Wednesday, August 24, 2016
भाकपा ने बाढ़ की विभीषिका पर गहरी चिंता जताई
भाकपा ने बाढ़ से तबाही पर गहरी चिंता जताई: सरकारों से फौरी कदम उठाने की मांग की
लखनऊ- 24 अगस्त 16, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान आदि में बाढ़ की भीषण तबाही से धन और जन हानि पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुये केंद्र और राज्य सरकारों से लोगों की जान बचाने और तबाही से निपटने को ठोस कदम उठाने की मांग की है.
यहाँ जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लगभग 25 जिले आज भयंकर बाढ़ की त्रासदी का सामना कर रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार के प्रयास खतरे और तबाही के मुकाबले काफी कम दिखाई देरहे हैं. अधिकतर राहत और बचाव का काम साधन रहित चंद कर्मचारियों व अधिकारियों के हवाले है. अतएव जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. यही हाल पड़ौसी राज्यों बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान का है.
भाकपा ने कहाकि केंद्र की और राज्यों की सरकारों ने बाढ़ की बिभीषिका से निपटने को यदि समग्र नीति अपनाई होती तो तबाही काफी कम होती. गंगा में जहाज चलाने से ज्यादा उसकी सिल्ट निकाले जाने के काम को प्राथमिकता दी जानी चाहिये थी. अब जरूरत है कि फौरी कदम तेजी से उठाये जायें और आधुनिक साधनों से लैस बचाव दलों को तबाही क्षेत्रों में भेजा जाये.
भाकपा राज्य सचिव मंडल ने प्रभावित इलाकों और उसके इर्द गिर्द की अपनी शाखाओं को निर्देश दिया कि वे पीढ़ित जनता की मदद करें, और शासन प्रशासन के समक्ष जनता की समस्याओं को पेश करें. डा. गिरीश ने बताया कि उन समेत भाकपा का एक राज्य स्तरीय प्रतिनिधिमंडल चार दिन की पूर्वी उत्तर प्रदेश की यात्रा पर कल रबाना होरहा है.
डा.गिरीश
राजनीतिजन्य है खेती, किसान और गांव का संकट: राजनीति में ही छिपा है उपचार; डा. गिरीश
देश के किसान आज गहरे संकट से गुजर रहे हैं. गत दो वर्षों में देश के साठ फीसदी किसान सूखे की चपेट में थे, तो आज वे भीषण बाढ की तबाही को झेल रहे हैं. आपदा प्रबंधन हो या राहत आबंटन, सरकारी फायलों में अधिक जमीन पर कम दिखाई देते हैं. पिछले 25 सालों से जारी आर्थिक उदारीकरण की नीतियों ने उनकी माली हालत को खोखला बना कर रख दिया है. आत्महत्या और पलायन उनकी नियति बन गये हैं. खेती और किसान की यह नियति ही आज गांव की नियति भी बन गयी है.
केन्द्र और राज्यों में सरकारें बदलती रहीं, लेकिन किसान और कृषि उनकी चिंता के केन्द्र में कभी नहीं रहा. अपने चुनाव अभियान में भाजपा और श्री मोदी ने उनकी उपज पर 50 प्रतिशत लाभ बढा कर दिलाने का वायदा किया था. पर लाभ तो दूर उसे खेती में लगायी हुयी लागत भी पलट कर नहीं मिल रही. हालत यह है कि देश के किसानों की औसत आय घट कर 6426 रुपये रह गयी है. जबकि कृषक परिवारों का औसत बकाया कर्ज 47,000 रुपये होगया है. आय की दर घटी है और कर्ज का औसत बढा है.
श्री मोदी जी ने जब वाराणसी से लोक सभा का चुनाव लडने का फैसला लिया था तो गंगा यमुना के दोआब वाले प्रदेश उत्तर प्रदेश के किसानों में एक आशा की किरण जागी थी. उन्हें लगा था कि अब उनके संकट के दिन बीते जमाने की बात होने जा रहे हैं. लेकिन आज उनकी औसत आय घट कर 4923 रुपये रह गयी है. यानी नीचे से चौथे पायदान पर. उत्तर प्रदेश की सरकार भी अखबार और टी. वी. चैनलों पर विज्ञापनों के द्वारा ही किसान हित साधती नजर आरही है. सालों पहले हुयी ओलावृष्टि की याद उसे तब आयी जब चुनाव सिर पर हैं. यदि अनुपूरक बजट में की गयी राहत राशि का आबंटन पहले कर दिया होता तो शायद कई किसान आत्महत्या न किये होते. आज भी जो व्यवस्था की गई है वह ऊंट के मुहं में जीरे के समान है. केंद्र और राज्य सरकारें कितने भी दाबे करें पर यह सच्चाई है कि चीनी मिलों पर किसानों का सैकड़ों करोड़ रुपया बकाया है.
पडौस में जब लाभ की नींव पड़ती दिखती है तो पडोसी भी लाभ की उम्मीद लगाता है. पर उम्मीदों के प्रदेश के पडोसी राज्य बिहार के किसानों की औसत आय सबसे नीचे के पायदान पर पहुंच कर 3558 रुपये रह गयी है. वर्तमान में वहां आयी बाढ से उनकी हालत और भी खराब होने जारही है. औसत आय के ग्राफ पर बंगाल नीचे से दूसरे और उत्तराखंड तीसरे पायदान पर है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की इस रिपोर्ट ने सरकारों द्वारा किये जारहे दाबों की कलई खोल कर रख दी है. एक नई कृषि नीति और नई कृषि प्रणाली पर चर्चा शुरू करने की जरूरत आन पडी है.
आज खेती का सबसे बढा संकट यह है कि वह हर तरह से पूंजीवाद की जकड में है. आत्मनिर्भर गांव और खेती का हमारा परंपरागत ढांचा पूरी तरह ढह चुका है. आधुनिक खेती के सारे उपादान- खाद, बीज, बिजली, डीजल, उपकरण और कीटनाशक किसानों को भारी कीमत देकर खरीदने होते हैं. लेकिन अपने उद्पादों को वह लागत और लाभ की गणना करके निकाले गये मूल्य पर नहीं बेच सकता. अपने उद्पादों को बेचने के लिये उसे पूंजीवादी संस्थानों की शरण में जाना पढता है, जहाँ कीमतें किसान अथवा किसान संगठन नहीं बाज़ार तय करता है. किसानों के हित में किसान संगठनों ने जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली( MSP) को लागू कराया था पूंजीवादी सरकारों ने उसे भी किसानों की उपज की कीमतों को सीमित करने का माध्यम बना दिया है.
यह अक्सर ही होता है कि जब अनाज, सब्जी या फलों की फसल पैदा होती है तो इनकी कीमतें नीचे ला दी जाती हैं और जब किसान अपना उत्पादन बेच चुका होता है तो ये कीमतें बढने लगती हैं. किसान की माली हालत ऐसी नहीं होती कि वो अपने उत्पादों को कीमतें चढने तक रोक सके. उसकी इस हालत का पूरा लाभ वे तत्व उठाते हैं जो उत्पादन प्रक्रिया के अंग नहीं हैं और अपने पैसे के बल पर किसानों की मेहनत को लूट कर मालामाल होरहे हैं.
परिवार के विभाजन के साथ साथ कृषि भूमि का विभाजन लगातार होरहा है. अधिकतर किसान आज या तो हाशिये के किसान बन गये हैं या फिर वे लगभग भूमिहीनता की स्थिति में पहुंच गये हैं. इस स्थिति ने एक नये किसान समूह को जन्म दिया है जो इन हाशिये के किसानों की जमीनों को खरीद कर बडा जोतदार बन गया है. सीलिंग कानून के निष्प्रभावी बना दिये जाने के चलते पहले से भी कई बडे जोतदार मौजूद हैं. ये सभी संसाधनों से लैस हैं. बैंक और सरकारों की सुविधाओं का लाभ भी अधिकतर ये लोग ही उठाते हैं. हाशिये के किसानों की जमीन को किराये या बटाई पर लेकर कैश क्रोप पैदा करते हैं. कार्पोरेट कृषि का प्रारंभ यहीं से होता है.
उन्नत उपकरणों के चलते इन बड़े किसानों की उपजों का लागत मूल्य कम आता है. वे अपनी पैदावारों को स्टोर करने या कोल्ड स्टोरेज में रखने में सक्षम हैं और उन्हें तभी बेचते हैं जब बाज़ार में कीमतें बढ जाती हैं. इनमें से अधिकतर नेता, अधिकारी, उद्योगपति अथवा दूसरे माफिया समूह हैं. ये शहर अथवा कस्बों में रह कर खेती का संचालन करते हैं. इस तरह की खेती ने ग्रामीण रोजगार की दर को न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया है. गांवों से रोजगार के लिये पलायन तो बढा ही है, नवोदित उन्नत किसानों के गांव में न रहने से वहाँ की कृषि की कमाई शहरों में व्यय होरही है और गांव कंगाल होरहे हैं.
इस स्थिति का प्रमुख कारण यह है कि छोटी जोत वाला किसान न तो ट्रेक्टर खरीद पाता है न ट्यूवबेल लगा सकता है. बैल पालना भी अब भारी महंगा होगया है. जुताई सिंचाई और ओसाई आदि उसे ज्यादा किराया देकर बडे किसानों के उपकरणों से करानी होती है. अतएव उसकी लागत बड़ जाती है. लागत के सापेक्ष वह निरंतर घाटे में जा रहा है और महाजनों और बैंकों के कर्ज के जाल में फंसता जा रहा है. यही कर्ज अनेकों की जान पर भारी पड रहा है. किसानों के जो युवक पढ़ लिख कर अच्छे रोजगार में चले जाते हैं वे पहले अपने हिस्से की जमीनें किराये पर उठा कर धन को शहरों में ले जाते हैं और बाद में जमीन को बेच कर रकम को भी शहरों में ले जाते हैं. गांव की कंगाली और बदहाली में उनका बढा योगदान है. खेती नहीं तो भूमि नहीं का फार्मूला हमारे यहाँ लागू नहीं है.
औसत किसान की बदहाली का सीधा असर खेतिहर मजदूरों और ग्रामीण दस्तकारों पर पड़ रहा है. वे आर्थिक मार तो झेल ही रहे हैं, दबंगों के हमलों को भी उन्हें झेलना होता है. गांव में न अच्छे स्कूल हैं न अच्छे अस्पताल. खराब सडकें, बदहाल संपर्क मार्ग, पंगु बनी यातायात व्यवस्था और बिजली की नाममात्र की मौजूदगी किसानों कामगारों के लिये अभिशाप बने हुये हैं. कुटीर और छोटे धंधे टिक नहीं पा रहे हैं.
किसानों और अन्य ग्रामीण तबकों की इस स्थिति में बदलाव तभी संभव है जब केंद्र और राज्य सरकार की नीतियां हाशिये के किसान को केंद्र में रख कर बनाई जायें. पर जाति धर्म के नाम पर वोट हथिया कर पूंजीवाद की गोद में जा बैठने वाली सरकारों से यह उम्मीद लगाना व्यर्थ है. यह तभी संभव है जब किसान और ग्रामीण मतदाता ऐसी पार्टियों को मौका दें जो किसानों, ग्रामीण मजदूर और दस्तकारों के हित में काम करती हैं और जो जाति, धर्म, भ्रष्टाचार और मौकापरस्ती से कोसों दूर हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां और अन्य वामपंथी समूह ही इस योग्यता को पूरा करते हैं, सत्ता के खेल में रनर- बिनर बनी पार्टियां नहीं.
ये कम्युनिस्ट पार्टियां ही हैं जिनके पास किसानों और खेती की कायापलट का ठोस कार्यक्रम है. वे सीलिंग लागू करने, जमीनों के वितरण और भूमि सुधार, कृषि उपादानों को कम कीमत पर दिलाने, उत्पादन और भंडारण के लिये ब्याजमुक्त ऋण दिलाने, प्राकृतिक आपदाओं से बचाव और उसकी त्वरित भरपाई किये जाने, कृषि भूमि का कम से कम अधिग्रहण और उसके बदले भूमि, रोजगार और उचित मुआबजा दिलाने, सचल विपणन केंद्र बनाने, ग्रामों में शिक्षा, स्वास्थ्य, आवागमन की सुविधा और रोजगार के अवसर बढाने और सभी को कानूनी सरंक्षण प्रदान करने को प्रतिबध्द हैं. जाति और सांप्रदायिक विद्वेष खेत्ती किसान और गांव की प्रगति में बाधक हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां और वामपंथी शक्तियां उसको समूल उखाड फेंकने को प्रतिबध्द हैं. किसानों का संकट राजनीतिजन्य है तो इसका निदान भी राजनीतिक ही होगा.
वामपंथी किसान संगठनों को भी नये संकटों और नयी परिस्थितियों का आकलन कर नये तरीकों से किसानों को संगठित करना होगा. ट्रेड यूनियन मार्का नारेबाजी और पूंजीवादी दलों के पिट्ठू किसान संगठनों द्वारा उछाले गये सबका साथ सबका विकास जैसे छलावों से किसानों का कोई हित होने वाला नहीं. भ्रष्टाचार से मुक्त और सरकार द्वारा सरंक्षित सामूहिक खेत्ती भी हाशिये के किसानों को संकट से निकाल सकती है, अतएव इस दिशा में भी काम किया जाना चहिये.
डा. गिरीश
Wednesday, August 17, 2016
महंगाई और एफडीआई, दलितों अल्पसंख्यकों और महिलाओं पर अत्याचार के खिलाफ भाकपा ने जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन किये
लखनऊ- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के आह्वान और राज्य कमेटी के निर्देश पर आज समूचे उत्तर प्रदेश के अधिकतर जनपदों में जहां भाकपा की जिला कमेटियां कार्यरत हैं, धरने और प्रदर्शनों का आयोजन किया गया. कई जिलों में तो भारी वारिश होरही थी फिर भी कार्यक्रमों का आयोजन किया गया.
केंद्र सरकार की नीतियों के चलते जनता पर पड़ रही महंगाई की मार, रक्षा सहित तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(एफडीआई) को बढावा देने, युवाओं को रोजगार देने के वायदे से मुकरने, शिक्षा को व्यापार बना कर आम और गरीब लोगों की पहुंच से बाहर कर देने, देश भर में और उत्तर प्रदेश में दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं पर होरहे नृशंस हमलों, राशन की दुकानों पर वस्तुओं के निर्धारित मूल्यों से अधिक दाम बसूलने, कम माल देने, सभी पात्रों को राशन कार्ड न देने तथा फसल बीमा कंपनियों द्वारा किसानों के साथ की जारही धोखाधड़ी आदि सवालों पर आंदोलन किया गया.
सूखा ग्रस्त जिलों में सूखा राहत दिलाने, गन्ना उत्पादक किसानों के मिलों पर बकायों का शीघ्र भुगतान कराने और स्थानीय सवालों को भी ज्ञापनों में शामिल किया गया. सभी जगह सभायें की गयीं तथा महामहिम राष्ट्रपति और राज्यपाल को संबोधित ज्ञापन जिलाधिकारियों को सौंपे गये.
भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने बताया कि प्रेस नोट जारी करने तक जिलों जिलों से आंदोलन की खबरें लगातार राज्य केंद्र को प्राप्त होरही हैं. लखनऊ में पार्टी कार्यालय से हज़रत गंज स्थित डा. अंबेडकर प्रतिमा तक जुलूस निकाला गया और वहां आम सभा की गयी. मैनपुरी में भारी वारिश के बावजूद प्रभावशाली प्रदर्शन किया गया. गाज़ियाबाद में जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना दिया गया. कानपुर देहात में मूसलाधार वारिश के बावजूद माती स्थित जिलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन किया गया. बरेली में कलक्ट्रेट पर विशाल धरना दिया गया.
इसी तरह गाज़ीपुर में अपर जिलाधिकारी कार्यालय पर विशाल धरना हुआ तो इलाहाबाद में जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना प्रदर्शन किया गया. मुरादाबाद में कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन हुआ तो जालौन जिले के उरई स्थित मुख्यालय पर भारी वारिश के मध्य विशाल और शानदार प्रदर्शन किया गया. हाथरस में जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना दिया गया. मथुरा में जिलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन किया गया. आज़मगढ में कलेक्ट्रेट एरिया में प्रदर्शन किया गया. फैज़ाबाद में गुलाब बाड़ी से विकास भवन तक जुलूस निकाला गया.
मऊ में शहर से कलेक्ट्रेट तक प्रदर्शन किया गया तो कानपुर में राम आस्ररे पार्क में धरना और सभा हुयी. बुलंदशहर, आगरा, मेरठ, अमरोहा, शाहजहांपुर, सीतापुर, सहारनपुर, बिजनौर, गोंडा, बलरामपुर, कुशी नगर, देवरिया, गोरखपुर, बलिया, बनारस, भदोही, फतेहपुर, सोनभद्र, कौशांबी, बांदा, चित्रकूट, झांसी, औरय्या, बदायूं, पीलीभीत, हरदोई, आदि जनपदों से कार्यक्रम संपन्न होने की सूचना मिल चुकी है.
डा. गिरीश
Tuesday, August 16, 2016
स्वतंत्रता दिवस, मोदी जी मीडिया और मैं
कल लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी के भाषण पर मीडिया में खूब सराहना उंडेली गयी है. क्यों न उंडेली जाय. आखिर मीडिया भी तो उनका है जिनके श्री मोदी जी हैं. कार्पोरेट्स और धन कुबेरों के.
लेकिन श्री मोदीजी ने यह नहीं बताया कि कश्मीर में शांति बहाली के लिये उनकी सरकार क्या कदम उठाने जा रही है. सरकार कश्मीर में तनाव खत्म करने, लोगों का विश्वास जीतने और सामान्य स्थिति बहाल करने के लिये क्या कर रही है? न हीं उन्होने कश्मीर में भाजपा की सहभागी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के इस आरोप का जबाव दिया कि कश्मीर में पूर्व का और आज का राष्ट्रीय नेत्रत्व विफल रहा है.
मोदी जी! आपने पाक अधिकृत कश्मीर, बलूचिस्तान और गिलगिट पर जुमले फेंक खूब वाह वाही बटोरी है. पर क्या इसका यह कारण नहीं कि कश्मीर और पाकिस्तान के संबंध में आपकी विफल नीति और कथित गोरक्षकों पर आपकी टिप्पणी से बौखलाये संघियों को आप पुन: प्रशन्न करना चाहते थे. और वे प्रशन्न हो भी गये हैं. मोदी जी, आपसे बेहतर कौन जानता है कि फिल्म शोले गब्बर की वजह से देखी जाती है, तीन सुपर स्टारों और एक सुपर हीरोइन की वजह से नहीं.
मोदी जी, जब आप लाल किले की प्राचीर से दहाड़ रहे थे, आपके ही राज्य गुजरात के ऊना में दलितों पर आग्नेयास्त्रों से नृशंस हमले हो रहे थे. आपके मात्र संगठन द्वारा बोयी गयी विष बेल का रस पान कर मदमत्त लोग दलितों और अल्पसंख्यकों पर अमानुषिक हमलों का सिलसिला लगातार चलाये हुये हैं लेकिन आपने अपने संबोधन में उनके लिये एक भी शब्द नहीं बोला. पीड़ितों को अन्याय से छुटकारा कैसे मिलेगा, आप मौन ही रहे. ‘मौनं स्वीकृति लक्षणम’ यह शास्त्रों में विहित है, कोई मार्क्सवादी अवस्थापना नहीं.
आपने ठीक कहा मोदी जी कि आपकी सरकार अपेक्षाओं की सरकार है, पर यह नहीं बताया कि गत 27 महीनों में आपने कौनसी अपेक्षाओं को पूरा कर दिया. कोई एक भी की हो तो बताइये जरूर. आपने मुद्रास्फीति 6 फीसदी के भीतर रखने का कीर्तिमान बनाने का दाबा किया है, पर हमें तो दाल रु.- 200 प्रति किलो मिल रही है उसका जिम्मेदार कौन? बेरोजगारों को हर वर्ष दो करोड़ रोजगार और किसानों को पचास फीसदी लाभ देने का क्या हुआ मोदी जी. गन्ना किसानों को सौ फीसद भुगतान दिलाने और हाथरस के ग्राम- फतेला में बिजली दौड़ाने के आपके दाबों की सच्चाई तो आपने अपने परमप्रिय मीडिया पर देख ही ली होगी.
और भी कुछ लिखना चाहता था. पर आपके स्वच्छता अभियान का शिकार हुआ बैठा हूँ. लखनऊ में थोडी सी वारिश होगयी है, और हमारे 22, केसरबाग स्थित कार्यालय में हर रोज की तरह जल प्लावन होगया है. मेज के पायदान पर पैर रख कर टिप टिप कर रहा हूँ. बिजली भी नहीं है, लेपटाप के स्क्रीन की रोशनी का सहारा मिला हुआ है. बिजली की रोशनी के लिये तो मान लेता हूँ कि अखिलेश बाबू जिम्मेदार हैं. पर यह जलप्लावन तो आपके ही चहेतों की देन है. लखनऊ के मेयर तो सौ प्रतिशत आपके हैं पर आपके स्वच्छता हो या कोई और अभियान. आपके ही लोग पलीता लगा रहे हैं. इससे पहले कि बैटरी भी जबाव देजाय- भवं भवानी, सहितं नमामि,
डा. गिरीश, राज्य सचिव
भाकपा , उत्तर प्रदेश
ऊना में दलितों पर हमले बंद करो, दोषियों को कड़ी सजा दो: भाकपा
लखनऊ- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने कल गुजरात के ऊना में दलितों और अल्पसंख्यकों की संयुक्त रैली में उमडी भारी भीड़ से बौखलाये सामंती और संघी सोच वाले तत्वों द्वारा दलितों पर किये गये जानलेवा हमलों की कठोर शब्दों में निंदा की है.
भाकपा ने गुजरात और समूचे देश में अपने भयावह उत्पीड़न के खिलाफ और आर्थिक और सामाजिक आज़ादी पाने के लिये संघर्षरत दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य कमजोर तबकों के आंदोलनों के प्रति पूर्ण एकजुटता प्रदर्शित की है.
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि गुजरात और देश के दूसरे भागों में गौहत्या और अन्य बहानों से दलितों और अल्पसंख्यकों पर होरहे निर्मम हमलों के खिलाफ गुजरात के अहमदाबाद से यात्रा निकाली गयी थी जिसका कल स्वतंत्रता दिवस पर ऊना में समापन होना था. इस रैली में भाग लेने को दलितों के भीतर भारी आक्रोशजनित उत्साह था. अल्पसंख्यकों की इसमें शिरकत की खबरों से यह उत्साह और भी बढ गया था.
इससे पहले से ही हमलाबर सामंती और संघी तत्व पूरी तरह बौखला गये. रैली में आने से पूर्व दलितों को गांव गांव में न केवल धमकाया गया अपितु कई जगह तो उन्हें गांवों से बाहर निकलने तक नहीं दिया गया. पुलिस और सामंती तत्व मिल कर उन्हें रैली की ओर जाने वाले रास्तों पर रोक रहे थे. पूरा ऊना शहर छावनी बना दिया गया था ताकि दहशत के मारे दलित रैली में शामिल न हों.
लेकिन फिर भी रैली में जब भारी भीड़ जुट गयी तो इन्हीं तत्वों ने रैली से लौट रहे दलितों पर गोलियां बरसाईं और उनके वाहनों में आग लगा दी. सैकडों की तादाद में दलित जख्मी हुये हैं और सरकारी तथा गैर सरकारी अस्पतालों में इलाज करा रहे हैं. आज भी गांवों में दलितों पर हमले होने की खबर है. इतना ही नहीं इस रैली में भाग लेने पहुंचे जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार और दलित नेताओं की अहमदाबाद में होने वाली प्रेस कांफ्रेंस को सरकार ने रद्द करा दिया जबकि उसकी पहले से अनुमति थी. यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शर्मनाक हमला है.
डा. गिरीश ने कहा कि यह सब उस समय होरहा है जब कल ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ने दलितों पर अनाचार को लेकर कठोर टिप्पणियां की हैं और कडी कार्यवाही किये जाने पर बल दिया है. इससे श्री मोदी के गुजरात माडल और संघ के कथित हिंदू राष्ट्र का मुखौटा उतर गया है. सवाल उठता है कि ये कठोर कार्यवाही कब होगी. भाकपा का स्पष्ट मत है कि गुजरात सरकार से पीड़ितों को न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती. अतएव इस समूचे प्रकरण की जांच सर्वोच्च न्यायालय के सेवारत न्यायधीश से कराई जानी चाहिये.
डा. गिरीश
Friday, August 12, 2016
आगामी चुनावों में मुद्दों को दरकिनार करने की साजिश को काम्याब नहीं होने दिया जायेगा- भाकपा
लखनऊ-12 अगस, 2016, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने प्रदेश में सत्ता की दौड में शामिल प्रमुख दलों पर आरोप लगाया है कि वे आगामी विधान सभा चुनाव को जनता के सवालों से भटकाने और मतदाता को एक बटन दबाने वाले रोबोट की हैसियत में पहुंचाने की कवायद में जुटे हैं. दल- बदल और पाला बदल कराने की ताजा कोशिशें इसी उद्देश्य से प्रेरित है. भाकपा इस पर कडी नजर बनाये हुये है और पूंजीवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी दलों की इस करतूत को जनता के बीच ले जायेगी और प्रदेश के आगामी चुनाव जनता के बुनियादी सवालों पर लडे जायें इसके लिये हर संभव प्रयास करेगी.
भाकपा के राज्य सचिव मंडल ने एक बैठक कर प्रदेश के मौजूदा हालातों का संज्ञान लिया. पार्टी के प्रदेश सचिव डा. गिरीश की अध्यक्षता में संपन्न इस बैठक में शामिल सचिवमंडल के सदस्यों में इस सवाल पर एकमत था कि गत ढाई दशक से अधिक समय से प्रदेश में सपा, बसपा जैसे क्षेत्रीय दलों और सांप्रदायिक भाजपा का शासन रहा है, और इस बीच प्रदेश का अपेक्षित विकास नहीं हुआ है. प्रदेश की जनता गहरे सामाजिक आर्थिक संकटों से गुजर रही है और इन दलों से उसका मोहभंग हुआ है. यही वजह है कि किसी दल को आगामी विधान सभा चुनावों में जीत का भरोसा नहीं है. अतएव इन दलों में कई किस्म के अंतर्विरोध पैदा होगये हैं और उनमें भगदड मची है.
पिछले कुछ दिनो में उत्तर प्रदेश में कई विधायकों, पूर्व मंत्रियों और पूर्व विधायकों ने जिस तरह से पाला बदल किया है इसका जनहित, राजनैतिक विचारधारा और सिध्दांतों से कोई लेना देना नहीं है अपितु यह अवसरवादी राजनीति की पराकाष्ठा है और हर कोई सुरक्षित घर की तलाश में है. विधान सभा चुनावों से छह माह पहले ही चल पडे इस घृणित खेल ने दल बदल कानून को भी प्रभावहीन बना डाला है. इस आवाजाही के आने वाले दिनों में और गति पकडने की प्रबल संभावनायें हैं.
जनता खुली आंखों से देख रही है कि इस खेल में अपने को ‘औरों से अलग’ पार्टी बताने वाली भाजपा सबसे आगे है. केंद्र की उसकी सरकार की नीतियों और कारगुजारियों का पूरी तरह भंडाफोड होजाने और उसके नेताओं में भी मची भगदड के चलते उसने सारी मर्यादायें ताक पर रख दी हैं और केंद्र की सता का लाभ उठा कर उसने दल बदल को ही मुख्य औजार बना लिया है. अरुणांचल और उत्तराखंड में न्यायालय के हस्तक्षेप के चलते अपने मंसूबों को पूरा करने में विफल रही भाजपा अब उत्तर प्रदेश मे सत्ता हथियाने को बडे पैमाने पर दल बदल का खेल खेल रही है.
खराब कानून व्यवस्था और सत्ता विरोधी रुझान से हतप्रभ सपा भरपाई करने को किसी को भी पार्टी में लाने को उतारु है. उसने कई ऐसे लोगों को शामिल किया है जो सीधे आर.एस.एस. से जुडे हैं और जिन पर दंगा फसाद कराने के संगीन आरोप लगे हैं. बहुजन समाज के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव के सपनों से खिलवाड करते हुये सत्ता के लिये पूरी तरह सामंतवाद और पूंजीवाद के सामने घुटने टेक देने की बसपा की नीति अब पूरी तरह उजागर हो चुकी है और वह सर्वाधिक भगदड का शिकार बनी हुयी है. इससे उबरने को बसपा भी दल बदल के काम में जुटी है.
इस सबके जरिये प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य से जनता के मुद्दों को पूरी तरह से पृष्ठभूमि में धकेला जारहा है. भाकपा ने जनता के मुद्दों पर जन लामबंदी पर गहनता से विचार किया और तात्कालिक और दूरगामी कदमों पर चर्चा की.
डा. गिरीश ने बताया है कि आगामी 17 अगस्त को महंगाई, एफडीआई, बेरोजगारी, महंगी और दोहरी शिक्षा प्रणाली, सूखा और बाढ की तबाही, दलितॉ, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर होरहे हमलों जैसे प्रमुख सवालों पर जिला केंद्रों पर प्रदर्शन आयोजित किये जायेंगे. सांप्रदायिकता के खिलाफ तथा उपर्युक्त सवालों पर प्रदेश के छह वामपंथी दलों के साथ मिल कर कई क्षेत्रीय सम्मेलन आयोजित किये जायेंगे. वाराणसी में 28 अगस्त, मुरादाबाद में 4 सितंबर तथा मथुरा में 10 सितंबर को संयुक्त सम्मेलन होंगे. प्रदेश के आगामी विधान सभा चुनावों को जनता के ज्वलंत सवालों के इर्द-गिर्द रखने की हर संभव कोशिश की जायेगी, भाकपा राज्य सचिव मंडल ने संकल्प व्यक्त किया है.
डा. गिरीश
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