संयुक्त राज्य अमेरिका साम्राज्यवादी, आक्रमणकारी, विस्तारवादी और पूंजीवादी खुशहाली का आदर्श के रूप में जाना जाता रहा है। अमेरिका का नाम आते ही वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान सरीखे देशों देशों पर क्रूर नृशंस हमने करने वाला खौफनाक हमलावर देश की तस्वीर हर किसी के मस्तिष्क में सहसा उभरती है। प्राचीन सभ्यता का अमेरिकी इतिहास भले ही नहीं हो, आधुनिक औद्योगिक युग और अत्याधुनिक उत्तर औद्येागिक का प्रतिनिधित्व करने से उसे कौन रोकेगा? जब मजदूर आंदोलन की बात आती है तो शिकागो के शहीदों की याद आती है, जब नारी आंदोलन की चर्चा होती है तो अमेरिकी गारमेंट फैक्टरी की महिला श्रमिकों के शौर्य सामने आते हैं। अभी पिछले वर्ष ही पूंजीवादी खुशहाली के अपने ही अमेरिकी मॉडेल को ध्वस्त करने का श्रेय न्यूयार्क के ‘वालस्ट्रीट कब्जा करो’ आंदोलन के अमेरिकी युवक-युवतियों को जाता है, जिसने अमेरिकी समाज की विषमता को यही नहीं कि ताकतवर तरीके 99 बनाम 1 प्रतिशत का वर्गयुद्ध बताकर बेपर्द किया, बल्कि समस्त विश्व की नयी पीढ़ी को इस भयावह आर्थिक विषमता के विरुद्ध सड़कों पर उतरने के लिए अनुप्रेरित किया।
आज वित्तपूंजी की अनुत्पादक करतूतें और आधुनिक वैज्ञानिक एवं सूचना तकनीकी क्रांति से सब कुछ उलटपुलटकर रख दिया है। इसने उत्पादन प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन किया है और समाज के सामने नयी चुनौतियां पेश की हैं। कार्यदिवस कम करने का मुद्दा इन चुनौतियों में आज पिछले किसी भी जमाने से ज्यादा प्रासंगिक हो गया है। सूचना तकनीकी क्रान्ति के नये उद्योग काल सेंटरों में कर्मचारियों से 10 घंटे और 12 घंटे काम कराया जाता है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के अधीन कार्यरत वी वी गिरी श्रम अध्ययन संस्थान द्वारा कराये गये सर्वेक्षण में दर्ज किया गया है कि नोएडा स्थित काल सेंटरों में कर्मचारियों के साथ रोमन साम्राज्य के दासों जैसा बर्ताव किया जाता है। आईसीआईसीआई जैसे वित्तीय कारोबार करने वाले बैंकों से सम्बद्ध कर्मचारियों का कार्यदिन अमूमल 10 घंटे और ज्यादा है। कोई 77 वर्ष पहले जून 1935 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने इस श्रम समस्य को निम्न प्रकार दर्ज किया:
‘‘इस तथ्य पर विचार करते हुए कि बेरोजगारी, जो इतने बड़े पैमाने पर फैली है और लंबे समय तक जारी रहेगी, जिसके चलते करोड़ों लोग समस्त संसार में कठिन और अभावपूर्ण जीवन जी रहे हैं और जिसके लिए वे स्वयं जिम्मेदार नहीं हैं, यह न्यायपूर्ण बात है कि उन्हें अभाव ओर कठिनाई से मुक्त किया जाय।’’
‘‘तेजी से हो रहे तकनीकी विकास के लाभ में जहां तक हो, मजदूरों को भी हिस्सा दिया जाय।’’
(कन्वेंशन संख्या 47)
आईएलओ दुनिया की सभी सरकारों, नियोजकों और मजदूर संगठनों का शीर्ष निकाय है। इसने 77 वर्ष पहले 1935 में इस तथ्य को दर्ज किया कि संसार के करोड़ों लोगों के अभाव और कठिन जीवन का जिम्मेदार आम आदमी नहीं है और प्रस्ताव किया कि जिस तकनीकी विकास को पूंजीपतियों ने हथिया रखा है, उसका लाभ मजदूरों को भी मिलना चाहिए।
पिछले वर्षों में यूरोप, अमेरिका सहित आस्ट्रेलिया एवं भारत में भी अनेक बड़ी एवं अभूतपूर्व हड़तालें हुईं। उनकी समान मांगें थीं-विश्व मंदी के संकट के वे जिम्मेदार नहीं है, फिर उनके पगार क्यों काटे जा रहे हैं? बैंकों के दिवालिया होने के वे गुनाहगार नहीं हैं, फिर उनकी सामाजिक सुरक्षा एवं सहूलियतें क्यों छिनी जा रही हैं? उन्हें क्या ज्यादा घंटे कम करने को विवश किया जा रहा है, जबकि उद्योगपतियों को ‘बेलआउट’ पेैकेज दिये जाते हैं। गुनाहगारों को ‘बेटआउट’ रिहा किया जा रहा है, किंतु बेगुनाहों को सजा दी जा रही है। क्या यही सामाजिक न्याय है? क्या इसे और सहन किया जाएगा?
वर्ष 2012 के मई दिवस के मौके पर हम इन चुनैतियें का सामना करने का संकल्प लेंगे। इस मौके पर हमें मई दिवस का इतिहास ताजा कर लेना अप्रासांगिक नहीं होगा। संक्षेप में आगे हम देखेंगे कि सवा सौ साल पहले घटित मई दिवस की घटनाओं की क्या पृष्ठभूमि थी।
हे मार्केट
जार्ज वांिशंगटन से लेकर थियोडोर रूजवेल्ट तक जो अमेरिका के प्रेसीडेण्ट हुए उनमें आठ फौजी जनरल थे। जार्ज वाशिंगटन स्वाधीनता संग्राम में अमेरिकी सेना के सेनापति थे। वे संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति पद पर आसीन रहे। इसी तरह जनरल एन्ड्रयू जैकसन, टेलर, फ्रैंकलिन, रूजबेल्ट, आर्थर, बेंजामिन, ककिनली आदि बड़े सैनिक अफसर थे जो राष्ट्रपति बने। इन नेताओं ने बड़े-बड़े सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया।
संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा दूसरे देशों की भूमि दखल करना और उनके घरेलू मामले में हस्तक्षेप करने की लंबी परंपरा है। सन् 1776 में जब सं.रा. अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा हुई थी तो अतलांतिक महासागर के तट पर 133 उपनिवेशों की क्षेत्रफल केवल 3,86,000 वर्ग मील था। सैनिक कार्रवाई के बाद वार्सेल्स संधि (1783) और लूईसियाना का कब्जा कर लेने के बाद 1803 में क्षेत्रफल दूना हो गया। फ्लोरिडा को 1818 में, टेक्सास को 1836 में एकतरफा संयुक्त राज्य में मिला लिया गया। टेक्सास मैक्सिको का अंग थ। अमेरिका ने इस देश की आधी भूमि अर्थात् 5,58,400 वर्ग मील की विशाल भूमि हथिया ली। 1847 में ओरगान के विशाल भू-भाग 2,85,000 वर्ग मील पर कब्जा कर लिया। 1867 में अलास्का को खरीदने की संधि हुई जिसके जरिये 5,77,400 वर्ग मीन का विशाल भूखंड अमेरिका को मात्र 72 लाख डालर में मिल गया। इस तरह 1776 के मुकाबले 1880 में सं.रा. अमेरिका की जमीन दस गुना बढ़ गयी थी।
यही नहीं, औद्योगिक क्षेत्र में भयंकर विकास हुआ। 1870 के मुकाबले शताब्दी के अन्तिम दशक आते-आते लोहे का उत्पादन आठ गुना, इस्पात का उत्पादन 150 गुना और कोयले का उत्पादन आठ गुना बढ़ गया। हर प्रकार के औद्योगिक उत्पादन का सतर चार गुना ऊँचा हो गया। 1,40,000 मील रेलवे लाइन बिछाई गयी। इसी भांति खेती का भी तेज विकास हुआ। दो मूल अनाजों गेहूँ और मक्का की उपज दूनी हो गयी। अमेरिका अनाज और मांस की आपूर्ति करने वाला दुनिया का प्रथम देश बन गया। 1870 से 1900 ईस्वी के बीच विज्ञान और औद्योगिक तकनीकी आविष्कार 6,76,000 फार्मूले निबंधित किये गये थे। योरप की विशाल पूंजी सं0 रा0 अमेरिका में जमा हो रही थी।
1882 में अधिक उत्पादन का संकट पैदा हुआ। इससे 30 लाख मजदूर बेकार हो गये। पुरुष मजदूरों का कार्यदिवस 15 घंटे प्रतिदिन था। महिलाओं के लिये यह 10 से 12 घंटे प्रतिदिन था। किंतु पुरूषों के मुकाबले महिलाओं की मजदूरी आधी थी। मजदूरों की औसत आयु मात्र 30 वर्ष थी। एक मजदूर की वार्षिक आय मात्र 559 डालर था, जबकि जीवन-निर्वाह व्यय उन दिनों 735 डालर था, पूंजीपतियों के विशाल मुनाफे के सामने मजदूरों की यह दर्दनाक स्थिति थी।
मजदूरों के कई संगठन थे जिनमें अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर (एएफएल) अत्यंत लोकप्रिय था। इसने 1886 को आठ घंटे के कार्य दिन हासिल करने का वर्ष घोषित किया। मई महीने में हड़ताल करने की योजना बनायी गयी। इसकी तैयारी में सभाएं आयोजित की जाने लगी। एएफएल ने अपने बयानों में कहा कि मजदूर यह मांग शांतिपूर्ण तथा कानूनी तरीके से हासिल करना चाहते हैं और इसके लिये वे कुर्बानियां देंगे। लेकिन अप्रैल के अंत तक कारखाना मालिकों ने अमेरिकी सरकार, सेना और पुलिस के सहयोग से मजदूरों पर क्रूर हमले शुरू कर दिया। ‘शिकागो मेल’ ने 1 मई 1886 के अपने अग्रलेख में लिया - ‘‘दो खतरनाक हत्यारे, दो कायर, जो दूसरों की पीठ में छुपे हुए हैं और गड़बड़ी पैदा कर रहे हैं, नगर में आराम से घूम रहे हैं। उनके नाम हैं अलबर्ट पार्सन्स और अगस्त श्पीस। और अगर कोई गड़बड़ी शुरू हो जाती है तो समस्त ईमानदार नागरिकों को दूसरों के लिये मिसाल के तौर पर उन्हें दबोच लेना चाहिये।’’ शिकागो के अखबारों ने हड़तालों तथा प्रदर्शन में भाग लेने वालों को, ‘अव्यवस्था फैलाने वालों’ को निर्मतापूर्वक कुचल देने तथा बड़े पैमाने पर बर्खास्त करे की धमकी दी।
पहली और दूसरी नई शांतिपूर्ण
पहली मई 1886 को शिकागो की सड़कें हथियार बंद सैनिकों और पुलिसमैनों से भरी थी। फिर भी उस दिन ही हड़ताल युगांतकारी घटना साबित हुई। इस हड़ताल की तैयार काफी लंबे समय से की गयी थी। इतिहास में पहली बार मेहनतकशों ने मजदूरी वगै के संयुक्त प्रदर्शन की जबर्दस्त क्रान्ति को अनुभव किया, जिसके विरूद्ध सत्ता बल प्रयोग करने का साहस नहीं कर सकी। अमेरिका में उस दिन एक भी बड़ा शहरी नहीं था। जहां सर्वहाराओं ने 8 घंटे के कार्यदिवस के पक्ष में हड़ताल या प्रदर्शन न किये हों, कुल मिलाकर उस दिन पांच लाख से अधिक लोगों की हड़ताल थी।
पहली मई को शिकागो के दो तिहाई से ज्यादा कारखाने बंद थे। शहर का व्यापारिक कारोबार पूर्णतः ठप हो गया। सभी दूकानें बंद थीं और बैंक आदि वित्तीय काम उस दिन बिल्कुल नहीं हुए। शहर के चालीस हजार मजदूर हड़ताल पर गये। जुलूस एवं सभाएं पूर्णतः अनुशासित ढंग से होती थी। पहली और दूसरी मई, दो दिन शांतिपूर्वक गुजर गये। हथियारबंद सैनिक, घुड़सवार, पुलिस, सशस्त्र जवान, मालिकान के निजी सैनिक, गुंडे सभी आदेश की प्रतीक्षा में थे। किन्तु मजदूरों की विशाल एकता और अनुशासन को देखकर उन्हे छेड़ने की हिम्मत नहीं हुई।
3 मई: मैकार्मिक की साजिश
दो दिन बाद, सोमवार 3 मई, 1886 को उद्योगपतियों ने जवाबी कार्रवाई शुरू की। एलान किया गया कि उन सबों को काम से हटा दिया जायेगा जिन्होंने हड़ताल में भाग लिया था। मैकार्मिक एक बदनाम और बदमाश उद्योगपति था। उसने अपने फार्म मशीनरी कारखाने में तीन सौ हड़ताल तोड़कों को पुलिस के संरक्षण में घुसाने का प्रयत्न किया। यह उकसावे की साजिश थी। इन हड़ताल तोड़कों और पुलिस का मुकाबला करने के लिये मजदूरों ने पास के लकड़ी के गोदामों को अपने अन्य हडताली साथियों के सहयोग से विरोध प्रदर्शन किया। पुलिस ने निहत्थे मजदूरों पर पहले सुविचारित तरीके से गोलियां चला दी। छः मजदूर मारे गये और अनेक घायल हुए।
यह अपराध निस्सन्देह पुलिस की उकसावा भरी कार्रवाई थी। हड़ताली नेता अगस्त श्पीस ने उसी दिन एक पर्चा छापकर उस घटना की निंदा की और मालिकों तथा पुलिस को ‘हत्यारे’ की संज्ञा दी। अगस्त श्पीस ने मजदूरों को सम्बोधित करते हुए कहा-
‘‘तुम्हारे मालिकों ने खून के प्यासे पुलिस को भेजा- उसने मैकार्मिक कारखाने के तुम्हारे छः भाइयों को आज की दोपहर मार डाला। उसने उन गरीब अभागे को इसलिये मार दिया क्योंकि उन्होंने तुम्हारे तरह ही मालिकों की परम इच्छा की अवज्ञा करने का सहारा किया था। उसने इसलिये मार दिया क्योंकि उन्होंने (मजदूरों ने) काम के कठिन घंटों को कम करने की मांग की थी यह दिखाने के लिये, आप जैसे ‘आजाद अमेरिकन नागरिकों’ को यह बताने के लिये उसने मार दिया कि आपको उतने से ही संतोष करना है, खुश रहना है जितना वे (मालिक) उसकी मंजूरी अपनी मर्जी से देंगे अन्यथा आप मार दिये जायेंगे।’’
4 मई: हे मार्केट की दुखद संध्या
3 मई के गोलीकाण्ड और मजदूरों की नृशंस हत्या के विरोध में 4 मई 1886 की 7ः30 बजे संध्या शिकागो के मशहूर चौक के मार्केट स्क्वायर में शोक सभा का आयोजन किया गया। तीन हजार मजदूर सभा में जमा हुए। सभा पूर्णतः शांतिपूर्ण थी। सभा में अगस्त श्पीस ने हड़ताल और पिछले 48 घंटों की घटनाओं का जिक्र करते हुए कहा:-
‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकारी समझते हैं कि यह सभा तोड़फोड़ की कार्रवाई और हंगामे के लिये बुलायी गयी है जिसे हमारे भाइयों की हत्या के लिये जिम्मेदार अवश्य ही ठहराया जायेगा। आज इस शहर में चालीस से पचास हजार मजदूर तालाबंदी के शिकार हैं क्योंकि उन्होंने चंद व्यक्तियों की ‘परम इच्छा’ का पालन करने से इन्कार कर दिया है। पचीस हजार से तीस हजार मजदूरों के परिवार आज भुखमरी के शिकार हैं। क्योंकि उनके पिता बड़े पैमाने पर चंद चोरों के हुकुम का पालने करने से इंकार कर दिया है।’’
सभा में अलबर्ट पार्सन्स एवं अन्य मजदूर नेताओं के भाषण हुए। शिकागो नगर के मेयर कार्टर हैरिसन जो सभा में मौजूद थे, ने बाद में अपनी गवाही में कोर्ट को बताया कि वक्ताओं ने पूंजी के खिलाफ तगड़ा भाषण दिया, किंतु उनमें किसी ने भी हिंसा के इस्तेमाल की बात नहीं की। अन्तिम वक्ता थे सेमुअल फील्डेन जो शिकागो के समाजवादी नेता थे। उस समय वर्षा आरम्भ हो गयी थी और श्रोताओं में आधे से अधिक जा चुके थे। सभा अब समाप्त होने की थी कि बड़ी संख्या में पुलिस पहुंच गयी और उसने सभा मंच के नजदीक पोजीशन ले लिया। दो सौ पुलिस के जवानों ने तो पहले से ही पोजीशन ले रखा था। मेयर हैरिसन जब वापस लौट रहे थे तो रात के दस बज रहे थे। मेयर ने लौटते समय पुलिस थाना जाकर कैप्टन बोनफील्ड को बताया कि सभा शांतिपूर्ण चल रही है। इसलिये पुलिस हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। कैप्टन बोनफील्ड ने भी इसे स्वीकार कियां। किन्तु अब भी पुलिस बल भेजा गया।
चंद मिनटों में सब कुछ हो गया। एक पुलिस अधिकारी ने मंच के नजदीक जाकर सभा तुरन्त खत्म करने का आदेश दिया। फील्डेन को मंच से नीचे घसीट कर गिरा दिया गया। वे केवल इतना ही बोल सके ‘‘हम लोग शान्तिपूर्ण हैं’’ कि योजनानुसार मालिक के एक ‘दलाल’ ने दूर से हवा में एक बम फेंका। बम गिरते ही फट गया जिससे एक पुलिस का आदमी मर गया और कुछ घायल हो गये। फिर क्या था पुलिस ने अन्धाधुन्ध गोलियों की वर्षा शुरू कर दी। दस मजदूर मारे गये और 200 से अधिक घायल हुए। चंद सैकंडों में ही सभा स्थल खाली हो गया। लोग आतंकित होकर इधर-उधर भाग गये। इसे ही शासकों ने ‘‘हे मार्केट का दंगा’’ की संज्ञा दी जबकि लोग पूर्णतः शांतिपूर्ण थे। सरकार ने मजदूर नेताओं की गिरफ्तारियां और न्यायालय में ‘हे मार्केट कांड’ के नाम से मुकद्दमे की सुनवाई का नाटक प्रारम्भ किया।
झूठा मुकद्मा
उन दिनों शिकागो की पुलिस दमन और आतंक के लिये उतने ही बदनाम थे जितने मालिकान। व्यक्त्गित स्वतंत्रता और सुरक्षा का दम भरने वाले अमेरिका देश में मजदूरों को पुलिस के बूटों के नीचे कुचल दिया गया। पुलिस राज कायम हो गया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ और छापेमारी हुई। जिन लोगों ने भी मजदूरों की सहानुभूति में कुछ बोलने का साहस किया वे गिरफ्तार किये गये। मजदूरों को एक जगह इकट्ठा होने पर पाबंदी लगा दी गयी। शहर में सेना का परेड होने लगा।
मजदूर नेता अल्बर्ट पार्सन्स, अगस्त श्पीस, सैमुअल फील्डेन, मिखालय श्क्वाब, आसकर नीबे, अडोल्फ फिशर, जार्ज इंगेल और लुईस लींग को जेल में बंद कर दिया गया। पुलिस अल्बर्ट पार्सन्स को गिरफ्तार नहीं कर सकी थी। जब उनके अन्य साथी गिरफ्तार कर लिये गये तो वे भी कोर्ट में स्वयं हाजिर हो गये। उन्होंने अपने साथियें के साथ जुड़े रहना उचित समझा। उन्होंने कहा, मैं जानता हूँ ये लोग मुझे मार डालेंगे। किंतु यह जानकर कि मेरे साथी यहां हैं मैं बाहर आजाद नहीं घूम सकता था। मेरे साथी जो यहां गिरफ्तार कर लाये गये हैं उन्हें वैसा कुछ करने के लिये सताया जा रहा है जिसके ये दोषी नहीं हैं। उसी तरह मैं भी दोषी नहीं हूँ।’’
इन लोगों पर बाजाप्ता मुकद्दमा चलाकर झूठा अभियोग लगाया गया कि पुलिस की हत्या करने के लिये लोगों को भड़काया। सही माने मैं तो इन पर इनके राजनीतिक विचारों के लिये मुकद्दमा चलाया जा रहा था। अटर्नी जनरल जोशिया ग्रीमेल ने शोख अन्दाज में न्यायालय से मांग की-
‘ये लोग उन हजारों से कम कसूरदार नहीं हैं। जिन्होंने इनकी बातों का अनुसरण किया। इन्हे सजा दीजिए, ऐसी सजा जो एक उदाहरण हो। इन्हें फांसी दीजिए और इस प्रकार आप हमारी संस्था और समाज की रक्षा कीजिए।’
इस फाँसी की सजा पर प्रति़िक्रया व्यक्त करते हुए उसी समय शिकागो के एक धनी व्यापारी ने कहा- ‘नहीं, मैं नहीं समझता हूँ कि ये लोग किसी अपराध के दोषी हैं। लेकिन इन्हे फांसी पर अवश्य लटकाया जाना चाहिये। मुद्रा अराजकता की चिंता नहीं हैं। यह तो कुछ लोगों की, कुछ ही पागल दार्शनिकों की दिमागी फितूर हैं। फिर भी मैं जरूर चाहता हूँ कि मजदूर आंदोलन को पूरी तरह कुचल दिया जाय।’
20 अगस्त 1886 को न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। यद्यपि के सभी के सभी पूर्ण निर्दोष थे, किंतु मालिकानों के घूस खाये जजों ने झूठी गवाहियों के बल पर सात नेताओं को फांसी और एक आस्कर नींव को 15 वर्षों का कारावास की सजा दी। सुप्रीम कोट और फेडरल कोर्ट में अपील की गयी, किंतु वहां भी सजा बहाल रखी गयी।
आजादी के खिलाफ साजिश
न्यायालय ने श्पीस ने बुलंदी से कहा - ‘‘पूंजीपति अगर सोचते हैं कि नेताओं को फांसी देने से मजबूर आंदोलन दब जाएगा वह आंदोलन जिसमें करोड़ो शोषित, पीड़ित, दलित अपनी मुक्ति की आकांक्षा से शरीक है, जन आंदोलन बन गया है। यह दबेगा नहीं। नेताओं को फांसी दीजिए तब भी यह आगे बढ़ेगा।’ श्पीस ने आगे कहा-
‘पूंजीपति अपनी इस कार्रवाई से एक चिंगारी को बुझा सकते हैं, लेकिन जो आग सब जगह धधक रही है उसे बुझाना असंभव है।’’
अलबर्ट पार्सन्स ने अपने जानदार बयान मे साबित किया कि पूरा मामला आजादी के खिलाफ शिकागो के करोड़पतियों के पैसों से रची गयी एक साजिश है।
शिकागो की घटनाओं की खबर दुनिया भर में फैल गयी। श्रम और स्वतंत्रता के पक्ष में किये जा रहे संघर्ष के लिये यातनाओं के प्रति संपूर्ण विश्व में सहानुभूति उमड़ पड़ी। इलिनीयस के गवर्नर को दुनिया भर से अनेक महापुरूषों और संगठनों के तार मिले जिसमें सजा को माफ करने की अपील की गयी। इनमें चार्ज बर्नाड शा, फ्रेंच चेंबर ऑफ डिपुटी, म्युनिसपल काउंसिंल ऑफ पेरिस, इटली, फ्राँस, रूस, स्पेन आदि देशों के मजदूर संगठनों के नाम प्रमुख हैं।
नवंबर 11, 1887: फाँसी
संपूर्ण दुनिया की आवाज को अनसुना कर शैलीशाहों के आदेश पर अलबर्ट पार्सन्स, अगस्त श्वीस, अडोल्फ फिशर और जार्ज इंगेल को 11 नवंबर 1887 को फांसी दे दी गयी। सैमुअल फील्डेन और मिखायल श्क्वाव के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में गवर्नन के आदेश से बदल दिया गया। लूइस लींग की मृत्यु जेल में 10 नवंबर 1887 को रहस्यमय ढंग से हो गयी। उनके मुंह में बारूद की सलाखें पायी गयी। इसके मजबूत संदेह है कि जेल में उनकी हत्या कर दी गयी।
प्रख्यात अमेरिकी लेखक विलियन डील हावेल्स (1137-1920) ‘न्यूयार्क ट्रिब्यून मे लिखा - ‘‘इस स्वतंत्र गणराज्य ने पांच लोगों को मात्र उनके विचारों के लिये मार दिया है। इस हत्या से देश की प्रतिष्ठा को भारी नुकसान पहुँचा है।’’
फाँसी पर झूलते हुए अलबर्ट पार्सन्स ने तेज आवाज में चेतावनी दी - ‘‘ओ अमेरिका के लोगों, जनता की आवाज सुनने दो.....।’’ फाँसी के तख्ते से अगस्त श्पसी ने घोषणा की ‘‘तुम मेरी आवाज को घोंट सकते हो, किंतु एक दिन आएगा जब............. मौन ज्यादा ताकतवर साबित होगा, बनिस्पत इस आवाज के जिसे आज तुम घोंट रहे हो।
न्याय प्रक्रिया का घोर उल्लंघन
आखिर सत्य की जीत हुई। 26 जुलाई 1893 को गवर्नर जॉन पी अल्सेबेल्द ने जेल काट रहे फील्डेन और श्क्वाब को रिहा करते हुए अपने संदेश में लिखा - ‘‘मुकद्दमा झूठी गवाहियों के आधार पर चलाया गया था। अपने साथियों (जो फांसी चड़े गये) की भांति ये लोग (फील्डेन और श्क्वाब) भी निर्दोष हैं और उन पर जो मुकद्दमा चलाया गया था वह न्यायपालिका की प्रक्रिया का घोर उल्लंघन था।’
फाँसी के तख्ते से शिकागो के शहीदों की कही गयी उपर्युक्त बातों के आज सवा सौ साल से ज्यादा हो गये। अलबर्ट पार्सन्स ने अपने जीवन में पूंजीवाद को नाश होते नहीं देखा किंतु दुनिया के ज्यादा हिस्से में पार्सन्स का सपना सच्चाई बनकर फैल गया है। अमेरिकी धन्ना सेठों ने उस समय पार्सन्स एवं अन्य शहीदों की आवाज को कुचल दिया। किंतु आज दुनिया में कहीं भी उन शहीदों की आवाज सुनी जा सकती हैं। आज श्रमजीवी-जनगण की आवाज अनसुनी नहीं की जा सकती।
दमन की नृशंसता मजदूर आंदोलन को कभी भी निरूत्साहित नहीं कर सकेगी। दमन ने उल्टा मजदूर आंदोलन को हमेशा ही वेग प्रदान किया है। शहीदों के हाथों से गिरते परचम को उठाने के लिये नये शहीदों की टोलियां लपकती जा रही हैं। गोलियां और आतंक कभी भी शहादत की अटूट परंपरा को तोड़ नहीं सकी। मजदूरों का कारवां बढ़ता ही गया, बढ़ता ही जा रहा है, और बढ़ता ही जाएगा अंतिम विजय के लिये।
- सत्य नारायण ठाकुर