यह अंदर की बात है, पुलिस
हारे साथ है दंगाई विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल एवं शिवसैनिकों ने 6
दिसंबर, 1992 को पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की उपस्थिति में यह नारा लगाते
हुए बाबरी मस्जिद को विध्वंस कर डाला था।
कोई राज्य चाहे लोकतांत्रिक हो या तानाशाही पद्धति से चलता हो, उदारवादी हो या मार्क्सवादी, धर्मनिरपेक्ष हो या मज़हबी एक संगठित पुलिस व्यवस्था उसके लिए जरूरी है। हर राज्य के लिए पुलिस संगठन अपरिहार्य और अनिवार्य है। पुलिस बल राज्य के व्यवस्था तंत्र का एक हिस्सा होता है। पुलिस का मख्य उत्तरदायित्व नागरिक कानून लागू करना और बनाये रखना है। पुलिस बल जब राजनीतिक भावना से संचालित होने लगे, अगर यह सांप्रदायिक, जातिवादी या कोई दूसरे सामाजिक पूर्वगग्रह से प्रभावित हो जायेगा। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान ऐसा दिखाई भी देता है।
भारत एक सार्वभौमिक राष्ट्र है। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं तथा राजनीतिक मान्यताओं वाले लोग रहते हैं। विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक मान्यताओं वाले लोगों की मौजूदगी की वजह से भारत में अलग-अलग तरह के परस्पर विरोध एवं आंतरिक कलह की संभावना बनी रहती है। इन परिस्थितियों में पुलिस को, जिससे कानून की रखवाली और लोगों की जिंदगी एवं आजादी को बिना भेदभाव के सुरक्षा करने के अपेक्षा की जाती है, और अधिक सक्रिय एवं सकारात्मक भूमिका निभाने की जरूरत है। लेकिन भारत में पुलिस बल का जो प्रदर्शन रहा है वह अपने जरूरी लक्ष्य से बहुत पीछे है। पुलिस बल हमारे समाज का एक बेहद नफरत से देखा जाने वाला संगठन है। अपने अत्याचारों एवं मानवाधिकारों के घृणित उल्लंघन की वजह से पुलिसवालों को कभी-कभी ‘वर्दीवाले अपराधी’ भी कहा जाता है।
हमारे देश में पुलिस और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता नहीं है, और सामान्य रूप से भारतीय समाज की नजर में पुलिस की सकारात्मक छवि नहीं है, लेकिन अल्पसंख्यक तो विशेष रूप से पुलिस पर अपना विश्वास पूरी तरह खो चुके हैं। दलित भी पुलिस के हाथों प्रताड़ित होते रहे हैं, लेकिन नौकरियों में आरक्षण की वजह से इस विभाग में उनकी संख्या बढ़ गयी है, जिससे उन पर होने वाले अत्याचार कम हो गये हैं। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि सामान्य परिस्थितियों में पुलिस के दुर्वव्यहार और इस विभाग के संस्थागत भ्रष्टाचार की वजह से बहुसंख्यकों एंव अल्पसंख्यकों को समान रूप से परेशान होना पड़ता है। लेकिन साम्प्रदायिक दंगों या फिर दंगे जैसी परिस्थितियों में पुलिस योजनाबद्ध तरीके से जान-बूझकर अल्पसंख्यकों को परेशान करती है। वर्ष 1969 में अहमदाबाद के साम्प्रदायिक दंगों, 1980 के मुरादाबाद दंगों, 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1987 के मेरठ दंगों, 1989 के भागलपुर दंगों, 1992-93 के मुंबई दंगों से लेकर 2002 में गुजरात में हुए जनसंहार से संबंधित कागजातों के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है।
वर्ष 1977 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक भीषण सांप्रदायिक दंगा हुआ था। यहां फिर से पुलिस पर सांप्रदायिक दुर्भावना और भेदभाव रवैये का आरोप लगा था।
वहाँ पर, पुलिस ने न सिर्फ लूटपाट और आगजनी में खुलेआम हिस्सा लिया था बल्कि मस्जिदों एवं मकबरों का विध्वंस भी किया था। दो मकबरों को पूरी तरह से नेस्तानाबूद कर दिया गया था और तीन मस्जिदों को इस बुरी तरह से विध्वंसित कर दिया गया कि यह विश्वास करना मुश्किल था कि कुछ सौ लोगों की भीड़ को मनचाहे समय तक तोड़-फोड़ करने के लिए पुलिस ने प्रोत्साहित किया था।
वर्ष 1980 के मुरादाबाद दंगों ने भारतीय पुलिस के दुखद इतिहास में एक और अध्याय जोड़ दिया था। यह दंगा मुस्लिम विरोधी पीएसी द्वारा गलत तरीके से अपनी ताकत का इस्तेमाल करने की वजह से भड़का था। वह आजाद भारत के इतिहास का एक काला दिन था, जब ईद (खुशी और भाईचारे के त्यौहार) के दिन अंधाधुंध फायरिंग द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाया गया था। प्रोफेसर सतीश सबरवाल और प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने दंगा प्रभावित शहर का दौरा कर अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें पुलिस और पीएसी को मुसलमानों के खिलाफ मनमानी और निर्दयता का दोषी ठहराया गया था। रिपोर्ट में लिखा गया था, शहर की पुलिस ने कई हफ्तों तक मुसलमानों को पीटने, लूटने और मारने वाले संगठित बल की तरह काम किया। पीएसी ने विशेष रूप से एक संप्रदाय के सांप्रदायिक तत्वों एवं गुंडों के साथ मिलकर सांठ-गांठ की थी। यही नहीं न्यायपालिका सहित व्यवस्था के विभिन्न अंगों ने एक तरह से स्थानीय पुलिस एवं पीएसी समर्थक रवैया अपनाया था।
1984 के सिख विरोधी दंगों ने भी बताया कि जब बहुसंख्यक संप्रदाय का जुनून हद से गुजरता है तब सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में किसी भी धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न और यहाँ तक कि नरसंहार का खतरा रहता है। इंदिरा गांधी की हत्या उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा किया जाना बहुसंख्यक संप्रदाय के लिए पूरे सिख संप्रदाय को निशाने पर लिये जाने के लिए पर्याप्त था। सिर्फ दिल्ली में हुए दंगों मंे लगभग 3000 निर्दोष सिखों का कत्लेआम कर दिया ग्या। दिल्ली के सिख विरोधी दंगो की जाँच करने के लिए गठिन रंगनाथ मिश्र आयोग ने कहा कि पुलिस द्वारा सिखों की सुरक्षा एवं स्थिति को नियंत्रण करने में दर्शायी गयी ‘पूर्ण निष्क्रियता’, निर्दयता तथा भेदभाव की वजह से दंगे हुए। पुलिस ने सिर्फ अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया, बल्कि सिखों के खिलाफ होने वाले जनसंहार और लूटपाट में भी हिस्सा लिया।
लेखक ने स्वयं अपनी आंखों से 1984 के सिख विरोधी दंगों में देखा है। जहां पर पुलिस तीन दिन तक न केवल मूक दर्शन बनी रही बल्कि दंगाइयों को पेट्रोल-डीजल एवं अन्य ज्वलनशील पदार्थ भी अपनी गाड़ियों से सप्लाई करती रही।
मुझे याद है कि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव स्वर्गीय सी. राजेश्वर राव ने क्षेत्र का दौरा करते हुए हम तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिया कि कॉमरेड आप लोग, आग में कूदकर सिखो की जान-माल की रक्षा करें। आज हमें गर्व है कि उस समय हम सभी कामरेडों ने ऐसा ही किया था।
मई 1987 में मेरठ में हुए दंगों ने एक बार फिर से पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया। इन दंगों की तुलना जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों के कत्लेआम से की गयी। मई 1987 के मेरठ दंगो के दौरान पीएसी ने हाशिमपुरा के मुस्लिम युवाओं को गिरफ्त में लेने के बाद उन्हें ट्रक में डालकर एक नहर के पास लाकर गोली मार दी। उन हत्याओं को व्यापक रूप से नरसंहार की संज्ञा दी गयी। तमाम सबूतों की जांच-पड़ताल के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुँची थी कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि पीएसी दर्जनों गैरकानूनी हत्याओं और 22 तथा 23 मई, 1987 को अनेक अल्पसंख्यक लोगों के गायब हो जाने के लिए जिम्मेदार थी। वरिष्ठ पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने कहा कि पीएसी, जिसका सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कभी छिपा नहीं रहा है, ने इस बार हिटलरी निर्दयता का अपना ही कीर्तिमाल ध्वस्त कर डाला। पीयूसीएल ने कहा कि ऐसी घटनाएं सिर्फ हिटलर की जमीन पर हो सकती हैं। डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने होशियारपुर मे मुसलमानों की निर्दयतापूर्वक की गयी हत्या को नरसंहार का एक स्पष्ट मामला बताया।
साम्प्रदायिक दंगो के दौरान मुसलमानों के खिलाफ पुलिस का अमानवीय चेहरा सिर्फ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ही सामने नहीं आया है बिहार में वीएमपी ने मुसलमानों के प्रति अपना साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह उजागर किया था। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गये थे। लॉगन (जगदीशपुर पुलिस स्टेशन) में मुसलमानों के संहार हुए, जहां कुछ को छोड़कर 170 मुस्लिमों को मौत की नींद सुला दिया गया।
वर्ष 1992-93 के मुंबई दंगों ने महाराष्ट्र पुलिस के मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का पर्दाफाश कर दिया था। दिसंबर 1992, जनवरी 1993 के दंगों तथा 12 मार्च, 1997 के बम ब्लास्ट की जांच करने के लिए गठित आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी.एन. कृष्णा ने टिप्पणी की है, हताश पीड़ितों को विशेष रूप से मुसलमानों की मदद की गुहार पर पुलिस की प्रतिक्रिया बेहद नकारात्मक और निन्दनीय थी। कई अवसरों पर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी भी थी कि वे अपने लिए निर्धारित स्थान को दूसरों पर नही छोड़ सके। मकसद था कि एक मुस्लिम मरा मतलब एक मुस्लिम कम हुआ। पुलिस अधिकारी, विशेष रूप से जुनियर पुलिसवालों के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह का खुलासा तो बार-बार हुआ। मुसलमानों के प्रति उनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण तथा रूखा था जो कभी-कभी अमानवीय हद तक पहुंच जाता था। पुलिसवालों का पूर्वाग्रह दंगाई हिन्दू भीड़ के साथ पुलिस कांस्टेबलों के सक्रिय सहयोग के रूप में दिखाई दिया। कई अवसरों पर पुलिसवाले बेहपरवाह दर्शकों जैसे चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखने की मुद्रा में होते थे।
वर्ष 2002 का गुजरात नरसंहार फासिस्ट हिन्दुवादी ताकतों द्वारा मुसलमानो के कत्लेआम का एक स्पष्ट उदाहरण है। 2002 के गुजरात के नरसंहार का अध्ययन एवं इसकी गहन जांच की जरूरत है। गुजरात का कत्लेआम योजनाबद्ध था और इसे विधिवत पूरा किया गया था। कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों एवं दलों की देखरेख में मुसलमानों का नरसंहार हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री ने न्यूटन के गति के नियमों का उदाहरण देते हुए इस नरसंहार को सही ठहराया। पुलिस, जिसने लूटपाट, हत्याएं, आगजनी में सक्रिय भागीदारी की, अपनी मुस्लिम विरोधी छवि कायम रखी। सदमे वाली बात यह है कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पी.सी. पाण्डेय ने यह कहते हुए अपने पुलिस बल की हरकातें को सही बताया कि ये लोग भी आम भावना की वजह से प्रभावित हो गए। यही सारी समस्या की वजह है पुलिस समान रूप से आम भावना से प्रभावित हो जाती है।
4 नवम्बर 2012 को नई दिल्ली के मावलंकर सभागार में पी.सी.पो.टी. (पीपुल्स कैम्पेन अगेन्स्ट पॉलीटिक्स ऑफ टेर्र) द्वारा आयोजित कन्वेशन जिसमें सी.पी.आई. के ए.बी. वर्धन, सुधाकर रेड्डी, अतुल अन्जान, डी.राजा, अजीज पाशा, सी.पी.एम. के प्रकाश करात के अतिरिक्त लालू प्रसाद यादव, राम बिलास पासवान, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर व तमाम सेक्यूलर पार्टियों के नेतागण ने एक मंच पर आकर, पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों द्वारा आतंकवाद के नाम पर चलाये जा रहे अभियान में ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम नौजवानों को फंसाने की साजिश की पुरजोर शब्दों में निन्दा की। जैसा कि पिछली अटर बिहारी बाजपेयी की एडीए सरकार द्वारा संचालित अमेरिकन थ्योरी ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान हैं’ पर अमल करते हुए हमारे देश की पुलिस एवं ए.टी.एस. ने पिछले 20 वर्षाें में अनेक पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवानों को झूठे केसों में फंसाया, और उन्हीं में से एक-एक-कर तमाम लोग उच्चतम न्यायालय से बाइज्जत बरी भी हो गये।
इस बारे में जरा भी शक नहीं है कि आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुका है। इसने राष्ट्रीय महाविपत्ति का रूप ले लिया है। इसलिए इस समस्या का सामना करने के लिए व्यापक एवं सावधानी पूर्वक तैयार की गयी योजना की जरूरत है, लेकिन परेशानी यह है कि इस समस्या को हल्के ढंग से एक सीमित नजरिये से देखा जा रहा है। मीडिया और यहां तक कि सुरक्षा एजेंसिया भी इस समस्या को एक खास अंदाज में देख रही हैं। इसलिए ऐसा महसूस किया गया कि अधिकतर मामलों में आतंकवाद को इस्लाम एवं मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। मीडिया, पुलिस, राजनीतिज्ञों तथा खुफिया एजेंसियों द्वारा अक्सर इस्लामी कट्टरपंथ और मुस्लिम आतंकवादियों जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जाता है। पुलिस सुधार पर विस्तार से लिख चुके एक जाने-जाने पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के अनुसार एक औसत पुलिसवाले के लिए खुफिया जानकारी का मतलब साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठनों की गतिविधियों के बारे में जानकारियां इकट्ठा करना होता है। इसका परिणाम यह होता है कि साम्प्रदायिक हिन्दू संगठन संदेह के दायरे में नहीं आते और अपनी साम्प्रदायिक मुस्लिम गतिविधियां संचालित करने के लिए आजाद रहते हैं दूसरी तरफ पूरा का पूरा मुस्लिम सम्प्रदाय हमेशा ही संदेह की नजरों से देखा जाता है। मदरसों तथा मुसलमानों की साम्प्रदायिकता को झूठे एवं आधारहीन दुष्प्रचार के लिए निशाना बनाया जाता है। विडंबना यह है कि भारत सरकार ने भी टाडा और पोटा जैसे कानून बनाए हैं, जो पुलिस को बिना पर्याप्त सबूत के लोगों को फंसाने, तंग करने तथा धमकाने की ताकत देते हैं। चूंकि हमारी पुलिस बहुत अधिक साम्प्रदायिक है, इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय पुलिस अत्याचारों को स्वाभाविक निशाना बन जाता हैं। पोटा का भी अल्पसंख्ययकोें के खिलाफ जमकर दुरुपयोग किया गया। डॉ. मुकुल सिन्हा ने देश पर पोटा के दुष्प्रभावों को समझने की कोशिश भी की हे। उन्होंने पोटा को आतंकवादियों की सुरक्षा करने वाला कानून बताया है। वे बताते हैं-आतंकवाद के खिलाफ अभियान कैसे छेड़ा जा सकता है अगर सामने कोई आतंकवादी नहीं हो। गुजरात में यही प्रयोग आजमाया गया है। पहले आतंकवादी बनाओ और फिर उनके खिलाफ युद्ध छेड़ो, जिससे असहाय नागरिक तुम्हें अपने रक्षक के रूप में वोट दे सकें। अक्टूबर, 2002 तक गुजरात में किसी किस्म का कोई आतंकवादी नहीं था, लेकिन जनवरी 2007 आते-आते गुजरात की जेलों में लगभग 180 हार्डकोर/देशद्रोही/जेहादी आतंकवादी गिरफ्तार कर पहुंचा दिये गये थे।
यह ठीक है कि आतंकवाद का राज्य द्वारा प्रभ्साावशाली ढंग से सामना किया जाना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस को अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए एक कठारे कानून थमा दिया जाये। आतंकवाद के खिलाफ कानून बनाते समय हमें अपने पुलिस बल के स्वभाव एवं चरित्र को ध्यान में रखना होगा।
पुलिस राज्य के अब पीड़क तंत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन यह तंत्र राज्य द्वारा संचालित सैद्धांतिक तंत्र से प्रभावित होता है। इसलिए शैक्षिक संस्थाओं, मीडिया जैसे सैद्धांतिक तंत्रों को धर्मनिरपेक्ष एवं संवेदनशील स्वरूप प्रदान करना जरूरी है। अगर आर.एस.एस. और वी.एच.पी, को अपनी संस्थानों की श्रंृखला चलाने की आजादी दी जाती रहेगी तब हमें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पायेंगे, क्योकि ये संस्थाएं काल्पनिक एवं विकृत भगवाकृत इतिहास के द्वारा युवा छात्रों के मस्तिष्क को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं। इसी तरह से मीडिया को भी नियंत्रित या कम से कम इतना निर्देशित तो कर ही दिया जाना चाहिए कि वह साम्प्रदायिक रूप से उद्वेलित वातावरण की आग में घी नहीं डाले।
ऐसा आमतौर पर माना जाता है कि उपयुक्त प्रशिक्षण एवं संवेदना का संचार करने वाले कार्यक्रमों के सहारे पुलिस को तटस्थ एवं पक्षपात रहित बनाया जा सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक पुलिस बल की संरचना में बदलाव कर उनमें विभिन्न समुदायों, विशेष रूप से दलितों एवं अल्संख्यकों को समाहित नहीं किया जाता है, तब तक पुलिस महकमे को तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। इस तरह अपनी पुलिस को जिम्मेवार और कानून का पालन करने वाला बनाने के लिए किसी सुपरमैन या सुपर कोष की खोज करने की बजाय हमें सुपर विज्ञान की खोज करनी चाहिए, ताकि पुलिस बल को सक्षम, प्रभावशाली और भेदभाव रहित कानून का सेवक बनाया जा सके।
भारत के अल्पसंख्यक पुलिस में अपना विश्वास पूरी खो चुके हैं। दुर्भाग्य से हत्या, बलात्कार, लूटपाट के अपराधी पुलिसवालों को पदोन्नति भी मिली है। इस तरह उन्हें जो दण्डमुक्ति का वरदान मिला हुआ है उसकी वजह से वे साम्प्रदायिक एवं निष्ठुर हो गए हैं। इसलिए पुलिस बल को इस तरह पुर्नगठित किया जाना चाहिए, जिससे पुलिस में सामाजिक संरचना भी परिलक्षित हो। पुलिस बल को भी पुरस्कार और सजा के सिद्धांत पर काम करना चाहिए। यानी अच्छे काम पर पुरस्कार और गलती की सजा। हालांकि यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि अगर साम्प्रदायिक दंगांें से बचना है या बिना अधिक क्षति के उन्हें नियंत्रित करना है, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि दलित और भारत के विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों की कुल पुलिस बल में पचास फीसदी भागीदार दी जाये।
- डॉ ए.ए. खान
कोई राज्य चाहे लोकतांत्रिक हो या तानाशाही पद्धति से चलता हो, उदारवादी हो या मार्क्सवादी, धर्मनिरपेक्ष हो या मज़हबी एक संगठित पुलिस व्यवस्था उसके लिए जरूरी है। हर राज्य के लिए पुलिस संगठन अपरिहार्य और अनिवार्य है। पुलिस बल राज्य के व्यवस्था तंत्र का एक हिस्सा होता है। पुलिस का मख्य उत्तरदायित्व नागरिक कानून लागू करना और बनाये रखना है। पुलिस बल जब राजनीतिक भावना से संचालित होने लगे, अगर यह सांप्रदायिक, जातिवादी या कोई दूसरे सामाजिक पूर्वगग्रह से प्रभावित हो जायेगा। साम्प्रदायिक या जातीय दंगों के दौरान ऐसा दिखाई भी देता है।
भारत एक सार्वभौमिक राष्ट्र है। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं तथा राजनीतिक मान्यताओं वाले लोग रहते हैं। विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक मान्यताओं वाले लोगों की मौजूदगी की वजह से भारत में अलग-अलग तरह के परस्पर विरोध एवं आंतरिक कलह की संभावना बनी रहती है। इन परिस्थितियों में पुलिस को, जिससे कानून की रखवाली और लोगों की जिंदगी एवं आजादी को बिना भेदभाव के सुरक्षा करने के अपेक्षा की जाती है, और अधिक सक्रिय एवं सकारात्मक भूमिका निभाने की जरूरत है। लेकिन भारत में पुलिस बल का जो प्रदर्शन रहा है वह अपने जरूरी लक्ष्य से बहुत पीछे है। पुलिस बल हमारे समाज का एक बेहद नफरत से देखा जाने वाला संगठन है। अपने अत्याचारों एवं मानवाधिकारों के घृणित उल्लंघन की वजह से पुलिसवालों को कभी-कभी ‘वर्दीवाले अपराधी’ भी कहा जाता है।
हमारे देश में पुलिस और विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता नहीं है, और सामान्य रूप से भारतीय समाज की नजर में पुलिस की सकारात्मक छवि नहीं है, लेकिन अल्पसंख्यक तो विशेष रूप से पुलिस पर अपना विश्वास पूरी तरह खो चुके हैं। दलित भी पुलिस के हाथों प्रताड़ित होते रहे हैं, लेकिन नौकरियों में आरक्षण की वजह से इस विभाग में उनकी संख्या बढ़ गयी है, जिससे उन पर होने वाले अत्याचार कम हो गये हैं। हालांकि यह भी एक सच्चाई है कि सामान्य परिस्थितियों में पुलिस के दुर्वव्यहार और इस विभाग के संस्थागत भ्रष्टाचार की वजह से बहुसंख्यकों एंव अल्पसंख्यकों को समान रूप से परेशान होना पड़ता है। लेकिन साम्प्रदायिक दंगों या फिर दंगे जैसी परिस्थितियों में पुलिस योजनाबद्ध तरीके से जान-बूझकर अल्पसंख्यकों को परेशान करती है। वर्ष 1969 में अहमदाबाद के साम्प्रदायिक दंगों, 1980 के मुरादाबाद दंगों, 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1987 के मेरठ दंगों, 1989 के भागलपुर दंगों, 1992-93 के मुंबई दंगों से लेकर 2002 में गुजरात में हुए जनसंहार से संबंधित कागजातों के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है।
वर्ष 1977 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में एक भीषण सांप्रदायिक दंगा हुआ था। यहां फिर से पुलिस पर सांप्रदायिक दुर्भावना और भेदभाव रवैये का आरोप लगा था।
वहाँ पर, पुलिस ने न सिर्फ लूटपाट और आगजनी में खुलेआम हिस्सा लिया था बल्कि मस्जिदों एवं मकबरों का विध्वंस भी किया था। दो मकबरों को पूरी तरह से नेस्तानाबूद कर दिया गया था और तीन मस्जिदों को इस बुरी तरह से विध्वंसित कर दिया गया कि यह विश्वास करना मुश्किल था कि कुछ सौ लोगों की भीड़ को मनचाहे समय तक तोड़-फोड़ करने के लिए पुलिस ने प्रोत्साहित किया था।
वर्ष 1980 के मुरादाबाद दंगों ने भारतीय पुलिस के दुखद इतिहास में एक और अध्याय जोड़ दिया था। यह दंगा मुस्लिम विरोधी पीएसी द्वारा गलत तरीके से अपनी ताकत का इस्तेमाल करने की वजह से भड़का था। वह आजाद भारत के इतिहास का एक काला दिन था, जब ईद (खुशी और भाईचारे के त्यौहार) के दिन अंधाधुंध फायरिंग द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाया गया था। प्रोफेसर सतीश सबरवाल और प्रोफेसर मुशीरुल हसन ने दंगा प्रभावित शहर का दौरा कर अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें पुलिस और पीएसी को मुसलमानों के खिलाफ मनमानी और निर्दयता का दोषी ठहराया गया था। रिपोर्ट में लिखा गया था, शहर की पुलिस ने कई हफ्तों तक मुसलमानों को पीटने, लूटने और मारने वाले संगठित बल की तरह काम किया। पीएसी ने विशेष रूप से एक संप्रदाय के सांप्रदायिक तत्वों एवं गुंडों के साथ मिलकर सांठ-गांठ की थी। यही नहीं न्यायपालिका सहित व्यवस्था के विभिन्न अंगों ने एक तरह से स्थानीय पुलिस एवं पीएसी समर्थक रवैया अपनाया था।
1984 के सिख विरोधी दंगों ने भी बताया कि जब बहुसंख्यक संप्रदाय का जुनून हद से गुजरता है तब सांप्रदायिक दंगों की स्थिति में किसी भी धर्म को मानने वाले अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न और यहाँ तक कि नरसंहार का खतरा रहता है। इंदिरा गांधी की हत्या उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा किया जाना बहुसंख्यक संप्रदाय के लिए पूरे सिख संप्रदाय को निशाने पर लिये जाने के लिए पर्याप्त था। सिर्फ दिल्ली में हुए दंगों मंे लगभग 3000 निर्दोष सिखों का कत्लेआम कर दिया ग्या। दिल्ली के सिख विरोधी दंगो की जाँच करने के लिए गठिन रंगनाथ मिश्र आयोग ने कहा कि पुलिस द्वारा सिखों की सुरक्षा एवं स्थिति को नियंत्रण करने में दर्शायी गयी ‘पूर्ण निष्क्रियता’, निर्दयता तथा भेदभाव की वजह से दंगे हुए। पुलिस ने सिर्फ अपना उत्तरदायित्व नहीं निभाया, बल्कि सिखों के खिलाफ होने वाले जनसंहार और लूटपाट में भी हिस्सा लिया।
लेखक ने स्वयं अपनी आंखों से 1984 के सिख विरोधी दंगों में देखा है। जहां पर पुलिस तीन दिन तक न केवल मूक दर्शन बनी रही बल्कि दंगाइयों को पेट्रोल-डीजल एवं अन्य ज्वलनशील पदार्थ भी अपनी गाड़ियों से सप्लाई करती रही।
मुझे याद है कि उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव स्वर्गीय सी. राजेश्वर राव ने क्षेत्र का दौरा करते हुए हम तमाम पार्टी कार्यकर्ताओं को स्पष्ट निर्देश दिया कि कॉमरेड आप लोग, आग में कूदकर सिखो की जान-माल की रक्षा करें। आज हमें गर्व है कि उस समय हम सभी कामरेडों ने ऐसा ही किया था।
मई 1987 में मेरठ में हुए दंगों ने एक बार फिर से पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया। इन दंगों की तुलना जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों के कत्लेआम से की गयी। मई 1987 के मेरठ दंगो के दौरान पीएसी ने हाशिमपुरा के मुस्लिम युवाओं को गिरफ्त में लेने के बाद उन्हें ट्रक में डालकर एक नहर के पास लाकर गोली मार दी। उन हत्याओं को व्यापक रूप से नरसंहार की संज्ञा दी गयी। तमाम सबूतों की जांच-पड़ताल के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुँची थी कि इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि पीएसी दर्जनों गैरकानूनी हत्याओं और 22 तथा 23 मई, 1987 को अनेक अल्पसंख्यक लोगों के गायब हो जाने के लिए जिम्मेदार थी। वरिष्ठ पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने कहा कि पीएसी, जिसका सांप्रदायिक पूर्वाग्रह कभी छिपा नहीं रहा है, ने इस बार हिटलरी निर्दयता का अपना ही कीर्तिमाल ध्वस्त कर डाला। पीयूसीएल ने कहा कि ऐसी घटनाएं सिर्फ हिटलर की जमीन पर हो सकती हैं। डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने होशियारपुर मे मुसलमानों की निर्दयतापूर्वक की गयी हत्या को नरसंहार का एक स्पष्ट मामला बताया।
साम्प्रदायिक दंगो के दौरान मुसलमानों के खिलाफ पुलिस का अमानवीय चेहरा सिर्फ उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में ही सामने नहीं आया है बिहार में वीएमपी ने मुसलमानों के प्रति अपना साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह उजागर किया था। इन दंगों में एक हजार से अधिक लोग मारे गये थे। लॉगन (जगदीशपुर पुलिस स्टेशन) में मुसलमानों के संहार हुए, जहां कुछ को छोड़कर 170 मुस्लिमों को मौत की नींद सुला दिया गया।
वर्ष 1992-93 के मुंबई दंगों ने महाराष्ट्र पुलिस के मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का पर्दाफाश कर दिया था। दिसंबर 1992, जनवरी 1993 के दंगों तथा 12 मार्च, 1997 के बम ब्लास्ट की जांच करने के लिए गठित आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति बी.एन. कृष्णा ने टिप्पणी की है, हताश पीड़ितों को विशेष रूप से मुसलमानों की मदद की गुहार पर पुलिस की प्रतिक्रिया बेहद नकारात्मक और निन्दनीय थी। कई अवसरों पर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी भी थी कि वे अपने लिए निर्धारित स्थान को दूसरों पर नही छोड़ सके। मकसद था कि एक मुस्लिम मरा मतलब एक मुस्लिम कम हुआ। पुलिस अधिकारी, विशेष रूप से जुनियर पुलिसवालों के मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह का खुलासा तो बार-बार हुआ। मुसलमानों के प्रति उनका व्यवहार निर्दयतापूर्ण तथा रूखा था जो कभी-कभी अमानवीय हद तक पहुंच जाता था। पुलिसवालों का पूर्वाग्रह दंगाई हिन्दू भीड़ के साथ पुलिस कांस्टेबलों के सक्रिय सहयोग के रूप में दिखाई दिया। कई अवसरों पर पुलिसवाले बेहपरवाह दर्शकों जैसे चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखने की मुद्रा में होते थे।
वर्ष 2002 का गुजरात नरसंहार फासिस्ट हिन्दुवादी ताकतों द्वारा मुसलमानो के कत्लेआम का एक स्पष्ट उदाहरण है। 2002 के गुजरात के नरसंहार का अध्ययन एवं इसकी गहन जांच की जरूरत है। गुजरात का कत्लेआम योजनाबद्ध था और इसे विधिवत पूरा किया गया था। कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों एवं दलों की देखरेख में मुसलमानों का नरसंहार हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री ने न्यूटन के गति के नियमों का उदाहरण देते हुए इस नरसंहार को सही ठहराया। पुलिस, जिसने लूटपाट, हत्याएं, आगजनी में सक्रिय भागीदारी की, अपनी मुस्लिम विरोधी छवि कायम रखी। सदमे वाली बात यह है कि अहमदाबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त पी.सी. पाण्डेय ने यह कहते हुए अपने पुलिस बल की हरकातें को सही बताया कि ये लोग भी आम भावना की वजह से प्रभावित हो गए। यही सारी समस्या की वजह है पुलिस समान रूप से आम भावना से प्रभावित हो जाती है।
4 नवम्बर 2012 को नई दिल्ली के मावलंकर सभागार में पी.सी.पो.टी. (पीपुल्स कैम्पेन अगेन्स्ट पॉलीटिक्स ऑफ टेर्र) द्वारा आयोजित कन्वेशन जिसमें सी.पी.आई. के ए.बी. वर्धन, सुधाकर रेड्डी, अतुल अन्जान, डी.राजा, अजीज पाशा, सी.पी.एम. के प्रकाश करात के अतिरिक्त लालू प्रसाद यादव, राम बिलास पासवान, कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर व तमाम सेक्यूलर पार्टियों के नेतागण ने एक मंच पर आकर, पुलिस एवं खुफिया एजेंसियों द्वारा आतंकवाद के नाम पर चलाये जा रहे अभियान में ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम नौजवानों को फंसाने की साजिश की पुरजोर शब्दों में निन्दा की। जैसा कि पिछली अटर बिहारी बाजपेयी की एडीए सरकार द्वारा संचालित अमेरिकन थ्योरी ‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान हैं’ पर अमल करते हुए हमारे देश की पुलिस एवं ए.टी.एस. ने पिछले 20 वर्षाें में अनेक पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवानों को झूठे केसों में फंसाया, और उन्हीं में से एक-एक-कर तमाम लोग उच्चतम न्यायालय से बाइज्जत बरी भी हो गये।
इस बारे में जरा भी शक नहीं है कि आतंकवाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुका है। इसने राष्ट्रीय महाविपत्ति का रूप ले लिया है। इसलिए इस समस्या का सामना करने के लिए व्यापक एवं सावधानी पूर्वक तैयार की गयी योजना की जरूरत है, लेकिन परेशानी यह है कि इस समस्या को हल्के ढंग से एक सीमित नजरिये से देखा जा रहा है। मीडिया और यहां तक कि सुरक्षा एजेंसिया भी इस समस्या को एक खास अंदाज में देख रही हैं। इसलिए ऐसा महसूस किया गया कि अधिकतर मामलों में आतंकवाद को इस्लाम एवं मुसलमानों से जोड़ दिया जाता है। मीडिया, पुलिस, राजनीतिज्ञों तथा खुफिया एजेंसियों द्वारा अक्सर इस्लामी कट्टरपंथ और मुस्लिम आतंकवादियों जैसे शब्दों को इस्तेमाल किया जाता है। पुलिस सुधार पर विस्तार से लिख चुके एक जाने-जाने पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय के अनुसार एक औसत पुलिसवाले के लिए खुफिया जानकारी का मतलब साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठनों की गतिविधियों के बारे में जानकारियां इकट्ठा करना होता है। इसका परिणाम यह होता है कि साम्प्रदायिक हिन्दू संगठन संदेह के दायरे में नहीं आते और अपनी साम्प्रदायिक मुस्लिम गतिविधियां संचालित करने के लिए आजाद रहते हैं दूसरी तरफ पूरा का पूरा मुस्लिम सम्प्रदाय हमेशा ही संदेह की नजरों से देखा जाता है। मदरसों तथा मुसलमानों की साम्प्रदायिकता को झूठे एवं आधारहीन दुष्प्रचार के लिए निशाना बनाया जाता है। विडंबना यह है कि भारत सरकार ने भी टाडा और पोटा जैसे कानून बनाए हैं, जो पुलिस को बिना पर्याप्त सबूत के लोगों को फंसाने, तंग करने तथा धमकाने की ताकत देते हैं। चूंकि हमारी पुलिस बहुत अधिक साम्प्रदायिक है, इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय पुलिस अत्याचारों को स्वाभाविक निशाना बन जाता हैं। पोटा का भी अल्पसंख्ययकोें के खिलाफ जमकर दुरुपयोग किया गया। डॉ. मुकुल सिन्हा ने देश पर पोटा के दुष्प्रभावों को समझने की कोशिश भी की हे। उन्होंने पोटा को आतंकवादियों की सुरक्षा करने वाला कानून बताया है। वे बताते हैं-आतंकवाद के खिलाफ अभियान कैसे छेड़ा जा सकता है अगर सामने कोई आतंकवादी नहीं हो। गुजरात में यही प्रयोग आजमाया गया है। पहले आतंकवादी बनाओ और फिर उनके खिलाफ युद्ध छेड़ो, जिससे असहाय नागरिक तुम्हें अपने रक्षक के रूप में वोट दे सकें। अक्टूबर, 2002 तक गुजरात में किसी किस्म का कोई आतंकवादी नहीं था, लेकिन जनवरी 2007 आते-आते गुजरात की जेलों में लगभग 180 हार्डकोर/देशद्रोही/जेहादी आतंकवादी गिरफ्तार कर पहुंचा दिये गये थे।
यह ठीक है कि आतंकवाद का राज्य द्वारा प्रभ्साावशाली ढंग से सामना किया जाना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस को अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए एक कठारे कानून थमा दिया जाये। आतंकवाद के खिलाफ कानून बनाते समय हमें अपने पुलिस बल के स्वभाव एवं चरित्र को ध्यान में रखना होगा।
पुलिस राज्य के अब पीड़क तंत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन यह तंत्र राज्य द्वारा संचालित सैद्धांतिक तंत्र से प्रभावित होता है। इसलिए शैक्षिक संस्थाओं, मीडिया जैसे सैद्धांतिक तंत्रों को धर्मनिरपेक्ष एवं संवेदनशील स्वरूप प्रदान करना जरूरी है। अगर आर.एस.एस. और वी.एच.पी, को अपनी संस्थानों की श्रंृखला चलाने की आजादी दी जाती रहेगी तब हमें अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पायेंगे, क्योकि ये संस्थाएं काल्पनिक एवं विकृत भगवाकृत इतिहास के द्वारा युवा छात्रों के मस्तिष्क को प्रदूषित करने का काम कर रहे हैं। इसी तरह से मीडिया को भी नियंत्रित या कम से कम इतना निर्देशित तो कर ही दिया जाना चाहिए कि वह साम्प्रदायिक रूप से उद्वेलित वातावरण की आग में घी नहीं डाले।
ऐसा आमतौर पर माना जाता है कि उपयुक्त प्रशिक्षण एवं संवेदना का संचार करने वाले कार्यक्रमों के सहारे पुलिस को तटस्थ एवं पक्षपात रहित बनाया जा सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक पुलिस बल की संरचना में बदलाव कर उनमें विभिन्न समुदायों, विशेष रूप से दलितों एवं अल्संख्यकों को समाहित नहीं किया जाता है, तब तक पुलिस महकमे को तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। इस तरह अपनी पुलिस को जिम्मेवार और कानून का पालन करने वाला बनाने के लिए किसी सुपरमैन या सुपर कोष की खोज करने की बजाय हमें सुपर विज्ञान की खोज करनी चाहिए, ताकि पुलिस बल को सक्षम, प्रभावशाली और भेदभाव रहित कानून का सेवक बनाया जा सके।
भारत के अल्पसंख्यक पुलिस में अपना विश्वास पूरी खो चुके हैं। दुर्भाग्य से हत्या, बलात्कार, लूटपाट के अपराधी पुलिसवालों को पदोन्नति भी मिली है। इस तरह उन्हें जो दण्डमुक्ति का वरदान मिला हुआ है उसकी वजह से वे साम्प्रदायिक एवं निष्ठुर हो गए हैं। इसलिए पुलिस बल को इस तरह पुर्नगठित किया जाना चाहिए, जिससे पुलिस में सामाजिक संरचना भी परिलक्षित हो। पुलिस बल को भी पुरस्कार और सजा के सिद्धांत पर काम करना चाहिए। यानी अच्छे काम पर पुरस्कार और गलती की सजा। हालांकि यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि अगर साम्प्रदायिक दंगांें से बचना है या बिना अधिक क्षति के उन्हें नियंत्रित करना है, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि दलित और भारत के विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों की कुल पुलिस बल में पचास फीसदी भागीदार दी जाये।
- डॉ ए.ए. खान
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