23 मई को आखिर केन्द्र सरकार ने जनता को झटका दे ही दिया। पेट्रोल की कीमतें लगभग आठ रूपये प्रति लीटर बढ़ा दी गयीं। कभी किसी सरकार ने जनता को इतना करारा झटका दिया हो, इसकी याद किसी बुजुर्ग को भी नहीं आ रही है। झटका इतना करारा था कि पेट्रोल पम्पों पर 23 मई को लगी वाहनों की लम्बी कतारों ने देश भर में जगह-जगह जाम की स्थिति पैदा कर दी। कार वाले सौ-दो सौ रूपये बचाने की जुगत में लाईन में लगे थे तो दो पहिया वाले पचास रूपये बचाने के लिए। पिछले कई सालों से रिकार्ड तोड़ महंगाई से जूझ रही जनता पर यह निष्ठुर प्रहार है, जिसे कार खरीदने की हैसियत रखने वालों ने भी महसूस किया। पेट्रोल पम्पों पर कारों की लम्बी कतारों से तो यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
बहाना वही पुराना - अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में बढ़ोतरी। झूठ बोलने की भी हद पार कर दी है मनमोहन सिंह ने। पेट्रोल की कीमतों पर से एक साल पहले नियंत्रण हटाते समय मनमोहन सिंह ने यही झूठ बोला था। बाद में उनके वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भ्रम फैलाने के लिए बोला कि भारत सिंगापुर क्रूड आयल इंडेक्स के आधार पर कीमतें तय करता है। क्या फर्क पड़ता है कि भारत किस क्रूड आयल इंडेक्स पर कीमते तय करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मूलतः ओपेक देशों द्वारा बाजार में की गयी आपूर्ति पर ही दाम तय होते हैं वे चाहे डब्लूटीआई इंडेक्स हो, ब्रेन्ट इंडेक्स हो या सिंगापुर क्रूड इंडेक्स। वास्तव में 23 मार्च को क्रूड आयल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गिर चुके थे। मसलन ब्रेन्ट आयल इंडेक्स दस दिनों में 122 से गिरकर 106 के करीब आ चुका था।
सरकार भाजपा नीत राजग की रही हो या राजग नीत संप्रग की, दोनों गठबंधन वाशिंग्टन से प्राप्त होने वाले निर्देशों को लागू करने के लिये लालयित रहते हैं। भारत सबसे अधिक कच्चा तेल ईरान से खरीदता था। अमरीका के दवाब में 1990 से ही भारत ईरान से तेल आयात कम करता जा रहा है। पाकिस्तान होते हुए ईरान-भारत गैस पाईप लाईन की परियोजना को तो ठंडे बस्ते में डाला जा चुका है। अमरीका के दवाब में 2005 और 2006 में आइएईए में ईरान के खिलाफ भारत ने मतदान किया। 22 अरब डॉलर का वह सौदा रद्द हो गया जो भारत के पक्ष में था। भारत को करोड़ों डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा। 2008 के बाद ईरान से तेल आयात 16.4 प्रतिशत से घटकर 10.9 प्रतिशत रह गया। हाल ही में भारत सरकार ने चालू वित्तीय वर्ष में ईरान से आयात होने वाले कच्चे तेल में 11 प्रतिशत और कमी की घोषणा कर दी। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ईरान के खिलाफ लगाये गये अमरीकी प्रतिबंधों के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत को कच्चे तेल की अधिक कीमत अदा करनी पड़ रही है। इस पूर्णतया उत्तरदायित्व संप्रग की सरकार और राजग नाम के विपक्ष पर है।
इसके अतिरिक्त पिछले बीस सालों में भुगतान संतुलन (विदेशी मुद्रा के) के लिए कर्ज और विदेशी निवेश की जिन प्रतिगामी आर्थिक नीतियों को लागू किया जा रहा है, उसके कारण इन कीमतों की ज्यादा लागत हिन्दुस्तान को भुगतनी पड़ रही है। इन दो दशकों में डालर की कीमत लगभग 18 रूपये से बढ़ कर आज 56 रूपये पहुंच चुकी है। साफ है कि विदेशों से खरीद करते समय हमें तीन गुनी अधिक कीमत अदा करनी पड़ रही है। एक साल के अन्दर ही डॉलर 42 रूपये से बढ़कर 56 रूपये पहुंच गया। पिछले 11 महीनों में पेट्रोल की कीमतों में लगभग 30 रूपये का उछाल आया है। यानी पेट्रोल का दाम डेढ़ गुने से भी ज्यादा बढ़ गया है।
पेट्रोल की कीमतों में यह बढ़ोतरी वास्तव में ‘हिटिंग बिलो द बेल्ट’ है। जनता को असहनीय पीड़ा हो रही है। समय के साथ जनता इस तरह के दर्द को बर्दाश्त करने की आदत डाल लेती है जिसके कारण पूंजीवादी राजनीतिज्ञ निष्ठुर हो जाते हैं। जनता को इस दर्द को बर्दाश्त करने और भूलने की आदत समाप्त करनी होगी अन्यथा उसके साथ यही होता रहेगा। अभी डॉलर के मुकाबले रूपया इसलिए गिर रहा है क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है, हमारी विकास दर ऊंची है। आने वाले वक्त में जब हमारी विकास दर कम होगी और अर्थव्यवस्था कमजोर होगी तब क्या होगा?
- प्रदीप तिवारी
बहाना वही पुराना - अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में बढ़ोतरी। झूठ बोलने की भी हद पार कर दी है मनमोहन सिंह ने। पेट्रोल की कीमतों पर से एक साल पहले नियंत्रण हटाते समय मनमोहन सिंह ने यही झूठ बोला था। बाद में उनके वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भ्रम फैलाने के लिए बोला कि भारत सिंगापुर क्रूड आयल इंडेक्स के आधार पर कीमतें तय करता है। क्या फर्क पड़ता है कि भारत किस क्रूड आयल इंडेक्स पर कीमते तय करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मूलतः ओपेक देशों द्वारा बाजार में की गयी आपूर्ति पर ही दाम तय होते हैं वे चाहे डब्लूटीआई इंडेक्स हो, ब्रेन्ट इंडेक्स हो या सिंगापुर क्रूड इंडेक्स। वास्तव में 23 मार्च को क्रूड आयल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गिर चुके थे। मसलन ब्रेन्ट आयल इंडेक्स दस दिनों में 122 से गिरकर 106 के करीब आ चुका था।
सरकार भाजपा नीत राजग की रही हो या राजग नीत संप्रग की, दोनों गठबंधन वाशिंग्टन से प्राप्त होने वाले निर्देशों को लागू करने के लिये लालयित रहते हैं। भारत सबसे अधिक कच्चा तेल ईरान से खरीदता था। अमरीका के दवाब में 1990 से ही भारत ईरान से तेल आयात कम करता जा रहा है। पाकिस्तान होते हुए ईरान-भारत गैस पाईप लाईन की परियोजना को तो ठंडे बस्ते में डाला जा चुका है। अमरीका के दवाब में 2005 और 2006 में आइएईए में ईरान के खिलाफ भारत ने मतदान किया। 22 अरब डॉलर का वह सौदा रद्द हो गया जो भारत के पक्ष में था। भारत को करोड़ों डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा। 2008 के बाद ईरान से तेल आयात 16.4 प्रतिशत से घटकर 10.9 प्रतिशत रह गया। हाल ही में भारत सरकार ने चालू वित्तीय वर्ष में ईरान से आयात होने वाले कच्चे तेल में 11 प्रतिशत और कमी की घोषणा कर दी। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ईरान के खिलाफ लगाये गये अमरीकी प्रतिबंधों के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत को कच्चे तेल की अधिक कीमत अदा करनी पड़ रही है। इस पूर्णतया उत्तरदायित्व संप्रग की सरकार और राजग नाम के विपक्ष पर है।
इसके अतिरिक्त पिछले बीस सालों में भुगतान संतुलन (विदेशी मुद्रा के) के लिए कर्ज और विदेशी निवेश की जिन प्रतिगामी आर्थिक नीतियों को लागू किया जा रहा है, उसके कारण इन कीमतों की ज्यादा लागत हिन्दुस्तान को भुगतनी पड़ रही है। इन दो दशकों में डालर की कीमत लगभग 18 रूपये से बढ़ कर आज 56 रूपये पहुंच चुकी है। साफ है कि विदेशों से खरीद करते समय हमें तीन गुनी अधिक कीमत अदा करनी पड़ रही है। एक साल के अन्दर ही डॉलर 42 रूपये से बढ़कर 56 रूपये पहुंच गया। पिछले 11 महीनों में पेट्रोल की कीमतों में लगभग 30 रूपये का उछाल आया है। यानी पेट्रोल का दाम डेढ़ गुने से भी ज्यादा बढ़ गया है।
पेट्रोल की कीमतों में यह बढ़ोतरी वास्तव में ‘हिटिंग बिलो द बेल्ट’ है। जनता को असहनीय पीड़ा हो रही है। समय के साथ जनता इस तरह के दर्द को बर्दाश्त करने की आदत डाल लेती है जिसके कारण पूंजीवादी राजनीतिज्ञ निष्ठुर हो जाते हैं। जनता को इस दर्द को बर्दाश्त करने और भूलने की आदत समाप्त करनी होगी अन्यथा उसके साथ यही होता रहेगा। अभी डॉलर के मुकाबले रूपया इसलिए गिर रहा है क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है, हमारी विकास दर ऊंची है। आने वाले वक्त में जब हमारी विकास दर कम होगी और अर्थव्यवस्था कमजोर होगी तब क्या होगा?
- प्रदीप तिवारी
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