Tuesday, July 13, 2010

पिछड़ा

महंगाई की घनघोर आंधी
भ्रष्टों बेईमानों जन-शत्रुओं
संग काले-धनियों की चांदी
आमजन बेचारा थका हारा
हर पल गिरते उठते जूझते
हर तरह वहीं है जाता मारा
कमाने की पहली ही जुगत
राह खर्च ही जाते-आते
लगाये रोज़ ही करारी चपत
रिक्शा टेम्पो जरूरत, भाड़ा
मजबूर जेब खीेंचे बीस-पच्चीस
पर वह बढ़ चालिस पे अड़ा
कार स्कूटर स्कूटी बाईक
पास अपने न हो तब भी
तन-तेल चारों ओर निकाले हाईक
हो जो दुपहिया चार-पहिया
उछलते कूदते तेल की मार
मुंह गाये हाय दैया रे दैया
नित-दिन आटा,दाल तरकारी
ऊपर ही ऊपर उड़ती जाएं
माना हमने फल अहितकारी
गुणवान संताने लिये अंक-अम्बार
उच्च शिक्षा का इठलाता लुभाता
चहुं ओर फैला महंगा बाजार
ऊंचे कर्ज छोटा घर भी सपना
नींव और दो दीवारें छत ही न
पूरा हो ही न पाए ये अपना
जीवन के हर पग पर बारंबार
कोशिशें करता ही गिरता उठता
फिर भी पिछड़ा ही रहे हर बार

- कल्पना पांडे ‘दीपा’

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

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