Saturday, April 30, 2011

कुरूक्षेत्र में होगा भारतीय खेत मजदूर यूनियन का 12वां राष्ट्रीय अधिवेशन


पानीपतः भारतीय खेत मजदूर यूनियन का 12वां राष्ट्रीय महाधिवेशन 11 से 14 अक्टूबर 2011 को कुरूक्षेत्र में आयोजित किया जायेगा, यह निर्णय 29 मार्च को भगतसिंह स्मारक, सभागार में सम्पन्न हरियाणा खेत मजदूर यूनियन के राज्य स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में लिया गया। कार्यकर्ता सम्मेलन की अध्यक्षता यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष जिले सिंह पाल ने की और संचालन यूनियन के प्रदेश महासचिव दरियाव सिंह कश्यम ने किया। ज्ञात हो हरियाणा खेत मजदूर यूनियन की भारतीय खेत मजदूर यूनियन की राज्य इकाई है, सम्मेलन में राज्य भर से आये सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय सचिव अमरजीत कौर ने कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि केन्द्र व राज्य सरकारे खेत मजदूरों के उत्थान के लिये ठोस कदम नहीं उठा रही, ग्रामीण गरीबों के लिये जा आधी-अधूरी योजनाएं चल रही हैं उनमंे भ्रष्टाचार का बोल-बाला है। उन्हांेने कहा कि आज देश में अरबपतियों-खरबपतियों की संख्या बढ़ रही है लेकिन गरीबों की संख्या में कमी नहीं आ रही। केन्द्रीय बजट की चर्चा करते हुए अमरजीत कौर ने कहा कि भारत गांवों में बसता है लेकिन इस बजट में ग्रामीण विकास एवं मनरेगा के लिये पिछले वर्ष के मुकाबले कम रकम आवंटित की गई है यह चिन्ता की बात है। उन्होंने कहा कि बी.के.एम.यू. के राष्ट्रीय सम्मेलन की तैयारी में जी-जान से जुटना होगा और खेत मजदूरों के बीच केन्द्र व राज्य सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ जनमत तैयार करना होगा।

भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव एवं पूर्व सांसद नागेन्दनाथ ओझा ने कहा कि बी.के.एम.यू. का राष्ट्रीय सम्मेलन कराने का बहुत बड़ा कार्य हरियाणा के साथियों ने अपने जिम्मे लिया है। उन्होंने कहा कि यह सम्मेलन यूनियन की 2010 की सदस्यता के आधार पर होगा। हमारी यूनियन की सदस्यता संख्या 15 लाख हैं इस सम्मेलन में असम, त्रिपुरा, उड़ीसा, तमिलनाडू, केरल, आंध्रप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल सहित देश के 25 राज्यों से 1000 से अधिक प्रतिनिधि शामिल होंगे। उन्होंने कहा कि भारतीय खेत मजदूर यूनियन ने मोगा में अपने स्थापना सम्मेलन से लगातार खेत मजदूरों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए अनेक आंदोलन चलाये हैं। कुरूक्षेत्र सम्मेलन खेत मजदूर आंदोलन को तेज करने में मददगार साबित होगा।

सम्मेलन केा हरियाणा एटक के महासचिव जयपाल, हरियाणा बैंक अम्पलाईज फैडरेशन के महासचिव एन.पी. मुंजाल, हरियाणा किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष सम्पूर्ण सिंह पुरी, महासचिव सतपाल सिंह बैनीवाल, सी.पी.आई. के प्रदेश सचिव रघबीर सिंह चौधरी ने भी सम्बोधित किया। रामकुमार मलिक, फकीर चन्द, प्र्रेमसिंह, गुरचरण सिंह, जिलेसिंह पाल, मन्जीत सिंह, रामदिया धीमान आदि ने भी सम्मेलन में विचार प्रकट किये और सम्मेलन की सफलता में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। सम्मेलन की तैयारी में मई और जून महीने में विशेष फंड संग्रह अभियान चलाने का निर्णय लिया गया। इस दौरान राज्य में 30 हजार परिवारों तक सम्पर्क किया जायेगा।

Thursday, April 28, 2011

डा. कमला प्रसाद - हमें हताश कर गया है उनका जाना


प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव प्रख्यात आलोचक डा. कमला प्रसाद का न रहना हिन्दी-उर्दू साहित्य तथा प्रगतिशील जनवादी सांस्कृतिक आन्दोलन के कार्यकर्ताओं-शुभचिन्तकों के लिए किसी बड़े आघात की तरह है। यह उनकी लोकप्रियता के कारण ही है कि उनके निधन के समाचार से व्यापक साहित्यिक सांस्कृतिक जगत में शोक की लहर दौड़ गयी। शोक की इस बेला में वैचारिक सांगठनिक सीमाएं बेमानी हो गयीं। उन्होंने बहुत कम समय में देश के सुदूर अंचलों तक जो लोकप्रियता अर्जित की थी, कठिन परिश्रम, निरन्तर सक्रियता तथा दृष्टिगत उदारता के बिना वह संभव नहीं है। उदारता जो वैचारिक विचलन का प्रमाण न हो। उन्हें “कमाण्डर” की प्यार भरी उपाधि इसी कारण मिल पायी कि वह सदैव रहनुमाई के लिए तैयार रहते। लक्ष्य की कठिनाई उन्हें हताश नहीं कर पाती। मैंने उन्हें कभी हताश और निराश नहीं देखा। थक कर बैठ जाने की मनः स्थिति में भी वह कभी नहीं दिखे। हालत यह थी कि स्वास्थ्य की चिंता किये बिना वह काम करने को प्राथमिकता देते। दूर की यात्राएं करते।

यहां तक कि अपने रचनाकार व्यक्तित्व की प्राथमिकताओं तक को उन्होंने संगठन व आन्दोलन के विस्तार की चिंता में तिलांजलि दे दी थी। वह प्रखर आलोचक थे, उनकी बुनियादी पहचान आलोचक के रूप में ही थी, इस रूप में उन्होंने कई मूल्यवान कृतियां हिन्दी को दीं। प्रगतिशील लेखक संघ की स्वर्ण जयंती के अवसर पर उनके द्वारा सम्पादित पुस्तक “प्रगतिशील आलोचना” की मांग आज भी बनी हुई है। ठीक उसी तरह जैसे साहित्य शास्त्र, छायावाद प्रकृति और प्रयोग छायावादोत्तर काव्य की सामाजिक सांस्कृतिक, आधुनिक हिन्दी कविता और आलोचना की द्वन्दात्मकता, समकालीन हिन्दी निबन्ध मध्ययुगीन रचना और मूल्य आलोचक और आलोचना तथा इन जैसी कुछ अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों से हम उनके योगदान का अनुमान लगा सकते हैं। यह योगदान तब अधिक व्यापक हो जाता है जब हम उनके कुशल सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका वसुधा के विशेषांकों पर नज़र डालते हैं। समकालीन जीवन के तक़रीबन सभी ज्वलन्त मुद्दों पर उन्होंने यादगार विशेषांक प्रकाशित किये। विभिन्न भाषाओं के साहित्य पर केन्द्रित विशेषांकों की उन्होंने जैसे एक श्रृंखला ही खड़ी कर दी। उर्दू साहित्य पर उन्होंने दो अंक केन्द्रित किये। जिनका व्यापक स्वागत हुआ।

भाषाई संकीर्णता को तोड़ते हुए विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों को साथ लेकर चलने की प्रगतिशील आन्दोलन की गरिमापूर्ण मूल्यवान परम्परा को आगे बढ़ाने में उन्होंने जिस उत्साह का प्रदर्शन किया वह वास्तव में अपूर्व है। जो प्रमाणित करता है कि प्रगतिशीलता की सैद्धांतिकी से प्रतिबद्ध हुए बिना एसेा कर पाना संभव नहीं। यह उनके प्रतिबद्ध व्यक्तित्व का ही चमत्कार था कि दो वर्ष पूर्व बिहार के बेगूसराय जिले के गोदर गोवा में प्रगतिशील लेखक संघ का सफ़ल अधिवेशन सम्पन्न हो सका। जिसमें अनेक भारतीय भाषाओं के साथ ही बंगलादेश के लेखकों का प्रतिनिधिमण्डल भी शरीक हुआ। जनवादी लेखक संघ तथा जनसंस्कृति मंच के प्रतिनिधि भी वहां मौजूद थे। आंचलिक भाषाओं के लेखकों का उस अधिवेशन की ओर आकृष्ट होना एक बड़ी घटना थी, शिथिल पड़ते प्रगतिशील आन्दोलन में उन्होंने अपनी सक्रियता से जैसे नये प्राण फूंक दिये थे। जिसके सबसे ज्यादा उत्तेजक दृश्य मध्य प्रदेश में दिखाई पड़े। वहां के सुदूर अंचलों तक में प्रगतिशील लेखक संघ की न केवल इकाइयां गठित हुई बल्कि उन्होंने अपनी सक्रियता भी बनाये रखी; यहां भी कमला प्रसाद जी की उस सांस्कृतिक समझ का प्रभाव साफ़ देखा जा सकता है, जो स्थानीय - आंचलिक सांस्कृतिक विशिष्टताओं तथा रचनाकारों से गहरे सामंजस्य की सीख देती है। वैचारिक संकीर्णता का अतिक्रमण करते हुए संयुक्त प्रयास-साझा मंच इस सांस्कृतिक समझ का अनिवार्य अंग है। यह तथ्य बहुत लोगों को विस्मित कर सकता है कि प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्ण जयंती आयोजन (अप्रैल 1986) में उर्दू-हिन्दी लेखकों के बीच विवाद व कटुता की स्थिति बन जाने के बावजूद उन्होंने इस घटना के थोड़े दिनों बाद ही भोपाल में फै़ज़ अहमद फै़ज़ परएक भव्य-विचारपूर्ण समारोह आयोजित कर दिखाया; हिन्दी-उर्दू लेखकों का ऐसा शानदार समागम मैंने बहुत कम देखा है। एक ही मंच पर दो भाषाओं के दिग्गजों के बीच पाकिस्तान व दूसरे देशों से आये रचनाकार। यह भी वह ही कर सकते थे कि इतने महत्वपूर्ण आयोजन में उन्होंने मुझ जैसे साधारण व्यक्ति को आलेख प्रस्तुत करने का सम्मान दिया। शिव मंगल सिंह सुमन, त्रिलोचन शास्त्री, मजरूह सुल्तानपुरी भगवत रावत और शफ़ीका फ़रहत की सक्रियता कार्यक्रम को अतिरिक्त गरिमा प्रदान कर रही थी। सज्जाद जहीर की जन्म शताब्दी को भी उन्होंने जिस गहरे आत्मीय भाव से संगठन व आन्दोलन के विस्तार का आधार बनाने का स्वप्न देखा वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। लगातार दो वर्ष तक देश के विभिन्न अंचलों में जन्मशताब्दी आयोजनों का सिलसिला विस्मृति के धुंधलके में जाते सबके प्यारे बन्ने भाई को जैसे नया जीवन दे गया। विभिन्न साहित्यिक सांस्कृतिक मुद्दों पर जीवन्त बहस की वह यादगार बेला थी। इस अवसर पर ‘वसुधा’ के संग्रहणीय विशेषांक का प्रकाशन भी बड़ी घटना के रूप में देखा गया। किसी पत्रिका को सांगठनिक वैचारिक तथा सृजनात्मक उद्देश्यों के पक्ष में समान निष्ठा व उद्वेग से इस्तेमाल करने से ऐसे उदाहरण विरल ही होते हैं। जहां विचार गुणवत्ता को स्खलित नहीं करते नई उठान देते हैं। उन्होंने प्रतिबद्धता के दबाव में पत्रिका की स्तरीयता को कभी प्रभावित नहीं होने दिया। सन् 2011 में पड़ने वाली हिन्दी-उर्दू के कई विद्धानों कवियों की जन्म शताब्दी को लेकर भी वह काफ़ी उत्साहित थे। वसुधा तथा सांगठनिक सर्कुलरों के माध्यम से वह प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े लोगों का इन शताब्दियों को बड़े पैमाने और संयुक्त रूप से आयेाजित करने का आह्वान कर रहे थे। चिंता एक ही थी कैसे ज़्यादा से ज़्यादा व नये आते हुए रचनाकारों को संगठन व आन्दोलन से जोड़ा जाये। कैसे प्रगतिशील आन्दोलन की उपलब्धियों के योगदानों और उससे जुड़ी ऐतिहासिक विभूतियों से नई पीढ़ी को परिचित कराया जा सके और कैसे इस बहाने आज के जरूरी मुद्दों पर सार्थक संवाद-विमर्श संभव हो सके। इस संन्दर्भ में प्रगतिशील आन्दोलन से शुरूआती जुडाव के बाद करीब-करीब उसके विरोधी हो गये उपन्सासकार और कवि हीरानन्द वात्साययन अज्ञेय को साथ जोड़कर चलने की उनकी सलाह का विशेष महत्व है कि अज्ञेय का भी यह जन्म शताब्दी वर्ष हैं इसके विपरीत कलावादियों ने अपने कार्यक्रम फ़ोल्डर में अज्ञेय और शमशेर बहादुर सिंह को ही प्रमुखता दी। कमला प्रसाद ने अपने दृष्टिकोण तथा सक्रियता से साबित किया कि संस्कृति व कला की वास्तविक रक्षा व चिंता प्रगतिशील वजन की नज़रिये के लोग ही कर सकते हैं।

उन्हें एक चिंता लगतार सताती थी कि दक्षिण भारत के रचनाकारों से कैसे उत्तर व पूर्वी भारत के रचनाकारों का जीवन्त संवाद संभव हो सके, कैसे संगठन के राष्ट्रीय अधिवेशन को दक्षिण के किसी राज्य में संभव बनाया जा सके। दो माह पूर्व ही कालीकट में राष्ट्रीय समिति की बैठक तथा आगामी राष्ट्रीय अधिवेशन केरल में ही करने का प्रस्ताव इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ियां है। जुझारू प्रतिबद्धता तथा दृष्टिकोण की व्यापकता वाले ऐसे व्यक्ति का अचानक चिरविदा ले लेना हम सब को हतप्रभ व हताश कर गया है।

- शकील सिद्दीकी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल

Tuesday, April 26, 2011

मजदूर वर्ग का अंतर्राष्ट्रीय पर्व मई दिवस


प्रपंचपूर्ण पूंजीवादी निजाम पर करारी चोट करो

वर्ष 2011 के मई दिवस के मौके पर हम अरब और उत्तर अफ्रीकी देशों में लोकतंत्र की नई लहर का स्वागत करेंगे, वहीं जापान के त्रासद भूकंप में हजारों लोगों के जान-माल के नुकसान पर शोक प्रकट करेंगे। भूकंप से क्षतिग्रस्त फुकुशिमा डायची आणविक संयंत्र से फैले विनाशक विकिरण ने द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराये जाने की हृदय विदारक खौफनाक याद को फिर से ताजा कर दिया है।

इस वर्ष का मई दिवस दुनिया की पांच सबसे बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं - ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका (ब्रिक्स) के ऐतिहासिक सान्या सम्मेलन के महत्वाकांक्षी घोषणापत्र और उसके दूरगामी संदेशों को भी याद करेगा, जो मानवता के इतिहास में पहली मर्तबा साम्राज्यवादी विश्व शक्ति संतुलन की गंभीर चुनौती को स्वर देता है और आने वाले दिनों में अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों को नई दिशा और गति प्रदान करने का भरोसा उत्पन्न करता है। सोवियत यूनियन के टूटने के बाद साम्राज्यवादियों ने ‘इतिहास का अंत’ कहकर उत्सव मनाया था तथा पूंजीवाद को ‘मानवता की नियति’ घोषित किया था। लेकिन दुनियां ने जल्दी ही देखा कि किस तरह तथाकथित शीतयुद्ध का अंत करने वालों ने ही झूठे बहाने बनाकर इराक में और फिर अफगानिस्तान में क्रूर वास्तविक युद्ध छेड़ दिया। इन दो देशों में युद्ध की विभीषका की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि साम्राज्यवादी सैन्य संगठन नाटो ने लीबिया पर बमबारी शुरू कर दी है। इसलिए ब्रिक्स देशों के सान्या सम्मेलन ने उचित ही लीबिया पर बल प्रयोग की आलोचना की है। ब्रिक्स घोषणापत्र में कहा गया है कि लीबिया में तटस्थ पर्यवेक्षक भेजने के बजाय नाटो फौज द्वारा की जा रही अबाध बमबारी और विद्रोही गुटों को हथियारों की आपूर्ति सुरक्षा परिषद प्रस्ताव की सीमा का अतिक्रमण करता है और यह भी कि किसी देश के घरेलू मामलों में विदेशी हस्तक्षेप अनुचित है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी सरकार स्वयं चुनती है। सर्वविदित है कि साम्राज्यवादी घरेलू झगड़ों का फायदा उठाकर हमेशा अपनी युद्ध पिपाशा शांत करते हैं। इराक, अफगानिस्तान और अब लीबिया के अकूत तेल भंडारों पर कब्जा करने की साम्राज्यवादी मंसूबों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

इस साल के मई दिवस को बहुचर्चित वैश्वीकृत मुक्त बाजार व्यवस्था की विफलता, उसका प्रकट दिवालियापन और लूट-खसोट मचाने वाले पूंजीपतियों-कारपोरेटियों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए मजदूरों-कर्मचारियों के विश्वव्यापी अनवरत एकताबद्ध संघर्षों के लिए सर्वदा याद किया जाएगा। भारत समेत यूरोप और अमरीका में भी मजदूरों, कर्मचारियों एवं श्रमजीवियों ने लाखों की संख्या में सड़कों पर निकल कर अपने हकों की हिफाजत में आवाज बुलंद की है।

‘कोई विकल्प नहीं’ (टिना - देयर इज नो आल्टरनेटिव) के बहुप्रचारित गुब्बारे की हवा निकल गयी, जब अमेरिका और यूरोप के दैत्याकार बैंकों का विशाल वित्तीय साम्राज्य ताश के पत्ते की तरह बिखर गया। अभेद्य समझे जाने वाले उनके वित्तीय ताने-बाने बालू की दीवार साबित हुए। ‘सरकार का सरोकार व्यापार करना नहीं’ का राग अलापने वाले मगरमच्छों ने सरकारों के सामने हाथ फैलाकर याचनाएं कीं। सरकारों ने भी उन्हें उपकृत किया और अपने खजाने खोल दिए। आम जनता के कंधों पर वित्तीय संकट का समाधान किया जाने लगा। बजट घाटा कम करने और प्रशासकीय सादगी बरतने के नाम पर वेतन कटौती, छंटनी, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की वापसी और कटौतियां आम हो गयीं। इसके विरोध में लाखों मजदूर, कर्मचारी, छात्र, नौजवान और आम नागरिक सड़कों पर उतर आये। विश्वव्यापी स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध जाग उठा।

भारतीय शासकों ने जनता से वायदा किया कि उदारीकरण और निजीकरण की नई आर्थिक नीतियों के अवलंबन से रोजगार बढ़ेगा और लोगों की आमदनी भी बढ़ेगी, लेकिन व्यवहार में उल्टा हुआ। रोजगार घट गया और लोगों की आय भी घट गयी। मजदूरों के काम के घंटे बढ़ा दिये गये और उनका पारिश्रमिक घटा दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर हुआ और देश की निर्भरता विदेशों पर बढ़ गयी, यह सब उद्योग की प्रतियोगिता क्षमता बढ़ाने के नाम पर किया गया। फलतः पूंजीपतियों का मुनाफा बेशुमार बढ़ गया। देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ने लगी, किंतु दूसरी तरफ बेरोजगारी, भूख, गरीबी, बीमारी, कुपोषण और विपन्नता बढ़ गयी। जीवनोपयोगी चीजों के दाम आकाश छूने लगे, रोजगारविहीन विकास के पूंजीवादी पथ का यही लाजिमी नतीजा है। नयी वैज्ञानिक तकनीकी की उपलब्धियों को पूंजीपतियों ने हथिया लिया।

स्वाभाविक ही इसके विरोध में आपसी मतभेदों को भुलाकर श्रमिक वर्ग इकट्ठा हुए। ट्रेड यूनियनों की एकता बनी, लगातार एक के बाद एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाये गये। 7 सितम्बर 2009 की राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल और 23 फरवरी 2011 की दिल्ली महारैली को मजदूर आंदोलन के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।

सत्तासीन शासक वर्ग मदांध है। वह जन भावनाओं की उपेक्षा करता है। राजनेता और नौकरशाही अपराधकर्मियों की सांठगांठ से सरकारी खजाने को लूट रहे हैं। भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। सरकार लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति संवेदनाविहीन है। देश में हताशा और निराशा व्याप्त है।

फिर भी सब कुछ खो नहीं गया है। जनता जाग रही है। मेहनतकश आवाम हथियार नहीं डालने वाले हैं। वे फिर से कमर कस रहे हैं। नयी चेतना और उमंग के साथ श्रमिक वर्ग और उनकी ट्रेड यूनियनें शासक-शोषकों पर करारी चोट के लिए लामबंद हो रहे हैं। शासक वर्ग को उनके कुकर्मों का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।

मजदूर वर्ग के इस अंतर्राष्ट्रीय पर्व के मौके पर हम दुनियां में सुख, समृद्धि और शांति के निरंतर संघर्ष का संकल्प लें। यह मौका है, हम संगठित होकर मानवता के दुश्मन शासक-शोषकों के प्रपंचपूर्ण पूंजीवादी निजाम को शिकस्त देने के लिए करारी चोट करें।

लड़ने के दिन हैं, जीतने के दिन हैं,

आने वाले दिन, हमारे ही दिन हैं!!

- सत्य नारायण ठाकुर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

आंदोलन के औचित्य, तरीकों और उसके पीछे के लोगों पर है सवाल


(जंतर-मंतर पर हुये आन्दोलन को समाप्त हुये तीन सप्ताह बीत चुके हैं। जन लोकपाल बिल पर बनी समिति में शामिल लोगों के विषय में और आन्दोलन के तमाम पहलुओं पर व्यापक बहस इस बीच छिड़ चुकी है। बहस आगे भी जारी रहेगी।


प्रस्तुत आलेख जंतर-मंतर आन्दोलन की समाप्ति के बाद तत्काल प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया था जिसमें कई महत्वपूर्ण बिन्दु उठाये गये हैं। जरूरी नहीं कि आलेख के हर बिन्दु से हम सहमत हैं पर व्यापक बहस चले, इस दृष्टि से इस आलेख का प्रकाशन किया जा रहा है। - कार्यकारी सम्पादक)

अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो चुका है। आजादी की तथाकथित दूसरी लड़ाई के दावों के बीच गांधीवादी हजारे और उनके साथी अब सरकार को लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए 15 अगस्त तक का अल्टिमेटम देकर जंतर मंतर से हट गए हैं और मीडिया, खासकर टीवी चौनलों के जरिए ही सही देश के उभरते मध्यमवर्ग का एक हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ इस ऐतिहासिक जीत की खुशी में होली और दीवाली एक साथ मनाने में तल्लीन है। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्ती जलाने, सिर पर गांधी टोपी पहनकर चंद घंटों के लिए उपवास पर बैठ जाने के बाद क्या अब भ्रष्टाचार इस देश से खत्म हो जाएगा? या फिर लोकपाल गठित हो जाना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी जीत होगी?

एक बड़े लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से हमें यह अवश्य देखना चाहिए कि आखिर हजारे के पीछे कौन सी ताकतें हैं? जिस आंदोलन को मीडिया ने जन आंदोलन का नाम दे डाला, यहां तक कि कुछ चौनलों के कुछ नामचीन संपादकों को दिल्ली के इंडिया गेट और जंतर मंतर पर जुटे लोग मिस्र के तहरीर चौक की याद दिलाने लगे, वो क्या सच में इस देश की जनता अथवा पूरे नागरिक समाज का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है?

मीडिया के जरिए ही सही हजारे और उनके साथी ऐसी पवित्र गाय सरीखे हो गए हैं, जिनकी आलोचना करना ही मानों पाप हो गया है। आंदोलन के औचित्य, तरीके, उसके पीछे के लोग और जन लोकपाल बिल के मसौदे पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। देश में एक मजबूत लोकपाल व्यवस्था की स्थापना हो, यह मांग पुरानी है। राजनेताओं और अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की तुरंत जांच और प्रभावी कार्रवाई होना जरूरी है लेकिन क्या जन लोकपाल ही समस्याओं का जवाब है?

क्रिकेट वर्ल्ड कप के जुनून में डूबे देश और टीम इंडिया के करिश्माई प्रदर्शन के उल्लास से सराबोर आम भारतीयों के लिए चंद दिनों पहले तक न तो अन्ना हजारे कोई खबर थे और न लोकपाल व्यवस्था के होने या न होने का सवाल उन्हें झकझोर रहा था। क्रिकेट की दीवानगी के बीच बाजार देख रहे टीवी चौनलों, उनके मालिकों और संपादकों को भारत-पाकिस्तान के सेमीफाइनल मुकाबले को जंग के मैदान में बदलने से फुर्सत नहीं थी। हजारे के आंदोलन को एक नए युग की शुरुआत बता रही मीडिया की जमात के बीच भी अधिकतर को न तो अन्ना की सुध थी और न लोकपाल, जन लोकपाल की पेचीदगियों की समझ और न उसे समझने की फुर्सत।

लेकिन अचानक ही मानों नवक्रांति का बिगुल बज उठा। 23 साल बाद भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने पर स्पेशल बुलेटिनों में बहस कर रहे टीवी एंकर और उनके संपादक अचानक हजारेमय हो गए। ठंडे बस्ते में धूल खा रहा लोकपाल बिल का मसला जिंदा हो गया। अन्ना हजारे के पीछे-पीछे समाचार चौनलों की ओबी वैन और उनके नामचीन चेहरे जंतर मंतर दौड़ पड़े। और शुरू हो गया मीडिया के जरिए आजादी की दूसरी लड़ाई का माहौल बनना। टीवी की व्यापक पहुंच ने दो दिन बीतते बीतते अन्ना और उनके जनलोकपाल बिल की मांग को भारत के मध्यमवर्गीय घरों तक पहुंचा दिया। बड़े ही सुनियोजित तरीके से और समाचार पत्रों और चौनलों के जरिए आम जनता से आजादी की इस दूसरी लड़ाई में कूद पड़ने का आह्वान होने लगा। अपने अराजनैतिक सरोकारों और एक सिरे से राजनीतिज्ञों को चोर करार देने वाले मध्य और उच्च मध्यवर्ग के तमाम रहनुमा सुबह से लेकर रात तक टीवी चौनलों के स्टूडियों में बैठकर अन्ना के अनशन को आजाद भारत का सबसे बड़ा जनांदोलन बताने लगे। फिल्म और कला जगत के कथित बुद्विजीवियों की एक जमात तो जंतर मंतर पहुंचकर सीधे नेताओं और राजनीतिक दलों को अलविदा बोलने के लिए कहने लगी जोकि लोकतंत्र के लिए एक निहायत अवांछित कार्यवाही के अलावा कुछ नहीं था।

और मीडिया के जरिए निहायत ही एकतरफा और गैर जिम्मेदाराना तरीके से रचे गए अन्नामय उन्माद में किसी भी सवाल-जवाब और विमर्श के लिए कोई जगह नहीं बची थी। समाचार चौनलों ने तो यह रुख अख्तियार कर लिया कि या तो आप अन्ना के साथ हैं, नहीं तो भ्रष्टाचारियों के साथ। यह नजरिया निश्चित तौर पर गलत था, क्योंकि अन्ना हजारे और उनका आंदोलन देश के संपूर्ण नागरिक समाज का प्रतिनिधित्व कतई नहीं कर रहा था। एकतरफा खबरों के जुनून में शामिल समाचार माध्यमों ने यह कभी नहीं बताया कि दरअसल अन्ना के आंदोलन के पीछे का सच क्या है? लोकपाल बिल की जायज मांग के पीछे दरअसल कौन से चेहरे हैं और उनकी अपनी छवि कैसी है।

जनता के समक्ष एक ऐसी तस्वीर पेश की गई कि हजारे मानों अकेले ही चले थे और उनके साथ कारवां जुड़ता चला गया जो सच्चाई से कोसों दूर है। असलियत यह है कि अन्ना एक चेहरा - एक पाक-साफ महात्मानुमा चेहरा भर ही हैं। खुद कभी अन्ना ने भी अपने पांच दिनों के अनशन के दौरान यह नहीं बताया कि अनाप शनाप दौलत इकट्ठा करने वाले योग गुरू तथा तमाम बड़े भ्रष्ट कारपोरेट घरानों के मालिकों के आध्यात्मिक रहनुमा उनके आंदोलन की रीढ़ की हड्डी थे, जिनके खुद का दामन पाक-साफ नहीं है।

विश्वास न हो तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट का इतिहास उठाकर देख लीजिए। जनलोकपाल बिल के समर्थन में अन्ना का अनशन भी दरअसल इसी अभियान का हिस्सा था। बाबाओं और आध्यात्मिक गुरुओं के अलावा अभियान के गठन में कुछ और नाम भी हैं। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, राजनेताओं की जवाबदेही सुनिश्चित करने और पारदर्शी शासन व्यवस्था के सूत्रधार इस तरह के लोग हो सकते हैं? क्या वजह थी कि योगगुरू और उनके लोग चार दिन तक परदे के पीछे से आंदोलन को हवा देने के लिए तमाम सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सक्रिय रहने से लेकर शहर-शहर आंदोलन करवाने में जुटे रहे और मीडिया मैनेजमेंट भी करते रहे, लेकिन खुद हजारे के मंच पर आने से बचते रहे। वह चौथे दिन कुछ इस अंदाज में जंतर मंतर पहुंचे मानों हजारे की मुहिम में एक हाथ लगाने आ गए हों। दूसरे अध्यात्मिक गुरू खुद इस दौरान विदेश में रहे, लेकिन उनके संगठन ने अपनी पूरी ताकत हजारे के पक्ष में झोंक दी। विदेशों में भी अन्ना के समर्थन में जिन जुलूसों को समाचार चौनलों ने खूब दिखाया वो भी दरअसल इसी संगठन के लोग थे।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंदोलन करना गलत नहीं है पर योग और अध्यात्मिक गुरूओं ने परदे के पीछे से भूमिका क्यों निभाई, यह प्रश्न उठता है। यह इनकी रणनीतिक तैयारी का हिस्सा था। इन जैसे लोगों के शुरु से ही खुलकर आ जाने पर एक आम भारतीय इसे गंभीरता से न लेता। यही नहीं अराजनैतिक करार दिए गए इस आंदोलन को शायद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी गुपचुप समर्थन मिला और आज भी मिल रहा है। हजारे के अनशन के दौरान मैं खुद ऐसे समर्थन प्रदर्शनों और अनशनों का गवाह बना जिसमें तमाम लोग संघ या भाजपा के कार्यकर्ता थे। लखनऊ में ही भाजपा युवा मोर्चे के लोगों ने अपनी राजनीतिक पहचान छुपाते हुए अन्ना के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली।

फिर एक सवाल अन्ना से भी है कि एक लोकपाल बिल को भ्रष्टाचार के खिलाफ ब्रहमास्त्र की तरह प्रोजेक्ट कर रहे अन्ना की भ्रष्टाचार के कारणों की समझ क्या है? कटु सत्य है कि मौजूदा दौर में राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम पर है। मंत्री से लेकर संतरी तक देश की लूट में लगे हैं। सरकारों के स्तर पर नेताओं और कारपोरेट जगत का एक ऐसा कार्टेल बन गया है कि पूंजीवाद की पोषक आर्थिक नीतियां कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे यानी पूंजी के मुनाफे के हिसाब से बनती बिगड़ती हैं। 1990 के दशक से शुरू हुए आर्थिक सुधारों और नई मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के दौर में सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के जितने मामले सामने आए हैं, उतने पहले नहीं सुनाई पड़ते थे। राजीव गांधी के शासन काल में 64 करोड़ का बोफोर्स घोटाला इतना बड़ा था कि केंद्र की सरकार तक चली गई।

पर आर्थिक सुधारों के युग में राजनेताओं और पूंजीपतियों, कारपोरेट घरानों का ऐसा गठजोड़ बना कि भ्रष्टाचार के आंकड़े चंद करोड़ से निकलकर सैकड़ों करोड़ से होते हुए अब लाखों करोड़ तक पहुंच गए हैं। पौने दो लाख करोड़ का 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला इस खतरनाक गठबंधन का एक बड़ा उदाहरण है। खाने और खिलाने के इस खेल में टाटा से लेकर अंबानी तक सब शामिल हैं। सवाल है कि ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से जुड़े लोगों ने कभी भी आर्थिक नीतियों के सवाल पर आवाज उठाई? क्या कभी भी इन लोगों ने कारपोरेट जगत की लूट के खिलाफ आवाज उठाई? सिविल सोसाइटी के स्वयंभू रहनुमा बताएं कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों पर उनका नजरिया क्या है? सवाल सिर्फ व्यक्तिगत ईमानदारी का नहीं होता। बेदी को अगर दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बना दिया गया होता तो वह शायद आज भी सरकारी सेवा में होती और रोजगार एवं शिक्षा के सवाल पर किसी प्रदर्शन को रोकने के लिए अपने मातहतों को जंग के निर्देश भी दे रही होतीं। सवाल आंदोलन के पीछे की समझ और इरादे पर है। क्या लोकपाल के आ जाने के बाद कारपोरेट जगत के द्वारा अपने फायदे के लिए नेताओं को भ्रष्टाचार के लिए उकसाने का खेल खत्म हो जाएगा? क्या वो परिस्थितियां खत्म हो जाएंगी जिनकी बुनियाद पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है? खैर इस सवाल पर इनसे जवाब की उम्मीद न रखें। योगगुरू के सहारा इंडिया जैसे उद्योग समूहों से संबंध जगजाहिर हैं और अध्यात्मिक गुरू के बड़े पूंजीपतियों और कारपोरेट हस्तियों से। इनमें कई तो मीडिया समूहों के मालिक हैं। यहां यह भी सवाल है कि क्या कुछ मीडिया समूहों के खुद ही अन्ना के अनशन का एक्टिविस्ट बन जाने के पीछे कहीं यही अध्यात्मिक प्रेरणा तो नहीं थी? भ्रष्ट पूंजीपतियों-राजनीतिज्ञों के साथ आन्दोलन के कर्णधारों की दुरभिसंधि की आशंका को भी प्रथमदृष्टि से नकारा नहीं जा सकता क्योंकि इसके जरिये रोज खुल रहे घपलों-घोटालों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ आम जनता में पैदा हो रहे आक्रोश में कमी तो आयी ही है।

खैर इन बातों से अलग हजारे समर्थित जनलोकपाल बिल, लोकपाल के रूप में देश के सीईओ की नियुक्ति करने जैसा होगा। संसदीय व्यवस्था वाले देश में, जहां प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक संस्था है और हमारी संसद देश की सबसे बड़ी नीति निर्धारक, वहां प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री और संसद के सदस्य के साथ-साथ न्यायपालिका तक के खिलाफ जनता के किसी भी व्यक्ति द्वारा शिकायत किए जाने पर लोकपाल द्वारा उसे सीधे संज्ञान में लेकर जांच करने, मुकदमा चलाने और यहां तक की सजा भी सुना सकने का अधिकार क्या संवैधानिक संस्थाओं तथा संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था को छिन्न-भिन्न नहीं करेगा? राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की नींव को ही कमजोर कर दें। सर्वाेच्च पदों और संसद की गरिमा भी बची रहे और संसद तथा सरकार में बैठे भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई भी हो, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।

यही नहीं जनलोकपाल बिल जहां एक तरफ लोकपाल को असीमित अधिकार देने की वकालत करता है, वह लोकपाल के ही खिलाफ शिकायत होने पर जांच के तरीकों पर स्पष्ट नहीं है। या यह कहें कि जिस देश में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों का बंटवारा चेक ऐंड बैलेंस की परंपरा के आधार पर है, वहां लोकपाल तीनों ही इकाइयों के वाचडाग के रूप में तो होगा पर उस संस्था के भीतर किसी संभावित भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाएगा?

यह साफ है कि लोकपाल बिल का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए जिस कमेटी का गठन हुआ है, वह देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जिन पांच लोगों को सिविल सोसाइटी के नुंमाइंदे के तौर पर कमेटी में रखा गया है, उनमें अन्ना हजारे के अलावा अन्य सभी अन्ना समर्थित हैं या यूं कहें कि अन्ना के लोग हैं, वो लोग हैं जो जनलोकपाल के पैरोकार हैं। यह इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार बनी सरकार और स्वयंभू नागरिक समाज के मिले जुले प्रतिनिधियों वाली ड्राफ्टिंग समिति दरअसल कहीं न कहीं एक ऐसा भाव पैदा करती है कि मानों सरकार और एक व्यक्ति के बीच समानता का भाव है। आज अन्ना हजारे हैं, कल किसी और मांग को लेकर किसी और चेहरे के पीछे वैसा ही उभार खड़ा करने की कोशिश नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी है?

जाहिर है हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है और होना भी चाहिए लेकिन समस्या का स्थाई हल राजनीतिक सुधारों में है। देश की राजनीति की दशा और दिशा बदले जाने की जरूरत है, जनता से जुड़े आर्थिक सवालों, जमीन और रोजगार के सवालों पर राजनीतिक संघर्ष की जरूरत है। ऐसे में जनता के प्रति राजनीतिक दलों और नेताओं की जवाबदेही बढ़ेगी। जाति और मजहब के आधार पर चुनकर आने वाली सरकारों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए खाली एक लोकपाल विधेयक आ जाने से ही कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा, ऐसा नहीं लगता। भ्रष्टाचार के खिलाफ अराजनैतिक नहीं राजनैतिक संघर्ष छेड़ना पड़ेगा। प्रगतिशील सोच रखने वाले राजनीतिक दलों के लिए अन्ना का यह अनशन अपने तमाम विरोधाभासों के बीच इसलिए आंख खोलने वाला होना चाहिए कि उन्हें जनता के गुस्से को समझना होगा। अगर सही राजनीतिक नेतृत्व नहीं मिलेगा तो अन्ना जैसे अराजनैतिक दिखने वाले आंदोलन फिर होंगे, और अच्छे नेतृत्व के अभाव में जनता फिर से भ्रमित होगी।
- प्रबोध
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य कौंसिल

Saturday, April 23, 2011

अत्यधिक प्रासंगिक हो गया है - ”गाँव चलो-मोहल्ला घूमो“ अभियान

गत कई वर्षों में उत्तर प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की इकाइयां और उसके नेता/कार्यकर्ता बेहद सक्रिय रहे हैं। जन-समस्याओं पर आन्दोलन दर आन्दोलन चलाये गये हैं, राष्ट्र एवं प्रान्त स्तरीय कार्यक्रमों में आशा से अधिक भागीदारी की है, पार्टी शिक्षा पर बेहद ध्यान दिया गया है और दो राज्य स्तरीय एवं दर्जनों क्षेत्रीय एवं जिला स्तरीय प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये गये हैं, जन संगठनों में जान डालने की कोशिशें जारी हैं, कई सीटों पर लोकसभा चुनावों एवं विधानसभा के उप चुनावों में भागीदारी की गयी है, त्रि-स्तरीय पंचायत चुनाव लड़े और जीते गये हैं, महंगाई और बढ़ती गतिविधियों से बढ़ते खर्चों को पूरा करने को अनाज एवं धन संग्रह अभियान चलाने की कोशिशें की गयी हैं, राज्य मुख्यालय पर बेहद जरूरी सुविधायें जुटाई गयी हैं और संभवतः पहली बार राज्य मुख्यालय पर एक नया चार पहिया वाहन खरीदा गया है। यह सारी गतिविधियां उत्तर प्रदेश में पार्टी के विकास और विस्तार की छटपटाहट की द्योतक हैं।

अब हमारे सामने कई महत्वपूर्ण चुनौतियां मौजूद हैं। देश की ही भांति उत्तर प्रदेश की जनता भी तमाम समस्याओं से जूझ रही है। केन्द्र और राज्य सरकार दोनों जनता पर कुल्हाड़ा चला रही हैं मगर विपक्ष की बड़ी पार्टियां जनता के सरोकारों को उठा नहीं पा रही हैं। एक राजनैतिक विकल्पशून्यता की स्थिति से उत्तर प्रदेश गुजर रहा है। इस स्थिति का लाभ उठाने की कोशिश में कई ताकतें जुट गई हैं। श्री अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल की ड्राफ्ट कमेटी में अपने प्रतिनिधि रखवाने के आन्दोलन के प्रति भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता - खासकर मध्यम वर्ग में काफी लगाव दिखा। वहीं भ्रष्टाचार से धन अर्जन करने वालों में इस अवसर को अपने को सदाचारी जताने को भुनाने की होड़ लगी रही। ऐसे प्रयास आगे भी होंगे। इन सवालों पर भाकपा और वामपंथ की सक्रियता और संघर्षशीलता ही ऐसे भटकावों को रोक सकती है।

प्रदेश में दो-दो चुनाव सामने हैं। विधान सभा चुनाव जहां अप्रैल-मई 2012 में वांछित है वहीं नगर निकायों के चुनाव नवम्बर-दिसम्बर 2011 में। लेकिन दोनों के ही समय से पूर्व होने के कयास लगाये जा रहे हैं। नगर निकाय चुनाव जून-जुलाई में कराने की तैयारी चल रही है तो विधान सभा चुनाव अक्टूबर-नवम्बर 2011 में कराये जाने की संभावना है। तमाम दलों ने इनकी तैयारी शुरू कर दी है। लेकिन हमारी स्थिति भिन्न है। हम चुनावी तैयारियां भी आन्दोलन और सांगठनिक कार्यों को तेज करके ही किया करते हैं।

उपर्युक्त दृष्टि से 13, 14 एवं 15 मई को चलाया जाने वाला धन एवं अनाज संग्रह अभियान हमारे लिये बेहद महत्वपूर्ण है। इसे कैसे सफल बनाया जाये, इसकी चर्चा ”पार्टी जीवन“ के गत अंक में की जा चुकी है।

गत दिनों सम्पन्न राज्य कार्यकारिणी की बैठक में बहुत सोच-समझ कर ही ”गांव चलो-मोहल्ला घूमो“ अभियान व्यापक तौर पर चलाने का निर्णय लिया गया था। जन-जागरण अभियान 16 मई से 29 मई तक चलाया जाना है जिसका समापन 30 मई को जिला मुख्यालयों पर जुझारू धरने/प्रदर्शनों के साथ किया जाना है। जाहिर है ज्वलन्त सवालों पर जिलाधिकारी के माध्यम से महामहिम राष्ट्रपति एवं राज्यपाल महोदय को ज्ञापन तो सौंपे ही जायेंगे।

अनेक सवाल हैं जो इस अभियान के अंतर्गत जनता के बीच स्पष्टता से रखे जाने हैं। उत्तर अफ्रीकी देशों की जनता लम्बे समय से तानाशाही, कुशासन, भ्रष्टाचार एवं अत्याचारों से त्रस्त है। जनता सड़कों पर उतरी तो एक के बाद एक तानाशाही उखड़ने या लड़खड़ाने लगीं। पहले ट्यूनीशिया की जनता ने निरंकुश शासक को खदेड़ा तो फिर मिस्र की जनता ने 32 सालों से राज चला रहे होस्नी मुबारक को हटा कर ही दम लिया। बहरीन, यमन, सीरिया, जोर्डन, लीबिया की जनता ने करवट ली और वहां भी आन्दोलन जोर पकड़ने लगा। अब समूचे अरब जगत में यह आग धधक रही है। दुनियां के लोकतंत्रवादी एवं प्रगतिशील सोच के लोगों में इन घटनाक्रमों से भारी उत्साह जगा है। मगर ऊपर से लोकतांत्रिक शक्तियों की विजय पर खुशी जताने वाली अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों की सरकारों को जनता की यह बढ़ती ताकत रास नहीं आई। वे इन आन्दोलनों में भीतरघात की कोशिशों में जुट गईं। बहरीन की जनता के आन्दोलन को सऊदी अरब के माध्यम से दबाने की कोशिश की गयी। लेकिन लीबिया में तो अमेरिका, यूरोपीय यूनियन और नाटो देशों ने सीधे सैनिक कार्यवाही कर डाली और लीबिया में भारी तबाही मचा दी है। इससे लीबिया की जनता के अपने निर्णय के अधिकार का हनन तो हुआ ही, लीबियाई संकट का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो गया। इससे कर्नल गद्दाफी को ही लाभ पहुंचा क्योंकि इराक की तबाही देख चुका विश्व जनमत अमेरिकी गुट की इस कारगुजारी को गले नहीं उतार पा रहा है। बाहरी हमला फौरन रोका जाये और संकट का हल बातचीत से निकाला जाना चाहिये, यह मांग जोर पकड़ रही है। अरब जगत में चल रही बदलाव की यह आंधी भ्रष्टाचार और जनलूट में आकंठ डूबे भारत के शोषक वर्गों एवं उनके द्वारा संचालित सरकारों और पार्टियों के लिए एक बड़ी चेतावनी है।

जापान में आये भयंकर भूकंप एवं सुनामी के बाद वहां के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों - खासकर फुकुशिमा संयंत्र में आग लग गयी। तापमान बढ़ने से रेडियम छड़ें पिघलने लगीं और बड़े पैमाने पर हानिकर रेडियोधर्मी विकिरण (रेडियेशन) होने लगा। यह विकिरण इतना जबरदस्त था कि तमाम बचावकर्मी ही जान बचाकर भागने लगे। चेरनोबिल परमाणु बिजली घर में हुए हादसे से भी यह बड़ा हादसा है। इससे मिट्टी, पानी, पर्यावरण, समुद्र सभी प्रदूषित हो गये हैं। खाद्य पदार्थों सहित तमाम उपभोक्ता वस्तुयें इसकी चपेट में हैं। इसने मानवता ही नहीं समूची प्रकृति को असीमित बरबादी की मांद में धकेल दिया है। यह हादसा समूचे विश्व की आंखें खोलने को काफी है। चीन में भी परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को लगाने का जनता सड़कों पर उतर कर विरोध कर रही है। लेकिन हमारे देश की सरकार इससे कोई सबक लेने को तैयार नहीं। जैतापुर (महाराष्ट्र) के अलावा गुजरात और हरियाणा में नये परमाणु बिजली घर बनाने का काम जारी है जबकि स्थानीय जनता, पर्यावरणविद और किसान इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं। विरोध कर रही जनता को अब दमन के बल पर दबाया जा रहा है। जैतापुर प्लांट का विरोध कर रहे आन्दोलन में पुलिस की गोली से एक नागरिक शहीद हो चुका है।जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को इसके निर्माण का काम सौंपा जा रहा है, उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। भूकंप की स्थिति या तकनीकी खराबी आने पर जन-धन की भयंकर बरबादी अवश्यंभावी है। हमारे मौजूदा परमाणु बिजलीघरों की सुरक्षा के सम्बंध में भी हम अधिक नहीं जानते। तारापुर परमाणु संयंत्र की बनावट फुकुशिमा जैसी ही है। समझा जा सकता है कि यदि कोई बड़ा भूकम्प आया तो हमारा क्या हाल होगा। यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि विकास के नाम पर विनाश का ये रास्ता किसके कहने पर अपनाया जा रहा है। कहीं यूरेनियम आपूर्ति कर भारी मुनाफा बटोरने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर तो नहीं? जो भी हो फुकुशिमा की त्रासदी के बाद भारत-अमेरिकी परमाणु करार के वक्त भाकपा और वामदलों द्वारा खड़े किये गये सवाल आज फिर से प्रासंगिक हो गये हैं। हमें इस सवाल को जनता के बीच ले जाना है। साथ ही परमाणु करार के समर्थन में उतरी समाजवादी पार्टी से भी सवाल किया जाना चाहिये कि उसने इसका समर्थन क्यों किया?

देश में इस बार रबी की फसल में बम्पर पैदावार हुई है जिसका श्रेय देश के किसानों और खेतिहर मजदूरों को जाता है जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अधिक अनाज का उत्पादन किया। लेकिन प्याज, लहसुन और सब्जियों की भरपूर पैदावार के बावजूद महंगाई थमने का नाम नहीं ले रही है। मार्च महीने में महंगाई की दर पिछली 8.31 प्रतिशत से बढ़कर 8.98 हो गई जबकि भारतीय रिजर्व बैंक ने इसके घटने का दावा किया था। केन्द्र सरकार की आर्थिक उदारीकरण की नीतियां, जिसके तहत पेट्रोलियम की कीमतें लगातार बढ़ाई जा रही हैं, इसके लिए जिम्मेदार हैं। राज्य सरकार द्वारा जमाखोरी एवं कालाबाजारी पर रोक न लगाना, राशन प्रणाली एवं अन्य राहतकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। कुछ भी हो महंगाई की मार से आम आदमी तबाह हो रहा है। रोज कमा कर खाने वालों की जान के लाले पड़े हुए हैं। हमारे अभियान का यह एक प्रमुख मुद्दा रहना चाहिए।

एक के बाद एक उजागर हो रहे महाघोटालों और उनमें नेता, अफसर, पूंजीपति, उद्योगपति और दलालों की संलिप्तता ने जन-मानस को झकझोर कर रख दिया है। हाल ही में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला, इसरो में हुआ घोटाला, पामोलिन तेल घोटाला, मनरेगा योजना तथा गरीबी उन्मूलन की अन्य तमाम सरकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, भूमि-अधिग्रहण में चल रहे घोटाले तथा उच्च पदस्थ नेताओं को धन इकट्ठा कर मुहैया कराने के घोटाले लगातार सामने आ रहे हैं। कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा तथा कई क्षेत्रीय दल इन घोटालों में साफ दोषी दिखाई दे रहे हैं। भ्रष्टाचार आज समाज में कैंसर का रूप ले चुका है जिससे आम और गरीब आदमी बेहद परेशान है। उन्हें इसके भंवरजाल से निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। भाकपा और वामदलों ने सड़क से लेकर संसद तक इसके खिलाफ आवाज उठाई है लेकिन यह आवाज जनता की आवाज अभी तक नहीं बन पायी है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस देश में केवल और केवल वामपंथी हैं जिनको भ्रष्टाचार छू तक नहीं पाया है। लेकिन मीडिया हमारी भूमिका को पूरी तरह दबाता रहा है। अतएव अब भ्रष्टाचार के खिलाफ कई तात्कालिक तत्व सक्रिय हो गये हैं और मीडिया उन्हें पूरी ताकत से उछाल रहा है। कार्पोरेट मीडिया नहीं चाहता कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई बन जाये जोकि वामपंथ का लक्ष्य है। पूंजीवादी व्यवस्था में जहां हर तरह से पूंजी के विस्तार की छूट है, कुछ कानूनों और कुछ कदमों से भ्रष्टाचार रूकने वाला नहीं है। हमें भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग को तेज तो करना ही है, इसे व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की लड़ाई में तब्दील करना है। इसके लिये व्यापक जन-लामबंदी आवश्यक है।

उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था जार-जार हो चुकी है। दलितों, महिलाओं, आदिवासियों तथा अन्य कमजोर वर्गों को सबसे अधिक दमन का शिकार होना पड़ रहा है। पुलिस व प्रशासन न केवल आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं अपितु वे सत्ता शिखर के लिये धन जुटाने का औजार बन गये हैं। तीन माह के भीतर राजधानी में दो-दो सीएमओ की जघन्य हत्यायें इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। अब सरकार और उसके वरिष्ठ अधिकारियों पर हसन अली से सम्बंध होने के आरोप उजागर हो रहे हैं। प्रशासन शासक दल के औजारों की तरह काम कर रहा है। विपक्ष की लोकतांत्रिक गतिविधियों को कुचलने के प्रयास हो रहे हैं। त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में जबरदस्त तरीके से जोर जबरदस्ती कर सत्ता पर कब्जा जमा लिया गया। अब नगर निकायों पर बलात् कब्जा करने की तैयारी है। इसके लिए अध्यक्षों के सीधे चुनाव रोकने सम्बंधी विधेयक को विधान सभा में आनन-फानन में जबरदस्ती पारित कर घोषित कर दिया गया जिसको महामहिम राज्यपाल महोदय ने स्वीकृत नहीं किया। इन चुनावों को पार्टी के चुनाव चिन्ह पर लड़ने से भी रोका जा रहा है। लोकतंत्र को नेस्तनाबूद करने की इस साजिश का हम विरोध करते रहेंगे और दोनों कदमों को वापस लेने की मांग करते हैं।

भाकपा ने प्रदेश के बुनकरों के हित में लड़ाई लड़ी और कुछ राहतें उन्हें दिलाने में कामयाबी हासिल की है। लेकिन बुनकर समुदाय के तमाम सवाल अब भी मुंह बायें खड़े हैं। मनरेगा मजदूर काम और दाम से वंचित किये जा रहे हैं। आशा, आंगनबाड़ी, मिड डे मील रसोइये, हेल्थ वर्कर्स तथा असंगठित क्षेत्र के तमाम मेहनतकश अति अल्प वेतन और बेहद कम सुविधाओं में जीवनयापन को मजबूर हैं। खेतिहर मजदूरों के सवाल भी जहां थे वहीं लटके पड़े हैं।

विकास के नाम पर पूरे प्रदेश में किसानों की उपजाऊ जमीनों का जबरिया अधिग्रहण किया जा रहा है। इसके विरूद्ध हमने कई आन्दोलन चलाये और कई जगह सफलता भी हासिल की। आज के दौर में यह मामूली बात नहीं है। लेकिन इस सवाल को और अधिक गंभीरता से लेना है। किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को हमें हर कीमत पर बदलवाना है। इस बीच रासायनिक खादों, कृषि उपकरणों, बीजों, कीटनाशकों, बिजली और डीजल आदि के दामों में बड़ी बढ़ोतरी हुई है जबकि उनकी पैदावार के दाम उसी अनुपात में नहीं बढ़ाये गये हैं। किसान लगातार घाटे में जा रहे हैं और कर्ज के जाल में फंसते जा रहे हैं। उनमें से तमाम आत्महत्यायें कर चुके हैं। हाल में आये आंधी, पानी, ओलों से भी रबी की फसल को बड़ा नुकसान पहुंचा है। उनकी इस हानि का शत-प्रतिशत मुआवजा तत्काल मिलना चाहिये तथा लगान, आबपाशी आदि माफ किया जाना चाहिये। उनका अनाज सरकारी खरीद केन्द्रों पर बेरोकटोक खरीदा जाना चाहिये। खरीद केन्द्र सुचारू काम करें यह भी हमें देखना चाहिये।

प्रदेश में शासन एवं प्रशासन में तमाम स्थान रिक्त पड़े हैं। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षण संस्थाओं में तमाम जगह खाली पड़ी हैं। ये स्थान भरे नहीं जा रहे और यदि भरे जा रहे हैं तो भारी रिश्वतखोरी जारी है। प्रदेश के नौजवान दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। पढ़ाई दुकानदारी में तब्दील कर दी गई है। स्तरहीन निजी स्कूल डिग्रियां बेच रहे हैं। भारी फीस वसूली जा रही है। आम नागरिक बच्चों को पढ़ा नहीं पा रहे हैं। सरकारी स्कूलों में सीटों की कमी है। तमाम लोग वहां दाखिलों से वंचित रहने हैं। शिक्षा का बाजारीकरण रोके बिना जनशिक्षा संभव नहीं और बिना जन शिक्षा के देश का विकास संभव नहीं है। इस सबको अभियान में महत्वपूर्ण जगह दी जानी चाहिये।

उपर्युक्त सवालों के साथ-साथ स्थानीय समस्याओं को लेकर हमें गांव, मोहल्लों, कस्बों, नगरों और महानगरों में अलख जगानी है। पर्चे छाप कर बांटे जाने चाहिये। ग्रामों में रात और दोपहर को चौपालें लगाई जायें। अखबारों को खबरें लगातार दी जायें। जनता से 30 मई को जिला/तहसील केन्द्रों पर होने वाले प्रदर्शन में व्यापक रूप से भाग लेने का आह्वान किया जाये।

जहां-जहां जायें वहां जन संगठनों की स्थापना का प्रयास करें। पार्टी की शाखायें व सदस्यता स्थापित करें। जहां चुनाव लड़े जाने हैं, वहां बूथ स्तर पर कमेटियां गठित करें। पार्टी के अखबारों के वार्षिक ग्राहक बनाये जायें। पार्टी संचालन के लिये लोगों से धन और अनाज भी अवश्य मांगें। हर तरह से अभियान को कारगर बनाया जाये।

जिला कार्यकारिणी और काउसिंल की बैठक कर इसकी व्यापक रूपरेखा तैयार करनी चाहिये। शाखाओं और मध्यवर्ती कमेटियों को भी सक्रिय करना चाहिये। हर सदस्य एवं जन संगठनों को इसमें भागीदार बनाना चाहिये। इसके जरिये जनता को उसके ज्वलन्त सवालों पर लामबंद करने के साथ-साथ हम अपनी चुनावी तैयारियों को भी आगे बढ़ा पायेंगे।

अतएव ”गांव चलो, मुहल्ला घूमों“ अभियान में हमें पूरी तरह कमर कस कर उतरना है। विकल्पशून्यता की इस स्थिति में हमें प्रदेश में अपनी ताकत में इजाफा करने के इस अवसर को गंवाना नहीं है। यही वक्त का तकाजा है और यही हमारा दायित्व है।



(डा. गिरीश)

Saturday, April 9, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग जारी रहे ................



विगत दिनों केन्द्र और कई राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार और घपले-घोटालों का खुलासा होने से आम जनता व्यथित और आक्रोशित थी। यद्यपि संसद से लेकर सड़क तक इसके खिलाफ अनेक अभियान चल रहे थे लेकिन वामपंथी दलों को छोड़ अन्य अभियान चलाने वालों की विश्सनीयता जनता के बीच संदिग्ध थी। ऐसे में एक गैर राजनीतिक मंच से शुरू हुए आन्दोलन के प्रति जनता के कतिपय हिस्सों का लगाव स्वाभाविक था और जनता को उम्मीद जगी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग शुरू हो चुकी है। लेकिन अन्ना हजारे और भारत की पूंजीवाद सरकार में लोकपाल कानून पर नागरिक समाज (सिविल सोसाईटी) और केन्द्र सरकार में कांग्रेस पार्टी के मंत्रियों की एक समिति गठित करने पर अंततः सहमति बन गयी।

पूंजीवादी समाचार माध्यमों ने घोषणा कर दी है, ”जनता जीत गयी है“, ”इंडिया जीत गया है“ आदि-आदि। कुछ ऐसा दिखाने की कोशिश की जा रही है कि आज से भ्रष्टाचार हिन्दुस्तान में समाप्त हो जायेगा। यह भी दर्शाया जा रहा है कि जन लोकपाल कानून ऐसा कानून होगा जिसमें भ्रष्टाचार से निपटने की सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान शक्तियां सन्निहित होंगी। अगर ऐसा हो पाता है तो हमारी शुभकामनायें। लेकिन मीडिया के इन डायलागों से भ्रमित होने की जरूरत नहीं है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि प्रस्तावित कानून स्वयं में चाहे कितना शक्तिशाली हो लेकिन अगर प्रस्तावित अधिकरण या एजेंसी में बालाकृष्ण और थॉमस जैसों को बैठा दिया जायेगा तो उस कानून का हस्र क्या होगा?

भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष इतना आसान भी नहीं है। अंततः जनता द्वारा लोकतंत्र में चुनावों के दौरान इससे निपटने की समझदारी जब तक विकसित नहीं होती, चुनावों में जनता भ्रष्टाचारियों को धूल चटाने के लिए कटिबद्ध नहीं होती तब तक यह संघर्ष परवान नहीं चढ़ सकता और हमें इसके लिए संघर्ष जारी रखना है।

वैसे तो भ्रष्टाचार हमेशा से कई रूपों में भारतीय समाज में चला आ रहा है। वह आजादी के बाद और भी फूला फला। लेकिन दो दशक पहले तक मात्रात्मक रूप से यह जितना फल-फूल नहीं पाया था, उससे कई गुना वह पूंजी परस्त आर्थिक नीतियों - ”उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण“ के दौर में फला-फूला और नई बुलन्दियों को छुआ। पिछले दो सालों के अन्दर केन्द्रीय सरकार के अनगिनत संस्थागत भ्रष्टाचार खुल चुके हैं और उससे कहीं कई गुना ज्यादा अभी जनता के सामने आने बाकी हैं। उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार के भी कई मामले खुले और कई अभी खुलने बाकी हैं। उन घपलों-घोटालों का नाम बार-बार उद्घृत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। न ही संप्रग-2 सरकार में शामिल अथवा बाहर से सहयोग दे रहे सपा-बसपा जैसे राजनीतिक दल भ्रष्टाचार से मुक्त हैं और न ही प्रमुख विपक्षी दल भाजपा और उसके सहयोगियों के ही दामन साफ हैं।

लगातार खुल रहे घपलों और घोटालों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आम जनता के मध्य गुस्सा पैदा किया था। इस आन्दोलन की इस सतही सफलता ने जनता के एक तबके के मध्य इस गुस्से की धार को कम करने का काम किया है। हमें बहुत ही मुस्तैदी के साथ इस प्रक्रिया को रोकना है। इस आन्दोलन की यह अल्प सफलता कोई मील का पत्थर नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में मेहनतकश तबकों और आम अवाम की जीत नहीं है जैसाकि मीडिया चिंघाड़-चिंघाड़ कर हमारे ऊपर लादने की कोशिश कर रहा है। चन्द लोगों के आत्म-अनुभूत हो जाने मात्र से न तो भ्रष्टाचार मिट जायेगा और न ही भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष की जरूरत समाप्त हो जायेगी।

संसद पर ट्रेड यूनियनों द्वारा आयोजित 3 लाख मजदूरों की रैली अखबारों की सुर्खियां तो छोड़िए किसी कोने की न्यूज भी नहीं बनतीं। मजदूर-किसानों के बड़े-बड़े संघर्ष छोटी-मोटी न्यूज नहीं बनते। लेकिन किन कारकों से चन्द हजार लोगों का जमाबड़ा पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यमों में बड़ी जगह और बड़ा महत्व पा जाता है? आम और निरन्तर संघर्षरत जनता को इसकी गहन मीमांसा की जरूरत है और इस दुरभिसंधि को समझने की जरूरत है। इससे जनता के व्यापक तबकों को इस प्रकार के आन्दोलनों के निहितार्थों को समझने में मदद मिलेगी।

वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था का उप-उत्पाद है भ्रष्टाचार जो अकेले फलता-फूलता नहीं बल्कि महंगाई, बेरोजगारी, बढ़ती असमानता तथा समाज के जातीय, धार्मिक एवं क्षेत्रीय संकीर्ण विभाजन के साथ मेहनतकशों का जीवन दूभर करता है। इन सभी बुराईयों का अन्त वर्तमान व्यवस्था के अन्त में सन्निहित है। इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई मूलतः वर्तमान व्यवस्था और उसके अन्यान्य जन विरोधी उप-उत्पादों के खिलाफ अनवरत चलने वाले संघर्ष का ही आवश्यक हिस्सा है और हमें इसके खिलाफ लड़ाई में व्यापक जन लामबंदी जारी रखनी है। हमें असंगठितों को संगठित करने, आम जनता में वर्गीय चेतना को विकसित करने तथा उन्हें वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ उनके स्वयं के हित में संघर्ष करने के लिए प्रेरित करना है। मौजूदा भ्रष्ट सरकारों और राजसत्ता के खिलाफ जनता के आक्रोश को ठंडा करने की कारगुजारियों पर हमें नजर रखनी होगी। आमजन को भी आगाह करना होगा।

भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग जारी है और जारी रहेगी.................।

- प्रदीप तिवारी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद

Wednesday, April 6, 2011

कविता को बनते देखा है


(कवि चन्द्रकान्त देवताले को मराठी का प्रतिष्ठित ‘कुसुमाग्रज राष्ट्रीय सम्मान’ 26 मार्च 2011 को नासिक में विष्णु खरे द्वारा दिया गया। इस अवसर पर इंदौर के साथी विनीत तिवारी द्वारा लिखा गया बेहद अन्तरंग आलेख। विनीत के बारे में कथाकार मित्र शशिभूषण लिखते हैं की वह करते ज्यादा हैं और लिखते कम, तो इन मायनों में यह आलेख खास है।)

रात जब सुबह में बदल रही होती है और धीरे-धीरे आपके आसपास की चीजें अपना काला लिबास छोड़ अपना स्पष्ट आकार और रंग ग्रहण करती हैं, तो वो अनुभव हो चुकी सुबह को देखने के अनुभव के बराबर नहीं, बल्कि अलग होता है। किसी हो चुके को देखना एक अनुभव होता है लेकिन हो चुकने के पहले होने की प्रक्रिया को देखना एक अलग और गाढ़ा अनुभव होता है। शायद इसीलिए नागार्जुन ने घिरे हुए बादल को देखने के बजाय बादल को घिरते देखा।

मेरे लिए देवतालेजी की अनेक कविताएँ उनके बनने की प्रक्रियाओं के दौरान मेरी दोस्त बनीं और इसीलिए वे मेरे लिए उनकी कविता के सामान्य पाठक या आलोचकों के आस्वाद से अधिक या कम भले नहीं, लेकिन थोड़ा अलग मायना ज़रूर रखती हैं। उनसे दोस्ती

किसी यत्न से नहीं हुई। दरअसल देवतालेजी की ही एक कविता है जिसमें वे कहते हैं कि एक कवि को एक जासूस की तरह चौकन्ना होना चाहिए। उनकी उस कविता से प्रेरित होकर मैंने उनकी ही कविताओं की जासूसी शुरू कर दी कि वो कहाँ से पैदा होती हैं, कहाँ से भाषा जुटाती हैं और किस तरह के हथियार या फटकार या पुचकार लेकर पाठकों-श्रोताओं से पेश आती हैं कविता को बनते देखना किसी चित्रकार को चित्र बनाते देखने से या किसी नाटक के कलाकार को रिहर्सल करते देखने जैसा है भी और नहीं भी। फर्क ये है कि कविता को बनते देखने के लिए आपको दृश्य और दृष्टा, यानी कवि के अदृश्य संबंध को महसूस करना होता है।

एक कवि किसी पड़ोसी के घर नीबू माँगने जाए और नीबू न मिले; घर पर कुछ औरतें चंदा माँगने आएँ और उनसे कवि का सामान्य संवाद हो; दो शहरों के बीच अपनी आवाजाही की मुश्किल को एक कवि अपनी सुविधा की ढाल बना रहा हो; पत्नी नियंत्रित पति की हरकतों को एक कवि चुपचाप कनखियों से देख रहा हो; और फिर कुछ दिनों बाद इन्हीं घटनाओं के इर्द-गिर्द कई बार तो नामजद शिकायतों और उलाहनों के साथ देवतालेजी की कविता प्रकट हो जाती थी। मैंने इन सामान्य हरकतों पर नजर रखतीं एक कवि की जासूसी नजरों की जासूसी की और उनकी कविताओं को इस तरह बनते हुए देखा।

दरअसल कुछ महीनों तक हम दोनों लगभग हर शाम इंदौर में उनके घर पर साथ ही बिताया करते थे। कुमार अंबुज के इंदौर रहने के दौरान शुरू हुई रोज की दोस्ताना बैठकें उनके जाने के बाद देवतालेजी और अजीत चौधरी के इंदौर रहते-रहते तक चलती रहीं। इन बैठकों में अजीत चौधरी, आशुतोष दुबे, विवेक गुप्ता, रवीन्द्र व्यास, जितेन्द्र चौहान, प्रदीप मिश्र, उत्पल बैनर्जी आदि बाकी चेहरे बदलते रहते थे पर हम दो चेहरे वही रहते थे। बातचीत भी कविता तक सीमित नहीं रहती थी। अक्सर सांगठनिक चिंताओं से लेकर साहित्य, समाज और साहित्य की तथाकथित सात्विक और मूर्धन्य विभूतियों की खबर ली जाती रहती थी। उसी बीच कभी कमा भाभी का फोन आ जाता था और देवतालेजी उन्हें ये बताकर कि ‘विनीत यहाँ है,’ एक तरह से उन्हें अपनी ओर से निश्चिंत कर दिया करते थे। उन्होंने शायद ही कभी वैसा कोई अकादमिक व्याख्यान दिया हो जो अपने निर्जीव चरित्र की वजह से कुख्यात होते हैं। साहित्य, पर्यावरण या विकास या राजनीति पर उनका संबोधन हो या कविता-पाठ हो, वो हमेशा आत्मीय और रोचक तरह से हड़बड़ाया सा, लेकिन भरपूर चौकन्नेपन के साथ सीधे दिलों में उतर जाने वाला होता रहा है।

देवतालेजी ने कभी अपनी तरफ से किसी को कुछ सिखाने की कोशिश की हो, ऐसा भी मुझे याद नहीं। वो सामने वाले की समझदारी पर इतना यकीन करते हैं कि जिसे जो सीखना होगा, वो मेरे बगैर सिखाये भी मुझसे सीख जाएगा। उसे ही वो जासूसी कहते हैं। खुद उन्होंने भी ऐसे ही सीखा है। बगैर उनके किसी लंबे-चौड़े व्याख्यान और विश्लेषण के उनसे मैंने जो सीखा, उसमें ये बात अहम है कि कविताओं और जीवन के कद को नापने की क्या युक्तियाँ हो सकती हैं, चाहे वो जीवन और कविताएँ खुद की हों या दूसरों की। मैं जब उनसे मिला तब अपनी कविताओं को फेयर करके कहीं भेजने में उन्हें जाने क्या बाधा खड़ी रहती थी।

उसे आलस्य तो नहीं कहा जा सकता। तमाम ज्ञापन, परिपत्र वे बगैर देर किये अपनी खूबसूरत और बल खाती हैंडराइटिंग में फटाक से लिख देते थे लेकिन कविताएँ....। चार-पाँच मर्तबा तो ऐसा हुआ कि फोन करके मुझे बुलाया कि मेरी कविताएँ फेयर कर दे भैया। मैं इसे अपनी जासूसी सीखने में उनका सकारात्मक योगदान मानता हूँ। कविताएँ फेयर करवाते समय या कोई नयी कविता सुनाते समय वो कभी-कभार राय भी पूछ लिया करते थे। अपनी समझ में जो आया, वो अपन ने कह दिया। उनका मूड हुआ तो माना या न मानने का तर्क बता दिया, वर्ना एकाध तुर्श इशारे से समझा दिया कि ‘‘तुमसे पूछ लिया तो ये मत समझो कि ज्यादा होशियार हो।’’

जो लोग उन्हें जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि उनसे कितनी आजादी ली जा सकती है, ये वो ही तय करते हैं। इसी वजह से एकाध बार आपस में दोस्ताना रस्साकशी भी हो गयी। कुछ महीने बीच में बातचीत बंद हो गयी। फिर अंत में भाभी ने एक दिन बुलाकर दोनों की रस्सी के बल ढीले कर दिए। ऐसे ही उनकी एक कविता ने एक और सीख दी। ‘‘मैं नहीं चाहता कि सब मुझे नमस्कार करें और मेरा कोई दुश्मन न हो।’’सबके लिए भले लगने जैसे काम उन्होंने नहीं किये। बेशक उनकी कविताओं में आयी औरत को पाठकों-आलोचकों ने अधिक लक्ष्य किया हो लेकिन मुझे उनकी सीधी राजनीतिक कार्रवाई के आवेग और आवेश में लिखी गईं कविताओं ने ज्यादा आकर्षित किया। पोखरण विस्फोट के मौके पर तमाम संकोची बुद्धिजीवी साहित्यकारों के बीच वे अगली कतार में थे जब उन्होंने बयान दिया कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि जो मैं कह रहा हूँ, उससे मुझे राष्ट्रविरोधी और देशद्राही माना जा सकता है, लेकिल मैं ये खतरा उठाकर भी कहना चाहताहूँ कि पोखरण के परमाणु परीक्षण जनविरोधी और दो देशों की जनता को युद्ध के उन्माद में धकेलकर विवेकहीन बनाने की शासकों की साजिश है, और मैं इनकी निंदा करता हूँ।’’ उनकी कविता ‘‘दुर्लभ मौका आपने गँवा दिया महामहिम’’ उसी वक्त उनकी लिखी गयी और मेरी प्रिय कविताओं में से एक है।

उनकी लम्बी कविता ‘‘भूखण्ड तप रहा है’’ का करीब सवा घंटे का अनवरत सामूहिक पाठ हम लोगों ने पोखरणविस्फोट के बाद वाले हिरोशिमा दिवस पर किया और एक भी श्रोता अपनी जगह छोड़कर नहीं गया।

कभी नर्मदा आंदोलन के आंदोलनकारी इंदौर में धरने पर बैठे तो, या कभी सरकार ने उन्हें दमन करके जेलों में ठूँसा तो, कभी इंदौर में तंग बस्तियों को अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ा गया तो, साम्प्रदायिकता के खिलाफ प्रदर्शन हुआ तो, और ऐसे अनेक मौकों पर जब तक देवतालेजी इंदौर रहे, वे हमेशा हमारे साथ रहे। वे कहते भी थे कि बचपन में वे कम्युनिस्ट नेता होमी दाजी के चुनाव प्रचार में परचे बाँटा करते थे।

प्रगतिशील लेखक संघ में इंदौर में हम सभी साथियों ने काफी काम किया और 2004 में मध्य प्रदेश का यादगार नवाँ राज्य सम्मेलन भी मुमकिन किया जिसमें ए. के. हंगल, प्रोफेसर रणधीर सिंह, डॉ नामवरसिंह, ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद समेत तमाम हिन्दी के साहित्यकार इकट्ठे हुए। उसके लिए देवतालेजी पूरी जिम्मेदारी के साथ बराबरी से चंदा इकट्ठा करने से लेकर व्यवस्थापन के काम में भी जुटे रहे। यहाँ शायद ये बताना प्रासंगिक होगा कि मेरी और उनकी उम्र में करीब 35 बरस का फासला है। इस फासले का अहसास उन्होंने न काम करते वक्त कभी कराया और न ही मस्ती करते वक्त। बल्कि मस्ती में तो वो मुझसे कमउम्र ही हैं।

उनके बारे में ये नोट मैं सफर के दौरान लिख रहा हूँ और उनकी एक भी कविता की किताब या कविताएँ सिवाय याददाश्त के इस वक्त मेरे पास मौजूद नहीं हैं। फिर भी, मेरे भीतर उनकी कविताओं में मौजूद समुद्र, सेब, चंद्रमा, चाँद जैसी रोटी बेलती माँ, नीबू, बालम ककड़ी बेचतीं लड़कियाँ, नंगे बस्तर को कपड़े पहनाता हाई पॉवर, शर्मिंदा न होने को तैयार महामहिम, पत्थर की बेंच, धरती पर सदियों से कपड़े पछीटती हुई और नहाते हुए रोती हुई औरत, दो बेटियों का पिता, दरद लेती हुई बाई, आशा कोटिया, कमा भाभी, अनु, कनु और चीनू, सबकी याद उमड़ रही है। उनके भीतर मौजूद भूखण्ड की तपन और उसका आयतन, सब उमड़ रहा है। यही मेरे लिए उनकी कविताओं से सच्ची दोस्ती और अच्छी जासूसी का हासिल है।

- विनीत तिवारी

दिल-ए-नादाँ

Monday, April 4, 2011

लोकतंत्र का आयात-निर्यात नहीं हो सकता - लीबिया के घरेलू संकट का अमरीकी इलाज नहीं चलेगा

लोकतंत्र का आयात-निर्यात नहीं हो सकता

लीबिया के घरेलू संकट का अमरीकी इलाज नहीं चलेगा


संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद लीबिया को उड़ान क्षेत्र वर्जित क्षेत्र घोषित किया तो लीबिया सरकार ने इसका स्वागत करते हुए तुरन्त युद्ध स्थगन की घोषणा की। इसके कोई भी संकेत नहीं हैं कि लीबिया ने उड़ान-वर्जन घोषणा का उल्लंघन किया। फिर भी सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का बहाना बनाकर प्रथम दिन ही अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी के लड़ाकू विमानों ने ढ़ाई सौ से ज्यादा हमले किये, बम बरसाये और मिसायलें दागीं। युद्धक विमानों द्वारा नागरिक ठिकानों पर हमले किये गये, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों के घायल होने की खबर है। यह लीबिया पर खुल्लम-खुल्ला आक्रमण है। स्पष्ट है कि राष्ट्र संघ के ‘नो फ्लाई जोन’ के प्रस्ताव की मूल भावना का अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी ने उल्लंघन करके लीबियायी तेल क्षेत्र को कब्जाने की नीयत से लीबिया पर नंगा साम्राज्यवादी आक्रमण किया है। अरब लीग समेत भारत एवं अन्य देशों ने इस आक्रमण की निन्दा की है और बात-चीत के माध्यम से संकट के समाधान का रास्ता निकालने की अपील की है। भारत की संसद ने भी युद्ध बंदी की अपील की है और लीबिया के घरेलू मामले में विदेशी हस्तक्षेप पर विरोध जताया है।

यह भी ज्ञातव्य है कि लीबिया को उड़ान वर्जित क्षेत्र घोषित करने के प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद में भारत, चीन, रूस, जर्मनी और ब्राजील ने समर्थन नहीं किया था, क्योंकि पाश्चात्य देश आक्रमण की योजना पहले ही बना चुके थे। किसी देश के घरेलू मामले में विदेशी हस्तक्षेप करना उस देश की सार्वभौमिक प्रभुसत्ता पर हमला है।

पिछले हफ्ते साउदी अरब के शाह ने अपने देश में जन-प्रदर्शनों को इस्लाम विरूद्ध घोषित कर जुलूस निकालने पर और सभा करने पर पाबंदी लगायी है। भला जनता के हक के लिये प्रदर्शन करना धर्म विरूद्ध कैसे हो सकता है। कोई आश्चर्य नहीं कि जो शासक अपने देश में लोकतंत्र की हत्या करते हैं, वे लीबिया में लोकतंत्र की बहाली के नाम पर विदेशी सैनिक आक्रमण का समर्थन करते हैं। पिछले सप्ताह ही बहरीन में जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए साउदी अरब ने अपनी सेना भेजी है। साउदी अरब की सेना ने बहरीन में प्रदर्शनकारियों को टैंकों से रौंदा है और हेलिकाप्टरों से कहर बरसाये हैं। इस पर अमरीका सहित पश्चिमी राष्ट्राध्यक्षों ने चुप्पी साधी है। उन्हें वहां लोकतंत्र का हनन दिखाई नहीं पड़ता। अरब मुल्कों में शासकों द्वारा जनता को प्रताड़ित किया जाता है और शिया समुदाय को शिकार बनाया जा रहा है।

इराक में सद्दाम हुसैन के बहुप्रचारित विनाशक हथियारों का आज तक अता-पता नहीं चला, जिसके बहाने पर उस आक्रमण किया गया था। अफगानिस्तान में ओसामा बिन लादिन पकड़ा नहीं गया। इसल में दोनों ही आक्रमणों का उद्देश्य तेल भंडारों पर कब्जा करना था, सो पूरा हुआ। लीबिया अकेले यूरोपीय देशों को 20 प्रतिशत तेल की आपूर्ति करता है। इसलिये लीबिया पर आक्रमण भी लीबियाई तेल भंडारों को हथियाना होगा।

रही लोकतंत्र की बात, सो अरब मुल्कों में कहीं लोकतंत्र नहीं है, उसी प्रकार लीबिया में भी नहीं। कर्नल मैमर गद्दाफी को समझने के लिए लीबिया का इतिहास-भूगोल भी समझना उपयोगी है। वर्ष 1969 में ब्रिटिश-फ्रांसीसी कठपुतली बादशाह किंग इदरीश को हटाकर कर्नल गद्दाफी ने सत्ता संभाली को राजशाही को समाप्त कर लीबियन अरब रिपब्लिक की स्थापना की। नई सरकार का नारा था: ”आजादी, समाजवाद और एकता“।

मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया, अलजीरिया और मोरक्को भूमध्य सागर के किनारे फैले उत्तरी अफ्रीकी देश हैं, जो स्वेज नहर की मार्फत अरब सागर से अटलांटिक महासागर तक जुड़े हैं। इस क्षेत्र में इन दिनों लोकतंत्र की बयान बह रही है। इसी क्षेत्र में हजारों वर्षों की प्राचीन सभ्यता फली-फूली थी, जिसके अवशेष मिस्र के पिरामिडों में आज भी देखे जा सकते हैं। तारीख और अंकों की ईजाद इन्हीं लोगों ने की थी। प्राचीनतम ग्रीक भाषा में यूरोप, एशिया और लीबिया की भौगोलिक चर्चा है। ‘लीबिया’ शब्द का अर्थ है ‘आजाद’। प्राचीन मिस्र में यह शब्द लड़ाकू बर्बर जनजाति के लिए प्रयुक्त होता था। लीबिया अर्थात बर्बर जनजाति का मुकाबला मिस्री फराहों से हुआ करता था। कालक्रम में दोनों मिल गये। कोई दो सौ वर्षों तक ईसापूर्व 945 से 730 तक मिस्र पर लीबिया वंश का शासन था।

ईसापूर्व दूसरी सदी में रोमनों ने लीबिया को गुलाम बनाया और बाद के सात सौ वर्षों (146 ई.पू. से 670 ई.) तक रोमनों ने यहां शासन किया। रोमन साम्राज्य के अधीन त्रिपोलितानिया और साइरेनायका की गिनती धनी प्रांतों में की जाने लगी। अलेक्जेंड्रिया और इसके कई बंदरगाह व्यापारिक नगर के रूप में विकसित और प्रसिद्ध हुए। इसी दौर में यहां ईसाई और यहूदी धर्म का प्रसार हुआ और प्रशासनिक मामलों में इस क्षेत्र को लीबिया पुकारा जाने लगा।

इस्लाम के उदय के बाद 647 ई. में लीबिया पर अरबों ने आक्रमण किया। 800 ई. तक यह बगदाद के कब्जे में रहा। बगदाद के खलिफाओं के कमजोर पड़ने के बाद इब्राहिम अधलाब ने लीबिया को स्वतंत्र घोषित किया। फिर 1050-52 ई. में इस पर बानू हिलाल ने कब्जा किया। हिलाल वंश का राज कोई 500 वर्षों तक रहा। बाद में इसे तुर्क आटोमान साम्राज्य ने कब्जाया। ढ़ाई सौ वर्षों तक लीबिया आटोमन साम्राज्य का अंग रहा। फिर 1911 ई. में इटली ने इस पर आक्रमण कर उपनिवेश बनाया। तानाशाह मुसोलिनी ने इसे इटली का प्रांत घोषित किया। द्वितीय विश्व युद्ध में मुसोलिनी के पराभव के बाद लीबिया पर फ्रांस और ब्रिट्रेन ने संयुक्त रूप से कब्जा किया। विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद सोवियत यूनियन की पहल पर मित्र राष्ट्रों की सहमति से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लीबिया को 24 सितम्बर 1951 को स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया और पुराने बादशाह इदरीश को बुलाकर गद्दी पर बैठाया गया।

राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोकतंत्र के आधुनिक अर्थ में अरब और अफ्रीकी देशों के शासको के चरित्र को नहीं समझा जा सकता है। इन देशों के शासकों और शासन तंत्र में आज भी पुराने कबिलाई तत्व और व्यवहार मौजूद हैं, जो आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रीयता तथा लोकतंत्र के मार्ग में बाधक हैं। इसीलिए इन देशों में सेना की बड़ी भूमिका है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन देशों में फौज की बड़ी भूमिका राष्ट्र और राष्ट्रीयता के निर्माण में भी है।

लीबिया में ही कोई 15 कबिलाई समुदाय हैं और उनके अपने प्रभाव क्षेत्र भी हैं। कद्दाफी टाईटल भी एक कबिला विशेष की पहचान है। मौमर गद्दाफी की विशेषता है कि इसने लीबिया को लोकतंत्र घोषित किया और अरब राष्ट्रीयता का जोरदार प्रचार किया। इराक के सद्दाम हुसैन की तर्ज पर गद्दाफी ने कट्टर इस्लाम से अलग हटकर क्रांति और समाजवाद का नारा बुलन्द किया था। गद्दाफी ने महिलाओं की भर्ती फौज में की और महिला फौज की सुरक्षा टुकड़ी का निर्माण किया।

अन्य अरब देशों की तरह लीबिया में भी शासन की बुनियाद फौज रही है। पाकिस्तान से लेकर इरान, इराक, साउदी अरब, मिस्र, सूडान आदि तमाम देशों में सरकारों का स्थायित्व फौजों पर निर्भर है। लोकतांत्रिक बयार भी इन देशों की फौजों की सहमति से बहती है और मिटती है। इसे हमने पिछले दशकों में अपने पड़ोसी पाकिस्तान और बंगलादेश में भी देखा है। जाहिर है, फौजी शासन की सीमाएं होती हैं। फौजी शासन जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता। कोई दो हजार वर्षों के क्रूर आक्रमणों और विदेशी गुलामी से मुक्त लीबिया का आजाद मिजाज अवाम निश्चय ही किसी विदेशी प्रभुत्व को बर्दाश्त नहीं करेगा और न ही स्वीकार करेगा किसी स्वदेशी तानाशाह को भी।

शांति का नोबल पुरस्कार प्राप्त अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने लीबिया पर आक्रमण को अंजाम दिया है। इराक और अफगानिस्तान के बाद यह तीसरा देश है जहां के जनगण विदेशी आक्रमण की मुसीबतों के शिकार बनाये गये हैं। सोवियत यूनियन के ढहने के बाद विश्व जनमत भी मुखर नहीं प्रतीत होता है। लोगों को अभी भी याद है कि किस प्रकार स्वेज नहर संकट के समय सोवियत चेतावनी के सामने इसी अमरीकी-ब्रिटिश-फ्रांसीसी धुरी के हमलावर विमान छः घंटे के अंदर वापस अपने बिलों में समा गये थे।

शांति के हित में सर्वथा उचित होगा कि लीबिया में विदेशी हस्तक्षेप तुरन्त बंद किया जाये। लीबिया के घरेलू मसलों का हल लीबिया की जनता पर छोड़ना चाहिये। अगर इराक और अफगानिस्तान में विदेशी हस्तक्षेप समाधान साबित नहीं हुआ तो यह विदेशी हस्तक्षेप निश्चित ही लीबिया में भी नाकाम साबित होगा।

इस क्षेत्र में विशाल तेल भंडार पर कब्जा करने की साम्राज्यवादी वैश्विक लिप्ता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। साम्राज्यवादी ताकतें इराक की तरह लीबिया में भी कबिनाई विरोधाभाष को भड़काकर लीबिया को तोड़ने में लगी हैं। लोकतंत्र आयात-निर्यात की वस्तु नहीं है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी सरकार की किस्मत स्वयं तय करती है। लीबिया में भी बाहर से विदेशी कठपुतली सरकार बनाने की कवायद निश्चय ही नाकाम होगी।
 
- सत्य नारायण ठाकुर
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद