हम वृद्धावस्था पेंशनो, विधवा पेंशनों, मातृत्व लाभों के लिये भुगतानों और छात्रवृत्तियों, जैसे कल्याणकारी कार्यों के लिये कैश ट्रांसफर का समर्थन करते हैं। वास्तव में हम में से अनेक सामाजिक सुरक्षा पेंशनों को विस्तारित करने और उन्हे प्रदान करने में बेहतरी के लिये किये जानेवाले संघर्षों का हिस्सा रहे हैं। हम इस उद्देश्य के लिये जनता को फायदा पहुंचाने वाली समुचित आधुनिक टेक्नोलाजी के इस्तेमाल का भी समर्थन करते हैं।
परन्तु इन कैश ट्रांसफरों को ‘आधार’, (यूनीक आइडेंटिटी) से जोड़ने के लिये सरकार की हड़बड़ी एंव जल्दबाजी पर हमें गंभीर आपत्तियां हैं। यह इस कारण कि इन स्कीमों को ‘आधार’ से जोड़ने पर जबरदस्त अस्तव्यस्तता पैदा हो सकती है। जरा उस वृद्ध आदमी के बारे में सोचिए जिसे अभी स्थानीय डाकखाने के जरिये वृद्धावस्था पेंशन मिल रही है। उसे अब ऐसा बैंक खाता खुलवाने के लिये दौड़भाग करनी पड़ेगी जो आधार कार्ड से जुड़ा हो, फिंगर प्रिंट की समस्याओं, कनेक्टिविटी के मुद्दों, बिजली न आने, कामचोर ‘बिजनेस करेस्पोंडेंटों और अन्य तमाम वजहों से हो सकता है उसकी पेंशन ही कुछ महीनों के लिये बंद हो जायें।
हम इस बात के सख्ती के खिलाफ हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये जनता को खाद्य सामग्री एवं अन्य वस्तुओं की सप्लाई के स्थान पर कैश ट्रांसफर (नकदी देना) शुरू कर दिया जाये। इस विरोध के कई कारण हैं।
पहला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले सब्सिडीयुक्त खाद्य पदार्थ देश के करोड़ों गरीब परिवारों के लिये खाद्य एवं आर्थिक सुरक्षा का जरिया है। 2009-10 में, जनवितरण प्रणाली में अंतर्निहित ट्रांसफरो से राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 1/5 और तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लगभग आधा ‘गरीबी अंतर’ (पॉवचर गैप) दूर हुआ। हाल के अनुभव से पता चलता है कि जनवितरण प्रणाली को बिना किसी देर के सुधारा जा सकता है और अधिक कारगर बनाया जा सकता है।
दूसरा, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग व्यवस्था ऐसी नहीं है कि छोटे-छोटे कैश ट्रांसफरों की बड़ी मात्राओं को हैंडल कर सकें। बैंक अक्सर दूर-दूर हैं। और उनमें भीड़-भाड़ है। इसके लिये बैंकिंग करस्पोंडेटों का जो कथित समाधान पेश किया गया है उसमें अनेकानेक समस्याएं आयेंगी। संभवतः डाकघरों को उपयोगी भुगतान एजेंसियों के रूप में बदला जा सकता है, परन्तु इसमें समय लगेगा।
तीसरा, ग्रामीण बाजार अक्सर बहुत कम विकसित हैं। जन वितरण प्रणाली को भंग करने से देश भर में खाद्य पदार्थों का प्रवाह अस्तव्यस्त हो जायेगा और अनेक लोग स्थानीय व्यापारियो और बिचौलियों के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।
चौथा, अकेली महिलाओं, विकलांग लोगों और वृद्ध लोगों जैसे विशेष समूओं की समस्याएं अलग किस्म की हैं, वह अपना पैसा निकालने और दूर बाजार से खाद्य पदार्थ खरीदने के लिये आसानी से नहीं जा सकते।
अंतिम कारण, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है वह यह है कि मुद्रास्फीति कैश ट्रांसफरों की क्रयशक्ति को आसानी से कम कर सकती है। जब हाल यह है कि सरकार पेंशनों या मनरेगा मे मिलने वाली मजदूरी को भी बढ़ती मुद्रास्फीति के अनुरूप बढ़ाने से इंकार करती है तो इस पर कैसे यकीन किया जा सकता है कि वह कैश ट्रांसफरों को महंगाई बढ़ाने के अनुरूप बढ़ा देंगी। यदि यह मान भी लें कि इसमें इस तरह कुछ वृद्धि की जायेगी तो भी उस वृद्धि में अवश्य समय लगेगा और बीच के समय में गरीबों को भारी मुश्किल होगी।
कैश ट्रांसफर स्कीम का राजस्थान के कोटकोसिम में जो प्रयोग किया गया वह कैश ट्रांसफर की योजना की संभावित विफलता का एक जीता जागता उदाहरण हैं यह प्रयोग काफी धूमधड़ाके के साथ शुरू किया था और इसे यह कहकर एक जबरदस्त सफलता के रूप में पेश किया गया कि इससे कैरोसीन की सब्सिडी पर आने वाले खर्च में 80 प्रतिशत की कमी आ गयी। परन्तु हकीकत यह सामने आयी कि इससे केरोसीन की वितरण प्रणाली ही धराशायी हो गयी।
देश में एक ऐसा इम्प्रेशन बना दिया गया है कि सरकार 2014 चुनाव के पहले आधार कार्ड से जुड़ी कैश ट्रांसफर स्कीमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने के लिये तैयार हैं। यह अत्यंत गुमराह करने वाली बात है और लगता यह है कि यह इस बात की कोशिश है कि लोग आधार कार्ड बनवाने के लिये आधार कार्ड बनाने वाले केन्द्रों की तरफ दौड़ पड़े।
सरकार ने एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वायदा किया था। सरकार उसमें विफल रही है। कैश ट्रांसफर की घोषणा से सरकार की इस विफलता से ध्यान डायवर्ट होता है। सरकार ने जो खाद्य सुरक्षा बिल बनाया वह अत्यंत कमजोर है और वह भी पूरे एक साल से स्थायी समिति के पास पड़ा हुआ है। इस बीच देश में खाद्यान्न भंडार अभूतपूर्व पैमाने पर जमा हो रहे हैं। इस समय देश को एक व्यापक खाद्य सुरक्षा की जरूरत है, आधार कार्ड संचालित कैश ट्रांसफरों की ऐसी हड़बड़ी एवं जल्दबाजी की नहीं जिसमे अनेक खतरे निहित हैं।
परन्तु इन कैश ट्रांसफरों को ‘आधार’, (यूनीक आइडेंटिटी) से जोड़ने के लिये सरकार की हड़बड़ी एंव जल्दबाजी पर हमें गंभीर आपत्तियां हैं। यह इस कारण कि इन स्कीमों को ‘आधार’ से जोड़ने पर जबरदस्त अस्तव्यस्तता पैदा हो सकती है। जरा उस वृद्ध आदमी के बारे में सोचिए जिसे अभी स्थानीय डाकखाने के जरिये वृद्धावस्था पेंशन मिल रही है। उसे अब ऐसा बैंक खाता खुलवाने के लिये दौड़भाग करनी पड़ेगी जो आधार कार्ड से जुड़ा हो, फिंगर प्रिंट की समस्याओं, कनेक्टिविटी के मुद्दों, बिजली न आने, कामचोर ‘बिजनेस करेस्पोंडेंटों और अन्य तमाम वजहों से हो सकता है उसकी पेंशन ही कुछ महीनों के लिये बंद हो जायें।
हम इस बात के सख्ती के खिलाफ हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये जनता को खाद्य सामग्री एवं अन्य वस्तुओं की सप्लाई के स्थान पर कैश ट्रांसफर (नकदी देना) शुरू कर दिया जाये। इस विरोध के कई कारण हैं।
पहला, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से मिलने वाले सब्सिडीयुक्त खाद्य पदार्थ देश के करोड़ों गरीब परिवारों के लिये खाद्य एवं आर्थिक सुरक्षा का जरिया है। 2009-10 में, जनवितरण प्रणाली में अंतर्निहित ट्रांसफरो से राष्ट्रीय स्तर पर लगभग 1/5 और तमिलनाडु और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में लगभग आधा ‘गरीबी अंतर’ (पॉवचर गैप) दूर हुआ। हाल के अनुभव से पता चलता है कि जनवितरण प्रणाली को बिना किसी देर के सुधारा जा सकता है और अधिक कारगर बनाया जा सकता है।
दूसरा, ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग व्यवस्था ऐसी नहीं है कि छोटे-छोटे कैश ट्रांसफरों की बड़ी मात्राओं को हैंडल कर सकें। बैंक अक्सर दूर-दूर हैं। और उनमें भीड़-भाड़ है। इसके लिये बैंकिंग करस्पोंडेटों का जो कथित समाधान पेश किया गया है उसमें अनेकानेक समस्याएं आयेंगी। संभवतः डाकघरों को उपयोगी भुगतान एजेंसियों के रूप में बदला जा सकता है, परन्तु इसमें समय लगेगा।
तीसरा, ग्रामीण बाजार अक्सर बहुत कम विकसित हैं। जन वितरण प्रणाली को भंग करने से देश भर में खाद्य पदार्थों का प्रवाह अस्तव्यस्त हो जायेगा और अनेक लोग स्थानीय व्यापारियो और बिचौलियों के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।
चौथा, अकेली महिलाओं, विकलांग लोगों और वृद्ध लोगों जैसे विशेष समूओं की समस्याएं अलग किस्म की हैं, वह अपना पैसा निकालने और दूर बाजार से खाद्य पदार्थ खरीदने के लिये आसानी से नहीं जा सकते।
अंतिम कारण, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है वह यह है कि मुद्रास्फीति कैश ट्रांसफरों की क्रयशक्ति को आसानी से कम कर सकती है। जब हाल यह है कि सरकार पेंशनों या मनरेगा मे मिलने वाली मजदूरी को भी बढ़ती मुद्रास्फीति के अनुरूप बढ़ाने से इंकार करती है तो इस पर कैसे यकीन किया जा सकता है कि वह कैश ट्रांसफरों को महंगाई बढ़ाने के अनुरूप बढ़ा देंगी। यदि यह मान भी लें कि इसमें इस तरह कुछ वृद्धि की जायेगी तो भी उस वृद्धि में अवश्य समय लगेगा और बीच के समय में गरीबों को भारी मुश्किल होगी।
कैश ट्रांसफर स्कीम का राजस्थान के कोटकोसिम में जो प्रयोग किया गया वह कैश ट्रांसफर की योजना की संभावित विफलता का एक जीता जागता उदाहरण हैं यह प्रयोग काफी धूमधड़ाके के साथ शुरू किया था और इसे यह कहकर एक जबरदस्त सफलता के रूप में पेश किया गया कि इससे कैरोसीन की सब्सिडी पर आने वाले खर्च में 80 प्रतिशत की कमी आ गयी। परन्तु हकीकत यह सामने आयी कि इससे केरोसीन की वितरण प्रणाली ही धराशायी हो गयी।
देश में एक ऐसा इम्प्रेशन बना दिया गया है कि सरकार 2014 चुनाव के पहले आधार कार्ड से जुड़ी कैश ट्रांसफर स्कीमों को बड़े पैमाने पर शुरू करने के लिये तैयार हैं। यह अत्यंत गुमराह करने वाली बात है और लगता यह है कि यह इस बात की कोशिश है कि लोग आधार कार्ड बनवाने के लिये आधार कार्ड बनाने वाले केन्द्रों की तरफ दौड़ पड़े।
सरकार ने एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वायदा किया था। सरकार उसमें विफल रही है। कैश ट्रांसफर की घोषणा से सरकार की इस विफलता से ध्यान डायवर्ट होता है। सरकार ने जो खाद्य सुरक्षा बिल बनाया वह अत्यंत कमजोर है और वह भी पूरे एक साल से स्थायी समिति के पास पड़ा हुआ है। इस बीच देश में खाद्यान्न भंडार अभूतपूर्व पैमाने पर जमा हो रहे हैं। इस समय देश को एक व्यापक खाद्य सुरक्षा की जरूरत है, आधार कार्ड संचालित कैश ट्रांसफरों की ऐसी हड़बड़ी एवं जल्दबाजी की नहीं जिसमे अनेक खतरे निहित हैं।
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