यह 2010 के नवंबर की बात रही होगी जब हम लोगों ने औरंगाबाद में 9 से 13 दिसंबर 2010 के दौरान होने वाले अखिल भारतीय किसान सभा के सम्मेलन के लिए आसान जुबान में खेती के अध्ययन के अपने नतीजों को एक पुस्तिका की शक़्ल में लिखना शुरू किया। जया रात-दिन सिर खपा रही थी कि किस तरह भारत की खेती जैसे एक बेहद पेचीदा मसले को, जिसे समझने में हमें ख़ुद तीन साल से ज़्यादा समय लगा, एक छोटी सी पुस्तिका में समेटा जाए। मैं टाइप करता जा रहा था और साथ ही साथ हिंदी में अनुवाद का काम भी चलता जा रहा था। मेरठ से रजनीष को बुला लिया था और किसी तरह रात-दिन एक करके एक ऐसी पुस्तिका तैयार हो गई जिसमंे भारी-भरकम आँकड़े देखकर आम लोग डरें नहीं, और अगर पढ़ना शुरू कर दें तो जो खेती-बाड़ी न भी जानते हों, उन्हें भी उसमें छिपे ग़रीब-अमीर के फ़र्क़ और शोषण के पारंपरिक और आधुनिक तौर-तरीकों के बारे में कुछ जानकारी हासिल हो सके।
अनुवाद के साथ-साथ, किताब के कवर और किताब के साथ दी जा सकने वाली कविताओं आदि का काम विभाजन के अघोषित समझौते के तहत मेरे ही जिम्मे रहता है। किताब के लिए कवर के लिए तस्वीरें खोजते-खोजते गूगल पर एक काली-सफ़ेद तस्वीर पर निगाह ठहर गई। बोलती हुई तस्वीर थी। थी तो काली-सफ़ेद लेकिन क्या शानदार तस्वीर थी कि मन की निगाह फ़ोटोग्राफ़र के भीतर गहरे तक शरीक लाल रंग को साफ़ पहचान सकती थी। तस्वीर 1945 की थी। पंजाब के झण्डीवालाँ गाँव के किसान झण्डा लेकर किसान सभा की कॉन्फ्रेंस के लिए जा रहे हैं। कुछ बुजुर्ग हैं कुछ जवान हैं। कुछ के पैरों में चप्पल है कुछ नंगे पैर हैं लेकिन सबके पैरों, हाथों, चेहरों पर गजब का आत्मविष्वास है, मजबूती है।
हमारे एक मित्र का कहना है कि मैं साँड़ हो गया हूँ जो जहाँ लाल देखा, उछलने लगता हूँ। अब उस तस्वीर में तो झण्डा काला-सफ़ेद ही था, फिर भी मैं मन में उसमें लाल देखकर उछलने लगा। तस्वीर के बारे में और जानकारी हासिल की तो अपनी पीठ थपथपाने का जी हो आया कि बग़ैर ख्याति जाने ही मैंने एक अच्छी कलाकृति को पहचान लिया था। बाद में कहीं पढ़ा भी कि उस फ़ोटोग्राफ़र की तस्वीरों की ख़ासियत और ताक़त यही है कि उन्हें फ़ोटोग्राफ़ी की गहरी समझ रखने वाले हेनरी कार्टर-ब्रेसां से लेकर मेरे जैसे साधारण और अनभिज्ञ लोग भी पसंद कर सकते हैं।
वह तस्वीर सुनील जाना ने ली थी जो 1940 के दषक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के फ़ोटोग्राफ़र थे। उनकी तस्वीरों की एक वेबसाइट मिली जिसे 1998 में सुनील जाना के चित्रों की न्यूयॉर्क में लगी एक प्रदर्षनी के वक़्त बड़ी मेहनत से उनके बेटे अर्जुन जाना ने तैयार किया था। उससे पता चला कि वह कई मायनों में दुनिया के अद्वितीय फ़ोटोग्राफ़र हैं। वेबसाइट से ही मिला एक ईमेल पता। मैंने थरथराते हाथों से एक ईमेल टाइप किया। एक वरिष्ठ कलाकार कॉमरेड को जो किसी दौर में एक किंवदंती हुआ करते थे, यह अनुरोध करते हुए कि आपका खींची 65 वर्ष पुरानी एक तस्वीर हम एक छोटी सी पुस्तिका के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति चाहते हैं, मुझे रोमांच हो रहा था।
ईमेल का जवाब भी लगभग तत्काल ही आ गया। लेकिन सुनील जाना का नहीं, अर्जुन जाना का। अर्जुन सुनील जाना के बेटे हैं। उन्होंने लिखा कि उनकी माँ शोभा जाना और पिता जो क्रमषः 83 और 92 वर्ष के हैं। अमेरिका में कैलिफ़ोर्निया के बर्कले शहर में रहते हैं, जबकि अर्जुन काम के सिलसिले में ब्रुकलिन, न्यूयॉर्क में रहते हैं। अर्जुन ने यह भी लिखा कि उन्होंने मेरा मेल अपने माँ-पिता को आगे भेज दिया है और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए जैसे ही उन्हें समय मिलेगा, वे जवाब देंगे। उन्होंने यह भी लिखा कि वे मेरा मेल पढ़कर बहुत ख़ुष होंगे।
एक सप्ताह तक फिर कोई जवाब नहीं आया। मैंने फिर अर्जुन को मेल किया कि अब सम्मेलन के लिए वक़्त कम बचा है और किताब छपने के लिए चंद रोज़ में तैयार हो जाएगी। आप अपने पिता से फ़ोन पर ही अनुमति लेकर हमें ईमेल कर दें तो अच्छा होगा। इसके जवाब में अर्जुन का मेल आया कि उनके माँ-पिता के साथ-साथ वे ख़ुद भी स्वास्थ्य संबंधी काफ़ी तक़लीफ़ों से गुज़र रहे हैं लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि आप लोगों की पुस्तिका का व्यावसायिक उपयोग नहीं होना है अतः उन्हें लगता है कि उनके पिता को इस पर आपत्ति नहीं होगी। उन्होंने वेबसाइट पर उपलब्ध तस्वीरों में से किसी भी तस्वीर के इस्तेमाल की अनुमति हमें दे दी।
जैसे ही यह मेल मैंने देखा तो प्रेस में फ़ोन किया। पुस्तिका प्रेस में जा चुकी थी। वैकल्पिक कवर छप चुका था। हमने तय किया कि हम पुस्तिका के अंदर चित्र को छापेंगे और सुनील जाना का पूरा उल्लेख करेंगे। पुस्तिका छपी। सुनील जाना का चित्र भी।
इस बीच अर्जुन जाना के साथ ईमेल का आदान-प्रदान गाहे-बगाहे हुआ। इंटरनेट के माध्यम से ही पता चला कि वे कविताएँ भी लिखते हैं। अंग्रेजी में लिखीं उनकी कविताएँ पढ़ीं भी।
बीच में यह विवाद भी पढ़ने में आया कि भारत सरकार ने सुनील जाना को पद्मश्री देने की घोशणा कर दी जिस पर सरकार और अवार्ड की सूचना देने गए अधिकारियों की काफ़ी किरकिरी हुई क्योंकि पद्मश्री से उन्हें 1974 में ही सम्मानित किया जा चुका था। अंततः सरकार ने कहा कि गलती से पद्मश्री घोषित हो गया, दरअसल देना तो हम पद्मभूषण चाहते थे।
तब भी सोचा कि अर्जुन जाना को मेल किया जाए। लेकिन हम लोग अपने-अपने कामों में उलझ गए। अधूरे कामों की लगातार बढ़ती जाती सूची में यह काम भी जुड़ गया कि कभी अर्जुन जाना को इत्मीनान से एक लंबा मेल लिखेंगे।
फिर लगभग संपर्क टूटा रहा। इस बीच अर्जुन की कुछ कविताएँ मेल पर आयीं भी जिन्हें मैंने कविता के साथ न्याय करने और ससम्मान पढ़ने के लिए सहेज कर रख लिया। अभी चंद रोज़ पहले ही ख़बर पढ़ी कि सुनील जाना 21 जून 2012 को नहीं रहे।
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उनके बंगाल के अकाल के चित्र ‘पीपुल्स वार’ में छपे थे जो उस वक़्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अख़बार था। उन चित्रों के छपने से बंगाल के अकाल की जो विभीषिका उभरी, उसने सारी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। बंगाल में लाखों लोग भूख से मर रहे हैं, यह ख़बर विदेषों तक पहुँचना तो दूर, भारत के भी दीगर हिस्सों में नहीं पहुँच पा रही थी। अख़बार, जो उस वक़्त मौजूद सबसे व्यापक संचार माध्यम थे, वे भी ब्रिटिष सरकार के हुक़्म के मुताबिक ख़बर छाप रहे थे। जब ‘पीपुल्स वार’ में सुनील जाना के खींचे गए और चित्त प्रसाद के बनाये गए चित्र प्रकाषित हुए तब सारी दुनिया का ध्यान बंगाल के अकाल की तरफ़ गया। वे तस्वीरें और चित्र अपने आप में कहानी थे - हक़ीक़त बयान करती एक ताक़तवर कहानी। वे चित्र यह बताने में सक्षम थे कि बंगाल का अकाल केवल अवर्षा, अति वर्षा या किसी क़ुदरती क़हर का नतीजा नहीं, बल्कि दूसरे विष्वयुद्ध में शरीक अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जमाखोरी और अमानवीय नीतियों का नतीजा था जिसने ग़रीब भारतीय जनता की साढ़े तीन लाख जानों को अपनी साम्राज्यवादी हवस की बलि चढ़ा दिया था। उन तस्वीरों से दुनिया के सामने बंगाल के अकाल का भयानक सच आया जिससे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ देष में और देष के बाहर भी ग़ुस्सा उमड़ पड़ा।
बंगाल के अकाल की उन तस्वीरों और चित्रों में जर्जर इंसानों की, कंकाल हो चुके लोगों की कतारें की कतारें नज़र आती हैं। उन चित्रों के पोस्टकार्ड बनाकर उस ज़माने में दुनिया भर में भेजा गया और बंगाल के भुखमरी से जूझते लोगों को मदद मुहैया की गई।
बंगाल के अकाल के चित्रों ने सुनील जाना को दुनिया भर में प्रसिद्धि दिला दी लेकिन ख़ुद सुनील जाना के लिए वह अनुभव बहुत त्रासद था। भला एक वामपंथी दिमाग और विचार रखने वाला व्यक्ति कैसे इस बात पर ख़ुषी महसूस कर सकता है कि उसने जिन ज़िंदा कंकालों या भूख से मरते या मर चुके लोगों के फोटो खींचे हैं, उसने उन्हें प्रसिद्धि दिला दी। बाद में 1998 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा कि मेरे लिए यह बहुत मुष्किल था कि मैं भूख से मरते लोगों की मदद करने के बजाय उन्हें कैमरे में उतारूँ। मुझे उन कॉमरेड्स और लोगों से रष्क होता था जो अपना आगा-पीछा न सोचकर दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों की मदद और राहत के काम में लगे थे। मेरा मन होता कि मैं भी कैमरा छोड़कर वही करूँ। लेकिन पी. सी. जोषी, जो मुझे अपने साथ बंगाल के गाँवों में लेकर आये थे और जो मेरे षिक्षक, शुभचिंतक, सलाहकार थे, उन्होंने मुझे समझाया कि जो हो रहा है उसका दस्तावेज़ बनाना ज़रूरी है ताकि लोग जानें कि यहाँ दरअसल हालात क्या हैं। मैंने दिल पर पत्थर रखकर कैमरा सँभाला और फोटो खींचता रहा।
बाद में सुनील जाना के खींचे गए गाँधी, नेहरू, जिन्ना, शेख अब्दुल्ला, फ़ैज़, जे. कृष्णमूर्ति, आदि ख्यात लोगों के चित्र भी बहुत प्रसिद्ध हुए। देष के विभाजन के उनके खींचे अनेक चित्र अपने आप में इतिहास के अध्याय हैं। एनसीईआरटी की स्कूली किताबों में भी उनके अनेक चित्रों का इस्तेमाल किया गया है।
सुनील जाना 1918 में 17 अप्रैल को डिब्रूगढ़, आसाम में पैदा हुए थे। उनके पिता कलकत्ता के नामी वकील थे और सुनील जाना की पढ़ाई-लिखाई भी कलकत्ते में ही हुई। सेंट ज़ेवियर और प्रेसिडेंसी कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान ही वे वामपंथी राजनीति के संपर्क में आ गए थे और बाद में 1943 में पी. सी. जोषी के संपर्क में आने पर उन्होंने पढ़ाई अधूरी ही छोड़कर पूरी तरह वामपंथ का रास्ता अपना लिया। पी. सी. जोषी उन दिनों अकाल के हालात का जायजा लेने बंगाल के भीतरी ग्रामीण इलाक़ों में जा रहे थे। उनके साथ चित्रकार चित्तप्रसाद भी जा रहे थे। दोनों ने सुनील जाना को भी साथ ले लिया। सुनील जाना बताते हैं ‘पी. सी. जोषी लिखते थे और मैं तस्वीरें खींचता था। उनके पास बिल्कुल साधारण सा एक कोडक कैमरा था। बस, वहीं से मेरी ज़िंदगी बदल गई।’ उधर पी.सी. जोषी कलकत्ता से वापस लौटे, उधर सुनील जाना उड़ीसा के अकाल पीड़ितों की तस्वीरें लेने चले गए। उधर पी.सी. जोषी की रिपोर्ट और सुनील जाना की खींचीं तस्वीरें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘पीपुल्स वार’ में छपीं तो सारी दुनिया के कम्युनिस्ट देषों की प्रेस ने उन्हें छापा और सुनील जाना अचानक ही भारत के बेहतरीन फोटोग्राफर के तौर पर स्थापित हो गए। पी. सी. जोषी ने उनकी फोटोग्राफी और विचारधारा के प्रति उनकी समझ को देखते हुए उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का फोटोग्राफर बनाया। सुनील जाना ने एक इंटरव्यू में बताया है कि मैं और मेरे घर के लोग चाहते थे कि मैं कम्युनिस्ट पार्टी का फोटोग्राफर बनने के पहले अपनी परीक्षाएँ दे दूँ ताकि डिग्री तो पूरी हो जाए। लेकिन पी. सी. जोषी ने कहा कि ‘बिल्कुल नहीं। यह परीक्षाएँ वगैरह बिल्कुल बकवास और ग़ैरज़रूरी है।’ फिर मुझे भी महसूस हुआ कि हाँ, वाकई, यह निहायत ही ग़ैरज़रूरी हैं।
उसके बाद जोषी उन्हें लेकर मुंबई चले गए जहाँ उस वक़्त पार्टी का मुख्यालय था। वे पार्टी के होल टाइमर बने। चित्तप्रसाद और वे वहीं साथ-साथ रहा करते थे। दोनों ही इप्टा और प्रगतिषील लेखक संघ से गहरे जुड़े हुए थे। उस वक़्त उन्हें 20 रुपये भत्ता मिलता था जिसमें से 10 रुपये वहाँ की सांझी रसोई में चला जाता था।
उसके बाद पार्टी उनसे जहाँ जाने को कहती, वहाँ जाते, तस्वीरें खींचते। धरनों, सभाओं, आंदोलनों, गिरफ़्तारियों, दमन, नौसेना विद्रोह, किसान विद्रोह, काँग्रेस, मुस्लिम लीग, बांग्लादेष युद्ध तमाम नेताओं और आंदोलनों के साथ-साथ वे आम मेहनतकष लोगों के गौरवपूर्ण जीवन को भी दर्ज करते चलते। उनके मुताबिक वे आम लोगों और आम दृष्यों की ख़ास तस्वीरें लेकर यह बताना चाहते थे कि कम्युनिस्ट पार्टी किन लोगों के लिए है। ज़ाहिर है सुनील जाना को इतनी स्वतंत्रता के साथ काम करने का अवसर देने में पी. सी. जोषी की गहरी सांगठनिक सूझ और कला की पारखी दृष्टि का विषेष महत्त्व था।
‘पीपुल्स वार’ और बाद में ‘पीपुल्स एज’ में उन्हें एक पन्ना ही फोटो फीचर के लिए दिया गया जिसमें सुनील जाना ने आम लोगों की ज़िंदगियों, उनके संघर्षों, काम करते हुए मेहनकष लोगों के सौंदर्य, नाव खेते, घानी चलाते, मछली पकड़ते, कोयला खदानों में, घरों-खेतों में मेहनत करते स्त्री-पुरुषों से लेकर तीर-कमान थामे आदिवासियों, मोर्चे पर जाते किसान-मज़दूरों, तेलंगाना के क्रांतिकारियों तक के बेहतरीन फोटोग्राफ्स से कम्युनिस्ट पार्टी के विचार और प्रतिबद्धता को लोगों के बीच स्थापित किया।
जब सुनील जाना, उनके चित्र और उस ज़रिये बंगाल के अकाल पर दुनिया भर की नज़र गई तो उस ज़माने की बेहद प्रसिद्ध पत्रिका ‘लाइफ़’ और ‘लाइफ़’ की अत्यंत प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र मार्गरेट बुर्क व्हाइट हिंदुस्तान के अकाल को कवर करने के लिए हिंदुस्तान आईं।
मार्गरेट बुर्क व्हाइट तब तक सारी दुनिया में दुनिया में युद्ध की पहली महिला पत्रकार होने, सोवियत संघ की ज़मीन पर आमंत्रित और वहाँ के भारी उद्याोगों की तस्वीरें लेने वाली पहली विदेषी पत्रकार होने, वैष्विक मंदी की बोलती तस्वीरों और साथ ही स्टालिन का मुस्कुराता हुआ दुर्लभ चित्र लेने के लिए सारी दुनिया में विख्यात हो चुकी थीं। उनके बारे में किसी ने लिखा है ‘‘वह महिला जिसे भूमध्य सागर में टॉरपीडो से उड़ाया गया, जिस पर जर्मनी के हवाई बेड़े ने बमबारी की, जिसे आर्कटिक के एक द्वीप पर छोड़ दिया गया और जिसका हवाई जहाज ध्वस्त होने पर उसे चेसापीक की खाड़ी से बाहर निकाला गया, उसे लाइफ़ पत्रिका के स्टाफ़ के लोग मैगी-दि इंडिस्ट्रक्टिबल (अविनाषी) कहा करते थे।’’
तब तक अकाल बंगाल से आंध्र और दक्षिण के अन्य हिस्सों तक पहुँच गया था। मार्गरेट बुर्क व्हाइट कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आईं और वहाँ पी. सी. जोषी ने सुनील जाना से उनका परिचय करवाया। मार्गरेट बुर्क व्हाइट को भारत में अपना कोई रास्ता दिखाने वाला और मददगार चाहिए था। इत्तफ़ाक से सुनील जाना पहले ही वहाँ जाने की योजना बना चुके थे। तय हुआ कि दोनों साथ-साथ जाएँगे। सुनील जाना ने फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाषित वी. के. रामचंद्रन को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि ‘पहली बार, कम्युनिस्ट पार्टी के हिस्से का ख़र्च ‘लाइफ़’ पत्रिका ने उठाया और पहली ही बार मैं रेल के फ़र्स्ट क्लास मैं बैठा।’
मार्गरेट बुर्क व्हाइट भारत में 1945 से 1948 तक रहीं। उन्होंने भारत की राजनीतिक हलचलों को दर्ज करने के साथ ही भारत के कोनों-अंतरों को, यहाँ के आम जन-जीवन को भी देखा और पहचाना। उस पूरे प्रवास और यात्रा में मार्गरेट बुर्क व्हाइट ने अपने लिए अलग तस्वीरें खींचीं और सुनील जाना ने अपना काम किया। दोनों ने स्वतंत्र काम किया और इस दौरान हुई उनकी दोस्ती जीवनपर्यंत चली। आज जो तस्वीरें गाँधी, नेहरू, जिन्ना, शेख अब्दुल्ला या विभाजन आदि की हम देखते हैं, उनमें बहुत इन्हीं दोनों की खींची तस्वीरें हैं। यहाँ तक कि गाँधीजी की हत्या के सिर्फ़ एक घंटे पहले मार्गरेट बुर्क व्हाइट ने उनका इंटरव्यू किया था और तस्वीरें खींची थीं।
उस दौर के बारे में सुनील जाना ने बताया है, ‘‘मैं अपनी पार्टी और राजनीतिक विचारधारा का एक प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ता था। मैं एक समर्पित कम्युनिस्ट था। साथ ही इतने सौंदर्य से भरे इतनी विविधताओं वाले देष में फ़ोटोग्राफ़र होना, मुझे लगता था कि मुझ पर देष की विषेष कृपा रही है।’’
कम्युनिस्ट पार्टी में जब 1948 में मतभेद हुए और कॉमरेड पी. सी. जोषी पार्टी के महासचिव पद पर नहीं रहे तभी सुनील जाना और कम्युनिस्ट पार्टी में भी दूरी बन गई। कॉमरेड पी. सी. जोषी उनके लिए बहुत मायने रखते थे। सुनील जाना ने 1947-48 में कलकत्ते में अपना एक फ़ोटो स्टूडियो खोला और उन्होंने कलात्मक फ़ोटोग्राफ़ी के काम को जारी रखते हुए उन्होंने देष भर में बिखरे प्राचीन स्मारकों, मंदिरों आदि के स्थापत्य को और विभिन्न भारतीय नृत्यों की तस्वीरें खींच उन्हें दस्तावेज़ बनाना शुरू किया। शांताराव, रागिनी देवी, इंद्राणी रहमान, बड़े ग़ुलाम अली ख़ान जैसे उस वक़्त के महान कलाकारों की उन्होंने यादगार तस्वीरें खींचीं। उन्होंने 1949 में कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी की स्थापना की जिनमें चिदानंद दासगुप्ता, हरि दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ-साथ सत्यजित राय भी शरीक थे। सुनील जाना की पहली किताब ‘दि सेकंड क्रिएचर’ का कवर सत्यजित राय ने ही डिज़ाइन किया था। उसके बाद उनकी ‘डांसेज़ ऑफ़ दि गोल्डन हॉल’ और ‘दि ट्राइबल्स ऑफ इंडिया’ शीर्षक से दो किताबें और आयीं। ‘दि ट्राइबल्स ऑफ़ इंडिया’ किताब पर उनका काम प्रसिद्ध नृतत्वविज्ञानी वेरियर एल्विन के साथ था। उनकी एक किताब ‘फ़ोटोग्राफ़िंग इंडिया’ प्रकाषित होने के पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। यह किताब जल्द ही ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाषित होगी जिसमें सुनील जाना ने न केवल छः दषकों में फैले अपने चित्रों को समेटा है बल्कि इसमें आत्मकथात्मकता भी है और साथ ही 9/11 के बाद अमेरिका में रहने के अपने अनुभव भी उन्होंने लिखे हैं।
कम लोग ही यह बात जानते हैं कि कैमरे की आँख से दुनिया को पूरी तीव्रता के साथ पकड़ने वाले सुनील जाना की सिर्फ़ एक आँख ही दुरुस्त थी। दूसरी कभी बचपन में ही ग्लूकोमा की षिकार हो गई थी। इसके बावजूद सुनील जाना अपने निगेटिव्स को ख़ुद ही डेवलप किया करते थे। आख़िरी वर्षों में उनकी दूसरी आँख ने भी उनका साथ छोड़ दिया था। उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी का कोई विधिवत ज्ञान हासिल नहीं किया था। जो सीखा, करके सीखा और उस ज़माने के जो उस्ताद फ़ोटोग्राफ़र माने जाते थे, उनके पास जाकर सीखा। तीस के दषक से 90 के दषक तक, साठ वर्ष तक वे फ़ोटोग्राफ़ी करते रहे। इन साठ वर्षों में उन्होंने किसान-मज़दूरों के संघर्षों, आज़ादी के आंदोलन, भारत के प्राचीन स्थापत्य से लेकर आज़ाद भारत के तीर्थ कहे जाने वाले उद्योगों, बाँधों, कल-कारखानों, रेलवे लाइनों तक के निर्माण को, राजनीतिक-सामाजिक- सांस्कृतिक-वैज्ञानिक विभूतियों से लेकर देष के विभिन्न आदिवासी समुदायों, दंगों, अकाल, लाषों के ढेर, विद्रोह, विभाजन, विस्थापन से लेकर मनुष्य के श्रम और उन्मुक्त जीवन सौंदर्य को उन्होंने तस्वीरों में दर्ज किया। अर्जुन ने अपने पिता की तस्वीरों के बारे में कहा है कि उनके चित्रों में एक कविता जैसा गठन होता है।
सत्तर के दषक तक उनकी प्रदर्षनियाँ देष-विदेष में अनेक जगह लगती रहीं। योरप के पूर्व समाजवादी देषों में अनेक जगह उनके चित्र प्रदर्षित हुए। बाद में, 1978 में वे लंदन जा बसे जहाँ उनकी पत्नी शोभा डॉक्टर थीं। वहाँ उनके चित्रों की अनेक प्रदर्षनियाँ लगीं, उन्हें अनेक सम्मान मिले। लंदन में 1992 में नेहरू सेंटर के खुलने के तत्काल बाद उसमें सुनील जाना की तस्वीरों पर केन्द्रित कार्यक्रम हुआ। उनके काम और जीवन पर बीबीसी टीवी और आईटीवी ने दो डॉक्युमेंट्री फ़िल्में बनायीं। उनकी खींची तस्वीरों के बड़े-बड़े प्रदर्षन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में हुए। हवाना महोत्सव में उनकी तस्वीरें दिखायीं गईं। विष्वविख्यात नृत्यांगना इंद्राणी रहमान के बेटे राम रहमान ने, जो स्वये एक प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र भी हैं, 1998 में सुनील जाना की तस्वीरों की एक प्रदर्षनी न्यूयॉर्क की 678 कला वीथिका में आयोजित की थी जिसे गजब की सराहना मिली। लंदन से 2002 में जाना दंपति अमेरिका आ गए और तब से वहीं रह रहे थे।
आख़िरी वक़्त तक उन्होंने जीवन और समाजवाद में अपना विष्वास नहीं डिगने दिया। वे एक दृष्य इतिहास अपने पीछे छोड़ कर गए हैं। इस खजाने और इसे बनाने वाले, दोनों की अनेक दषकों से देखभाल करने का काम चुपचाप करती आ रहीं थीं उनकी पत्नी शोभा जाना का निधन 86 की उम्र में 18 मई 2012 को ही हुआ था। वे पेषे से डॉक्टर थीं। उनके निधन के बाद सुनील जाना बमुष्किल एक महीना ही अपनी साँसें खींच पाये। उनकी बेटी और अर्जुन की बहन मोनुआ जाना का निधन असमय ही सन् 2004 में हो गया था।
सुनील जाना और शोभा जाना के निधन की ख़बर पर कॉमरेड बर्धन ने अर्जुन को शोक-संदेष भेजा। जब वह बोल रहे थे और मैं टाइप कर रहा था तो मुझे वे पुराने दिनों में जाते-आते दिख रहे थे। मुझे कभी-कभी लगता है कि मुझे भी उसी वक़्त में होना था। क्या लोग हुआ करते थे उस दौर में।
सुनील जाना भले कम्युनिस्ट पार्टी के बाद में सदस्य न रहे हों लेकिन उनका आदर्ष आजीवन समाजवाद ही बना रहा। उन्होंने 1998 में इंटरव्यू में कहा था,‘‘बेषक आज भी मेरा यक़ीन समाजवाद में ही है। पूँजीवाद एक असभ्य और पाषविक व्यवस्था है जिसकी बुनियाद लालच है।’’ राम रहमान ने उनके बारे में सही कहा है कि ‘‘सुनील जाना बाक़ी फ़ोटोग्राफ़रों से अलग थे। वे एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे और उनका राजनीतिक कार्य ही फ़ोटोग्राफ़ी था।’’
दुनिया कई मायनों में बहुत छोटी हो गई है लेकिन इतनी भी नहीं कि हम तमाम इप्टा-प्रलेसं के दोस्त उनके बेटे अर्जुन के पास पहुँच सकें और कहें कि हम सब तुम्हारे साथ ही हैं। फिर भी, यह तो हम सब कहना ही चाहते हैं कि सुनील जाना हमारे भी परिवार के हिस्से थे और रहेंगे और इस नाते अर्जुन भी दुनिया के विषाल कम्युनिस्ट परिवार का हिस्सा है, अकेला नहीं।