Wednesday, April 29, 2015

उच्च न्यायालय की निगरानी में विशेष जाँच दल से कराई जाये हाशिमपुरा कांड की जाँच: भाकपा

लखनऊ-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने हाशिमपुरा कांड की उच्च न्यायालय की निगरानी में विशेष जाँच दल द्वारा जाँच कराने की अपनी मांग को पुनः दोहराया है और कहा है कि राज्य सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में अपील करने मात्र से कुछ भी हल निकलने वाला नहीं है. कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचार कि हाशिमपुरा कांड पर निरंतर आलोचना झेल रही सरकार ने अब उच्च न्यायालय में अपील करने का निर्णय लिया है; पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि सरकार का यह कदम मामले पर लीपा- पोती करने वाला साबित होगा. भाकपा इसे कदापि स्वीकार नहीं करेगी. भाकपा का स्पष्ट मानना है कि जब जाँच एजेंसियों ने २७ साल के दरम्यान सही तथ्य व गवाह अदालत के सामने नहीं पेश किये और इस आधार पर आरोपियों को बरी कर दिया गया, उन्हीं तथ्यों, उन्हीं सबूतों तथा उसी मनोदशा के साथ किसी भी अदालत में जाया जाये नतीजा क्या निकलेगा? इसलिए जरूरी है कि मामले की फिर से जाँच कराके पर्याप्त सबूत और गवाहियाँ कराना जरूरी है. यह तभी संभव है जब मामले की जाँच माननीय उच्च न्यायालय की निगरानी में विशेष जाँच दल से कराई जाये. डा. गिरीश ने कहा कि भाकपा अपनी इस मांग पर अडिग है और इसको लेकर प्रदेश व्यापी अभियान चलाएगी. डा. गिरीश

Monday, April 27, 2015

भाकपा ने नेपाल और भारत में भूकंप से हुयी धन और जन हानि पर दुःख जताया

लखनऊ-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने भारत और नेपाल में भूकंप से हुयी तबाही पर गहरा दुःख जताया है. पार्टी ने इस त्रासदी में मृतकों और घायलों के प्रति गहरी संवेदनाओं का इजहार किया है तथा बड़े पैमाने पर हुयी तबाही पर गहरी चिंता व्यक्त की है. भाकपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी समस्त जिला इकाइयों से अनुरोध किया है कि वे संकट की इस घड़ी में नेपाल की हर संभव मदद करने को आगे आयें और जरूरी चीजें और फंड एकत्रित कर जल्द से जल्द राज्य कार्यालय को भेजें ताकि उसे शीघ्र से शीघ्र नेपाल पहुँचाया जा सके. यहाँ जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि गत दिनों आये प्रचंड भूकंप से भारत और निकट पड़ौसी राज्य नेपाल में भारी जन और धन की हानि हुयी है. नेपाल में जहाँ मृतकों की संख्या दस हजार तक पहुँचने का अनुमान है वहीं लाखों लोग घायल हैं. हर तीसरा आदमी बेघर हुआ है. निर्माणाधीन और चालू तमाम योजनायें ध्वस्त होचुकी हैं. टूरिस्म पर वर्षों के लिए ग्रहण लग गया है. ऐसे में नेपाल को हर स्तर पर भारी मदद की दरकार है. अच्छी बात है कि भारत- चीन जैसे पड़ौसी देशों और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी ने हर तरह की मदद के लिए हाथ बढाया है. लेकिन बार बार आरहे भूकंप के झटकों और वारिश ने विपत्ति को गहरा बना रखा है. भाकपा और समस्त भारतीय जनमानस संकट की इस घड़ी में नेपाल की जनता के साथ है, और नेपाल के नव निर्माण में हर तरह की मदद की जायेगी. इस मदद में हाथ बंटाने में भाकपा पीछे नहीं रहने वाली है. अतएव भाकपा ने अपनी समस्त जिला इकाइयों से आग्रह किया है कि वे नेपाल की जनता की सहायतार्थ तत्काल धन एवं आवश्यक वस्तुओं के संग्रह में जुट जाएँ और शीघ्र से शीघ्र उसे राज्य कार्यालय को प्रेषित करें. भाकपा अपने सभी सहयोगियों से भी अपील करती है कि भाकपा के इस मिशन में ह्रदय से सहयोग करें. डा. गिरीश

Wednesday, April 22, 2015

किसानों की आत्महत्यायों और सदमे से होरही मौतों पर राजनीती न की जाये ; भाकपा

किसानों की लगातार होरहीं आत्महत्याएं और सदमे से मौतें बेहद दुखद: ठोस प्रयासों की जरूरत, राजनीतिक रोटियां न सैंकें पार्टियाँ- भाकपा लखनऊ- २३ अप्रैल २०१५. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने कल ‘आप’ की रैली के दौरान एक किसान द्वारा की गयी आत्महत्या, प्रतिदिन देश भर में सैकड़ों की तादाद में होरही किसानों की आत्महत्याओं और सदमे से होरही मौतों को अत्यंत दुखद और असहनीय बताया है. यहाँ जारी एक प्रेस बयान में पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि आजादी के बाद यह पहला अवसर है जब राजधानी दिल्ली में किसी किसान ने अपनी आपदा से पीड़ित होकर सरेआम अपनी जान दी हो और प्रशासनिक मशीनरी और राजनीतिक लोग तमाशबीन बने रहे हों. आजादी के बाद यह भी पहला अवसर है जब देश के बड़े हिस्से में किसान जानें देरहे हैं और उनकी सदमे से जानें जारही हैं और पूरी की पूरी व्यवस्था उन्हें ढाढस बंधाने में नाकामयाब रही है. डा.गिरीश ने कहा कि यह वक्त राजनैतिक रोटियां सैंकने का नहीं ठोस प्रयास करने का है. यदि शीघ्र ही समस्या का ठोस समाधान न निकाला गया तो हालात और भी बिगड़ेंगे. अभी तो किसान ही संकट में है, खाद्यान्नों और रोजगार का संकट पैदा होने से अन्य गरीब तबके भी इन्ही हालातों में पहुंचने जारहे हैं. भाकपा ने किसान भाइयों से अपील की है कि वे धैर्य न छोड़ें और अपने परिवार और देश के हित में अपनी जानों को यूं ही न गवायें. भाकपा उनके सुख दुःख में उनके साथ खड़ी है और साथ खड़ी रहेगी. किसानों की इस व्यापक पीड़ा की ओर सरकार और व्यवस्था का ध्यान खींचने को ही भाकपा ने पूरे देश में १४ मई को किसानों के प्रति एकजुटता आन्दोलन का निर्णय लिया है. उत्तर प्रदेश में यह आन्दोलन ‘रास्ता रोको’ के रूप में होगा. डा.गिरीश ने भाकपा के समस्त कार्यकर्ताओं और हमदर्दों से अनुरोध किया है कि ग्रामीण जीवन में आई इस महाविपत्ति की घडी में वे अपना हर पल हर क्षण ग्रामीण जनता के बीच बितायें और आमजनों को “भागो नहीं, समस्या का मुकाबला करो” का संदेश दें. साथ ही १४ मई के आन्दोलन के लिए किसानों कामगारों को लामबंद करें. डा.गिरीश

Monday, April 20, 2015

भाकपा की नई राज्य कार्यकारिणी गठित

लखनऊ 20 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कौंसिल ने कल यहां सम्पन्न अपनी बैठक में 25 सदस्यीय नई राज्य कार्यकारिणी गठित कर दी जिसमें डा. गिरीश (राज्य सचिव), अरविन्द राज स्वरूप एवं इम्तियाज अहमद, पूर्व विधायक (दोनों राज्य सह सचिव), आशा मिश्रा, सदरूद्दीन राना, अजय सिंह एवं अतुल सिंह (चारों राज्य सचिवमंडल के सदस्य),  अशोक मिश्र, विश्व नाथ शास्त्री, पूर्व सांसद, प्रदीप तिवारी (कोषाध्यक्ष), सुरेश चन्द्र त्रिपाठी, दीनानाथ सिंह, हामिद अली, विनोद कुमार राय, शिरोमणि राजपूत, गफ्फार अब्बास, विजय कुमार, जय प्रकाश सिंह, राम रक्षा, सुधीर अवस्थी, नसीम अंसारी, राजेश तिवारी, सुहेव शेरवानी, मोती लाल तथा फूल चन्द्र यादव शामिल हैं।
भाकपा राज्य कौंसिल ने जव्वार हुसैन, वाई. एस. लोहित, जगदीश पाण्डेय, हरि मंदिर पाण्डेय एवं जय राम सिंह, पूर्व विधायक को राज्य कौंसिल का स्थाई आमंत्रित सदस्य नामांकित किया है। इसके साथ ही कैलाश पाठक के नेतृत्व में एक तीन सदस्यीय आडिट कमीशन का भी गठन किया गया जिसके अन्य सदस्य हैं - राम अवतार सिंह तथा कान्ती मिश्रा।

कार्यालय सचिव

Sunday, April 19, 2015

मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण का सच

किसानों की जमीन छीन कर पूंजीपतियों को सौंपने पर आमादा मोदी सरकार
14 मई को देशव्यापी विरोध
उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर रास्ता रोको
बहनों एवं भाईयों,
किसानों के निरन्तर आन्दोलनों और बलिदानों के कारण 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को 2013 में संसद में सर्वसम्मति से बदला गया था।
बदले कानून में सुनिश्चित किया गया था:
  • जमीन के मालिक किसानों से उनकी रज़ामंदी के बिना जमीन नहीं ली जा सकेगी और जमीन लेने का क्या सामाजिक प्रभाव पड़ेगाउसका भी पहले आकलन किया जायेगा।
  • किसान को अपनी जमीन के बेहतर मुआवजे के लिए मोल-तोल का अधिकार मिलेउसकी कोई मजबूरी न हो तथा उसका मुआवजा एडवांस में दिया जाये।
  • पूरे मुआवजे के भुगतान के बाद और पुनर्वास एवं पुनः व्यवस्थापन के पूरे इंतजाम के बाद ही जमीन पर कब्जा लिया जाये।
  • किसानों और पंचायतों की रज़ामंदी के बिना जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू नहीं की जायेगी।
  • बहुफसली और सिंचित जमीन का अधिग्रहण नहीं होगा।
  • अधिग्रहण की प्रक्रिया के पहले किसानोंआजीविका के लिए निर्भर अन्य लोगों एवं समुदाय पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जायेगा।
  • सभी विस्थापित परिवारों को पहले से बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित किया जायेगा।
मोदी सरकार किसानों के इन अधिकारों को छीन कर जमीन को पूंजीपतियों को देना चाहती है। उसने लोकशाही की सारी परम्पराओं को त्याग कर अप्रैल 2015 को पुनः अध्यादेश जारी करके अपने किसान विरोधी इरादों का पुनः परिचय दिया है।
सरकार का यह दावा झूठ और मिथ्यापूर्ण प्रचार है कि विकास कार्य क्योंकि रूके पड़े हैंइसलिए कानून में संशोधन के लिए अध्यादेश लाना जरूरी है।
दरअसल अध्यादेश का मतलब किसानों से रज़ामंदी के बिना और बिना सामाजिक प्रभाव का आकलन किये जमीनों को किसानों से छीनना है जबकि 2013 का कानून सुनिश्चित करता है कि जिन लोगों से जमीन ली जानी हैउनके 70 प्रतिशत लोग अपनी रज़ामंदी दें और यदि जमीन किसी निजी कम्पनी के लिए ली जा रही है तो उसके लिए 80 प्रतिशत लोगों की रज़ामंदी होनी चाहिए।
सरकारी दावा इससे और भी झूठा साबित हो जाता है कि वर्ष 2013 तक सरकार बड़े पैमाने पर जमीन का अंधाधुंध अधिग्रहण करती रही है। हालत यह है कि बड़ी मात्रा में अधिगृहीत जमीन का कोई इस्तेमाल नहीं हो रहा है। बड़ी मात्रा में भूमि को कारपोरेट भूमाफिया ने हड़प लिया है जो उसे विकास के लिए इस्तेमाल करने के बजाय बढ़े दामों पर बेचकर पैसा कमा रहे हैं।
कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) की रिपोर्ट दिनांक 28 नवम्बर 2014 के अनुसार विशेष आर्थिक परियोजनाओं के लिए ली गई 45,635.63 हेक्टेयर जमीन में से केवल 28,488.49 हेक्टेयर जमीन का ही इस्तेमाल हुआ है। गुजरात में स्वीकृत 50 विशेष आर्थिक क्षेत्रों में से केवल 15 ही आपरेशनल हैं। वहां प्रधानमंत्री के चहेते अडानी को 2009 में 6,472.86 हेक्टेयर जमीन दी गई जिसमें से 87.11 प्रतिशत जमीन का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया है। कैग ने रिलायंसएस्सारडीएलएफयूनीटेक्स आदि डेवलपरों को फटकार लगाते हुए कहा है कि इन्होंने विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना के नाम पर बड़ी मात्रा में जमीनें हथिया ली हैं परन्तु केवल एक मामूली हिस्से का ही इस्तेमाल किया गया है। मुकेश अंबानी ने महाराष्ट्र के द्रोणगिरि में 1,250 हेक्टेयर जमीन ली परन्तु वहां 2006 से अब तक एक भी कारखाना स्थापित नहीं किया गया है। कैग ने स्पष्ट कहा है - सरकार द्वारा किसानों से जमीन का अधिग्रहण ग्रामीण आबादी से कारपोरेट जगत को दौलत का हस्तांतरण साबित हो रहा है।
वास्तविकतामोदी सरकार के तमाम दावों को खोखला और मिथ्या साबित करती है। वास्तव में मोदी सरकार कारपोरेट घरानोंधन्नासेठों तथा पूंजीपतियों को जमीनें देने और किसानों को बेसहारा करने के लिए ही यह झूठी और खोखली दलीलें देकर देश की जनता की आंख में धूल झोकना चाहती है।
किसान भाईयों,
18 औद्योगिक गलियारों के लिए मोदी सरकार के प्रस्तावों के द्वारा खेती योग्य भूमि का 35 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा आ जायेगा जिससे हजारों गांव लुप्त हो जायेंगे और करोड़ों लोगों को रोजी-रोटी छीनने का रास्ता साफ हो जायेगा। उसके कारण बड़े पैमाने पर सामाजिक विघटन और सामाजिक अराजकता पैदा हो जायेगी।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई किसानोंखेत मजदूरोंट्रेड यूनियनोंनागरिक समाज एवं आम जनता का आह्वान करती है कि मोदी सरकार के घृणित मंसूबों को नाकाम करने के लिए बड़े पैमाने पर 14 मई 2015 को रास्ता रोको“ कार्यक्रम को सफल बना कर किसान एवं देश विरोधी अध्यादेश का विरोध करें।

भाकपा मनायेगी डा. अम्बेडकर की 125वीं जयंती

भाकपा की स्थापना के 90 साल पूरे होने पर कानपुर में आयोजित होगा राष्ट्रीय समारोह
लखनऊ 19 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की यहां चल रही राज्य कौंसिल ने डा. भीम रॉव अम्बेडकर के जन्म के 125 साल पूरे होने के अवसर पर पूरे साल पूरे प्रदेश में डा. अम्बेडकर की स्मृति में समारोह आयोजित करने का फैसला किया है। भाकपा राज्य कौंसिल ने इसके हेतु मोती लाल एडवोकेट के संयोजकत्व में एक संचालन समिति गठित कर दी है जो पूरे साल जगह-जगह पर आयोजनों की रूपरेखा तैयार करेगीजिला नेतृत्व का मार्गदर्शन करेगी और आयोजनों की देखरेख करेगी।
भाकपा की स्थापना के 90 साल 26 दिसम्बर 2015 को पूरे होने पर कानपुर में एक राष्ट्रीय स्तर का कार्यक्रम आयोजित किया जायेगा। ज्ञातव्य हो कि भाकपा का स्थापना सम्मेलन 26 दिसम्बर 1925 को कानपुर में ही आयोजित किया गया था। भाकपा राज्य कौंसिल ने अपनी जिला कौंसिलों तथा ब्रांचों को निर्देश दिया है कि वे इस अखिल भारतीय आयोजन के पूर्व पूरे प्रदेश में राज्य केन्द्र से लेकर ब्रांचों तक पार्टी संगठन को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ें।
भाकपा ने 14 मई को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस कराने और मौसम की मार से तबाह हुए किसानों एवं खेतिहर मजदूरों को व्यापक आर्थिक राहत दिलाने के लिए हेतु पूरे प्रदेश में रास्ता रोको“ आन्दोलन को संगठित करने के पूर्व से 13 मई तक लगातार जनता के मध्य जाकर केन्द्र एवं राज्य सरकारों की आर्थिक नीतियों का सच जनता के सामने रख कर जन लामबंदी अभियान चलायेगी और पार्टी संगठन को मजबूत करने के लिए आम जनता से धन संग्रह करेगी। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए भाकपा ने आज मोदी सरकार की भूमि अधिग्रहण नीति के सच को उजागर करने हेतु एक पर्चा जारी किया जिसे पूरे प्रदेश में लाखों की संख्या में छपवा कर जनता के मध्य बांटा जायेगा।


कार्यालय सचिव

Saturday, April 18, 2015

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस कराने और मौसम की मार से तबाह हुए किसानों एवं खेतिहर मजदूरों को व्यापक आर्थिक राहत दिलाने के लिए भाकपा 14 मई को पूरे प्रदेश में करेगी व्यापक रास्ता जाम

भाकपा की राज्य कौंसिल बैठक शुरू
भाकपा राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने जारी किया आन्दोलन का पोस्टर
लखनऊ 18 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस कराने और मौसम की मार से तबाह हुए किसानों एवं खेतिहर मजदूरों को व्यापक आर्थिक राहत दिलाने के लिये पूरे प्रदेश में 14 मई को व्यापक रास्ता जाम करेगी। यहां चल रही भाकपा की राज्य कौंसिल के निर्णय से अवगत कराते हुए भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि रास्ता जाम का कार्यक्रम हर जिले में पार्टी की कतारें मुस्तैदी से लागू करेंगी।
भाकपा के राष्ट्रीय सचिव ने इस आन्दोलन का पोस्टर भाकपा की राज्य कौंसिल बैठक के दौरान जारी करते हुए राज्य कौंसिल सदस्यों का आह्वान किया कि वे जिलों-जिलों में वास्तविक रूप से रास्ता जाम करने के लिए गंभीर रूप से तैयारी करें।
भाकपा की राज्य कौंसिल को सम्बोधित करते हुए पार्टी के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने कहा कि जब हम महंगाई के विरोध करने के लिए आन्दोलन चलाते हैं तो सपा और बसपा जैसे दल भी हमारे साथ आकर खड़े हो जाते हैं परन्तु यही लोग अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और क्रोनी पूंजीवाद की चाकरी करते हुए राज्य सभा में विदेशी पूंजी की अनुमति देने वाला बीमा कानून पास करवाने के लिए मोदी सरकार के साथ खड़े हो जाते हैं। क्षेत्रीय दलों ने पिछले 25 सालों में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और क्रोनी पूंजीवाद की मदद ही की है। इन्होंने सड़क पर हमारा साथ दिया परन्तु हर बार संसद में हमारी मुखालिफत की। ये सभी दल नव उदारवाद का चारा बन चुके हैं। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने भी अम्बानी सरीखे तमाम पूंजीपतियों को राज्य सभा में पहुंचाया है।
शमीम फैजी ने कहा कि देश नाजुक दौर से गुजर रहा है और फासीवाद की ओर जा सकता है। इस खतरे का मुकाबला करने के लिए इस बार सही कार्यनीति का निर्धारण बहुत आवश्यक है। उन्होंने कहा कि हमें पूरी शिद्दत के साथ वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की बुनियाद पर विकल्प प्रस्तुत करने के लिए पार्टी निर्माण की ओर आगे बढ़ना होगा। उन्होंने कहा कि अब नारे बाजी नहीं बल्कि हमें कम्युनिस्ट आन्दोलन के वैचारिक एकीकरण की राह पर चलना होगा और जनता में वामपंथी-जनपक्षी विकल्प के प्रति विश्वास पैदा करना होगा। इस सपने को साकार करने के लिए हमें भाकपा को अपने पैरों पर खड़े करना होगा। 
राज्य कौंसिल को सम्बोधित करते हुए भाकपा के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने कहा कि देश के वर्तमान राजनैतिक हालात निहायत गंभीर हैं। केन्द्र सरकार की सत्ता में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गठित भाजपा की सरकार केवल भाजपा की सरकार मात्र नहीं है बल्कि केन्द्र में वस्तुतः अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी (International Finance Capital) और क्रोनी पूंजीवाद (Crony Capitalism) की प्रतिनिधि सरकार सत्ता में है जिन्होंने पिछले लोक सभा चुनावों को देश की लोक सभा के चुनावों के बजाय मोदी और राहुल की व्यक्तिगत जंग में तब्दील कर दिया था। 
उन्होंने कहा कि मीडिया द्वारा जिस गुजरात मॉडल के आकर्षण को पैदा किया गयाउसकी असलियत से जनता अभी तक वाकिफ नहीं है। उन्होंने कहा कि कच्छ के रेगिस्तान में 1965 तक कोई आबादी नहीं थी और इस इलाके में जनता को बसाने के इरादे से तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने पंजाब से ले जाकर 200 सिख किसान परिवारों को जमीने आबंटित कर बसा दिया था जिन्होंने उस इलाके को आबाद कर दिया और उससे उत्साहित होकर पंजाब के 700-800 परिवारों ने उस इलाके में जमीने खरीद कर खेती करना शुरू कर दिया। नरेन्द्र मोदी की गुजरात सरकार ने एक कानून पास करते हुए गुजरात में गुजरात के बाहर के लोगों को खेती करने से अयोग्य घोषित कर इन सिख किसानों को इस इलाके से बेदखल करते हुए इस जमीन को गौतम अडानी को सौंप दिया। गुजरात में जहां जाइये आपको 200-300 एकड़ जमीन पर बोर्ड लगा मिलेगा कि सरकार ने इस भूमि को अधिगृहीत कर लिया है और आप आइये यहां आबाद हो जाइये। सरकार को किसानों से जबरदस्ती अधिगृहीत की गई इस जमीन को पूंजीपतियों को कौड़ियों के भाव मुहैया कराया जाता रहा है। रिलायंस फ्रेश और रिलायंस पेट्रोल पम्प स्थापित करने के लिए किसानों की 50-50 एकड़ जमीन जबरदस्ती अधिगृहीत करके अंबानी परिवार को सौंप दी गई और आज वहां न तो पेट्रोल पम्प हैं और न ही रिलायंस फ्रेश के स्टोर। उन्होंने कहा कि केन्द्र की सरकार पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए राज्य सभा का सत्रावसान कर देती है और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को दुबारा जारी कर देती है। उसका यह कदम घोर अलोकतांत्रिक और किसान तथा खेत मजदूर विरोधी है। केन्द्र सरकार ने जिस प्रकार गुजरात में अडानी-अम्बानी को कौड़ियों के भाव जमीन मुहैया कराईउसी प्रकार का खेल वह पूरे हिन्दुस्तान में खेलना चाहती है। भाकपा राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने कहा पिछले 10 महीनों में 10 अध्यादेश जारी किये गये और ये सभी अध्यादेश पूंजीपतियों के हित में जारी हुये। एक भी अध्यादेश ऐसा नहीं है जो जनता के हित में जारी किया गया हो। उन्होंने कहा कि यह असाधारण स्थिति है और हमें इस असाधारण स्थिति में भी जनता की रक्षा करने के लिए असाधारण तरीके से अपने आन्दोलनों को तेज करना होगा।
भाकपा के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने कहा कि मनमोहन सिंह लाख चाहने के बावजूद अमरीका से परमाणु रियेक्टर खरीद नहीं पाये परन्तु ओबामा के आगमन पर मोदी ने अमरीकी पूंजी को न्यूक्लीयर लायबिलिटी कानून से मुक्त करने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि ध्यान देने योग्य बात यह है कि अमरीका ने खुद 1970 के बाद इन परमाणु रियेक्टरों को नहीं खरीदा और इतने सालों पहले बने रियेक्टरों के हिन्दुस्तान में लगने पर दुर्घटना होना संभावित है परन्तु सरकार अमरीकी पूंजीपतियों को उनके उत्तरदायित्व से मुक्त कर चुकी है। जर्मनी से जिन जेट विमानों का सौदा किया गया हैउसे 25 सालों से किसी देश ने नहीं खरीदा परन्तु मोदी इसलिए खरीद रहे हैं क्योंकि उसका निर्माता रिलायंस का व्यापारिक साझेदार है। उन्होंने कहा मोदी वह सब करने को तैयार हैं जिससे अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को मदद मिल सके।
केन्द्र सरकार के बजट पर प्रहार करते हुए शमीम फैजी ने कहा कि केन्द्र सरकार ने जनता के लिए चल रही तमाम योजनाओं में आबंटन को या तो बंद कर दिया है अथवा बहुत अधिक घटा दिया है। जनता को मिलने वाली सब्सिडी को बंद करने की तैयारी है परन्तु पूंजीपतियों को तमाम तरह की सब्सिडी मुहैया कराई जा रही है। सम्पत्ति कर समाप्त कर दिया गया और बड़े लोगों पर लगने वाले आयकर की दर को 30 से घटाकर 25 प्रतिशत करने की घोषणा भी कर दी गई।
भाकपा राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने कहा कि 1990 के बाद अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी ने अपना शासन पूरे संसार में कायम करने की कोशिश शुरू की थी। तब से देश में कोई बड़ा कारखाना नहीं लगा है। राज्य सरकारों ने उन्हीं नक्शे कदमों पर चलते हुए कोई कारखाना नहीं लगाया।
शमीम फैजी ने कहा कि जिस दिन सरकार पूंजीपतियों के लिए कोई भी फैसला लेती हैउसकी ओर से जनता और मीडिया का ध्यान हटाने के लिए संघ परिवार का कोई नुमाईंदा विवादास्पद ब्यान दे देता है जिससे बहस आर्थिक फैसलों के बजाय विवादित बयान पर केन्द्रित हो जाती है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जिस दिन प्रधानमंत्री ने स्टेट बैंक की चेयरमैन को अडानी को आस्ट्रेलिया में खदान के लिए 60,000 करोड़ का ऋण देने का निर्देश दिया एक स्वयंभू साधू ने महात्मा गांधी के हत्यारे को देश भक्त बता दिया। जिस दिन जंतर मंतर पर देश के 100 किसान संगठन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध करने के लिए इकट्ठा हुए भागवत ने बयान जारी कर दिया कि मदर टेरेसा जनसेवा नहीं कर रहीं थी बल्कि धर्म परिवर्तन करा रहीं थीं। उन्होंने कहा कि वित्तीय पूंजी को अपने शासन को कायम रखने के लिए अगर सम्प्रदायवाद की मदद की जरूरत हो तो वह उसका भी पोषण करने लगता है।
भाकपा की राज्य कौंसिल की बैठक अभी जारी है और कल तक चलेगी। कौंसिल के निर्णयों से बैठक के बाद अवगत कराया जायेगा।




Thursday, April 16, 2015

सोनभद्र में किसानों पर अत्याचार की भाकपा ने निंदा की.

लखनऊ- १६ अप्रेल २०१५ : भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव मंडल ने गत दिन सोनभद्र जनपद के दुद्धी थाना अंतर्गत कन्हार परियोजना से प्रभावित किसानों के आन्दोलन को कुचलने की गरज से पुलिस द्वारा की गयी निर्मम कार्यवाही की कड़े शब्दों में निन्दा की है. भाकपा ने दमन की इस कार्यवाही के लिये दोषी पुलिस अधिकारियों के विरुध्द कड़ी कार्यवाही की मांग करते हुये घायल आन्दोलनकारियों को इलाज हेतु पर्याप्त आर्थिक मदद देने की मांग भी की है. यहां जारी एक प्रेस बयान में पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि सोनभद्र जनपद की कन्हार परियोजना के लिये किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण किया गया है. कई माह से विस्थापित किसान अपनी मांगों के समर्थन में आन्दोलन कर रहे हैं. गत दिन जनपद के दुद्धी थाने की पुलिस ने वहां पहुँच कर किसानों को आतंकित करने के लिए बल प्रयोग किया. पुलिस ने पहले लाठीचार्ज किया और फिर कई राउंड फायरिंग की. इसमें छह महिलाओं सहित कुल ११ किसान घायल हुये हैं. एक प्रदर्शनकारी के बाएं कंधे को फाड़ती हुयी गोली निकल गयी जिसे चिकित्सा हेतु बनारस भेजा गया है. इस घटना से किसानों में भारी रोष व्याप्त है और किसान किसी भी कीमत पर अपनी जमीनें नहीं देना चाहते. घटना के बाद से प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं. भाकपा किसानों के इस आन्दोलन का पुरजोर समर्थन करती है और राज्य सरकार को चेतावनी देना चाहती है कि वह किसानों की मांगों को अविलम्ब हल करे. क्योंकि यह क्षेत्र मध्य प्रदेश की सीमा से सटा है अतएव वहां से भाकपा का एक छह सदस्यीय जाँच दल कन्हार पहुंचा और किसानों के आन्दोलन के प्रति भाकपा की एकजुटता का इजहार किया. प्रतिनिधि मंडल में आशीष स्ट्रगल, संजय नामदेव, रविशेखर, एकता, मंजू और अनिल.

Sunday, April 12, 2015

भागो-भागो, विकास आया, पहले से तेज आया

वित्त मंत्री द्वारा हर वर्ष बजट पेष करना सरकार और मीडिया के लिए एक वार्षिकोत्सव जैसा होता है। बजट के आँकड़ों और घोषणाओं के साथ-साथ सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव नाटकीय ढंग से दिखाया जाता है। राजनेताओं से उनके रुख को जाना जाता है। कॉर्पोरेट घरानों की नुमाइंदगी करने वाले लोग और अर्थषास्त्री स्टूडियो में आकर अपना विषेषज्ञ विष्लेषण देते हैं। मीडिया रिपोर्टर बीच-बीच में आम लोगों से बजट पर उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहते हैं। गृहणियों व महिलाओं से और रास्ते चलते युवाओं से भी कुछ सवाल पूछे जाते हैं। ज़ाहिर है कि सरकार और सरकार के हिमायती बजट की तारीफ़ करते हैं और विपक्षी दलों के लोग और सरकार विरोधी सोच से प्रभावित लोग बजट को और कुछ नहीं, बस गलतियों का पुलिंदा भर मानते हैं।
इस बार भी सरकार का कहना है कि मोदी का (माफ़ कीजिए, अरुण जेटली का) वर्ष 2015-16 का बजट बजट देष की अर्थ व्यवस्था का कायाकल्प कर देगा। वहीं काँग्रेस सरकार में वित्तमंत्री रहे चिदाम्बरम का कहना है कि न तो सरकार ने इस बजट में राजकोषीय और वित्तीय संतुलन पर ध्यान दिया है और न ही पुनर्वितरण संबंधी कोई कदम उठाये हैं कि जिनसे ग़रीब तबक़ों को कुछ तो हासिल हो।
इस सारे उत्सव को देखकर कोई अगर यह सोचे कि बजट देष की आर्थिक नीति की दिषा तय करता है तो ये उसका भोलापन ही कहा जाएगा। बजट केवल सरकार द्वारा चुनी गई आर्थिक नीति पर मुहर लगाता है। वो तय तो पहले ही की जा चुकी होती है। मोदी सरकार का ‘मेक इन इंडिया’ का आह्वान, बीमा और ज़मीन अधिग्रहण के अध्यादेष और ऐसे तमाम आदेष स्पष्ट संकेत देते हैं कि सरकार की प्रतिबद्धता देषी और विदेषी पूँजी के मुनाफ़े के रास्ते को आसान और सुविधाजनक बनाना है। अरुण जेटली के शब्दों में कहें तो, ‘कुछ तो फूल खिलाए हमने, और कुछ फूल खिलाने हैं।’ देष की ग़रीब जनता की बढ़ती हुई बदहाली से सरकार का कोई ख़ास सरोकार नहीं है।
वर्ष 1991 से हिंदुस्तान में नई आर्थिक नीति अपनाने के बाद से प्रत्येक वर्ष के बजट का केन्द्र बिंदु  वित्तीय घाटे को सीमा में बाँधे रखने का रहता है। राजग-1 के कार्यकाल के दौरान वित्तमंत्री यषवंत सिन्हा ने ‘राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन’ संबंधी विधेयक पेष किया था जिसे 2003 में बाकायदा कानून बना दिया गया। उक्त विधेयक का मकसद राजकोषीय अनुषासन को संस्थागत रूप देना था। इस कानून में कुछ समयबद्ध लक्ष्य तय किये गए। एक लक्ष्य था 2008 तक राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3 प्रतिषत तक ले आना और दूसरा लक्ष्य था राजस्व घाटे को शून्य पर ले आना। 
बहरहाल 2007-8 में वैष्विक वित्तीय संकट से मंदी का खतरा सारी दुनिया पर मंडराया। तब दुनियाभर के देषों ने ‘कीन्सियन’ नसीहत के अनुसार राजकोषीय घाटे से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का नुस्खा अपनाया। हिंदुस्तान में भी मंदी का ख़तरा सामने देख 2003 में बनाये गए क़ानून के सारे लक्ष्य भुला दिए गए और 2008-9 और 2009-10 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5.9 और 6.5 प्रतिषत के स्तर तक पहुँच गया। 
अब चिदांबरम कह रहे हैं कि 2008-9 और 2009-10 में जो खर्चीली राजकोषीय नीतियाँ अपनायी गईं, वे ही महँगाई का और इस तरह काँग्रेस नेतश्त्व वाली संप्रग सरकार के चुनाव हारने का कारण बनीं। दरअसल राजकोषीय घाटे का महँगाई या भुगतान संतुलन के संकट के साथ सीधा संबंध स्थापित करना सही नहीं है। लेकिन नवउदारवाद के साँचे में बार-बार यही दुहाई देकर तीसरी दुनिया की राजकोषीय  स्वतंत्रता पर यह अंकुष लगाया जा रहा है कि अगर किसी देष को उसकी जनता के लिए कुछ कल्याणकारी काम शुरू करने के लिए खर्च करना की ज़रूरत है तो भी वह देष इस पर खर्च न कर सके। वस्तुतः यह मेट्रोपोलिटन वित्तीय पूँजी का तीसरी दुनिया के व योरप के कमज़ोर अर्थव्यवस्था वाले मुल्कों की आर्थिक संप्रभुता पर सीधा हमला है। जब भी कोई देष व्यापार या कर्ज के संकट में होता है तो उसे मदद करने वाले अंतरराष्ट्रीय समझौतों की ये शर्त होती है कि वह पहले अपने देष में ख़र्च कम करे या तथाकथित ‘ऑस्टेरिटी मेजर्स’ अपनाये जैसा अभी ग्रीस में हुआ। इसका सीधा आषय है कि अगर आप अपने राजकोषीय घाटे को अपने देष की जनता की ज़रूरत के मुताबिक कम या ज़्यादा करना चाहते हैं तो ये अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी को चुनौती देना है। और ये काम न तो संप्रग के बस का था और न ही राजग के बस का है। इसलिए राजकोषीय घाटे को पटरी पर लाना, जैसा कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी चाहती है, हमारी सरकारों की मजबूरी है। बस यही हमारे वित्तमंत्रियों की योग्यता का पैमाना है। अरुण जेटली की उपलब्धि यह है कि वे पिछले साल के 4.1 प्रतिषत के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ हैं। उनका वादा है कि इस वर्ष का राजकोषीय घाटा 3.9 प्रतिषत रहेगा और अगले तीन सालों में यह कम होकर 3 प्रतिषत हो जाएगा।
पिछले साल के 4.1 प्रतिषत के लक्ष्य को कायम करने के लिए जो कवायद की गई उसे नज़रंदाज़ नहीं करना चाहिए। पिछले वर्ष के बजट में जो अनुमानित आय करों से और सार्वजनिक क्षेत्र के विनिवेष से बतायी गई, वो वास्तविकता से कहीं ज़्यादा थी। असल में आय अनुमान से काफ़ी कम हुई और राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए ये ज़रूरी था कि ख़र्च को काफ़ी कम किया जाए। यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि कुछ ख़र्चों को कम करने का अख़्तियार वित्तमंत्री के वष में भी नहीं होता मसलन ब्याज भुगतान या रक्षा बजट। ये करने ही होते हैं। जो कम किया जा सकता है, वो सामाजिक क्षेत्र पर होने वाला व्यय ही है।
पिछले वर्ष के 4.1 प्रतिषत के लक्ष्य को पूरा करने के लिए मंत्रालयों के केन्द्रीय योजना के बजट समर्थन में 20 से 50 प्रतिषत तक की कमी की गई। इनमें स्वास्थ्य मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय प्रमुख हैं। इस वर्ष के बजट में ये किस्सा दोहराया जाएगा कि नहीं, ये तो अगले ही साल पता चलेगा लेकिन 3.9 प्रतिषत का लक्ष्य तय करते समय अरुण जेटली ने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि आय और व्यय, दोनों ही दृष्टियों से कॉर्पोरेट सेक्टर और अमीर तबक़े को फायदा हासिल हो। टैक्स से होने वाली आमदनी बढ़ाने के लिए उन्होंने सर्विस टैक्स बढ़ा दिया जिससे रुपये 23383 करोड़ का राजस्व मिलेगा। इसका अपेक्षाकृत अधिक भार ग़रीब तबक़े पर पड़ेगा। दूसरी तरफ़ कॉर्पोरेट टैक्स की दर 30 प्रतिषत से कम करके 25 प्रतिषत कर दी गई है और संपत्तिकर हटा दिया गया है। इससे राजस्व की आमदनी में रुपये 8315 करोड़ की कमी आएगी।
जहाँ तक व्यय का सवाल है, उसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण के लिए भारी वश्द्धि की गई है। इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण का अर्थ कोई गाँव व ग़रीबों के लिए सुविधाजनक जीवन स्थितियों का निर्माण नहीं, बल्कि एक्सप्रेस हाइवे, आधुनिक एयरपोर्ट, आधुनिक सूचना-संचार सुविधाएँ और कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए अन्य सुविधाएँ बढ़ाना ही है। मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कोषिष की थी कि देष के इस इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास पब्लिक प्राइवेट पार्टनरषिप के तहत हो। मनमोहन-मोंटेक मॉडल से प्राइवेट और कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए बनी जगह में मुनाफ़े की आस में तमाम कंपनियाँ इस क्षेत्र में दाख़िल हो गईं जिन्हें सार्वजनिक बैंकों से सस्ती दरों पर भारी-भरकम कर्ज मुहैया कराया गया। नतीजा ये है कि अब बैंकों के पास नॉन परफॉर्मिंग असेट्स का अंबार लग गया है। जेटली जी ने इस मुष्किल का समाधान ये निकाला कि उन्होंने कॉर्पोरेट को रियायत देते हुए कहा कि कोई बात नहीं। अगर पब्लिक प्राइवेट पार्टनरषिप भी आपको रास नहीं आ रही तो पब्लिक सेक्टर ही आपके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित कर देगा।
कॉर्पोरेट सेक्टर को ये सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए जिन मदों में बजट में कटौती की गई है, वे हैं आईसीडीएस (आँगनवाड़ी और आषा), सर्वषिक्षा अभियान, कृषि, एससी-एसटी सबप्लान, पेयजल, पंचायती राज, आदि वे सभी मदें जो ग़रीबों की ज़िंदगी को थोड़ी राहत पहुँचाती हैं। तर्क ये है कि चूँकि राज्यों को आबंटित किया जाने वाला कोष बढ़ा दिया गया है इसलिए केन्द्र की इस कटौती की भरपाई राज्य सरकारों द्वारा की जाएगी। 
अंत में मनरेगा का उल्लेख करना ज़रूरी है। बजट में मनरेगा को 34000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 34600 करोड़ रुपये कोष आवंटित किया गया है। ये ज़रूरत के सामने कितना अपर्याप्त है इसका अंदाज़ा एक इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि मनरेगा में ऐसे बहुत से मामले हैं जहाँ लोगों से काम करवा लिया गया लेकिन पैसे न होने से भुगतान नहीं किया गया। इसका जो आंषिक भुगतान राज्य सरकारों ने अपने कोष से कर दिया था, अभी उसका ही केन्द्र सरकार को 6000 करोड़ रुपया देना बाकी है। और फिर अब तो मनरेगा पर खर्च की कोई सीमा नहीं बाँधी जा सकती क्योंकि अब यह लोगों का संवैधानिक अधिकार है कि अगर वे काम माँगें तो उन्हें काम देना सरकार की जिम्मेदारी होगी। संक्षेप में इस बजट का विष्लेषण यही है कि मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह देष को जिस दिषा में ले जा रहे थे, मोदी और जेटली हमें उसी दिषा में और तेज रफ्तार के साथ धकका देने के लिए कमर कसे हैं।
- जया मेहता

हाशिमपुरा का इंसाफ?

आजादी के बाद के सबसे बड़े जघन्य सामूहिक नरसंहार के मुज़रिमों को दिल्ली की अदालत ने सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इस न्यायिक निर्णय ने एक बार फिर तमाम सवालात खड़े कर दिये हैं, जिन पर गौर किया जाना जरूरी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस बर्बर नरसंहार को धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की सरकार की मशीनरी ने अंजाम दिया था।
इस सामूहिक नरसंहार 1984 में विहिप ने कथित राम जन्मभूमि को मुक्त कराने का आन्दोलन शुरू किया और 1986 में फैजाबाद की एक अदालत ने हिन्दूओं को अयोध्या के विवादित परिसर में पूजा करने की अनुमति दे दी। उस अदालत के विवेक पर चर्चा से हम मूल मुद्दे से भटक सकते हैं। लेकिन यह सच है कि इस निर्णय के बाद देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा होना शुरू हुआ। कट्टरपंथियों ने पूरे देश के माहौल को भड़काने की हर सम्भव कोशिश की और केन्द्र एवं राज्य की तत्कालीन सरकारें मूक दर्शक बनी रहीं। मेरठ में 1987 में भड़के साम्प्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि में यही परिस्थितियां थीं।
बवाल की शुरूआत 14 अप्रैल को हुई जब नशे में धुत एक दरोगा ने एक पटाखा दगने के बाद गोलियां बरसानी शुरू कर दीं जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय के दो लोगों को मौत हो गयी। इस तरह इस दंगे की शुरूआत ही सरकारी मशीनरी ने की। उसी दिन भड़के माहौल में अजान के समय लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बजाने के विवाद में हाशिमपुरा में दो समुदाय के लोगों में भिड़न्त हो गई जिसमें 12 लोग मारे गये। एक महीने बाद हापुड़ रोड पर बम फूटे, एक दुकान को लूटा गया और उसके मालिक की हत्या कर दी गई। 19 मई को सुभाषनगर में छत पर खड़े तीन लोगों को गोली मार कर हत्या कर दी गई। इस घटना के बाद शहर में कफर््यू लगा दिया गया। इस घटना में आरएसएस से सम्बद्ध एक कौशिक परिवार के एक युवक की भी मौत हुई जिसका एक रिश्तेदार उस समय मेरठ में ही सेना में उच्च पद पर तैनात था। सेना में कार्यरत इसी कौशिक अधिकारी ने सेना के कुछ अन्य अधिकारियों और पीएसी के साथ मिल कर 22 मई 1987 को हाशिमपुरा के घर-घर में जाकर तलाशी ली और 48 हट्टे-कट्टे मुसलमानों को उठा लिया गया। उन्हें पीएसी के एक ट्रक में भर कर ले जाकर छलनी कर दिया गया और उनकी लाशों को गाजियाबाद के मुरादनगर के पास गंगा नहर में फेक दिया गया। इस नरसंहार में आधा दर्जन लोग मरने से बच गये और इस बर्बर कहानी का सच जनता के सामने आ सका।
उस समय गाजियाबाद के एसएसपी विभूति नारायण राय ने मामले में हस्तक्षेप करते हुए दो एफआईआर दर्ज कराईं और मामले की विवेचना स्वयं शुरू कर दी। लेकिन केन्द्र एवं राज्य की तत्कालीन कांग्रेसी सरकारें नहीं चाहती थीं कि दोषियों को दंडित किया जाये। 22/23 मई 1987 की रात में मेरठ सर्किट हाउस में राज्य के तमाम प्रशासनिक एवं पुलिस उच्चाधिकारी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ मौजूद थे। लेकिन उसमें कोई भी सरकारी मशीनरियों - सेना एवं पीएसी के द्वारा किये गये बर्बर सामूहिक बर्बर हत्याकांड के मुज़रिमों को सज़ा दिलाने का इच्छुक नहीं था। विभूति नारायण राय के हाथ से मामले की विवेचना छीन कर विवेचनाको लटकाये रखने के लिए मामले को सीबी-सीआईडी के हवाले कर दिया गया।
सीबी-सीआईडी ने शुरूआत से ही सबूतों को जुटाने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। नरसंहार में प्रयुक्त असलहों को सीज़ नहीं किया गया, घटनास्थल से खोके और गोलियां बरामद ही नहीं किये गये, उनकी बैलेस्टिक और फोरेंसिक जांच का सवाल ही नहीं उठता। घटना में प्रयुक्त हथियारों को लगातार प्रयोग में लाया जाता रहा। 19 में से 16 पुलिस वाले अब भी नौकरी में हैं। सेना के जिन अधिकारियों ने इस हत्याकांड में व्यक्तिगत तौर पर भाग लिया था, उन्हें अभियुक्त तक नहीं बनाया गया। सीबी-सीआईडी ने अलबत्ता एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को अवश्य प्रेषित की कि सेना सहयोग नहीं कर रही है परन्तु प्रधानमंत्री कार्यालय ने मामले में हस्तक्षेप करने की रूचि नहीं दिखाई। अभियुक्तों को मुकदमें के दौरान प्रोन्नति भी दी जाती रही।
9 सालों के बाद सन 1996 में न्यायालय में 19 अभियुक्तों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया। कोर्ट ने 1996 से 2000 तक 23 बार अभियुक्तों के खिलाफ वारंट जारी किये परन्तु किसी भी अभियुक्त को गिरफ्तार नहीं किया गया। 2000 में अभियुक्तों ने आत्मसमर्पण किया। 2002 में एक याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मुकदमे को गाजियाबाद की अदालत से तीस हजारी सत्र न्यायालय, दिल्ली स्थानांतरित कर दिया परन्तु 2002 से 2005 तक तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने मुकदमें की पैरवी के लिए सरकारी वकील की नियुक्ति नहीं की। 2006 में अभियुक्तां के खिलाफ आरोप तय किये गये और मुकदमें की सुनवाई शुरू की गई। सिस्टम के मुताबिक सत्र न्यायालयों में आरोप तय होने के बाद दिन-प्रति-दिन आधार पर साक्ष्यों को रिकार्ड किया जाता है। दोनों पक्षों से साक्ष्य आने के बाद बहस को सुनने के बाद 15 दिन के अन्दर न्यायालय निर्णय सुना देता है। परन्तु इस मुकदमें में 2006 से 2015 तक सत्ता में रही अल्पसंख्यकों की खैरख्वाह मायावती और मुलायम सिंह की सरकारों ने मुकदमें में साक्ष्यों को प्रस्तुत करने की कोई कोशिश नहीं की और धीरे-धीरे समय बिताया जाता रहा।
ठीक इसी समय हाशिमपुरा से सटे मलियाना में भी कत्ल-ए-आम किया गया था लेकिन यह मामला पूरी तरह दबा दिया गया।
आश्चर्य की बात है कि न्यायालय भी कछुए की गति से इस मामले का ट्रायल करता रहा और उसने सामूहिक नरसंहार होने के तथ्य को सिद्ध मानने के बावजूद अभियुक्तों को संदेह का लाभ दे दिया। सवाल उठता है कि अगर सामूहिक नरसंहार हुआ था तो उसे किसने अंजाम दिया था? इसकी पड़ताल न्यायालय को भी करनी चाहिए थी। अगर अभियोजन न्यायालय में इस अभियोग को सिद्ध नहीं कर सकता था क्योंकि विवेचना करने वाली एजेंसी ने साक्ष्य एकत्रित करने की कोशिश नहीं की थी तो फिर न्यायालय ने उनके खिलाफ टिप्पणी (न्यायिक शब्दावली में स्ट्रिक्चर) पास करते हुए उनके खिलाफ कार्यवाही के निर्देश सरकार को क्यों नहीं दिये?
उल्लेख आवश्यक है कि अफगुरू के मामले में सर्वांच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि सबूत परिस्थितिजन्य है। “अधिकतर साजिषों की तरह, आपराधिक साजिष के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकते हैं।“ लेकिन न्यायालय ने आगे कहा - ”हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है, अगर अपराधी को फाँसी की सजा दी जाये।“ क्या हाशिमपुरा काण्ड इसी श्रेणी में नहीं आता?
यहां एक अन्य मुकदमें का उल्लेख जरूरी होगा। एक बार एक मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी के यहां एक बड़ी खाद्य मिल के मालिक के खिलाफ खाद्य अपमिश्रण कानून का एक मुकदमा चल रहा था जिसमें अरहर की दाल में 98 प्रतिशत खेसारी दाल पाई गई थी। कानून के मुताबिक सैम्पल की टेस्ट रिपोर्ट आने के बाद उसकी प्रति अभियुक्त को मुकदमा चलाने के पहले भेजना जरूरी होता है और अगर ऐसा न किया जाये तो अभियुक्त को सज़ा नहीं दी जा सकती। इस मामले में अदालत में अभियुक्त को रिपोर्ट भेजने का प्रमाण दाखिल नहीं किया गया था। उसी वक्त उन्नाव जनपद में खेसारी दाल खाने से सैकड़ों लोगों को पैरालिसिस हो जाने की चर्चा आम थी। मजिस्ट्रेट ने कानून के उक्त प्रावधान का पालन का प्रमाण न होने के बावजूद अभियुक्त को कैद एवं जुर्माने दोनों की सजा देते हुए ऐसा करने का कारण स्पष्ट करते हुए अपने निर्णय में उल्लेख किया कि उनके न्यायालय में इस प्रकार के जितने भी मामले आये उसमें कानून के इस प्रावधान का पालन करने का प्रमाण लगा हुआ है जो यह इंगित करता है कि इस बड़े आदमी ने अपने पैसे और प्रभुत्व का प्रयोग करते हुए इस प्रमाण को गायब करवा दिया है। मजिस्ट्रेट ने इस दाल को खाने वालों को हो सकने वाले स्वास्थ्य नुकसानों की चर्चा करते हुए कहा कि जो-जो फुटकर दुकानदार इस मिल से अरहर की दाल ले जाकर बेचता और अगर उसके वहां सैम्पल लिया जाता तो उसे सजा हो जाती जबकि अपमिश्रण का कार्य उनकी कोई भूमिका नहीं होती।
वर्तमान मामले में भी न्यायालय को इस बात की नोटिस लेनी चाहिए थी कि विवेचना उसी विभाग द्वारा की जा रही थी जिसने इस बर्बर सामूहिक हत्याकाण्ड को अंजाम दिया था। पीएसी में उस दिन ड्यूटी पर कौन-कौन आये थे, इसके रिकार्ड को न्यायालय न्याय मुहैया कराने के लिए तलब कर सकती थी। न्याय हित में अन्य आवश्यक साक्ष्य भी प्रस्तुत किये जाने के निर्देश दिये जा सकते थे।
इस मामले में ज्ञान प्रकाश सहित 6 आयोग राज्य सरकारों ने गठित किये परन्तु किसी की भी रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई।
मामले में तमाम सवालात उठ रहे हैं और आगे आने वाले वक्त में उठेंगे। परन्तु इस पूरे प्रकरण ने अंततः धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र में इस दौरान राज्य में सत्तासीन रही तमाम सरकारों के साथ-साथ कार्यपालिका के चेहरे से भी धर्मनिरपेक्षता की नकाब को उतार कर फेंक दिया है।
- प्रदीप तिवारी

Wednesday, April 8, 2015

किसानों को राहत दिलाने और भूमि अधिग्रहण बिल की वापसी के लिए भाकपा प्रदेश भर में आन्दोलन करेगी.

मौसम की मार से बर्वाद किसानों की केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा की जा रही अनदेखी निंदनीय
भाकपा ने किसानों के समर्थन में आन्दोलन चलाने का किया आह्वान
लखनऊ 8 अप्रैल। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य काउन्सिल ने केन्द्र और प्रदेश की सरकार पर आरोप लगाया है कि वह मौसम की मार से जार-जार हुये किसानों के हितों की अनदेखी कर रही हैं। उनकी इस अनदेखी के चलते उत्तर प्रदेश में हर दिन लगभग 10 से 12 किसान या तो आत्महत्याएं कर रहे हैं अथवा सदमे से मर रहे हैं।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि उत्तर प्रदेश में ओला, आंधी और बेमौसम बारिश से गेहूँ, आलू, दलहन, तिलहन की फसल बड़े पैमाने पर नष्ट हो चुकी है। जायद की फसल और आम की फसल पर भी भारी प्रभाव पड़ा है। किसानों ने बैंकों और साहूकारों से कर्ज लेकर फसल उगाई थी जिसके बर्वाद होने से वह पूरी तरह टूट चूका है। हैरान परेशान किसान आत्महत्या कर रहे हैं अथवा भारी सदमे के चलते मौत का शिकार बन रहे हैं। उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा कई सौ तक जा पहुंचा है।
डा. गिरीश ने कहा कि केन्द्र सरकार के प्रधानमन्त्री और गृह मंत्री दोनों ही उत्तर प्रदेश से सांसद हैं। लेकिन कितनी बड़ी बिडम्बना है कि अभी तक केन्द्र सरकार ने कोई राहत पैकेज जारी नहीं किया। राज्य सरकार ने यद्यपि राहत देने को छोटी सी राशि की घोषणा की है लेकिन वह अभी तक किसानों तक पहुँच नहीं पायी है। आत्महत्याओं और मौतों तक पर आशंकाएं खड़ी की जा रही हैं।
भाकपा केन्द्र और राज्य सरकार के इस रवैय्ये की कड़े शब्दों में निन्दा करती है। भाकपा केन्द्र सरकार से मांग करती है कि किसानों की फसल हानि की भरपाई और मृतक किसानों के परिवार को रु. दस लाख का मुआवजा देने को राहत पैकेज की घोषणा फौरन करे, किसानों के कर्जे माफ़ किये जायें और उनको अगली फसल तैयार करने को हर संभव मदद दी जाये। भाकपा राज्य सरकार से मांग करती है की वह हानि के सर्वे के नाम पर विलम्ब न करे हर मध्यम व छोटे किसान किसानों को प्रति एकड़ दस हजार रूपये की दर से मुआवजा दिलाने को ठोस कदम उठाये।
यहां यह उल्लेखनीय है कि जिन किसानों ने बैंकों से कर्जा लिया हुआ है, उनकी फसल बीमा के दायरे में आती है और 70 प्रतिशत फसल हानि पर किसान बीमा का लाभ पाने के हकदार बन जाते हैं। परन्तु निजी बीमा कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार किसानों को हुए नुकसान को 70 प्रतिशत मानने को तैयार नहीं है और 50 प्रतिशत से कम नुकसान बता रही है जोकि बेहद निन्दनीय है।
भाकपा ने उपर्युक्त के संबन्ध में और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस लेने की मांग को लेकर पूरे प्रदेश में ब्लाक और तहसील स्तर पर लगातार प्रदर्शनों का आयोजन करने तथा 14 मई को जिला स्तर पर व्यापक कार्यक्रम आयोजित करने का निर्देश पार्टी की जिला इकाइयों को दिया है। आन्दोलन को सघन बनाने के उद्देश्य से भाकपा राज्य काउन्सिल की बैठक 18 व 19 अप्रैल को राज्य कार्यालय पर बुलाई गयी है।

Wednesday, April 1, 2015

पीसीएस परीक्षार्थियों पर दमन बंद करो: उनकी मांगें पूरी करो: भाकपा

लखनऊ- उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की पीसीएस(प्री) परीक्षा का परचा लीक होने, और उससे संबंधित मांगों पर आन्दोलन कर रहे अभ्यर्थियों को इलाहाबाद में पुलिस द्वारा निशाना बनाये जाने की भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कड़े शब्दों में आलोचना की है. भाकपा ने अभ्यर्थियों की मांगों को न्यायोचित बताते हुये उनका समर्थन किया है. यहाँ जारी एक प्रेस बयान में भाकपा राज्य सचिव ने कहा कि समाजवादी पार्टी के कार्यकाल में लोकसेवाओं और अन्य सरकारी भर्तियों में धांधली की खबरें लगातार मिल रही हैं. अभी पुलिस में भर्ती की अनियमिततायें उजागर हुयीं थीं और अब लोकसेवा आयोग का पर्चा लीक होगया. इन घटनाओं से युवाओं और छात्रों में अपने भविष्य के प्रति बेचेनी होना स्वाभाविक है और वे इस घटना का विरोध कर रहे हैं. डा. गिरीश ने कहा कि पीसीएस- प्री के दूसरे पर्चे को भी निरस्त कर दोबारा परीक्षाएं कराने और लोकसेवा आयोग में भर्तियों की सीबीआई से जांच कराने की अभ्यर्थियों की मांगें उचित हैं. लेकिन सरकार आन्दोलनकारियों को पुलिस दमन के जरिये कुचलने पर आमादा है. यह पूरी तरह निंदनीय है. भाकपा आन्दोलनकारियों पर दमन बंद करने और उनकी मांगों पर अमल करने की मांग सरकार से कर रही है. डा. गिरीश

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राज्य काउन्सिल सदस्यों एवं जिला सचिवों के नाम प्रिय साथी, क्रन्तिकारी अभिवादन. पार्टी का २२ वां महाधिवेशन बेहद उल्लास के वातावरण में संपन्न हुआ. छोटे से राज्य की छोटी पार्टी ने महाधिवेशन की जिस तरह तैय्यारी की थी वह आश्चर्य में डालने वाली है. राजनैतिक और सांगठनिक द्रष्टि से भी यह महाधिवेशन मील का पत्थर साबित होगा. इसकी विस्तृत रिपोर्ट १८ और १९ अप्रैल को लखनऊ में होने जारही राज्य काउन्सिल की बैठक में की जायेगी. महाधिवेशन में का. एस. सुधाकर रेड्डी को पुनः महासचिव चुना गया है. का. गुरुदास दासगुप्ता को उप महासचिव चुना गया है. डा. गिरीश को फिर से राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चुना गया है. राष्ट्रीय परिषद् में का. अरविन्दराज स्वरूप, का. इम्तियाज़ अहमद, का. विश्वनाथ शास्त्री चुने गये हैं जबकि का. अशोक मिश्र को केन्द्रीय कंट्रोल कमीशन का सदस्य चुना गया है. राज्य काउन्सिल की बैठक १८ व १९ अप्रैल को लखनऊ में राष्ट्रीय महाधिवेशन द्वारा लिये गये निर्णयों की रोशनी में हमें बिना विलम्ब किये अपनी गतिविधियों को तेज करना है. अतएव राज्य काउन्सिल की विस्तारित बैठक १८ और १९ अप्रैल को सुबह १० बजे से राज्य कार्यालय पर बुलाई गयी है. बैठक में सभी राज्य काउन्सिल सदस्यों, उम्मीदवार सदस्यों, राज्य कंट्रोल कमीशन के सदस्यों और जिला सचिवों को भाग लेना है. केन्द्रीय नेत्रत्व की ओर से का. शमीम फैजी बैठक में भाग लेंगे. सभी साथी १८ की सुबह लखनऊ पहुंचना सुनिश्चित करें और बैठक समाप्ति तक उपस्थित रहें. बैठक का संभावित एजेंडा निम्न है— १- राष्ट्रीय महाधिवेशन की रिपोर्टिंग द्वारा का. शमीम फैजी. २- १६ मार्च को संपन्न अन्धविश्वास, सांप्रदायिकता एवं भ्रष्टाचार विरोधी दिवस की समीक्षा. ३- पांडिचेरी महाधिवेशन फंड की समीक्षा और उस पर कार्यवाही. ४- पार्टी सदस्यता नवीनीकरण की अदायगी की समीक्षा. ५- राज्य काउन्सिल सदस्यों/ पूर्व विधायकों और सांसदों की लेवी का निर्धारण. ६- ३ मई से १० मई तक चलने वाले धन और अनाज संग्रह अभियान की तैयारी. ७- १४ मई को भूमिअधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की तैयारी. मौसम की मार से पैदा हुआ कृषि संकट. ८- त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों की तैयारी. विधान सभा चुनावों की तैयारी. ९- का. जयबहादुर सिंह तथा का. झारखंडे राय की प्रतिमाओं के अनावरण के संबन्ध में. १०- जिलों में पार्टी महाधिवेशन की रिपोर्टिंग. ११- कार्यकारिणी, सचिव मंडल, कोषाध्यक्ष और आडिट कमीशन का चुनाव और अन्य सांगठनिक कार्य. जैसाकि आप देख ही रहे हैं एजेंडा बहुत व्यापक है जिसे दो दिनों में तभी पूरा किया जासकता है जब सभी समय से आवें और कम समाप्त होने पर ही जाएँ. आशा है समय से बैठक में भाग लेने पहुंचेंगे. सधन्यवाद आपका साथी डा. गिरीश राज्य सचिव