(कवि चन्द्रकान्त देवताले को मराठी का प्रतिष्ठित ‘कुसुमाग्रज राष्ट्रीय सम्मान’ 26 मार्च 2011 को नासिक में विष्णु खरे द्वारा दिया गया। इस अवसर पर इंदौर के साथी विनीत तिवारी द्वारा लिखा गया बेहद अन्तरंग आलेख। विनीत के बारे में कथाकार मित्र शशिभूषण लिखते हैं की वह करते ज्यादा हैं और लिखते कम, तो इन मायनों में यह आलेख खास है।)
रात जब सुबह में बदल रही होती है और धीरे-धीरे आपके आसपास की चीजें अपना काला लिबास छोड़ अपना स्पष्ट आकार और रंग ग्रहण करती हैं, तो वो अनुभव हो चुकी सुबह को देखने के अनुभव के बराबर नहीं, बल्कि अलग होता है। किसी हो चुके को देखना एक अनुभव होता है लेकिन हो चुकने के पहले होने की प्रक्रिया को देखना एक अलग और गाढ़ा अनुभव होता है। शायद इसीलिए नागार्जुन ने घिरे हुए बादल को देखने के बजाय बादल को घिरते देखा।
मेरे लिए देवतालेजी की अनेक कविताएँ उनके बनने की प्रक्रियाओं के दौरान मेरी दोस्त बनीं और इसीलिए वे मेरे लिए उनकी कविता के सामान्य पाठक या आलोचकों के आस्वाद से अधिक या कम भले नहीं, लेकिन थोड़ा अलग मायना ज़रूर रखती हैं। उनसे दोस्ती
किसी यत्न से नहीं हुई। दरअसल देवतालेजी की ही एक कविता है जिसमें वे कहते हैं कि एक कवि को एक जासूस की तरह चौकन्ना होना चाहिए। उनकी उस कविता से प्रेरित होकर मैंने उनकी ही कविताओं की जासूसी शुरू कर दी कि वो कहाँ से पैदा होती हैं, कहाँ से भाषा जुटाती हैं और किस तरह के हथियार या फटकार या पुचकार लेकर पाठकों-श्रोताओं से पेश आती हैं कविता को बनते देखना किसी चित्रकार को चित्र बनाते देखने से या किसी नाटक के कलाकार को रिहर्सल करते देखने जैसा है भी और नहीं भी। फर्क ये है कि कविता को बनते देखने के लिए आपको दृश्य और दृष्टा, यानी कवि के अदृश्य संबंध को महसूस करना होता है।
एक कवि किसी पड़ोसी के घर नीबू माँगने जाए और नीबू न मिले; घर पर कुछ औरतें चंदा माँगने आएँ और उनसे कवि का सामान्य संवाद हो; दो शहरों के बीच अपनी आवाजाही की मुश्किल को एक कवि अपनी सुविधा की ढाल बना रहा हो; पत्नी नियंत्रित पति की हरकतों को एक कवि चुपचाप कनखियों से देख रहा हो; और फिर कुछ दिनों बाद इन्हीं घटनाओं के इर्द-गिर्द कई बार तो नामजद शिकायतों और उलाहनों के साथ देवतालेजी की कविता प्रकट हो जाती थी। मैंने इन सामान्य हरकतों पर नजर रखतीं एक कवि की जासूसी नजरों की जासूसी की और उनकी कविताओं को इस तरह बनते हुए देखा।
दरअसल कुछ महीनों तक हम दोनों लगभग हर शाम इंदौर में उनके घर पर साथ ही बिताया करते थे। कुमार अंबुज के इंदौर रहने के दौरान शुरू हुई रोज की दोस्ताना बैठकें उनके जाने के बाद देवतालेजी और अजीत चौधरी के इंदौर रहते-रहते तक चलती रहीं। इन बैठकों में अजीत चौधरी, आशुतोष दुबे, विवेक गुप्ता, रवीन्द्र व्यास, जितेन्द्र चौहान, प्रदीप मिश्र, उत्पल बैनर्जी आदि बाकी चेहरे बदलते रहते थे पर हम दो चेहरे वही रहते थे। बातचीत भी कविता तक सीमित नहीं रहती थी। अक्सर सांगठनिक चिंताओं से लेकर साहित्य, समाज और साहित्य की तथाकथित सात्विक और मूर्धन्य विभूतियों की खबर ली जाती रहती थी। उसी बीच कभी कमा भाभी का फोन आ जाता था और देवतालेजी उन्हें ये बताकर कि ‘विनीत यहाँ है,’ एक तरह से उन्हें अपनी ओर से निश्चिंत कर दिया करते थे। उन्होंने शायद ही कभी वैसा कोई अकादमिक व्याख्यान दिया हो जो अपने निर्जीव चरित्र की वजह से कुख्यात होते हैं। साहित्य, पर्यावरण या विकास या राजनीति पर उनका संबोधन हो या कविता-पाठ हो, वो हमेशा आत्मीय और रोचक तरह से हड़बड़ाया सा, लेकिन भरपूर चौकन्नेपन के साथ सीधे दिलों में उतर जाने वाला होता रहा है।
देवतालेजी ने कभी अपनी तरफ से किसी को कुछ सिखाने की कोशिश की हो, ऐसा भी मुझे याद नहीं। वो सामने वाले की समझदारी पर इतना यकीन करते हैं कि जिसे जो सीखना होगा, वो मेरे बगैर सिखाये भी मुझसे सीख जाएगा। उसे ही वो जासूसी कहते हैं। खुद उन्होंने भी ऐसे ही सीखा है। बगैर उनके किसी लंबे-चौड़े व्याख्यान और विश्लेषण के उनसे मैंने जो सीखा, उसमें ये बात अहम है कि कविताओं और जीवन के कद को नापने की क्या युक्तियाँ हो सकती हैं, चाहे वो जीवन और कविताएँ खुद की हों या दूसरों की। मैं जब उनसे मिला तब अपनी कविताओं को फेयर करके कहीं भेजने में उन्हें जाने क्या बाधा खड़ी रहती थी।
उसे आलस्य तो नहीं कहा जा सकता। तमाम ज्ञापन, परिपत्र वे बगैर देर किये अपनी खूबसूरत और बल खाती हैंडराइटिंग में फटाक से लिख देते थे लेकिन कविताएँ....। चार-पाँच मर्तबा तो ऐसा हुआ कि फोन करके मुझे बुलाया कि मेरी कविताएँ फेयर कर दे भैया। मैं इसे अपनी जासूसी सीखने में उनका सकारात्मक योगदान मानता हूँ। कविताएँ फेयर करवाते समय या कोई नयी कविता सुनाते समय वो कभी-कभार राय भी पूछ लिया करते थे। अपनी समझ में जो आया, वो अपन ने कह दिया। उनका मूड हुआ तो माना या न मानने का तर्क बता दिया, वर्ना एकाध तुर्श इशारे से समझा दिया कि ‘‘तुमसे पूछ लिया तो ये मत समझो कि ज्यादा होशियार हो।’’
जो लोग उन्हें जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि उनसे कितनी आजादी ली जा सकती है, ये वो ही तय करते हैं। इसी वजह से एकाध बार आपस में दोस्ताना रस्साकशी भी हो गयी। कुछ महीने बीच में बातचीत बंद हो गयी। फिर अंत में भाभी ने एक दिन बुलाकर दोनों की रस्सी के बल ढीले कर दिए। ऐसे ही उनकी एक कविता ने एक और सीख दी। ‘‘मैं नहीं चाहता कि सब मुझे नमस्कार करें और मेरा कोई दुश्मन न हो।’’सबके लिए भले लगने जैसे काम उन्होंने नहीं किये। बेशक उनकी कविताओं में आयी औरत को पाठकों-आलोचकों ने अधिक लक्ष्य किया हो लेकिन मुझे उनकी सीधी राजनीतिक कार्रवाई के आवेग और आवेश में लिखी गईं कविताओं ने ज्यादा आकर्षित किया। पोखरण विस्फोट के मौके पर तमाम संकोची बुद्धिजीवी साहित्यकारों के बीच वे अगली कतार में थे जब उन्होंने बयान दिया कि, ‘‘मैं जानता हूँ कि जो मैं कह रहा हूँ, उससे मुझे राष्ट्रविरोधी और देशद्राही माना जा सकता है, लेकिल मैं ये खतरा उठाकर भी कहना चाहताहूँ कि पोखरण के परमाणु परीक्षण जनविरोधी और दो देशों की जनता को युद्ध के उन्माद में धकेलकर विवेकहीन बनाने की शासकों की साजिश है, और मैं इनकी निंदा करता हूँ।’’ उनकी कविता ‘‘दुर्लभ मौका आपने गँवा दिया महामहिम’’ उसी वक्त उनकी लिखी गयी और मेरी प्रिय कविताओं में से एक है।
उनकी लम्बी कविता ‘‘भूखण्ड तप रहा है’’ का करीब सवा घंटे का अनवरत सामूहिक पाठ हम लोगों ने पोखरणविस्फोट के बाद वाले हिरोशिमा दिवस पर किया और एक भी श्रोता अपनी जगह छोड़कर नहीं गया।
कभी नर्मदा आंदोलन के आंदोलनकारी इंदौर में धरने पर बैठे तो, या कभी सरकार ने उन्हें दमन करके जेलों में ठूँसा तो, कभी इंदौर में तंग बस्तियों को अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ा गया तो, साम्प्रदायिकता के खिलाफ प्रदर्शन हुआ तो, और ऐसे अनेक मौकों पर जब तक देवतालेजी इंदौर रहे, वे हमेशा हमारे साथ रहे। वे कहते भी थे कि बचपन में वे कम्युनिस्ट नेता होमी दाजी के चुनाव प्रचार में परचे बाँटा करते थे।
प्रगतिशील लेखक संघ में इंदौर में हम सभी साथियों ने काफी काम किया और 2004 में मध्य प्रदेश का यादगार नवाँ राज्य सम्मेलन भी मुमकिन किया जिसमें ए. के. हंगल, प्रोफेसर रणधीर सिंह, डॉ नामवरसिंह, ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद समेत तमाम हिन्दी के साहित्यकार इकट्ठे हुए। उसके लिए देवतालेजी पूरी जिम्मेदारी के साथ बराबरी से चंदा इकट्ठा करने से लेकर व्यवस्थापन के काम में भी जुटे रहे। यहाँ शायद ये बताना प्रासंगिक होगा कि मेरी और उनकी उम्र में करीब 35 बरस का फासला है। इस फासले का अहसास उन्होंने न काम करते वक्त कभी कराया और न ही मस्ती करते वक्त। बल्कि मस्ती में तो वो मुझसे कमउम्र ही हैं।
उनके बारे में ये नोट मैं सफर के दौरान लिख रहा हूँ और उनकी एक भी कविता की किताब या कविताएँ सिवाय याददाश्त के इस वक्त मेरे पास मौजूद नहीं हैं। फिर भी, मेरे भीतर उनकी कविताओं में मौजूद समुद्र, सेब, चंद्रमा, चाँद जैसी रोटी बेलती माँ, नीबू, बालम ककड़ी बेचतीं लड़कियाँ, नंगे बस्तर को कपड़े पहनाता हाई पॉवर, शर्मिंदा न होने को तैयार महामहिम, पत्थर की बेंच, धरती पर सदियों से कपड़े पछीटती हुई और नहाते हुए रोती हुई औरत, दो बेटियों का पिता, दरद लेती हुई बाई, आशा कोटिया, कमा भाभी, अनु, कनु और चीनू, सबकी याद उमड़ रही है। उनके भीतर मौजूद भूखण्ड की तपन और उसका आयतन, सब उमड़ रहा है। यही मेरे लिए उनकी कविताओं से सच्ची दोस्ती और अच्छी जासूसी का हासिल है।
- विनीत तिवारी
दिल-ए-नादाँ