Wednesday, May 30, 2012

पेट्रोल मूल्य वृद्धि को तत्काल वापस ले केन्द्र सरकार - भाकपा ने सड़कों पर उतर भारी विरोध जताया

लखनऊ 31 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आज पेट्रोल की कीमतों में हुई भारी वृद्धि एवं महंगाई के खिलाफ वाम दलों के राष्ट्रीय प्रतिरोध दिवस को सफल बनाने हेतु पूरे उत्तर प्रदेश में सड़कों पर उतर कर प्रतिरोध दर्ज कराया।
भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार आज समूचे प्रदेश में भाकपा और उसके सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने जुलूस, साईकिल मार्च, सभायें और नुक्कड़ सभायें आयोजित कर पेट्रोल की कीमतों में हाल में हुई भारी बढ़ोत्तरी को पूरी तरह वापस लेने और महंगाई पर कारगर अंकुश लगाने की मांग की।
आज के प्रतिरोध दिवस/भारत बंद को पूरी तरह सफल बताते हुए भाकपा राज्य सचिव ने भाकपा के तमाम कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों, अन्य दलों के कार्यकर्ताओं, कर्मचारी, मजदूर एवं व्यापारिक संगठनों तथा आम जनता को हार्दिक बधाई दी।
भाकपा ने केन्द्र सरकार को चेतावनी दी कि वह अविलम्ब पेट्रोल की बढ़ी कीमतों को पूरी तरह वापस ले और जनता को महंगाई से निजात दिलाने को ठोस कदम उठाये, वरना जनता का यह आक्रोश अब थमने वाला नहीं।
भाकपा ने उत्तर प्रदेश सरकार से भी मांग की है कि वह पेट्रोलियम पदार्थों पर से राज्य के कर (वैट) कम करके प्रदेश की जनता को तात्कालिक राहत पहुंचाये।
भाकपा ने स्पष्ट किया कि उसका यह आन्दोलन लगातार जारी रहेगा और केन्द्र सरकार को जनता के सवालों पर लगातार घेरा जायेगा।

कार्यालय सचिव

धरने-प्रदर्शनों के माध्यम से भाकपा ने केन्द्र एवं राज्य सरकारों को किया आगाह

लखनऊ 30 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कौंसिल द्वारा लिये गये निर्णयानुसार आज पार्टी की जिला कमेटियों ने समूचे उत्तर प्रदेश में पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि, महंगाई, भ्रष्टाचार, गेहूं खरीद केन्द्रों पर किसानों की लूट, कानून-व्यवस्था की बदतर हालत और प्रदेश के बेरोजगारों के साथ छलावा जैसे सवालों पर व्यापक धरने-प्रदर्शनों का आयोजन किया। भाकपा के राज्य मुख्यालय से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया है कि इन धरना और प्रदर्शनों में सैकड़ों की तादाद में लोग जिला केन्द्रों पर इकट्ठे हुए और आम सभा कर प्रदेश के राज्यपाल को सम्बोधित ज्ञापन जिलाधिकारियों को सौंपा।
उपर्युक्त जानकारी देते हुए भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने बताया कि इन ज्ञापनों में प्रमुख रूप से जिन मांगों को उठाया गया है वे हैं - हाल ही में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में की गयी भारी बढ़ोतरी को अविलम्ब वापस लिया जाये तथा राज्य सरकार भी इस पर लगे वैट में कमी कर राज्य की जनता को राहत प्रदान करे। साथ ही महंगाई एवं भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की मांग भी ज्ञापन में की गयी है।
इसके अलावा जिन अन्य प्रमुख मुद्दों को भाकपा प्रदर्शनकारियों ने ज्ञापन में उठाया है, वे हैं:
किसानों से गेहूं सरकारी रेट पर बिना रोक-टोक के बिना विलम्ब किये खरीदा जाये, खरीद का भुगतान तत्काल किया जाये और आढ़तियों द्वारा गेहूं खरीद कराने का फैसला बदला जाये ताकि किसानों की ठगी रोकी जा सके।
युवा बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कराया जाये, सरकारी, अर्द्धसरकारी, सहकारी तथा शिक्षा विभागों में रिक्त पड़े पदों को तत्काल भरा जाये। 20 वर्ष से ऊपर समस्त बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिया जाये।
इन दिनों दलितों, पीड़ितों, महिलाओं तथा आम जनों पर हो रहे आक्रमणों को रोके जाने और कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने की भी मांग की गयी है। साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाने, लोकायुक्त द्वारा पूर्व मंत्रियों के खिलाफ सीबीआई तथा प्रवर्तन निदेशालय के तहत जांच कराने की अनुशंसा को बिना विलम्ब के लागू किये जाने, लोकायुक्त संस्था को व्यापक तथा मजबूत बनाये जाने, 21 चीनी मिलों की बिक्री को रद्द कर बिक्री में हुये घोटालों की जांच सीबीआई से कराने की मांग भी की गयी है।
उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार, उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार की समाप्ति तथा प्रदेश के चारों भागों में चार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) खोले जाने की मांग उठाई गयी है। साथ ही गरीबों के उत्थान को तमाम योजनायें बनाने और उन्हें न्यायपूर्ण तरीके से लागू किये जाने, समस्त गरीबों की शिक्षित बेटियों को रू. 30,000.00 की अनुग्रह राशि दिये जाने तथा गरीबों के श्मशानों की चहारदीवारी कराने को भी आवाज उठाई गयी है।
आन्दोलन के दौरान किसानों को पर्याप्त बिजली आपूर्ति देने, बिजली वितरण के निजीकरण पर रोक लगाने तथा आगरा की बिजली वितरण व्यवस्था को पुनः पश्मिांचल विद्युत वितरण निगम को दिये जाने की मांग उठाई गई है। साथ ही खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश रोके जाने का आग्रह राज्य सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार से किया गया है। ज्ञापन में बैंकिंग, बीमा, पेंशन क्षेत्र में तथाकथित सुधारों के प्रयासों को रोकने की भी मांग की गयी है।
भाकपा राज्य मुख्यालय को प्राप्त सूचनाओं के अनुसार आज जिन जिलों में यह धरना और प्रदर्शन आयोजित किया गया, वे हैं - गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़, बलिया, गोरखपुर, देवरिया, संतकबीरनगर, वाराणसी, इलाहाबाद, फतेहपुर, जौनपुर, प्रतापगढ़, मिर्जापुर, कुशीनगर, गोण्डा, बलरामपुर, सुल्तानपुर, फैजाबाद, बाराबंकी, रायबरेली, लखनऊ, सीतापुर, पीलीभीत, शाहजहांपुर, कानपुर शहर, रमाबाईनगर, जालौन, झांसी, बांदा, ललितपुर, औरैय्या, बरेली, मुरादाबाद, बदायूं, ज्योतिर्बाफूलेनगर, मेरठ, सहारनपुर, गाजियाबाद, बुलन्दशहर, अलीगढ़, महामायानगर, आगरा, मथुरा, मैनपुरी, बागपत आदि।
भाकपा राज्य सचिव ने यह भी बताया है कि कल दिनांक 31 मई को वामपंथी दलों की ओर से पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन में भाकपा बढ़-चढ़ कर भाग लेगी। विरोध प्रदर्शनों की सारी तैयारियां भाकपा ने जिलों-जिलों में पूरी कर ली हैं।


कार्यालय सचिव

Sunday, May 27, 2012

भाकपा राज्य कौंसिल बैठक - 13-14 मई 2012 - उत्तर प्रदेश के राजनैतिक हालात पर रिपोर्ट

भूमंडलीकरण के इस दौर में केन्द्र एवं राज्यों में सत्तारूढ़ पूंजीवादी राजनैतिक दल आर्थिक नवउदारवाद की राह पर चल रहे हैं। इससे जनता का संकट बढ़ रहा है। यही वजह है कि जिन दलों को जनता चुन कर सत्ता सौंपती है, वे जल्दी ही उसकी नजरों में गिरने लगते हैं।
वर्ष 2007 के विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी को सत्ता से हटा कर बसपा को पूर्ण बहुमत सौंपा था। लेकिन बसपा सरकार ने भी अपनी पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों को ही और तीखे ढंग से लागू किया और उससे भी जनता का मोहभंग हो गया। परिणामस्वरूप गत विधान सभा चुनावों में बसपा को सत्ता से हटा कर सपा को संपूर्ण बहुमत के साथ जनता ने सत्ता सौंप दी। इस सत्ता परिवर्तन की व्यापक समीक्षा ‘चुनाव समीक्षा’ सम्बंधी रिपोर्ट में की जा चुकी है।
यद्यपि चुनाव परिणाम 6 मार्च 2012 को ही आ चुके थे लेकिन गृह-नक्षत्रों की अनुकूलता का ध्यान रखते हुये 15 मार्च को शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया। उत्साहित सपा नेतृत्व ने इसे ‘पॉप एंड शो’ के साथ आयोजित किया। भारी पैमाने पर जुटी भीड़ ने शपथ ग्रहण समारोह की सारी मर्यादायें तोड़ दीं। यहां तक कि समारोह के मंच पर चढ़ कर भारी हंगामा काटा। यह सत्ता मद में चूर सपा कार्यकर्ताओं की प्रदेश की जनता को पहली सलामी थी।
यद्यपि मात्र डेढ़ माह का समय किसी सरकार के कामकाज के मूल्यांकन के लिये काफी नहीं है पर कहावत है कि ‘पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं’। सो इस डेढ़ माह के बीच मौजूदा सरकार के काम-काज को उदारतापूर्वक ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ अंक ही प्रदान किये जा सकते हैं।
युवा मुख्यमंत्री काफी उत्साहित हैं; कुछ कर गुजरने की ललक भी उनमें है। हो भी क्यों नहीं देश के सबसे बड़े सूबे का मात्र 39 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बनने का उन्हें अवसर प्राप्त हुआ है और वह भी सम्पूर्ण बहुमत के साथ। बेहद अनुभवी पिता, चाचा तथा अन्य वरिष्ठ नेताओं का संरक्षण और मार्गदर्शन उन्हें हासिल है वह अलग। लेकिन यह भी सच है कि वे पूंजीवादी पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, जिसकी अपनी राजनैतिक तहजीब है और राजनैतिक निहित स्वार्थ हैं। अतएव यह सरकार भी उसी राह पर चल पड़ी है जिस पर 2007 से पूर्व की सपा सरकार चल रही थी।
कानून-व्यवस्था का मुद्दा इस दरम्यान सबसे पेचीदा मुद्दा बन कर उभरा है। चुनाव नतीजे आते ही बदले की भावना से कारगुजारियां शुरू हो गईं। दलितों और अन्य कमजोरों को खास तौर पर निशाना बनाया गया है। हत्या, लूट, उनकी सम्पत्तियों की आगजनी, उनको आबंटित प्लाटों से बेदखल करना, उनको दलित कोटे के तहत दी गई राशन की दुकानों को निरस्त कराना या अटैच कराना आदि वारदातें आम हो गई हैं। अन्य अपराधों की आई बाढ़ के परिणामस्वरूप मुख्यमंत्री को 18 मई को प्रदेश भर के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की लखनऊ में बैठक तलब करनी पड़ी है। देखना है कि उसका क्या परिणाम निकलता है। आम धारणा है कि सपा की सरकार बनते ही अपराधी, माफिया और दबंग शरारती तत्व बेखौफ हो जाते हैं और आम जन-जीवन पर ही नहीं शासन और प्रशासन पर भी भारी पड़ते हैं।
इस बीच स्वच्छ प्रशासन देने की गरज से बड़ी संख्या में आईएएस, पीसीएस, आईपीएस तथा पीपीएस अधिकारियों के तबादले किये जा चुके हैं। तबादलों का यह क्रम अब भी जारी है और जून अंत तक जारी रहने की संभावना है। लेकिन अभी भी लाभ के तमाम स्थानों पर बसपा सरकार के अफसर जमे बैठे हैं और मंत्रीगण तक इस पर खुला विरोध जताते रहे हैं। पूर्व सरकार में मजे लूटने वाले तमाम अफसरों को पहले कम महत्वपूर्ण जगहों पर भेजा गया और फिर चन्द दिनों के भीतर ही उनको अच्छे पदों पर पुनः बैठा दिया गया। अन्य विभागों में भी तबादलें की मारामारी मची है तथा निहित स्वार्थों के चलते मंत्रियों और संबंधित विभाग के प्रमुख सचिव के बीच रस्साकशी चल रही है। नीचे से ऊपर तक प्रशासन में कोई सुधार दिखाई नहीं देता। इसके पीछे जरूर ही कोई कारण है।
सपा के घोषणापत्र में तथा चुनाव अभियान के दौरान किसानों से तमाम लुभावने वायदे किये गये थे। लेकिन किसानों के सम्बंध में पहले इम्तिहान में सपा सरकार अनुत्तीर्ण हो गई। इस बार प्रदेश के किसानों ने गेहूं की बम्पर फसल पैदा की है और न्यूनतम निर्धारित मूल्य भी 1285 रूपये प्रति क्विंटल है। सरकार ने गेहूं खरीद की पर्याप्त व्यवस्थाओं की घोषणायें की थी लेकिन साथ-ही-साथ व्यापारियों के माध्यम से भी खरीद कराने का निर्णय भी ले डाला। सरकार के तमाम दावों और वायदों के बावजूद तमाम सरकारी खरीद केन्द्रों पर ताले लटके हैं। यदि खरीद केन्द्र खुल भी गया है तो उस पर बोरे नहीं हैं। यों तो बोरों की कमी राष्ट्रीय स्तर पर है परन्तु उत्तर प्रदेश में सरकारी मशीनरी ने तमाम बोरे निजी व्यापारियों को सौंप दिये हैं। निजी व्यापारी किसानों से 1100 रूपये से लेकर 1150 रूपये के बीच प्रति क्विंटल गेहूं खरीद रहे हैं और 1285 रूपये क्विंटल में सरकार को दे रहे हैं। बीच के धन का बंदरबांट व्यापारी और अफसरों के बीच हो रहा है। जो किसान खरीद केन्द्रों पर गेहूं लेकर पहुंचे उनका गेहूं तौल तो लिया गया लेकिन बोरों की अनुपलब्धता बताकर खुले में डाल दिया गया। किसान दिन रात उसकी चौकीदारी कर रहे हैं। उन्हें भुगतान भी नहीं किया जा रहा। सपा के तमाम कार्यकर्ताओं पर से मुकदमें हटाये जा रहे हैं पर पूर्ववर्ती सरकार के शासनकाल में जमीन बचाने के लिये आन्दोलन करने वाले तमाम किसानों पर से अभी मुकदमें वापस नहीं लिये गये। यहां तक कि भट्टा-पारसौल के किसान अभी तक जेल में बन्द हैं। अब मुख्यमंत्री ने उनकी रिहाई का वायदा किया है। खेती के लिये 18 घंटे बिजली देने का वायदा भी पूरा नहीं हो पा रहा। खराब पड़े नलकूपों की मरम्मत और नहर-बंबों की सफाई का काम भी अभी तक प्रारम्भ नहीं हुआ। 6 किसान तथा बुनकर इस बीच आत्महत्यायें कर चुके हैं।
हम और हमारे छात्र-युवा संगठन ‘समस्त बेरोजगारों को रोजगार या बेरोजगारी भत्ता दिलाने’ को आन्दोलन करते रहे हैं। सपा ने भी अपने घोषणापत्र में भत्ता देने का वायदा किया था। लेकिन अब इस वायदे को काट-छांट कर सीमित किया जा रहा है। पहले 35 वर्ष के ऊपर की उम्र वालों को भत्ता देने की बात कही तो इसका विरोध हुआ। अब तीस वर्ष तक के उन बेरोजगारों को भत्ता देने की बात की जा रही है जिनके नाम 15 मार्च 2012 तक रोजगार कार्यालय में दर्ज हो चुके थे। अन्य कई प्राविधानों के जरिये कम से कम बेरोजगारों को भत्ता देने की रणनीति पर सरकार चल रही है। यही हाल छात्रों को लैपटाप और टैबलेट देने के मामले में चल रहा है। सरकारी विभागों में हजारों स्थान रिक्त हैं जिन्हें भरे जाने को कदम उठाने चाहिये।
इस बीच प्रदेश में तमाम नये-पुराने घोटालों की परतें उघड़ रहीं हैं। खाद्यान्न घोटाला, जिसको हमारी पार्टी ने उजागर किया था, की सीबीआई जांच चल रही है और तमाम अफसर-कर्मचारी जेल जा रहे हैं। एनआरएचएम घोटाले की जांच में भी मंत्री और अफसर जेल जा चुके हैं और अन्य अनेकों के जाने की संभावना है। सपा सरकार के पूर्व खाद्य एवं रसद मंत्री और वर्तमान सरकार के जेल मंत्री पर भी खाद्यान्न घोटाले में लिप्त होने के आरोपों के बावजूद उन्हें मंत्री पद से नवाजा गया है। कई अन्य मौजूदा मंत्री खाद्यान्न घोटाले की जद में आ रहे हैं। आयुर्वेद घोटाले में भी एक मंत्री के लिप्त होने की खबर सभी को है। पुलिस भर्ती घोटाले में तो मुख्य मंत्री के परिवार के तमाम लोगों पर ही घोटाले के आरोप लगे थे।
अब बसपा शासन में हुये तमाम घपले-घोटालों और भ्रष्टाचार के खुलासे हो रहे हैं। 21 चीनी मिलों की बिक्री में हो रही धांधली का हमने खुद अक्टूबर 2010 में खुलासा किया था। अब सीएजी रिपोर्ट से इस महाघोटाले की पुष्टि हो चुकी है। मीडिया से लेकर राजनैतिक हलकों में इस मसले पर तूफान खड़ा हो गया है। यहां तक कि मामला उच्च न्यायालय में पहुंच गया है।हमने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर इन चीनी मिलों की बिक्री निरस्त करने और घोटाले की सीबीआई जांच कराने की मांग की है लेकिन सरकार अभी तक कोरी बयानबाजी कर रही है। इसका एक खास कारण यह है कि ये सारी मिलें कई कंपनियों के नाम से उद्योगपति पोंटी चढ्ढा ने खरीदी हैं और पोंटी चढ्ढा सपा सुप्रीमो के खासमखास रहे हैं। बसपा के शासनकाल में वे बसपा सुप्रीमो के खासमखास हो गये थे। अब वे पुनः सपा सरकार के सबसे करीबी उद्योगपतियों में गिने जाते हैं। शराब का थोक और खुदरा कारोबार आज फिर से उन्हीं के हाथों पहुंच गया है। चीनी मिल बिक्री में धांधली पर त्वरित कार्यवाही में सरकार की ऊहापोह का यही कारण है।
सपा ने अपने घोषणापत्र और चुनाव अभियान के दरम्यान भ्रष्टाचार पर कारगर अंकुश लगाने और लोकायुक्त संस्था को मजबूत करने के तमाम वायदे किये थे और आज भी इसके मुख्यमंत्री एवं प्रमुख मंत्रीगण भ्रष्टाचारियों, यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री को दोषी पाये जाने पर जेल के सीखचों के पीछे पहुंचाने की बात कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में लोकायुक्त ने बसपा सरकार के पांच पूर्व मंत्रियों की आय से अधिक सम्पत्ति मामले की जांच की और उन्हें दोषी पाया। लोकायुक्त ने उनकी जांच सीबीआई तथा प्रवर्तन निदेशालय से कराने की अनुशंसा सरकार से की है। लेकिन उनकी इस अनुशंसा पर अभी तक निर्णय नहीं लिया गया है। पूर्व ऊर्जा मंत्री ने तो लोकायुक्त को ही सार्वजनिक तौर पर धमकी दे डाली और सरकार ने उनके खिलाफ कोई कानूनी कदम नहीं उठाया।
इसी तरह छात्रवृत्ति एवं शिक्षण शुल्क प्रतिपूर्ति घोटाला, नहरों के निर्माण का घोटाला, मनरेगा घोटाला, मिड डे मील, शौचालय निर्माण घोटाला, वाणसागर परियोजना घोटाला, सड़क और पुल निर्माण के घोटाले, नोएडा प्लाट आबंटन घोटाला और अब पूर्व मुख्यमंत्री के आवास की सजधज पर खर्च किये 86 करोड़ रूपये की बात उजागर हो चुकी है। अभी दर्जनों घोटाले हैं जिन्हें खोला जाना बाकी है। सरकार की सदाशयता की परीक्षा होने वाली है।
स्वास्थ्य सेवाओं को दुरूस्त करने को सरकार ने कई कदम उठाये हैं। लेकिन अभी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को और चुस्त-दुरूस्त तथा व्यापक बनाने की जरूरत है ताकि प्राईवेट स्वास्थ्य सेवाओं से मरीजों की लूट को बचाया जा सके और उन्हें बेहतर इलाज सुलभ कराया जा सके। इस बीच रायबरेली में एम्स खोले जाने की बहस ने काफी जोर पकड़ा और नई राज्य सरकार ने जमीन मुहैया कराने को कदम उठाये हैं। परन्तु भाकपा ने मांग की है कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य को चार एम्स और मिलने चाहिये। पूर्वांचल, बुन्देलखंड, मध्य तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। लगभग 20 करोड़ की आबादी वाले इस विशालकाय सूबे को चार एम्स मिलने की मांग सर्वथा न्यायोचित है।
नई सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिये कुछ घोषणायें की हैं, यह अच्छी बात है, लेकिन तमाम गरीबोंकी लड़कियों को भी आर्थिक सहायता तथा उनके श्मशानों की चहारदीवारी कराने का उचित निर्णय लेना ही होगा। गरीबों और असहायों के उत्थान के कार्यक्रमों में राजनीति नहीं हो तो बेहतर है।
धरनास्थल पुनः विधानसभा के समक्ष लाने के लिये सरकार साधुवाद की पात्र है। कालीदास मार्ग को आम जनता के लिये खोल देना भी उचित है। जनता दरबार की पुनर्वापसी की भी सराहना की जानी चाहिये। लेकिन इन दरबारों में उमड़ने वाली भीड़ जिनमें महिलाओं की तादाद भी अच्छी-खासी होती है, चौकाने वाली है। जिन समस्याओं से प्रदेशवासी जूझ रहे हैं और जनता दर्शन के माध्यम से जो खबरे बाहर आ रहीं हैं, वे काफी भयावह हैं। ये स्थितियां एक दो दिन में नहीं बनी हैं। गत कई सरकारों ने जनता के ज्वलंत सवालों पर घनघोर उदासीनता का रवैया अपनाया है। प्रशासनिक मशीनरी का जातिवादीकरण और राजनीतिकरण हो चुका है और प्रशासन में बैठे लोग बेहद संवेदनाहीन, स्वार्थी और भ्रष्ट हो चुके हैं। सरकार में परिवर्तन के साथ आस्था परिवर्तन भी हो जाता है। अतएव कार्य संस्कृति में कोई परिवर्तन नहीं होता। यदि स्थानीय तौर पर लोगों की समस्याओं का निदान हो जाता तो बेहद कष्ट और खर्च उठाकर निरीह जनता राजधानी का रूख शायद ही करती।
विगत सपा सरकार और गत बसपा सरकार की आर्थिक और औद्योगिक नीति समान थी जिसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र को बेचा जा रहा था और निजी क्षेत्र को पनपाया जा रहा था। इसके लिये पीपीपी मॉडल की ईजाद की गई थी। अब सरकार बड़े शहरों की बिजली आपूर्ति की व्यवस्था को निजी कंपनियों को सौंपने की तैयारी कर रही है। सड़कों और पुलों के निर्माण का काम भी पीपीपी मॉडल के तहत कराने का निर्णय लिया जा चुका है।
हम प्रदेश में उद्योग और कृषि के चौतरफा विकास के पक्षधर हैं। परन्तु हम मानते हैं कि प्रदेश का स्थाई विकास सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत ही हो सकता है। सरकार को औद्योगिक व कृषि विकास की योजनायें बनाते वक्त किसान, खेतिहर मजदूर, मजदूर और आम जनता के हितों को ध्यान में रखना चाहिये, चन्द उद्योगपति और औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने से समस्या का समाधान होने वाला नहीं है।
प्रदेश की राजनीति में हो रही इस उथल-पुथल के बीच सरकारी पक्ष की ओर से तमाम बयान आ रहे हैं कि सरकार को 6 माह का समय दिया जाये और सरकार के कामकाज की समीक्षा अथवा आलोचना न की जाये। हम भी ऐसा ही चाहते हैं। परन्तु स्थितियां हमें मौन तोड़ने को बाध्य कर रही हैं। अतः अपने को राम मनोहर लोहिया के अनुयायी कहने वालों को हम लोहिया जी के इस कथन की याद दिलाना चाहते हैं - ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं।’ अतएव जब किसान-कामगारों और आमजनों के तमाम सवालात उभर कर सतह पर आ गये हों तो परिस्थिति का तकाजा है कि हम जनता के सवालों पर जनता के बीच जायें।
  • किसानों से सरकारी रेट पर गेहूं तत्काल खरीदा जाये तथा उन्हें तत्काल पूरा भुगतान किया जाये। आढ़तियों के द्वारा खरीद पर रोक लगाई जाये।
  • युवा बेरोजगारों को रोजगार दिया जाये। सरकारी विभागों में रिक्त पड़े स्थानों पर तत्काल भर्ती शुरू की जाये। समस्त बेरोजगारों को रोजगार हासिल होने तक भत्ता दिया जाये।
  • कानून व्यवस्था को पटरी पर लाया जाये। दलितों, कमजोरों एवं महिलाओं पर की जा रही उत्पीड़नात्मक कारगुजारियों को रोका जाये।
  • भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाये जायें। लोकायुक्त द्वारा पूर्व मंत्रियों के खिलाफ सीबीआई तथा प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जांच कराने की अनुशंसा को बिना विलम्ब किये लागू किया जाये। लोकायुक्त संस्था को और व्यापक और मजबूत बनाया जाये।
  • चीनी मिलों की बिक्री को रद्द किया जाये। बिक्री में हुये घोटाले की सीबीआई से जांच कराई जाये।
  • प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जाये। प्रदेश में चार नये एम्स खोले जाने को राज्य और केन्द्र सरकार कार्यवाही करे।
  • गरीबों के उत्थान की भेदभावरहित योजनायें बनाई जायें तथा अमल में लाई जायें। समस्त गरीबों की शिक्षित लड़कियों को अनुग्रह राशि रू. 30,000/- दी जाये तथा गरीबों के श्मशानों को चहारदीवारी बनाकर सुरक्षित किया जाये।
  • बिजली वितरण के निजीकरण के किन्ही भी प्रयासों को बन्द किया जाये और आगरा की बिजली वितरण व्यवस्था को पुनः पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम को सौंपा जाये।
अन्य
  • जून माह में प्रस्तावित निकाय चुनावों में तैयारी के साथ अधिक से अधिक संख्या में भाग लिया जाये।
  • तीन दिवसीय धन एवं अनाज संग्रह अभियान प्रदेश भर में चलाया जाये।
  • जिलों में विस्तारित काउंसिल बैठकें आहूत कर राष्ट्रीय महाधिवेशन की रिपोर्टिंग और चुनाव समीक्षा का काम पूरा कर लिया जाये।
  • निकाय चुनाव के बाद जिलों-जिलों में पार्टी शिक्षा हेतु स्कूल लगाये जाये।
कृत कार्य
राज्य सम्मेलन के तत्काल बाद विधान सभा चुनावों की घोषणा हो गई और हम 51 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरे। इसके तत्काल बाद राष्ट्रीय महाधिवेशन में नेतृत्व की टीम एवं अन्य प्रतिनिधियों को जाना था।
इस बीच हमने जिला कमेटियों को निर्देश दिया था कि वे राज्य नेतृत्व को आमंत्रित कर उनकी उपस्थिति में जिला काउंसिल बैठक कर चुनाव समीक्षा करें। साथ ही राष्ट्रीय महाधिवेशन की रिपोर्टिंग करायें। अब तक राज्य नेतृत्व के पास जिन जिलों में बैठक होने की सूचना है - वे हैं बुलन्दशहर, मऊ, पडरौना, अलीगढ़, हाथरस, आगरा, मथुरा, फैजाबाद, कानपुर नगर और कानपुर देहात।

भाकपा राज्य कौंसिल बैठक 13-14 मई 2012 द्वारा पारित चुनाव समीक्षा (विधान सभा चुनाव 2012)

लम्बे अतंराल के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उत्तर प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या (51 सीटों पर) में विधान सभा का चुनाव लड़ा। 2007 के चुनाव में हम बहुत कोशिश के बाद 21 प्रत्याशी ही चुनाव मैदान में उतार पाये थे जबकि उस समय प्रगतिशील जनमोर्चा गठबंधन वजूद में था और हम उसके हिस्से के रूप में चुनाव लड़े थे। इससे पूर्व कई चुनावों में हम पूंजीवादी दलों के साथ तालमेल कर लड़ते रहे और इन तालमेलों के कारण घटते-घटते हम पांच सीटें लड़ने पर सिमट गये। अन्य तमाम कारणों के अतिरिक्त हमारे जनाधार के सिकुड़ने का एक कारण तालमेल के चलते अत्यंत कम सीटों पर चुनाव लड़ा जाना भी था। यह उल्लेख जरूरी है कि चन्द जिलों में ही चुनाव लड़ने के कारण अधिसंख्यक जिलों में पार्टी की सांगठनिक मशीनरी चुनाव लड़ने के लायक नहीं रह गयी जिसका प्रत्यक्ष अनुभव इन चुनावों में उतरने पर हम सबको हुआ। पार्टी को ठहराव की स्थिति से निकालने और इसको फिर पूर्व की स्थिति की ओर ले जाने के लिये जरूरी था कि हम समूचे प्रदेश में कुछ अधिक संख्या में चुनाव लड़ें। लोक सभा चुनावों में भी हमने यह प्रयास किया था और समय की मांग थी कि विधान सभा चुनावों में भी यह क्रम जारी रखा जाये।
51 सीटों पर चुनाव में उतरने की हिम्मत हम इसलिये भी जुटा सके कि गत वर्षों में पार्टी ने प्रदेश में एक के बाद एक अनगिनत आन्दोलन किये हैं। इस बीच पार्टी की तमाम सांगठनिक गतिविधियां बढ़ाईं गईं और पार्टी शिक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया। पार्टी का वाहन आदि साधन भी बढ़ाये। राज्य पार्टी कई अन्य सीटें भी लड़ना चाहती थी लेकिन पार्टी केन्द्र ने हमें इतनी ही सीटें लड़ने की अनुमति दी। ध्यान रहे कि हमारी पार्टी जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धांत पर चलती है।
चुनावों से पहले ही यह लगने लगा था कि शासक पार्टी बसपा अपनी घोर किसान-मजदूर एवं जनविरोधी नीतियों तथा भारी भ्रष्टाचार के चलते पराजय हासिल करेगी लेकिन किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिल सकेगा, इसका आभास शायद ही किसी को हो। लेकिन चुनाव नतीजे बेहद चौंकाने वाले थे और समाजवादी पार्टी स्पष्ट बहुमत (224 सीटें) पाकर सरकार बनाने में कामयाब रही। 80 सीटें पाकर बसपा दूसरे नम्बर पर, 47 सीटें पाकर भाजपा तीसरे स्थान पर तथा 28 सीटें पाकर कांग्रेस चौथे नम्बर पर रही। राष्ट्रीय लोकदल जो कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ा था, को 9 सीटें हासिल हुईं। शेष 15 सीटें छोटे दलों और निर्दलियों के खाते में गयीं।
सपा को स्पष्ट बहुमत मिलने का सबसे प्रमुख कारण रहा कि लोग बसपा से बेहद नाराज थे और उसको हर कीमत पर हराना चाहते थे। मुख्य विपक्षी दल सपा ही बसपा के सामने सबसे ताकतवर था, अतएव लोग सपा की तरफ झुकते चले गये। 2007 के विधान सभा चुनाव में भी यही हुआ था जब सपा को हराने के लिये मतदाताओं ने बसपा को पूर्ण बहुमत दे दिया था।
किसी दल को स्पष्ट जनादेश न मिलने की चर्चायें जोरों पर थीं। लोग चिंतित थे कि चुनाव नतीजे आने के बाद सरकार बनाने को भारी खींचतान और खरीद-फरोख्त होगी। आम मतदाता ऐसा नहीं चाहता था और उसने स्पष्ट बहुमत देकर खरीद-फरोख्त की संभावनाओं पर विराम लगा दिया और सपा को पूर्ण बहुमत दे दिया।
स्पष्ट बहुमत न मिलने की चर्चाओं के बीच एक संभावना यह भी जताई जा रही थी बसपा और भाजपा की मिली-जुली सरकार वजूद में आ सकती है। इससे मुस्लिम मतदाता बहुत बड़े पैमाने पर सपा की ओर लामबंद हो गये।
कांग्रेस द्वारा पिछड़ों के कोटे से ही अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की दोतरफा प्रतिक्रिया हुई। भाजपा ने इसके विरूद्ध साम्प्रदायिक विषवमन किया और इसका उसको थोड़ा लाभ भी मिला। लेकिन पिछड़ा वर्ग अपने कोटे में कटौती से नाराज होकर सपा की ओर लामबंद हो गया।
सपा, जोकि सरकार बनाने की प्रमुख दावेदार बनती जा रही थी, द्वारा अपने घोषणा पत्र और चुनावी आम सभाओं में किसानों, नौजवानों, छात्रों, अल्पसंख्यकों तथा अन्य वर्गों के लिये किये गये लुभावने वायदों तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की घोषणाओं के कारण इन तबकों ने व्यापक पैमाने पर सपा के पक्ष में मतदान किया।
यद्यपि सपा और बसपा भी आर्थिक नवउदारवाद के रास्ते पर ही चल रही हैं लेकिन कांग्रेस एवं भाजपा दोनों राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का खुला अनुसरण करने के चलते महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे सवालों पर जनता ने इन्हें तरजीह नहीं दी। चुनाव के दौरान कांग्रेस के कई मंत्रियों के ऊट-पटांग बयान तथा भाजपा द्वारा बसपा के एक भ्रष्टतम मंत्री को पार्टी में शामिल करने और जातिवादी समीकरण के तहत उमा भारती को उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ाने का सन्देश इनके विरोध में गया। इन दलों की संख्या यदि और बढ़ती तो सपा, बसपा की संख्या घटती, यह स्वाभाविक ही है।
निर्वाचन आयोग के प्रयासों के चलते मतदान प्रतिशत बढ़ा और मध्यम वर्ग और युवाओं ने बड़े पैमाने पर मतदान किया। बसपा के कुशासन के विरोध में और सपा से सुशासन पाने की उम्मीद में इन तबकों ने सपा के पक्ष में मतदान किया।
जिन नकारात्मक चीजों ने इस चुनाव में भूमिका अदा की, वे हैं -
  • उत्तर प्रदेश की राजनीति आज भी जातिगत जकड़बन्दी में फंसी हुई है। सपा का जाति आधार और बसपा का जाति आधार पूरी तरह इन दलों के पीछे लामबंद रहे। अन्य छोटी पार्टियों की मुख्य शक्ति भी उन दलों का जाति आधार ही था।
  • इन चुनावों में धनबल, बाहुबल और शराब का बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ। निर्वाचन आयोग की सख्ती और कड़े कानूनों के चलते चुनाव संसाधनों का खुले तौर पर अतिरेक प्रयोग संभव नहीं था। पूंजीवादी और माफिया प्रत्याशियों ने उस धन को नकदी के तौर पर तथा शराब बांटने में प्रयोग किया। खेद की बात है कि मतदान से 2-3 दिन पहले निर्वाचन आयोग भी इसकी अनदेखी करने लगता है।
  • प्रचार वाहनों की सीमित संख्या का कोई अर्थ नहीं रहा जबकि राजनैतिक दलों की रैलियों में बिना अनुमति के असंख्य वाहनों से पैसे के बल पर भीड़ जुटाई गई। अनेक वाहन बिना झंड़े बैनरों के प्रचार कार्य में लगे रहे।
  • सभी दलों के कई-कई नेता हेलीकाप्टरों से चुनाव प्रचार कर रहे थे। यह धन किस खाते से खर्च हो रहा था और कहां से आ रहा था, आज तक पता नहीं।
  • मीडिया की भूमिका बेहद नकारात्मक रही। पेड न्यूज की पाबंदियों की धज्जियां बिखेर बड़े अखबारों एवं खबरिया चैनलों ने पूंजीवादी दलों और माफिया नेताओं से बड़ी-बड़ी सौदेबाजियां कीं और उनकी खबरें दिन-रात प्रसारित कीं। यहां तक टीवी चैनलों पर इन दलों के नेताओं के लम्बे-लम्बे भाषणों का सीधा प्रसारण किया गया। स्थानीय स्तर पर भी प्रत्याशियों से नकद पैकेज लेकर खबरें बनाई और चलाई गईं।
  • वामपंथी दलों और भाकपा का चुनाव चिन्ह इस बार अखबारों के चुनावी पृष्ठों पर नहीं छापा गया जबकि हम प्रदेश के हर कोने में चुनाव लड़ रहे थे। हमने दो बार निर्वाचन आयोग से लिखित शिकायत की मगर कोई कार्यवाही सामने नहीं आई। मीडिया ने भाकपा और वामपंथ को पूरी तरह से दबाया।
इन्हीं कठिन परिस्थितियों के बीच भाकपा चुनाव मैदान में उतरी। हमने एक वर्ष पहले ही पूंजीवादी दलों से तालमेल न करने का निर्णय ले लिया था ताकि हमारी लड़ाई चन्द सीटों तक ही सीमित न रह जाये। बाद में माकपा भी हमारे साथ आ जुड़ी। फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी तो पहले ही साथ आ चुके थे। अंत में जनता दल (से.) भी हमारे साथ आ जुड़ा। माकपा ने परम्परागत अवसरवादी रूख अपनाते हुये उलेमा काउंसिल जैसे साम्प्रदायिक ग्रुप से भी घालमेल कर लिया जिसका संदेश अच्छा नहीं गया। हमने भाकपा (माले) से भी बातचीत की, लेकिन वे पहले तालमेल की घोषणा चाहते थे बाद में सीटों पर समझौता। पूर्व के अनुभवों से हम सावधान थे और हमारी शर्त यह थी कि पहले सीटों पर तालमेल कर लिया जाये और उसके बाद घोषणा की जाये। वे न केवल बातचीत से बचते रहे अपितु उन्होंने पूर्व की भांति इस बार भी तमाम जगहों पर हमारे सामने प्रत्याशी उतार दिये। भाकपा और माकपा यद्यपि किसी सीट पर आमने-सामने नहीं थीं पर हमारे सामने कई सीटों पर माकपा ने उलेमा काउंसिल आदि के प्रत्याशियों का समर्थन किया। कई अन्य जगहों पर भी उन्होंने हमारे प्रत्याशियों की मदद नहीं की। उनके इस अवसरवादी रूझान पर हम समय-समय पर आपत्ति दर्ज कराते रहे।
कई छोटे दलों से प्रारंभिक वार्ता की गई लेकिन वे बड़े पूंजीवादी दलों से तालमेल की फिराक में थे। नीति, सिद्धांत, कार्यक्रमों से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं था। हमारा कमजोर जनाधार भी उनकी उदासीतनता का एक कारण था।
पार्टी की छवि, प्रतिष्ठा एवं भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुये हमने अपराधी सरगनाओं अथवा माफियाओं द्वारा संचालित पार्टियों के साथ तालमेल की संभावनाओं को निर्ममता से ठुकराना उचित समझा।
हमें जो वोट मिले, वे संतोषजनक नहीं कहे जा सकते लेकिन जो राजनैतिक एवं सांगठनिक परिस्थितियां थीं, उनमें यही नतीजे संभव थे। कारण -
  • जीत के लिये एक ठोस जनाधार की जरूरत होती है। हम जातिवादी राजनीति से कोसों दूर हैं अतएव हमारा कोई जाति आधार तो है नहीं और हो भी नहीं सकता। फिलहाल हमारे पास वर्गीय आधार भी नहीं है। मौजूदा समय में मजदूर वर्ग, किसान, मध्यम वर्ग सभी जाति के खांचों में बंटे हैं और जातिवादी पार्टियों के पीछे लामबंद हैं।
  • आम चुनावों में लोग सरकार बनाने को वोट डालते हैं। सच्चाई, ईमानदारी और संघर्ष जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं। 51 सीटों पर भाकपा और लगभग कुल सौ सीटों पर लड़कर वामपंथ सरकार बनाने का न तो दावा कर सकता है और न उसको सत्ता की दौड़ में माना जा सकता है। अतएव स्वतंत्र वोट उसको मिल नहीं पाता। केवल पार्टी कार्यकर्ताओं और पक्के समर्थकों का वोट ही हमें मिला।
  • विगत 25 वर्षों में हम तालमेलों के चलते बहुत ही कम सीटों पर लड़े। इससे जनता के बीच हमारी पहचान खत्म हो गई। तमाम जगह लोगों ने कहा कि बहुत दिनों बाद आये हैं? अथवा क्या यह कोई नई पार्टी है? हमारे तमाम कार्यकर्ता और प्रत्याशी चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों को भी भूल चुके हैं।
  • जहां एक ओर बेतहाशा धन और शराब बांटी जा रही थी, वहीं हमारे पास पर्याप्त प्रचार सामग्री व अन्य साधन भी नहीं थे। गिनी-चुनी सीटों को छोड़ कर हमारे अधिकतर प्रत्याशियों ने 30 हजार से 1 लाख रूपये के बीच खर्च किया।
  • धनबल, जातिवाद, बाहुबल का मुकाबला मजबूत, सक्रिय और व्यापक आधार वाले संगठन से ही किया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र में चुनाव योग्य सांगठनिक मशीनरी हमारे पास नहीं थी। हर बूथ पर हमारा संगठन होना चाहिये लेकिन यह कुछ ही बूथों पर सिमटा था।
  • पार्टी की छवि जनता के बीच बेहद अच्छी है जिसे संगठन और साधनों के अभाव में हम भुना नहीं सके। हमारी पार्टी संसाधन भी संगठन के जरिये ही जुटा सकती है। संगठन कमजोर होने के कारण साधन भी सीमित थे। यहां तक कि हम अधिक जनसभायें भी नहीं कर पाये और यदि की भी तो उनमें अधिक लोग नहीं जुटा पाये।
  • जमीनी स्तर पर जन संगठनों का भी अभाव था। हमारी पार्टी सदस्यता का भी बड़ा भाग सक्रिय नहीं हो सका। पूंजीवादी दलों की तमाम विकृतियां इस बीच हमारे संगठन में प्रवेश कर गई हैं।
  • कई जगह स्थानीय पार्टी कमेटी एवं प्रत्याशियों के बीच तालमेल नहीं था। कहीं पार्टी प्रत्याशी के भरोसे पूरा चुनाव छोड़े बैठी रही तो कहीं प्रत्याशी अपने ढंग से चुनाव लड़ रहे थे और पार्टी को नजरंदाज कर रहे थे।
  • ऊपर से नीचे तक चुनाव से पूर्व आवश्यक चुनावी तैयारी नहीं की जा सकी थी। पहले राज्य पार्टी एआईएसएफ की प्लेटिनम जुबली समारोह में व्यस्त रही। उसके तत्काल बाद जिला सम्मेलन व राज्य सम्मेलन में जुटी रही। राज्य सम्मेलन के तत्काल बाद ही चुनाव की घोषणा हो गई और हमें तैयारी के लिये कोई मौका नहीं मिला। जिन 30 प्रत्याशियों की सूची राज्य सम्मेलन से पूर्व जारी कर दी गई थी, वे भी चुनावी तैयारी में नहीं जुटे। कईयों को तो ऐसा लग रहा था कि अंततः किसी से तालमेल हो जायेगा और उन्हें लड़ने का मौका नहीं मिलेगा। पूर्व के अनुभव कुछ ऐसे ही हैं। चुनावों से पूर्व यदि तैयारी हुई होती तो नतीजे थोड़े बेहतर होते।
हमारी पार्टी संसदीय लोकतंत्र के तहत लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेती है। चुनाव इस व्यवस्था के अनिवार्य अंग हैं। अतएव हमें चुनावों को भी इतना ही महत्व देना होगा जितना कि आन्दोलन, संगठन निर्माण तथा पार्टी की विचारधारा के फैलाव को। संघर्ष, संगठन निर्माण एवं विचारधारा के प्रसार के बिना चुनावों में सफलता पाना संभव नहीं है तो बिना चुनावों में भागीदारी के संघर्ष, संगठन और विचारधारा का प्रसार संभव नहीं है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अतएव हमें निम्न बातों पर फोकस करना होगा:
  • हमें पार्टी का एक वोट आधार निर्मित करना होगा। जाहिर है हम जातिवादी तौर तरीकों से यह काम नहीं कर सकते। हमारा वोट आधार ग्रामीण मजदूर, किसान, शहरी गरीब व निम्न मध्य वर्ग, दलितों एवं पिछड़ों के वे तबके जो अभावग्रस्त हैं, अल्पसंख्यकों के दस्तकार तबके, गरीबी की सीमा के नीचे रहने वाले लोग, बुद्धिजीवी, आम छात्र तथा नौजवान हो सकते हैं, हमें उनको अपने साथ जोड़ना होगा। सम्पन्न और विपन्न के बीच विभाजन रेखा खींच कर हमें विपन्नों को अपने साथ लामबंद करना होगा।
  • हमें इन सभी के बीच जन संगठन एवं पार्टी बनाकर उनके ज्वलंत सवालों पर अलग-अलग और संयुक्त आन्दोलन खड़े करने होंगे। साथ ही साथ उन्हें पार्टी के सिद्धांतों, कार्यक्रमों और उद्देश्यों से परिचित कराना होगा।
  • 6    हमें पंचायत, नगर निकाय, सहकारी समितियों, विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में लगातार भागीदारी करनी होगी ताकि आन्दोलनों के जरिये जुड़े लोग चुनाव में भी हमारे साथ जुड़े रहें। चुनाव इस ढंग से लड़े जायें कि एक चुनाव का फायदा दूसरे में मिले।
  • 6    चुनावों से पहले और चुनावों के दरम्यान हमें सभाओं, नुक्कड़ सभाओं, मुद्दों व विचारधारापरक पर्चों का ज्यादा इस्तेमाल करना होगा। जनसम्पर्क अथवा वैयक्तिक एप्रोच से पार्टी को ज्यादा लाभ नहीं मिलता।
  • 6    गत वर्षों में राज्य केन्द्र की ओर से एक के बाद एक आन्दोलनों के कार्यक्रम दिये जाते रहे और जिला कमेटियां उन पर अमल भी करती रहीं। लेकिन स्थानीय सवालों पर बहुत कम आन्दोलन हुये हैं। स्थानीय सवालों पर अधिक आन्दोलन छेड़े जायें और उन्हें निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया जाये।
  • भाकपा अपने ठोस जनाधार और पार्टी संगठन के बलबूते पर ही चुनावों में सफलता अर्जित कर सकती है। अतएव हमें बूथ स्तर पर पार्टी संगठन और जनसंगठनों का निर्माण करना होगा। इस तरह साथ जोड़े गये लोगों को पार्टी शिक्षा आदि के जरिये वैचारिक रूप से जोड़ना होगा। जन सम्बंधों को मजबूत बनाने के लिये सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आयोजनों में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी करनी होगी।
  • पार्टी को आर्थिक रूप से मजबूत करना होगा। इसके लिये नियमित रूप से फण्ड/अन्न संग्रह अभियान चलाते रहने होंगे।
  • भाकपा का लक्ष्य समाजवादी व्यवस्था का निर्माण है। हमें चुनावों को इस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन समझना चाहिये। अतएव पार्टी स्तर से चुनाव की तैयारी होनी चाहिये। प्रत्याशी के ऊपर चुनाव थोप देना घातक होगा। प्रत्याशी की हैसियत के मुताबिक उसका भी योगदान लेना चाहिये।
  • पार्टी संगठन के भीतर पनपी पूंजीवादी विजातीय विकृतियों से हमें निर्ममता से लड़ना होगा।
  • आसन्न निकाय चुनावों में हमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिये। लड़ी जाने वाली सीटों को जीतने का पूरा प्रयास करना चाहिये। चुनाव के दौरान पर्चों, पोस्टरों तथा सभाओं के जरिये पार्टी की राजनीति जनता के बीच ले जानी चाहिये। पार्टी तथा जन संगठनों के विस्तार को ध्यान में रखते हुये जनसम्पर्क बढ़ाना चाहिये।
  • आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारी अभी से की जानी चाहिये। सीटों को चिन्हित कर वहां आन्दोलन, जनसंघर्ष, पार्टी एवं जन संगठनों का बूथ स्तर तक निर्माण शुरू कर देना होगा।
हमको पूरा भरोसा है कि अपने जनाधारों को विस्तृत करने, विकृतियों को दूर करने और विभिन्न स्तरों के चुनावों में भागीदारी करने की अपनी सतत योजना से तथा समसामयिक राजनैतिक परिस्थितियों में कारगर दखल से हम विपरीत परिस्थितियों को जरूर ही बदल पायेंगे। दृढ़ विश्वास है कि विभिन्न निकायों में अपना प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर पायेंगे।
मंजिल मुश्किल हो सकती है पर असंभव नहीं है।

Saturday, May 26, 2012

आखिर बढ़ ही गये पेट्रोल के दाम

23 मई को आखिर केन्द्र सरकार ने जनता को झटका दे ही दिया। पेट्रोल की कीमतें लगभग आठ रूपये प्रति लीटर बढ़ा दी गयीं। कभी किसी सरकार ने जनता को इतना करारा झटका दिया हो, इसकी याद किसी बुजुर्ग को भी नहीं आ रही है। झटका इतना करारा था कि पेट्रोल पम्पों पर 23 मई को लगी वाहनों की लम्बी कतारों ने देश भर में जगह-जगह जाम की स्थिति पैदा कर दी। कार वाले सौ-दो सौ रूपये बचाने की जुगत में लाईन में लगे थे तो दो पहिया वाले पचास रूपये बचाने के लिए। पिछले कई सालों से रिकार्ड तोड़ महंगाई से जूझ रही जनता पर यह निष्ठुर प्रहार है, जिसे कार खरीदने की हैसियत रखने वालों ने भी महसूस किया। पेट्रोल पम्पों पर कारों की लम्बी कतारों से तो यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
बहाना वही पुराना - अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में बढ़ोतरी। झूठ बोलने की भी हद पार कर दी है मनमोहन सिंह ने। पेट्रोल की कीमतों पर से एक साल पहले नियंत्रण हटाते समय मनमोहन सिंह ने यही झूठ बोला था। बाद में उनके वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भ्रम फैलाने के लिए बोला कि भारत सिंगापुर क्रूड आयल इंडेक्स के आधार पर कीमतें तय करता है। क्या फर्क पड़ता है कि भारत किस क्रूड आयल इंडेक्स पर कीमते तय करता है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मूलतः ओपेक देशों द्वारा बाजार में की गयी आपूर्ति पर ही दाम तय होते हैं वे चाहे डब्लूटीआई इंडेक्स हो, ब्रेन्ट इंडेक्स हो या सिंगापुर क्रूड इंडेक्स। वास्तव में 23 मार्च को क्रूड आयल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गिर चुके थे। मसलन ब्रेन्ट आयल इंडेक्स दस दिनों में 122 से गिरकर 106 के करीब आ चुका था।
सरकार भाजपा नीत राजग की रही हो या राजग नीत संप्रग की, दोनों गठबंधन वाशिंग्टन से प्राप्त होने वाले निर्देशों को लागू करने के लिये लालयित रहते हैं। भारत सबसे अधिक कच्चा तेल ईरान से खरीदता था। अमरीका के दवाब में 1990 से ही भारत ईरान से तेल आयात कम करता जा रहा है। पाकिस्तान होते हुए ईरान-भारत गैस पाईप लाईन की परियोजना को तो ठंडे बस्ते में डाला जा चुका है। अमरीका के दवाब में 2005 और 2006 में आइएईए में ईरान के खिलाफ भारत ने मतदान किया। 22 अरब डॉलर का वह सौदा रद्द हो गया जो भारत के पक्ष में था। भारत को करोड़ों डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा। 2008 के बाद ईरान से तेल आयात 16.4 प्रतिशत से घटकर 10.9 प्रतिशत रह गया। हाल ही में भारत सरकार ने चालू वित्तीय वर्ष में ईरान से आयात होने वाले कच्चे तेल में 11 प्रतिशत और कमी की घोषणा कर दी। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ईरान के खिलाफ लगाये गये अमरीकी प्रतिबंधों के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारत को कच्चे तेल की अधिक कीमत अदा करनी पड़ रही है। इस पूर्णतया उत्तरदायित्व संप्रग की सरकार और राजग नाम के विपक्ष पर है।
इसके अतिरिक्त पिछले बीस सालों में भुगतान संतुलन (विदेशी मुद्रा के) के लिए कर्ज और विदेशी निवेश की जिन प्रतिगामी आर्थिक नीतियों को लागू किया जा रहा है, उसके कारण इन कीमतों की ज्यादा लागत हिन्दुस्तान को भुगतनी पड़ रही है। इन दो दशकों में डालर की कीमत लगभग 18 रूपये से बढ़ कर आज 56 रूपये पहुंच चुकी है। साफ है कि विदेशों से खरीद करते समय हमें तीन गुनी अधिक कीमत अदा करनी पड़ रही है। एक साल के अन्दर ही डॉलर 42 रूपये से बढ़कर 56 रूपये पहुंच गया। पिछले 11 महीनों में पेट्रोल की कीमतों में लगभग 30 रूपये का उछाल आया है। यानी पेट्रोल का दाम डेढ़ गुने से भी ज्यादा बढ़ गया है।
पेट्रोल की कीमतों में यह बढ़ोतरी वास्तव में ‘हिटिंग बिलो द बेल्ट’ है। जनता को असहनीय पीड़ा हो रही है। समय के साथ जनता इस तरह के दर्द को बर्दाश्त करने की आदत डाल लेती है जिसके कारण पूंजीवादी राजनीतिज्ञ निष्ठुर हो जाते हैं। जनता को इस दर्द को बर्दाश्त करने और भूलने की आदत समाप्त करनी होगी अन्यथा उसके साथ यही होता रहेगा। अभी डॉलर के मुकाबले रूपया इसलिए गिर रहा है क्योंकि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है, हमारी विकास दर ऊंची है। आने वाले वक्त में जब हमारी विकास दर कम होगी और अर्थव्यवस्था कमजोर होगी तब क्या होगा?
- प्रदीप तिवारी

Wednesday, May 23, 2012

मंदी..., मंदी .... और मंदी ....

जागरण में अंशुमान तिवारी ने एक लेख में लिखा है कि ”स्पेनी डुएंडे ने अमरीकी ब्लै कबियर्ड घोस्ट (दोनों मिथकीय प्रेत) से कहा ... अब करो दोहरी ड्यूटी। यह दुनिया वाले चार साल में एक मंदी खत्म नहीं कर सके और दूसरी आने वाली है।... यह प्रेत वार्ता जिस निवेशक के सपने में आई वह शेयर बाजार की बुरी दशा से ऊबकर हॉरर (डरावनी) फिल्में देखने लगा था। चौंक कर जागा तो सामने टीवी चीख रहा था कि 37 सालों में पहली बार ब्रिटेन में डबल डिप (विकास में लगातार गिरावट) हुआ है। स्पेन यूरोजोन की नई विपत्ति है। यूरोप की विकास दर और नीचे जा रही है। अमरीका में ग्रोथ गायब है।“
देखते-देखते चार साल बीत गए। सारी तकनीक, पूंजी और सूझ झोंक देने के बाद भी दुनिया एक मंदी से निकल नहीं सकी और दूसरी दस्तक दे रही है। 2008 में पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों में मंदी के कारण कार्ल मार्क्स की अमर कृति ‘पूंजी’ में इंटरेस्ट पैदा हो गया था। इन सबने ‘पूंजी’ को खूब पढ़ा। मार्क्स ने पूंजीवाद के संकटों में इस मंदी का न केवल जिक्र किया बल्कि उसके कारणों पर भी प्रकाश डाला है। लेकिन उन्होंने इन संकटों से निकलने का एकमात्र जो रास्ता बताया है, वह पूंजीवाद को रास कैसे आ सकता है। मार्क्स ने इन संकटों के जो कारण बताये, उन कारणों को समाप्त करना भी पूंजीवाद को रास नहीं आ सकता। परिणाम सामने है। पूरा विश्व डबल डिप के भंवर में फंसने की ओर अग्रसर है।
स्पेन की हकीकत सबको मालूम थी। यूरोजोन की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था स्पेन भी दरक रही है। वहां रियर स्टेल का बुलबुला फूट गया है। कर्ज देने वाले बैंक डूब रहे हैं। तमाम बड़े शहर स्पेन सरकार कर बोझा बन गये हैं। इन शहरों का खर्चा चलाने तक का पैसा सरकार के पास नहीं है। नए हवाई अड्डे, शापिंग काम्पलेक्स और बीस लाख के करीब मकान खाली पड़े हैं। यूरोपीय केन्द्रीय बैंक से स्पेन के बैंकों को जो आर्थिक मदद मिली थी, वह भी गले में फांस बन गई है। अगर स्पेन अपने बैंकों को उबारने का प्रयास करता है तो खुद डूब जाएगा क्योंकि देश पर 807 अरब यूरो का कर्जा है, जो उसके जीडीपी का 74 प्रतिशत है। युवाओं में 52 प्रतिशत की बेरोजगारी दर वाला स्पेन बीते सप्ताह मंदी में चला गया है।
जी-20 की कोशिशें, नेताओं की कवायद, बैंकों का सस्ता कर्ज कुछ भी काम नहीं आया। यूरोप में डबल डिप यानी दोहरी मंदी के प्रमाण चीखने लगे हैं। एक मंदी ने चार साल में जितना मारा है, उसका दुबारा आना कितना मारक होगा? ब्रिटेन 1975 के बाद पहली बार दोहरी मंदी में गया है। स्पेन की ग्रोथ में लगातार दूसरी गिरावट हुई है। ग्रीस की ग्रोथ करीब 4.4 प्रतिशत घटेगी। जर्मनी और फ्रांस में भी गिरावट तय है। यूरोपीय आयोग ने दो टूक कहा कि संप्रभु कर्ज, कमजोर वित्तीय बाजार और उत्पादन में कमी का दुष्चक्र टूट नहीं पा रहा है। मंदी लगातार जटिल और लंबी होती चली जा रही है। वर्ष 2008 की शुरूआत में सरकारों ने बाजार में पैसा झोंका, ताकि मांग पैदा हो सके। लेकिन अब यह भी मुमकिन नहीं है।
इस मंदी का इस बार भारत पर कितना प्रभाव होगा, कहा नहीं जा सकता परन्तु इतना निश्चित है कि भारत का भी इस बार बचना लगभग असंभव सा दिख रहा है। ऐसी परिस्थितियों में हमें अपने वैचारिक संघर्ष को बड़ी तेजी से धार देनी होगी। वैचारिक संघर्ष के लिए श्रम के साथ-साथ पैसा भी चाहिए और इसकी व्यवस्था भी हमें खुद ही करनी होगी।
- प्रदीप तिवारी

पेट्रोल कीमतों के खिलाफ भाकपा का देशव्यापी विरोध कल

लखनऊ 23 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने पेट्रोल की कीमतों में साढ़े सात रूपये प्रतिलीटर की मूल्य वृद्धि की घोर निन्दा करते हुए कहा है कि सरकार का यह कृत्य महंगाई बढ़ाने वाला तथा जनविरोधी है। इतिहास में यह सबसे बड़ी मूल्यवृद्धि है, जिससे आम जनता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। भाकपा ने मूल्यवृद्धि को तुरन्त वापस लेने की मांग की है।
भाकपा के वरिष्ठ नेता अशोक मिश्र ने यहां बताया कि वामपंथी दलों ने राष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश में कल विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का आह्वान किया है। उन्होंने उत्तर प्रदेश के भाकपा कार्यकर्ताओं का आह्वान किया है कि राष्ट्रीय आह्वान पर वे इस मूल्यवृद्धि के खिलाफ वामपंथी दलों के साथ मिलकर पूरे प्रदेश में गांव-गांव और कस्बों-शहरों में विरोध प्रदर्शन आयोजित करें।

भाकपा ने की करेली बमविस्फोट के मृतकों को मुआवजा देने की मांग

लखनऊ 23 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने आज इलाहाबाद में करेली क्षेत्र के अंतर्गत गरीबों की झुग्गी-झोपड़ियों में हुए बम विस्फोट की घटना की, जिसमें 4 लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है तथा अन्य दर्जनों घायल हैं, को उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती बताया है। भाकपा ने पुलिस महानिरीक्षक (कानून-व्यवस्था) के इस बयान पर गहरी आपत्ति प्रकट की है जिसमें उन्होंने इलाहाबाद में आये दिन बम विस्फोट की बात कही है और बिना गम्भीर जांच किये ही इसे कबाड़ में हुई बम विस्फोट की घटना बताया है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक संगीन घटनायें प्रदेश की कानून व्यवस्था के लिए चुनौती बनी हुई हैं। आज की इलाहाबाद की यह घटना दिल दहलाने वाली है जिसकी गम्भीरता से जांच होनी चाहिए और इस पर सतही बयानबाजी नहीं करनी चाहिए। यदि यह घटना किसी पॉश इलाके में होती तो शायद सरकार इसे आतंकवादी घटना बताकर रूदन कर रही होती, लेकिन चूंकि यह घटना गरीबों की आबादी में घटी है और मरने वाले तथा घायल गरीब लोग हैं, इसलिए इसे एक सामान्य घटना बताकर टरकाया जा रहा है। भाकपा इस पर कड़ी आपत्ति प्रकट करती है।
भाकपा राज्य सचिव मंडल ने राज्य सरकार से मांग की है कि मृतकों के परिवारों को पांच लाख का मुआवजा दिया जाये, घायलों के समूचे इलाज की व्यवस्था राज्य सरकार करे और घटना के बारे में आपत्तिजनक बयान देने वाली पुलिस महानिरीक्षक के खिलाफ सरकार कड़ी कार्रवाई करे। साथ ही साथ सरकार यह भी स्पष्ट करे कि यदि इलाहाबाद में ऐसी घटनायें आम बात हैं तो सरकार ने उन्हें रोकने के लिए क्या कदम उठाये हैं।

Tuesday, May 15, 2012

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल के फैसले

लखनऊ 15 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कौंसिल की दो दिवसीय बैठक यहां पार्टी के राज्य कार्यालय पर सम्पन्न हुई। बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी दोनों दिन उपस्थित रहे।
बैठक में लिये गये फैसलों की जानकारी देते हुए राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि उत्तर प्रदेश की जनता के विभिन्न हिस्से इस बीच विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे हैं। शासन-प्रशासन अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। अतएव जनता की तमाम समस्याओं की तरफ सरकार का ध्यान खींचने के लिये भाकपा राज्य काउंसिल ने 30 मई को पूरे प्रदेश में जिला मुख्यालयों पर धरना प्रदर्शन करने का निर्णय लिया है। प्रदर्शन और आम सभाओं के बाद राज्यपाल को सम्बोधित ज्ञापन जिलाधिकारियों को दिया जायेगा।
धरना/प्रदर्शन के जरिये महंगाई तथा उच्च पदों पर भ्रष्टाचार के अलावा जिन प्रमुख मुद्दों को उठाया जायेगा वे हैं: किसानों से गेहूं सरकारी रेट पर बिना रोक-टोक के बिना विलम्ब किये खरीदा जाये, खरीद का भुगतान तत्काल किया जाये, आढ़तियों द्वारा गेहूं खरीद का भुगतान तत्काल किया जाये, आढ़तियों द्वारा गेहूं खरीद कराने का फैसला बदला जाये ताकि किसानों की ठगी रोकी जा सके।
भाकपा मांग करेगी कि युवा बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कराया जाये; सरकारी, अर्द्धसरकारी, सहकारी तथा शिक्षा विभागों में रिक्त पड़े पदों को तत्काल भरा जाये। 20 वर्ष से ऊपर समस्त बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिया जाये।
भाकपा इन दिनों दलितों, पीड़ितों, महिलाओं तथा आम जनों पर हो रहे आक्रमणों को रोके जाने और कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने की भी मांग करेगी। साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाने, लोकायुक्त द्वारा पूर्व मंत्रियों के खिलाफ सीबीआई तथा प्रवर्तन निदेशालय के तहत जांच कराने की अनुशंसा को बिना विलम्ब के लागू किये जाने, लोकायुक्त संस्था को व्यापक तथा मजबूत बनाये जाने, 21 चीनी मिलों को बिक्री को रद्द कर बिक्री में हुये घोटालों की जांच सीबीआई से कराने की मांग भी की जायेगी।
भाकपा उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार, उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार की समाप्ति तथा प्रदेश के चारों भागों में चार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) खोले जाने की मांग उठायेगी। गरीबों के उत्थान को तमाम योजनायें बनाने और उन्हें न्यायपूर्ण तरीके से लागू किये जाने, समस्त गरीबों की शिक्षित बेटियों को रू. 30,000.00 की अनुग्रह राशि दिये जाने तथा गरीबों के श्मशानों की चहारदीवारी कराने को भी आवाज उठायेगी।
आन्दोलन के दौरान किसानों को पर्याप्त बिजली आपूर्ति देने, बिजली वितरण के निजीकरण पर रोक लगाने तथा आगरा की बिजली वितरण व्यवस्था को पुनः पश्मिांचल विद्युत वितरण निगम को दिये जाने की मांग उठाई जायेगी। साथ ही खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश रोके जाने का आग्रह राज्य सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार से किया जायेगा।
राज्य कौंसिल ने आगामी निकाय चुनाव में पार्टी चुनाव चिन्ह पर बड़े पैमाने पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। जिला कमेटियों से आग्रह किया गया है कि पार्टी की आर्थिक स्थिति को सुधारने को योजना बनाकर जिलों-जिलों में 4-5 दिवसीय धन एवं अनाज संग्रह अभियान चलायें। साथ ही जहां-जहां अभी तक पार्टी महाधिवेशन की रिपोर्टिंग नहीं हुई है, वहां इस काम को पार्टी की जनरल बॉडी की बैठक बुला कर जल्दी ही पूरा करने का निर्देश भी जिला कमेटियों को दिया गया है।
पार्टी काउंसिल बैठक में महत्वपूर्ण सांगठनिक निर्णय भी लिये गये। एक पच्चीस सदस्यीय राज्य कार्यकारिणी का गठन किया गया। इसमें 2 सदस्य विशिष्ट आमंत्रित तय किये गये। एक सात सदस्यीय सचिव मंडल का चुनाव किया गया जिसमें डा. गिरीश, इम्तियाज अहमद (पूर्व विधायक), अरविन्द राज स्वरूप, अशोक मिश्र, विश्वनाथ शास्त्री, आशा मिश्रा तथा सदरूद्दीन राना शामिल हैं।
राज्य कौंसिल ने इम्तियाज अहमद एवं अरविन्द राज स्वरूप को सहायक सचिव तथा प्रदीप तिवारी को कोषाध्यक्ष निर्वाचित किया। सभी चुनाव सर्वसम्मति से किये गये।
बैठक में अंतर्राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों तथा हाल ही में पटना में सम्पन्न भाकपा के 21वें महाधिवेशन में लिये गये फैसलों पर भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने विस्तार से प्रकाश डाला। भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने हाल ही में सम्पन्न उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों की समीक्षा रिपोर्ट पेश की तथा गठित नई सरकार के डेढ़ माह के शासनकाल का विश्लेषण प्रस्तुत किया जिन पर 42 साथियों ने विचार व्यक्त किये। दोनों ही रिपोर्टें सर्वसम्मति से पारित की गयीं।
बैठक की अध्यक्षता दीना नाथ सिंह, इम्तियाज अहमद एवं आशा मिश्रा के अध्यक्ष मंडल ने की।

Monday, May 14, 2012

BRIEF OF PRESS CONFERENCE OF CPI GENERAL SECRETARY S. SUDHAKAR REDDY, EX. M.P. TODAY AT LUCKNOW

CPI General Secy. S. Sudhakar Reddy
Lucknow 14th May. "CPI shall work hard for building a program based left democratic alternative to Congress led UPA and BJP led NDA", said S. Sudhakar Reddy, newly elected General Secretary of Communist Party of India (CPI) in a press conference here in Press Club. He said that UPA & NDA both are pushing the same economic policies of neo-liberalism, which are anti-people & pro corporate houses. These economic policies are leading to galloping gap in between poor & rich. As per international reports, India is one of the worst performers on the front of human development index & hunger index.
CPI General Secretary Sudhakar Reddy informed that left parties shall meet in New Delhi on 23rd May to work out common demands & program. We shall to the public to attain those demands and shall welcome all secular & democratic parties to join us by agreeing to our demands in furtherance of building a pro-people, vibrant, sensitive & strong left & democratic alternative in the country.
"Finance Minister is telling that he is having sleepless nights due to alarming economic situation of the country but his Government is not ready to withdrawn the subsidies being given to corporate houses but repeatedly speaking against the subsidies for common man, which are hardly half of the subsidies being given to corporate houses", said CPI General Secretary Sudhakar Reddy.
CPI General Secretary Sudhakar Reddy, objected on the signals being given by Washington to Indian Government for new edition of retrograde economic reforms. He also vehemently condemned the comments made by rating agency "Standard & Poors" suggesting the same economic reforms while downgrading the rating of India. He questioned why this rating agency not suggested any thing to USA while downgrading rating of USA few months ago.
CPI General Secretary Sudhakar Reddy declared CPI's opposition to proposed reforms of insurance, pension & banking sectors and allowing FDI in retail sector.
CPI General Secretary Sudhakar Reddy demanded fixing per capital income of Rs 100/- per day for identification of BPL. He said that only calorie intake should not be considered for deciding who is BPL or who is APL, instead availability of drinking water, shelter, education, health etc. should also be taken into consideration.
CPI General Secretary Sudhakar Reddy expressed opposion to a non political President. Some intellectual may also be considered but he should have ability, integrity and secular & democratic credentials to become fit for President Ship. He said that the post of President of the country is political and it would be better to have a political person in President House. While rejecting the name of APJ Abdul Kalam, he said that CPI is not averse to his ability as a scientist but not for presidentship. It is duty of the Congress to decide the name for next President and make efforts to build consensus. Only thereafter we shall take a decision to support or suggest a new name. He stressed for a non-congress & non-BJP candidate.
Referring completion of 60 years of Indian Parliament, but objected to the speech of the Prime Minister yesterday in the Parliament. He vehemently condemned the UPA Government for not allowing the elected MPs to raise the issues of Public in the parliament leading to the pandemonium. If they cannot raise issues of public, then what for these MPs are in parliament? He questioned.
Just 50 years ago, parliament completed its longest session of 140 days, but now-a-days, parliament is not meeting even 100 days in a year, said Sudhakar Reddy. Disenchantment has started increasing among the Public, which is not a good signal for democracy. Successive governments are responsible for it. Political system must wake up now.
CPI General Secretary termed Man Mohan Singh as worst Prime Minister of the country till date. On public issues, he is most inefficient, but he is brave enough to serve the interest of US imperialism & corporate houses.  Crony capitalism rose to new heights with much speed under his prime minister ship. Wealth of corporate houses increased many fold but the poor are not getting food even.
He demanded that Akhilesh Government must fulfil his election promises. On completing the studies, the student becomes unemployed in the age group of 18-20 years. After 35 years, people use to settle anyhow. Government must not disappoint this segment, he said.
Increasing employment potentiality of Uttar Pradesh is much more important task. UP is greater than half of Europe. If UP develops, India will develop. New young Chief Minister must give proper attention to this front, Sudhakar Reddy said.
                CPI General Secretary was accompanied by Secretary of Nation council of CPI Atul Kumar Anjan, State Secretary Dr Girish and senior leader Pradeep Tewari.
                CPI State Council is still in session and its decisions shall be circulated tomorrow.


(Shamsher Bahadur Singh)
Office Secretary

भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी की पत्रकार वार्ता का संक्षेप

S. Sudhakar Reddy's Press Conference
लखनऊ 14 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नवनिर्वाचित महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने यहां प्रेस क्लब में पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए कहा कि कांग्रेस नीत संप्रग एवं भाजपा नीत राजग के खिलाफ एक कार्यक्रम आधारित वाम लोकतांत्रिक विकल्प के निर्माण के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी गंभीर प्रयास करेगी। उन्होंने कहा कि दोनों गठबंधन नव उदारवाद की जिस आर्थिक नीति को आगे बढ़ा रहे हैं, वह देश की जनता के खिलाफ तथा बड़े पूंजीपतियों के हित में है। इस आर्थिक नीति ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को बहुत ज्यादा गहरा कर दिया है। अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों के अनुसार मानव विकास सूचकांक एवं भूख सूचकांक के मोर्चे पर भारत दुनियां केे सबसे खराब परफॉर्मेंस देने वाले देशों में शामिल है।
भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने कहा कि नई दिल्ली में 23 मई को सभी वामपंथी पार्टियां एक बैठक कर रहीं हैं जिसमें साझा मांगों एवं कार्यक्रम पर फैसला लिया जायेगा। हम इन मांगों को पूरा करवाने के लिए जनता के मध्य जायेंगे और धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक उन राजनीतिक दलों का मोर्चे में स्वागत करेंगे जो हमारी मांगों एवं कार्यक्रम के साथ जुड़ने के लिए तैयार हों जिससे एक मजबूत, जनता के प्रति संवेदनशील वाम लोकतांत्रिक विकल्प का निर्माण किया जा सके।
भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी ने कहा कि वित्त मंत्री कह रहे हैं कि देश की खराब आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें रात में नीद नहीं आती लेकिन सरकार पूंजीपतियों को दिये जा रहे अनुदान को वापस लेने के लिए कतई तैयार नहीं है जबकि आम आदमी को दिये जा रहे अनुदान का लगातार रोना रोया जा रहा है। उन्होंने दावा किया कि आम आदमी को दिया जाने वाला अनुदान पूंजीपतियों को दिये जाने वाले अनुदान का आधा भी नहीं है।
भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी ने वाशिंगटन द्वारा आर्थिक सुधारों के नए संस्करण के लिए नई दिल्ली को दिये जाने वाले संकेतों की कटु निन्दा की। उन्होंने रेटिंग एजेंसी ‘स्टैन्डर्ड एंड पुअर्स’ द्वारा भारत की रेटिंग को घटाते समय आर्थिक सुधारों की जरूरत के बारे में दिये गये बयान की भी निन्दा की। उन्होंने सवाल खड़ा किया कि कुछ ही समय पूर्व जब इस रेटिंग एजेंसी ने अमरीका की रेटिंग को नीचे गिराया था तब अमरीकी सरकार के लिए इसी तरह की जरूरतों को रेखांकित क्यों नहीं किया था?
भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने कहा कि भाकपा बीमा, बैंक और पेंशन के क्षेत्रों में प्रस्तावित कथित सुधारों तथा खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के खिलाफ है और ऐसे किसी भी कदम के खिलाफ संसद और सड़कों पर विरोध करेगी।
भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने मोंटेक फार्मेूले की निन्दा करते हुए कहा कि गरीबी की रेखा के नीचे उन लोगों को शामिल किया जाये जिनकी प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति आय एक सौ रूपये है। उन्होंने कहा कि केवल निर्धारित कैलोरी आवश्यकता के आधार पर गरीबों को चिन्हित करना उचित नहीं है बल्कि इसके लिए पीने के पानी, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने कहा गैर राजनीतिक व्यक्ति के राष्ट्रपति बनाने का भाकपा समर्थन नहीं करती है। उन्होंने कहा कि देश के राष्ट्रपति का पद एक राजनीतिक पद है और उस किसी राजनीतिक व्यक्ति को ही बैठाना अधिक उपयुक्त होगा। किसी बौद्धिक व्यक्ति को भी राष्ट्रपति बनाया जा सकता है परन्तु राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए उसकी क्षमता, उसकी ईमानदारी, धर्मनिरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उसके पिछले रिकार्ड को भी ध्यान में रखना जरूरी है। प्रेस वार्ता में पूछे गये एक सवाल पर उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के नाम पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि हम एक तकनीशियन के रूप में उनकी क्षमताओं के कायल हैं लेकिन राष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए उन्हें उपयुक्त नहीं मानते हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस को चाहिए कि वह नये राष्ट्रपति के लिए प्रस्ताव लेकर अन्य दलों से वार्ता कर आम सहमति बनाने का प्रयास करे। उसके बाद ही भाकपा यह तय कर पायेगी कि वह उस व्यक्ति का समर्थन करेगी अथवा किसी नए नाम का सुझाव देगी। उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए एक गैर-कांग्रेसी और एक गैर-भाजपाई व्यक्ति की आवश्यकता को रेखांकित किया।
भारतीय संसद द्वारा 60 वर्ष पूरा करने के सन्दर्भ में उन्होंने कल संसद में प्रधानमंत्री के भाषण की निन्दा करते हुए कहा संप्रग सरकार निर्वाचित सांसदों को संसद में जनता के मुद्दों को उठाने नहीं देती है जिसके कारण संसद में हंगामा होता है। उन्होंने प्रश्न किया कि यदि सांसद संसद में जनता के मुद्दे नहीं उठा सकते तो आखिर वे किस लिये चुने जाते हैं?
भारत के मजबूत लोकतंत्र की चर्चा करते हुए भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी ने कहा कि संसद के 140 दिन चले सबसे लम्बे सत्र को पचास साल बीत चुके हैं लेकिन अब संसद की पूरे साल में 100 बैठकें भी नहीं होती। जनता के मध्य गुस्सा पनप रहा है जोकि लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। तमाम सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं। राजनीतिक सिस्टम को अब जाग जाना चाहिए।
भाकपा महासचिव सुधाकर रेड्डी ने मनमोहन सिंह को देश का सबसे अक्षम प्रधानमंत्री बताते हुए कहा कि जनता के मुद्दों पर वे अक्षम और अकर्मण्य बन जाते हैं परन्तु अमरीकी साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की चाकरी करने में वे बहुत बहादुराना चेहरा सामने लेकर आते हैं। उनके कार्यकाल में देश में पूंजीपतियों ने बहुत तेजी से प्रगति की है। कारपोरेट घरानों की परिसम्पत्तियों में हजारों गुना की बढ़ोतरी हुई है लेकिन गरीब को आज भोजन तक नसीब नहीं हो पा रहा।
भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने कहा कि अखिलेश सरकार को चुनावों के दौरान जनता को दिये गये वायदों को पूरा करना चाहिए। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्र बेरोजगार युवा बन जाता है। उसे उस समय धन की जरूरत होती है और 35 साल की उम्र तक तो आदमी कुछ न कुछ करने लग जाता है चाहे वह खोंचा लगाये, रिक्शा चलाये या मजदूरी करे। उन्होंने कहा कि बेरोजगार युवकों को प्रदेश सरकार को निराश नहीं करना चाहिये और 20 साल की उम्र पर बेरोजगारी भत्ता बिना किसी शर्त के देना चाहिए।
भाकपा महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में रोजगार सृजन किसी भी अन्य काम से ज्यादा महत्वपूर्ण काम है। उत्तर प्रदेश पूरे यूरोप का आधा है। अगर उत्तर प्रदेश विकसित होता है तो पूरा देश विकसित होगा। उत्तर प्रदेश के नये युवा मुख्यमंत्री को इस ओर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए।
पत्रकारों से प्रेस क्लब में वार्ता के दौरान भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सचिव अतुल कुमार अंजान, राज्य सचिव डा. गिरीश तथा वरिष्ठ नेता प्रदीप तिवारी मौजूद थे।
(शमशेर बहादुर सिंह)
कार्यालय सचिव

Saturday, May 12, 2012

Profile of Suravaram Sudhakar Reddy, General Secretary, CPI


Suravaram Sudhakar Reddy born on 25th March 1942 has been an ardent social worker through Communist Party of India (CPI) right from his student days.  His father S. Venkatrami Reddy was a freedom fighter and was an ardent fighter in Telangana armed struggle.

ACADEMICS

He completed his SSLC now equivalent to 11th class in 1958 from Municipal High School, Kurnool, A.P., BA Special in History from Osmania College - Kurnool in 1964 and LLB from Osmania University Law College in Hyderabad in 1967. He had joined LLM in 1968 but could not complete it due to his activities as a student leader.

STUDENT & YOUTH MOVEMENTS

In 1957 while in school he was in thick of agitations for blackboards, chalks and other basic requirements at the school that became a movement in all schools at Kurnool.

In 1960 he became Kurnool All India Student Federation (AISF) town secretary and later was given the responsibility of AISF Kurnool district secretary. In 1962 he was made the secretary of the Sri Venkateswara University strike committee. The committee led an unprecedented 62 days strike that led to the acceptance of various student demands. He was elected as the president of college students union at Kurnool. In 1965 during his Bachelors in Law at Osmania University he was elected General Secretary of the college in the students union elections. Later he was entrusted the responsibility of AISF Andhra Pradesh (AP) State Secretary.

In 1966 became the General Secretary of AISF National Council and had to shift to Delhi. In 1969 was again reelected as the General Secretary of AISF. In 1970  became the President of AISF.  In 1972  was   elected as the president of All India Youth Federation (AIYF). Represented Indian youth at various international forums especially International Union of Students (IUS), World Federation of Democratic Youth (WFDY) and World Youth Festival.

POLITICAL ACTIVITY:

In 1971 during the CPI IX Congress at Cochin he became a member of the National Council of Communist Party of India (CPI)

 In 1974 he moved back to AP to become an active member in the AP State Council of CPI. From 1974 to 1984 he was member of the Andhra Pradesh State Executive of CPI. During this period he has fulfilled the responsibilities of Vice President & then as Secretary of AP State Council of Bharathiya Khet Mazdoor Union (BKMU), Party Incharge of Mahaboob Nagar District and as Member of the state party secretariat. As a BKMU leader he is well known for the struggles initiated to distribute land and also restore the self-esteem of landless agriculture labour.

In 1985 & 90 Suravaram Sudhakar Reddy contested unsuccessfully in Kollapur Assembly Segment. In the meantime he became the Asst. Secretary of Andhra Pradesh State Council of CPI. In 1994 he contested unsuccessfully in faction violent hit Dhone assembly segment against the sitting Chief Minister of Andhra Pradesh Vijaya Bhaskara Reddy but his election campaign was successful in bringing a whiff of democracy in the faction region and emboldened downtrodden people to come out and fight for their rights.

In 1998 he got elected to the 12th Lok Sabha from Nalgonda Parliamentary Constituency. The same year he became the Secretary of the State Council of CPI in AP. He also became member of the CPI National Executive and later member of the Central Secretariat of the CPI.

In 2000 he played an important role in a massive struggle by all left parties in Andhra Pradesh against Power Price Hike. The movement was built up from grass root levels and in over a few months brought the entire state government to a standstill. He faced lathi charge and police firing during the agitation in which three young men where shot dead. He was hospitalized along with many other agitators who where injured. After foisting false murder case, he was arrested and jailed along with 22 others during the movement. The government later withdrew the false cases and the power prices were not hiked again for over a decade.

In 2004 he was again elected to Parliament to become member of the 14th Lok Sabha during the tenure of which he became the Chairman of Parliamentary Standing Committee on Labor.

In 2007 in the XX Congress of the CPI that was held in Hyderabad he was made the Deputy General Secretary of the CPI.


AGITATIONS

In 1966 when Suravaram Sudhakar Reddy was secretary of AISF AP State Council he was arrested several times during many agitations. During the agitation demanding setting up of steel plant in Vishakapatnam he was arrested in 1967 and was put in Kakinada jail and Tirupati jail. The same year he was jailed in Calcutta for 8 days when protesting against the dismissal of Left Front government by Congress. He was jailed again in Lucknow for more than 10 days when leading an agitation demanding the restoration of Student Union. He is a well known leader for leading various struggles on behalf of students and youth. He also led many successful nationwide agitations by AISF & AIYF on many national issues like 18 years voting right, Unemployment relief, etc. As part of numerous Jathas he toured the nation to drum up awareness and public support on various issues.

CHAIRMANSHIP OF PARLIAMENTARY COMMITTEE

As chairman of standing committee he made many far-reaching recommendations. For the first time a standing committee recommendations attracted the attention of the mass media. His committee recommendation of Social Security for unorganized workers has been partially implemented. He had also recommended establishment of banking services and social security for Handloom Workers. His recommendation for gratuity for private school teachers was also implemented.

As a parliamentarian he had tabled private members bill for making Right to work, Right to life, Right to nutritious food for school going children and Right to Healthcare. The private members bill presented by Com S.Sudhakar Reddy attracted attention of the house and many fellow parliamentarians participated resulting in it becoming the private members bill with maximum members and time on discussion. He has highlighted the plight of people of Nalgonda and the harm fluoride contaminated water was doing to the people and responsible for the Governments attention to provide safe drinking water to the people of Nalgonda. He was one of the first to alert the government by writing a letter to Prime Minister and brought attention of the Parliament to 2G scam way before it was exposed by CAG. His letter to the Prime Minister on 2G scam was acknowledged in the affidavit filed by the Prime Minister in the Supreme Court. He raises the issue of Black Money in Swiss Banks, which latter became a major national issue.

Inspite of being an active parliamentarian, Chairman of standing committee on labour and member of national secretariat and deputy general secretary, he had been associated with working class movements at grass root levels. He was twice elected as the president of HMT workers, Patron of All India mint workers federation, and had been guiding force for the Airport Employees and other unions.

INTERNATIONAL EXPOSURE

Suravaram Sudhakar Reddy has travelled to numerous countries to participate in conferences, seminars and workshops. He attended international student & youth conferences in Soviet Union, GDR, Mongolia, Czechoslovakia, Bulgaria and more. He was the fraternal delegate in the conferences of Communist Party of USA, Refoundation Communist Party of Italy, Communist party of Japan and Communist Party of Vietnam. He also visited – China, UK, France, Afghanistan, Pakistan, Nepal and Bangladesh on various other occasions. Recently he has participated in the international conference of the world Communist parties held in Johannesburg, South Africa.

As a parliamentarian he had addressed the United Nations General Assembly.

INTERESTS

S. Sudhakar Reddy is a voracious reader. He was also a columnist. He was the editor of many publications. He was also the Chairman of Visalaandhra Vignyana Samithi which runs a daily newspaper and operates the largest publishing house in Telugu. From his student days he has authored booklets on regional, national & international issues. He was the editor of youth magazine YUVAJANA.

Sunday, May 6, 2012

आर्थिक संकट के मुहाने पर ......

गत 18 अप्रैल को अमरीका के एक अध्ययन संस्थान में अपने व्याख्यान के दौरान वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने यह कह कर राजनीतिक गलियारे में खलबली मचा थी कि भारत में 2014 के आम चुनाव तक आर्थिक क्षेत्र में कोई बड़ा सुधारात्मक कदम उठाये जाने की संभावना नहीं है। बसु के बयान की अखबारों में भारी आलोचना शुरू हो गयी क्योंकि पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यमों को पूंजीवादी और विशेषकर वैश्विक पूंजी के पक्ष में किये जाने वाले सुधारों में बड़ा हित निहित रहता है। बात दीगर है कि वे सुधार आम जनता के हितों के खिलाफ होते हैं। बाद में संप्रग-2 सरकार के दवाब में कौशिक बसु अपने बयान से पलट गये और उन्होंने पहला स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उनका मतलब 2014 के आम चुनावों से नहीं था बल्कि संकटग्रस्त यूरोपीय अर्थव्यवस्था से था। वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी सफाई दी। खैर हम उनके मतलबों से मतलब नहीं रख रहे हैं।
हम यहां आजादी के बाद की एक घटना को उद्घृत करना चाहते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने टाटा घराने के मुखिया जमशेद जी टाटा को बुलाकर सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण का कारखाना हिन्दुस्तान में लगाने को कहा। जिन्हें इस घटना का सन्दर्भ नहीं मालूम है, उन्हें थोड़ा आश्चर्य होगा कि नेहरू जी को सौन्दर्य प्रसाधनों में इतना लगाव आजादी के बाद क्यों पैदा हुआ था। बात यह थी कि देश के बैलेंस आफ पेमेन्ट यानी भुगतान संतुलन (विदेशी मुद्रा भंडार की स्थिति) की स्थिति ठीक नहीं थी। पं. नेहरू ने देखा कि महिलाओं द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों का निर्माण हिन्दुस्तान में नहीं होता है और उन्हें आयात किया जाता है जिस पर विदेशी मुद्रा का प्रवाह भारत से बाहर की ओर हो रहा है। हालांकि उस वक्त सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग बहुत ज्यादा नहीं होता था और इस मद में विदेशी मुद्रा का देश के बाहर प्रवाह बहुत ज्यादा नहीं था, लेकिन उसको भी रोकने के लिए पं. नेहरू ने देश के बड़े पूंजीपति टाटा से यह बात कही थी और इसी के बाद हिन्दुस्तान में लक्मे नाम से सौन्दर्य प्रसाधन बनने शुरू हुये थे। कहा तो यहां तक जाता है कि लक्मे ने विदेशी मुद्रा कमाना भी शुरू कर दिया था परन्तु इस बारे में हमारे पास कोई अधिकारिक जानकारी नहीं है।
इस घटना के बाद राजग सरकार में वित्तमंत्री रहे यशवंत सिन्हा के इस बयान का जिक्र - जिसमें उन्होंने देश के विदेशी मुद्रा भंडार को खाली बताते हुए दावा किया कि जल्दी ही सोना गिरवी रखा जाएगा और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से बड़ा कर्ज लिया जायेगा।
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर सुब्बाराव थोड़े दिन पहले ही 1991 के दुर्दिनों की याद कर रहे थे। हालांकि उन्होंने 1991 की घटनाओं को दोहराये जाने से इंकार किया परन्तु भुगतान संतुलन की स्थिति को बेहद जटिल बताया।
हमारी याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि 1991 के संकट की याद न हो। जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डालर से भी कम रह गया था यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। भारतीय रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया था। तीन दिनों में भारतीय रूपये का 24 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ। 67 टन सोना भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंक आफ इंग्लैंड और यूनियन बैंक आफ स्विटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डालर  का कर्ज उठाया। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डालर का कर्ज लिया गया। यह खौफनाक अतीत जिन परिस्थितियों से निकला था, आज की स्थितियां उससे कहीं ज्यादा खराब हैं। तब कहा गया था कि भारत में विदेशी मुद्रा भंडार खाली होने का कारण खाड़ी युद्ध के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ना था। लेकिन केवल यही एक कारण नहीं था। इस वास्तविकता को राजनीतिक स्तर पर स्वीकार किया जाना चाहिए कि हमने पं. नेहरू की जिस दृष्टि का उल्लेख ऊपर एक घटना के जरिये किया है, केन्द्र की सरकार उससे ठीक विपरीत दिशा में चलने लगी थीं और आज भी चल रही हैं। विदेशी कर्ज और विदेशी निवेश इस तरह के संकट से निकलने के स्थाई तरीके नहीं हैं। जब तक आयात के जरिये कमाई गयी विदेशी मुद्रा से कम निर्यात पर खर्च करना नहीं शुरू किया जाता, हम इस तरह के संकट से स्थाई रूप से बाहर नहीं निकल सकते। हमें याद करना होगा कि 1971 में अमरीकी डालर की कीमत भारतीय रूपयों के सापेक्ष कितनी कम थी और आज कितनी ज्यादा हो गयी है। तब संभवतः 5 रूपये में एक डालर मिल जाता था परन्तु आज एक डालर के लिए 51 रूपये की करीब खर्च करना पड़ रहा है। सोचिए - विदेशों से आने वाले सामान की हम आज कितनी ज्यादा कीमत अदा कर रहे हैं।
इस समय भारत के विदेशी मुद्रा खजाने में पैसा कम है और विदेशी मुद्रा की देनदारियां ज्यादा। 2010 का विदेशी व्यापार में घाटा 185 अरब डालर था। विदेशी मुद्रा भंडार लगातार घट रहा है जबकि विदेशी कर्ज लगातार बढ़ रहे हैं। अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि एक साल के भीतर देश का विदेशी मुद्रा भंडार चुक जायेगा। यानी हम एक बार फिर 1991 जैसे आर्थिक संकट के मुहाने पर बैठे हुये हैं।
एक वैश्विक एजेंसी ने पूरे विश्व में खाद्यान्न महंगाई को बड़ी तेजी से बढ़ने की आशंका जताई है। आज हम वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए हैं। अमरीका और यूरोप में आर्थिक संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा है। अभी तक अपने सार्वजनिक क्षेत्र की मजबूती के भरोसे हम इस आर्थिक संकट से बचे हुए हैं। लेकिन आने वाले दिनों में क्या हो सकता है, इसका काई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
सम्भव है जब 2014 में लोकसभा का चुनाव हो, तब देश एक बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा हो। अगर अब भी केन्द्र की सरकार नहीं चेतती है और वह तथाकथित प्रतिगामी आर्थिक सुधारों की दिशा को नहीं पलटती, तो क्या-क्या हो सकता है, इस बारे में सोचना भी थर्रा देने वाला है।
- प्रदीप तिवारी

Saturday, May 5, 2012

वर्ष 2012 के मई दिवस की चुनौतियां

संयुक्त राज्य अमेरिका साम्राज्यवादी, आक्रमणकारी, विस्तारवादी और पूंजीवादी खुशहाली का आदर्श के रूप में जाना जाता रहा है। अमेरिका का नाम आते ही वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान सरीखे देशों देशों पर क्रूर नृशंस हमने करने वाला खौफनाक हमलावर देश की तस्वीर हर किसी के मस्तिष्क में सहसा उभरती है। प्राचीन सभ्यता का अमेरिकी इतिहास भले ही नहीं हो, आधुनिक औद्योगिक युग और अत्याधुनिक उत्तर औद्येागिक का प्रतिनिधित्व करने से उसे कौन रोकेगा? जब मजदूर आंदोलन की बात आती है तो शिकागो के शहीदों की याद आती है, जब नारी आंदोलन की चर्चा होती है तो अमेरिकी गारमेंट फैक्टरी की महिला श्रमिकों के शौर्य सामने आते हैं। अभी पिछले वर्ष ही पूंजीवादी खुशहाली के अपने ही अमेरिकी मॉडेल को ध्वस्त करने का श्रेय न्यूयार्क के ‘वालस्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन के अमेरिकी युवक-युवतियों को जाता है, जिसने अमेरिकी समाज की विषमता को यही नहीं कि ताकतवर तरीके 99 बनाम 1 प्रतिशत का वर्गयुद्ध बताकर बेपर्द किया, बल्कि समस्त विश्व की नयी पीढ़ी को इस भयावह आर्थिक विषमता के विरुद्ध सड़कों पर उतरने के लिए अनुप्रेरित किया।
    आज वित्तपूंजी की अनुत्पादक करतूतें और आधुनिक वैज्ञानिक एवं सूचना तकनीकी क्रांति से सब कुछ उलटपुलटकर रख दिया है। इसने उत्पादन प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन किया है और समाज के सामने नयी चुनौतियां पेश की हैं। कार्यदिवस कम करने का मुद्दा इन चुनौतियों में आज पिछले किसी भी जमाने से ज्यादा प्रासंगिक हो गया है। सूचना तकनीकी क्रान्ति के नये उद्योग काल सेंटरों में कर्मचारियों से 10 घंटे और 12 घंटे काम कराया जाता है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के अधीन कार्यरत वी वी गिरी श्रम अध्ययन संस्थान द्वारा कराये गये सर्वेक्षण में दर्ज किया गया है कि नोएडा स्थित काल सेंटरों में कर्मचारियों के साथ रोमन साम्राज्य के दासों जैसा बर्ताव किया जाता है। आईसीआईसीआई जैसे वित्तीय कारोबार करने वाले बैंकों से सम्बद्ध कर्मचारियों का कार्यदिन अमूमल 10 घंटे और ज्यादा है। कोई 77 वर्ष पहले जून 1935 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने इस श्रम समस्य को निम्न प्रकार दर्ज किया:
    ‘‘इस तथ्य पर विचार करते हुए कि बेरोजगारी, जो इतने बड़े पैमाने पर फैली है और लंबे समय तक जारी रहेगी, जिसके चलते करोड़ों लोग समस्त संसार में कठिन और अभावपूर्ण जीवन जी रहे हैं और जिसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार नहीं हैं, यह न्यायपूर्ण बात है कि उन्हें अभाव ओर कठिनाई से मुक्त किया जाय।’’
    ‘‘तेजी से हो रहे तकनीकी विकास के लाभ में जहां तक हो, मजदूरों को भी हिस्सा दिया जाय।’’
(कन्वेंशन संख्या 47)
    आईएलओ दुनिया की सभी सरकारों, नियोजकों और मजदूर संगठनों का शीर्ष निकाय है। इसने 77 वर्ष पहले 1935 में इस तथ्य को दर्ज किया कि संसार के करोड़ों लोगों के अभाव और कठिन जीवन का जिम्मेदार आम आदमी नहीं है और प्रस्ताव किया कि जिस तकनीकी विकास को पूंजीपतियों ने हथिया रखा है, उसका लाभ मजदूरों को भी मिलना चाहिए।
    पिछले वर्षों में यूरोप, अमेरिका सहित आस्ट्रेलिया एवं भारत में भी अनेक बड़ी एवं अभूतपूर्व हड़तालें हुईं। उनकी समान मांगें थीं-विश्व मंदी के संकट के वे जिम्मेदार नहीं है, फिर उनके पगार क्यों काटे जा रहे हैं? बैंकों के दिवालिया होने के वे गुनाहगार नहीं हैं, फिर उनकी सामाजिक सुरक्षा एवं सहूलियतें क्यों छिनी जा रही हैं? उन्हें क्या ज्यादा घंटे कम करने को विवश किया जा रहा है, जबकि उद्योगपतियों को ‘बेलआउट’ पेैकेज दिये जाते हैं। गुनाहगारों को ‘बेटआउट’ रिहा किया जा रहा है, किंतु बेगुनाहों को सजा दी जा रही है। क्या यही सामाजिक न्याय है? क्या इसे और सहन किया जाएगा?
    वर्ष 2012 के मई दिवस के मौके पर हम इन चुनैतियें का सामना करने का संकल्प लेंगे। इस मौके पर हमें मई दिवस का इतिहास ताजा कर लेना अप्रासांगिक नहीं होगा। संक्षेप में आगे हम देखेंगे कि सवा सौ साल पहले घटित मई दिवस की घटनाओं की क्या पृष्ठभूमि थी।
हे मार्केट
    जार्ज वांिशंगटन से लेकर थियोडोर रूजवेल्ट तक जो अमेरिका के प्रेसीडेण्ट हुए उनमें आठ फौजी जनरल थे। जार्ज वाशिंगटन स्वाधीनता संग्राम में अमेरिकी सेना के सेनापति थे। वे संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति पद पर आसीन रहे। इसी तरह जनरल एन्ड्रयू जैकसन, टेलर, फ्रैंकलिन, रूजबेल्ट, आर्थर, बेंजामिन, ककिनली आदि बड़े सैनिक अफसर थे जो राष्ट्रपति बने। इन नेताओं ने बड़े-बड़े सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया।
    संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा दूसरे देशों की भूमि दखल करना और उनके घरेलू मामले में हस्तक्षेप करने की लंबी परंपरा है। सन् 1776 में जब सं.रा. अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा हुई थी तो अतलांतिक महासागर के तट पर 133 उपनिवेशों की क्षेत्रफल केवल 3,86,000 वर्ग मील था। सैनिक कार्रवाई के बाद वार्सेल्स संधि (1783) और लूईसियाना का कब्जा कर लेने के बाद 1803 में क्षेत्रफल दूना हो गया। फ्लोरिडा को 1818 में, टेक्सास को 1836 में एकतरफा संयुक्त राज्य में मिला लिया गया। टेक्सास मैक्सिको का अंग थ। अमेरिका ने इस देश की आधी भूमि अर्थात् 5,58,400 वर्ग मील की विशाल भूमि हथिया ली। 1847 में ओरगान के विशाल भू-भाग 2,85,000 वर्ग मील पर कब्जा कर लिया। 1867 में अलास्का को खरीदने की संधि हुई जिसके जरिये 5,77,400 वर्ग मीन का विशाल भूखंड अमेरिका को मात्र 72 लाख डालर में मिल गया। इस तरह 1776 के मुकाबले 1880 में सं.रा. अमेरिका की जमीन दस गुना बढ़ गयी थी।
    यही नहीं, औद्योगिक क्षेत्र में भयंकर विकास हुआ। 1870 के मुकाबले शताब्दी के अन्तिम दशक आते-आते लोहे का उत्पादन आठ गुना, इस्पात का उत्पादन 150 गुना और कोयले का उत्पादन आठ गुना बढ़ गया। हर प्रकार के औद्योगिक उत्पादन का सतर चार गुना ऊँचा हो गया। 1,40,000 मील रेलवे लाइन बिछाई गयी। इसी भांति खेती का भी तेज विकास हुआ। दो मूल अनाजों गेहूँ और मक्का की उपज दूनी हो गयी। अमेरिका अनाज और मांस की आपूर्ति करने वाला दुनिया का प्रथम देश बन गया। 1870 से 1900 ईस्वी के बीच विज्ञान और औद्योगिक तकनीकी आविष्कार 6,76,000 फार्मूले निबंधित किये गये थे। योरप की विशाल पूंजी सं0 रा0 अमेरिका में जमा हो रही थी।
    1882 में अधिक उत्पादन का संकट पैदा हुआ। इससे 30 लाख मजदूर बेकार हो गये। पुरुष मजदूरों का कार्यदिवस 15 घंटे प्रतिदिन था। महिलाओं के लिये यह 10 से 12 घंटे प्रतिदिन था। किंतु पुरूषों के मुकाबले महिलाओं की मजदूरी आधी थी। मजदूरों की औसत आयु मात्र 30 वर्ष थी। एक मजदूर की वार्षिक आय मात्र 559 डालर था, जबकि जीवन-निर्वाह व्यय उन दिनों 735 डालर था, पूंजीपतियों के विशाल मुनाफे के सामने मजदूरों की यह दर्दनाक स्थिति थी।
    मजदूरों के कई संगठन थे जिनमें अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर (एएफएल) अत्यंत लोकप्रिय था। इसने 1886 को आठ घंटे के कार्य दिन हासिल करने का वर्ष घोषित किया। मई महीने में हड़ताल करने की योजना बनायी गयी। इसकी तैयारी में सभाएं आयोजित की जाने लगी। एएफएल ने अपने बयानों में कहा कि मजदूर यह मांग शांतिपूर्ण तथा कानूनी तरीके से हासिल करना चाहते हैं और इसके लिये वे कुर्बानियां देंगे। लेकिन अप्रैल के अंत तक कारखाना मालिकों ने अमेरिकी सरकार, सेना और पुलिस के सहयोग से मजदूरों पर क्रूर हमले शुरू कर दिया। ‘शिकागो मेल’ ने 1 मई 1886 के अपने अग्रलेख में लिया - ‘‘दो खतरनाक हत्यारे, दो कायर, जो दूसरों की पीठ में छुपे हुए हैं और गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं, नगर में आराम से घूम रहे हैं। उनके नाम हैं अलबर्ट पार्सन्स और अगस्त श्पीस। और अगर कोई गड़बड़ी शुरू हो जाती है तो समस्त ईमानदार नागरिकों को दूसरों के लिये मिसाल के तौर पर उन्हें दबोच लेना चाहिये।’’ शिकागो के अखबारों ने हड़तालों तथा प्रदर्शन में भाग लेने वालों को, ‘अव्यवस्था फैलाने वालों’ को निर्मतापूर्वक कुचल देने तथा बड़े पैमाने पर बर्खास्त करे की धमकी दी।
पहली और दूसरी नई शांतिपूर्ण
पहली मई 1886 को शिकागो की सड़कें हथियार बंद सैनिकों और पुलिसमैनों से भरी थी। फिर भी उस दिन ही हड़ताल युगांतकारी घटना साबित हुई। इस हड़ताल की तैयार काफी लंबे समय से की गयी थी। इतिहास में पहली बार मेहनतकशों ने मजदूरी वगै के संयुक्त प्रदर्शन की जबर्दस्त क्रान्ति को अनुभव किया, जिसके विरूद्ध सत्ता बल प्रयोग करने का साहस नहीं कर सकी। अमेरिका में उस दिन एक भी बड़ा शहरी नहीं था। जहां सर्वहाराओं ने 8 घंटे के कार्यदिवस के पक्ष में हड़ताल या प्रदर्शन न किये हों, कुल मिलाकर उस दिन पांच लाख से अधिक लोगों की हड़ताल थी।
    पहली मई को शिकागो के दो तिहाई से ज्यादा कारखाने बंद थे। शहर का व्यापारिक कारोबार पूर्णतः ठप हो गया। सभी दूकानें बंद थीं और बैंक आदि वित्तीय काम उस दिन बिल्कुल नहीं हुए। शहर के चालीस हजार मजदूर हड़ताल पर गये। जुलूस एवं सभाएं पूर्णतः अनुशासित ढंग से होती थी। पहली और दूसरी मई, दो दिन शांतिपूर्वक गुजर गये। हथियारबंद सैनिक, घुड़सवार, पुलिस, सशस्त्र जवान, मालिकान के निजी सैनिक, गुंडे सभी आदेश की प्रतीक्षा में थे। किन्तु मजदूरों की विशाल एकता और अनुशासन को देखकर उन्हे छेड़ने की हिम्मत नहीं हुई।
3 मई: मैकार्मिक की साजिश
    दो दिन बाद, सोमवार 3 मई, 1886 को उद्योगपतियों ने जवाबी कार्रवाई शुरू की। एलान किया गया कि उन सबों को काम से हटा दिया जायेगा जिन्होंने हड़ताल में भाग लिया था। मैकार्मिक एक बदनाम और बदमाश उद्योगपति था। उसने अपने फार्म मशीनरी कारखाने में तीन सौ हड़ताल तोड़कों को पुलिस के संरक्षण में घुसाने का प्रयत्न किया। यह उकसावे की साजिश थी। इन हड़ताल तोड़कों और पुलिस का मुकाबला करने के लिये मजदूरों ने पास के लकड़ी के गोदामों को अपने अन्य हडताली साथियों के सहयोग से विरोध प्रदर्शन किया। पुलिस ने निहत्थे मजदूरों पर पहले सुविचारित तरीके से गोलियां चला दी। छः मजदूर मारे गये और अनेक घायल हुए।
    यह अपराध निस्सन्देह पुलिस की उकसावा भरी कार्रवाई थी। हड़ताली नेता अगस्त श्पीस ने उसी दिन एक पर्चा छापकर उस घटना की निंदा की और मालिकों तथा पुलिस को ‘हत्यारे’ की संज्ञा दी। अगस्त श्पीस ने मजदूरों को सम्बोधित करते हुए कहा-
    ‘‘तुम्हारे मालिकों ने खून के प्यासे पुलिस को भेजा- उसने मैकार्मिक कारखाने के तुम्हारे छः भाइयों को आज की दोपहर मार डाला। उसने उन गरीब अभागे को इसलिये मार दिया क्योंकि उन्होंने तुम्हारे तरह ही मालिकों की परम इच्छा की अवज्ञा करने का सहारा किया था। उसने इसलिये मार दिया क्योंकि उन्होंने (मजदूरों ने) काम के कठिन घंटों को कम करने की मांग की थी यह दिखाने के लिये, आप जैसे ‘आजाद अमेरिकन नागरिकों’ को यह बताने के लिये उसने मार दिया कि आपको उतने से ही संतोष करना है, खुश रहना है जितना वे (मालिक) उसकी मंजूरी अपनी मर्जी से देंगे अन्यथा आप मार दिये जायेंगे।’’
4 मई: हे मार्केट की दुखद संध्या
    3 मई के गोलीकाण्ड और मजदूरों की नृशंस हत्या के विरोध में 4 मई 1886 की 7ः30 बजे संध्या शिकागो के मशहूर चौक के मार्केट स्क्वायर में शोक सभा का आयोजन किया गया। तीन हजार मजदूर सभा में जमा हुए। सभा पूर्णतः शांतिपूर्ण थी। सभा में अगस्त श्पीस ने हड़ताल और पिछले 48 घंटों की घटनाओं का जिक्र करते हुए कहा:-
    ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकारी समझते हैं कि यह सभा तोड़फोड़ की कार्रवाई और हंगामे के लिये बुलायी गयी है जिसे हमारे भाइयों की हत्या के लिये जिम्मेदार अवश्य ही ठहराया जायेगा। आज इस शहर में चालीस से पचास हजार मजदूर तालाबंदी के शिकार हैं क्योंकि उन्होंने चंद व्यक्तियों की ‘परम इच्छा’ का पालन करने से इन्कार कर दिया है। पचीस हजार से तीस हजार मजदूरों के परिवार आज भुखमरी के शिकार हैं। क्योंकि उनके पिता बड़े पैमाने पर चंद चोरों के हुकुम का पालने करने से इंकार कर दिया है।’’
    सभा में अलबर्ट पार्सन्स एवं अन्य मजदूर नेताओं के भाषण हुए। शिकागो नगर के मेयर कार्टर हैरिसन जो सभा में मौजूद थे, ने बाद में अपनी गवाही में कोर्ट को बताया कि वक्ताओं ने पूंजी के खिलाफ तगड़ा भाषण दिया, किंतु उनमें किसी ने भी हिंसा के इस्तेमाल की बात नहीं की। अन्तिम वक्ता थे सेमुअल फील्डेन जो शिकागो के समाजवादी नेता थे। उस समय वर्षा आरम्भ हो गयी थी और श्रोताओं में आधे से अधिक जा चुके थे। सभा अब समाप्त होने की थी कि बड़ी संख्या में पुलिस पहुंच गयी और उसने सभा मंच के नजदीक पोजीशन ले लिया। दो सौ पुलिस के जवानों ने तो पहले से ही पोजीशन ले रखा था। मेयर हैरिसन जब वापस लौट रहे थे तो रात के दस बज रहे थे। मेयर ने लौटते समय पुलिस थाना जाकर कैप्टन बोनफील्ड को बताया कि सभा शांतिपूर्ण चल रही है। इसलिये पुलिस हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। कैप्टन बोनफील्ड ने भी इसे स्वीकार कियां। किन्तु अब भी पुलिस बल भेजा गया।
    चंद मिनटों में सब कुछ हो गया। एक पुलिस अधिकारी ने मंच के नजदीक जाकर सभा तुरन्त खत्म करने का आदेश दिया। फील्डेन को मंच से नीचे घसीट कर गिरा दिया गया। वे केवल इतना ही बोल सके ‘‘हम लोग शान्तिपूर्ण हैं’’ कि योजनानुसार मालिक के एक ‘दलाल’ ने दूर से हवा में एक बम फेंका। बम गिरते ही फट गया जिससे एक पुलिस का आदमी मर गया और कुछ घायल हो गये। फिर क्या था पुलिस ने अन्धाधुन्ध गोलियों की वर्षा शुरू कर दी। दस मजदूर मारे गये और 200 से अधिक घायल हुए। चंद सैकंडों में ही सभा स्थल खाली हो गया। लोग आतंकित होकर इधर-उधर भाग गये। इसे ही शासकों ने ‘‘हे मार्केट का दंगा’’ की संज्ञा दी जबकि लोग पूर्णतः शांतिपूर्ण थे। सरकार ने मजदूर नेताओं की गिरफ्तारियां और न्यायालय में ‘हे मार्केट कांड’ के नाम से मुकद्दमे की सुनवाई का नाटक प्रारम्भ किया।
झूठा मुकद्मा
    उन दिनों शिकागो की पुलिस दमन और आतंक के लिये उतने ही बदनाम थे जितने मालिकान। व्यक्त्गित स्वतंत्रता और सुरक्षा का दम भरने वाले अमेरिका देश में मजदूरों को पुलिस के बूटों के नीचे कुचल दिया गया। पुलिस राज कायम हो गया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ और छापेमारी हुई। जिन लोगों ने भी मजदूरों की सहानुभूति में कुछ बोलने का साहस किया वे गिरफ्तार किये गये। मजदूरों को एक जगह इकट्ठा होने पर पाबंदी लगा दी गयी। शहर में सेना का परेड होने लगा।
    मजदूर नेता अल्बर्ट पार्सन्स, अगस्त श्पीस, सैमुअल फील्डेन, मिखालय श्क्वाब, आसकर नीबे, अडोल्फ फिशर, जार्ज इंगेल और लुईस लींग को जेल में बंद कर दिया गया। पुलिस अल्बर्ट पार्सन्स को गिरफ्तार नहीं कर सकी थी। जब उनके अन्य साथी गिरफ्तार कर लिये गये तो वे भी कोर्ट में स्वयं हाजिर हो गये। उन्होंने अपने साथियें के साथ जुड़े रहना उचित समझा। उन्होंने कहा, मैं जानता हूँ ये लोग मुझे मार डालेंगे। किंतु यह जानकर कि मेरे साथी यहां हैं मैं बाहर आजाद नहीं घूम सकता था। मेरे साथी जो यहां गिरफ्तार कर लाये गये हैं उन्हें वैसा कुछ करने के लिये सताया जा रहा है जिसके ये दोषी नहीं हैं। उसी तरह मैं भी दोषी नहीं हूँ।’’
    इन लोगों पर बाजाप्ता मुकद्दमा चलाकर झूठा अभियोग लगाया गया कि पुलिस की हत्या करने के लिये लोगों को भड़काया। सही माने मैं तो इन पर इनके राजनीतिक विचारों के लिये मुकद्दमा चलाया जा रहा था। अटर्नी जनरल जोशिया ग्रीमेल ने शोख अन्दाज में न्यायालय से मांग की-
    ‘ये लोग उन हजारों से कम कसूरदार नहीं हैं। जिन्होंने इनकी बातों का अनुसरण किया। इन्हे सजा दीजिए, ऐसी सजा जो एक उदाहरण हो। इन्हें फांसी दीजिए और इस प्रकार आप हमारी संस्था और समाज की रक्षा कीजिए।’
    इस फाँसी की सजा पर प्रति़िक्रया व्यक्त करते हुए उसी समय शिकागो के एक धनी व्यापारी ने कहा- ‘नहीं, मैं नहीं समझता हूँ कि ये लोग किसी अपराध के दोषी हैं। लेकिन इन्हे फांसी पर अवश्य लटकाया जाना चाहिये। मुद्रा अराजकता की चिंता नहीं हैं। यह तो कुछ लोगों की, कुछ ही पागल दार्शनिकों की दिमागी फितूर हैं। फिर भी मैं जरूर चाहता हूँ कि मजदूर आंदोलन को पूरी तरह कुचल दिया जाय।’
    20 अगस्त 1886 को न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। यद्यपि के सभी के सभी पूर्ण निर्दोष थे, किंतु मालिकानों के घूस खाये जजों ने झूठी गवाहियों के बल पर सात नेताओं को फांसी और एक आस्कर नींव को 15 वर्षों का कारावास की सजा दी। सुप्रीम कोट और फेडरल कोर्ट में अपील की गयी, किंतु वहां भी सजा बहाल रखी गयी।
आजादी के खिलाफ साजिश
    न्यायालय ने श्पीस ने बुलंदी से कहा - ‘‘पूंजीपति अगर सोचते हैं कि नेताओं को फांसी देने से मजबूर आंदोलन दब जाएगा वह आंदोलन जिसमें करोड़ो शोषित, पीड़ित, दलित अपनी मुक्ति की आकांक्षा से शरीक है, जन आंदोलन बन गया है। यह दबेगा नहीं। नेताओं को फांसी दीजिए तब भी यह आगे बढ़ेगा।’ श्पीस ने आगे कहा-
    ‘पूंजीपति अपनी इस कार्रवाई से एक चिंगारी को बुझा सकते हैं, लेकिन जो आग सब जगह धधक रही है उसे बुझाना असंभव है।’’
    अलबर्ट पार्सन्स ने अपने जानदार बयान मे साबित किया कि पूरा मामला आजादी के खिलाफ शिकागो के करोड़पतियों के पैसों से रची गयी एक साजिश है।
    शिकागो की घटनाओं की खबर दुनिया भर में फैल गयी। श्रम और स्वतंत्रता के पक्ष में किये जा रहे संघर्ष के लिये यातनाओं के प्रति संपूर्ण विश्व में सहानुभूति उमड़ पड़ी। इलिनीयस के गवर्नर को दुनिया भर से अनेक महापुरूषों और संगठनों के तार मिले जिसमें सजा को माफ करने की अपील की गयी। इनमें चार्ज बर्नाड शा,  फ्रेंच चेंबर ऑफ डिपुटी, म्युनिसपल काउंसिंल ऑफ पेरिस, इटली, फ्राँस, रूस, स्पेन आदि देशों के मजदूर संगठनों के नाम प्रमुख हैं।
नवंबर 11, 1887: फाँसी
    संपूर्ण दुनिया की आवाज को अनसुना कर शैलीशाहों के आदेश पर अलबर्ट पार्सन्स, अगस्त श्वीस, अडोल्फ फिशर और जार्ज इंगेल को 11 नवंबर 1887 को फांसी दे दी गयी। सैमुअल फील्डेन और मिखायल श्क्वाव के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में गवर्नन के आदेश से बदल दिया गया। लूइस लींग की मृत्यु जेल में 10 नवंबर 1887 को रहस्यमय ढंग से हो गयी। उनके मुंह में बारूद की सलाखें पायी गयी। इसके मजबूत संदेह है कि जेल में उनकी हत्या कर दी गयी।
    प्रख्यात अमेरिकी लेखक विलियन डील हावेल्स (1137-1920) ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून मे लिखा - ‘‘इस स्वतंत्र गणराज्य ने पांच लोगों को मात्र उनके विचारों के लिये मार दिया है। इस हत्या से देश की प्रतिष्ठा को भारी नुकसान पहुँचा है।’’
    फाँसी पर झूलते हुए अलबर्ट पार्सन्स ने तेज आवाज में चेतावनी दी - ‘‘ओ अमेरिका के लोगों, जनता की आवाज सुनने दो.....।’’ फाँसी के तख्ते से अगस्त श्पसी ने घोषणा की ‘‘तुम मेरी आवाज को घोंट सकते हो, किंतु एक दिन आएगा जब............. मौन ज्यादा ताकतवर साबित होगा, बनिस्पत इस आवाज के जिसे आज तुम घोंट रहे हो।
न्याय प्रक्रिया का घोर उल्लंघन
    आखिर सत्य की जीत हुई। 26 जुलाई 1893 को गवर्नर जॉन पी अल्सेबेल्द ने जेल काट रहे फील्डेन और श्क्वाब को रिहा करते हुए अपने संदेश में लिखा - ‘‘मुकद्दमा झूठी गवाहियों के आधार पर चलाया गया था। अपने साथियों (जो फांसी चड़े गये) की भांति ये लोग (फील्डेन और श्क्वाब) भी निर्दोष हैं और उन पर जो मुकद्दमा चलाया गया था वह न्यायपालिका की प्रक्रिया का घोर उल्लंघन था।’
    फाँसी के तख्ते से शिकागो के शहीदों की कही गयी उपर्युक्त बातों के आज सवा सौ साल से ज्यादा हो गये। अलबर्ट पार्सन्स ने अपने जीवन में पूंजीवाद को नाश होते नहीं देखा किंतु दुनिया के ज्यादा हिस्से में पार्सन्स का सपना सच्चाई बनकर फैल गया है। अमेरिकी धन्ना सेठों ने उस समय पार्सन्स एवं अन्य शहीदों की आवाज को कुचल दिया। किंतु आज दुनिया में कहीं भी उन शहीदों की आवाज सुनी जा सकती हैं। आज श्रमजीवी-जनगण की आवाज अनसुनी नहीं की जा सकती।
    दमन की नृशंसता मजदूर आंदोलन को कभी भी निरूत्साहित नहीं कर सकेगी। दमन ने उल्टा मजदूर आंदोलन को हमेशा ही वेग प्रदान किया है। शहीदों के हाथों से गिरते परचम को उठाने के लिये नये शहीदों की टोलियां लपकती जा रही हैं। गोलियां और आतंक कभी भी शहादत की अटूट परंपरा को तोड़ नहीं सकी। मजदूरों का कारवां बढ़ता ही गया, बढ़ता ही जा रहा है, और बढ़ता ही जाएगा अंतिम विजय के लिये।
- सत्य नारायण ठाकुर