी मस्जिद को विध्वंस कर डाला था।
    कोई राज्य चाहे लोकतांत्रिक हो या तानाशाही पद्धति से चलता हो, उदारवादी हो या मार्क्सवादी, धर्मनिरपेक्ष हो या मज़हबी एक संगठित पुलिस व्यवस्था उसके लिए जरूरी है। हर राज्य के लिए पुलिस संगठन अपरिहार्य और अनिवार्य है। पुलिस बल राज्य के व्यवस्था तंत्र का एक हिस्सा होता है। पुलिस का मख्य उत्तरदायित्व नागरिक कानून लागू करना और बनाये रखना है। पुलिस बल जब राजनीतिक भावना से संचालित होने लगे, अगर यह सांप्रदायिक, जातिवादी या कोई दूसरे सामाजिक पूर्वगग्रह से प्रभावित हो जायेगा। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान ऐसा दिखाई भी देता है।
    भारत एक सार्वभौमिक राष्ट्र है। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं तथा राजनीतिक मान्यताओं वाले लोग रहते हैं। विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक मान्यताओं वाले लोगों की मौजूदगी की वजह से भारत में अलग-अलग तरह के परस्पर विरोध एवं आंतरिक कलह की संभावना बनी रहती है। इन परिस्थितियों में पुलिस को, जिससे कानून की रखवाली और लोगों की जिंदगी एवं आजादी को बिना भेदभाव के सुरक्षा करने के अपेक्षा की जाती है, और अधिक सक्रिय एवं सकारात्मक भूमिका निभाने की जरूरत है। लेकिन भारत में पुलिस बल का जो प्रदर्शन रहा है वह अपने जरूरी लक्ष्य से बहुत पीछे है। पुलिस बल हमारे समाज का एक बेहद नफरत से देखा जाने वाला संगठन है। अपने अत्याचारों एवं मानवाधिकारों के घृणित उल्लंघन की वजह से पुलिसवालों को कभी-कभी ‘वर्दीवाले अपराधी’ भी कहा जाता है।
    हमारे देश में पुलिस और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता नहीं है, और सामान्य रूप से भारतीय समाज की नजर में पुलिस की सकारात्मक छवि नहीं है, लेकिन अल्पसंख्यक तो विशेष रूप से पुलिस पर अपना विश्वास पूरी तरह खो चुके हैं। दलित भी पुलिस के हाथों प्रताड़ित होते रहे हैं, लेकिन नौकरियों में आरक्षण की वजह से इस विभाग में उनकी संख्या बढ़ गयी है, जिससे उन पर होने वाले अत्याचार कम हो गये हैं। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि सामान्य परिस्थितियों में पुलिस के दुर्वव्यहार और इस विभाग के संस्थागत भ्रष्टाचार की वजह से बहुसंख्यकों एंव अल्पसंख्यकों को समान रूप से परेशान होना पड़ता है। लेकिन साम्प्रदायिक दंगों या फिर दंगे जैसी परिस्थितियों में पुलिस योजनाबद्ध तरीके से जान-बूझकर अल्पसंख्यकों को परेशान करती है। वर्ष 1969 में अहमदाबाद के साम्प्रदायिक दंगों, 1980 के मुरादाबाद दंगों, 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1987 के मेरठ दंगों, 1989 के भागलपुर दंगों, 1992-93 के मुंबई दंगों से लेकर 2002 में गुजरात में हुए जनसंहार से संबंधित कागजातों के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है।
    वर्ष 1977 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक भीषण सांप्रदायिक दंगा हुआ था। यहां फिर से पुलिस पर सांप्रदायिक दुर्भावना और भेदभाव रवैये का आरोप लगा था।
    वहाँ पर, पुलिस ने न सिर्फ लूटपाट और आगजनी में खुलेआम हिस्सा लिया था बल्कि मस्जिदों एवं मकबरों का विध्वंस भी किया था। दो मकबरों को पूरी तरह से नेस्तानाबूद कर दिया गया था और तीन मस्जिदों को इस बुरी तरह से विध्वंसित कर दिया गया कि यह विश्वास करना मुश्किल था कि कुछ सौ लोगों की भीड़ को मनचाहे समय तक तोड़-फोड़ करने के लिए पुलिस ने प्रोत्साहित किया था।
    वर्ष 1980 के मुरादाबाद दंगों ने भारतीय पुलिस के दुखद इतिहास में एक और अध्याय जोड़ दिया था। यह दंगा मुस्लिम विरोधी पीएसी द्वारा गलत तरीके से अपनी ताकत का इस्तेमाल करने की वजह से भड़का था। वह आजाद भारत के इतिहास का एक काला दिन था, जब ईद (खुशी और भाईचारे के त्यौहार) के दिन अंधाधुंध फायरिंग द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाया गया था। प्रोफेसर सतीश सबरवाल और प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने दंगा प्रभावित शहर का दौरा कर अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें पुलिस और पीएसी को मुसलमानों के खिलाफ मनमानी और निर्दयता का दोषी ठहराया गया था। रिपोर्ट में लिखा गया था, शहर की पुलिस ने कई हफ्तों तक मुसलमानों को पीटने, लूटने और मारने वाले संगठित बल की तरह काम किया। पीएसी ने विशेष रूप से एक संप्रदाय के सांप्रदायिक तत्वों एवं गुंडों के साथ मिलकर सांठ-गांठ की थी। यही नहीं न्यायपालिका सहित व्यवस्था के विभिन्न अंगों ने एक तरह से स्थानीय पुलिस एवं पीएसी समर्थक रवैया अपनाया था।
    1984 के सिख विरोधी दंगों ने भी बताया कि जब बहुसंख्यक संप्रदाय का जुनून हद से गुजरता है तब सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में किसी भी धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न और यहाँ तक कि नरसंहार का खतरा रहता है। इंदिरा गांधी की हत्या उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा किया जाना बहुसंख्यक संप्रदाय के लिए पूरे सिख संप्रदाय को निशाने पर लिये जाने के लिए पर्याप्त था। सिर्फ दिल्ली में हुए दंगों मंे लगभग 3000 निर्दोष सिखों का कत्लेआम कर दिया ग्या। दिल्ली के सिख विरोधी दंगो की जाँच करने के लिए गठिन रंगनाथ मिश्र आयोग ने कहा कि पुलिस द्वारा सिखों की सुरक्षा एवं स्थिति को नियंत्रण करने में दर्शायी गयी ‘पूर्ण निष्क्रियता’, निर्दयता तथा भेदभाव की वजह से दंगे हुए। पुलिस ने सिर्फ अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया, बल्कि सिखों के खिलाफ होने वाले जनसंहार और लूटपाट में भी हिस्सा लिया।
    लेखक ने स्वयं अपनी आंखों से 1984 के सिख विरोधी दंगों में देखा है। जहां पर पुलिस तीन दिन तक न केवल मूक दर्शन बनी रही बल्कि दंगाइयों को पेट्रोल-डीजल एवं अन्य ज्वलनशील पदार्थ भी अपनी गाड़ियों से सप्लाई करती रही।
    मुझे याद है कि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव स्वर्गीय सी. राजेश्वर राव ने क्षेत्र का दौरा करते हुए हम तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिया कि कॉमरेड आप लोग, आग में कूदकर सिखो की जान-माल की रक्षा करें। आज हमें गर्व है कि उस समय हम सभी कामरेडों ने ऐसा ही किया था।
    मई 1987 में मेरठ में हुए दंगों ने एक बार फिर से पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया। इन दंगों की तुलना जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों के कत्लेआम से की गयी। मई 1987 के मेरठ दंगो के दौरान पीएसी ने हाशिमपुरा के मुस्लिम युवाओं को गिरफ्त में लेने के बाद उन्हें ट्रक में डालकर एक नहर के पास लाकर गोली मार दी। उन हत्याओं को व्यापक रूप से नरसंहार की संज्ञा दी गयी। तमाम सबूतों की जांच-पड़ताल के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुँची थी कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि पीएसी दर्जनों गैरकानूनी हत्याओं और 22 तथा 23 मई, 1987 को अनेक अल्पसंख्यक लोगों के गायब हो जाने के लिए जिम्मेदार थी। वरिष्ठ पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने कहा कि पीएसी, जिसका सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कभी छिपा नहीं रहा है, ने इस बार हिटलरी निर्दयता का अपना ही कीर्तिमाल ध्वस्त कर डाला। पीयूसीएल ने कहा कि ऐसी घटनाएं सिर्फ हिटलर की जमीन पर हो सकती हैं। डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने होशियारपुर मे मुसलमानों की निर्दयतापूर्वक की गयी हत्या को नरसंहार का एक स्पष्ट मामला बताया।
    साम्प्रदायिक दंगो के दौरान मुसलमानों के खिलाफ पुलिस का अमानवीय चेहरा सिर्फ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ही सामने नहीं आया है बिहार में वीएमपी ने मुसलमानों के प्रति अपना साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह उजागर किया था। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गये थे। लॉगन (जगदीशपुर पुलिस स्टेशन) में मुसलमानों के संहार हुए, जहां कुछ को छोड़कर 170 मुस्लिमों को मौत की नींद सुला दिया गया।
    वर्ष 1992-93 के मुंबई दंगों ने महाराष्ट्र पुलिस के मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का पर्दाफाश कर दिया था। दिसंबर 1992, जनवरी 1993 के दंगों तथा 12 मार्च, 1997 के बम ब्लास्ट की जांच करने के लिए गठित आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी.एन. कृष्णा ने टिप्पणी की है, हताश पीड़ितों को विशेष रूप से मुसलमानों की मदद की गुहार पर पुलिस की प्रतिक्रिया बेहद नकारात्मक और निन्दनीय थी। कई अवसरों पर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी भी थी कि वे अपने लिए निर्धारित स्थान को दूसरों पर नही छोड़ सके। मकसद था कि एक मुस्लिम मरा मतलब एक मुस्लिम कम हुआ। पुलिस अधिकारी, विशेष रूप से जुनियर पुलिसवालों के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह का खुलासा तो बार-बार हुआ। मुसलमानों के प्रति उनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण तथा रूखा था जो कभी-कभी अमानवीय हद तक पहुंच जाता था। पुलिसवालों का पूर्वाग्रह दंगाई हिन्दू भीड़ के साथ पुलिस कांस्टेबलों के सक्रिय सहयोग के रूप में दिखाई दिया। कई अवसरों पर पुलिसवाले बेहपरवाह दर्शकों जैसे चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखने की मुद्रा में होते थे।
    वर्ष 2002 का गुजरात नरसंहार फासिस्ट हिन्दुवादी ताकतों द्वारा मुसलमानो के कत्लेआम का एक स्पष्ट उदाहरण है। 2002 के गुजरात के नरसंहार का अध्ययन एवं इसकी गहन जांच की जरूरत है। गुजरात का कत्लेआम योजनाबद्ध था और इसे विधिवत पूरा किया गया था। कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों एवं दलों की देखरेख में मुसलमानों का नरसंहार हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री ने न्यूटन के गति के नियमों का उदाहरण देते हुए इस नरसंहार को सही ठहराया। पुलिस, जिसने लूटपाट, हत्याएं, आगजनी में सक्रिय भागीदारी की, अपनी मुस्लिम विरोधी छवि कायम रखी। सदमे वाली बात यह है कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पी.सी. पाण्डेय ने यह कहते हुए अपने पुलिस बल की हरकातें को सही बताया कि ये लोग भी आम भावना की वजह से प्रभावित हो गए। यही सारी समस्या की वजह है पुलिस समान रूप से आम भावना से प्रभावित हो जाती है।
    4 नवम्बर 2012 को नई दिल्ली के मावलंकर सभागार में पी.सी.पो.टी. (पीपुल्स कैम्पेन अगेन्स्ट पॉलीटिक्स ऑफ टेर्र) द्वारा आयोजित कन्वेशन जिसमें सी.पी.आई. के ए.बी. वर्धन, सुधाकर रेड्डी, अतुल अन्जान, डी.राजा, अजीज पाशा, सी.पी.एम. के प्रकाश करात के अतिरिक्त लालू प्रसाद यादव, राम बिलास पासवान, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर व तमाम सेक्यूलर पार्टियों के नेतागण ने एक मंच पर आकर, पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों द्वारा आतंकवाद के नाम पर चलाये जा रहे अभियान में ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम नौजवानों को फंसाने की साजिश की पुरजोर शब्दों में निन्दा की। जैसा कि पिछली अटर बिहारी बाजपेयी की एडीए सरकार द्वारा संचालित अमेरिकन थ्योरी ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान हैं’ पर अमल करते हुए हमारे देश की पुलिस एवं ए.टी.एस. ने पिछले 20 वर्षाें में अनेक पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवानों को झूठे केसों में फंसाया, और उन्हीं में से एक-एक-कर तमाम लोग उच्चतम न्यायालय से बाइज्जत बरी भी हो गये।
    इस बारे में जरा भी शक नहीं है कि आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुका है। इसने राष्ट्रीय महाविपत्ति का रूप ले लिया है। इसलिए इस समस्या का सामना करने के लिए व्यापक एवं सावधानी पूर्वक तैयार की गयी योजना की जरूरत है, लेकिन परेशानी यह है कि इस समस्या को हल्के ढंग से एक सीमित नजरिये से देखा जा रहा है। मीडिया और यहां तक कि सुरक्षा एजेंसिया भी इस समस्या को एक खास अंदाज में देख रही हैं। इसलिए ऐसा महसूस किया गया कि अधिकतर मामलों में आतंकवाद को इस्लाम एवं मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। मीडिया, पुलिस, राजनीतिज्ञों तथा खुफिया एजेंसियों द्वारा अक्सर इस्लामी कट्टरपंथ और मुस्लिम आतंकवादियों जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जाता है। पुलिस सुधार पर विस्तार से लिख चुके एक जाने-जाने पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के अनुसार एक औसत पुलिसवाले के लिए खुफिया जानकारी का मतलब साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठनों की गतिविधियों के बारे में जानकारियां इकट्ठा करना होता है। इसका परिणाम यह होता है कि साम्प्रदायिक हिन्दू संगठन संदेह के दायरे में नहीं आते और अपनी साम्प्रदायिक मुस्लिम गतिविधियां संचालित करने के लिए आजाद रहते हैं दूसरी तरफ पूरा का पूरा मुस्लिम सम्प्रदाय हमेशा ही संदेह की नजरों से देखा जाता है। मदरसों तथा मुसलमानों की साम्प्रदायिकता को झूठे एवं आधारहीन दुष्प्रचार के लिए निशाना बनाया जाता है। विडंबना यह है कि भारत सरकार ने भी टाडा और पोटा जैसे कानून बनाए हैं, जो पुलिस को बिना पर्याप्त सबूत के लोगों को फंसाने, तंग करने तथा धमकाने की ताकत देते हैं। चूंकि हमारी पुलिस बहुत अधिक साम्प्रदायिक है, इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय पुलिस अत्याचारों को स्वाभाविक निशाना बन जाता हैं। पोटा का भी अल्पसंख्ययकोें के खिलाफ जमकर दुरुपयोग किया गया। डॉ. मुकुल सिन्हा ने देश पर पोटा के दुष्प्रभावों को समझने की कोशिश भी की हे। उन्होंने पोटा को आतंकवादियों की सुरक्षा करने वाला कानून बताया है। वे बताते हैं-आतंकवाद के खिलाफ अभियान कैसे छेड़ा जा सकता है अगर सामने कोई आतंकवादी नहीं हो। गुजरात में यही प्रयोग आजमाया गया है। पहले आतंकवादी बनाओ और फिर उनके खिलाफ युद्ध छेड़ो, जिससे असहाय नागरिक तुम्हें अपने रक्षक के रूप में वोट दे सकें। अक्टूबर, 2002 तक गुजरात में किसी किस्म का कोई आतंकवादी नहीं था, लेकिन जनवरी 2007 आते-आते गुजरात की जेलों में लगभग 180 हार्डकोर/देशद्रोही/जेहादी आतंकवादी गिरफ्तार कर पहुंचा दिये गये थे।
    यह ठीक है कि आतंकवाद का राज्य द्वारा प्रभ्साावशाली ढंग से सामना किया जाना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस को अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए एक कठारे कानून थमा दिया जाये। आतंकवाद के खिलाफ कानून बनाते समय हमें अपने पुलिस बल के स्वभाव एवं चरित्र को ध्यान में रखना होगा।
    पुलिस राज्य के अब पीड़क तंत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन यह तंत्र राज्य द्वारा संचालित सैद्धांतिक तंत्र से प्रभावित होता है। इसलिए शैक्षिक संस्थाओं, मीडिया जैसे सैद्धांतिक तंत्रों को धर्मनिरपेक्ष एवं संवेदनशील स्वरूप प्रदान करना जरूरी है। अगर आर.एस.एस. और वी.एच.पी, को अपनी संस्थानों की श्रंृखला चलाने की आजादी दी जाती रहेगी तब हमें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पायेंगे, क्योकि ये संस्थाएं काल्पनिक एवं विकृत भगवाकृत इतिहास के द्वारा युवा छात्रों के मस्तिष्क को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं। इसी तरह से मीडिया को भी नियंत्रित या कम से कम इतना निर्देशित तो कर ही दिया जाना चाहिए कि वह साम्प्रदायिक रूप से उद्वेलित वातावरण की आग में घी नहीं डाले।
    ऐसा आमतौर पर माना जाता है कि उपयुक्त प्रशिक्षण एवं संवेदना का संचार करने वाले कार्यक्रमों के सहारे पुलिस को तटस्थ एवं पक्षपात रहित बनाया जा सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक पुलिस बल की संरचना में बदलाव कर उनमें विभिन्न समुदायों, विशेष रूप से दलितों एवं अल्संख्यकों को समाहित नहीं किया जाता है, तब तक पुलिस महकमे को तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। इस तरह अपनी पुलिस को जिम्मेवार और कानून का पालन करने वाला बनाने के लिए किसी सुपरमैन या सुपर कोष की खोज करने की बजाय हमें सुपर विज्ञान की खोज करनी चाहिए, ताकि पुलिस बल को सक्षम, प्रभावशाली और भेदभाव रहित कानून का सेवक बनाया जा सके।
    भारत के अल्पसंख्यक पुलिस में अपना विश्वास पूरी खो चुके हैं। दुर्भाग्य से हत्या, बलात्कार, लूटपाट के अपराधी पुलिसवालों को पदोन्नति भी मिली है। इस तरह उन्हें जो दण्डमुक्ति का वरदान मिला हुआ है उसकी वजह से वे साम्प्रदायिक एवं निष्ठुर हो गए हैं। इसलिए पुलिस बल को इस तरह पुर्नगठित किया जाना चाहिए, जिससे पुलिस में सामाजिक संरचना भी परिलक्षित हो। पुलिस बल को भी पुरस्कार और सजा के सिद्धांत पर काम करना चाहिए। यानी अच्छे काम पर पुरस्कार और गलती की सजा। हालांकि यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि अगर साम्प्रदायिक दंगांें से बचना है या बिना अधिक क्षति के उन्हें नियंत्रित करना है, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि दलित और भारत के विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों की कुल पुलिस बल में पचास फीसदी भागीदार दी जाये।
- डॉ ए.ए. खान

मानेसर सुजुकी के सबक - कार्पोरेट शासन पर हल्ला बोल

    मानेसर सुजुकी प्लांट में गत 18 जुलाई के हादसे के बारे में अब यह तथ्य पूरी तरह उजागर हुआ है कि उस दिन की हिंसक घटना प्रबंधन द्वारा पूर्व नियोजित थी, जिसका उद्देश्य मजदूरों को सबक सिखाना था। कारखाना परिसर में अभी भी पुलिस बल की भारी तैनाती और बाद की घटनाओं से जाहिर है कि हरियाणा राज्य सरकार किस हद तक विदेशी कंपनियों की गिरफ्त में है। हरियाणा सरकार पूरी तरह विदेशी पूंजी की सेवा में समर्पित हो गयी है।
    राज्य सरकार द्वारा गठित विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) के सुपुर्द प्रतिवेदन में लिखा गया है कि राज्य पुलिस प्रशासन द्वारा कोर्ट में दाखिल चार्जशीट में गवाहों के नाम नहीं दिये गये हैं और न अभियोगों के पक्ष में समुचित कागजात एवं दस्तावेज दाखिल किये गये हैं। इन दो तथ्यों के अभाव में मामले की न्यायिक जांच को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। विशेष जांच दल ने यह भी सुझाव दिया है कि सरकार उन मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से हटा दें जिन पर हिंसा फैलाने का आरोप नहीं है। इसके बावजूद निर्दोष मजदूरों के नाम अभियुक्तों की सूची से नहीं हटाया गया है और ऐसे बेगुनाह मजदूरों को काम पर वापस भी नहीं लिया गया है। इस तरह मारूति सुजुकी प्रबंधन एवं हरियाणा राज्य सरकार के नापाक गठबंधन से मनमानीपूर्वक बेगुनाह मजदूरों को गोलमटोल अभियोगों के आधार पर जेल में बंद कर आतंक का माहौल बनाया हुआ है।
    अब तक बिना किसी ठोस आधार के 546 स्थायी कर्मचारियों को और 1800 से ठेका मजदूरों को बर्खास्त किया गया है। पुलिस ने 149 मजदूरों को गिरफ्तार कर जेल मेें बंद रखा है, जिसें यूनियन के अनेक पदाधिकारी शामिल हैं। इन गिरफ्तार लोगों में 125 मजदूर तो घटना के दिन कारखाने में मौजूद ही नहीं थे। विशेष जांच दल द्वारा ऐसे ही लोगों के नाम हिंसा के अभियोगों की सूची से हटाने का सुझाव दिया है।
    ‘ट्रेड यूनियन रिकार्ड’ के पिछले अंकों में गुड़गांव सहित नोएडा, फरीदाबाद, गाजियाबाद, धारूहेड़ा के औद्योगिक क्षेत्र में फैल रही अनेकानेक हिंसक घटनाओं का कारण अंधाधंुंध गैरकानूनी ठेका प्रथा के प्रचलन को बताया है। दिल्ली समेत यू.पी. और हरियाणा सरकार का श्रम विभाग ठेका प्रथा उन्मूलन एवं नियमन कानून के प्रावधानों के कार्यान्वयन के प्रश्न पर नीतिगत रूप से कान में तेल डालकर सोया है। इस प्रकार शासन में देशी-विदेशी कार्पोरेट घराने के बढ़ते प्रभाव और उसके चलते हो रही हिंसक घटनाएं देश को खतरनाक औद्योगिक अराजकता में धकेल रही है। भारत के सस्ता श्रम के दोहन के लिये विदेशी कंपनियां बेताब हैं। अब वालमार्ट जैसी दैत्याकार अमेरिकी कंपनियां भी भारत के कृषि उत्पाद तथा उपभोक्ता बाजार के शोषण के लिये मैदान में उतर रही है।
    शासक दल के राजनेताओं को ‘‘शिक्षित करने’’ के लिये बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों द्वारा भारी रकम खर्च करने की खबरें पहले भी आयी थीं। बोफोर्स तोप घोटाले में भी विक्रय प्रोत्साहन (सेल्स प्रमोशन) के लिये किया गया खर्च को रिश्वत नहीं माना गया था। योरोप के अनेक देशों में घूस की रकम को अनैतिक नहीं माना जाता है।
    बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियां कारोबार को आगे बढ़ाने के लिये राजनेताओं को पटाते हैं और इसके लिये भारी रकम खर्च करते हैं। ऐसी खर्च रकम को वे लाबियिंग एक्पेंडीचर कहते हैं और बजाप्ता नियमित खाता में डालत हैं। अभी वालमार्ट कंपनी ने 125 मिलियन डालर भारत में खुदरा बाजार हासिल करने के लिये ‘लाबियिंग खर्च’ दिखाया है अमेरिका में ऐसा ‘लाबियिंग खर्च’ कानूनी तौर पर वैध है। यह मुद्दा संसद में भी गरमाया और सरकार ने इसकी न्यायिक जांच कराने की घोषणा की।
    सर्वविदित है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में राबर्ट क्लाइब ने भारत में पैर जमाने के लिये किस तरह देशी रजवाड़े को घूस देकर पटाया था। भारत में विदेशी कंपनियोें के आचरण अत्यंत आपत्तिजनक हैं। वे भारत के श्रम कानूनों की उपेक्षा करते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य भारतीय श्रम बाजार का शोषण और कृषि उत्पादों को लूटना एवं उपभोक्ता बाजार में सामान बेचकर मुनाफा कमाना है। अतएव अब समय आ गया है कि भारतीय जनगण कार्पोरेट घरानें के शिकंजों के खिलाफ हल्ला बोलें।
    केंद्रीय ट्रेड यूनियन अधिकारों की रक्षा में संयुक्त संघर्ष 20-21 फरवरी 2013 को दो-दिवसीय आम हड़ताल को कामयाब करें। भारत का लोकतंत्र कार्पोरेट शासन के गिरफ्त में हैं। यह हमारी आजादी और सार्वभौमिकता पर खतरा है। इसलिये जरूरी है कि कार्पोरेट शासन के बढ़ते शिकंजे के खिलाफ जोरदार हल्ला बोलें।
- सत्य नारायण ठाकुर

कैश ट्रांसफर और आधारकार्ड के लिये सरकार की हड़बड़ी का हम क्यों विरोध करते हैं: एक व्याख्यात्मक नोट

    हम वृद्धावस्था पेंशनो, विधवा पेंशनों, मातृत्व लाभों के लिये भुगतानों और छात्रवृत्तियों, जैसे कल्याणकारी कार्यों के लिये कैश ट्रांसफर का समर्थन करते हैं। वास्तव में हम में से अनेक सामाजिक सुरक्षा पेंशनों को विस्तारित करने और उन्हे प्रदान करने में बेहतरी के लिये किये जानेवाले संघर्षों का हिस्सा रहे हैं। हम इस उद्देश्य के लिये जनता को फायदा पहुंचाने वाली समुचित आधुनिक टेक्नोलाजी के इस्तेमाल का भी समर्थन करते हैं।
    परन्तु इन कैश ट्रांसफरों को ‘आधार’, (यूनीक आइडेंटिटी) से जोड़ने के लिये सरकार की हड़बड़ी एंव जल्दबाजी पर हमें गंभीर आपत्तियां हैं। यह इस कारण कि इन स्कीमों को ‘आधार’ से जोड़ने पर जबरदस्त अस्तव्यस्तता पैदा हो सकती है। जरा उस वृद्ध आदमी के बारे में सोचिए जिसे अभी स्थानीय डाकखाने के जरिये वृद्धावस्था पेंशन मिल रही है। उसे अब ऐसा बैंक खाता खुलवाने के लिये दौड़भाग करनी पड़ेगी जो आधार कार्ड से जुड़ा हो, फिंगर प्रिंट की समस्याओं, कनेक्टिविटी के मुद्दों, बिजली न आने, कामचोर ‘बिजनेस करेस्पोंडेंटों और अन्य तमाम वजहों से हो सकता है उसकी पेंशन ही कुछ महीनों के लिये बंद हो जायें।
    हम इस बात के सख्ती के खिलाफ हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये जनता को खाद्य सामग्री एवं अन्य वस्तुओं की सप्लाई के स्थान पर कैश ट्रांसफर (नकदी देना) शुरू कर दिया जाये। इस विरोध के कई कारण हैं।
     पहला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले सब्सिडीयुक्त खाद्य पदार्थ देश के करोड़ों गरीब परिवारों के लिये खाद्य एवं आर्थिक सुरक्षा का जरिया है। 2009-10 में, जनवितरण प्रणाली में अंतर्निहित ट्रांसफरो से राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 1/5 और तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लगभग आधा ‘गरीबी अंतर’ (पॉवचर गैप) दूर हुआ। हाल के अनुभव से पता चलता है कि जनवितरण प्रणाली को बिना किसी देर के सुधारा जा सकता है और अधिक कारगर बनाया जा सकता है।
    दूसरा, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग व्यवस्था ऐसी नहीं है कि छोटे-छोटे कैश ट्रांसफरों की बड़ी मात्राओं को हैंडल कर सकें। बैंक अक्सर दूर-दूर हैं। और उनमें भीड़-भाड़ है। इसके लिये बैंकिंग करस्पोंडेटों का जो कथित समाधान पेश किया गया है उसमें अनेकानेक समस्याएं आयेंगी। संभवतः डाकघरों को उपयोगी भुगतान एजेंसियों के रूप में बदला जा सकता है, परन्तु इसमें समय लगेगा।
    तीसरा, ग्रामीण बाजार अक्सर बहुत कम विकसित हैं। जन वितरण प्रणाली को भंग करने से देश भर में खाद्य पदार्थों का प्रवाह अस्तव्यस्त हो जायेगा और अनेक लोग स्थानीय व्यापारियो और बिचौलियों के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।
    चौथा, अकेली महिलाओं, विकलांग लोगों और वृद्ध लोगों जैसे विशेष समूओं की समस्याएं अलग किस्म की हैं, वह अपना पैसा निकालने और दूर बाजार से खाद्य पदार्थ खरीदने के लिये आसानी से नहीं जा सकते।
    अंतिम कारण, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है वह यह है कि मुद्रास्फीति कैश ट्रांसफरों की क्रयशक्ति को आसानी से कम कर सकती है। जब हाल यह है कि सरकार पेंशनों या मनरेगा मे मिलने वाली मजदूरी को भी बढ़ती मुद्रास्फीति के अनुरूप बढ़ाने से इंकार करती है तो इस पर कैसे यकीन किया जा सकता है कि वह कैश  ट्रांसफरों को महंगाई बढ़ाने के अनुरूप बढ़ा देंगी। यदि यह मान भी लें कि इसमें इस तरह कुछ वृद्धि की जायेगी तो भी उस वृद्धि में अवश्य समय लगेगा और बीच के समय में गरीबों को भारी मुश्किल होगी।
    कैश ट्रांसफर स्कीम का राजस्थान के कोटकोसिम में जो प्रयोग किया गया वह कैश ट्रांसफर की योजना की संभावित विफलता का एक जीता जागता उदाहरण हैं यह प्रयोग काफी धूमधड़ाके के साथ शुरू किया था और इसे यह कहकर एक जबरदस्त सफलता के रूप में पेश किया गया कि इससे कैरोसीन की सब्सिडी पर आने वाले खर्च में 80 प्रतिशत की कमी आ गयी। परन्तु हकीकत यह सामने आयी कि इससे केरोसीन की वितरण प्रणाली ही धराशायी हो गयी।
    देश में एक ऐसा इम्प्रेशन बना दिया गया है कि सरकार 2014 चुनाव के पहले आधार कार्ड से जुड़ी कैश ट्रांसफर स्कीमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने के लिये तैयार हैं। यह अत्यंत गुमराह करने वाली बात है और लगता यह है कि यह इस बात की कोशिश है कि लोग आधार कार्ड बनवाने के लिये आधार कार्ड बनाने वाले केन्द्रों की तरफ दौड़ पड़े।
    सरकार ने एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वायदा किया था। सरकार उसमें विफल रही है। कैश ट्रांसफर की घोषणा से सरकार की इस विफलता से ध्यान डायवर्ट होता है। सरकार ने जो खाद्य सुरक्षा बिल बनाया वह अत्यंत कमजोर है और वह भी पूरे एक साल से स्थायी समिति के पास पड़ा हुआ है। इस बीच देश में खाद्यान्न भंडार अभूतपूर्व पैमाने पर जमा हो रहे हैं। इस समय देश को एक व्यापक खाद्य सुरक्षा की जरूरत है, आधार कार्ड संचालित कैश ट्रांसफरों की ऐसी हड़बड़ी एवं जल्दबाजी की नहीं जिसमे अनेक खतरे निहित हैं।

बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश को भुनाने की कवायद

16 दिसम्बर की रात देश की राजधानी में एक पैरा-मेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार की घृणित बहशी हरकत होती है। वह बेचारी तो अब इस दुनियां में नहीं रही लेकिन उसके साथ घटी घटना के फलस्वरूप दिल्ली की सड़कों और उसके बाद पूरे देश की सड़कों पर हुए विरोध प्रदर्शनों ने यह जाहिर किया कि जनता में आक्रोश है। जहां मीडिया ने शुरूआत से ही इसे एक विचारधाराविहीन जनसंघर्ष की संज्ञा देने शुरू कर दिया था, वहीं देश के राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में तमाम लोगों ने इस घटना पर तरह-तरह की अनर्गल प्रतिक्रिया देकर उस जनाक्रोश को भुनाने की अपनी-अपनी तरह की कोशिशें कीं। इन कोशिशों में देखा जाना चाहिए कि जिन संगठनों का यह प्रतिनिधित्व करते हैं, उन संगठनों का महिलाओं के बारे में, महिलाओं के सशक्तीकरण के बारे में और उनकी अस्मिता के बारे में सोच क्या है।
दूरदर्शन सहित सभी प्रमुख न्यूज चैनलों पर सबसे पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वार्ता दिखाई गयी जिसमें वे इस घटना पर अपना गुस्सा प्रकट करते हुए सख्त एवं त्वरित कार्यवाही की मांग कर रही थीं। शीला जी लम्बे अर्से से देश की उसी राजधानी की मुख्यमंत्री हैं, जहां घटना घटी थी और केन्द्र में लगभग साढ़े आठ सालों से उन्हीं की सरकार सत्तासीन है। समझ में नहीं आया कि वे इस घटना के लिए किसको जिम्मेदार बता रही थीं - खुद को या सोनिया को या मनमोहन को? वे जो फार्मूले पेश कर रहीं थी, वे किसके लिए थे। उसी समय कांग्रेस के कुछ नेता, जिसमें राष्ट्रपति के सांसद पुत्र भी शामिल हैं, ने प्रदर्शनकारी महिलाओं के लिए अशोभनीय शब्दों का प्रयोग किया, बाद में उनकी बहन और उन्होंने खुद माफी मांग ली।
इसके बाद सोनिया जी खुद सामने आती हैं और बलात्कार के अपराधियों के लिए मृत्यु दंड और उन्हें नपुंसक कर देने तक की सजा की मांग करती हैं। वे किस हैसियत से और किससे यह मांग कर रहीं थीं, इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। चूंकि दिल्ली की घटना में एक नाबालिग भी शामिल था, इसलिए उन्हीं की पार्टी नाबालिग बच्चों पर भी मुकदमा चलाने के लिए कानून बदलने की मांग करती है। ध्यान देने योग्य बात है कि अगर कानून बदल भी दिया जाये तो उसे पीछे से लागू नहीं किया जा सकता। दूसरे यूएन कंवेंशन होने के कारण इसे बदल पाना शायद आसान नहीं है।
भाजपा के कुछ नेताओं ने भी कुछ अभद्र टिप्पणियां कीं। बाद में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत सामने आये और पहले दिन उन्होंने कहा कि बलात्कार ‘इंडिया’ में होते हैं, ‘भारत’ में नहीं। वैसे तो ‘इंडिया’ और ‘भारत’ में फर्क केवल इतना है कि ये दो अलग-अलग भाषाओं के शब्द हैं, जिसे हिन्दी में हम भारत कहते हैं उसे ही अंग्रेजी में इंडिया कहा जाता है। भागवत का इससे क्या आशय था, इसे साफ नहीं किया गया परन्तु इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं - या तो वे प्राचीन भारत को भारत और वर्तमान को इंडिया कह रहे थे अथवा वे ग्रामीण भारत को भारत और शहरी भारत को इंडिया कह रहे थे। दोनों अर्थों पर उनके ज्ञान पर तरस आता है। प्राचीन भारत के “महाभारत“ में द्रौपदी के चीरहरण का प्रकरण जनमानस में बहुत ख्यात है। प्राचीन भारत के गांवों में उत्तर और दक्षिण टोला हुआ करता था और जो आज भी अपने अस्तित्व को समाप्त नहीं कर सका है। बात को स्पष्ट कहने की जरूरत नहीं है। ग्रामीण अंचलों में निवास करने वाले लोग आशय समझ जायेंगे। दिल्ली की घटना के बाद रोज अखबारों को पलटने पर पता चलता है कि रोजाना कम से कम पांच बलात्कारों के समाचार तो केवल उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों के होते हैं। यानी कम से कम 5 घटनायें तो रौशनी में आ जाती हैं, पता नहीं कितनी घटनायें समाचार ही नहीं बन पाती हैं।
भागवत की इस टिप्पणी के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने और न्यूज चैनलों में दिखाये जाने से वे उत्साहित हुये और फिर बोल उठे। उन्होंने विवाह को एक ऐसा ”समझौता“ करार दे दिया, जिसमें महिला अस्मिता और सम्मान तार-तार होते दिखाई देते हैं।
जमायते इस्लामी पीछे कैसे रहती। उसने भी न्यायमूर्ति वर्मा आयोग को एक प्रतिवेदन दे दिया जिसमें सह-शिक्षा पर पाबंदी लगाने और लड़के-लड़कियों के मिलने जुलने और चलने तक पर पाबंदी लगाने की मांग कर दी।
इन सबके टीआरपी को देख कर आसाराम बापू में भी जोश में आ गये और कहा कि पीड़ित लड़की को बलात्कारियों के सामने हाथ जोड़ कर, बलात्कारियों के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाना चाहिए था, दया की याचना करनी चाहिए थी। इनके इस बयान की भी खूब पब्लिसिटी हुई।
आने वाले दिनों पता नहीं कौन-कौन क्या-क्या कहेगा परन्तु इस घटना और उसके बाद उपजे जनाक्रोश तथा उसके फलस्वरूप हुए प्रलापों के कुछ अर्थ निकाले जाने जरूरी हैं। महिला आन्दोलन और भाकपा कार्यकर्ताओं को चाहिए कि जहां-जहां भागवत और आसाराम सरीखे महिला विरोधी जायें, वहां उनके कार्यक्रमों के समय इनके विरोध में महिलाओं को भारी संख्या में भागीदारी करनी चाहिए और उनके कार्यक्रमों में व्यापक व्यवधान पैदा करना चाहिए। जहां-जहां बलात्कार की घटनाओं के समाचार मिलते हैं, वहां-वहां जनता की व्यापक लामबंदी करनी चाहिए और दिल्ली जैसे लगातार और लम्बे समय तक चलने वाले तथा व्यापक विरोध आयोजित करने चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
9 जनवरी 2013

Saturday, December 29, 2012

गैंगरेप पीड़ित युवती के निधन पर भाकपा ने व्यक्त किया गहरा शोक

लखनऊ 29 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने दिल्ली में हुए बलात्कार से पीड़ित युवती के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। भाकपा ने युवती के परिवार के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए युवती को शोक श्रद्धांजलि अर्पित  की है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि इस दर्दनाक हादसे से सारा देश स्तब्ध है। हमें इस समस्या पर बहुत गंभीरता से काबू पाना होगा। उदारीकरण-भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप हमारा परम्परागत सामाजिक ताना-बाना टूट रहा है। इससे रिश्ते भी प्रभावित हो रहे हैं। पैदा हो रही नई अपसंस्कृति के परिणामस्वरूप नारी के प्रति दृष्टिकोण में भी भारी बदलाव आया है और उसे भोग की वस्तु के रूप में देखा जाने लगा है। यही वजह है कि देश भर में बलात्कार और महिलाओं के साथ अभद्रता की घटनायें थमने का नाम नहीं ले रही हैं।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि ऐसी वारदातों को रोकने के लिये हमें त्वरित न्याय देना होगा और कानूनों में कड़ी सजा का प्राविधान करना होगा। साथ ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी हमें इस कुत्सित मानसिकता को बदलने के प्रयास करने होंगे। तभी नारी को सुरक्षा मिलेगी और समाज में स्वस्थ वातावरण निर्मित होगा।

Wednesday, December 26, 2012

बलात्कार और मीडिया की भूमिका

16 दिसम्बर की रात दिल्ली में चलती बस में एक 23 साल की मेडिकल छात्रा के साथ घटी घटना से सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक गया। हर सभ्य नागरिक उस घटना की निन्दा करेगा और पीड़िता के साथ पूरी सहानुभूति रखेगी। ऐसे लोग ढूंढे नहीं मिलेंगे जिनकी चाहत यह हो कि उस घटना के आरोपियों को सख्त से सख्त सजा न दी जाये। घटना ने समाज में एक कंपन पैदा किया। संसद से लेकर सड़क तक आक्रोश दिखाई दिया। सब कुछ स्वाभाविक था परन्तु जिस तरह देखते-देखते तमाम समाचार चैनल आन्दोलनकारी हो गये, हर कोण से कमेंट्री करने की कोशिश में लग गये, उस पर चिंतन जरूर होना चाहिए।
पहली बात, लगभग सभी चैनलों के लगभग सभी एंकर बार-बार जोर दे रहे थे कि सड़कों पर विरोध करने उतरी जनता की कोई विचारधारा नहीं है। उसकी कोई राजनीति नहीं है। वह किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व नहीं करती। उनकी यह टिप्पणी कोई नई नहीं थी। ऐसा वे इसके पहले अप्रैल 2010 में शुरू हुए अन्ना आन्दोलन के समय भी कह रहे थे। अन्ना आन्दोलन के हस्र और उसकी वर्तमान स्थिति पर कोई टिप्पणी करने की हमारी मंशा इस समय नहीं है।
यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आन्दोलनकारियों के रूप में सड़कों पर उतरी जनता के विचारों में एक सामान्य सी साम्यता है, वे सब बलात्कार को गलत मानने वाले हैं, वे एक बालिका पर हुए बहशीपन से आक्रोशित हैं, वे अपराधियों को दण्ड दिये जाने के पक्ष में है और वे सब त्वरित कार्यवाही चाहते हैं। यह एक विचार है। इसी विचार से वे आन्दोलन में उतरे हैं और यही विचार उनके मध्य एकता स्थापित कर रहा है। वे गैर राजनीतिक नहीं हैं। उनका बड़ा तबका किसी न किसी राजनीतिक दल का समर्थक रहा है और उन्हें वोट देता रहा है। मीडिया को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन प्रदर्शनों में तमाम प्रदर्शन महिला संगठनों के द्वारा किये गये थे और तमाम प्रदर्शनों को तमाम राजनीतिक दलों ने भी आयोजित किया था।
मूलतः पूंजीवाद अपने जन्म काल से ही विचार और विचारधाराओं को नष्ट करने का प्रयास करता रहा है। पूंजीवाद इसके लिए विभिन्न रूप रख कर सामने आता है। 1957 में मिलान में समाजवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ”विचारधाराविहीन मनुष्य“ का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, आपातकाल के अंतिम दौर में स्वयंभू युवा हृदय सम्राट संजय गांधी द्वारा विचारधाराविहीनता का दिया गया नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, 1990 के करीब विचारधारा का अन्त का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था तो 2010 में अन्ना आन्दोलन के समय में मीडिया द्वारा विचारधाराविहीन आन्दोलन का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था। पूंजीवाद वर्तमान भारत में अपने विरोध को समाप्त करने के लिए राजनीतिक दलों और राजनीतिक विचारों के प्रति शहरी नव मध्यम वर्ग के मध्य एक विरोध पैदा करने की लगातार कोशिश कर रहा है। और इस बार भी मीडिया की यह टिप्पणी अपने आकाओं के इसी उद्देश्य की पूर्ति कर रही है।
मीडिया स्त्रियों की अस्मिता के प्रति कतई गम्भीर नहीं है। मीडिया ने सुषमा स्वराज के लोकसभा में दिये गये भाषण के आपत्तिजनक अंशों को बार-बार प्रसारित कर स्त्री अस्मिता को तार-तार किया। इस घटना के कवरेज के बीच-बीच ”लौंडिया पटाएंगे मिस्ड कॉल से’ के प्रसारण को अश्लील और दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। दबंग-2 के विज्ञापन के लिए चैनलों ने छांट-छांट कर जो संवाद और फुटेज दिखाए, वे मीडिया को कटघरे में खड़ा करते हैं। एक चैनल ने ‘रात में डराती है दिल्ली’ कार्यक्रम के बीच-बीच में स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापन दिखाए। स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापनों के अंतःपुर में बैठे मीडिया के लोग किस स्त्री हिंसा के खिलाफ माहौल बनाने में लगे हुए है, यह गौर करने लायक विषय है। सभ्य समाज को यह भी सोचना होगा कि वारदात, जुर्म, सनसनी और एसीपी अर्जुन जैसे कार्यक्रमों की अपनी क्या भूमिका है?
एक समाचार चैनल ने एक दिन अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लम्बे इंटरव्यू दिखाये। इंटरव्यू की विषयवस्तु मूलतः स्पांर्स्ड प्रोग्राम या विज्ञापन की तरह थी। शीला जी बड़ी गंभीरता से दिल्ली में घटने वाली वारदातों का ठीकरा पुलिस वालों और न्यायालयों पर थोप रहीं थीं। दिल्ली में लम्बे समय से राज्य सरकार उनकी है, केन्द्र में लम्बे समय से उनकी सरकार सत्ता में है। आखिरी पुलिस सुधारों को रोक किसने रखा है? आखिर न्यायिक सुधार क्यों नहीं हो रहे हैं? आखिर लोगों को न्याय क्यों नहीं मिलता? इसकी जवाबबदेही क्या सत्ता से दूर वामपंथियों की है?
मीडिया एक बार फिर जनता के मुद्दों को पृष्ठभूमि में ढकेलता नजर आया। मीडिया के इस पूरे खेल को हमें समझना होगा और इसका पर्दाफाश करना होगा।
- प्रदीप तिवारी

कामरेड कमला राम नौटियाल दिवंगत

लखनऊ 26 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता, प्रख्यात पर्वतारोही एवं पर्यावरणवादी कामरेड कमला राम नौटियाल का आज देहरादून में निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे। भाकपा की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल ने कामरेड नौटियाल के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है और उनके प्रति क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि अर्पित की है। पार्टी ने शोक संतप्त परिवार के प्रति भी अपनी हार्दिक संवेदनायें प्रेषित की हैं।
कामरेड नौटियाल इलाहाबाद में अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान आल इंडिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन के साथ जुड़ गये थे और छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होंने एक पर्वतारोही की भूमिका निभाते हुए हिमालय के तमाम ग्लेशियरों को खोजा और उनका नामकरण किया। उन्होंने एक पर्यावरणवादी की भूमिका निभाते हुए हिमालय पर पेड़ों की कटान के खिलाफ व्यापक आन्दोलन किया जो बाद में चिपको आन्दोलन के नाम से विख्यात हुआ। वे चौदह वर्षों तक उत्तरकाशी नगर पालिका के चेयरमैन चुने जाते रहे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के वर्षों तक सदस्य रहे। उत्तराखण्ड आन्दोलन के वे अगुवा नेताओं में से एक थे। ज्ञातव्य हो कि भाकपा ने राज्य के गठन के पूर्व ही अपनी उत्तराखण्ड कमेटी का गठन कर दिया था, जिसके वे कई सालों तक संयोजक रहे। उनकी लोकप्रियता पहाड़ों के दूरदराज गांवों तक फैली थी।
80 वर्षीय कामरेड नौटियाल कई सालों से अस्वस्थ चल रहे थे। उनके निधन से वामपंथी आन्दोलन ही नहीं उत्तराखण्ड की जनता को भी भारी क्षति पहुंची है जिसके लिए वे निरन्तर संघर्षरत रहे। भाकपा राज्य मंत्रिपरिषद अपने उत्तराखण्ड के सभी कार्यकर्ताओं  को अपनी संवेदना प्रेषित करती है।

Friday, December 21, 2012

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ”केन्द्र सरकार खाद्य सुरक्षा दो - राज्य सरकारी चुनावी वायदे पूरा करो“ अभियान शुरू

लखनऊ 21 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्वाधान में ”केन्द्र सरकार खाद्य सुरक्षा दो - राज्य सरकार चुनावी वायदे पूरा करो“ अभियान आज समूचे उत्तर प्रदेश में शुरू हो गया। जिलों-जिलों में भाकपा कार्यकर्ताओं ने शिविर लगाकर प्रधानमंत्री को सम्बोधित ज्ञापन पर बड़े पैमाने पर हस्ताक्षर करवाये। हाथरस में राज्य सचिव डा. गिरीश ने प्रातः 9 बजे ही प्रथम हस्ताक्षर कर अभियान का शुभारम्भ किया। लखनऊ में भाकपा के जिला सह सचिवद्वय ओ. पी. अवस्थी एवं परमानन्द द्विवेदी के नेतृत्व में भाकपा कार्यकर्ताओं ने विधानसभा के सामने धरनास्थल से हस्ताक्षर अभियान शुरू किया। प्रदेश के अन्य जिलों में भी शिविर लगाकर हस्ताक्षर कराये गये।
इस सम्बंध में भाकपा राज्य सचिव की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि भाकपा पिछले कई माहों से हर परिवार को हर महीने 35 किलो अनाज 2 रूपये प्रति किलो की दर मुहैया कराने की कानूनी गारंटी, राशन प्रणाली को व्यापक एवं भ्रष्टाचार से मुक्त बनाने, एपीएल-बीपीएल का भेदभाव मिटा कर सभी को खाद्य सुरक्षा दिये जाने सम्बंधी कानूनी शीघ्र बनाये जाने, हर परिवार को साल में कम से कम 12 गैस सिलेण्डर दिये जाने, खुदरा कारोबार में एफडीआई को दी गयी अनुमति को रद्द करने आदि मांगों पर अभियान चला रही है। इसी अभियान की कड़ी में यह हस्ताक्षर अभियान शुरू किया गया है। पूरे देश में 5 करोड़ हस्ताक्षर जुटाने का लक्ष्य रखा गया है।
इसके अलावा भाकपा का आरोप है कि आठ माह के शासन काल में राज्य सरकार पूरी तरह विफल साबित हुई है। उसने हर तबके के साथ वायदा खिलाफी की है। पहले बेरोजगार नौजवानों को धोखा दिया गया तो अब गन्ना मूल्य और कर्जा माफी के सवाल पर किसानों को छला गया है। भाकपा का यह अभियान राज्य सरकार से चुनावी वायदे पूरा कराने को भी लक्षित है। इसके अंतर्गत सभी जिला केन्द्रों पर सात जनवरी को धरने प्रदर्शन आयोजित किये जायेंगे। भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने बताया कि जिन जिलों में यह अभियान आज शुरू नहीं हो सका है, उनमें 23 दिसम्बर को शुरू हो जायेगा।



कार्यालय सचिव

Saturday, December 8, 2012

दो मौतों पर कतारबद्ध पूंजीवादी राजनीतिज्ञ और मीडिया

कुछ ही दिनों पहले की बात है। दो व्यक्तियों की मौत होती है। एक व्यक्ति था - मुम्बई का बाल ठाकरे तो दूसरा था दो दशकों में खाकपति से अरबपति बनने वाला पोंटी चढ्ढा। एक मरा था अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक मौत से तो दूसरे की हत्या हुई थी। दोनों ऐसे व्यक्तित्व नहीं थे जिनसे देश के जनमानस का कोई जुड़ाव रहा हो लेकिन उस दिन इलेक्ट्रानिक चैनलों के पास अन्य कोई खबर नहीं थी जो दोनों के ऊंचे कद के बारे में धारा प्रवाह प्रवचन दे रहे थे तो दूसरे दिन के अखबारों के पन्ने उनसे भरे हुए थे। यह तो था मीडिया का चरित्र तो दूसरी ओर देश के तमाम बड़े राजनीतिज्ञ इन दोनों को भरे गले से श्रद्धांजलि दे रहे थे। आश्चर्य हो रहा था इस गिरावट पर, हम कहां से कहां पहुंच गये हैं।
दहशत में मुम्बई बन्द रही क्योंकि वहां बाल ठाकरे के समर्थक कम उनसे आतंकित लोगों की संख्या ज्यादा है। कुछ लोग उन्हें बिहारी मानते हैं जो अन्य सामान्य भारतीयों की तरह बिहार से आकर रोजी-रोटी के लिए मुम्बई में बस गया था। शुरूआती दौर में वह एक स्ट्रग्लिंग कार्टूनिस्ट था। फिर वह बतौर कांग्रेसियों एवं पूंजीपतियों के एजेंट, वामपंथी ट्रेड यूनियनों को तोड़ने के लिए हिंसा के कारण चर्चा में आया था। इस दौर में वामपंथी ट्रेड यूनियनों पर ठाकरे और उसके समर्थकों ने हिंसक हमले किये थे। कामरेड कृष्णा देसाई की हत्या इन्हीं हिंसक घटनाओं के बीच में हुई थी। इसी दौर में मराठियों के रोजगार का प्रश्न उठाकर दक्षिण भारतीयों का विरोध शुरू किया, फिर मुम्बई में गुजरातियों का और अंत में उसने सभी गैर मराठियों पर हमले शुरू कर दिये। अंततः वह हिन्दुत्व के रथ पर सवार हो गया, अयोध्या के विवादित ढांचे को शिव सैनिकों द्वारा गिराये जाने का दावा करते हुए उसने कहा था कि उसे उन पर गर्व है। 1992-93 में मुम्बई में हुये दंगों में उसने जम कर हिस्सेदारी की। उसके भाषण और उसका लेखन हमेशा नागरिकों के मध्य घृणा फैलाता रहा परन्तु कभी भी कांग्रेसी और एनसीपी की सरकारों ने उसके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया। एक बार चुनाव आयोग ने जरूर उसे 6 सालों के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया था। वह मराठी दलितों के खिलाफ भी काम करता रहा और उसे मंडल आयोग तथा दलित महत्वाकांक्षाओं का प्रखर विरोधी माना जाता रहा। अम्बेडकर की एक पुस्तक का महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशन करने का उसने विरोध किया और शिव सैनिकों ने दलितों पर जम कर हमले किये थे।
उसके बाद एक और घटना घटी। मुम्बई की बंदी पर एक बालिका ने किसी सोशल नेटवर्किंग साईट पर अपने विचार लिख दिये और एक दूसरी बालिका ने उस विचार का समर्थन कर दिया। दोनों को पुलिस पकड़ कर थाने ले गयी और शिव सैनिकों ने एक के चाचा के अस्पताल को तहस-नहस कर दिया। देशव्यापी प्रक्रिया होने पर दोनों बालिकाओं को छोड़ दिया गया परन्तु उनके गिरफ्तार किये जाने के तथ्य ने एक बार फिर बाल ठाकरे और कांग्रेस के मध्य दुरभिसंधि की याद जरूर दिला दी।
 जहां तक पोंटी चढ्ढा का सवाल है, कहा जाता है कि दो दशक पहले वह एक देशी शराब के ठेके के सामने मछलियां तल कर बेचता था परन्तु दो दशकों में वह अथाह सम्पत्ति का मालिक बन गया। कैसे का जवाब तो नहीं दिया जा सकता परन्तु कहा जाता है कि उसके कारोबार में तमाम राजनीतिज्ञों की गलत कमाई का पैसा लगा हुआ था। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में शराब की आपूर्ति पर उसका एकाधिकार कायम हो गया था। वह कई मल्टीप्लेक्स एवं मॉल्स का मालिका हो गया था। वह मुलायम सिंह और मायावती का चहेता माना जाता था। मायावती ने उसे चीनी निगम की कई मिलों की बेशकीमती सम्पत्तियों को कौड़ियों के भाव दे दिया था। उसकी मौत पर शोक संतप्त होने वालों में मुलायम सिंह और मायावती के अलावा उत्तराखंड के कांग्रेसी एवं भाजपाई मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ पंजाब, हरियाणा, राजस्थान एवं दिल्ली के बड़े-बड़े राजनेता शामिल थे। इनमें से तमाम ने उसके अंतिम संस्कार में तो कईयों ने उसके घर पर बाद में होने वाले कर्मकांडों में शिरकत भी की।
यह दोनों मौतें ऐसी नहीं थीं कि उन पर कुछ लिखा जाये परन्तु उनकी मौतों पर कतारबद्ध हुये मीडिया और राजनीतिज्ञों ने एक बार फिर भारतीय राजनीति की उस गिरावट की ओर संकेत कर दिया है, जिस पर देश के हर नागरिक को चिन्तित होना चाहिए। इस गिरावट को रोकने का काम केवल जनता कर सकती है। कम से कम राजनीतिज्ञों पर नकेल कसने का काम उसका है।
- प्रदीप तिवारी 22.11.2012

भाकपा चलायेगी - ”प्रदेश सरकार वायदा निभाओ“ अभियान

लखनऊ 8 दिसम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी गन्ना मूल्य निर्धारण तथा किसानों के कर्जे माफ करने के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों के साथ की गयी धोखाधड़ी के खिलाफ आन्दोलन छेड़ेगी। उक्त आशय का निर्णय आज यहां सम्पन्न भाकपा की राज्य कार्यकारिणी बैठक में लिया गया।
निर्णयों के सम्बंध में जानकारी देते हुए भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने गन्ने के जो मूल्य निर्धारित किये हैं, वे बेहद कम हैं। आज जबकि खाद, डीजल, कीटनाशक, बीज आदि सभी के दाम काफी बढ़ गये हैं और चीनी भी 40 रूपये किलो की दर से बिक रही है, ऐसे में गन्ने की कीमत कम से कम रू. 350.00 प्रति क्विंटल होनी चाहिए। भाकपा राज्य कार्यकारिणी ने इस बात पर भी गहरा रोष व्यक्त किया कि अपने सम्पूर्ण चुनावी अभियान में सपा ने किसानों के पचास हजार रूपये के कर्जों की माफी की घोषणा की थी लेकिन केवल एक वित्तीय संस्थान का कर्ज भी काफी बंदिशों के साथ माफ करना घोषित किया गया है जबकि अधिकतर किसान ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ के जरिये राष्ट्रीयकृत बैंकों, सहकारी बैंकों एवं ग्रामीण बैंकों से कर्ज लेते हैं। प्रदेश के लगभग आठ करोड़ किसानों ने यही कर्जा ले रखा है जिसकी कोई माफी नहीं की गयी है। धान के खरीद केन्द्रों पर भी बेहद धांधलेबाजी है। नहरों में पानी आ नहीं रहा और बिजली की सप्लाई गांवों को जा नहीं रही। इन सबके चलते किसान बेहद परेशान है।
भाकपा राज्य कार्यकारिणी ने उपर्युक्त सभी सवालों को केन्द्रीय मुद्दा बनाते हुए 21 दिसम्बर से समूचे उत्तर प्रदेश में ”उत्तर प्रदेश सरकार वायदा निभाओ“ अभियान चलाने तथा 3 जनवरी 2013 को इन्हीं सवालों पर जिला केन्द्रों पर जुझारू धरने-प्रदर्शन करने का निर्णय लिया है।
इसके साथ ही खाद्य सुरक्षा के सवाल पर - हर परिवार को हर महीने 35 किलो अनाज 2 रूपये प्रति किलो की दर पर उपलब्ध कराने की कानूनी गारंटी तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को वृहत्तर और भ्रष्टाचारमुक्त बनाने के सवाल पर 21 दिसम्बर से ही हस्ताक्षर अभियान प्रारम्भ करने का निर्णय भी लिया है। केन्द्रीय आह्वान पर होने वाले इस कार्यक्रम में भाकपा उत्तर प्रदेश में 10 लाख हस्ताक्षर जुटायेगी। इसके लिए भाकपा के कार्यकर्ता गांव-गांव और घर-चौपाल जायेंगे तथा स्टेशनों, बाजारों, हाटों, चट्टियों, सरकारी दफ्तरों, बैंकों और बस अड्डों के सामने शिविर लगा करके हस्ताक्षर करायेंगे। इसके अलावा एफडीआई के सवाल पर सपा, बसपा और कांग्रेस के रवैये को जनता के बीच उजागर किया जायेगा। भाकपा इस बात को भी जनता के बीच रखेगी कि भाजपा की साम्प्रदायिक एवं संकीर्ण नीतियां और विपक्षी दलों की इन नीतियों पर भाजपा से दूरी बनाने के लिए बहानेबाजी आर्थिक सवालों पर विपक्ष की एकता में बाधक बन रही हैं। इसके लिए विचार गोष्ठियां, सभायें एवं नुक्कड़ सभायें आयोजित की जायेंगी।
भाकपा की जिला इकाईयों द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये सरकारी योजनाओं को लागू करने में बरती जा रही उदासीनता के खिलाफ 10 दिसम्बर को जिला केन्द्रों पर प्रदर्शन किया जायेगा।

Friday, November 23, 2012

आगे साम्प्रदायिकता है

उत्तर प्रदेश में लगातार घट रही साम्प्रदायिक दंगों की वारदातें साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के तात्कालिक और दीर्घकालिक राजनैतिक उद्देष्यों की पूर्ति के लिए चलाई जा रही उनकी लगातार मुहिम का परिणाम हैं। अपने राजनैतिक उद्देष्यों की पूर्ति के लिए ये ताकतें आगामी लोकसभा चुनाव में वोटों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहती हैं।
प्रदेष में सत्तारूढ़ दल की दोगली कार्यनीति बार-बार दंगों और दंगाईयों से निपटने में सरकार और प्रषासन की भारी  ढिलाई के रूप में हमारे सामने है। बाबरी विध्वंस के बाद अपनी प्रासंगिकता गंवा बैठा संघ परिवार अपनी खोई हुई ताकत और जमीन को फिर से हासिल करने के काम में जुटा है। गोरखपुर, फैजाबाद, वाराणसी, मुरादाबाद, बरेली, मेरठ, सहारनपुर, आगरा, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, झांसी आदि संवेदनषील मंडल इसके निषाने पर हैं। इस बार ग्रामीण क्षेत्रों पर भी फोकस है। अंतर्राष्ट्रीय हालातों और प्रदेष में सत्ता परिवर्तन से उत्साहित अन्य कट्टरपंथी ताकतें भी उकसावे और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही हैं। हाल ही में जन्मी कुछ मुस्लिम राजनीतिक पार्टियां भी साम्प्रदायिक विभाजन के काम में लगी हैं ताकि धर्मनिरपेक्ष ताकतों से अल्पसंख्यक समुदाय को अलग किया जा सके।
इन परिस्थितियों में धर्मनिरपेक्ष ताकतों की जिम्मेदारी बहुत गंभीर है। प्रस्तुत रिपोर्ट से सबक लिया जाना चाहिए। साम्प्रदायिक सौहार्द को कायम रखना और जन-धन की हानि न होने देना हमारा महत्वपूर्ण कार्यभार है।
- कार्यकारी सम्पादक
प्रो. रघुवंशमणि की तथ्यपरक रिपोर्ट
विगत कुछ वर्षों से हमारे तमाम बुद्धिजीवियों ने यह मान लिया है कि साम्प्रदायिकता अब कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रह गया है। इसके चलते लोगों की राजनीतिक अभिवृत्तियॉं भी बदलीं हैं। जो लोग भारतीय जनता पार्टी और संघ को 2002 के दंगों के बाद एक कट्टरतावादी हिदुत्ववादी पार्टी के रूप में देखते थे, उन्होंने इस पक्ष को उदारवादी दृष्टि की पार्टी के रूप में देखना शुरू कर दिया था। यहॉं तक कि गुजरात दंगों के खलनायक नरेन्द्र मोदी के भी गुणों की चर्चा होने लगी कि आखिर उनके नेतृत्व में कुछ ऐसी बात तो होगी जो गुजरात में विकास ही विकास दिखायी पड़ता है। दूर से गुजरात की असलियत तो किसी को मालूम नहीं। कांग्रेस के नेताओं के तमाम भ्रष्टाचार सम्बन्धी कारनामों के बाद बहुत से मित्र-परिचित भाजपा को भ्रष्टाचार के विकल्प के रूप में देखने लगे थे। अब गडकरी के भ्रष्टाचरण के सामने आने के बाद जरूर उनका भ्रम टूटा होगा। फैज़ाबाद में हाल में हुए साम्प्रदायिक दंगों और आगजनी की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि साम्प्रदायिकता वैसी की वैसी है और उसकी राजनीति भी ज्यों की त्यों।
उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में आये साम्प्रदायिक उभार ने यह सिद्ध किया है कि न तो भाजपा कि दुम सीधी होने वाली है और न ही उसकी साम्प्रदायिक राजनीति बदलने वाली है। संघ और संघनीति में भी कोई परिवर्तन होता नहीं दिखायी देता। दंगों के नाम पर राजनीति करने वाले और भी हैं और उनका उत्तर प्रदेश की सत्ता में भागीदारी भी बरकरार है। सब कुछ यथावत् है और अगर सचेत न हुआ गया तो आगे साम्प्रदायिकता की आग धधकाने वाले तैयार बैठे हैं, प्रयासरत हैं।
उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में साम्प्रदायिकता बढ़ी है। मथुरा जिले में कोसीकलां नामक जगह पर हिंसा हुई जिसमें तीन लोगों के मारे जाने की खबर है। प्रतापगढ़ के नवाबगंज थाना क्षेत्र के अस्थाना गॉंव में हिंसा हुई है। बरेली में कांवर यात्रा के दौरान हिंसा हुई है जिसमें दो लोेग मरे हैं। फिर जन्माष्टमी के दिन भी वहॉं हिंसा हुई। इसी प्रकार गाजियाबाद के मसूरी थाने पर हमला हुआ और छः लोग हिंसा के शिकार हुए। इस सिलसिले को आगे बढ़ाया जाय तो लखनऊ, इलाहाबाद, और कानपुर में भी साम्प्रदायिक हिंसा हुई। बदायूॅं के सहसवा के हिस्से में भी साम्प्रदायिक तनाव हुआ। और अब फैजाबाद तथा बाराबंकी में हिंसा भड़की। ये हिंसा किन कारणों से हुई और किनके द्वारा हुई इसके उत्तर अलग-अलग हैं। इस प्रश्न का कोई खास महत्व इसलिए नहीं क्योंकि साम्प्रदायिकता के झगड़ों में मरने वाला हर व्यक्ति अंततः मनुष्य ही होता है और इसमें होने वाली हर क्षति राष्ट्रीय होती है। मगर इनसे लाभ उन्ही दलों को मिलना है जो साम्प्रदायिकता की राजनीति करते हैं। अतः मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने वाले धर्मनिरपेक्ष ताकतों - धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा इनका न केवल विरोध आवश्यक है बल्कि प्रदेश के आम जनगण को साम्प्रदायिकता के खिलाफ खड़ा करना भी और उसे सचेत करना भी इन्हीं ताकतों का काम है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपने मिशन 2014 के सिलसिले में कई बार यह कहा है कि अयोध्या में राम मन्दिर उसके राजनीतिक एजेण्डे पर बना हुआ है। पार्टी में कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे चेहरों के पुनः दिखायी देने से यह तथ्य पुष्ट होता है। अब यह एक अलग बात है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता अपने शासनकाल के दौरान इस मुद्दे पर लगातार हकलाते रहे थे और इस एजेण्डे से किनारा कसते रहे थे क्योंकि भाजपा के सभी नेताओं को यह पता है कि अदालत में विचाराधीन इस मुद्दे पर वक्तव्य चाहे जो दे लिया जाय, कुछ किया नहीं जा सकता। मगर यदि झूठ बोलने और धर्म के नाम पर जनभावनाएॅं उभारने और दंगा कराने से कुछ राजनीतिक लाभ होता हो तो ऐसा करने में नुकसान क्या है? फिर हिंसा और दंगा होने पर तो वोट का बटवारा सीधा हो जाता है। कम से कम यह तो होता ही है कि हिन्दू लोग हिन्दुत्व की ओर आकर्षित होते हैं। आखिर रामजन्मभूमि आन्दोलन से चली हवा पर ही तो सवार होकर भाजपा शासन में आयी थी। उन्हें यह विश्वास है कि धर्म और राम के नाम पर उन्हें धर्मभीरु हिन्दू अपना ही लेगें। यह विश्वास है या भ्रम - इसका फैसला तो भारत की जनता को ही करना है।
मगर राजनीति किस सीमा तक अधोगामी हो सकती है, उसका एक बड़ा उदाहरण फैजाबाद में भड़के दंगे रहे जिसमें सारा प्रकरण निहायत ही एकपक्षीय दिखाई देता है। यह विचित्र सी बात है कि इस अतिस्पष्ट तथ्य को लोग अनदेखा कर रहे हैं या देखना नहीं चाहते। फैज़ाबाद शहर में जिस प्रकार मुस्लिम व्यापारियों की दुकाने जलायी गयीं, वह इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट करता है। शहर में सिर्फ मुस्लिमों की दुकाने जली हैं और अभी तक जितना नुकसान हुआ है उसका सिर्फ अनुमान भर लगाया जा सकता है। जिन व्यापारियों की दुकानें जलायी गयी हैं उनमें से अधिकांश बड़े व्यापारी थे और इस कारण नुकसान करोड़ों में गया है, संभवतः साढ़े सात करोड़। प्रदेश की समाजवादी सरकार इस हानि की भरपायी करने की बात कर रही है और मुआवजे की एक किस्त दे भी चुकी है। वह इस क्षति की कितनी भरपायी करेगी यह देखने की बात है। अगर वह आर्थिक भरपायी कर भी दे तो उस मनोविज्ञान का वह क्या करेगी जो विषाद में डूबा हुआ है और अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा है। क्या इस घटना से अल्पसंख्यकों का असुरक्षाबोध और नहीं बढ़ जायेगा? क्या ऐसे में इस धर्म में उपस्थित प्रगतिशील वर्ग पुनः अपनी परम्परागत खोल में नहीं चला जाएगा? क्या इससे इस वर्ग की साम्प्रदायिक शक्तियों को अपना खेल खेलने में मदद नहीं मिलेगी? क्या उस संस्कृति को हुई क्षति की भरपायी हो सकेगी जिस पर शहर के सभी सभ्य नागरिकों को गर्व था? क्या हम यह फिर कह पायेंगे कि यह उस आदर्श गंगा-जमुनी संस्कृति का शहर है जिसके जाग्रत विवेक ने शान्ति और सहिष्णुता को संकटों के दौर में भी बचाये रखा है?
दुर्गापूजा के पहले फैज़ाबाद में एक घटना घटित हुई। वह थी देवकाली मंदिर से मूर्तियों की चोरी। इन मूर्तियों की बरामदी के लिए एक आन्दोलन चलाया गया जिसका उद्देश्य मूर्तियों के लिए आन्दोलन के अलावा अपने को एक बार फिर प्रकाश में लाना था। इस आन्दोलन में सारे हिन्दुत्ववादी लोग ही अगुवाई कर रहे थे। यह एक प्रकार का राजनीतिक कार्यक्रम था जिसके माध्यम से राजनीतिक फुटेज हासिल करने का प्रयास किया जा रहा था। इसे गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया क्योंकि प्रथमदृष्टया इसके उद्देश्य तात्कालिक थे। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान यह प्रचार किया गया कि ये मूर्तियॉं मुस्लिमों द्वारा चुराई गई हैं। बाद में मूर्तियॉं प्राप्त भी हुई। सौभाग्य से मूर्तियों का चोर एक हिन्दू ही निकला अन्यथा उसी समय कुछ गड़बड़ हो सकती थी। इससे पहले जुलाई माह में मिरजापुर मोहल्ले में एक मस्जिद के परिसर में दीवार उठाने के मामले को लेकर विवाद हुआ था।
दुर्गापूजा के दौरान साम्प्रदायिकता की एक पृष्ठभूमि लगातार बनायी गयी। ध्वनिविस्तारकों पर बजने वाले गीत अक्सर मुस्लिम समुदाय को चिढ़ाने वाले होते थे। उनकी मंशा मुस्लिमों को उत्तेजित करना था। ये गीत उच्च स्वरों में बजाए जाते थे। उदाहरण के लिए ‘‘बनायेगे मंदिर’’, ‘‘राम राम बोल सब अयोध्या में जायेंगे’’ जैसे गीत जिनका दुर्गा या दुर्गा पूजा से कोई मतलब नहीं था। ये गीत साम्प्रदायिक राजनीति के गीत हैं जिनका भक्ति और खासकर दुर्गाभक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। दुर्गापूजा के अवसर पर इस प्रकार के गीतों का कोई मतलब नहीं। इसका बस एक मतलब मुस्लिम समाज को ठेस पहुॅंचाना या उन्हें उत्तेजित करना था। यह एक बहाने की तलाश भर थी कि कहीं कोई कुछ करे तो देख लिया जाय। अक्टूबर 2012 की बाइस तारीख को यानि कि फैज़ाबाद के सारे घटनाक्रम के दो दिन पहले मैंने अपने फेसबुक के पन्ने पर यह संकेत किया था कि इस प्रकार के गीत धार्मिक परपीड़न के उदाहरण हैं। इस प्रकार की गतिविधियों को किस तरह धर्म का नाम दिया जा सकता है, मुझे पता नहीं। इसे तो अधर्म ही कहना उचित है। बताया जाता है कि ये गीत दुर्गापूजा समिति द्वारा वितरित किये गये थे।
इस सब के बाद भी फैज़ाबाद शहर शान्त ही रहा। मगर 24 अक्टूबर को दुर्गापूजा विसर्जन के दौरान कुछ घटित हुआ जिससे फैजाबाद में आगजनी की घटना प्रारम्भ हुई। कथित तौर पर इसे किसी लड़की के साथ छेड़खानी की घटना बताया जाता है जिसका बहाना लेकर सारी कार्यवाही हुई। स्थानीय पुलिस के पास इस घटना की कोई प्राथमिकी नहीं है। वास्तव में यह सब एक सोची-समझी साजिश के तहत हुआ क्योंकि शहर के बीचोबीच स्थित चौक में मिट्टी का तेल, पेट्रोल या पत्थर के ढेर सारे टुकड़े बिना योजनाबद्ध हुए नहीं आ सकते थे। विसर्जन के दौरान चौक और रिकाबगंज के बीच स्थिति रॉयल प्लाजा के पास से ये घटनाएॅं प्रारम्भ हुईं। रायल प्लाजा के निचले भाग में स्थित दुकानों को आग लगाने से शुरुआत हुई। वहीं करीब स्थित कनक टाकिज के आगे वाले हिस्से में कपड़े की दुकानों में आग लगायी गयी। ये दुकाने अस्थायी थीं। फिर उसी पटरी पर स्थित कई स्थायी दुकानों को जलाया गया जो मुस्लिमों से सम्बन्धित थीं। चौक में स्थित जूतों की मशहूर दूकान शहाब बूट हाउस को लूटा गया और फिर उसमें आग लगायी गयी जो जलकर खाक हो गयी। चौक के दक्षिण में स्थित कुछ दुकानों में आग लगायी गयी। फिर दंगायी चौक की मस्जिद में घुस गये और तोड़फोड़ की। वहॉं मस्जिद की सम्पत्ति को नुकसान पहुॅंचाया गया और वहॉं स्थित दुकानों को जलाया गया। मस्जिद के ऊपर स्थित उर्दू अखबार के एक दफ्तर को क्षति पहुॅंचायी गयी। यह दफ्तर सम्पादक/पत्रकार मंज़र मेहदी का है जो ”आपकी ताकत“ नामक एक द्विभाषीय हिन्दी-उर्दू अखबार निकालते हैं। यह अखबार हिन्दू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देता है। बगल स्थित सब्जीमंडी की भी कुछ दुकानों को जलाया गया। मस्जिद के बगल में स्थित स्टार बेकरी को भी पत्थरों से क्षतिग्रस्त किया गया। चौक के पश्चिम में स्थित एक दरे के नीचे की दूकानों को भी जलाया गया।
यह उपद्रव शाम से देर रात तक चलता रहा। इस बात पर विश्वास करना कठिन है कि छेड़छाड़ की घटना को लेकर इस प्रकार का लम्बा और व्यवस्थित उपद्रव संभव है। यह कोई स्वतः स्फूर्त घटना नहीं है। यह एक घृणित और सुनियोजित साजिश थी। समय रहते कार्यवाही न कर जिला प्रशासन ने इस पूरे घटनाचक्र को साजिशकर्ताओं के अनुसार होने दिया। दूसरे दिन सुबह प्रशासन की ही लापरवाही के चलते फिर पत्थरबाजी हुई। प्रशासन को रात में ही चौक की परिस्थितियों को देखते हुए सुरक्षा व्यवस्था रखनी चाहिए थी। मगर कर्फ्यू तब लगाया गया जब उत्तेजित भीड़ ने समाजवादी पार्टी के स्थानीय विधायक पवन पाण्डेय पर हमला करने की कोशिश की। बाद में प्रशासन सख्त हुआ लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
25 और 26 की रात को अफवाहों का बाजार गर्म रहा। तब हरकत में आया। जगह-जगह पुलिस, पीएसी, अर्धसैनिक कमांडो, एटीएस और एसटीएफ के जवान तैनात किये गये थे। प्रशासन ने मुस्लिमों से बस स्टेशन के पास स्थित ईदगाह पर सामूहिक नमाज पढ़ने के बजाय अपने-अपने इलाकों में नमाज अदा करने का अनुरोध किया जिसे मुस्लिम नागरिकों ने मान लिया। इसी प्रकार प्रशासन ने संक्षिप्त रामलीला करायी और रावण के पुतलों को अपनी उपस्थिति में जलवाया। पूरे समय में एकमात्र आगजनी की घटना साकेत स्टेशनरी की दुकान पर हुई जिसे दुकान के पीछे लगी खिड़की को तोड़कर किया गया। इस घटना से काफी आर्थिक क्षति हुई। मगर इसके अलावा और कोई घटना नहीं घटित हुई। 6 नवम्बर को कुछ युवकों की गिरफ्तारी को लेकर पुलिस द्वारा एक मस्जिद में प्रवेश को लेकर शहर में फिर तनाव का माहौल बना मगर प्रशासन ने तेजी से चौक में चौकसी कायम की और किसी अप्रिय घटना को नहींे होने दिया। मस्जिद से जुड़े लोगों का यह कहना था कि पुलिस ने मस्जिद के अंदर कुछ सामानों को क्षति पहुॅंचायी है।
चौक फैज़ाबाद शहर का हृदय है। शहर के बीचोबीच स्थित यह हिस्सा दुकानों से भरा हुआ है और बेहद सघन है। सामान्य स्थितियों में यहॉं सुबह से लेकर देर रात तक लोग टहलते-घूमते और चाय पीते रहते हैं। रात देर तक मिठाइयों और चाय के ठेले खड़े रहते हैं। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आन्दोलन के दौर से ही चौक में हर समय पुलिस की उपस्थिति रहती है। ऐसे स्थान पर आगजनी की घटनाएॅं खुले आम अंजाम दी गयीं और पुलिस चुपचाप देखती रही। इसके भी निहितार्थ स्थानीय धर्मनिरपेक्ष नागरिकों को निकालने चाहिये। वैसे तर्क यह दिया गया कि इतनी भारी भीड़ पर पुलिस के कुछ लोग कैसे नियंत्रण कर सकते थे? मगर आज के सूचना विस्फोट के दौर में क्या पुलिस अपने वायरलेस या फोन से सूचना देकर और पुलिस बल नहीं बुला सकती थी। चौक में जहॉं ये घटनाएॅं घट रही थीं वहॉं से दो-तीन सौ मीटर की दूरी पर कोतवाली है और दो किलोमीटर से भी कम की दूरी पर शहर का पुलिस लाइन स्थित है। आम नागरिकों का यह शक सही भी हो सकता है कि घटनास्थल पर उपस्थित पुलिस ने दंगाइयों का साथ दिया। आखिर पुलिस की निरपेक्षता का यही तो मतलब निकलेगा। बाद में एडीजी कानून व्यवस्था जगमोहन यादव ने यह स्वीकार किया कि सारा कुछ प्रशासन के निकम्मेपन के कारण हुआ। कुछ लोग इस बात को मुद्दा बनाते हैं कि दुर्गाभक्त नशे में धुत्त थे और प्रशासन इसलिए भी दोषी है कि उस दिन शहर में शराब की दुकानें खुली थीं। वास्तव में उन्हें बंद होना चाहिए था। उसी बीच एडीएम सिटी श्रीकांत मिश्र, एसपी सिटी रामजी यादव, तिलकधारी यादव और भुल्लन यादव को राज्य सरकार ने लापरवाही बरतने के कारण निलम्बित कर दिया।
मगर ये बातें इस तथ्य से हमारा ध्यान नहीं हटा सकतीं कि यह सारा घटनाक्रम योजनाबद्ध साजिश था। इसमें मुस्लिम दुकानों को ही निशाना बनाया गया। पड़ोसी होने का खामियाजा कुछ हिन्दू दुकानदारों को भी भुगतना पड़ा। एक-दो हिन्दूओं की दुकानें भी लपटों से क्षतिग्रस्त हुईं जो मुस्लिम दुकानों के अगल-बगल थीं। आग तो हिन्दू और मुस्लिम में भेद तो नहीं करती और न ही उसे साजिश के क्रम में ही हरकत करने के लिए नियंत्रित किया जा सकता है। इस समूचे घटनाक्रम को कुछ सतर्क नागरिकों ने विडियोक्लिपों में कैद भी किया है जिसमें जलती दुकानों के सामने कुछ दंगाई जयश्रीराम बोलते नजर आते हैं। मस्जिद के अंदर लगे क्लोज सर्किट कैमरे में भी बहुत उपद्रवियों की तस्वीरें कैद हैं। इनमें वे काफी निश्चिंत दिखायी देते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार से प्रशासन का कोई भय नहीं है। लेकिन ये वीडियो क्लिप्स उन्हें जेल तक ले जा सकती हैं। अद्यतन सूचना यह है कि पुलिस ने पूरे फैज़ाबाद जिले में 85 लोगों को गिरफ्तार भी किया है। बाद में प्रकाश में आये वीडियो क्लिप्स के नकली और फर्जी होने की बात कही जा रही है। फोरेंसिक जॉंच में ये बातें स्पष्ट हो सकती हैं।
फैज़ाबाद के साम्प्रदायिक उपद्रवों से कुछ रेखांकित करने योग्य तथ्य सामने आये हैं।
साम्प्रदायिकता को फैलाने के लिए जिस युक्ति का इस्तेमाल लगभग हर जगह देखने को मिला वह था मुस्लिम धर्मानुयायियों को किसी तरह से उत्तेजित करना। इस कार्य के लिए अबीर का प्रयोग किया गया। मुस्लिम लोगों और मुस्लिम धर्मस्थलों पर अबीर फेककर यह कार्य किया गया। उदाहरण के लिए चौक में स्थित मस्जिद पर अबीर दिखायी दी। भदरसा, रुदौली जैसी जगहों पर भी यह प्रयोग किया गया। फैज़ाबाद में पूरा उपद्रव एकतरफा रहा क्योंकि यहॉं लोग या तो उत्तेजित ही नहीं हुए या फिर वे उपद्रव के स्थानों पर थे ही नहीं। मगर अन्य जगहों पर उन्हें उत्तेजित किया गया और टकराव की स्थितियॉं भी आयीं। मुस्लिम धर्म की संवेदनशीलता को लेकर किया गया यह प्रयोग ज्यादा सफल नहीं रहा। धर्मनिरपेक्ष तत्वों को यह विचार करना चाहिए कि किस प्रकार इन प्रयोगों को निष्फल किया जाय।
साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोगों ने भीड़-भाड़ के समय का उपयोग किया ताकि प्रशासन के लिए कार्यवाही कर पाना संभव न हो। चौक यातायात की दृष्टि से बेहद समस्याग्रस्त रहता है क्योंकि यहॉं सड़क काफी संकरी है और सामान्य स्थितियों में भी यहॉं से गुजरना कठिन हो जाता है। दुर्गापूजा के अवसर पर यहॉं बहुत भीड़ हो जाती है और किसी प्रकार की प्रशासनिक कार्यवाही कठिन हो जाती है। इस बात को देखते हुए आगे के आने वाले त्यौहारों में प्रशासन को सचेत रहना चाहिए। कायदे से तो होना यह चाहिए कि चौक में किसी प्रकार के धार्मिक या राजनीतिक कार्यक्रमों पर रोक हो क्योंकि यह जगह काफी संकरी है। 18वीं शताब्दी के इसके निर्माण काल के समय फैज़ाबाद की जनसंख्या बहुत कम थी। अब यह जनसंख्या दस गुने से भी ज्यादा है। चौक में भारी वाहनों का प्रवेश पहले से ही वर्जित है। तो सवाल यह है कि प्रशासन द्वारा यहॉं धार्मिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को क्यों नहीं वर्जित किया जाता। दुर्गापूजा के मार्ग को बदलना जरूरी है ताकि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो सके।
जैसा पहले कहा जा चुका है प्रशासन के लिए जो संभव कार्यवाही थी वह नहीं की गयी। उदाहरण के लिए फैजाबाद में चौक क्षेत्र जहॉं उपद्रव हुए वहॉं से कुछ सौ मीटर की दूरी पर कोतवाली है और 2 किलोमीटर के भीतर ही पुलिस लाईन है। मगर वहॉं से कोई भी मदद नहीं पहुॅंची। वहॉं अतिसीमित मात्रा मे पुलिस थी। अग्निशामकों का सही प्रयोग न हो सका क्योंकि उनमे पानी ही नहीं था। सवाल यह जरूर उठता है कि तत्काल पानी भरे अग्निशामकों का उपयोग क्यों नहीं किया गया और क्यों वाटरलाईनों में बनाये जाने वाले प्वाइंट्स को प्रयोग में लाने के प्रयास नहीं किये गये। बाद में दुकानों में लग चुकी आग को बुझाना और मुश्किल हो गया। दुकानों में आग सुबह तक सुलगती रही।
रात में आगजनी की इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भी सुबह तक चौक में सुरक्षा का कोई इन्तजाम नहीं था। कफर््यू की घोषणा भी तब हुई जब क्रोधित भीड़ ने शहर के विधायक पवन पाण्डे पर आपना आक्रोष जाहिर किया और उन्हें वहॉं से भाग जाना पड़ा। प्रशासन की निष्क्रियता आलोचना का विषय है। बाद में एडीजी ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया कि प्रशासन की ओर से लापरवाही हुई। इस प्रकार की प्रशासनिक निष्क्रियता के अलग-अलग अर्थ लगाये जा रहे हैं। लम्बा समय बीतने के बाद फैज़ाबाद के जिलाधिकारी दीपक अग्रवाल और वरिष्ठ आरक्षी अधीक्षक रमेश शर्मा हटाये गये। उसके पीछे की भी अलग कहानी है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया ने फैज़बाद की घटनाओं को नोटिस में नहीं लिया। मीडिया के चैनल्स उन दिनों गडकरी और वाड्रा के प्रसंगों को लेकर चटखारे मार रहे थे। उन्हें इस मानवीय त्रासदी से कुछ लेना-देना नहीं था। अखबारों में छपने वाले समाचार नयी व्यवस्था के चलते फैजाबाद तक में ही सीमित रह जाते थे। बस्ती जैसे करीबी शहर में केवल संक्षिप्त सूचनाएॅं मिलती थीं।
साम्प्रदायिकता को भड़काने के लिए अफवाहों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। उदाहरण के लिए तनाव की घटनाओं को तोड़-मरोड़कर और बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया। कुछ लोगों ने भदरसा में हिन्दुओं की सामूहिक हत्याओं की अफवाह फैलायी तो कुछ ने हिन्दू गॉवों के बीच स्थिति मुस्लिम गॉंवों के खात्में का प्रचार किया। वास्तव में दोनों बातें सच्चाई से कोई सम्बन्ध नहीं रखती थीं। दोनों समुदाय के लोगों को चाहिए कि किसी भी अपुष्ट और भ्रामक सूचनाओं को सही न मानें और शान्ति बनाए रखें।
फैज़ाबाद में हुए साम्प्रदायिक उपद्रव इस ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि हमारे समाज और राजनीति से साम्प्रदायिकता समाप्त नहीं हुई है। फैज़ाबाद जैसे शान्तिप्रिय शहर में दंगों का होना एक बुरा संकेत है क्योंकि यह शहर बड़ी विपरीत परिस्थितियों में भी शान्त और संयत रहा है। ऐसे में हमें यह जान लेना चाहिए कि आगे साम्प्रदायिकता की राजनीति खड़ी है जिसके रास्ते में हिंसा ही हिंसा है। मिशन 2014 में साम्प्रदायिक राजनीति हावी हो सकती है और वह अपार जन और धन की हानि की ओर ले जा सकती है, यदि उसका ठीक से मुकाबला न किया गया। निश्चित रूप से हमें साम्प्रदायिकता से विभिन्न स्तरों पर निपटना पड़ेगा। समाज, संस्कृति और राजनीति इन तीनों स्तर पर संघर्ष किये बिना उसे पराजित या कमजोर कर पाना संभव न होगा। धर्मनिरपेक्षता तब तक साम्प्रदायिकता पर विजय न प्राप्त कर सकेगी जब तक उसकी संस्कृति को जनसामान्य तक न पहुॅंचाया जाय। यह कार्य धर्मनिरपेक्ष राजनीति अकेले नहीं कर सकती, इसके लिए साहित्य, नाटक, कला और संस्कृति के लोगों को भी जुटना होगा। इस अर्थ में राजनीतिज्ञों के अतिरिक्त बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखको और संस्कृतिकर्मियों की महती साम्प्रदायिकता विरोधी भूमिका बनती है।
- प्रो. रघुवंशमणि

कर्जमाफी की घोषणा छूट का पुलिंदा और किसानों के साथ छलावा - हर किसान के कर्ज में से 50 हजार तक का कर्जामाफी को भाकपा चलायेगी अभियान

लखनऊ 23 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने कल राज्य सरकार द्वारा किसानों के 50 हजार तक के कर्जे माफ करने की घोषणा को छूट का पुलिंदा और किसानों के साथ छलावा बताया है। भाकपा का आरोप है कि एक बार फिर राज्य सरकार की कथनी और करनी का अंतर सामने आ गया है। भाकपा ने सरकार से मांग की है कि वह हर बैंक के हर तरह के किसानों के कर्जे में से 50 हजार रूपये माफ करे। पार्टी ने चेतावनी दी है कि वह इस सवाल को जनता के बीच ले जायेगी और किसानों के हित में आन्दोलन खड़ा करेगी।
भाकपा राज्य सचिव मंडल की ओर से यहां जारी एक प्रेस बयान में राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि मुख्यमंत्री की इस घोषणा में भी झोल ही झोल हैं और इससे किसानों को कोई राहत नहीं मिलने जा रही। चुनाव के बाद से ही कर्ज माफी के इंतजार में बैठा किसान ठगा महसूस कर रहा है और राहत के बजाय वह कर्ज के जाल में उलझ कर रह गया है।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि जिस सहकारी ग्राम्य विकास बैंक से दिये गये कर्ज की माफी की घोषणा मुख्यमंत्री ने की है, उससे बहुत ही कम किसान कर्ज लेते हैं। उसकी साख समाप्त हो चुकी है और किसानों की जमीनें जब्त करने के लिए यह बैंक कुख्यात रही है। किसान इसे ‘भूमि विनाश बैंक’ कह कर पुकारते हैं। तभी तो प्रान्त में 10 करोड़ के लगभग किसान हैं और उनमें लगभग 90 प्रतिशत कर्जदार हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री की घोषणा के दायरे में केवल 7 लाख 20 हजार किसान ही आ रहे हैं।
शेष किसानों को इससे कोई राहत नहीं मिल पा रही क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीयकृत बैंकों, जिला सहकारी बैंकों तथा ग्रामीण बैंकों से कर्ज ले रखा है। और जब किसान कर्ज लेता है तो 50 हजार तक ही नहीं लेता, अपनी जरूरत के मुताबिक ही अधिक भी कर्ज लेता है। इन बैंकों के कर्जों को सरकार ने माफ नहीं किया है।
दूसरे सरकार ने 50 हजार तक के कर्जे माफ करने की घोषणा की है जबकि हर कर्जदार किसान के हर कर्जे में से 50,000 रूपये माफ किये जाने चाहिए। सरकार की यह शर्त कि उसी किसान का कर्ज माफ होगा जिसने मार्च 2012 तक 10 प्रतिशत रकम अदा कर दी है, पूरी घोषणा को ही बेमानी कर देती है। किसान रबी की फसल के लिए अक्सर अक्टूबर-नवम्बर में कर्ज लेते हैं, जिसकी अदायगी मई-जून में देय होती है। फिर कौन किसान बिना फसल पैदा हुये मार्च में कर्ज का 10 प्रतिशत अदा कर देगा? अतएव अधिकतर किसान इस घोषणा के अंतर्गत कर्जमाफी से वंचित रह जायेंगे।
इसके अलावा कई छोटे किसान डेयरी, मुर्गी, सुअर तथा मछली पालन जैसे कामों के लिए भी कर्ज लेते हैं, उनको भी कोई राहत नहीं दी गयी है।
भाकपा ने इस झूठी घोषणा को सिरे से नकार दिया है और सरकार से मांग की है कि वह सभी बैंकों से सभी तरह के कर्ज लेने वाले किसानों के सभी तरह के कर्जों में से 50 हजार रूपये माफ करने की घोषणा करे। भाकपा ने चेतावनी दी है कि यदि इस सरकार ने किसानों से किये गये वायदे के अनुसार 50 हजार रूपये प्रति किसान कर्ज माफ नहीं किया तो भाकपा जिलों-जिलों में आन्दोलन चलायेगी। पार्टी ने अपनी जिला इकाईयों को स्थानीय स्तर पर आंदोलन संगठित करने के निर्देश भी दिये हैं।

कार्यालय सचिव

Sunday, November 18, 2012

शान्ति एवं सौहार्द के प्रतीक फैजाबाद को बरबाद नहीं होने दिया जायेगा और न ही उत्तर प्रदेश को गुजरात बनने दिया जायेगा - भाकपा

लखनऊ 19 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य एवं राज्य सचिव डा. गिरीश, राज्य कार्यकारिणी सदस्य अतुल कुमार सिंह, जिला सचिव राम तीरथ पाठक, सह सचिव रामजी राम यादव, प्रो. रघुवंशमणि, आफताब रिज़वी तथा अशोक कुमार तिवारी ने दो दर्जन से भी अधिक स्थानीय नेताओं के साथ फैजाबाद जनपद के दंगा प्रभावित क्षेत्रों का सघन भ्रमण किया। भाकपा नेता शाहगंज एवं भदरसा में दंगे में मृतकों के परिवारीजनों से मिले और उनके प्रति अपनी संवेदनाओं का इज़हार किया। उपर्युक्त स्थानों सहित फैजाबाद नगर में दंगों में आगजनी एवं लूट से प्रभावित सम्पत्तियों का जायजा लिया तथा पीड़ितों की आप बीती सुनी।
फैजाबाद से यहां लौट कर भाकपा राज्य सचिव ने निम्न प्रेस वक्तव्य जारी किया है।
”फैजाबाद के दंगा प्रभावित क्षेत्रों का सघन दौरा करने के उपरान्त भाकपा प्रतिनिधिमंडल इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि ये वारदातें साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतों के तात्कालिक और दीर्घकालिक राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चलाई जा रही उनकी लगातार मुहिम का परिणाम हैं। अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ये ताकतें आगामी लोकसभा चुनाव में वोटों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण  करना चाहती हैं।
भाकपा प्रतिनिधिमंडल इस नतीजे पर पहुंचा है कि इन दंगों और दंगाईयों से निपटने में शासन-प्रशासन ने भारी ढिलाई दिखाई। इससे प्रदेश में सत्तारूढ़ दल की दोगली कार्यनीति उजागर हुई है। शासन-प्रशासन ने समय रहते कारगर कार्रवाई की होती तो दंगाईयों के मनोबल को तोड़ा जा सकता था तथा जान एवं माल की तबाही को कम किया जा सकता था। राम लीला और दुर्गा पूजा महोत्सवों जैसे आस्था के आयोजनों में आपत्तिजनक कैसेटों को बजाये जाने पर प्रशासन ने यदि उचित कार्यवाही की होती तो संभवतः दंगाइयों का हौसला इतना न बढ़ पाता।
ऐसा लगता है कि बाबरी विध्वंस के बाद अपनी प्रासंगिकता गंवा बैठा संघ परिवार अपनी खोई हुई ताकत और जमीन को फिर से हासिल करने के काम में जुटा है। गोरखपुर, फैजाबाद, वाराणसी, मुरादाबाद, बरेली, मेरठ, सहारनपुर, आगरा, अलीगढ़, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, झांसी आदि संवेदनशील मंडल इसके निशाने पर हैं। इस बार ग्रामीण क्षेत्रों पर भी फोकस है, जहां संघ की शाखायें नये सिरे से संगठित की जा रही हैं और दूसरे शहरों से लाकर ट्रेन्ड स्वयंसेवक सांगठनिक काम में जुटाये गये हैं। इन दंगों के बाद ग्रामों की लगने वाली शाखाओं में युवकों की आमद बढ़ी है और यही संघ चाहता भी है। अंतर्राष्ट्रीय हालातों और प्रदेश में सत्ता परिवर्तन से उत्साहित अन्य कट्टरपंथी ताकतें भी उकसावे और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही हैं। हाल ही में जन्मी कुछ मुस्लिम राजनीतिक पार्टियां भी साम्प्रदायिक विभाजन के काम में लगी हैं ताकि धर्मनिरपेक्ष ताकतों से अल्पसंख्यक समुदाय को अलग किया जा सके।
क्षति के आकलन और मुआवजे के मामलों में सरकारी मशीनरी का रवैया बेहद खराब है और राज्य सरकार की घोषित नीतियों के एकदम विपरीत है। बिना गहरी छान-बीन के धकड़-पकड़ का काम भी बेरोकटोक जारी है जिससे आक्रोश बढ़ रहा है। भाकपा प्रदेश में सात माह में हुये दर्जन भर से अधिक दंगों से बेहद चिन्तित है जिनसे कि हमारे साम्प्रदायिक सौहार्द और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को भारी क्षति पहुंच रही है। प्रदेश भर में जान-माल का भारी नुकसान हुआ है। विकास की गति को भी क्षति पहुंची है।
भाकपा राज्य कमेटी ने इन हालातों को देखते हुये एक ओर सद्भाव का वातावरण निर्मित करने का बीड़ा उठाया है, वहीं देश एवं प्रदेश की शोषित-पीड़ित जनता के उत्थान और प्रदेश के विकास के लिए आवाज उठाने का कार्यक्रम भी बनाया है। शांति और सौहार्द के प्रतीक फैजाबाद को बर्बाद नहीं होने दिया जायेगा और न ही उत्तर प्रदेश को गुजरात बनने दिया जायेगा, भाकपा ने संकल्प लिया है।
तत्कालिक तौर पर भाकपा 1 दिसम्बर को साम्प्रदायिक सद्भाव एवं धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हेतु पूरे प्रदेश में सम्मेलन, सभायें, गोष्ठियां एवं शांति मार्च आयोजित करेगी। 10 दिसम्बर को दलितों एंव आदिवासियों के लिये बनाई गई योजनाओं को अमली जामा पहनाने की मांग को लेकर धरने-प्रदर्शन किये जायेंगे। पूरे नवम्बर और दिसम्बर माह एफडीआई के विरूद्ध कन्वेंशन आयोजित किये जायेंगे तथा एपीएल-बीपीएल के फर्जी वर्गीकरण को समाप्त कर हर परिवार को हर माह 2 रूपये किलो के हिसाब से 35 किलो अनाज मुहैया कराने की कानूनी गारंटी सहित सभी को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के लिए सभायें एवं हस्ताक्षर अभियान चलाया जायेगा।“
भाकपा नेताओं ने वहां इप्टा एवं नौजवान सभा द्वारा आयोजित सद्भावना मार्च में भी भाग लिया।
भाकपा के प्रतिनिधिमंडल में प्रमुख रूप से शामिल थे - अयोध्या प्रसाद तिवारी, हृदय राम निषाद, यासीन बेग, अवधेश निषाद, मो. मुजीब, लक्ष्मण, गौतम तथा फूल चन्द्र आदि।

Saturday, November 17, 2012

गर्म हवा के निर्देशक एम.एस. सथ्यू से पवन मेराज़ की बातचीत

पवन मेराज : गर्म हवा 1974 में रिलीज हुई, आज गर्म हवा की क्या प्रासंगिकता है ?
एम.एस.सथ्यू: कभी-कभी ऐसी फिल्में बन जाती है जो अपने मायने कभी नहीं खोतीं। वैसे भी आजकल हम धर्म जाति, और क्षेत्रीयता को लेकर अधिक संकीर्ण होकर सोचने लगे हैं। इन सब सच्चाइयों को देखते हुए गर्म हवा की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
पवन: ऐसे समय में कला की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी बनती है।
सथ्यू: समाज के यथार्थ को सामने लाना ही कला की मुख्य जिम्मेदारी हैं। मैं इस बात का हामी नहीं कि कला सिर्फ कला के लिये होती है। कला के सामाजिक सरोकार होते हैं।
पवन: लेकिन व्यवसायिक सिनेमा भी तो यथार्थ को अपनी तरह से सामने लाता है फिर समानांतर सिनेमा इससे अलग कैसे ?
सथ्यू: वे बेसिकली पैसा बनाते हैं। उनके लिये समस्याएं भी बिकाऊ माल हैं। गरीबी से लेकर विधवा के आंसू तक के हर संेटीमेंट को वे एक्सप्लाइट करते हैं। समस्याओं को देखने का नजरिया, समाज के प्रति कमिटमेण्ट और समानांतर सिनेमा का ट्रीटमेंट ही इसे व्यावसायिक सिनेमा से अलग करता है।
पवन: अपने ट्रीटमेंट में गर्म हवा कैसे अलग है ?
सथ्यू: देखिये पहली बात हो हम एक विचारधारा से जुड़े हुए लोग थे इसीलिये यह फिल्म बन पायी। ‘पूरी फिल्म इस्मत चुगताई की एक कहानी से प्रभावित है। एक पात्र राजिंदर सिंह बेदी की कहानी से भी प्रेरित था। आपको हैरानी होगी पूरी फिल्म आगरा और फतेहपुर सीकरी में शूट की गयी। इसमें बनावटी चीज कुछ भी नहीं है। आज इस तरह सोचना भी मुश्किल है। आज की फिल्मों में बहुत बनावटीपन है। कहानी हिन्दुस्तान की होती है शूटिंग विदेश में... (हँसते हैं) शादियाँ तो ऐसे दिखाई जाती हैं गोया सारी शादियाँ पंजाबी शादियों की तरह ही होती हैं। इस फिल्म में दृश्यों की अर्थवत्ता और स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिये कम से कम सोलह ऐसे सीन हैं जिसमें एक भी कट नहीं है। कैमरे के कलात्मक मूवमेंट द्वारा ही यह सम्भव हो सका। आज के निर्देशक ऐसा नहीं करते।
पवन: बिना कट किये पूरा सीन फिल्माना तो कलाकारों के लिये भी चुनौती रही होगी ?
सथ्यू: वे सब थियेटर के मंजे हुए कलाकार थे जिन्हें डायलाग से लेकर हर छोटी से छोटी बात याद रहती थी... यहां तक भी कितने कदम चलना है और कब घूमना है...रंगमंच का अनुभव कलाकारों को परिपक्व बना देता है। इसलिये कभी कोई दिक्कत पेशन नहीं आयी।
पवन: इस फिल्म के उस मार्मिक सीन में जब नायिका मर जाती है तो पिता के रोल में बलराज साहनी की आँखों से कोई आँसू नहीं गिरता यह बात दुख को और बढ़ा देती है ?
सथ्यू: असल में बलराज जी की जिंदगी में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। उनकी एक बेटी ने आत्महत्या कर ली थी। बलराज उस शूटिंग से लौट कर आये थे और उन्होंने कुछ इसी तरह सीढ़ियाँ चढ़ी थीं जैसा फिल्म में था। बलराज उस समय इतने अवसन्न हो गये थे कि रो भी नहीं पाये। उस वक्त उनसे पारिवारिक रिश्तों के चलते मैं वहीं था। फिल्म बनाते समय मेरे जेहन में वहीं घटना थी पर मैं बलराज जी से सीधे-सीधे नहीं कह सकता था इसलिये मैंने सिर्फ इतना कहा कि आपको इस सीन में रोना नहीं है.. बलराज समझ गये और उन्होंने जो किया था आपके सामने है।
पवन: इस फिल्म का अंत भी बहुत सकारात्मक था ?
सथ्यू: दरअसल यह भी बलराज जी का ही योगदान था। उन्होंने ही इस तरह के अंत को सुझाया। वे बहुत समर्थ कलाकार थे। ‘दो बीघा जमीन’, ‘गर्म हवा’ और दूसरी कई फिल्मों में अपने शानदार अभिनय के बावजूद उन्हें कभी नेशनल अवार्ड नहीं मिला तो सिर्फ इसलिये क्योंकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर थे। हम डेमोक्रेसी में रहते हैं और फिर भी ऐसी बातें हो जाया करती हैं।
पवन: फिल्म रिलीज होने के बाद खुद बलराज जी की क्या प्रतिक्रिया थी ?
सथ्यू: दुर्भाग्य से वो यह फिल्म रिलीज होने तक जिंदा नहीं रहे। फिल्म के अंत में जब वे कहते कि मै। इस तरह अब अकेला नहीं जी सकता और संघर्ष करती जनता के लाल झण्डे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं यह उनके अभिनय जीवन का भी अंतिम शॉट था।
पवन: एक कलाकार की राजनैतिक भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं ?
सथ्यू: जी हाँ, बिलकुल ! कोई भी चीज राजनीति से अलग नहीं है। कलाकार का भी एक राजनीतिक कमिटमेंट होता है और उनकी कला में भी दिखता भी है। अगर कोई यह कहता है कि उसका राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं है तो वह अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है।
पवन: कला, समाज को प्रभावित करती है लेकिन समाज, कला को किस तरह प्रभावित करता है?
सथ्यू: मैं दोनों को अलग करके नहीं देखता। समाज के तत्कालीन प्रश्न ही कलाकृति का आधार बनते हैं। वे बुराइयाँ हैं जिन्हें हम लंबे समय से स्वीकार करते आ रहे हैं, एक कलाकार उन्हेे अपनी कला के जरिये समाज के सामने दुबारा खोलकर रखता है और अपने प्रेक्षक को उन पर सोचने को मजबूर कर देता है।
पवन: 70 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी मूवमेंट के उभार से लगभग हर कला, साहित्य और फिल्म प्रभावित रही, ‘इप्टा’ जैसा सांस्कृतिक आंदोलन भी चला। लेकिन अब वह उतार पर नजर आता है। ऐसा क्यों?
सथ्यू: देखिये, जहां तक मूवमेंट का सवाल है। इसने हमें एक सपना दिया- ‘बेहतर दुनिया का सपना’। हम सब इससे प्रभावित थे। मैंने पहले भी कहा आंदोलन से जुड़े होने के कारण ही हम लोग ‘गर्म हवा’ बना सके। लेकिन यह ग्लोबलाइजेशन का दौर है और हम बदलती परिस्थितियों के हिसाब से खुद को नया नहीं बना सके, इसीलिये ऐसा हुआ। मार्क्स ने भी कहा था-यह परिवर्तन का दर्शन है। हमें इस तरफ भी सोचना होगा।
पवन: लेकिन आज आंदोलन की हर धारा इस पर विचार कर रही है और नित नए प्रयोग हो रहे हैं। नेपाल में माओवादियों का प्रयोग आपके सामने है।
सथ्यू: हाँ, वहाँ कुछ बातें अच्छी हैं। आज कल के जमाने में माओविस्ट रेवोल्यूशन को कंडेम किया जाता है.... लेफ्ट के लोगों ने भी किया है। नक्सलाइट आज भी है। उनकी भी एक आइडियालॉजी है। कहा जाता हैकि वे काफी ंिहंसक भी हो जाते हैं। लेकिन माओवादियों की सरकार के साथ बैठक और उसमें हिस्सा लेने से बहुत फर्क पड़ा है।
पवन: ‘गर्म हवा’ जैसी समानांतर धारा की फिल्में क्या आपको नहीं लगता कि एक विशेष वर्ग में सिमट कर रह जाती हैं। क्या इनका फैलाव आम जनता तक नहीं होना चाहिये ?
सथ्यू: होना चाहिये, यह जरूरी है। लेकिन एक लंबे दौर तक ऐसा हो पाएगा, ऐसा कह पाना संभव नहीं है। फिलहाल ऐसा नहीं हो सकता। साहित्य में भी नहीं होता। घटिया साहित्य ज्यादा छपता और पढ़ा जाता है। मल्टीप्लैक्स में ‘वैलकम’ जैसी फिल्म देखने वाले ऐसी फिल्म नहीं देख सकते। फिल्म देखना भी एक कला है जिसके लिये आँखें होनी चाहिये। इसकी ट्रेनिंग शुरू से ही लोगों को दी जानी चाहिये।
पवन: समानांतर सिनेमा के सामने आज कौन सी चुनौतियाँ हैं ?
सथ्यू: फिल्म बनाना एक महंगा काम है। इसके लिये स्पॉन्सर और प्रोत्साहन की जरूरत होती है। ‘लगान’ की चर्चा ऑस्कर में आने की वजह से भी हुई और इसकी टीम ने फिल्म को वहां प्रदर्शित करने में करोड़ों रूपये फूँक दिए, जिसमें एक नई फिल्म बन सकती थी। मजे की बात यह है कि ‘लगान’ के पास ऑस्कर में नामांकन का वही सर्टिफिकेट है जो ‘गर्म हवा’ को उससे 30-35 साल पहले मिला था। यह फिल्म कान फेस्टिवल में भी दिखाई गई और तब ऑस्कर के चयनकर्ताओं ने इसे ऑस्कर समारोह में दिखाने को कहा। मैं सिर्फ पैसे की तंगी के चलते वहाँ नहीं जा सका। हाँ, मैंने फिल्म भेज दी और इसका सर्टिफिकेट मेरे पास पड़ा है।
पवन: क्या पैसे की तंगी ने फिल्म बनाने की प्रक्रिया में बाधा डाली ?
सथ्यू: फिल्में सिर्फ पैसे से नहीं, पैशन से बनती हैं। (मुस्कराते हैं) लेकिन पैसा भी चाहिये। उस जमाने में 2.5 लाख निगेटिव बनने में लगा। हमारे पास साउंड रिकॉर्डिंग का सामान मुंबई से आता था और उसके साथ एक आदमी भी। इसका 150 रू0 प्रतिदिन का खर्च था और हमारे पास इतने भी नहीं थे। अंततः सारी शूटिंग बिना साउंड रिकार्डिंग के ही हुई। फिल्म बाद में बंबई जाकर डब की गई। तकरीबन 9 लाख कुल खर्चा आया, पूरी फिल्म में। कई कलाकारों को मैं उनका मेहनताना भी नहीं दे सका... मेरे ऊपर बहुत सा कर्जा हो गया और नौ साल लगे इससे उबरने में।
 पवन : इसके अलावा और क्या-क्या समस्याएँ आईं ?
 सथ्यू: खुद की तारीफ नहीं करना चाहिये। लेकिन कहूँगा कि बेहतरीन फिल्म बनी थी और मैं समझता हूँ  कि समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती। लेकिन शुरूआत में रिलीज के लिये इसे सेंसर सर्टिफिकेट नहीं मिला। कहा गया इससे समाज में तनाव फैल सकता है... इस बकवास पर कोई माथा ही पीट सकता था क्योंकि उस समय तमाम लोग कुछ ऐसा कर रहे थे जो समाज पर बुरा प्रभाव डाल रहा था। एक साल की जद्दोजहद के बाद इंदिराजी ने जब खुद पूरी फिल्म देखी और कहा रिलीज कर दो... तब ही इसका रिलीज संभव हो पाया... लेकिन यू.पी. में नहीं। (मुस्कराते हैं)...वहाँ चुनाव होने वाले थे। इस तरह 1973 में तैयार फिल्म 74 में सबसे पहले बंगलौर में रिलीज हो सकी।
 पवन: आप रंगमंच में काफी सक्रिय रहे। फिल्म और रंगमंच में आप मुख्यतः क्या अंतर पाते हैं ?
 सथ्यू: अपनी बात कहने की दो अलग-अलग विधाएं हैं...कैमरे की वजह से काफी सहूलियत हो जाती है लेकिन रंगमंच एक संस्कार है। यहां कलाकार और दर्शक का तादात्म्य स्थापित होता है। यह विधा बहुत पुरानी है और कभी नहीं मरेगी।
 पवन : आपकी दूसरी फिल्मों को ‘गर्म हवा’ जितनी चर्चा नहीं मिली ?
 सथ्यू : ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्म कोई रोज नहीं बना सकता... ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं कभी-कभी। ‘पाथेर पांचाली, सुवर्ण रेखा’ जैसी फिल्में हमेशा नहीं बन सकतीं।
पवन मेराज़ मो. 09179371433
(‘‘प्रगतिशील वसुधा’’ से साभार)

भाकपा द्वारा गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांग

लखनऊ 17 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिवमंडल ने उत्तर प्रदेश सरकार से गन्ने का न्यूनतम समर्थन मूल्य कम से कम रू. 350.00 प्रति क्विंटल निर्धारित करने की मांग की है।
यहां जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि कृषि उत्पादों - खाद, डीजल, बिजली, पानी, बीज की कीमतों में भारी बढ़ोतरी तथा महंगाई को देखते हुए गन्ना उत्पादन की कीमत में भारी बढ़ोतरी हुई है। लागत में हुई बढ़ोतरी तथा बढ़ती महंगाई के कारण किसानों का जीवन दूभर हो गया है। कृषि उत्पादों की कीमतों में हुई बढ़ोतरी के साथ-साथ चीनी के भावों में एक साल में हुई बढ़ोतरी को मद्देनजर रखते हुए वैसे तो गन्ने का समर्थन मूल्य रू. 350.00 प्रति क्विंटल से भी अधिक निर्धारित होना चाहिए परन्तु प्रदेश का किसान रू. 350.00 प्रति क्विंटल पर संतोष कर सकता है।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा है कि प्रदेश की 113 चीनी मिलों में से केवल कुछ ही चीनी मिलों में पेराई अभी शुरू हुई है। आधा नवम्बर गुजर चुका है परन्तु अभी तक अधिकतर चीनी मिलों ने पेराई शुरू नहीं की है। सरकार ने सभी मिलों को पेराई शुरू करने के लिए भी कहना चाहिए जिससे खेतों में खड़ा गन्ना की कीमतें किसानों को मिलना शुरू हो सके।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने गन्ना मिलों पर किसानों के बकाये की अदायगी के बारे में भी सरकार के ढुलमुलपन की आलोचना करते हुए मांग की है कि सरकार को किसानों के बकाया धन की अदायगी के बारे में भी सख्ती करनी चाहिए।

Saturday, November 10, 2012

भाकपा राज्य मंत्रिपरिषद ने लिये आन्दोलन एवं संगठन संबंधी फैसले

लखनऊ 10 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य मंत्रिपरिषद की यहां राज्य सचिव डा. गिरीश की अध्यक्षता में सम्पन्न बैठक में देश एवं प्रदेश की राजनैतिक स्थिति के साथ-साथ पार्टी एवं जन संगठनों द्वारा किये गये कार्यों की गहन समीक्षा की गई तथा आन्दोलन एवं संगठन संबंधी कई निर्णय लिये गये।
उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक हो रही साम्प्रदायिक वारदातों को गंभीरता से लेते हुये पार्टी ने 1 दिसम्बर को ”साम्प्रदायिक सद्भाव एवं धर्मनिरपेक्षता की रक्षा दिवस“ जिलों-जिलों में आयोजित करने का निर्णय लिया गया है। पार्टी कमेटियों को दिये निर्देश में कहा गया है कि साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी ताकतें अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दंगे भड़का रहीं हैं। उनका स्पष्ट लक्ष्य आगामी लोकसभा चुनाव से पूर्ण साम्प्रदायिक विभाजन पैदा कर वोट हथियाना है। राज्य सरकार भी निहित राजनैतिक स्वार्थों एवं दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में दंगों से निपटने में उदासीनता बरत रही है। इससे साम्प्रदायिक सद्भाव एवं धर्मनिरपेक्षता के ताने-बाने को जबरदस्त चुनौती खड़ी हो गयी है, जिसको बचाना सभी धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक ताकतों का फौरी कर्तव्य है। भाकपा की जिला कमेटियां 1 दिसम्बर को कन्वेंशन, सभायें, शान्ति-मार्च आयोजित करेंगी जिनमें वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक व्यक्तियों एवं शक्तियों को भी आमंत्रित किया जायेगा। 6 दिसम्बर को साम्प्रदायिक शक्तियां जो कुछ करने की सोच रही हैं, उसको देखते हुये भी चौकसी और सक्रियता जरूरी है।
भाकपा राज्य मंत्रिपरिषद ने अपने पिछले फैसले को दोहराते हुये 10 दिसम्बर मानवाधिकार दिवस को ”अनुसूचित जाति, जनजाति उपयोजनाओं को लागू करो दिवस“ के रूप में मनाने का आह्वान किया है तथा जिला केन्द्रों पर धरने/प्रदर्शन आयोजित कर राष्ट्रपति को सम्बोधित ज्ञापन दिये जाने का निर्देश दिया है।
केन्द्र सरकार द्वारा खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश लागू करने और खाद्य सुरक्षा बिल अभी तक लागू न करने के सवाल को गंभीरता से लेते हुये भाकपा मंत्रिपरिषद ने इन दोनों सवालों पर लगातार आन्दोलन एवं जन जागरूकता अभियान चलाने का निश्चय किया है। ‘एफडीआई रद्द करो, सबको खाद्य सुरक्षा दो’ अभियान के तहत पूरे दिसम्बर महीने सभायें, नुक्कड़ सभायें, कन्वेंशन, धरने, प्रदर्शन चलाने का निर्देश जिला कमेटियों को दिये हैं। कन्वेंशनों में राज्य नेतृत्व के साथी भी भेजे जा सकते हैं।
मुस्लिम अल्पसंख्यकों के समक्ष मौजूद समस्याओं, गरीबी, बेरोजगारी, शैक्षिक पिछड़ापन, जान व माल की असुरक्षा, भेदभाव एवं पुलिस उत्पीड़न के अलावा सच्चर कमेटी एवं रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को लागू न करने से उनकी शोचनीय स्थिति को ध्यान में रखते हुये तथा अल्पसंख्यकों में प्रगतिशील सोच का विकास करने हेतु ‘इंसाफ’ तंजीम के माध्यम से प्रदेश में तीन क्षेत्रीय कन्वेंशन आयोजित करने का भी निर्णय लिया गया है। यह कन्वेंशन पूर्व, पश्चिम और मध्य उत्तर प्रदेश में 31 जनवरी तक आयोजित किये जायेंगे। सदस्यता कराके फरवरी माह में इंसाफ का राज्य सम्मेलन कराने का निर्णय भी इंसाफ ने लिया है।
इसके अलावा ट्रेड यूनियनों के राष्ट्रव्यापी अभियान को भाकपा द्वारा पूर्ण समर्थन दिये जाने का निर्णय भी किया गया।
पार्टी शिक्षा हेतु पार्टी स्कूल लगाने तथा इसके लिये जिला कौंसिलों की बैठक बुलाकर रूपरेखा तैयार करने का निर्देश भी जिला कौंसिलों को दिया गया है।
राष्ट्रीय परिषद द्वारा सदस्यता शुल्क की दर बढ़ाने पर विचारोपरान्त निर्णय लिया गया कि अब राज्य केन्द्र पर प्रति सदस्य शुल्क मय लेवी 20 रूपये देय होगा।

Friday, November 9, 2012

दस दंगे केवल नौ महीने में

एक बार फिर उत्तर प्रदेश के हालात बहुत ही खतरनाक हैं। सपा सरकार को बने केवल नौ महीने हुये हैं और प्रदेश में दस साम्प्रदायिक वारदातें हो चुकी हैं। हर घटना में प्रशासन की लापरवाही ने सरकार की मंशा, कार्यप्रणाली और कार्यकुशलता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। चुनाव के वक्त ही यह आशंका जतायी जा रही थी कि समाजवादी पार्टी की सरकार बनते ही प्रदेश में दंगों और अपराधों की बाढ़ न आ जाये। लोगों ने सरकार तो बना दी परन्तु सरकार ने खुद की साख पर ही बट्टा लगा लिया है। मथुरा, बरेली, प्रतापगढ़, गाजियाबाद, इलाहाबाद, फैजाबाद, बाराबंकी जैसी जगहों पर आज भी तनाव बरकरार है। सरकारी सूत्रों का कहना है कि खुफिया तंत्र ने पहले ही आशंका जता दी थी कि प्रदेश बारूद के ढेर पर बैठा है और कहीं भी कोई भी बड़ी साम्प्रदायिक घटना घट सकती है। सरकारी सूत्रों का यह खुलासा तो सरकार और प्रशासन की मंशा पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। सरकार और प्रशासन ने सुधरने के बजाय घटनाओं की शुरूआत में सुस्ती दिखा कर खुद पर ही सवालिया निशान लगा लिया।
सामान्य जनता समझ नहीं पा रही है कि अचानक प्रदेश में इस तरह दंगों की बाढ़ कैसे आ गयी। लोग अपने-अपने हिसाब से इसकी परिभाषा करने में जुटे हैं। मुख्यमंत्री ने फैजाबाद दंगों के बाद कहा कि ‘यह दंगे उनकी सरकार को बदनाम करवाने के लिये करवाये जा रहे हैं। इसके पीछे कुछ लोगों की साजिश है।’ अगर यह विरोधियों की साजिश है तो मुख्यमंत्री खुद कर क्या रहे हैं? फैजाबाद के दंगों के लगभग 14 दिन बाद प्रशासनिक अधिकारियों को हटाने का फैसला लिया गया है। दंगों के लिए इन प्रशासनिक अधिकारियों को उदारता दिखाते हुए अगर दोषी न भी माना जाये तो कम से कम जिस प्रकार घटनायें घटी थीं, उसमें समय पर कार्यवाही न करने का दोष तो कम से कम इन अधिकारियों द्वारा पर था ही। जिस प्रकार इन अधिकारियों ने अपराधिक सुस्ती दिखाई थी, उसी तरह की सुस्ती मुख्यमंत्री ने उन्हें हटाने का फैसला लेने में दिखाई। क्या मुख्यमंत्री जनता को यह बताने का साहस दिखायेंगे कि इसके पीछे किसकी साजिश थी? वैसे दंगों के पीछे किसी की साजिश थी तो फिर मुख्यमंत्री ने उस साजिश का नाकाम करने के लिए क्या किया, इसे भी जनता जानना चाहेगी। केवल साजिश का बहाना बनाने से सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती।
इन घटनाओं की हकीकत यह है कि मरने वालों में अधिसंख्यक मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। सरकार बनाते ही मुसलमानों के कब्रिस्तानों की बाउंड्री बनवाने की घोषणा की गयी थी। इसके भी निहितार्थ अब तलाशे जाने लगे हैं।
ऐसा नहीं है कि ये हालात सिर्फ इसलिये पैदा हो रहे हैं कि अफसरों का इकबाल खत्म हो चुका है। कानून-व्यवस्था के लिए सरकार लम्बा समय नहीं मांग सकती। वास्तविकता यह है कि मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री का तेवर देख कर ही अधिकारियों के काम करने का रवैया बदल जाता है और अगर तेवर दिखाने के लिए भी समय की जरूरत हो, तो इस पर आश्चर्य जरूर होता है।
2014 के लोकसभा चुनावों में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए यहां के राजनैतिक दल अवसरवादी कदम उठा रहे हैं और उनके हाथों में खेल रही साम्प्रदायिक ताकतें कोई मौका छोड़ना नहीं चाहतीं। इन घटनाओं में जानमाल का नुकसान तो होता ही है पूरे सूबे का सौहार्द भी दांव पर लग जाता है।
वैसे प्रदेश में भाई-चारे के माहौल को तार-तार करने के प्रयास सफल नहीं होंगे। उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब बरकरार रही है और बरकरार रहेगी, इसे प्रदेश की जनता एक बार फिर साबित करेगी। ऐसे समय में धर्मनिरपेक्ष ताकतों और आम जनता की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वे सतर्क रहंे और भविष्य में वोटो के ध्रुवीकरण के लिए किए जाने वाले ऐसे किसी भी संकीर्ण और धृणित प्रयास को असफल कर ऐसी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब दें।
- प्रदीप तिवारी

नन्हे हाथ मलाला

इन नन्हे हाथों से होकर,
आवाज़ उठेजी, गूंजेगी।
इन नन्हे हाथों में बन परचम
आजादी खुलकर झूमेगी।।

ये हाथ खींचकर लायेंगे,
तारीक वक़्त में सूरज को।
ये हाथ उड़ा ले जायेंगे,
उस परीदेश में तितली को।।

ये हाथ करेंगे अब हिसाब,
उन दबी सिसकती फसलों का।
ये हाथ लिखेंगे मुस्तकबिल,
अब आने वाली नस्लों का।।

ये हाथ बनायेंगे अपनी,
शफ्फाफ़ सुनहरी दुनिया को।
वो दुनिया जसमें जंग नहीं,
औरत बच्चों पर जुल्म नहीं,
वो दुनिया जो बस अपनी हो,
बस इतनी की मैं हंस तो सकूं
और हंसने से मिरे,
तुम्हें डर ना लगे।।
(दुनिया की सबसे बहादुर बेटी मलाला युसुफजई के लिए)
- पंकज निगम

Tuesday, November 6, 2012

किसानों की जमीन को बिल्डरों को सौंपने से बाज आये सपा सरकार

लखनऊ 6 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश शासन के आवास एवं शहरी नियोजन अनुभाग-3 की 31 अक्टूबर की उस अधिसूचना को रद्द करने की मांग राज्य सरकार से की है जिसमें कि उसने तहसील सदर लखनऊ के सराय शेख, सेमरा और शाहपुर गांवों की जमीन को इंटीग्रेटेड टाउनशिप के लिए अधिगृहण करने की घोषणा की है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि उपर्युक्त गांवों के किसानों की इस बेहद उपजाऊ जमीन को आवासीय प्रयोजन हेतु अधिग्रहण किये जाने की खबर से वहां के किसानों में बेहद आक्रोश व्याप्त है और वे करो-मरो की लड़ाई पर अमादा हैं। किसानों के हितों को मौजूदा सरकार को ध्यान में रखना चाहिये।
डा. गिरीश ने कहा है कि उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्ड पीठ ने भी 2 नवम्बर को दिये गये एक फैसले में टिप्पणी की है कि शहरों के विकास की अंधी दौड़ अन्न पैदा करने वाली किसानों की जमीन निगल रही है। उसके भयानक परिणाम हो सकते हैं। अदालत ने कहा कि किसान की कुल जमा रोजी-रोटी का सहारा सिर्फ जमीन और उसकी खेती-बाड़ी है। विकास के नाम पर सरकार मिट्टी के मोल उनकी जमीन को हासिल कर लेती है और तत्पश्चात् किसी योजना और जानकारी के अभाव में मुआविजे का पैसा खत्म हो जाने के बाद किसान और उसका पूरा परिवार आर्थिक विपन्नता का शिकार हो जाता है। यह स्थिति उसके बच्चों को गलत कृत्यों की ओर ढकेल सकती है।
डा. गिरीश ने राज्य सरकार से आग्रह किया कि उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी के आलोक में भी राज्य सरकार को अपने इस फैसले को तत्काल रद्द कर देना चाहिये।
ज्ञातव्य हो कि इस इंटीग्रेटेड टाउनशिप का निर्माण लखनऊ के एक जाने-माने बसपा नेता द्वारा किया जा रहा है और इसके अधिग्रहण की धारा 4 के अधीन पहली सूचना एक साल पहले बसपा सरकार के जमाने में जारी की गयी थी। भाकपा ने तब इसका विरोध किया था और बसपा सरकार ने इस मामले को ठंड़े बस्ते में डाल दिया था। लेकिन अब सपा सरकार ने उसे अंतिम रूप से अधिगृहीत करने का फरमान जारी कर दिया है जो यह बताने के लिए काफी है कि किसानों की जमीनों को छीनने के सवाल पर बसपा और सपा में कोई अंतर नहीं है।