महान क्रांतिकारी एवं हरियाणा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम राज्य सचिव कामरेड टीकाराम सखुन का जन्म 4 फरवरी 1912 को शिमला में हुआ। उनका पैतृक गांव भूंगा था जो उस समय कपूरथला रियासत में नायब तहसीलदार का मुख्य केन्द्र था और आज पंजाब के होशियारपुर जिले में खंड विकास अधिकारी के कार्यालय के रुप में जाना जाता है। उनकी माता जी का नाम ओमपति एवं पिता का नाम सोहन लाल था, सोहन लाल ब्रिटिश प्रशासन में सुरक्षा अधिकारी के पद पर शिमला में कार्यरत थे इसलिए टीकाराम सखुन का जन्म स्थान शिमला था।
बालक टीकाराम जन्म से ही श्वेत रंगी थे उनकी चमड़ी, केश यहां तक कि उनकी भवें एवं आंखों की पलके तक भी सफेद थी। ऐसी सूरत के कारण वह अंग्रेजो के बच्चों की तरह लगता था। उनकी माता जी का परिवार आर्य समाजी था इसलिए उनकी माता जी पर भी आर्य समाज का प्रभाव रहा और टीकाराम के लालन-पालन पर भी आर्य समाज का प्रभाव पड़ा। लेकिन जब यें मात्र साढ़े चार वर्ष के थे तो इनकी माता जी का देहांत हो गया और उनकी बड़ी बहन बिमला देवी ने उनका पालन पोषण किया। पांच वर्ष की आयु में उन्हें ‘बिशप कॉटन’ स्कूल शिमला में दाखिल करा दिया गया, 1859 में अंग्रेजों के बच्चों के लिए यह स्कूल खोला गया था लेकिन बाद में एक विशेष वर्ग के भारतीय बच्चों को भी इसमें प्रवेश दिया जाने लगा। स्कूल में अ्रग्रेजों के बच्चों की संख्या अधिक थी और वे भारतीय बच्चों से बहुत धृणा करते थे और उनका मजाक उड़ाया करते थे हांलाकि भारतीय बच्चे भी बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं के या उच्चाधिकारियों के होते थे।
विद्यार्थी जीवन में ही सखुन ने भारतीयों के प्रति अंग्रजों के व्यवहार को बहुत नजदीक से देखा, एक मामूली से मामूली अंग्रेज के सामने भी भारतीयों को बार बार गिड़गिडाते देखा। ऐसे वातावरण ने सखुन के दिल में अंग्रेजों के प्रति प्रबल संघर्ष की प्रवृति के बीज बो दिए। अंग्रेजो के बच्चों के व्यवहार के चलते उन्होंने छटी कक्षा में पढ़ते हुए बिशप कॉटन स्कूल छोड़ दिया और किसी को बिना बताए अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के पास लाहौर पहुंच गये, उसने सखुन को डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिला दिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था और रोल्ट एक्ट पास हो चुका था। इस एक्ट के खिलाफ गांधी जी ने जन-आंदोलन छेड़ दिया था, कालेजों के साथ-साथ स्कूलों के विद्यार्थी भी इस आंदोलन में भारी संख्या में भाग ले रहे थे। सखुन भी अपने स्कूल के छात्रों के साथ बड़े जोशो खरोश के साथ इस आंदोलन में शामिल हुए और मात्र 10 वर्ष की उम्र में उन्हें 30-40 बच्चों के साथ गिरफ्तार करके बोर्स्टल जेल में भेज दिया गया।
जब सखुन के पिता जी को इस बात की खबर लगी तो वे लाहौर आये और उन्होंने पुलिस व जेल अधिकारियों को रजामंद कर लिया कि बालक के माफी मांगने पर उन्हें छोड दिया जायेगा, लेकिन सखुन ने माफी मांगने से साफ मना कर दिया और उनके पिता जी को निराश होकर वापस लौटना पड़ा। सन 1922 कें अंत में जेल से बाहर आने के बाद जब सखुन घर गये तो उनके पिता जी ने कहा कि या तो अपनी शर्मनाक हरकत छोड़ दो या घर छोड़ दो तो उन्होंने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया कि ‘पिता जी मैं यह महसूस करता हूं कि इस घर को मेरी आवश्यकता नही है’। यह कह कर उन्होंने घर सदा के लिए छोड़ दिया। सखुन ने भाई कल्याण सिंह के पास आकर किसी तरह फिर डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला लिया और मेहनत व लगन से पढ़ाई के चलते दसवीं कक्षा पास की और डी.ए.वी. कालेज में दाखिला लिया। डी.वी.ए. कालेज उन दिनों राजनीति का केन्द्र था और सखुन भी देश की आजादी के आंदोलन में सक्रिय हो गये और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में अगली कतारों में खड़े हो गये। सरकार ने डी.ए.वी. कालेज के प्राचार्य से टीकाराम को ठीक करने के लिए कहा तो प्राचार्य ने उन्हें कुछ दिन राजनीति छोड़ देने की सलाह दी। उन्होंने राजनीति छोड़ने के बजाए कालेज ही छोड़ दिया और एफ.सी. कालेज लाहौर में दाखिला लेकर वहां से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की।
इसके बाद वे पूरे तौर पर सक्रिय राजनीति में उतर पड़े, बालकों वाला जोश अब होश में बदल गया था, सब बातें सोच-विचार कर करने लगे थे। हालांकि वे गांधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल हुए थे लेकिन उन्हें गांधी जी के रास्ते पर चलने में कोई औचित्य नजर नही आया। इसी समय में उनका झुकाव क्रांतिकारियों की ओर हुआ, इन्ही दिनों पंजाव नौजवान भारत सभा का गठन हुआ और वे इसमें शामिल हो गये। सन 1928 में सभी राजनीतिक पार्टियों ने साईमन कमीशन का विरोध करने का फैसला किया और लाहौर में इस विरोध प्रदर्शन की तैयारी में सखुन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 30 अक्तुबर 1928 को जब ‘साईमन कमीशन’ लाहौर आया तो उसके विरोध में काले झंडे उठाये, साईमन कमीशन वापस जाओं के नारे लगाते हुए विशाल प्रदर्शन किया, सखुन इस प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाली टीम मे शामिल थे। इस प्रदर्शन से बौखलाकर प्रशासन ने जुलूस पर भंयकर लाठीचार्ज किया जिसमें काफी लोग घायल हो गये, लाला लाजपत राय की छाती पर काफी चोट आई और कुछ दिनों में ही लाला जी की मृत्यु हो गई।
इसी दौरान टीकाराम की मुलाकात हिन्दुस्तान सोशिलस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर चन्द्रशेखर आजाद से हुई, उन्होंने सखुन को सलाह दी कि तुम क्रांतिकारी समाजवादी विचारों का अपनी वाणी एवं लेखनी से जनता में प्रचार करों और उन्होंने अपनी इस कला का अंत तक प्रयोग किया। वे अपने समय के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शायर हुए और शायर होने के नाते ही उन्होंने अपना तखल्लुस ‘सखुन’ रखा था, सखुन का अर्थ है काव्य (शायरी)। इन्हीं दिनों सखुन भगतसिंह, चन्द्रशेखर जैसे बहुत सारे क्रांतिकारियों के विश्वसनीय साथी हो गये थे। सखुन ने युवा क्रांतिकारी बलदेव मित्र बिजली, इन्द्रपाल के साथ मिलकर उर्दू में ‘कड़क’ साप्ताहिक अखबार निकाला। क्रांतिकारी नजमों एवं राजनीतिक गतिविधियों के चलते सखुन पर विभिन्न धाराओं में मुकदमें चलाये गये और तीन मुकदमों में उन्हें एक-एक साल की कैद की सजा दी गई। लेकिन 5 मार्च 1931 को गांधी इर्विन समझौते के तहत सखुन सहित बहुत सारे क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया गया। परन्तु भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव के बारे में कोई चर्चा न हो पाने के कारण तीनों को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। पंजाब सहित पूरे देश के नौजवाानों का गुस्सा चरम सीमा पर था। इस समय सखुन ने कई नज्में लिखी, एक नज़्म में उन्होंने लिखा:-
कटे जो चन्द डालिया तो दरख्त में हो ताजगी।
कटे जो चन्द गरदनें तो कौम हो हरी-भरी।।
शहीद की जो मौत है वह कौम की हयात है।
हयात तो हयात है मौत भी हयात है।।
बाद में सखुन को अन्य क्रंातिकारियों के साथ ‘लाल पर्चा’ लिखने एवं छापने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया। इसी दौरान जेल मे बंद टीकाराम सखुन के बड़े भाई कल्याण सिंह बीमार पड़ गए और उन्हें टी.बी. हो गई। वे टी.बी. से उबर नही पाये और उनकी दुखद मृत्यु हो गई। अपने क्रांतिकारी सहयोगी व बड़े भाई की मृत्यु पर सखुन को बहुत दुख हुआ लेकिन उन्हें संस्कार में शामिल होने के लिये घर नही जाने दिया गया। सखुन को 3 साल की सजा हुई और झेलम जेल और शाही किले की जेल तक उन्हे भेजा जाता रहा, उन्होंने जेल को क्रंातिकारी समाजवादी विचारों का अध्यन केन्द्र बना लिया। इस दौरान वें अनेक क्रांतिकारियों से मिले औैैर काम के अनुभवों का आदान-प्रदान किया। 1937 के अंत में वे जबरदस्त बीमार पड़ गये थे। बीमारी की हालत में उन्हें 1938 के शुरु में रिहा कर दिया गया। इस दौरान वामपंथी शक्तियां साम्राज्यवाद के विरोध में एकता के साथ मुखर हो गई और मेंहनतकशों, बुद्धिजीवियों में उत्साह की नई तरंग पैदा हो गई, जनांदोलनों का एक तूफान खड़ा हो गया। कई राष्ट्रीय संगठन उभर कर सामने आये। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा, आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन व प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ। मजदूर यूनियनंे भी अपने मतभेद भुलाकर 1938 तक आल इंडिया टेªड यूनियन कंाग्रेस (एटक) के झंडे के नीचे एकताबद्ध हो गई थी। इन सब घटनाओं का सखुन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और वे बीमारी से थोड़ा ठीक होते ही साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे को मजबूत करने में जुट गये। इसी समय में अंग्रेजों ने बहुत सारे क्रंतिकारियों को काले पानी की सजा सुना कर अंडमान की जेल में भेज दिया। तमाम राजनीतिक पार्टियों की ओर से इन देश भक्तों की रिहाई की मांग उठने लगी और एक जबरदस्त आंदोलन खड़ा हो गया, लाहौर के क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सखुन ने बंदी छुड़ाओं कमेटी का गठन किया औद गदरी बाबाओं से मिलकर कैदी छुड़ाओं आदांेलन में एक लाख लोगों का प्रदर्शन करने की योजना बनाई। सरकार ने प्रदर्शन से 10 दिन पहले ही सखुन को गिरफ्तार कर लिया लेकिन सखुन की गिरफ्तारी के बाद भी बहुत शानदार प्रदर्शन हुआ। बढ़ते जनांदोलनों को देखकर सरकार को झुकना पड़ा और अंडमान के बंदियों को अपने-अपने राज्यों से स्थानांतरित किया तथा कुछ बंदियों को रिहा भी किया गया।
इस समय तक जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फांसीवाद और जापान में सैन्यवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुके थे। युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी और सितम्बर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजो ने युद्ध के विरोध को देखते हुए भारत रक्षा अधिनियम भी पारित कर दिया और इस कानून के तहत 1940 में पूरे पंजाब से 40 कम्युनिस्टों एवं सोशलिस्टो को गिरफ्तार कर लिया गया, सखुन भी गिरफ्तार कर लिये गए और उन्हें लाहौर सेन्ट्रल जेल से शाही किले में भेज दिया गया, बाद में उन्हें मिंटगुमरी जेल में भेज दिया गया, वहंा कामरेड धनवतरी पहले से मौजूद थे, जेल में बंदियों को राजनीतिक कैदियों की सुविधा देने की मांग को लेकर भूख हड़ताल कर दी थी और सखुन भी इस भूख हड़ताल में शामिल थे। वे 87 दिन भूख हड़ताल पर रहे। सखुन का स्वास्थ्य पहले ही काफी कमजोर था परन्तु उनकी दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्होंने इतनी लम्बी भूख हड़ताल की और उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। इस कारण उन्हें मिंटगुमरी जेल से देवली शिविर में भेज दिया गया।
देवली कैम्प में सखुन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं - श्रीपाद अमृत डांगे, अजय घोष, जेड. ए. अहमद, एस.वी. घाटे, सोहनसिंह जोश एवं अन्य प्रबुद्ध नेताओं से राजनीतिक विचार विमर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ। हालांकि सखुन मार्क्सवाद और वैज्ञानिक समाजवाद का पहले ही काफी अध्ययन कर चुके थे, परन्तु यहां उनकी वैज्ञानिक समाजवाद के संबंध में समस्त शंकाओं का समाधान हो गया। इसलिए वे कंाग्रेस समाजवादी दल छोड़कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये।
22 जून 1941 को सोवियत संघ पर जर्मनी द्वारा किये गये अचानक हमले के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी युद्ध के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आया। कम्युनिस्टों ने कहा कि जहां पहले युद्ध साम्राज्यवादी देशों के बीच मंडियों के बंटवारे को लेकर आपस में लड़ा जा रहा था वहीं अब युद्ध का मुख्य मोर्चा फांसीवादी ताकतों एवं समाजवादी व जनतांत्रिक शक्तियों के बीच बदल गया है। कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे लोकयुद्ध कहकर युद्ध में मित्र देशों का समर्थन करने का निर्णय लिया। इस निर्णय को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने 23 जुलाई 1942 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध हटा लिया और बहुत सारे कम्युनिस्टों को जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन टीकाराम सखुन, धन्वंतरी, बाबा टहल सिंह, कुन्दनलाल, पं0 किशोरी लाल, बाबा गुरमुख सिंह सबसे अंत में 14 फरवरी 1946 को रिहा होकर लाहौर पहुंचे, जहां 20 हजार के जन समूह ने इन देश भक्तों का जोरदार अभिनन्दन किया।
एक परिपक्व कम्युनिस्ट के रुप में अब सखुन का लक्ष्य शोषित पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष, उन्हें संगठित करना तथा एक शोषण रहित समाज की स्थापना करना था। पंजाब की कम्युनिस्ट पार्टी ने सखुन की डयूटी लाहौर जिला में लगाई, सखुन बड़ी लगन से पार्टी के प्रचार में जुट गये। उन्होंने लाहौर में ट्रेड यूनियन फ्रंट पर काम किया और विशेष तौर पर लाहौर के रेलवे मजदूरों को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया, लेकिन अंग्रेज जाते-जाते देश को हिन्दुस्तान एवं पाकिस्तान में बांटने में कामयाब हो गये। सखुन जी लाहौर से भारत आ गये और अमृतसर में रहकर पाकिस्तान से आये बेघर, असहाय लोगों की मदद में जुट गये, शरणार्थियों की उन्होंने हर सम्भव मदद की। थोडे दिन यहां ठहरने के बाद सखुन दिल्ली आ गये। दिल्ली में पार्टी ने एक दैनिक अखबार उर्दू में ‘नया दौर’ निकाला और डा. अशरफ एवं टीकाराम सखुन इस अखबार में सम्पादक बनाये गये, रिछपाल सिंह को मैनेजर बनाया गया। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की जघन्य हत्या पर सखुन ने अपनी प्रखर लेखनी से हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ दिया, 31 जनवरी को इन्हीं तत्वों ने गुडगांव के मेवात के क्षेत्र में मिठाई बांटी तो सखुन ने इसकी कठोर शब्दों में निदंा की। इसी क्षेत्र में पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों को भी सखुन ने साहस के साथ नया दौर में प्रकाशित किया। इसके लिए सखुन एवं रिछपाल सिंह को गिरफ्तार करके गुडगांव जेल में बंद कर दिया गया। इस अभियोग में गुडगांव के मजिस्ट्रेट ने दोनों को 9-9 महीने की सजा सुनाई जो सेशंस कोर्ट में अपील के बाद 6-6 महीने कर दी गई। कभी गुडगांव तो कभी रोहतक की जेलों में रहते हुए 1951 के अंत में रिहा हुए।
1952 मंे हुए प्रथम आम चुनाव के समय पंजाब में पार्टी उम्मीदवारों के चुनाव प्रचार में सखुन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसी दौरन पंजाब कम्युनिस्ट पार्टी ने जालन्धर से उर्दू में नया जमाना दैनिक अखबार निकालने का फैसला किया और सखुन को इसके संपादक मंडल मंे कार्य के लिए जालंधर बुला लिया और वे इस कार्य में लगन से जुट गये।
हरियाणा उन दिनों पंजाब का पिछड़ा हुआ इलाका था, कारण 1857 की क्रांति में इस इलाके के लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। बाद में अंग्रेजों ने हरियाणावासियों पर भंयकर जुल्म किये, यहां कितने गांवों को जलाकर राख कर दिया, हजारों लोगों को जेलों में डाल दिया और सैंकड़ो लोगो को फांसी पर लटका दिया। शिक्षा आदि के क्षेत्र में यहां के लोगो को सहूलियत नही दी और नौकरी के द्वार इनके लिए बंद कर दिये। इस प्रकार यहां आर्थिक, समाजिक तौर पर पिछड़ापन रहना ही था। दुर्भाग्यवश आजादी के बाद भी इस इलाके के प्रति सोच में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया, उसी तरह के अत्याचार स्वतंत्र भारत में भी पुलिस करती रही। फरवरी 1954 मंे डाकुओं के सफाये के नाम पर रोहतक जिले के 12 गांवों में आम जनता पर पुलिस ने अमानवीय अत्याचार किये। पुलिस के इन जघन्य अपराधों के विरोध में सखुन ने नया जमाना में विस्तार से समाचार प्रकाशित किये और अपराधी पुलिस को दंडित किये जाने की मांग की। 12 मार्च 1954 को इसी संबंध में सम्पादकीय लिखने के कारण टीकाराम सखुन, सरदार गुलाब सिंह प्रीतलडी और बाबू गुरबक्श सिंह के खिलाफ मुकदमा चला दिया। इस अभियोग के लिए सखुन को काफी दिनों तक रोहतक में ठहरना पडा। इस दौरान रोहतक की मेहनतकश जनता से उनका काफी संम्पर्क बढ़ गया और उन्होंने हरियाणा में रहकर ही पार्टी का काम करने का निर्णय लिया।
रोहतक में कम्युनिस्ट पार्टी की एक ब्रांच पहले से ही काम कर रही थी, कामरेड आनन्द स्वरुप एडवोकेट ने इस ब्रांच को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सखुन के रोहतक आने के बाद यहां पार्टी एवं किसान सभा में काफी मजबूती आई। सखुन की मेहनत से यहां पार्टी ने किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों के कई बड़े-बड़े आंदोलन चलाये। इन आंदोलनों के परिणामस्वरुप 1957 के आम चुनाव में रोहतक लोकसभा सीट पर प्रताप सिंह दौलता कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रुप में 28000 वोटो से विजयी हुए और रोहतक जिले (वर्तमान में सोनीपत) के राई क्षेत्र से हुकम सिंह एवं झज्जर से फूल सिंह भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर एमएलए चुने गये।
थोडे समय बाद सखुन ने करनाल की तरफ भी ध्यान देना शुरु किया। पाकिस्तान से आने के बाद डा. हरनाम सिंह ने करनाल जिले में पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अन्य साथियों के साथ मिलकर सखुन को करनाल लाने का प्रयास किया। रोहतक में पार्टी की टीम बेहतर काम कर रही थी इसलिये सखुन फौरन करनाल चले आये। यहां आते ही उन्होंने पार्टी शिक्षा के कार्य को हाथ में लिया और थोड़े दिनों में ही पार्टी गुणात्मक रुप से सुदृढ़ हुई। वहीं पार्टी का जनाधार भी तेजी से बढ़ा। करनाल जिला पार्टी का दूसरा सम्मेलन 14 से 16 दिसम्बर 1955 को हुआ जिसमें कामरेड सखुन जिला सचिव चुने गये।
सखुन वास्तव में पार्टी के एक निस्वार्थ सेवक थे। यद्यपि उनका जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था परन्तु उन्होंने अपना सब कुछ त्याग कर मेंहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष का रास्ता अपना लिया। उन्हें व्यक्तिगत सम्पति से कोई लगाव नही था यहां तक कि उनके पास अपना घर तक नहीं था। इस संबंध में उनका कहना था कि ‘अभी तो कामरेड देश के करोड़ो लोगों के पास अपना घर नही है वे फुटपाथ पर रहते है, तो हमारा क्या?’। सखुन बार-बार कहा करते थे कि अगर सम्पति का लगाव एक क्रांतिकारी को रहता है तो उसे वह ले डूबता है, सम्पति उसे अपने इरादे से भटका देती है। क्रांतिकारियों का परस्पर विश्वास, पक्का इरादा और चट्टानी एकता ही क्रांतिकारियों की सम्पति होनी चाहिए, सखुन इन शब्दों को जीवन में उतार चुके थे। भारत सरकार ने जब स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन एवं ताम्रपत्र का एलान किया तो सखुन ने इन्हें लेने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। इस संबंध मंे जब एक पत्रकार ने पूछा कि ‘आपकी जिंदगी तो हमेशा जेलों और भूख हड़तालों में रही, आप पेंशन (200 रुपये मासिक) क्यों नही लेते’? तो उन्होंने कहा कि मैने ऐसा करके राष्ट्र पर कोई एहसान नही किया है बल्कि अपने कर्तव्य के पालन का प्रयास भर किया है। मुझे केवल दो रोटी ही चाहिए। वे आराम से मिल ही रही है।
सखुन ने हरियाणा में केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ही विस्तार नहीं किया बल्कि इस क्षेत्र में पंजाब सरकार एवं प्रशासन की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन भी चलाये और विपक्ष को एक जुट करने के लिए हरियाणा संयुक्त जनवादी मोर्चा भी बनाया। इसके झंडे के नीचे 11 नवम्बर 1956 को रोहतक में एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 1000 लोगों ने भाग लिया। सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में इस बात को लेकर तीव्र मतभेद हो गया कि चीन हमलावर है या नही। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने बहुमत से प्रस्ताव पास किया कि चीन ने भारत पर आक्रमण करके गलती की है और सरकार को सहयोग करने का निर्णय लिया। कुछ लोग इस हक में नही थे और उनका कहना था कि चीन कम्युनिस्ट देश है इसलिए वह दूसरे देश पर हमला नही कर सकता। यही विचार सखुन के भी थे अतः उन्हें व उनकी धर्मपत्नी शकुन्तला सखुन को 21-22 नवम्बर 1962 को गिरफ्तार करके हिसार व गुडगांव जेल में बंद कर दिया और 11 महिने के बाद उन्हें रिहा किया गया।
जेल से आने के बाद भिन्न विचार के बाद भी सखुन ने दो पार्टी बनाने का कड़ा विरोध किया उन्होंने कहा कि ‘अगर हम इन्क्लाबी है और मार्क्सवाद में पक्का विश्वास है तो एक मुल्क में दो कम्युनिस्ट पार्टी नहीं हो सकती चाहे हमारे मतभेद कितने ही तीव्र हो’। इसके बाद सखुन ने कम्युनिस्ट पार्टी में बिदक रहे लोगों को सही रास्ते पर लाने का काम किया। बहुत मेहनत की, रात दिन एक कर दिया। सभाएं की, जलसे किये, इस्तहार निकाले और 20 अक्टूबर 1964 को ‘हरियाणा दर्पण’ नामक साप्ताहिक अखबार निकालना शुरु किया।
हरियाणा दर्पण में सखुन सम्पादकीय, विशेष लेख, नारद वाणी, आलोचना-समालोचना, सवाल आपके जवाब नारद के कालम स्वयं लिखते थे, यहां तक कि बीमारी की हालत में भी उन्होंने लिखना नही छोड़ा। उन्होंने हरियाणा दर्पण अखबार ही नही निकाला बल्कि अलग हरियाणा राज्य बनाने की मांग पर भी आंदोलन चलाया। उन्होंने कहा कि ‘हरियाणा की बोली, परम्परा, संस्कृति एवं सामाजिक जीवन पंजाब से भिन्न है, वहीं अलवर, भरतपुर और मारवाड़ आदि की भी पंजाब से भिन्न संस्कृति है और यह सब इलाके दिल्ली से जुड़े हुए हैं इन सबकी बोली, रहन-सहन, परम्परा एवं संस्कृति एक है इसलिए इस सब इलाकों को मिलाकर ”विशाल हरियाणा“ का निर्माण किया जाना चाहिए’। काफी तीव्र आंदोलन एवं अनेको लोगों द्वारा अनेक बार जेल यात्राओं के बाद अन्ततः 1 नवम्बर 1966 को विधिवत रुप से हरियाणा राज्य का गठन किया गया। इसके निर्माण में सखुन की शानदार भूमिका रही। हरियाणा बनने के बाद उन्होंने हरियाणा के विकास के लिये अनेक लेख हरियाणा दर्पण एवं दूसरे पत्रों में लिखे और लोगों एवं सरकार द्वारा सराहे गए। इस विषय में उनका सबसे महत्वपूर्ण सुझाव था कि ‘हरियाणा बड़ा छोटा सा राज्य है, यह केवल अपने साधनों के बलबूते अपना विकास नही कर सकता, इसलिए केन्द्र की ओर से विशेष सहायता की जरुरत है’।
हरियाणा राज्य बनने के बाद सखुन ने पार्टी के काम को ओर लगन से, तेजी से करना शुरु किया। इसमें साथ ही सखुन को भाकपा का हरियाणा में प्रथम राज्य सचिव बनाया गया और राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया। उनके कार्यकाल में हरियाणा में पार्टी ने दिन दूनी तरक्की की। 1968 में हरियाणा में मात्र 1500 पार्टी सदस्य थे। उनके राज्य सचिव रहते 1976 मंे सदस्य संख्या बढ़कर 5345 तक पहुंच गई। कामरेड सखुन 1968 में पहली, 1972 में दूसरी तथा 1975 में तीसरी बार लगातार राज्य सचिव चुने जाते रहे। सखुन ने दर्जनों कहानियां, नाटक लिखे। वें बहुत अच्छे साहित्यकार थे, उन्होंने बहुत सारे पत्रों में काम किया। वे कार्यकर्ताओं से बहुत प्यार करते थे। करनाल दफ्तर में आने वाले प्रत्येक कामरेड को अपने हाथ से चाय पिलाने, खाना खिलाने में स्वयं को गौरवांवित महसूस करते थें। दिसम्बर 1975 में पार्टी की पचासवी वर्षगांठ के अवसर पर करनाल में राज्य स्तरीय समारोह का फैसला किया गया और सखुन जी ने इसकी तैयारियों में दिन रात एक कर दिया, परिणामस्वरुप पहले से चल रही बीमारी और बढ़ गई और उन्हें हस्पताल में दाखिल होना पड़ा। सखुन इस समारोह में शामिल नही हो पाये। मुख्य अतिथि डा0 गंगाधर अधिकारी ने अस्पताल जाकर उन्हंे मेडल देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर टीकाराम सखुन, डा. हरनाम सिंह, रघबीर सिंह चौधरी, मक्खन ंिसह एवं बलदेव बक्शी पांच साथियों को पार्टी की सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया।
कुछ समय बाद उनकी स्थिति और बिगड़ गई, पार्टी ने ईलाज के लिए उन्हें बुल्गारिया भेजा, काफी ईलाज के बाद भी वे स्वस्थ नही हो सके और 1 सितम्बर 1976 को मौत ने मेहनतकशों के इस महान मित्र को सदा के लिए उठा लिया। सब जगह शोक की लहर दौड़ गई, समाचार पत्रों ने शोक संदेश प्रकाशित किये। हजारों किसानों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों, छात्रों, नौजवानो ने अपने प्रिय दिवंगत नेता टीकाराम सखुन को श्रद्धाजंलि अर्पित की।
- ¬ दरियाव सिंह कश्यप
बालक टीकाराम जन्म से ही श्वेत रंगी थे उनकी चमड़ी, केश यहां तक कि उनकी भवें एवं आंखों की पलके तक भी सफेद थी। ऐसी सूरत के कारण वह अंग्रेजो के बच्चों की तरह लगता था। उनकी माता जी का परिवार आर्य समाजी था इसलिए उनकी माता जी पर भी आर्य समाज का प्रभाव रहा और टीकाराम के लालन-पालन पर भी आर्य समाज का प्रभाव पड़ा। लेकिन जब यें मात्र साढ़े चार वर्ष के थे तो इनकी माता जी का देहांत हो गया और उनकी बड़ी बहन बिमला देवी ने उनका पालन पोषण किया। पांच वर्ष की आयु में उन्हें ‘बिशप कॉटन’ स्कूल शिमला में दाखिल करा दिया गया, 1859 में अंग्रेजों के बच्चों के लिए यह स्कूल खोला गया था लेकिन बाद में एक विशेष वर्ग के भारतीय बच्चों को भी इसमें प्रवेश दिया जाने लगा। स्कूल में अ्रग्रेजों के बच्चों की संख्या अधिक थी और वे भारतीय बच्चों से बहुत धृणा करते थे और उनका मजाक उड़ाया करते थे हांलाकि भारतीय बच्चे भी बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं के या उच्चाधिकारियों के होते थे।
विद्यार्थी जीवन में ही सखुन ने भारतीयों के प्रति अंग्रजों के व्यवहार को बहुत नजदीक से देखा, एक मामूली से मामूली अंग्रेज के सामने भी भारतीयों को बार बार गिड़गिडाते देखा। ऐसे वातावरण ने सखुन के दिल में अंग्रेजों के प्रति प्रबल संघर्ष की प्रवृति के बीज बो दिए। अंग्रेजो के बच्चों के व्यवहार के चलते उन्होंने छटी कक्षा में पढ़ते हुए बिशप कॉटन स्कूल छोड़ दिया और किसी को बिना बताए अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के पास लाहौर पहुंच गये, उसने सखुन को डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिला दिया। प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था और रोल्ट एक्ट पास हो चुका था। इस एक्ट के खिलाफ गांधी जी ने जन-आंदोलन छेड़ दिया था, कालेजों के साथ-साथ स्कूलों के विद्यार्थी भी इस आंदोलन में भारी संख्या में भाग ले रहे थे। सखुन भी अपने स्कूल के छात्रों के साथ बड़े जोशो खरोश के साथ इस आंदोलन में शामिल हुए और मात्र 10 वर्ष की उम्र में उन्हें 30-40 बच्चों के साथ गिरफ्तार करके बोर्स्टल जेल में भेज दिया गया।
जब सखुन के पिता जी को इस बात की खबर लगी तो वे लाहौर आये और उन्होंने पुलिस व जेल अधिकारियों को रजामंद कर लिया कि बालक के माफी मांगने पर उन्हें छोड दिया जायेगा, लेकिन सखुन ने माफी मांगने से साफ मना कर दिया और उनके पिता जी को निराश होकर वापस लौटना पड़ा। सन 1922 कें अंत में जेल से बाहर आने के बाद जब सखुन घर गये तो उनके पिता जी ने कहा कि या तो अपनी शर्मनाक हरकत छोड़ दो या घर छोड़ दो तो उन्होंने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया कि ‘पिता जी मैं यह महसूस करता हूं कि इस घर को मेरी आवश्यकता नही है’। यह कह कर उन्होंने घर सदा के लिए छोड़ दिया। सखुन ने भाई कल्याण सिंह के पास आकर किसी तरह फिर डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला लिया और मेहनत व लगन से पढ़ाई के चलते दसवीं कक्षा पास की और डी.ए.वी. कालेज में दाखिला लिया। डी.वी.ए. कालेज उन दिनों राजनीति का केन्द्र था और सखुन भी देश की आजादी के आंदोलन में सक्रिय हो गये और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में अगली कतारों में खड़े हो गये। सरकार ने डी.ए.वी. कालेज के प्राचार्य से टीकाराम को ठीक करने के लिए कहा तो प्राचार्य ने उन्हें कुछ दिन राजनीति छोड़ देने की सलाह दी। उन्होंने राजनीति छोड़ने के बजाए कालेज ही छोड़ दिया और एफ.सी. कालेज लाहौर में दाखिला लेकर वहां से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की।
इसके बाद वे पूरे तौर पर सक्रिय राजनीति में उतर पड़े, बालकों वाला जोश अब होश में बदल गया था, सब बातें सोच-विचार कर करने लगे थे। हालांकि वे गांधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल हुए थे लेकिन उन्हें गांधी जी के रास्ते पर चलने में कोई औचित्य नजर नही आया। इसी समय में उनका झुकाव क्रांतिकारियों की ओर हुआ, इन्ही दिनों पंजाव नौजवान भारत सभा का गठन हुआ और वे इसमें शामिल हो गये। सन 1928 में सभी राजनीतिक पार्टियों ने साईमन कमीशन का विरोध करने का फैसला किया और लाहौर में इस विरोध प्रदर्शन की तैयारी में सखुन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 30 अक्तुबर 1928 को जब ‘साईमन कमीशन’ लाहौर आया तो उसके विरोध में काले झंडे उठाये, साईमन कमीशन वापस जाओं के नारे लगाते हुए विशाल प्रदर्शन किया, सखुन इस प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाली टीम मे शामिल थे। इस प्रदर्शन से बौखलाकर प्रशासन ने जुलूस पर भंयकर लाठीचार्ज किया जिसमें काफी लोग घायल हो गये, लाला लाजपत राय की छाती पर काफी चोट आई और कुछ दिनों में ही लाला जी की मृत्यु हो गई।
इसी दौरान टीकाराम की मुलाकात हिन्दुस्तान सोशिलस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कमांडर चन्द्रशेखर आजाद से हुई, उन्होंने सखुन को सलाह दी कि तुम क्रांतिकारी समाजवादी विचारों का अपनी वाणी एवं लेखनी से जनता में प्रचार करों और उन्होंने अपनी इस कला का अंत तक प्रयोग किया। वे अपने समय के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शायर हुए और शायर होने के नाते ही उन्होंने अपना तखल्लुस ‘सखुन’ रखा था, सखुन का अर्थ है काव्य (शायरी)। इन्हीं दिनों सखुन भगतसिंह, चन्द्रशेखर जैसे बहुत सारे क्रांतिकारियों के विश्वसनीय साथी हो गये थे। सखुन ने युवा क्रांतिकारी बलदेव मित्र बिजली, इन्द्रपाल के साथ मिलकर उर्दू में ‘कड़क’ साप्ताहिक अखबार निकाला। क्रांतिकारी नजमों एवं राजनीतिक गतिविधियों के चलते सखुन पर विभिन्न धाराओं में मुकदमें चलाये गये और तीन मुकदमों में उन्हें एक-एक साल की कैद की सजा दी गई। लेकिन 5 मार्च 1931 को गांधी इर्विन समझौते के तहत सखुन सहित बहुत सारे क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया गया। परन्तु भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव के बारे में कोई चर्चा न हो पाने के कारण तीनों को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। पंजाब सहित पूरे देश के नौजवाानों का गुस्सा चरम सीमा पर था। इस समय सखुन ने कई नज्में लिखी, एक नज़्म में उन्होंने लिखा:-
कटे जो चन्द डालिया तो दरख्त में हो ताजगी।
कटे जो चन्द गरदनें तो कौम हो हरी-भरी।।
शहीद की जो मौत है वह कौम की हयात है।
हयात तो हयात है मौत भी हयात है।।
बाद में सखुन को अन्य क्रंातिकारियों के साथ ‘लाल पर्चा’ लिखने एवं छापने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया। इसी दौरान जेल मे बंद टीकाराम सखुन के बड़े भाई कल्याण सिंह बीमार पड़ गए और उन्हें टी.बी. हो गई। वे टी.बी. से उबर नही पाये और उनकी दुखद मृत्यु हो गई। अपने क्रांतिकारी सहयोगी व बड़े भाई की मृत्यु पर सखुन को बहुत दुख हुआ लेकिन उन्हें संस्कार में शामिल होने के लिये घर नही जाने दिया गया। सखुन को 3 साल की सजा हुई और झेलम जेल और शाही किले की जेल तक उन्हे भेजा जाता रहा, उन्होंने जेल को क्रंातिकारी समाजवादी विचारों का अध्यन केन्द्र बना लिया। इस दौरान वें अनेक क्रांतिकारियों से मिले औैैर काम के अनुभवों का आदान-प्रदान किया। 1937 के अंत में वे जबरदस्त बीमार पड़ गये थे। बीमारी की हालत में उन्हें 1938 के शुरु में रिहा कर दिया गया। इस दौरान वामपंथी शक्तियां साम्राज्यवाद के विरोध में एकता के साथ मुखर हो गई और मेंहनतकशों, बुद्धिजीवियों में उत्साह की नई तरंग पैदा हो गई, जनांदोलनों का एक तूफान खड़ा हो गया। कई राष्ट्रीय संगठन उभर कर सामने आये। 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा, आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन व प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ। मजदूर यूनियनंे भी अपने मतभेद भुलाकर 1938 तक आल इंडिया टेªड यूनियन कंाग्रेस (एटक) के झंडे के नीचे एकताबद्ध हो गई थी। इन सब घटनाओं का सखुन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और वे बीमारी से थोड़ा ठीक होते ही साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे को मजबूत करने में जुट गये। इसी समय में अंग्रेजों ने बहुत सारे क्रंतिकारियों को काले पानी की सजा सुना कर अंडमान की जेल में भेज दिया। तमाम राजनीतिक पार्टियों की ओर से इन देश भक्तों की रिहाई की मांग उठने लगी और एक जबरदस्त आंदोलन खड़ा हो गया, लाहौर के क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सखुन ने बंदी छुड़ाओं कमेटी का गठन किया औद गदरी बाबाओं से मिलकर कैदी छुड़ाओं आदांेलन में एक लाख लोगों का प्रदर्शन करने की योजना बनाई। सरकार ने प्रदर्शन से 10 दिन पहले ही सखुन को गिरफ्तार कर लिया लेकिन सखुन की गिरफ्तारी के बाद भी बहुत शानदार प्रदर्शन हुआ। बढ़ते जनांदोलनों को देखकर सरकार को झुकना पड़ा और अंडमान के बंदियों को अपने-अपने राज्यों से स्थानांतरित किया तथा कुछ बंदियों को रिहा भी किया गया।
इस समय तक जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फांसीवाद और जापान में सैन्यवाद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुके थे। युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी और सितम्बर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजो ने युद्ध के विरोध को देखते हुए भारत रक्षा अधिनियम भी पारित कर दिया और इस कानून के तहत 1940 में पूरे पंजाब से 40 कम्युनिस्टों एवं सोशलिस्टो को गिरफ्तार कर लिया गया, सखुन भी गिरफ्तार कर लिये गए और उन्हें लाहौर सेन्ट्रल जेल से शाही किले में भेज दिया गया, बाद में उन्हें मिंटगुमरी जेल में भेज दिया गया, वहंा कामरेड धनवतरी पहले से मौजूद थे, जेल में बंदियों को राजनीतिक कैदियों की सुविधा देने की मांग को लेकर भूख हड़ताल कर दी थी और सखुन भी इस भूख हड़ताल में शामिल थे। वे 87 दिन भूख हड़ताल पर रहे। सखुन का स्वास्थ्य पहले ही काफी कमजोर था परन्तु उनकी दृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इन्होंने इतनी लम्बी भूख हड़ताल की और उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। इस कारण उन्हें मिंटगुमरी जेल से देवली शिविर में भेज दिया गया।
देवली कैम्प में सखुन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं - श्रीपाद अमृत डांगे, अजय घोष, जेड. ए. अहमद, एस.वी. घाटे, सोहनसिंह जोश एवं अन्य प्रबुद्ध नेताओं से राजनीतिक विचार विमर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ। हालांकि सखुन मार्क्सवाद और वैज्ञानिक समाजवाद का पहले ही काफी अध्ययन कर चुके थे, परन्तु यहां उनकी वैज्ञानिक समाजवाद के संबंध में समस्त शंकाओं का समाधान हो गया। इसलिए वे कंाग्रेस समाजवादी दल छोड़कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये।
22 जून 1941 को सोवियत संघ पर जर्मनी द्वारा किये गये अचानक हमले के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का भी युद्ध के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आया। कम्युनिस्टों ने कहा कि जहां पहले युद्ध साम्राज्यवादी देशों के बीच मंडियों के बंटवारे को लेकर आपस में लड़ा जा रहा था वहीं अब युद्ध का मुख्य मोर्चा फांसीवादी ताकतों एवं समाजवादी व जनतांत्रिक शक्तियों के बीच बदल गया है। कम्युनिस्ट पार्टी ने इसे लोकयुद्ध कहकर युद्ध में मित्र देशों का समर्थन करने का निर्णय लिया। इस निर्णय को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने 23 जुलाई 1942 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध हटा लिया और बहुत सारे कम्युनिस्टों को जेल से रिहा कर दिया गया। लेकिन टीकाराम सखुन, धन्वंतरी, बाबा टहल सिंह, कुन्दनलाल, पं0 किशोरी लाल, बाबा गुरमुख सिंह सबसे अंत में 14 फरवरी 1946 को रिहा होकर लाहौर पहुंचे, जहां 20 हजार के जन समूह ने इन देश भक्तों का जोरदार अभिनन्दन किया।
एक परिपक्व कम्युनिस्ट के रुप में अब सखुन का लक्ष्य शोषित पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष, उन्हें संगठित करना तथा एक शोषण रहित समाज की स्थापना करना था। पंजाब की कम्युनिस्ट पार्टी ने सखुन की डयूटी लाहौर जिला में लगाई, सखुन बड़ी लगन से पार्टी के प्रचार में जुट गये। उन्होंने लाहौर में ट्रेड यूनियन फ्रंट पर काम किया और विशेष तौर पर लाहौर के रेलवे मजदूरों को संगठित करने में अहम भूमिका निभाई।
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया, लेकिन अंग्रेज जाते-जाते देश को हिन्दुस्तान एवं पाकिस्तान में बांटने में कामयाब हो गये। सखुन जी लाहौर से भारत आ गये और अमृतसर में रहकर पाकिस्तान से आये बेघर, असहाय लोगों की मदद में जुट गये, शरणार्थियों की उन्होंने हर सम्भव मदद की। थोडे दिन यहां ठहरने के बाद सखुन दिल्ली आ गये। दिल्ली में पार्टी ने एक दैनिक अखबार उर्दू में ‘नया दौर’ निकाला और डा. अशरफ एवं टीकाराम सखुन इस अखबार में सम्पादक बनाये गये, रिछपाल सिंह को मैनेजर बनाया गया। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की जघन्य हत्या पर सखुन ने अपनी प्रखर लेखनी से हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ दिया, 31 जनवरी को इन्हीं तत्वों ने गुडगांव के मेवात के क्षेत्र में मिठाई बांटी तो सखुन ने इसकी कठोर शब्दों में निदंा की। इसी क्षेत्र में पुलिस द्वारा किए गए अत्याचारों को भी सखुन ने साहस के साथ नया दौर में प्रकाशित किया। इसके लिए सखुन एवं रिछपाल सिंह को गिरफ्तार करके गुडगांव जेल में बंद कर दिया गया। इस अभियोग में गुडगांव के मजिस्ट्रेट ने दोनों को 9-9 महीने की सजा सुनाई जो सेशंस कोर्ट में अपील के बाद 6-6 महीने कर दी गई। कभी गुडगांव तो कभी रोहतक की जेलों में रहते हुए 1951 के अंत में रिहा हुए।
1952 मंे हुए प्रथम आम चुनाव के समय पंजाब में पार्टी उम्मीदवारों के चुनाव प्रचार में सखुन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। इसी दौरन पंजाब कम्युनिस्ट पार्टी ने जालन्धर से उर्दू में नया जमाना दैनिक अखबार निकालने का फैसला किया और सखुन को इसके संपादक मंडल मंे कार्य के लिए जालंधर बुला लिया और वे इस कार्य में लगन से जुट गये।
हरियाणा उन दिनों पंजाब का पिछड़ा हुआ इलाका था, कारण 1857 की क्रांति में इस इलाके के लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। बाद में अंग्रेजों ने हरियाणावासियों पर भंयकर जुल्म किये, यहां कितने गांवों को जलाकर राख कर दिया, हजारों लोगों को जेलों में डाल दिया और सैंकड़ो लोगो को फांसी पर लटका दिया। शिक्षा आदि के क्षेत्र में यहां के लोगो को सहूलियत नही दी और नौकरी के द्वार इनके लिए बंद कर दिये। इस प्रकार यहां आर्थिक, समाजिक तौर पर पिछड़ापन रहना ही था। दुर्भाग्यवश आजादी के बाद भी इस इलाके के प्रति सोच में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया, उसी तरह के अत्याचार स्वतंत्र भारत में भी पुलिस करती रही। फरवरी 1954 मंे डाकुओं के सफाये के नाम पर रोहतक जिले के 12 गांवों में आम जनता पर पुलिस ने अमानवीय अत्याचार किये। पुलिस के इन जघन्य अपराधों के विरोध में सखुन ने नया जमाना में विस्तार से समाचार प्रकाशित किये और अपराधी पुलिस को दंडित किये जाने की मांग की। 12 मार्च 1954 को इसी संबंध में सम्पादकीय लिखने के कारण टीकाराम सखुन, सरदार गुलाब सिंह प्रीतलडी और बाबू गुरबक्श सिंह के खिलाफ मुकदमा चला दिया। इस अभियोग के लिए सखुन को काफी दिनों तक रोहतक में ठहरना पडा। इस दौरान रोहतक की मेहनतकश जनता से उनका काफी संम्पर्क बढ़ गया और उन्होंने हरियाणा में रहकर ही पार्टी का काम करने का निर्णय लिया।
रोहतक में कम्युनिस्ट पार्टी की एक ब्रांच पहले से ही काम कर रही थी, कामरेड आनन्द स्वरुप एडवोकेट ने इस ब्रांच को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सखुन के रोहतक आने के बाद यहां पार्टी एवं किसान सभा में काफी मजबूती आई। सखुन की मेहनत से यहां पार्टी ने किसानों, मजदूरों, कर्मचारियों के कई बड़े-बड़े आंदोलन चलाये। इन आंदोलनों के परिणामस्वरुप 1957 के आम चुनाव में रोहतक लोकसभा सीट पर प्रताप सिंह दौलता कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रुप में 28000 वोटो से विजयी हुए और रोहतक जिले (वर्तमान में सोनीपत) के राई क्षेत्र से हुकम सिंह एवं झज्जर से फूल सिंह भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर एमएलए चुने गये।
थोडे समय बाद सखुन ने करनाल की तरफ भी ध्यान देना शुरु किया। पाकिस्तान से आने के बाद डा. हरनाम सिंह ने करनाल जिले में पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अन्य साथियों के साथ मिलकर सखुन को करनाल लाने का प्रयास किया। रोहतक में पार्टी की टीम बेहतर काम कर रही थी इसलिये सखुन फौरन करनाल चले आये। यहां आते ही उन्होंने पार्टी शिक्षा के कार्य को हाथ में लिया और थोड़े दिनों में ही पार्टी गुणात्मक रुप से सुदृढ़ हुई। वहीं पार्टी का जनाधार भी तेजी से बढ़ा। करनाल जिला पार्टी का दूसरा सम्मेलन 14 से 16 दिसम्बर 1955 को हुआ जिसमें कामरेड सखुन जिला सचिव चुने गये।
सखुन वास्तव में पार्टी के एक निस्वार्थ सेवक थे। यद्यपि उनका जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था परन्तु उन्होंने अपना सब कुछ त्याग कर मेंहनतकश जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष का रास्ता अपना लिया। उन्हें व्यक्तिगत सम्पति से कोई लगाव नही था यहां तक कि उनके पास अपना घर तक नहीं था। इस संबंध में उनका कहना था कि ‘अभी तो कामरेड देश के करोड़ो लोगों के पास अपना घर नही है वे फुटपाथ पर रहते है, तो हमारा क्या?’। सखुन बार-बार कहा करते थे कि अगर सम्पति का लगाव एक क्रांतिकारी को रहता है तो उसे वह ले डूबता है, सम्पति उसे अपने इरादे से भटका देती है। क्रांतिकारियों का परस्पर विश्वास, पक्का इरादा और चट्टानी एकता ही क्रांतिकारियों की सम्पति होनी चाहिए, सखुन इन शब्दों को जीवन में उतार चुके थे। भारत सरकार ने जब स्वतंत्रता सेनानियों को पेंशन एवं ताम्रपत्र का एलान किया तो सखुन ने इन्हें लेने से स्पष्ट इन्कार कर दिया। इस संबंध मंे जब एक पत्रकार ने पूछा कि ‘आपकी जिंदगी तो हमेशा जेलों और भूख हड़तालों में रही, आप पेंशन (200 रुपये मासिक) क्यों नही लेते’? तो उन्होंने कहा कि मैने ऐसा करके राष्ट्र पर कोई एहसान नही किया है बल्कि अपने कर्तव्य के पालन का प्रयास भर किया है। मुझे केवल दो रोटी ही चाहिए। वे आराम से मिल ही रही है।
सखुन ने हरियाणा में केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का ही विस्तार नहीं किया बल्कि इस क्षेत्र में पंजाब सरकार एवं प्रशासन की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आंदोलन भी चलाये और विपक्ष को एक जुट करने के लिए हरियाणा संयुक्त जनवादी मोर्चा भी बनाया। इसके झंडे के नीचे 11 नवम्बर 1956 को रोहतक में एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें 1000 लोगों ने भाग लिया। सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में इस बात को लेकर तीव्र मतभेद हो गया कि चीन हमलावर है या नही। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने बहुमत से प्रस्ताव पास किया कि चीन ने भारत पर आक्रमण करके गलती की है और सरकार को सहयोग करने का निर्णय लिया। कुछ लोग इस हक में नही थे और उनका कहना था कि चीन कम्युनिस्ट देश है इसलिए वह दूसरे देश पर हमला नही कर सकता। यही विचार सखुन के भी थे अतः उन्हें व उनकी धर्मपत्नी शकुन्तला सखुन को 21-22 नवम्बर 1962 को गिरफ्तार करके हिसार व गुडगांव जेल में बंद कर दिया और 11 महिने के बाद उन्हें रिहा किया गया।
जेल से आने के बाद भिन्न विचार के बाद भी सखुन ने दो पार्टी बनाने का कड़ा विरोध किया उन्होंने कहा कि ‘अगर हम इन्क्लाबी है और मार्क्सवाद में पक्का विश्वास है तो एक मुल्क में दो कम्युनिस्ट पार्टी नहीं हो सकती चाहे हमारे मतभेद कितने ही तीव्र हो’। इसके बाद सखुन ने कम्युनिस्ट पार्टी में बिदक रहे लोगों को सही रास्ते पर लाने का काम किया। बहुत मेहनत की, रात दिन एक कर दिया। सभाएं की, जलसे किये, इस्तहार निकाले और 20 अक्टूबर 1964 को ‘हरियाणा दर्पण’ नामक साप्ताहिक अखबार निकालना शुरु किया।
हरियाणा दर्पण में सखुन सम्पादकीय, विशेष लेख, नारद वाणी, आलोचना-समालोचना, सवाल आपके जवाब नारद के कालम स्वयं लिखते थे, यहां तक कि बीमारी की हालत में भी उन्होंने लिखना नही छोड़ा। उन्होंने हरियाणा दर्पण अखबार ही नही निकाला बल्कि अलग हरियाणा राज्य बनाने की मांग पर भी आंदोलन चलाया। उन्होंने कहा कि ‘हरियाणा की बोली, परम्परा, संस्कृति एवं सामाजिक जीवन पंजाब से भिन्न है, वहीं अलवर, भरतपुर और मारवाड़ आदि की भी पंजाब से भिन्न संस्कृति है और यह सब इलाके दिल्ली से जुड़े हुए हैं इन सबकी बोली, रहन-सहन, परम्परा एवं संस्कृति एक है इसलिए इस सब इलाकों को मिलाकर ”विशाल हरियाणा“ का निर्माण किया जाना चाहिए’। काफी तीव्र आंदोलन एवं अनेको लोगों द्वारा अनेक बार जेल यात्राओं के बाद अन्ततः 1 नवम्बर 1966 को विधिवत रुप से हरियाणा राज्य का गठन किया गया। इसके निर्माण में सखुन की शानदार भूमिका रही। हरियाणा बनने के बाद उन्होंने हरियाणा के विकास के लिये अनेक लेख हरियाणा दर्पण एवं दूसरे पत्रों में लिखे और लोगों एवं सरकार द्वारा सराहे गए। इस विषय में उनका सबसे महत्वपूर्ण सुझाव था कि ‘हरियाणा बड़ा छोटा सा राज्य है, यह केवल अपने साधनों के बलबूते अपना विकास नही कर सकता, इसलिए केन्द्र की ओर से विशेष सहायता की जरुरत है’।
हरियाणा राज्य बनने के बाद सखुन ने पार्टी के काम को ओर लगन से, तेजी से करना शुरु किया। इसमें साथ ही सखुन को भाकपा का हरियाणा में प्रथम राज्य सचिव बनाया गया और राष्ट्रीय परिषद का सदस्य बनाया गया। उनके कार्यकाल में हरियाणा में पार्टी ने दिन दूनी तरक्की की। 1968 में हरियाणा में मात्र 1500 पार्टी सदस्य थे। उनके राज्य सचिव रहते 1976 मंे सदस्य संख्या बढ़कर 5345 तक पहुंच गई। कामरेड सखुन 1968 में पहली, 1972 में दूसरी तथा 1975 में तीसरी बार लगातार राज्य सचिव चुने जाते रहे। सखुन ने दर्जनों कहानियां, नाटक लिखे। वें बहुत अच्छे साहित्यकार थे, उन्होंने बहुत सारे पत्रों में काम किया। वे कार्यकर्ताओं से बहुत प्यार करते थे। करनाल दफ्तर में आने वाले प्रत्येक कामरेड को अपने हाथ से चाय पिलाने, खाना खिलाने में स्वयं को गौरवांवित महसूस करते थें। दिसम्बर 1975 में पार्टी की पचासवी वर्षगांठ के अवसर पर करनाल में राज्य स्तरीय समारोह का फैसला किया गया और सखुन जी ने इसकी तैयारियों में दिन रात एक कर दिया, परिणामस्वरुप पहले से चल रही बीमारी और बढ़ गई और उन्हें हस्पताल में दाखिल होना पड़ा। सखुन इस समारोह में शामिल नही हो पाये। मुख्य अतिथि डा0 गंगाधर अधिकारी ने अस्पताल जाकर उन्हंे मेडल देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर टीकाराम सखुन, डा. हरनाम सिंह, रघबीर सिंह चौधरी, मक्खन ंिसह एवं बलदेव बक्शी पांच साथियों को पार्टी की सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया।
कुछ समय बाद उनकी स्थिति और बिगड़ गई, पार्टी ने ईलाज के लिए उन्हें बुल्गारिया भेजा, काफी ईलाज के बाद भी वे स्वस्थ नही हो सके और 1 सितम्बर 1976 को मौत ने मेहनतकशों के इस महान मित्र को सदा के लिए उठा लिया। सब जगह शोक की लहर दौड़ गई, समाचार पत्रों ने शोक संदेश प्रकाशित किये। हजारों किसानों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों, छात्रों, नौजवानो ने अपने प्रिय दिवंगत नेता टीकाराम सखुन को श्रद्धाजंलि अर्पित की।
- ¬ दरियाव सिंह कश्यप
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