2014 में लोक सभा चुनाव होने हैं। सबसे बड़ा प्रदेश होने के कारण देश की राजनीति में उत्तर प्रदेश ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है क्योंकि लोकसभा के लिए 80 सदस्य केवल इस प्रदेश से ही चुने जाते हैं। पिछले कुछ दशकों में उत्तर प्रदेश की जनता धार्मिक एवं जातीय संकीर्णता में जकड़ गयी है, जिसके कारण प्रदेश की राजनीति मुख्य चार दलों - कांग्रेस, भाजपा, सपा एवं बसपा के बीच सिमट कर रह गयी है। प्रदेश में होने वाले मतदान का बड़ा हिस्सा इन्हीं चारों राजनीतिक दलों के बीच बट जाता है और लोकसभा के सीटें भी मुख्यतः इन्हीं के बीच बंट जाती हैं। प्राप्त होने वाले मतों में हल्का सा परिवर्तन परिणामों पर बहुत अधिक प्रभाव डालता है।
उदाहरण के लिए 2009 में हुये लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में 6.3 प्रतिशत रूझान ने उसे 18.3 प्रतिशत मत एवं 21 सीटों पर विजय दिला दी थी, जबकि 2.5 प्रतिशत रूझान ने बसपा को 27.4 प्रतिशत मत एवं 20 सीटों पर विजय दिलाई थी जबकि भाजपा के मतों में 4.7 प्रतिशत कमी ने उसे 17.5 प्रतिशत मतों के साथ केवल 10 सीटों पर सीमित कर दिया था और सपा के मतों में 3.4 प्रतिशत कमी से वह केवल 23.3 प्रतिशत वोट पर सिमट गयी थी परन्तु उसे 23 सीटों पर विजय मिल गयी थी। उससे ठीक तीन साल बाद हुए विधान सभा चुनावों में कांग्रेस के वोट घट कर 11.65 प्रतिशत रह गये और उसे केवल 28 विधान सभा सीटों पर विजय मिली, उस वक्त सत्ताधारी बसपा के वोटों में हल्की से कमी से उसे केवल 25.91 प्रतिशत मतों पर सीमित कर दिया परन्तु उसे केवल 80 विधान सभा सीटों पर ही विजय मिल सकी जबकि सपा के वोट बढ़कर 29.13 प्रतिशत पहुंच गये और उसे 224 विधान सभा सीटों के साथ उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का मौका मिला। भाजपा के वोटों में लगभग ढाई प्रतिशत की कमी परिलक्षित हुई और वह केवल 15 प्रतिशत मतों के साथ केवल 47 विधान सभा सीटों पर सिमट गयी थी। लोक सभा और विधान सभा चुनावों में मतों के रूझान में थोड़ा सा परिवर्तन देखा जाता रहा है। लोक सभा चुनावों में जनता का रूझान हल्का सा राष्ट्रीय दलों की ओर बढ़ जाता है।
2014 में प्रधानमंत्री होने का ख्वाब उत्तर प्रदेश से कई लोग पाले हुए हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल तो हैं ही, सपा के मुलायम सिंह और बसपा की मायावती भी किसी से पीछे नहीं हैं। भाजपा में गड़करी के हटने पर राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने हैं और भाजपा उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर कार्ड खेलने की कोशिश कर सकती है।
राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह कांग्रेस और भाजपा तथा उत्तर प्रदेश के स्तर पर सपा और बसपा भ्रष्टाचार में लीन रही हैं, ये चारों दल यह नहीं चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा हो। आर्थिक नीतियों के सवाल पर भी चारों दल नए आर्थिक सुधारों के ध्वजवाहक हैं और वे नहीं चाहते कि चुनावों के दौरान महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे खड़े हों। संक्षेप में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि चार के चारों दलों का हित इसी में है कि 2014 के चुनाव मुद्दाविहीन राजनीति का शिकार बन जायें और इसीलिए ये चाहते हैं कि देश और उत्तर प्रदेश में संकीर्ण धार्मिक एवं जातीय ध्रुवीकरण तीव्र होकर उनके-उनके मतों की संख्या में बढ़ोतरी करे।
भाजपा लगातार अपने गिरते मत स्तर से बहुत चिन्तित है। गांधी की हत्या से लेकर गांधीवादी समाजवाद तक के सफर में उत्तर प्रदेश में उसे टिकने का मौका नहीं मिला और न ही ”भूखों को धर्म की जरूरत नहीं होती“ कहने वाले विवेकानन्द को अपनाने का ही कोई फायदा मिला। उसे केवल राम के सहारे ही केन्द्र में और राज्य में सत्ता में भागीदारी मिली थी और इसीलिए उसे राम की आज एक बार फिर जरूरत है। इसी जरूरत के मद्देनजर परिवार के उग्र मुखौटे विश्व हिन्दू परिषद द्वारा महाकुंभ मेले के अवसर पर इलाहाबाद में आयोजित तथाकथित धर्म संसद में भाजपा के नये अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राम मंदिर पर अपनी पार्टी की प्रतिबद्धता दोहराई तो आरएसएस प्रमुख भागवत ने यहां तक उद्घोष कर डाला कि जो मंदिर बनायेगा वहीं सत्ता में आयेगा और जो सत्ता में आयेगा, उसे मंदिर बनाना ही होगा। लोगों का यह कयास था कि इलाहाबाद में मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया जायेगा। परन्तु भाजपा और संघ के लोग जानते हैं कि मोदी का नाम केवल गुजरात में बिक सकता है, उत्तर प्रदेश में तो कतई नहीं। इसलिए उसी वक्त मोदी श्री राम कालेज आफ कामर्स दिल्ली में विकास की बात कर रहे थे।
अपने हालिया कुशासन में कांग्रेस, बसपा और सपा ने ऐसा कुछ किया नहीं है जिसका उन्हें सहारा हो। नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार शेयर सूचकांक को ऊपर उठा सकते हैं लेकिन गरीबों के वोट नहीं दिला सकते। इसलिए ये तीनों यही चाहते हैं कि भाजपा राम का नाम ले, मोदी का नाम ले तो गरीब अल्पसंख्यकों का ध्रुवीकरण उनकी ओर हो सके। बसपा तो एक साल पहले हुए विधान सभा चुनावों में अपने कुकर्मों का फल भुगत भी चुकी है। सपा को भी मालूम है कि विधान सभा में मिले वोटों में इजाफे की गुंजाईश तो कतई है ही नहीं, उसमें कमी ही आयेगी। कांग्रेस को भी मालूम है कि अगर कहीं उसे उतने ही वोट मिले जो उसे एक साल पहले मिले थे तो 21 तो छोडिये 10 सीटें भी उत्तर प्रदेश में नहीं आनी हैं।
इसका स्पष्ट मतलब है कि राम और मोदी के नाम की जरूरत उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस, सपा और बसपा को भी है। लोकतंत्र के लिए बेहतर यही होगा कि उत्तर प्रदेश की जनता राम और मोदी से किनारा काट जाये और चुनावों को मुद्दाविहीन न बनने दे।
- प्रदीप तिवारी
उदाहरण के लिए 2009 में हुये लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में 6.3 प्रतिशत रूझान ने उसे 18.3 प्रतिशत मत एवं 21 सीटों पर विजय दिला दी थी, जबकि 2.5 प्रतिशत रूझान ने बसपा को 27.4 प्रतिशत मत एवं 20 सीटों पर विजय दिलाई थी जबकि भाजपा के मतों में 4.7 प्रतिशत कमी ने उसे 17.5 प्रतिशत मतों के साथ केवल 10 सीटों पर सीमित कर दिया था और सपा के मतों में 3.4 प्रतिशत कमी से वह केवल 23.3 प्रतिशत वोट पर सिमट गयी थी परन्तु उसे 23 सीटों पर विजय मिल गयी थी। उससे ठीक तीन साल बाद हुए विधान सभा चुनावों में कांग्रेस के वोट घट कर 11.65 प्रतिशत रह गये और उसे केवल 28 विधान सभा सीटों पर विजय मिली, उस वक्त सत्ताधारी बसपा के वोटों में हल्की से कमी से उसे केवल 25.91 प्रतिशत मतों पर सीमित कर दिया परन्तु उसे केवल 80 विधान सभा सीटों पर ही विजय मिल सकी जबकि सपा के वोट बढ़कर 29.13 प्रतिशत पहुंच गये और उसे 224 विधान सभा सीटों के साथ उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का मौका मिला। भाजपा के वोटों में लगभग ढाई प्रतिशत की कमी परिलक्षित हुई और वह केवल 15 प्रतिशत मतों के साथ केवल 47 विधान सभा सीटों पर सिमट गयी थी। लोक सभा और विधान सभा चुनावों में मतों के रूझान में थोड़ा सा परिवर्तन देखा जाता रहा है। लोक सभा चुनावों में जनता का रूझान हल्का सा राष्ट्रीय दलों की ओर बढ़ जाता है।
2014 में प्रधानमंत्री होने का ख्वाब उत्तर प्रदेश से कई लोग पाले हुए हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल तो हैं ही, सपा के मुलायम सिंह और बसपा की मायावती भी किसी से पीछे नहीं हैं। भाजपा में गड़करी के हटने पर राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने हैं और भाजपा उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर कार्ड खेलने की कोशिश कर सकती है।
राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह कांग्रेस और भाजपा तथा उत्तर प्रदेश के स्तर पर सपा और बसपा भ्रष्टाचार में लीन रही हैं, ये चारों दल यह नहीं चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा हो। आर्थिक नीतियों के सवाल पर भी चारों दल नए आर्थिक सुधारों के ध्वजवाहक हैं और वे नहीं चाहते कि चुनावों के दौरान महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे खड़े हों। संक्षेप में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि चार के चारों दलों का हित इसी में है कि 2014 के चुनाव मुद्दाविहीन राजनीति का शिकार बन जायें और इसीलिए ये चाहते हैं कि देश और उत्तर प्रदेश में संकीर्ण धार्मिक एवं जातीय ध्रुवीकरण तीव्र होकर उनके-उनके मतों की संख्या में बढ़ोतरी करे।
भाजपा लगातार अपने गिरते मत स्तर से बहुत चिन्तित है। गांधी की हत्या से लेकर गांधीवादी समाजवाद तक के सफर में उत्तर प्रदेश में उसे टिकने का मौका नहीं मिला और न ही ”भूखों को धर्म की जरूरत नहीं होती“ कहने वाले विवेकानन्द को अपनाने का ही कोई फायदा मिला। उसे केवल राम के सहारे ही केन्द्र में और राज्य में सत्ता में भागीदारी मिली थी और इसीलिए उसे राम की आज एक बार फिर जरूरत है। इसी जरूरत के मद्देनजर परिवार के उग्र मुखौटे विश्व हिन्दू परिषद द्वारा महाकुंभ मेले के अवसर पर इलाहाबाद में आयोजित तथाकथित धर्म संसद में भाजपा के नये अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राम मंदिर पर अपनी पार्टी की प्रतिबद्धता दोहराई तो आरएसएस प्रमुख भागवत ने यहां तक उद्घोष कर डाला कि जो मंदिर बनायेगा वहीं सत्ता में आयेगा और जो सत्ता में आयेगा, उसे मंदिर बनाना ही होगा। लोगों का यह कयास था कि इलाहाबाद में मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया जायेगा। परन्तु भाजपा और संघ के लोग जानते हैं कि मोदी का नाम केवल गुजरात में बिक सकता है, उत्तर प्रदेश में तो कतई नहीं। इसलिए उसी वक्त मोदी श्री राम कालेज आफ कामर्स दिल्ली में विकास की बात कर रहे थे।
अपने हालिया कुशासन में कांग्रेस, बसपा और सपा ने ऐसा कुछ किया नहीं है जिसका उन्हें सहारा हो। नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार शेयर सूचकांक को ऊपर उठा सकते हैं लेकिन गरीबों के वोट नहीं दिला सकते। इसलिए ये तीनों यही चाहते हैं कि भाजपा राम का नाम ले, मोदी का नाम ले तो गरीब अल्पसंख्यकों का ध्रुवीकरण उनकी ओर हो सके। बसपा तो एक साल पहले हुए विधान सभा चुनावों में अपने कुकर्मों का फल भुगत भी चुकी है। सपा को भी मालूम है कि विधान सभा में मिले वोटों में इजाफे की गुंजाईश तो कतई है ही नहीं, उसमें कमी ही आयेगी। कांग्रेस को भी मालूम है कि अगर कहीं उसे उतने ही वोट मिले जो उसे एक साल पहले मिले थे तो 21 तो छोडिये 10 सीटें भी उत्तर प्रदेश में नहीं आनी हैं।
इसका स्पष्ट मतलब है कि राम और मोदी के नाम की जरूरत उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस, सपा और बसपा को भी है। लोकतंत्र के लिए बेहतर यही होगा कि उत्तर प्रदेश की जनता राम और मोदी से किनारा काट जाये और चुनावों को मुद्दाविहीन न बनने दे।
- प्रदीप तिवारी
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