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Wednesday, September 12, 2012

भारतीय वामपंथ: दृष्टि और चुनौतियां

कौंसिल ऑफ सोशल डेवलपमेंट ने 8-9 अगस्त, 2012 को दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल संेटर में एक सेमिनार का आयोजन किया जिसका विषय था: ‘‘ भारतीय वामपंथ: दृष्टि और चुनौतियां’’। सेमिनार की अध्यक्षता विख्यात इतिहासकार रोमिला थापर ने की। सेमिनार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने भाषण दिया, जिसे नीचे दिया जा रहा है:
   "देश आज एक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक संकट-का सामना कर रहा है। यह एक बड़ी चुनौती है।
    सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण से अभूतपूर्व चुनौतियां एवं सामाजिक जीवन में समस्याएं पैदा हुई हैं। अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से बदल रही है। बुनियादी ढांचा, शहरीकरण, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी आदि में यह बात नजर आती है। दो दशकों में देश में उदारीकरण, भूमंडलीकरण की जिन नीतियों पर अमल चल रहा है उससे पूंजीवाद की वृद्धि तेज हो गयी है और वह कारपोरेट पंूजीवाद के नये दौर में दाखिल है जो असल में जीहजूरिया पूंजीवाद का एक रूप है।
    इन आर्थिक बदलावों के बावजूद समाज की सामंती सोच-समझ कमोबेशी पहले जैसे ही है। खाप पंचायतें सामने आ रही हैं जो प्रेम विवाह और मोबाइल फोन पर प्रतिबंध लगा रही हैं ओर यहंा तक कि सजा के रूप में मृत्यु दंड तक सुना रही हैं। लिंग भेद चल रहा है जिससे सेक्स अनुपात में अनुचित असंतुलन पैदा हो गया है। आज भी देश में अस्पृश्यता जारी है और दलितों पर शारीरिक हमले भी हो रहे हैं। धार्मिक कट्टरता, और जाति पहचान के संघर्ष धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और समाज के लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। इनके विरुद्ध संघर्ष किया जाना है।
    शासक वर्गों द्वारा अनुचित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण चन्द लोगों के हाथ में धन-दौलत का जबर्दस्त केन्द्रीकरण हुआ है और अमीर और गरीब के बीच फासला बढ़ा है। इससे हमारे आम लोगों के बीच अभूतपूर्व गरीबी ओर कंगाली पैदा हुई है।
    पिछले दो दशकों के दौरान वामपंथी राजनीति और विचारधारा को काफी झटका लगा है। मैं राज्य विधान सभाओं और संसद में चुनावी विफलताओं के संबंध में बात नहीं कह रहा हूं। मैं समाज के दबे कुचले तबकों के बीच वामपंथ और कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रभाव में क्षरण की बात कर रहा हूं। परन्तु गरीबों एवं शोषित तबकों के हिमायती के रूप में वामपंथ की छवि आज भी कमोबेश आम जनता के बीच बरकरार है। हमें इस छवि के आधार पर अपने ठोस आधारों को फिर से बनाना है।
    वामपंथ की दृष्टि एवं नीतियां सुस्पष्ट रहनी चाहिए। अनेक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर वामपंथ की सुस्पष्ट समझ है। पर उन राज्यों में, जहां वामपंथ शासन कर रहा था और जहाँ सत्ता के दृश्यमान अहंकार और वामपंथ के नेतृत्व में सरकारों के कामकाज में पारदर्शिता के अभाव के कारण जनता के कुछ तबके वामपंथ से बेगाने हो गये, इन नीतियों पर अमल एक समस्या बन गया था। इससे कन्फ्यूजन पैदा हुआ और एक गलत छवि बनी कि वामपंथ और अन्य पूंजीवादी पार्टियों के बीच कोई बहुत फर्क नहीं है।
    वर्तमान ढांचे में राज्य सरकारें विस्तारित जिला परिषदों के अलावा और कुछ नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था और संविधान के अंतर्गत अपनी नीतियों पर अमल करने की बहुत कम गुंजाइश रहती है।
    औद्योगिकीकरण एक आवश्यकता है अतः वामपंथ शासित राज्यों को भूमि अधिग्रहण के काम को अन्य राज्यों से अलग तरीके से करना होगा। किसानों को जमीन के बदले जमीन के अलावा अधिक बड़े पैकेज और मुआवजे की पेशकश की जानी चाहिए और उन्हें अधिग्रहण की आवश्यकता के बारे में संतुष्ट किया जाना चाहिए। आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया और अधिक उदार, मानवीय एवं तर्कसंगत रहना चाहिए। कम्युनिस्टों को नौकरशाही एवं नियमों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जहां कहीं जरूरी हो नियमों को जनता के पक्ष में बदलना होगा। तब ही जाकर कम्युनिस्ट अन्य पार्टियों और सरकारों के लिए मॉडल बनेंगे।
    आत्म आलोचना की यह टिप्पणियां करने के बाद मैं कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों को रेखांकित करने की कोशिश करूंगा जिनके संबंध में जनता को एक सुस्पष्ट दृष्टि पेश करने के लिए वामपंथ को अपना ध्यान केन्द्रित करना है। सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर और जनता को और अधिक विस्तार से समझाने की जरूरत है और नवउदारवाद के विनाशकारी रास्ते के एक विकल्प के रूप में एक सुस्पष्ट सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम तैयार करने की जरूरत है।
    अर्थव्यवस्था में हमें कारपोरेट घरानों और उनके लालच पर लगाम लगाने की जरूरत है। यह सबसे बड़ी चुनौती होगी। आज के दौर में वामपंथ को अंधाधुंध राष्ट्रीयकरण की मांग करने की जरूरत नहीं है। परन्तु निश्चय ही ऊर्जा, गैस, खान, खदानें और खनिज पदार्थ और ऐसे ही अन्य प्राकृतिक एवं राष्ट्रीय संसाधन सार्वजनिक क्षेत्र के पूरे नियंत्रण में रहने चाहिए।
    कारपोरेटों को दी गयी सभी सियायतों को वापस किया जाना चाहिए और टैक्सेशन की ग्रेडिड व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। धन-दौलत के केन्द्रीयकरण की एक हद से आगे इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
    खाद्यान्नों और अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं के वितरण के लिए सार्वभौम जन वितरण प्रणाली होनी चाहिए। सबसे अधिक और सबसे कम वेतन के बीच छह गुने से अधिक का फर्क नहीं होना चाहिए। न्यूनतम वेतन और पेंशन को जरूरत के अनुसार हर तीन साल बाद संशोधित किया जाना चाहिए। देश के लोगों के ठीक-ठाक रहन सहन के लिए मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध किया जाना चाहिए। सार्थक भूमि सुधारों को लागू किया जाना चाहिए, उन पर सही अमल होना चाहिए।
    केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्निरीक्षण होना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में नये राज्यों और क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए जनता की आकांक्षाओं को स्वीकार करना चाहिए। सरकारिया कमीशन की सिफारिशों पर संसद में बहस की जानी चाहिए और उन पर अमल किया जाना चाहिए। केन्द्र के पास सत्ता का केन्द्रीकरण है और उसने अधिकार के नये क्षेत्रों में भी आर्थिक एवं राजनैतिक शक्तियां हासिल कर ली है, इन्हें वापस किया जाना चाहिए। सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून (अफस्पा), सीमा सुरक्षा बल और एनसीसीटी आदि को दी गई विस्तारित शक्तियों आदि को वापस किया जाना चाहिए।
    वित्त को राज्यों के बीच तर्कसंगत तरीके से बांटा जाना चाहिए ताकि वे केन्द्र के रहमोकरम पर ना रहें। एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी कानून पारित किया जाना चाहिए और साथ ही सीबीआई और उस जैसी अन्य संस्थाएं स्वतंत्र रहनी चाहिए।
    लिंग, जाति और धार्मिक भेदभाव खत्म किया जाना चाहिए। योजना का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि नहीं बल्कि मानव विकास होना चाहिए।
    देश का संघात्मक ढांचे और समाज की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति-जिसमें सभी को समान अधिकार मिले और खासतौर पर समाज के सबसे अधिक शोषित एवं दबे कुचले लोगों के अधिकारों की रक्षा की जाये-की जानी चाहिए ताकि भारत की अखंडता बनी रहे।
    दृष्टि साफ है पर इस पर अमल कैसे किया जाए, उसे हासिल कैसे किया जाये? वामपंथ को इन नीतियों का प्रचार करना है और इन मुद्दों पर जनता को लामबंद करना है। अपने संघर्षों के जरिये वामपंथ को जनता की चेतना को जगाना चाहिए, वह समाज के रूपांतरण का अंतिम लक्ष्य है।
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पटना में अपनी पिछली कांग्रेस (21वीं कांग्रेस) में जमीन, आवास स्थल, स्वच्छ पेयजल, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अधिकार जैसे मुद्दों के साथ विशेष आर्थिक क्षेत्र, उद्योग, खान आदि के नाम पर किसानों से उसकी जमीन को जबरन छीेने जाने जैसे मुद्दों की पहचान की है।
    वामपंथ को नीचे संघर्षों को संगठित करना होगा और साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण, एफडीआई, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर भी संघर्ष छेड़ने होंगे। वामपंथ की टेªड यूनियनों, इंटक और भारतीय मजदूर संघ द्वारा मिलकर मजदूर वर्ग विभिन्न मुद्दों पर हाल में जो संघर्ष चलाये गये वह एक बड़ी छलांग है। इस संदर्भ में किसान, खेत मजदूर, महिला, युवा और छात्रों को भी ठोस एवं सुस्पष्ट सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष छेड़ने के लिए अपने-अपने क्षेत्र में इस तरह के व्यापक मंच बनाने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए।
    जनता को लम्बे अरसे तक चलने वाले संघर्षों के लिए तैयार किया जा सकता है। उड़ीसा में कोरिया की कम्पनी पोस्को के विरुद्ध संघर्ष जनता के इस तरह के दृढ़संकल्प का एक ज्वलंत उदारहण है। कोरिया की इस बहुराष्ट्रीय निगम के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए जनता से जमीन छीनने की कोशिश के विरुद्ध उड़ीसा के गरीब लोग कई सालों से लगातार संघर्ष कर रहे हैं। देश में कई संघर्ष चल रहे हैं, कुछ एक साथ मिलकर और कुछ स्वतंत्र रूप से। परमाणु प्लांट के विस्तार के विरुद्ध कुडमकुलम में एक वर्ष से चल रहा संघर्ष और परमाणु प्लाटं के ही विरुद्ध जैतापुर में चल रहा संघर्ष-ये ऐसे संघर्ष हैं जो बहुत लम्बे अरसे से चल रहे हैं और जो जापान में परमाणु बिजली घर में विभीषिका के बाद देश में इस खतरे के संबंध में सभी का ध्यान आकर्षित कर सके। अब इन संघर्षों का महत्व और भी बढ़ गया है। वन अधिकारों के मुद्दे पर विभिन्न राज्यों में आदिवासियों और किसानों के संघर्ष चल रहे है।। किसानों के सामने उर्वरक, बिजली ओर उनके उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे मुद्दे संघर्ष के लिए सामने हैं। दलित अपने आत्मसम्मान और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम राजनीतिक भावुकतावाद को छोड़ रहे हैं और वास्तविक सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं।
    जनता की बुनियादी समस्याओं पर सरकार की संवदेनशीलता से जनता में बहुत आक्रोश है। कभी-कभी जनता के संघर्ष स्वतःस्फूर्त फैलते चले जाते हैं तो कभी-कभी मारुति जैसे जुझारू आंदोलन भी हो जाते हैं। मारुति में ठेका मजदूरों को प्रबंधन द्वारा शोषण, प्रबंधन का ट्रेड यूनियन विरोधी रुख जैसे बातों ने मजदूरों को जुझारू होकर लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। पुडुचेरी में रीजेंसी फैक्ट्री के मजदूरों का संघर्ष भी इसी तरह का था। प्रबंधक देश के कानूनों, खासकर श्रम कानूनों पर अमल करने को तैयार नहीं है। वे इन कानूनों को अपने पक्ष में बदलने की मांग कर रहे हैं। इस तरह के संघर्ष सरकार की नीतियों के विरुद्ध जनता के विभिन्न तबकों के आक्रोश एवं दृढ़ संकल्प को अभिव्यक्त करते हैं। वामपंथ को इन तमाम तबकों को लामबंद करने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए और इस तरह का वातावरण उनके बीच बनाने के लिए उन्हें लामबंद करना चाहिए कि उनमें ये विश्वास पैदा हो कि वे सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध कर सकते हैं और उन्हें उलट कर सकते हैं। इस किस्म के संघर्ष आम जनता के राजनीतिकरण की दिशा में ले जाते हैं।
    सरकार के ऊपर कारपोरेटरों और बहुराष्ट्रीय निगमों का दबाव बढ़ रहा है। सरकार सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर में तेजी लाने के नाम पर उनकी मांगों को मानने के लिए तत्पर हैं। देश के कई राज्यों में सूखे की स्थिति है और इस हालत में भी कारपारेटों की लूट का हमला तेज हो रहा है। ऐसे में हमारे करोड़ों लोगों के लिए जीना दूभर हो जायेगा।
    मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा की साख भ्रष्टाचार के कारण खत्म हो गयी है और वह जनता के मुद्दों पर आंदोलन करने में नाकामयाब है। ऐसे में वह एक बार फिर हिन्दुत्व का पत्ता खेलने की कोशिश कर सकती है।
    जनता के आंदोलन एवं संघर्षों को सही राह देकर उन्हें कारगर बनाना होगा। ये संघर्ष वर्ग संघर्षों के लिए पथ प्रशस्त करेंगे। बहुत संभव है कि ऐसे आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकार दमन का सहारा लेगी।
    वामपंथ में इस तरह के संघर्ष करने की क्षमता है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। वामपंथ का देश भर में एक समान असर नहीं है। परन्तु मुद्दों के आधार पर कहीं छोटे कहीं बड़े स्तर पर आंदोलन करना सम्भव है। यह वामपंथ की एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है और यदि वामपंथ जनता के मुद्दों पर व्यापक, विशाल और जुझारू संघर्ष चलाने में कामयाब हो जाये तो अन्य धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतें भी उसमें शामिल होने को मजबूर हो जायेंगी।
    वामपंथ को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसका लक्ष्य समाज का आमूलचूल रूपांतरण करना है। उसे निरंतर वर्ग संघर्षों के जरिये ही हासिल किया जा सकता है। वह एक क्रांतिकारी कार्यदायित्व है। वामपंथ को इसे अपने हाथ में लेना है। यही चीज हमारी दृष्टि और जिस लक्ष्य को हासिल करना है उसे निर्धारित करती है।"

Tuesday, August 14, 2012

सबके लिए खाद्य सुरक्षा का संघर्ष सफल बनाओ

देश सूखे, बेरोजगारी और मुद्रास्फीति में उलझ रहा है। किसानों की आत्महत्यायें लगातार जारी हैं। कीमतें बढ़ रही हैं। लोगों में बेचैनी है।
परंतु प्रमुख राजनीतिक दल खासतौर पर कांग्रेस नीति यूपीए-2 और भापजा के नेतृत्व वाला राजग राष्ट्रपति चुनावों की जोड़तोड़ और अपनी आंतरिक समस्याओं में ही उलझा हुआ है। गोवा, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में नाकामयाब रहने एवं आंध्र प्रदेश उप चुनावों में करारी शिकस्त के बाद अब कांग्रेस का पूरा ध्यान राहुल गांधी पर ही केंद्रित है जो अपनी वास्तविक छवि से भी बड़ा पेश किए जाने के बावजूद कांग्रेसी तबकों तक में कोई जादू नहीं चला पाए।
यूपीए एनसीपी की ओर से एक समन्वय समिति बनाने को लेकर भीतरी दबाव झेल रही है, जिसके लिए एनसीपी ने केबिनेट की बैठक में आने से भी इंकार कर दिया है। त्रिणमूल और डीएमके भी अपने-अपने कारणों से नाखुश हैं।
जदयू और शिवसेना के पीए संगमा को राष्ट्रपति चुनावों में समर्थन नहीं देने के सदमें से भाजपा को अभी बाहर आना बाकी हैं। उसने कर्नाटक में मुख्यमंत्री बदलकर साम्प्रदायिक जातिवादी शक्तियों के सामने बेशर्मी से समर्पण का उदाहरण पेश किया है। इसके अलावा कर्नाटक भाजपा में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भी टूट थी। नरेन्द्र मोदी और अन्य 2014 की प्रधानमंत्री मृगतृष्णा के लिए आंतरिक लड़ाई को ढोह रहे हैं।
भारतीय कार्पोरेट घराने देश को डरा रहे हैं
भारतीय कार्पोरेट घराने देश को डरा रहे हैं कि यदि उनकी इच्छाओं की पूर्ति वाले कठोर निर्णय नहीं लिए गए तो यह भारत को एक संकट की ओर धकेल देगा। ‘‘टाईम’’ पत्रिका ने डा. मनमोहन सिंह को एक ‘‘अंडर एचीवर’’ बताया तो ओबामा भी उन पर बहुराष्ट्रीय निगम समर्थक सुधारों को लागू करने का दबाव डाल रहे हैं ताकि उनके लिए दरवाजे खोलकर उन्हें देश की लूट की सुविधा दी जा सके। जबकि सच्चाई यह है कि पिछले चार सालों में भारतीय निगमों और सबसे बड़े अमीरों ने 5 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त मुनाफा कमाया है और उनकी दौलत दो गुनी हुई है तो वहीं आम आदमी की दरिद्रता बढ़ी है। डा. मनमोहन सिंह कार्पोरेट के लिए आधे परफार्म करने वाले सिद्ध हुए, तो वहीं आम आदमी के लिए कुछ भी परफार्म नहीं करने वाले सिद्ध हुए हैं।
यह केवल वामपंथ है जो जनता के सवालों की बात कर रहा है ओर एक जुझारू लड़ाई के लिए जनता को लामबद्ध कर रहा है।
खाद्य सुरक्षा के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाने के वामपंथ के आव्हान को कई राज्यों ने लागू किया है। बैठकों, रैलियों ओर कंवेशनों का दौर जारी है और पं. बंगाल, असम, मणिपुर, केरल और दूसरे अन्य राज्यों में व्यापक धरने और प्रदर्शनों की रूपरेखा तैयार हो रही है। इनमें से अधिकतर राज्य अपनी विधान सभाओं के सामने धरना देंगे और ठीक उसी तरह संसद के सामने भी 30 जुलाई से 3 अगस्त तक राष्ट्रव्यापी धरना अभियान चलेगा।
दिल्ली ओर उसके आसपास के राज्य हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश दिल्ली के साथ मिलकर संसद पर
धरने के लिए जनता को लामबद्ध करेगें, हैंडबिल और पोस्टर पहले ही छप चुके हैं। विस्तार से व्याख्या करने वाली एक पुस्तिका ंिहंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी है। समाज के प्रत्येक हिस्से से अच्छी प्रतिक्रिया प्राप्त हो रही है।
कुछ लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि जब विधेयक संसद के समक्ष लंबित है तो खाद्य सुरक्षा पर आंदोलन क्यो। वर्तमान लंबित पड़ा विधेयक बेहद कमजोर और जनता के हितों के एकदम खिलाफ है।
वित्त मंत्री का कहना है कि सब्सिडी की चिंता में उनकी रातों की नींद गायब है। पिछले चार वर्षों में कार्पोरेट घरानों को 24 लाख करोड़ की सब्सिडी और छूट दी जा चुकी है। योजना आयोग के एक शौचालय में 35 लाख रुपये खर्च करने वाले मोंटेक सिंह अहलूवालिया कहते हैं कि 26 रु. खर्च करने वाला ग्रामीण गरीबी रेखा से ऊपर है। गृहमंत्री चिदंबरम भी हैरान हैं कि 15 रु. पानी की बोतल और 20 रु.आइसक्रीम पर खर्च करने वाला आदमी चावल में 1 रु. की बढ़ोत्तरी का विरोध क्यों करता है। 20 रु. या 200 रु. की आइसक्रीम खाने वाले और 50,000 रु0 की विदेशी शराब खरीदने वाले आदमी वह नहंी हैं जो चावल और गेहूं की दाम बढ़ोतरी का विरोध करते हैं। यह नेता जो इस अंतर को नहीं समझते हैं वही देश के नीति निर्माता हैं।
वामपंथ सार्वभौमिक जन वितरण प्रणाली की मांग करता है। सरकार हरेक साल लगभग 6 से 8 करोड़ टन गेहूं चावल खरीदती है। लगभग 30 से 50 लाख टन खाद्यान्न भंडारण की उचित व्यवस्ष्था के अभाव में सड़ जाते हैं। लोग भूखों मर रहे हैं और सरकार उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देशों के बावजूद जरूरत मंदों और गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने से इंकार कर रही है।
भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने पहले जनता की जरूरतों को नजर अंदाज करके खाद्यान्न का निर्यात किया था। अब मनमोहन सिंह की सरकार भी पैसा बनाने के लिए खाद्यान्न निर्यात करने की योजना बना रही है बावजूद इसके कि देश के कई राज्य अभूतपूर्व सूखे से प्रभावित हैं।
जबकि कांग्रेस और उसका समर्थक मीडिया ऐसा पेश करने की कोशिश कर रहा है इस खाद्य सुरक्षा विधेयक से देश की 70 प्रतिशत आबादी को 3 रु. किलो की दर पर खाद्यान्न प्राप्त होंगे।
दूसरी तरफ मोंटेक सिंह अहलुवालिया और डा. रंगा राजन और उनके साथी 26 रु. और 32 रु. की हास्यास्पद गरीेबी रेखा निर्धारित करके यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि गरीबी घट गई है। योजना आयोग की इसी कोशिश को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उच्चतम न्यायालय के सामने पेश किया। इस स्थिति में अधिकारिक गरीबी की रेखा से महज 23 प्रतिशत आबादी ही रह जायेगी। खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए गरीबी रेखा का यह मापदंड एक अजूबा ही होगा।
कई राज्यों में राज्य सरकारें 2 रु. किलो ही राशन दे रही हैं जबकि तमिलनाडु में प्रत्येक परिवार को 20 किलो ग्राम चावल का एक बैग बिल्कुल मुफ्त दिया जा रहा है। यदि सीमित साधनों के साथ एक राज्य ऐसा कर सकता है तो कं्रेद्र सरकार क्यों नहीं कर सकती है?
सबके लिए पीडीएस की क्या कीमत होगी?
यहां तक कि राष्ट्रीय सेंपल सर्वे के सबसे वैज्ञानिक आंकड़ों में भी इसे समाहित किया गया है जिसके आधार पर अर्जुन सेन गुप्ता ने अपनी असंगठित क्षेत्र की शानदार रिपोर्ट कंेद्रित की हैं कि देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रु. रोज से भी कम अपने भोजन पर खर्च करती है। यह आंकड़े कुछ वर्षों पहले के हैं। परंतु अब रुपये का मूल्य घट चुका है। रुपये की क्रयशक्ति पिछले दो दशक में गिरकर 22 पैसे तक पहुंच चुकी है।
जब सरकार गरीबी कम नहीं कर सकती है उसे खाद्य सुरक्षा मुहैया कराना चाहिए जिससे आम जनता जी सके। यह कल्याणकारी उपाय अथवा दया नहीं बल्कि एक जनवादी सरकार की राजनीतिक जवाबदेही है।
गरीबी के विभिन्न आँकड़े हो सकते हैं जो कि वास्तविक संख्या से अलग भी हो सकते हैं अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान इसे 30 करोड़ आंकता है तो वहीं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का मानना है कि यह संख्या 41 करोड़ है। गरीबी रेखा से ऊपर भी एक बड़ी संख्या बाजार दामों पर भोजन खरीद पाने में सक्षम नहीं है। इसीलिए खाद्य सुरक्षा की तुरंत आवश्यकता है।
सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर आम आदमी के जीवन को सुधारने में कोई सहायाता नहीं करती है। उदारवादी नीतियां लोगों के जीवन को और दूभर कर रही हैं। कार्पोरेट घरानों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही आर्थिक नीतियां गलत दिशा में जा रही हैं। इसीलिए जीडीपी की विकास दर जो भी हो 10 प्रतिशत अथवा 12 प्रतिशत उससे गरीबी की समस्या हल होने नहीं जा रही है। यह उस ट्रेन की गति बढ़ाये जाने की तरह है जो कभी भी अपनी मंजिल गरीबों और जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाती है।
क्या सबके लिए पीडीएस असहनीय महंगा है?
यह महंगा नहीं जैसा कि कई अर्थशास्त्रियों द्वारा इसे बताया जाता है। आइये गणना करें।
1008 लाख टन खाद्यान्न उपलब्ध कराना संभव है। एफसीआई 2010 में 5000 टन खाद्यान्न ही उपलब्ध कराना संभव है। एफसीआई 2010 में 500 टन खाद्यान्न ही उपलब्ध करा सका जो कुल खाद्य उत्पादन का 23 प्रतिशत था। एकदम अभी सरकार के पास 6 से 8 करोड़ टन खाद्यान्न का भंडार है। अभी 300 से 400 लाख टन खाद्यान्न की आवश्यकता है पूरे देश को खिलाने के लिए। परंतु इसके लिए एक नीति की आवश्यकता है। जिसके लिए ईमानदारी की जरूरत हैं। इसके लिए इच्छाशक्ति चाहिए। यह सब वर्तमान सरकार के पास नहीं है। इसीलिए यह संघर्ष है।
यह उपलब्ध आंकड़े दर्शाते हैं कि सबके लिए पीडीएस का नतीजा कोई असामान्य लागत नहीं है। यदि सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह थोड़े से प्रयास से ही देश के हर दरवाजों पर खाद्यान्न मुहैया कराया जा सकता ह।ै।
यह सरकार को चुनना होगा कि वह जनता के साथ है अथवा कार्पोरेट घरानों के साथ है।
यदि सरकार कुछ बड़े कार्पोरेट घरानों को संतुष्ट करने के लिए इतना खर्च कर सकती है तो क्यों नहीं 24 करोड़ परिवारों को खाना देने के लिए 2 लाख करोड़ खर्च करती हैं।
कुछ लोग बेशर्मी से यह तर्क दे रहे हैं कि मुफ्त या सब्सिडी वाला खाना देना जनता को आलसी बना देगा, जैसे कि देश की दौलत का उत्पादन बगैर परिश्रमी जनता के खून पसीना बहाए हो रहा है।
सरकार को समझ दी जानी चाहिए। उन्हें उनकी नीतियां बदलने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ्य के अलावा भोजन, पेयजल और आवास भी जनता का अधिकार है।
वामपंथ की खाद्य सुरक्षा की लड़ाई एक बड़ी लड़ाई की शुरुआत भर है। यह संघर्ष आगे बढ़ेगा। जनवादी, धर्म निरपेक्ष और एक समान सोच रखने वाले लोगों को बड़ी संख्या में इस लड़ाई को सफल बनाने में लामबद्ध किया जाएगा। आओ सबके लिए खाद्य सुरक्षा के इस संघर्ष को सफल बनाएं।
- एस. सुधाकर रेड्डी

Saturday, March 26, 2011

आगामी चुनाव और वामपंथ


पांच राज्यों - असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के विधान सभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है और उम्मीदवारों के नामांकन की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है। ये चुनाव, खासकर पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव वामपंथी पार्टियों के लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस समय वहां क्रमशः वाम मोर्चा और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा की सरकारें हैं। वामपंथ के लिए तमिलनाडु, पुडुचेरी और असम के चुनाव भी काफी अहमियत रखते हैं।

अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए केरल और पश्चिम बंगाल में विजय प्राप्त करना वामपंथी पार्टियों के लिए आवश्यक है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा पिछले लगभग 34 सालों से लगातार शासन कर रहा है जबकि केरल में एलडीएफ पिछले पांच वर्षों से सत्ता में है।

जब कोई सरकार सत्ता में होती है तो कुछ समस्याएं अपरिहार्य होती है। सभी वायदे पूरे नहीं किये जा सकते। पश्चिम बंगाल में कुछ गलतियां हो गयी हो सकती हैं। जब कोई सत्ता लम्बे अरसे तक रहती है तो कुछ अवांछनीय तत्वों समेत सभी तबके उसकी तरफ आकृष्ट होते हैं। भूल-चूकों और गलतियों की कुछ हद तक पहचान हो चुकी है और उन्हें दूर करने के लिए कुछ गंभीर प्रयत्न भी किये गये हैं।

कुछ अन्य समस्याएं भी हो सकती हैं। उद्योगीकरण के ईमानदार प्रयास भूमि अधिग्रहण के गलत तरीकों से किये गये, जिसका विरोधियों ने फायदा उठाया, उसे हजारों गुना बढ़ाकर पेश किया गया और उससे जनता का एक हिस्सा भ्रमित हुआ। सभी वामपंथ विरोधी पार्टियों के एकजुट हो जाने की उम्मीद तो थी पर जब तृणमूल कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस माओवादियों को खुले समर्थन के साथ एकजुट हुई तो उन्होंने लक्ष्मण रेखा ही लांघ दी।

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह लगातार इस अभियान को जारी रखे हुए हैं कि वामपंथी अतिवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है। उनके लिए सीमापार से आतंकवाद, अभूतपूर्व तरीके से बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, करोड़ों-अरबों रूपये कालाधन जैसी बातें मुख्य समस्याओं में नहीं हैं पर माओवाद सबसे बड़ी समस्या है। पर उनकी पार्टी ममता बनर्जी से हाथ मिलाती है और पश्चिम बंगाल में सत्ता छीनने के अपने सपने में माओवादियों से सहर्ष समर्थन लेती है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ का हमेशा ही विचार रहा है कि माओवाद एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है और इसके एक राजनैतिक समाधान की जरूरत है। हमने गोलियों और हत्याकांडों के जरिये माओवाद को कभी खत्म करना नहीं चाहा। यह कांग्रेस सरकार ही है जो माओवाद की तर्ज पर माओवादी समस्या का हल बन्दूक की नली की ताकत से निकालना चाहती है। वे माओवादियों को अत्यधिक नृशंसता से मार डालते हैं, यहां कि गिरफ्तार करने के बाद भी उनकी हत्या कर देते हैं जैसे उन्होंने आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले में राज कुमार उर्फ आजाद के साथ किया और उसके बाद वे पश्चिम बंगाल में माओवादियों के साथ गलबहियां भी कर लेते हैं। यह हैरानी की बात है कि पश्चिम बंगाल में अपने अंध वामपंथ विरोधी रवैये के कारण वे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के घिनौने खेल को नहीं समझ पा रहे हैं। माओवादियों को बाद में अहसास होगा कि असली दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है। पर जो भयंकर राजनैतिक गलती वे आज कर रहे हैं, उसे दुरूस्त करने के लिए तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार को श्रेय जाता है कि उसने राज्य में बटाईदारों के अधिकारों की गारंटी समेत सार्थक भूमि सुधार किये; समुदायों के बीच शानदार धर्मनिरपेक्ष सम्बंध बनाये रखे; उनकी शिक्षा और सुविधाओं के साथ उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए मुस्लिम अल्पसंख्यकों को विशेष रियायतें प्रदान कीं। वाम मोर्चा को बदनाम करने के लिए कुछ गलतियों, भूलों को, खासकर आदिवासी क्षेत्रों में, बेहद बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। पश्चिम बंगाल के लोग राजनीतिक तौर पर काफी अधिक सचेत हैं और हम आशा करते हैं कि वे तमाम बातों को समझेंगे और एक मजबूत वाममोर्चा के पक्ष में जनादेश देंगे।

केरल एक ऐसा राज्य है जहां एलडीएफ ने ऐसे अनेक सकारात्मक कार्यक्रम चलाये हैं जिनसे जनता को, खासकर गरीबों एवं मध्यवर्ग के लोगों को फायदा पहुंचा है। केरल में देश की सबसे अच्छी सार्वजनिक वितरण प्रणाली है जिसके जरिये चावल दो रूपये किलो दिया जाता है और गरीबी रेखा के नीचे के लगभग 35 लाख परिवारों को खाद्य तेल, दाल और लगभग दो दर्जन आवश्यक वस्तुएं आपूर्ति की जाती हैं। गरीबी की रेखा से ऊपर के अन्य 40 लाख परिवारों को 50,000 सहकारी दुकानों के जरिये बाजार दर से 15 से 40 प्रतिशत की कम कीमत पर आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की जाती है। इस अवधि में गरीबों के लिए साढ़े तीन लाख मकान बनाये गये, एम.एन. आवास योजना के मकानों पर प्रति मकान एक लाख रूपये खर्च कर एक लाख पुराने मकानों की मरम्मत कराई गयी और उन्हें बड़ा बनाया गया। केरल देश का एक अकेला राज्य है जहां किसान कर्ज राहत कमीशन का गठन किया गया और कर्ज राहत देकर किसानों को संकट से बचाया जाता है। केरल के मछुआरों की काफी बड़ी आबादी है, उन्हें 300 करोड़ रूपये की कर्ज राहत दी गयी। इस कर्ज राहत का फायदा 80,000 मछुआरों को मिला। जहां जमीन कम है वहां और अधिक जमीन को धान की खेती के तहत लाया गया।

केरल को इसका भी श्रेय है कि वहां सुशासन है, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन है, सबसे अच्छे साम्प्रदायिक सम्बंध हैं और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति अच्छी है।

यह हैरानी की बात है कि चुनाव आयोग ने गरीबी की रेखा के ऊपर के लोगों को भी दो रूपये किलो राशन के दायरे में लाने की इजाजत केरल सरकार को नहीं दी हालांकि इसका फैसला चुनाव संहिता के लागू होने से पहले बजट अधिवेशन के दौरान ही घोषित किया जा चुका था। यही बात ममता बनर्जी पर लागू नहीं की गयी जिन्होंने छात्राओं को रेलों में मुफ्त सफर करने की घोषणा की। अलग-अलग पैमाने - इससे भारत के चुनाव आयोग की अच्छी छवि देश के सामने नहीं जायेगी। उसे अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।

एलडीएफ के राजनैतिक अभियान को केरल में उत्साहपूर्ण समर्थन मिल रहा है, एलडीएफ के दो जत्थों ने सभी 140 विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया। उन्हें जनता का भरपूर समर्थन और प्यार मिला। क्रीम पार्लर सेक्स घोटाला का, जिसमें पूर्व मंत्री और मुस्लिम लीग के नेता कुन्हाली कुट्टी शामिल हैं, पूर्व मंत्री बाल कृष्ण पिल्लई को एक साल की सजा, जिसकी पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने भी की है, पूर्व मंत्रियों पर अन्य मामले - इन तमाम बातों से भ्रष्ट यूडीएफ सरकार का चेहरा पूरी तरह जनता के सामने आ गया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन के भाई और उनके दादाद - जो दोनों ही कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं - कालेधन के साथ पकड़े गये हैं। केरल के पामोलीन घोटाले में शामिल थॉमस की भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त के रूप में नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त किये जाने से केन्द्र की संप्रग सरकार की नाक तो कटी ही केरल में यूडीएफ की छवि भी खराब हुई। केरल के लोग उच्च साक्षर हैं और अत्यंत सचेत हैं। यूडीएफ, मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों, जो केरल की आबादी का 40 प्रतिशत हिस्सा हैं - के राजनैतिक प्रबंधकों पर निर्भर करता है। जनता अपनी पसंद तय करने के मामले में काफी होशियार है। पिछले कुछ महीनों के राजनैतिक घटनाक्रम से निश्चय ही वामपंथ के पक्ष में वातावरण बना है।

तमिलनाडु बहुत हद तक दो द्रविड़ पार्टियों के प्रभाव में है। वामपंथ ने आल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) के साथ तालमेल किया है। वामपंथ वहां सीमित संख्या में - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 10 स्थानों पर तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) 12 स्थानों पर चुनाव लड़ रही है।

दोनों वामपंथी पार्टियों की छवि है कि वे गरीबों, दबे-कुचले लोगों, किसानों, श्रमिकों और मजदूर वर्ग के लिए लड़ती है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कई संघर्ष किये हैं जिनसे पार्टी की विश्वसनीयता बढ़ी है।

ठीक इसी समय में डीएमके बदनाम हुई, उसकी साख गिरी। वह भ्रष्टाचार का पर्याय बन गयी है। करूणानिधि ने डीएमके को एक पारिवारिक सम्पत्ति बना लिया है। करूणानिधि मुख्यमंत्री हैं, उनका छोटा बेटा स्टालिन उप मुख्यमंत्री है, बड़ा बेटा केन्द्र में कैबिनेट मंत्री है और बेटी राज्य सभा की सदस्य है।

2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने - डीएमके नेता और टेली कम्युनिकेशन के मंत्री के रूप में केन्द्रीय कैबिनेट में डीएमके नामजद ए. राजा की गिरफ्तारी ने - डीएमके के भ्रष्ट तौर-तरीकों का पर्दाफाश कर दिया है। अब क्लाइन्गर टीवी में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के पैसे के प्रवाह के सम्बंध में सीबीआई जांच चल रही है। चुनाव तक वह जांच दिखाने भर के लिए चलेगी क्योंकि हम सभी जानते हैं कि सीबीआई को एक निष्पक्ष सरकारी एजेंसी के रूप में रखने के बजाय उसे अब कांग्रेस पार्टी का एक साधन, एक औजार बना दिया गया है।

पिछले लोकसभा चुनाव में डीएमके ने समूचे तमिलनाडु को भ्रष्ट करने की कोशिश की। अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए उसने अत्यंत शर्मनाक तरीके अपनाये। अंग्रेजी पत्र ‘हिंदू’ द्वारा कुछ वीकीलीक्स दस्तावेजों को प्रकाश में लाया गया है जिसमें अमरीकी राजनयिक द्वारा अमरीकी सरकार को भेजे गये संदेशों से पता चलता है कि तमिलनाडु चनाव मंे किस हद तक भ्रष्टाचार हुआ। भ्रष्टाचार से हमेशा ही फायदा पहुंचे, ऐसा नहीं है। तमिलनाडु की जनता इस भ्रष्ट परिवार के शासन से तंग आ चुकी है और इस अत्यंत बदनाम सरकार को उखाड़ फेंकने में अपनी भूमिका अदा करेगी।

असम में दारोमदार आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों पर

असम में चुनाव के पहले चरण में चुनाव होंगे। राज्य की अनेक विशेषताएं हैं। यह एक ऐसा राज्य भी है जहां अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों का संकेन्द्रण है। वहां नियमित रूप से बाढ़ आती है या बंगला देश से बड़ी संख्या में लोग आ जाते हैं। विद्रोही गतिविधियां और उल्फा द्वारा इक्के-दुक्के हमले वहां की सामान्य बात बन गयी है। अब एक चुनावी चाल के तौर पर, उल्फा बोडो पार्टियों और अल्पसंख्यकों से समर्थन चाहती है। दुर्भाग्य से, असम गण परिषद - जो पहले भाजपा के खिलाफ कोई निश्चित एवं ठोस दृष्टिकोण नहीं अपना सकी थी - इस बार भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन में है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और अन्य वामपंथी पार्टियां अलग से चुनाव लड़ रही हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी असम के लोगों के सच्चे अधिकारों के लिए और शोषण के विरूद्ध हमेशा ही संघर्ष करती रही है। राज्य विधान सभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व बढ़ने से असम की जनता की ज्वलंत समस्याओं का समाधान सुनिश्चित करने के लिए एक बेहतर संघर्ष करने में मदद मिलेगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 19 स्थानों पर चुनाव लड़ रही है।

पुडुचेरी में भाकपा का अच्छा रहेगा प्रदर्शन

तमिलनाडु के साथ ही पुडुचेरी में भी चुनाव हो रहा है। यह फ्रांसीसी उपनिवेश, जिसने फ्रांसीसी उपनिवेशवाद के साथ संघर्ष किया, भारतीय संघ में कुछ देर बाद शामिल हुआ। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यहां मजदूरों और दबे-कुचले लोगों के लिए समझौताविहीन तरीके से संघर्ष करती आयी है और जनता के मध्य पार्टी की एक अच्छी छवि रही है और उसे जनता का समर्थन रहा है।

शासक पार्टी कांग्रेस को पूर्व मुख्यमंत्री रंगासामी के कांग्रेस से बाहर निकल जाने से एक झटका लगा है। तमिलनाडु की राजनीति का पुडुचेरी में भी असर पड़ेगा। पिछले कार्यकाल में पुडुचेरी में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायकों ने अच्छा काम किया है। अतः पार्टी को आशा है कि विधान सभा में पार्टी के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी होगी।

सामान्यतः राज्य विधान सभा के चुनावों में राज्य एवं स्थानीय मुद्दे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर इस बार राष्ट्रीय राजनीति का भी इन चुनावों में बड़ी हद तक असर पड़ेगा। इन उपरोक्त पांच राज्यों में असम के सिवा भाजपा कहीं नहीं है। अन्य राज्यों में उसका अभी तक खाता नहीं खुला है और अब भी वह संभव नहीं है।

इन सभी पांच राज्यों में कांग्रेस और वामपंथ तथा कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। संसद के चुनावों के बाद दो वर्षों तक संप्रग-दो का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस बड़े जोश में थी। दूसरे बार की विजय ने उसमें अहंकार पैदा कर दिया और इस तरह वह आम जनता से पूरी तरह अलग-थलग हो गयी। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार, कांग्रेस नेताओं-मंत्रियों के घपले-घोटालों ने इस पार्टी को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया है, उसकी छवि और प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी है। खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। महंगाई और मुद्रास्फीति बढ़ रही है। बढ़ती बेरोजगारी नई ऊंचाईयों पर पहुंच गयी है। लोगों में भारी आक्रोश है। पिछले दो वर्षों में दो बार ”भारत बंद“ हुए, मजदूरों की एक राष्ट्रीय हड़ताल हुई, सरकार के विरूद्ध अनेकानेक विराट रैलियां हुईं। सरकार के हर जनविरोधी कदम का विरोध हो रहा है।

कांग्रेस और संप्रग-दो की जनविरोधी नीतियों को शिकस्त देने के लिए और भ्रष्टाचार को पूरी तरह नकारने के लिए इन सभी पांचों राज्यों में कांग्रेस को शिकस्त देना एक राजनैतिक जरूरत है। वक्त का तकाजा है कि कांग्रेस को हटाया जाये।

- एस. सुधाकर रेड्डी
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Monday, July 26, 2010

5 जुलाई 2010 की अखिल भारतीय हड़ताल - हड़ताल जर्बदस्त सफल! आगे क्या?

देश का आम आदमी बेहद गुस्से में है; मनमोहन सिंह सरकार की जनविरोधी नीतियों को जनता स्वीकार नहीं करती। देश के आम लोगों का यह गुस्सा और यूपीए-दो सरकार के प्रति उनका मोहभंग 5 जुलाई 2010 की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के रूप में सामने आया। यह राष्ट्रव्यापी हड़ताल जबर्दस्त सफल हुई और वस्तुतः भारत बंद बन गयी।

अति प्रतीक्षित उच्चाधिकार प्राप्त मंत्रिसमूह ने न केवल पेट्रोल, डीजल, किरोसिन और रसोई गैस के मूल्य बढ़ाने की घोषणा की बल्कि पेट्रोल और डीजल के मूल्यों को ‘डीकंट्रोल’ करने का दृढ़ इरादा भी प्रकट किया जिससे पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया।
सरकार ने बड़े निर्लज्ज ढंग से लोगों से कई झूठ बोले। 2008 में तेल का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य प्रति बैरल 148 डालर था जो अब 77 डालर से कम है। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा झूठ बोलने वालों में सबसे आगे हैं। उन्होंने गलत बयानी की कि पड़ोसी देशों में पेट्रोल का मूल्य काफी ज्यादा है। लेकिन जानबूझकर यह तथ्य छिपाया गया कि नेपाल और अन्य पड़ोसी देशों में रुपये का मूल्य 100 रु. से 160 रु. का अनुपात में है। नेपाल में भारतीय रुपये का अनुपात ज्यादा है अर्थात भारत के 100 रु. वहां के 160 रु. के बराबर हैं।

पड़ोस के इन देशों में तुलना में भारत में खाद्य मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा है। विश्व भर में जितने गरीब लोग रहते हैं उनका आधा भारत में रहता है। भूमंडलीय सर्वेक्षणों के अनुसार मानव विकास इंडेक्स में भारत की गिनती सबसे नीचे के देशों में की जाती है।

पेट्रोलियत मंत्रालय का कार्यभार संभालने के पहले दिन से ही मुरली देवड़ा पेट्रोलियत उत्पादों के मूल्य बढ़ाने में लगे हुए हैं और पिछले 6 वर्षों में उनकी देखरेख में यूपीए सरकार ने 14 बार मूल्य बढ़ाये हैं। उनके खिलाफ यह आरोप है कि वे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के तेल एवं गैस के मूल्य पूरी तरह तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मूल्य के अनुसार तय नहीं हो जाते। यानी भारत में ये मूल्य रिलांयस के मूल्यों के बराबर हो जायें ताकि रिलायंस के 3600 पेट्रोल पंप फिर से खुल जायें। रिलांयस को इन पेट्रोल पंपों को पहले इसलिए बंद करना पड़ा था क्योंकि ये अपना तेल सार्वजनिक क्षेत्र के खुदरा मूल्य से अधिक पर बेचते थे।
यह दुर्भाग्य की बात है कि यूपीए-2 के लिए राष्ट्र के हितों के अपेक्षा कार्पोरेट घरानों के हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

वामदलों को बदनाम करने के लिए एक राजनीकि अभियान चलाया गया कि उन्होंने यूपीए के खिलाफ लड़ाई में दक्षिणपंथी शक्तियों से हाथ मिला लिया। हकीकत यह थी कि इस तरह के ज्वलंत मूद्दे पर भाजपा और एनडीए में शामिल पार्टियों के लिए अखिल भारतीय हड़ताल का समर्थन करने के अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं था। कहा जाता है कि देश भर में छोटे-बड़े 42 राजनीतिक दलों ने एक ही समय राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था।

कांग्रेस शासित राज्य में लोगों को आतंकित करने के लिए बड़े पैमाने पर पुलिसकर्मियों की तैनाती की गयी। सरकारी कर्मचारियों को दफ्तर में उपस्थित रहने के लिए पहले ही चेतावनी दे दी गयी थी। महाराष्ट्र में 50,000 पुलिसकमियों की तैनाती की गयी तथा विपक्षी पार्टियों के हजारों नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली एवं अन्य राज्यों में हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। लोग डरे नहीं और यूपीए की ओछी हरकतों की झांसे में नहीं आये और स्वतः बड़ी संख्या में बंद में शामिल हुए। ट्रेनें और बसें नहीं चलीं। दुकाने, बाजार बंद थे, शिक्षण संस्थाएं और दफ्तर बंद थे और यहां तक कि एयरपोर्ट भी बंद थे। पूरा राष्ट्र मानो ठप्प हो गया।

हड़ताल अत्यंत सफल रही। अब हमारे सामने प्रश्न है इसका नतीजा क्या है और अगला कदम क्या होगा?

बंद से एक दिन पहले, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने घोषणा की कि ‘बंद के बाद भी मूल्यवृद्धि वापस नहीं ली जायेगी।’ उन्होंने कहा, ‘यह संभव नहीं’। मानो यह कोई
संवैधानिक संशोधन है जो अब बदला नहीं जा सकता।

उनका बयान भारत के लोगों की सामूहिक भावना के प्रति यूपीए-2 सरकार के कठोर रवैये को ही व्यक्त करता है। उनका बयान कांग्रेस सरकार के अहंकार को व्यक्त करता है जो पिछले एक साल में किये गये उन अनेक एकतरफा फैसलों में बारम्बार झलकता रहा है।

5 जुलाई के बंद से वर्तमान आंदेालन का अंत नहीं हो गया है। मूल्यवृद्धि वापस लेने के लिए सरकार को मजबूर करने के लिए एक लंबा संघर्ष चलाना होगा।
इस हउ़ताल या बंद से न केवल यह पता चलता है कि देश में यूपीए-2 कितनी अलग-थलग पड़ गयी है और कांग्रेस जनता से कितनी दूर हो गयी है, बल्कि इससे देश के करोड़ों लोगों में एक नया विश्वास पैदा हो गया है कि हम सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध और संघर्ष कर सकते हैं।

कुछ लोग पूछते हैं कि विपक्षी दलों की यह एकता कितने दिन चलेगी और इस संबंध में उदाहरण देते हैं कि किस तरह कुछ पार्टियों ने संसद के पिछले सत्र में वित्त
विधेयक में पेश किये गये कटौती प्रस्ताव पर वामपंथ के साथ मतदान नहीं किया।

यह सच है कि यूपीए-2 ने सीबीआई और अन्य सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करके कुछ पार्टियों को फोड़ लिया था। लेकिन तब भी उन तमाम पार्टियों ने 27 अप्रैल, 2010 को हुई हड़ताल का समर्थन किया था। इस 5 जुलाई की हड़ताल में भी समाजवादी पार्टी ने सभी तरह की पहल की और इसमें शामिल हुई। राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी क्षुद्र स्थानीय राजनीति के कारण राष्ट्रीय हित के महत्व को तरजीह दे नहीं पायी। लेकिन इन दोनों पार्टियां ने 10 जुलाई को आंदोलन का आह्वान किया है।

लेकिन बसपा ने न केवल बंद का समर्थन नहीं किया बल्कि इसमें बाधा डालने की कोशिश भी की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बसपा केन्द्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ लंबी-चौड़ी बात तो करती है लेकिन व्यवहार में वह इसके विपरीत है। लेकिन अन्य अनेक धर्मनिरपेक्ष पार्टियों जैसे, जनता दल (एस), एआईडीएमके, एमडीएमके, उड़ीसा में बीजू जनता दल, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल, असम गण परिषद, आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम ने दृढ़तापूर्वक हड़ताल का समर्थन किया और इसे सफल बनाने में योगदान किया।

5 जुलाई की हड़ताल का उद्देश्य था यूपीए-2 सरकार की तेल नीति के खिलाफ देश भर में व्यापक जन प्रतिरोध का निर्माण करना और सरकार को दो टूक जवाब देना। इस उद्देश्य की पूर्ति हुई है। राजनीतिक विकल्प तैयार करने का प्रश्न सही समय पर राष्ट्र के एजेंडे में होगा।

हरेक आंदोलन और संघर्ष को राजनीतिक विकल्प से जोड़ने का भ्रम नहीं होना चाहिए। इसके लिए और अनेक संघर्षों की जरूरत होगी।

अनेक राजनीतिक दलों को केवल एक मंच पर खड़ा कर देने से राजनीतिक विकल्प तैयार नहीं हो जायेगा। जन- संघर्षों से ऐसी परिस्थिति पैदा होगी जिसमें राजनीतिक विकल्प के बारे में सोचना जरूरी हो जायेगा।

खाद्यान्नों और आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में तेज वृद्धि से देश के गरीब और लोगों का जीना मुश्किल हो गया है जबकि शासक पार्टी इस बात से संतुष्ट है कि सेंसेक्स में कार्पोरेट घरानों के शेयर बढ़ गये हैं।

भविष्य में लोगों को और भी ज्यादा कठिनाइयों और परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह परमाणु दायित्व बिल संसद में पारित कराने पर तुले हैं जो अमरीकी कार्पोेरेटों के सामने शर्मनाक आत्मसमर्पण होगा। तथाकथित खाद्य सुरक्षा बिल से गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करोड़ों लोग इसकी परिधि से बाहर हो जायेंगे और वे बाजार तंत्र के रहमोकरम पर निर्भर हो जायेंगे।

वामदलों को यह लड़ाई जारी रखनी चाहिए, यूपीए-2 सरकार की खोखली नीतियों का पर्दाफाश करना चाहिए और साथ ही सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी नीतियों के खिलाफ संघर्ष चलाते रहना चाहिए।

5 जुलाई की राष्ट्रव्यापी हड़ताल को सफल बनाने में हमारी पार्टी तथा अन्य वामदलों के कार्यकर्ताओं ने काफी अच्छा काम किया है। हमें संघर्ष को जारी रखना चाहिए तथा जनता की राजनीतिक चेतना को आगे बढ़ाना चाहिए।

- एस. सुधाकर रेड्डी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल