Showing posts with label डा. गिरीश. Show all posts
Showing posts with label डा. गिरीश. Show all posts

Friday, August 31, 2012

खेती, किसान और खुदरा व्यापार को चौपट कर देगी कान्ट्रैक्ट फार्मिंग - भाकपा

लखनऊ 31 अगस्त। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने राज्य सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश में कांट्रैक्ट फार्मिंग को शुरू करने के फैसले को किसान, व्यापारी और जन विरोधी बताते हुए इसे तत्काल रद्दी की टोकरी में डालने की मांग की है।
भाकपा राज्य सचिव मंडल की ओर से जारी बयान में पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने आरोप लगाया कि राज्य सरकार का यह कदम केन्द्र की संप्रग-2 सरकार द्वारा खेती में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से कारपोरेट एवं कांट्रैक्ट खेती शुरू करने की नीति को ही आगे बढ़ाने वाला है। यह आर्थिक नव उदारवाद की नीति का विस्तार है जिसे राज्य सरकार अनेक रूपों में आगे बढ़ा रही है।
भाकपा का आरोप है कि कांट्रैक्ट फार्मिंग के जरिये विशालकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियां उच्च तकनीकी लायेंगी जिससे कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैलेगी। यह कदम खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की बैकडोर एंट्री है और कृषि उत्पादों के कारोबार को विदेशी कम्पनियों के हवाले करना है। इसका विरोध खुद सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने वाम दलों के नेताओं के साथ गत दिनों प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में किया है। इससे मंडी समितियां भी अपंग हो जायेंगी।
भाकपा का सीधा तर्क है कि विदेशी कम्पनियां लाभ कमाने को कांट्रैक्ट फार्मिंग में प्रवेश कर रही हैं और यह लाभ वे हमारे देश के व्यापारी और किसान की कीमत पर ही तो कमायेंगी। दूसरे कांट्रैक्ट के जरिये कृषि उत्पादों पर एकाधिकार कायम कर वे मनमाने दामों पर उन्हें उपभोक्ताओं को बेचेंगी। छोटे और मझोले किसान, जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती है, उन्हें एडवांस धन देकर वे मनमानी शर्तों पर कांट्रैक्ट करेंगी और उन्हें कर्ज के जाल में फंसा कर उनकी जमीनों को हड़प लेंगी। स्पष्ट है कि कारपोरेट खेती को बढ़ावा देकर पहले केन्द्र सरकार और अब राज्य सरकार भूमि सुधार के सवाल को ही उलट रही हैं और सीलिंग कानूनों को और भी असरहीन बनाने जा रही है।
इसके अलावा मांसेन्टो और कारगिल जैसी कंपनियां जो अपने बीज, खाद और कीटनाशकों को कृषि पर थोप रही हैं, को और भी बल मिलेगा तथा बेहद महंगी एवं पर्यावरण के लिये हानिकारक जैनैटिकली मॉडीफाईड तकनीकी का विस्तार प्रदेश के कृषि संकट को और भी बढ़ायेगा।
भाकपा राज्य सचिव मंडल ने मुख्यमंत्री को आगाह किया है कि वे अति उत्साह में उत्तर प्रदेश की खेती, किसान, खुदरा व्यापार के साथ-साथ पर्यावरण के विनाश के इस रास्ते को न खोलें और प्रदेश के ऊपर कांट्रैक्ट फार्मिंग थोपे जाने के घातक कदमों को पीछे खींच लें।

Sunday, February 12, 2012

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश का चुनाव प्रसारण

उत्तर प्रदेश के समस्त मतदाता भाइयों और बहिनों,
देश के सबसे बड़े और राजनैतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश की 16वीं विधान सभा के चुनाव का बिगुल बज चुका है।
आप सभी जानते हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा थोपे गये भ्रष्टाचार और महंगाई ने आप सभी की कठिनाईयां बेहद बढ़ा दी हैं। इन कठिनाइयों से उबरना है तो बेहद समझ-बूझकर मत का प्रयोग करना है।
मौजूदा सरकार से पहले समाजवादी पार्टी की राज्य सरकार प्रदेश में सत्तारूढ़ थी। वह सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम उपक्रमों को पूंजीपतियों के हाथों बेच रही थी। वह किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण कर अपने चहेते और मददगार उद्योगपतियों को सौंप रही थी। विरोध करने पर किसानों पर दमनचक्र चला रही थी। भ्रष्टाचार चरम पर था, यहां तक कि पुलिस कांस्टेबिलों की भर्ती तक में भारी रकम डकारी गई थी। शिक्षा को परचूनी की दुकान बनाकर बेहद महंगी कर दिया गया था। नये विद्यालयों की मान्यता में भारी भ्रष्टाचार फैला था। राशन प्रणाली ध्वस्त पड़ी थी। शासन-प्रशासन और गुंडे मिल कर काम कर रहे थे जिससे कि कानून-व्यवस्था चरमरा कर रह गई थी।
इन सभी समस्याओं से निजात पाने के लिये 2007 के विधान सभा चुनावों में जनता ने बसपा के पक्ष में जनादेश दिया था और बहुत अर्से बाद प्रदेश में एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार वजूद में आई थी। हर किसी ने सोचा था कि नई सरकार उनकी इन सारी दिक्कतों को दूर करेगी। लेकिन हुआ ठीक इसके उलटा। मौजूदा बसपा सरकार ने भी हर मामले में अपनी पूर्ववर्ती सरकार के पदचिन्हों पर चलना शुरू कर दिया। केन्द्र सरकार और पिछली राज्य सरकार द्वारा चलाई जाती रही आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया जाने लगा। इससे किसानों, मजदूरों, युवाओं, छात्रों, कर्मचारियों, महिलाओं, दलितों, दस्तकारों, बुनकरों, अल्पसंख्यकों की बरबादी शुरू हो गई। इसके विरोध में आवाजें उठीं तो हर आवाज को राज्य सरकार ने लाठी और गोली से दबाना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं बसपा सुप्रीमो और उनकी सरकार के तमाम मंत्री धन बटोरने में लगे रहे। पूरे पांच साल एक से एक बड़े घोटालों की पर्तें खुलती चलीं गईं। जनता लुटती रही और अफसर, दलाल और मंत्री मालामाल होते रहे। आज हालत यह है कि डेढ़ दर्जन से अधिक मंत्री लोकायुक्त की जांच के दायरे में हैं तो तमाम विधायकों की अकूत बढ़ती संपत्तियां जनता को भौचक बनाये हुये हैं। किसानों की जमीनें हड़प कर पूंजीपतियों को दे दी गईं। प्रतिरोध करने वाले किसानों पर गोलियां चलाई गईं जिनमें कई किसानों की जानें चली गईं।
मौजूदा शासक दल ने गत चुनाव में नारा दिया था कि चढ़ गुंडों की छाती पर वोट डाल दो हाथी पर। लेकिन सत्ता में आते ही सारे के सारे गुंडे माफिया हाथी पर सवार हो गये और अपराधों और अत्याचार की बाढ़ सी आ गई। सर्वाधिक अत्याचार दलितों और महिलाओं के ऊपर होते रहे। एक दलित वर्ग से आई महिला मुख्यमंत्री की इससे बड़ी असफलता और क्या हो सकती है? अनेकों महिलाओं के साथ बलात्कार और छेड़छाड़ की तमाम घटनायें हुईं तो कई की तो दुष्कर्म के बाद हत्या तक कर दी गई। इन सारे अपराधों की जड़ में शासक दल के नेता एवं मंत्री थे। हत्या, लूट, चोरी, दहेज हत्यायें, ऑनर किलिंग की तमाम वारदातें अखबारों की सुर्खियां बनती रहीं। खुद राजधानी लखनऊ में तीन-तीन स्वास्थ्य अधिकारियों की हत्यायें सरकार के माथे पर कलंक का टीका हैं। यह सारे कृत्य बसपा की उस कथित ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का परिणाम हैं जिसके तहत इसने तमाम अपराधियों, माफियाओं, दबंगों को टिकिट देकर सत्ता शिखर तक पहुंचाया।
लेकिन जब बसपा इनके कृत्यों से बदनाम होने लगी तो उन्हें पदों से हटाने या टिकिट काट देने का स्वांग रचा गया।
उत्तर प्रदेश की जनता ने यह सब कुछ सपा अथवा बसपा के राज में ही झेला हो ऐसी बात नहीं है। इससे पूर्व भाजपा और कांग्रेस के शासन काल में भी उत्तर प्रदेश की जनता ने ये सारी पीड़ायें झेली हैं।
लगभग ढाई साल पहले हुये लोकसभा के चुनावों के परिणामस्वरूप केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग-2 की सरकार बनी। प्रदेश में सत्तारूढ बसपा और विपक्षी दल सपा दोनों ही इस सरकार का समर्थन करते रहे हैं। महंगाई का सवाल हो या भ्रष्टाचार का मसला ये दोनों ही पार्टियां संसद में संप्रग-2 सरकार के साथ खड़ी दिखीं। इस समर्थन से ताकत हासिल कर केन्द्र सरकार निर्मम तरीके से अपनी आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों को चलाती रही है। सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण निर्बाध रूप से जारी है। गरीब और गरीब हो रहे हैं तो अमीर और अमीर। भारी भरकम भ्रष्टाचारों में सरकार लगातार घिरी रही। बेरोकटोक बढ़ती महंगाई ने आम आदमी का जीना दूभर बना रखा है। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस के दाम मनमाने तरीके से बढ़ाये जाते रहे हैं। किसानों की जरूरत की चीजें महंगी बना दी गई हैं जबकि उनके उत्पादों के उचित मूल्य नहीं दिये जा रहे। खाद के संकट  ने किसानों को तबाह बनाये रखा। कर्ज और भुखमरी में डूबे बुन्देलखंड के किसान-मजदूर आत्महत्यायें करते रहे और कांग्रेस व बसपा के आका बुन्देलखंड की बर्बादी पर घड़ियाली आंसू बहाते रहे। केन्द्र की सरकार खुले तौर पर पूंजीपतियों, कार्पोरेट जगत के पक्ष में खड़ी है और गरीबों का खून चूसने का काम कर रही है। इस पाप पर पर्दा डालने के लिये एक युवराज दलितों की झोपड़ियों में जाने का नाटक करते रहते हैं।
यहां यह भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि जब संप्रग-1 सरकार वामपंथी दलों के समर्थन पर टिकी थी, वामपंथ के कड़े अंकुश के कारण वह यह सब जनविरोधी काम नहीं कर पाई थी। उलटे वामपंथ के दवाब में मनरेगा, सूचना का अधिकार, आदिवासी अधिनियम, घरेलू हिंसा विरोधी अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानून बनवाये गये थे। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने से सरकार को बार-बार रोका गया था जिससे महंगाई पर अंकुश लगा था। भ्रष्टाचार और घपले होने नहीं दिये गये थे और सार्वजनिक क्षेत्र को बिक्री से बचाया गया था। देश की जनता इन तथ्यों से भलीभांति अवगत है।
केन्द्रीय स्तर पर विपक्ष की मुख्य पार्टी भाजपा है। परन्तु उसकी आर्थिक नीतियां वहीं हैं जो कांग्रेस की। अतएव प्रमुख सवालों पर संसद में वह सरकार से नूराकुश्ती करती नजर आती है। महंगाई और भ्रष्टाचार रोकने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं। भ्रष्टाचार में तो उसके तमाम नेता स्वयं डूबे हैं अतएव उसका भ्रष्टाचार विरोध बेमानी है। सांप्रदायिकता भड़काने वाले उसके तमाम मुद्दों को जनता ने ठुकरा दिया है अतएव अब छद्म तरीकों से साम्प्रदायिक दांव पेंच चलाती रहती है।
उत्तर प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रदेश में कार्यरत चारों पूंजीवादी पार्टियां अपनी चमक और प्रासंगिकता खो बैठी हैं। सुरक्षित ठिकानों की तलाश में इनके तमाम नेता दलबदल कर रहे हैं। सभी नेताओं के बेटे-बेटियां एवं रिश्तेदार चुनाव मैदान में उतर कर वंशवाद की जड़े मजबूत कर रहे हैं। विधान सभा के पटल पर सत्ता पक्ष और विपक्ष की सांठगांठ से जनता के अहम सवालों पर चर्चा तक नहीं होती। जातिवाद और साम्प्रदायिकता की इनकी नीतियों ने गरीबों का कोई हित नहीं किया। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन ने इनकी बची-खुची जड़ें भी खोखली कर डाली हैं। ऐसे में जनता एक नई राह तलाश रही है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एवं वामपंथी दल जनता की इस नई राह के राही हो सकते हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछले पांच सालों में जनता के सवालों पर लगातार संघर्ष चलाये हैं। भाकपा ओर उसके कार्यकर्ता भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं। यह सारा देश जानता है। अपनी इन सारी विशेषताओं के साथ भाकपा ने वामपंथी दलों से चुनावी तालमेल किया है। वाम दल प्रदेश में सौ सीटों पर विधान सभा का चुनाव लड़ रहे हैं। खुद भाकपा 50-52 सीटों पर चुनाव मैदान में है। हम सरकार बनाने का दावा नहीं कर रहे हैं। लेकिन हम मतदाताओं को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि यदि वे भाकपा प्रत्याशियों को विजयी बनाते हैं तो विधान सभा के पटल पर जनता की आवाज बेलाग तरीके से गूंजेगी। जिस तरह हम निरंतर सड़कों पर उतर कर संघर्ष करते हैं वैसा ही संघर्ष विधान सभा के पटल पर भी किया जायेगा। हम संवेदनशील, संघर्षशील और सशक्त वामपंथी विकल्प का निर्माण चाहते हैं ताकि महंगाई और भ्रष्टाचार जैसी विडंबनाओं को पीछे धकेला जा सके। गरीबों को बचाना है और उत्तर प्रदेश को ऊंचा उठाना है तो वामपंथ को मजबूत बनाना ही होगा। भाकपा उत्तर प्रदेश के चहुंतरफा विकास के लिए संघर्ष करेगी, ऐसा हमारा दावा है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब आप सभी का बहुमत हमारे प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करेगा।
अतएव हम सभी मतदाताओं से अपील करते हैं कि साम्प्रदायिक, जातिवादी और वंशवादी ताकतों को परास्त करें। भ्रष्ट, अपराधी तथा माफिया सरगनाओं को विधान सभा में न पहुंचने दें। किसान, मजदूर एवं आम आदमी की बरबादी की जिम्मेदार - आर्थिक नवउदारवाद की ताकतों को पीछे धकेलने का काम करें। 16वीं विधान सभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशियों को ज्यादा से ज्यादा संख्या में चुनकर भिजवायें। तथा हंसिया बाली वाले चुनाव निशान के आगे वाले बटन को जरूर दबायें।

Saturday, April 23, 2011

अत्यधिक प्रासंगिक हो गया है - ”गाँव चलो-मोहल्ला घूमो“ अभियान

गत कई वर्षों में उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की इकाइयां और उसके नेता/कार्यकर्ता बेहद सक्रिय रहे हैं। जन-समस्याओं पर आन्दोलन दर आन्दोलन चलाये गये हैं, राष्ट्र एवं प्रान्त स्तरीय कार्यक्रमों में आशा से अधिक भागीदारी की है, पार्टी शिक्षा पर बेहद ध्यान दिया गया है और दो राज्य स्तरीय एवं दर्जनों क्षेत्रीय एवं जिला स्तरीय प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये गये हैं, जन संगठनों में जान डालने की कोशिशें जारी हैं, कई सीटों पर लोकसभा चुनावों एवं विधानसभा के उप चुनावों में भागीदारी की गयी है, त्रि-स्तरीय पंचायत चुनाव लड़े और जीते गये हैं, महंगाई और बढ़ती गतिविधियों से बढ़ते खर्चों को पूरा करने को अनाज एवं धन संग्रह अभियान चलाने की कोशिशें की गयी हैं, राज्य मुख्यालय पर बेहद जरूरी सुविधायें जुटाई गयी हैं और संभवतः पहली बार राज्य मुख्यालय पर एक नया चार पहिया वाहन खरीदा गया है। यह सारी गतिविधियां उत्तर प्रदेश में पार्टी के विकास और विस्तार की छटपटाहट की द्योतक हैं।

अब हमारे सामने कई महत्वपूर्ण चुनौतियां मौजूद हैं। देश की ही भांति उत्तर प्रदेश की जनता भी तमाम समस्याओं से जूझ रही है। केन्द्र और राज्य सरकार दोनों जनता पर कुल्हाड़ा चला रही हैं मगर विपक्ष की बड़ी पार्टियां जनता के सरोकारों को उठा नहीं पा रही हैं। एक राजनैतिक विकल्पशून्यता की स्थिति से उत्तर प्रदेश गुजर रहा है। इस स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश में कई ताकतें जुट गई हैं। श्री अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल की ड्राफ्ट कमेटी में अपने प्रतिनिधि रखवाने के आन्दोलन के प्रति भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता - खासकर मध्यम वर्ग में काफी लगाव दिखा। वहीं भ्रष्टाचार से धन अर्जन करने वालों में इस अवसर को अपने को सदाचारी जताने को भुनाने की होड़ लगी रही। ऐसे प्रयास आगे भी होंगे। इन सवालों पर भाकपा और वामपंथ की सक्रियता और संघर्षशीलता ही ऐसे भटकावों को रोक सकती है।

प्रदेश में दो-दो चुनाव सामने हैं। विधान सभा चुनाव जहां अप्रैल-मई 2012 में वांछित है वहीं नगर निकायों के चुनाव नवम्बर-दिसम्बर 2011 में। लेकिन दोनों के ही समय से पूर्व होने के कयास लगाये जा रहे हैं। नगर निकाय चुनाव जून-जुलाई में कराने की तैयारी चल रही है तो विधान सभा चुनाव अक्टूबर-नवम्बर 2011 में कराये जाने की संभावना है। तमाम दलों ने इनकी तैयारी शुरू कर दी है। लेकिन हमारी स्थिति भिन्न है। हम चुनावी तैयारियां भी आन्दोलन और सांगठनिक कार्यों को तेज करके ही किया करते हैं।

उपर्युक्त दृष्टि से 13, 14 एवं 15 मई को चलाया जाने वाला धन एवं अनाज संग्रह अभियान हमारे लिये बेहद महत्वपूर्ण है। इसे कैसे सफल बनाया जाये, इसकी चर्चा ”पार्टी जीवन“ के गत अंक में की जा चुकी है।

गत दिनों सम्पन्न राज्य कार्यकारिणी की बैठक में बहुत सोच-समझ कर ही ”गांव चलो-मोहल्ला घूमो“ अभियान व्यापक तौर पर चलाने का निर्णय लिया गया था। जन-जागरण अभियान 16 मई से 29 मई तक चलाया जाना है जिसका समापन 30 मई को जिला मुख्यालयों पर जुझारू धरने/प्रदर्शनों के साथ किया जाना है। जाहिर है ज्वलन्त सवालों पर जिलाधिकारी के माध्यम से महामहिम राष्ट्रपति एवं राज्यपाल महोदय को ज्ञापन तो सौंपे ही जायेंगे।

अनेक सवाल हैं जो इस अभियान के अंतर्गत जनता के बीच स्पष्टता से रखे जाने हैं। उत्तर अफ्रीकी देशों की जनता लम्बे समय से तानाशाही, कुशासन, भ्रष्टाचार एवं अत्याचारों से त्रस्त है। जनता सड़कों पर उतरी तो एक के बाद एक तानाशाही उखड़ने या लड़खड़ाने लगीं। पहले ट्यूनीशिया की जनता ने निरंकुश शासक को खदेड़ा तो फिर मिस्र की जनता ने 32 सालों से राज चला रहे होस्नी मुबारक को हटा कर ही दम लिया। बहरीन, यमन, सीरिया, जोर्डन, लीबिया की जनता ने करवट ली और वहां भी आन्दोलन जोर पकड़ने लगा। अब समूचे अरब जगत में यह आग धधक रही है। दुनियां के लोकतंत्रवादी एवं प्रगतिशील सोच के लोगों में इन घटनाक्रमों से भारी उत्साह जगा है। मगर ऊपर से लोकतांत्रिक शक्तियों की विजय पर खुशी जताने वाली अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों की सरकारों को जनता की यह बढ़ती ताकत रास नहीं आई। वे इन आन्दोलनों में भीतरघात की कोशिशों में जुट गईं। बहरीन की जनता के आन्दोलन को सऊदी अरब के माध्यम से दबाने की कोशिश की गयी। लेकिन लीबिया में तो अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और नाटो देशों ने सीधे सैनिक कार्यवाही कर डाली और लीबिया में भारी तबाही मचा दी है। इससे लीबिया की जनता के अपने निर्णय के अधिकार का हनन तो हुआ ही, लीबियाई संकट का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो गया। इससे कर्नल गद्दाफी को ही लाभ पहुंचा क्योंकि इराक की तबाही देख चुका विश्व जनमत अमेरिकी गुट की इस कारगुजारी को गले नहीं उतार पा रहा है। बाहरी हमला फौरन रोका जाये और संकट का हल बातचीत से निकाला जाना चाहिये, यह मांग जोर पकड़ रही है। अरब जगत में चल रही बदलाव की यह आंधी भ्रष्टाचार और जनलूट में आकंठ डूबे भारत के शोषक वर्गों एवं उनके द्वारा संचालित सरकारों और पार्टियों के लिए एक बड़ी चेतावनी है।

जापान में आये भयंकर भूकंप एवं सुनामी के बाद वहां के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों - खासकर फुकुशिमा संयंत्र में आग लग गयी। तापमान बढ़ने से रेडियम छड़ें पिघलने लगीं और बड़े पैमाने पर हानिकर रेडियोधर्मी विकिरण (रेडियेशन) होने लगा। यह विकिरण इतना जबरदस्त था कि तमाम बचावकर्मी ही जान बचाकर भागने लगे। चेरनोबिल परमाणु बिजली घर में हुए हादसे से भी यह बड़ा हादसा है। इससे मिट्टी, पानी, पर्यावरण, समुद्र सभी प्रदूषित हो गये हैं। खाद्य पदार्थों सहित तमाम उपभोक्ता वस्तुयें इसकी चपेट में हैं। इसने मानवता ही नहीं समूची प्रकृति को असीमित बरबादी की मांद में धकेल दिया है। यह हादसा समूचे विश्व की आंखें खोलने को काफी है। चीन में भी परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को लगाने का जनता सड़कों पर उतर कर विरोध कर रही है। लेकिन हमारे देश की सरकार इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं। जैतापुर (महाराष्ट्र) के अलावा गुजरात और हरियाणा में नये परमाणु बिजली घर बनाने का काम जारी है जबकि स्थानीय जनता, पर्यावरणविद और किसान इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं। विरोध कर रही जनता को अब दमन के बल पर दबाया जा रहा है। जैतापुर प्लांट का विरोध कर रहे आन्दोलन में पुलिस की गोली से एक नागरिक शहीद हो चुका है।जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को इसके निर्माण का काम सौंपा जा रहा है, उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। भूकंप की स्थिति या तकनीकी खराबी आने पर जन-धन की भयंकर बरबादी अवश्यंभावी है। हमारे मौजूदा परमाणु बिजलीघरों की सुरक्षा के सम्बंध में भी हम अधिक नहीं जानते। तारापुर परमाणु संयंत्र की बनावट फुकुशिमा जैसी ही है। समझा जा सकता है कि यदि कोई बड़ा भूकम्प आया तो हमारा क्या हाल होगा। यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि विकास के नाम पर विनाश का ये रास्ता किसके कहने पर अपनाया जा रहा है। कहीं यूरेनियम आपूर्ति कर भारी मुनाफा बटोरने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर तो नहीं? जो भी हो फुकुशिमा की त्रासदी के बाद भारत-अमेरिकी परमाणु करार के वक्त भाकपा और वामदलों द्वारा खड़े किये गये सवाल आज फिर से प्रासंगिक हो गये हैं। हमें इस सवाल को जनता के बीच ले जाना है। साथ ही परमाणु करार के समर्थन में उतरी समाजवादी पार्टी से भी सवाल किया जाना चाहिये कि उसने इसका समर्थन क्यों किया?

देश में इस बार रबी की फसल में बम्पर पैदावार हुई है जिसका श्रेय देश के किसानों और खेतिहर मजदूरों को जाता है जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अधिक अनाज का उत्पादन किया। लेकिन प्याज, लहसुन और सब्जियों की भरपूर पैदावार के बावजूद महंगाई थमने का नाम नहीं ले रही है। मार्च महीने में महंगाई की दर पिछली 8.31 प्रतिशत से बढ़कर 8.98 हो गई जबकि भारतीय रिजर्व बैंक ने इसके घटने का दावा किया था। केन्द्र सरकार की आर्थिक उदारीकरण की नीतियां, जिसके तहत पेट्रोलियम की कीमतें लगातार बढ़ाई जा रही हैं, इसके लिए जिम्मेदार हैं। राज्य सरकार द्वारा जमाखोरी एवं कालाबाजारी पर रोक न लगाना, राशन प्रणाली एवं अन्य राहतकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। कुछ भी हो महंगाई की मार से आम आदमी तबाह हो रहा है। रोज कमा कर खाने वालों की जान के लाले पड़े हुए हैं। हमारे अभियान का यह एक प्रमुख मुद्दा रहना चाहिए।

एक के बाद एक उजागर हो रहे महाघोटालों और उनमें नेता, अफसर, पूंजीपति, उद्योगपति और दलालों की संलिप्तता ने जन-मानस को झकझोर कर रख दिया है। हाल ही में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला, इसरो में हुआ घोटाला, पामोलिन तेल घोटाला, मनरेगा योजना तथा गरीबी उन्मूलन की अन्य तमाम सरकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, भूमि-अधिग्रहण में चल रहे घोटाले तथा उच्च पदस्थ नेताओं को धन इकट्ठा कर मुहैया कराने के घोटाले लगातार सामने आ रहे हैं। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा तथा कई क्षेत्रीय दल इन घोटालों में साफ दोषी दिखाई दे रहे हैं। भ्रष्टाचार आज समाज में कैंसर का रूप ले चुका है जिससे आम और गरीब आदमी बेहद परेशान है। उन्हें इसके भंवरजाल से निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। भाकपा और वामदलों ने सड़क से लेकर संसद तक इसके खिलाफ आवाज उठाई है लेकिन यह आवाज जनता की आवाज अभी तक नहीं बन पायी है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस देश में केवल और केवल वामपंथी हैं जिनको भ्रष्टाचार छू तक नहीं पाया है। लेकिन मीडिया हमारी भूमिका को पूरी तरह दबाता रहा है। अतएव अब भ्रष्टाचार के खिलाफ कई तात्कालिक तत्व सक्रिय हो गये हैं और मीडिया उन्हें पूरी ताकत से उछाल रहा है। कार्पोरेट मीडिया नहीं चाहता कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई बन जाये जोकि वामपंथ का लक्ष्य है। पूंजीवादी व्यवस्था में जहां हर तरह से पूंजी के विस्तार की छूट है, कुछ कानूनों और कुछ कदमों से भ्रष्टाचार रूकने वाला नहीं है। हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग को तेज तो करना ही है, इसे व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की लड़ाई में तब्दील करना है। इसके लिये व्यापक जन-लामबंदी आवश्यक है।

उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था जार-जार हो चुकी है। दलितों, महिलाओं, आदिवासियों तथा अन्य कमजोर वर्गों को सबसे अधिक दमन का शिकार होना पड़ रहा है। पुलिस व प्रशासन न केवल आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं अपितु वे सत्ता शिखर के लिये धन जुटाने का औजार बन गये हैं। तीन माह के भीतर राजधानी में दो-दो सीएमओ की जघन्य हत्यायें इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। अब सरकार और उसके वरिष्ठ अधिकारियों पर हसन अली से सम्बंध होने के आरोप उजागर हो रहे हैं। प्रशासन शासक दल के औजारों की तरह काम कर रहा है। विपक्ष की लोकतांत्रिक गतिविधियों को कुचलने के प्रयास हो रहे हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में जबरदस्त तरीके से जोर जबरदस्ती कर सत्ता पर कब्जा जमा लिया गया। अब नगर निकायों पर बलात् कब्जा करने की तैयारी है। इसके लिए अध्यक्षों के सीधे चुनाव रोकने सम्बंधी विधेयक को विधान सभा में आनन-फानन में जबरदस्ती पारित कर घोषित कर दिया गया जिसको महामहिम राज्यपाल महोदय ने स्वीकृत नहीं किया। इन चुनावों को पार्टी के चुनाव चिन्ह पर लड़ने से भी रोका जा रहा है। लोकतंत्र को नेस्तनाबूद करने की इस साजिश का हम विरोध करते रहेंगे और दोनों कदमों को वापस लेने की मांग करते हैं।

भाकपा ने प्रदेश के बुनकरों के हित में लड़ाई लड़ी और कुछ राहतें उन्हें दिलाने में कामयाबी हासिल की है। लेकिन बुनकर समुदाय के तमाम सवाल अब भी मुंह बायें खड़े हैं। मनरेगा मजदूर काम और दाम से वंचित किये जा रहे हैं। आशा, आंगनबाड़ी, मिड डे मील रसोइये, हेल्थ वर्कर्स तथा असंगठित क्षेत्र के तमाम मेहनतकश अति अल्प वेतन और बेहद कम सुविधाओं में जीवनयापन को मजबूर हैं। खेतिहर मजदूरों के सवाल भी जहां थे वहीं लटके पड़े हैं।

विकास के नाम पर पूरे प्रदेश में किसानों की उपजाऊ जमीनों का जबरिया अधिग्रहण किया जा रहा है। इसके विरूद्ध हमने कई आन्दोलन चलाये और कई जगह सफलता भी हासिल की। आज के दौर में यह मामूली बात नहीं है। लेकिन इस सवाल को और अधिक गंभीरता से लेना है। किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को हमें हर कीमत पर बदलवाना है। इस बीच रासायनिक खादों, कृषि उपकरणों, बीजों, कीटनाशकों, बिजली और डीजल आदि के दामों में बड़ी बढ़ोतरी हुई है जबकि उनकी पैदावार के दाम उसी अनुपात में नहीं बढ़ाये गये हैं। किसान लगातार घाटे में जा रहे हैं और कर्ज के जाल में फंसते जा रहे हैं। उनमें से तमाम आत्महत्यायें कर चुके हैं। हाल में आये आंधी, पानी, ओलों से भी रबी की फसल को बड़ा नुकसान पहुंचा है। उनकी इस हानि का शत-प्रतिशत मुआवजा तत्काल मिलना चाहिये तथा लगान, आबपाशी आदि माफ किया जाना चाहिये। उनका अनाज सरकारी खरीद केन्द्रों पर बेरोकटोक खरीदा जाना चाहिये। खरीद केन्द्र सुचारू काम करें यह भी हमें देखना चाहिये।

प्रदेश में शासन एवं प्रशासन में तमाम स्थान रिक्त पड़े हैं। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षण संस्थाओं में तमाम जगह खाली पड़ी हैं। ये स्थान भरे नहीं जा रहे और यदि भरे जा रहे हैं तो भारी रिश्वतखोरी जारी है। प्रदेश के नौजवान दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। पढ़ाई दुकानदारी में तब्दील कर दी गई है। स्तरहीन निजी स्कूल डिग्रियां बेच रहे हैं। भारी फीस वसूली जा रही है। आम नागरिक बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं। सरकारी स्कूलों में सीटों की कमी है। तमाम लोग वहां दाखिलों से वंचित रहने हैं। शिक्षा का बाजारीकरण रोके बिना जनशिक्षा संभव नहीं और बिना जन शिक्षा के देश का विकास संभव नहीं है। इस सबको अभियान में महत्वपूर्ण जगह दी जानी चाहिये।

उपर्युक्त सवालों के साथ-साथ स्थानीय समस्याओं को लेकर हमें गांव, मोहल्लों, कस्बों, नगरों और महानगरों में अलख जगानी है। पर्चे छाप कर बांटे जाने चाहिये। ग्रामों में रात और दोपहर को चौपालें लगाई जायें। अखबारों को खबरें लगातार दी जायें। जनता से 30 मई को जिला/तहसील केन्द्रों पर होने वाले प्रदर्शन में व्यापक रूप से भाग लेने का आह्वान किया जाये।

जहां-जहां जायें वहां जन संगठनों की स्थापना का प्रयास करें। पार्टी की शाखायें व सदस्यता स्थापित करें। जहां चुनाव लड़े जाने हैं, वहां बूथ स्तर पर कमेटियां गठित करें। पार्टी के अखबारों के वार्षिक ग्राहक बनाये जायें। पार्टी संचालन के लिये लोगों से धन और अनाज भी अवश्य मांगें। हर तरह से अभियान को कारगर बनाया जाये।

जिला कार्यकारिणी और काउसिंल की बैठक कर इसकी व्यापक रूपरेखा तैयार करनी चाहिये। शाखाओं और मध्यवर्ती कमेटियों को भी सक्रिय करना चाहिये। हर सदस्य एवं जन संगठनों को इसमें भागीदार बनाना चाहिये। इसके जरिये जनता को उसके ज्वलन्त सवालों पर लामबंद करने के साथ-साथ हम अपनी चुनावी तैयारियों को भी आगे बढ़ा पायेंगे।

अतएव ”गांव चलो, मुहल्ला घूमों“ अभियान में हमें पूरी तरह कमर कस कर उतरना है। विकल्पशून्यता की इस स्थिति में हमें प्रदेश में अपनी ताकत में इजाफा करने के इस अवसर को गंवाना नहीं है। यही वक्त का तकाजा है और यही हमारा दायित्व है।



(डा. गिरीश)

Monday, October 4, 2010

नेपाल के वर्तमान हालात



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य और उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल के सचिव डा0 गिरीश ने 17 से 21 सितंबर तक काठमांडू में संपन्न नेपाली कांग्रेस के कन्वेंशन में बतौर भाकपा प्रतिनिधि भाग लिया।






अपने पांच दिवसीय नेपाल प्रवास के दौरान उन्होंने नेपाली कांग्रेस के खुले अधिवेशन को संबोधित किया। नेपाली कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के अतिरिक्त उन्होंने नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री कामरेड माधव कुमार नेपाल, उप प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री सुजाता कोइराला, रक्षा मंत्री विद्या देवी भंडारी, पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं सीपीएन-यू.एम.एल के शीर्षस्थ नेता के.पी.एस.ओली के अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकारों, अधिवक्ताओं, उद्यमियों तथा समाज के विभिन्न तबकों के लोगों से भेंट की और विचारों का आदान प्रदान किया। प्रस्तुत लेख इसी अंतर्संवाद पर आधारित है।



- संपादक





लोकतांत्रिक नव निर्माण की राह पर है नेपाल



नेपाल अपने अब तक के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है। कुछ ही वर्ष पहले निरंकुश राजशाही के चंगुल से मुक्त हुये इस देश की जनता के समक्ष चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। चुनौती शांति स्थापित करने की है। चुनौती नेपाल को तरक्की और समता के रास्ते पर ले जाने वाले संविधान के निर्माण की है। चुनौती नेपाल के विकास और आत्मनिर्भरता की है। और बड़ी चुनौती है प्रधानमंत्री के चुनाव में पैदा हुये गतिरोध को तोड़ कर नये प्रधानमंत्री के चुनाव की।



लोकतंत्र की गहरी नींव पड़ चुकी है



गत वर्षों में नेपाल की जनता और वहां के राजनैतिक दलों ने अपने लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास व्यक्त किया है। इसकी जड़ में 23 नवंबर 2005 को सात संसदीय पार्टियों एवं माओवादियों के बीच हुआ समझौता है। 12 सूत्रीय यह समझौता नेपाल के लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसमें गैर हथियारी लोकतांत्रिक संघर्ष का संकल्प विहित है। यह जनता की सार्वभौमिकता एवं लोकतंत्र के लिये संघर्ष के संकल्प का वैध घोषणा पत्र है। इसी समझौते के परिणामस्वरूप अप्रैल 2006 में लाखों लोग सड़कों पर उतर आये और राजा को जी.पी. कोइराला को सत्ता सौंपनी पड़ी। नेपाल सदियों पुरानी राजशाही को अपदस्थ करने में कामयाब हुआ। 1 मई 10 को इस समझौते के विपरीत माओवादियों ने ‘सड़क विद्रोह’ की राह पकड़ी तो जनता ने विफल कर दिया।



यद्यपि 600 सदस्यीय संविधान सभा में आम जनता ने बहुदलीय लोकतंत्र के प्रति स्पष्ट जनादेश दिया लेकिन किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हुआ। संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी (यूसीपीएन-एम) को सबसे ज्यादा 238 सीटें मिलीं। नेपाली कांगेेस को 114 सीटें हासिल हुई। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-संयुक्त मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन-यू एमएल) को 109 सीटें, 82 सीटें मधेसी पार्टियों को तथा शेष कुछ अन्य दलों के खाते में र्गइं।



नेपाल के अंतरिम संविधान के अनुसार सरकार बनाने को आधे से अधिक बहुमत की जरूरत होती है। यानी कि 301 सदस्यों के बहुमत से ही प्रधानमंत्री चुना जा सकता है।



सरकार चुनने में खड़ा हुआ गतिरोध



संविधान सभा के चुनाव के बाद यू.सी.पी.एन-माओवादी पार्टी ने सत्ता संभाली और उसके नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमंत्री बने। लेकिन हथियार बन्द माओवादियों को नेपाली सेना में शामिल करने के सवाल पर सेना प्रमुख को हटाने के उनके फैसले पर उत्पन्न हुये गतिरोध के कारण उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी। तब नेपाली कांग्रेस, सी.पी.एन.-यू.एम.एल. एवं अन्य दलों के लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी जिसके प्रधानमंत्री सीपीएन-यू.एम.एल. के नेता माधव कुमार नेपाल बने। किसी कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री के नेतृत्व में वह भी एक केयर टेकर सरकार 17 माह से चल रही है और अभी तक नये प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं हो पाया है तो उसकी वजह है प्रमुख राजनैतिक दलों का आम सहमति अथवा बहुमत की स्थिति में न पहुंच पाना।



इस दरम्यान प्रधानमंत्री पद के लिये आठ बार निर्वाचन हो चुका है। आठवीं बार के चुनाव से पहले जो अभी 26 सितम्बर को ही संपन्न हुआ है, यू.सी.पी.एन.-एम. के नेता प्रचण्ड ने अपने को चुनाव से अलग कर लिया था और नेपाल कांग्रेस का भी आह्वान किया था कि वह भी अपने प्रत्याशी रामचन्द्र पौडल को चुनाव मैदान से हटा ले ताकि आम सहमति से नये प्रधानमंत्री के चुनाव का रास्ता साफ हो। सी.पी.एन.-यू.एम.एल ने चुनावों में तटस्थ रहने का निर्णय पहले ही ले रखा है अतएव आठवीं बार के चुनाव में भी नेपाली कांग्रेस के प्रत्याशी को बहुमत नहीं मिल सका। राजनैतिक दलों की ध्रुव प्रतिज्ञाओं के चलते प्रधानमंत्री पद के चुनाव का गतिरोध आज भी कायम है। बेशक नेपाली जनमानस इससे बेहद चिन्तित है और नेताओं की हठवादिताओं के प्रति जनाक्रोश स्पष्ट देखा जा सका है।



समाधान की राह आसान नहीं



लेकिन गतिरोध को समाप्त करने के लिये कई समाधान हवा में उछल रहे हैं। सबसे प्रमुख है - आम सहमति से प्रधानमंत्री चुनने के रास्ते खोजे जायें और जरूरी हो तो संविधान में संशोधन किया जाये। दूसरा - सीपीएन यू.एम.एल. और यू.सी.पी.एन. (माओवादी) मिलकर इसके लिये सहमति बना लें। तीसरा - यू.सी.पी.एन.-एम., मधेसी तथा अन्य दलों साथ लेकर 301 सदस्यों का बहुमत जुटा ले। बाद के दोनों समाधानों में माओवादी पहले ही असफल हो चुके हैं।



शांति प्रक्रिया जारी है



माओवादियों को नेपाली कांग्रेस और सी.पी.एन.-यू.एम.एल. तथा अन्य दलों द्वारा समर्थन न देने के पीछे माओवादियों द्वारा हथियार बंद संघर्ष की नीति का परित्याग न करना है जो शंाति प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। लगभग 20 हजार माओवादी लड़ाके जनमुक्ति सेना (पी.एल.ए.) और यंग कम्युनिस्ट लीग (वाई.सी.एल) नामक संगठनों के अंतर्गत काम कर रहे हैं और वे हथियार बंद हैं। वर्तमान में ये दोनों दस्ते संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति मिशन की देख रेख में बैरकों में रह रहे हैं मगर ये जब तक अपनी पुलिसिया कार-गुजारियों का प्रदर्शन करते रहते हैं। सरकार की ओर से उन्हें मासिक दस हजार नेपाली रुपए बतौर वेतन दिये जा रहे हैं। माओवादी इन्हें सेना में शामिल कराने का असफल प्रयास करते रहे हैं और आज भी दबाव बना रहे हैं। अन्य दल इसका विरोध करते आ रहे हैं और इन दलों के अनुसार शांति प्रक्रिया में यह सबसे बड़ी बाधा है।



अब हाल ही में केयर टेकर सरकार और माओवादियों के बीच पी.एल.ए. और वाई.सी.एल. के लड़ाकों के पुनर्वास के लिये एक चार सूत्रीय समझौता हुआ है जिसके तहत 14 जनवरी 2011 तक पीएलए माओवादियों के नियंत्रण से अलग हो जायेगी और 19602 माओवादी लड़ाके यू.सी.पी.एन.-एम की कमांड से बाहर आ जायेंगे। समझौते के तहत पीएलए. के निरीक्षण, कमांड, नियंत्रण और बनी आचार संहिता को लागू कराने के लिये छह दलों (जिसमें माओवादी शामिल हैं) की एक विशेष समिति गठित की गई है जिसने एक 12 सदस्यीय सैक्रेटरियेट का गठन किया है। इस विशेष समिति द्वारा जारी निर्देशों के तहत पी.एल.ए. लड़ाके सरकार के नियंत्रण में आ गये हैं। इस समस्या के समाधान से शांति प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।



बहुदलीय, धर्मनिरपेक्ष संविधान की ओर



बार-बार प्रधानमंत्री का चुनाव टलना और शांति प्रक्रिया में हो रहे विलंब के कारण संविधान निर्माण के काम में बाधा आ रही है और वह विलंबित हो रहा है। संविधान को 28 मई 2010 तक बन जाना चाहिये था। लेकिन अब यह समय सीमा बढ़ाकर मई 2011 कर दी गई है। विभिन्न दल इसके निर्माण में अवरोधों को लेकर भले ही एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हों लेकिन संविधान के मूल ढांचे और उद्देश्यों को लेकर एक व्यापक आम सहमति है। यह सहमति बहुदलीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समतामूलक समाज और सामाजिक न्याय के पक्ष में है। दशकों तक एक हिन्दू राजा के शासन में रहे नेपाल में धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाने का पक्ष इतना प्रबल है कि वहां नेपाली कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने पहुंचे भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष को प्रेस वार्ता में कहना पड़ा कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष संविधान के निर्माण पर कोई एतराज नहीं है।



रोड़े भी हैं राह में



प्रधानमंत्री के चुनाव में लगातार चल रहे गतिरोध, शांति प्रक्रिया की धीमी गति और संविधान के निर्माण में हो रही देरी से जनता में पैदा हो रहे आक्रोश को भुनाने के प्रयास भी शुरू हो गये हैं। राजावादी शक्तियां आपस में एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं। राजावादी चार पूर्व प्रधानमंत्री, हिन्दू राष्ट्र एवं संवैधानिक राजतंत्र के गुणगान में लगे हैं। धर्मनिरपेक्ष एवं कम्युनिस्ट पार्टियों की ताकत से खींझा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी वहां गतिविधियां बढ़ा रहा है। माओवादी यद्यपि शंाति, नये संविधान एवं राष्ट्रीय संप्रभुता की बात कर रहे हैं लेकिन यह भी चेतावनी दे रहे हैं कि यदि ये लक्ष्य कानूनी तरीके से हासिल नहीं होंगे तो राष्ट्रयुद्ध होगा। आपसी फूट के चलते मधेसी पार्टियां भी संविधान निर्माण के लिये दबाव नहीं बना पा रही हैं। नेपाल की जनता वैधता, प्रासंगिकता एवं सकारात्मक परिणाम चाहती है। शांति ही लोगों के सम्मान की गारंटी करेगी और संविधान उनकी आकांक्षाओं की पूति करेगा।



रिश्ते गहरे हैं भारत-नेपाल के बीच



भारत और नेपाल के बीच गहरे भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनयिक एवं आर्थिक रिश्ते हैं। यहां तक कि आज भी दोनों के बीच आवागमन के लिये पासपोर्ट एवं वीजा आवश्यक नहीं है। दोनों देशों में लगभग 3565 करोड़ रुपये का भारत-नेपाल आर्थिक सहयोग कार्यक्रम चल रहा है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में कार्यरत हैं। इसे और व्यापक बनाने की जरूरत है। वहां हाइड्रोपावर उत्पादन के क्षेत्र में सहयेाग का भारी स्केाप है। प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा को भी दोनों देश मिल कर काम कर सकते हैं। राजशाही नेपाली जनता को बरगलाने को भारत विरोधी दुष्प्रचार करती थी। आज भी कुछ अतिवादी ताकतें इसका सहारा लेती हैं। परन्तु नेपाली जनमानस भारतीय जनमानस के साथ प्रगाढ़ रिश्तों का हामी है। यहां तक कि हर नेपाली हिन्दी समझता है, पढ़ एवं बोल सकता है। भारत के टीवी चैनल घर-घर में देखे जाते हैं। परस्पर सहयोग और मैत्री की इस दास्तान को और आगे बढ़ाने की जरूरत है।



नौजवानों के सशक्तिकरण की जरूरत



नेपाल का नौजवान नये और समृद्ध नेपाल के लिये तत्पर है। वह रोजगार और शिक्षा जैसे सवालों पर काफी गंभीर है। नेपाली कांग्रेस के 12वें कन्वेंशन के समय आयोजित खुले अधिवेशन में नौजवानों का सागर उमड़ पड़ा था। 50 हजार से ऊपर उपस्थित जन समुदाय में 99 प्रतिशत उपस्थिति 18 से 40 साल के बीच उम्र के युवकों की थी। कन्वेंशन के लिये चुनकर आये 3100 प्रतिनिधियों में 38 प्रतिशत डेलीगेट नवयुवक थे। “नौजवान सकारात्मक बदलाव के वाहक हैं, इसलिये उन्हें ताकत दी जानी चाहिये” - एक नौजवान ने कहा। दूसरे ने कहा-“नेपाल को ब्रेन-ड्रेन से बचाने की नीति बनानी चाहिये। खाड़ी देशों और भारत तमाम नौजवान छोटे कामों के लिये जाते हैं। देश में ही रोजगार की योजना बनानी चाहिये।”



लंबे समय तक राजशाही और पंचायती सिस्टम के विरूद्ध जनांदोलनों के जरिये नेपाल की जनता ने आज यह मुकाम हासिल किया है। नेपाल के नेताओं और राजनैतिक पार्टियों को जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतराना होगा और अपने तात्कालिक निहित स्वार्थों से उबरना होगा। जनता के हितों के विपरीत चलने वालों को भविष्य में वही स्थान होगा जो पूर्ववर्ती राजाओं का बन चुका है। अतएव भविष्य की सच्चाइयों को पढ़ने और अमल में लाने में ही सभी की भलाई है।



- डा. गिरीश



भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद