प्रस्तावना
पूरी दुनिया और देश में हर क्षेत्र में भारी उथल-पुथल हो रही है लेकिन यह हमारे लक्ष्यों को साधने में मदद करने वाली है। 2007 में पैदा हुआ विश्वव्यापी आर्थिक संकट दिन-प्रति-दिन गहरा होता चला जा रहा है और अधिक से अधिक देशों को अपनी चपेट में ले रहा है। पूंजीवादी जगत इस संकट से हतप्रभ है और अपने निजी अंतर्विरोधों से पूंजीवाद लड़खड़ा रहा है। आर्थिक रूप से ताकतवर अमरीका और यूपोप में यह संकट सबसे गहरा है और इससे प्रभावित वहां का जनमानस आज सड़कों पर उतर इसका विरोध कर रहा है। संकट भारत में भी शुरू हो चुका है, भले ही वह अभी बेकाबू न हुआ हो। इसी संकट के बीच शुभ लक्षण यह है कि वैकल्पिक रास्ते के नारे पर लातिन अमरीका के कई देशों में वामपंथी ताकतों और व्यक्तियों की जीत हुई है और आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के दुष्परिणामों को भुगत रही जनता ने उन्हें ठुकराना शुरू कर दिया है। मध्यपूर्व और उत्तर अफ्रीका के अरब देशों में भूमंडलीय आर्थिक संकट से पैदा हुई विपन्नता के खिलाफ और जनता के जनवादी अधिकारों को हासिल करने को व्यापक एवं शान्तिपूर्ण ढंग से आन्दोलन हुए हैं और कई जगह जनता विजयी हुई है तो अन्य कई जगह अभी जूझ रही है। मजदूर वर्ग, शिक्षकों, छात्रों, बेरोजगारों एवं बुद्धिजीवियों के संघर्ष लगातार उभर रहे हैं।
हमारे देश की संप्रग-2 सरकार बड़ी बेशर्मी से आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों को थोप रही है जिससे कि जनता के ऊपर लगातार भार बढ़ता जा रहा है। लेकिन इससे महंगाई, भ्रष्टाचार और कालेधन के बारे में जनता की चेतना और उसके प्रतिरोध की दर बढ़ती चली जा रही है। पूंजीवादी विपक्षी दल जनता के आक्रोश को भुनाने की कोशिशों में लगे हैं। लेकिन हमारी लड़ाई इन सारी समस्याओं की जड़ आर्थिक नव उदारवाद से है। वामपंथी दलों को इसका विकल्प देते हुए आगामी संघर्षों को नेतृत्व प्रदान करना है।
प्रमुख पूंजीवादी दल आर्थिक बुराइयों के कुछ पहलुओं पर मैत्रीपूर्ण संघर्षों का दिखावा भले ही करें लेकिन आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के वे पूरी तरह समर्थक हैं। तमाम मौकों पर वे अपने एजेण्डे को आगे बढ़ाने को खुलकर एक दूसरे को सहयोग करते हैं। कारपोरेट जगत के हितों की रक्षा के लिये उसी की प्रेरणा से वे एक दूसरे के सहयोगी बने हैं। मरता क्या न करना की तर्ज पर मजदूर, किसान, नौजवान, छात्र, दलित, महिला, बुद्धिजीवी एवं मध्यमवर्ग सभी सड़कों पर उतर रहे हैं और आर्थिक नव उदारवाद के गर्भ से पैदा हुये महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, छंटनी, तालाबंदी, वेतन जाम, भूमि अधिग्रहण एवं बेहद महंगी शिक्षा और इलाज की व्यवस्था के खिलाफ जुझारू संघर्ष कर रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां
एकध्रुवीय विश्व का स्वप्न देख रहे अमरीका के लिए, जौनपुर में 7-9 मार्च 2008 को सम्पन्न हुए हमारे 20वें राज्य सम्मेलन के पहले ही, निराशाजनक हालात पैदा हो चुके थे। लातिन अमरीकी देशों में वामपंथ की बयार बहना शुरू हो चुकी थी। सम्मेलन के पूर्व ही अमरीका में सब प्राइम संकट के साथ बैंकों का डूबना शुरू हो चुका था जो धीरे-धीरे भूमंडलीय मंदी के रूप में फैल गया। इस वैश्विक आर्थिक संकट से निकलने के लिए अमरीका और यूरोप के पूंजीवादी देशों ने बेल आउट पैकेज के द्वारा स्थितियों को संभालने की तमाम कोशिशों से यह जताने की कोशिश की कि परिस्थितियां नियंत्रण में आ रही हैं। परन्तु वह संकट दुनिया के तमाम देशों में फैलता जा रहा है।
आर्थिक नवउदारवाद के प्रतिपादकों ने भी मानना शुरू कर दिया है कि जिन नीतियों को विकास के एकमात्र विकल्प के रूप में पेश किया गया था, उन्हीं नीतियों के फलस्वरूप बेरोजगारी और मुद्रास्फीति पैदा हो रही है। स्वयं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (अंश्रसं) ने स्वीकार किया है कि वर्तमान आर्थिक संकट का मुख्य लक्षण है बेरोजगारी जो अधिकांश विकसित देशों में दो अंकों की दर पर है।
इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने आकलन किया है कि 2010 में जून से दिसम्बर के मध्य खाद्य मूल्य सूचकांक में 32 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दिसम्बर 2010 का सूचकांक इसके पहले के सर्वाधिक अधिक जून 2008 के सूचकांक से भी अधिक था। एफएओ की रिपोर्ट खाद्य पदार्थों के मूल्यों में इस असाधारण वृद्धि के लिए आवश्यक वस्तुओं के वायदा बाजार को जिम्मेदार बताती है। 2008 में जब एफएओ का खाद्य मूल्य सूचकांक बढ़कर 213.5 पर पहुंच गया था और उसके कारण अनेक देशों में दंगे हो गये थे, तब यह दावा किया गया था कि कच्चे तेल के मूल्य में वृद्धि (जो उस दौरान 170 अमरीकी डालर से परे चला गया था) के कारण खाद्य पदार्थों के मूल्य बढ़ रहे हैं। पर दुबारा जिस अवधि में यह 215 के निशान से भी ऊपर चला गया उस दौरान कच्चे तेल की कीमतें 92 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल जितनी नीची कीमत पर थी। एएफओ ने आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों पर लगातार और पैतरेबाजी के साथ चलते रहने के फलस्वरूप विश्वभर में खाद्य पदार्थों में और अधिक मूल्य वृद्धि की भविष्यवाणी की है।
अमरीका की कर्ज आधारित अर्थव्यवस्था संकट के दलदल में फंसती चली जा रही है जिसके फलस्वरूप अमरीका बेरोजगारी, मुद्रा के क्षरण तथा आम लोगों की मजदूरी के मूल्य में क्षरण के दलदल में फंसता चला जा रहा है। अमरीकी राष्ट्रपति स्वयं तथा उनके तमाम सहयोगी भारत सहित विकासशील देशों से अमरीका के लिए ऐसे ठेके और कारोबार हासिल करने की जुगत में लगे हुए हैं जिससे अमरीकियों के लिए रोजगार पैदा हों। जुलाई 2011 में अमरीकी सरकार दुनियां भर से लिये गये उधार पर खजाने से दिये जाने वाले ब्याज को भुगतान करने में अक्षमता का भीषण संकट झेल रही थी। ओबामा प्रशासन ने विपक्षी दल के साथ मिलकर ऋण लिये जाने की सीमा को बढ़ाकर अमरीकी खजाने को ब्याज भुगतान में डिफाल्ट से बचा लिया परन्तु अगस्त के पहले सप्ताह में अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों - स्टैंडर्ड एंड पुअर्स, डागॉग तथा मूडी ने अमरीकी सरकार की क्रेडिट रेटिंग घटा दी। अमरीका की साख को इस प्रकार की चुनौती 1917 के बाद पहली बार मिली। हाल ही में वहां ”एक्यूपाई वॉल स्ट्रीट“ (अमरीकी शेयर बाजार ‘वॉल स्ट्रीट’ पर कब्जा करो) नारे के साथ मजदूर वर्ग का प्रतिरोध सामने आना शुरू हो गया है।
गहराते भूमंडलीय संकट का विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोग अलग-अलग तरीके से विरोध कर रहे हैं। विकसित यूरोप में मेहनतकश लोग सामाजिक सुरक्षा कदमों में कटौती, रोजगार के कम होते अवसरों, बढ़ती बेरोजगारी और एक के बाद दूसरे देश में नजर आने वाले दिवालियेपन के विरूद्ध जी-जान से संघर्ष कर रहे हैं। आयरलैंड और ग्रीस के बाद, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा पैकेज दिये जाने के बाद पुर्तगाल और स्पेन दिवालियेपन के कगार पर हैं।
मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका के अरब देशों के घटनाक्रम वास्तव में पेचीदा लेकिन दिलचस्प हैं। ट्यूनीशिया, मिस्र, बहरीन, कतर, यूएई, कुवैत, लीबिया, ओमान और सउदी अरब आदि व्यापक जन विद्रोह की गिरफ्त में चले गये।
आम तौर पर यह माना जाता है कि अरब देशों में जनता का विद्रोह लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचना के कारण और शेखों और अमीरों के जोरो-जुल्म के खिलाफ है। कुछ हद तक यह सही है पर यह पूरा सच नहीं है। 2007 में शुरू हुई मंदी ने अधिकांश अरब देशों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया क्योंकि उनकी अधिकांश आमदनी का निवेश उन पश्चिमी बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों में होता है जो ध्वस्त हो गये हैं। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश अरब देशों में वित्तीय गिरावट चल रही है। मुद्रास्फीति से जीवन बदहाल हो गया है। मजदूरी कम हो गयी है। जबकि निरंकुश एवं अत्याचारी और शासक परिवार आराम की जिन्दगी गुजार रहे हैं, अरब देशों के आम लोग मुसीबतें झेल रहे हैं। यह चीज उन्हें विद्रोह की ओर ले गयी है। अमरीका के साथ-साथ अरब के निरंकुश शासक भी अधिकांश अरब देशों के जन-विद्रोह को ईरान द्वारा भड़काये गये शिया-सुन्नी टकराव का नाम दे रहे हैं। विद्रोहों में यह साम्प्रदायिक संघर्ष एक तत्व अवश्य है पर यह एक मात्र कारण नहीं है।
अमरीका परिस्थिति को लगातार ऐसी दिशा देने की कोशिश करता रहा है कि सरकार बदल जाने के बाद भी वहां ऐसे लोग शासन में आयें जो अमरीका के इशारों पर चलें। मिस्र में वह मुबारक की पार्टी और अख्वान-उल-मुसलमीन (मुस्लिम ब्रदरहुड) के बीच एक समझौता करा कर इस मामले में कुछ हद तक सफल भी हो गया है हालांकि पिछले तमाम वर्षों में अमरीका परस्त सरकारें मुस्लिम ब्रदरहुड को अत्यधिक घृणित संगठन मानकर उसके विरूद्ध लड़ती रही हैं। यमन में, अमरीकी और सऊदी अरब अलकायदा को अपने साथ मिलाने की कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि इसी संगठन के विरूद्ध लड़ने के लिए वे अब्दुल्ला सालेह को पिछले दो दशकों में बिलियनों डॉलर देते रहे हैं। तेल समृद्ध देशों में अपने पिट्ठुओं को गद्दी पर बैठाने के लिए वाशिंगटन उन आग्रहों और आदर्शों को ताक पर रखता रहा है जिनकी नसीहतें वह अन्य देशों को देता थकता नहीं है। गत समय में उभरे जनांदोलनों के बाद अरब क्षेत्र के कुछ देशों में राजनीतिक व्यवस्थाओं ने आकार लेना शुरू कर दिया है। यहां हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव विश्व के कुछ अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ना स्वाभाविक है।
अरब के आम लोगों और विश्व भर के मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिये ओबामा ने, उन सीमाओं के आधार पर जो 1967 के अरब-इस्राइल युद्ध से पहले थी, फिलीस्तीन के एक स्वतंत्र राज्य के गठन की वकालत की। पर इस्राइल ने इस प्रस्ताव को एकदम से अस्वीकार कर दिया। हमास, जिसका गाजा पट्टी पर शासन है, और इस्राइल के कब्जे वाले क्षेत्र में पीएलओ नेतृत्व वाली फिलीस्तीनी अथारिटी के बीच बढ़ती घनिष्टता की पृष्ठभूमि में ओबामा यह फैसला लेने पर मजबूत हुए थे।
लातिन अमरीका के लोग अधिकाधिक वाम-उन्मुख विकल्पों का वरण कर रहे हैं। यहां के अधिसंख्यक देशों में जनता ने ऐसे व्यक्तियों और पार्टियों को मतदान कर सत्ता में बैठाया है जो आर्थिक नवउदारवाद का विरोध करते हैं और वाम-उन्मुखी आर्थिक नीतियों को मानते हैं। क्यूबा के नेतृत्व में इन देशों के मंच में नवीनतम शामिल होने वाला देश है पेरू जहां जनता ने एक वाम-उन्मुख व्यक्ति को राष्ट्रपति के रूप में चुना है।
रूस में चुनाव शीघ्र ही होने वाले हैं। वर्तमान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा आपस में पदों के बदलने की बातें सुनने में आयी हैं।
हमारे पड़ोस में, नेपाल की परिस्थिति चिंताजनक और पेचीदा चल रही है। काफी देरी के बाद, संविधान के कार्यकाल को बढ़ाया गया। लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में नेतृत्व स्तर पर बढ़ते टकराव और गुटबाजी की लड़ाई ने परिस्थिति को अधिक पेंचीदा बना दिया है। हाल में प्रमुख राजनैतिक पार्टियों - कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (यूनीफाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट), नेपाली कांग्रेस, यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (माओवादी) और मधेशी पार्टियों ने काफी कटुता, झगड़े और मोल-भाव के बाद शांति प्रक्रिया, संविधान लेखन और संक्रमणवादी दौर में सत्ता की हिस्सेदारी के संबंध में एक समझौते पर दस्तखत कर दिये हैं। यदि इस समझौते पर ईमानदारी से अमल किया गया, तो वह देश के इतिहास में मोड़ साबित हो सकता है।
झगड़े से अस्तव्यस्त श्रीलंका की परिस्थिति गंभीर है। जिन शासकों ने तमिलों का जनसंहार किया है, वे पुनर्वास और राजनीतिक समाधान की आवश्यकता की निरंतर अनदेखी कर रहे हैं।
भारत पाक संबंधों में उतार-चढ़ाव गंभीर चिंता का विषय हैं। पाकिस्तान असल में अस्थिरता के दल-दल में फंसा हुआ है। कट्टरपंथी और आतंकवादी संगठनों का उदय, नागरिकों और सेना के बीच लड़ाई, सम्प्रभुता का बार-बार उल्लंघन और आंतरिक मामलों में अमरीका के निरंतर हस्तक्षेप ने देश को एक असफल राज्य बनने के कगार पर धकेल दिया है। आतंकवादी हमलों, खासकर मुंबई हमले को, अंजाम देने वालों के विरूद्ध ठोस कार्रवाई करने में पाकिस्तान की सरकार की विफलता भारत और पाकिस्तान के बीच कलह का एक निरंतर स्रोत है। चिंता का विषय यह है कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पाकिस्तान से डील करने में एक राष्ट्रीय आम सहमति विकसित करने की जगह अमरीकियों के इशारे पर काम कर रहे हैं।
राष्ट्रीय परिदृश्य
आर्थिक हालात
केन्द्र सरकार द्वारा चलाये जा रहे आर्थिक नव उदारवाद के एजेण्डे के चलते आम जनता की दिक्कतें चारों तरफ से बढ़ रही हैं। इस दरम्यान खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति दहाई के ऊपर बनी रही है। दालों, फलों, सब्जी, अनाजों, खाद्य तेलों, दवाओं आदि की बेकाबू होती कीमतों से जीवन बेहद कठिन हो चुका है। पेट्रोल की कीमतें बार-बार बढ़ाई जाती रही हैं। कई बार डीजल, रसोई गैस और पेट्रोल के दाम बढ़ाये गये हैं। इन सबके दाम बढ़ने से हर चीज के दाम लाजिमी तौर पर बढ़ते हैं। आवश्यक वस्तुओं के वायदा कारोबार को अनुमति दिये जाने और खाद्यान्नों तथा खाद्य पदार्थों की असीमित कानूनी जमाखोरी के कारण महंगाई दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। एक समय तो प्याज 70 से 80 रूपये किलो तक बिकी। जनता तथा भाकपा के प्रतिरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने महंगाई को न्यायोचित ठहराया और इसे विकास का प्रतीक बताते हुये कहा कि यदि लोग महंगी चीजें खरीदने में समर्थ हैं तो इसका तात्पर्य है कि उनकी क्रय क्षमता बढ़ चुकी है।
बेरोजगारी एवं रोजगार के अवसरों की कमी लगातार बढ़ रही है। खुद सरकार ने स्वीकार किया है कि बेरोजगारी की दर 9.4 प्रतिशत है। यह अनुमानित दर 2.8 की चार गुनी है। ज्यादातर सरकारी विभागों में नई भर्तियों पर अघोषित पाबंदी लगाई हुई है। संगठित औद्योगिक क्षेत्र में भी कैजुअल और ठेके पर मजदूर रखने की प्रथा बढ़ती जा रही है।
गरीबी और अमीरी के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। दुनियां के अमीरों की सूची में जहां भारतीय अमीरों की तादाद बढ़कर दहाई में पहुंच गई है वहीं गरीबी की सीमा के नीचे रहने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। इस तथ्य पर पर्दा डालने को योजना आयोग ने ग्रामीण क्षेत्र में 26 रूपये और शहरी क्षेत्र में 30 रूपये खर्च करने की क्षमता रखने वालों को गरीबी रेखा के ऊपर घोषित कर दिया। इसकी सर्वत्र भर्त्सना हुई। वास्तव में आबादी के 72 प्रतिशत लोग गरीबी की सीमा के नीचे गुजारा कर रहे हैं।
ये सभी पूंजीवादी व्यवस्था के अवश्यंभावी उत्पाद हैं। आर्थिक नवउदारवाद जिसके भूमंडलीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण आवश्यक अंग हैं, पूंजीवाद का वर्तमान अवतार हैं। इसके द्वारा पैदा भ्रष्टाचार एवं कालेधन ने आम लोगों खासकर मध्यवर्ग को जाग्रत किया है। अन्ना हजारे और योग गुरू रामदेव के आन्दोलन ने इन सवालों पर लोगों को झकझोरा है।
मस्तिष्क को झकझोर कर रख देने वाली विशाल धनराशि वाले घपले-घोटालों ने आम आदमी के गुस्से को बढ़ा दिया है। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्र मंडल खेलों के आयोजन में भारी लूट, व्यवसाइयों के साथ मिल कर देश के साथ धोखाधड़ी कर बैंकों के शीर्षस्थ अधिकारियों का दुराचरण जिसमें कि कर्जों को अनुत्पादक परिसंपत्तियों (एनपीए) में बदल दिया गया, आदर्श सोसायटी घोटाला, आयकर प्राधिकरण द्वारा यह पुष्टि कि गांधी परिवार के विश्वस्त व्यक्ति क्वात्रोची और विन चड्ढा को बोफोर्स से कमीशन मिला था, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो), जो सीधे प्रधानमंत्री के अधीन है, द्वारा देवास मल्टीमीडिया को वाणिज्यिक उपयोग के लिये एस बैंड स्पेक्ट्रम का दिया जाना आदि घपलों-घोटालों के चंद उदाहरण मात्र हैं। इनके कारण केन्द्र सरकार के कई मंत्री और नेता पदों से हटाये गये हैं तो कई जेल में हैं। अन्य कई पर कार्यवाही हो सकती है। अब उनमें से कई एक जमानत पर रिहा हुये हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गृहमंत्री की लिप्तता भी उजागर हो चुकी है। यह कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए-2 की भद्दी तस्वीर है जिसके प्रधानमंत्री के ईमानदार होने का ढिंढ़ोरा पीटा जाता है।
भाजपा जो मुख्य विपक्षी दल है। को पंजाब में अपने दो मंत्रियों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण हटाना पड़ा। कर्नाटक में उसे अपने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को हटाना पड़ा और वह जेल पहुंचाये गये। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और गुजरात की उसकी सरकारें भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण मुश्किल में हैं। येदियुरप्पा और रेड्डी बंधुओं के कारनामों के चलते कर्नाटक को देश के सबसे भ्रष्ट राज्य के रूप में माना गया है।
पूंजीवादी समाज का एक और कलंक है काला धन। व्यवसाई, शासक वर्ग के राजनेता और अफसरशाही अपनी काली कमाई को विदेशी बैंकों में रखते आये हैं। यह सब हवाला के जरिये चलता है। एक अंतर्राष्ट्रीय एजेन्सी का आकलन है कि 1948 से 2008 के बीच 9 लाख करोड़ रूपये से अधिक धन स्विस और अन्य विदेशी बैंको में जमा है। इसमें से लगभग आधा धन कथित ‘आर्थिक सुधारों’ की अवधि में बाहर गया। जर्मनी के एक बैंक ने अपने भारतीय खातेदारों की सूची भारत सरकार को दी है पर सरकार उनके नाम उजागर करने से मना कर रही है। इसके अलावा देश के अंदर वास्तविक अर्थव्यवस्था से भी बड़ी एक समानान्तरण् अर्थव्यवस्था काम कर रही है। वित्तमंत्री ने स्वीकारा है कि उनके पास विदेशी खातेदारों की सूची है पर उसे जारी करने से मुकर रहे हैं।
नीरा राडिया के टेपों के उजागर होने से कार्पोरेट हाउसों के संप्रग-2 सरकार पर दबदबे का पर्दाफाश हुआ है। स्पष्ट हो गया है कि कार्पोरेट लॉबी मंत्री बनवाने में भी भूमिका अदा करती है।
अर्थव्यवस्था और विदेश नीति में एक दक्षिणपंथी परिवर्तन आया है और यह मुनाफा कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों को निरंतर बेचने की कोशिशों, सेवाओं के आउटसोर्सिंग और तथाकथित विदेशी निवेश के बेरोकटोक अंतर्प्रवाह में भी दिखाई पड़ता है। खुदरा व्यापार के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और बहुराष्ट्रीय निगमों को देश भर में मल्टी ब्रांड माल और थोक व्यापार इकाइयां खोलने की इजाजत दे दी गई है। इसके लघु व्यापार और खुदरा दुकानों पर निर्भर करोड़ों लोग रोजी-रोटी से वंचित हो जायेंगे।
गत आम बजट में मुनाफा कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेच कर वित्तीय घाटा पूरा करने के प्रावधान हैं। सरकार स्टील अथारिटी आफ इंडिया (सेल) और अन्य नवरत्न कंपनियों के शेयरों को पहले ही बिक्री के लिये पेश कर चुकी है।
चूंकि किसी सरकार की विदेश नीति उसकी आंतरिक नीतियों - खासकर आर्थिक नीतियों का विस्तार होती है, अतः अमरीकी साम्राज्यवादियों की जोड़-तोड़ के सामने अधिकाधिक आत्म-समर्पण किया जा रहा है।
यद्यपि ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत और दक्षिण अफ्रीका समूह) और जी-20 के मंचों पर हमारी भूमिका सकारात्मक है लेकिन आर्थिक मोर्चे पर हम पश्चिमी देशों के सामने लगभग आत्मसमर्पण कर चुके हैं। शंघाई सहयोग परिषद में शामिल होने का भारत का फैसला स्वागत योग्य है पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमरीका का मार्गदर्शन ग्रहण करते हैं। ईरान के सवाल, लीबिया के सवाल तथा अफगानिस्तान के सवाल पर भी हम अमरीकी घेरेबन्दी से बाहर नहीं निकल रहे।
अमरीका के साथ बड़े रक्षा सामग्री समझौते, जिनके परिणामस्वरूप भारी रक्षा खर्च हो रहा है तथा जिसके तहत कम प्रभावकारी एम-4777 हॉविट्जर तोपें खरीदी जा रही हैं, बेहद चिन्ता का विषय है। अमरीका, यूरोप और इजरायल के साथ बड़े सौदों से गरीब एवं मध्यम वर्ग की कीमत पर न केवल अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है बल्कि हमारी विदेश नीति पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
साथ ही औद्योगिक उत्पादन में मामूली वृद्धि हुई है। रूपये की कीमत तेजी से गिर रही है। यूनान, पुर्तगाल, आयरलैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों तथा खुद अमरीका में आर्थिक संकट के चलते इसके और गिरने की संभावना बनी हुई है। सरकार बहादुराना चेहरा दिखाने की कोशिश कर रही है पर देश की जनता को और अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में 40,000 करोड़ रूपये के विनिवेश का काम शुरू कर दिया है। भारतीय ऊर्जा निगम ने रू. 1000 करोड़ का विनिवेश किया है। बीएचईएल तथा दूसरे लाभ देने वाले सार्वजनिक उद्यमों में 8000 करोड़ रूपये का विनिवेश किया जा रहा है। प्रधानमंत्री विकासदर के लिये दूसरी पीढ़ी के सुधारों को आवश्यक बता रहे हैं।
संतोष की बात है कि सरकार के हर नकारात्मक कदम का मेहनतकश अवाम आन्दोलन के जरिये विरोध कर रहे हैं तथा एक बड़े जनांदोलन की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं।
राजनैतिक
महंगाई और भ्रष्टाचार इस दौर की गंभीर समस्यायें हैं। महंगाई का सर्वाधिक असर गरीब जनता पर पड़ता है। भ्रष्टाचार गरीब-अमीर सभी की समस्या है। भाकपा लगातार इन समस्याओं पर आन्दोलनरत है। लेकिन कार्पोरेट जगत और उसका मीडिया भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाने में जुटे हैं। इसी पृष्ठभूमि में समाज सेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन किये हैं। इससे भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक जनमत बना है, मध्य वर्ग मैदान में उतरा है पर महंगाई, खाद्य सुरक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ध्यान हटा भी है।
अन्ना हजारे ने पहले 4 दिवसीय अनशन किया। सभी राजनीतिक दलों को दरकिनार कर टीम अन्ना और कांग्रेस ने तथाकथित जन लोकपाल बिल की एक संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी बना ली। लेकिन कुछ मुद्दों पर मतभेदों को लेकर दोनों के रास्ते अलग हो गये और सरकार ने अपने लोकपाल बिल का ड्राफ्ट सदन के पटल पर रख दिया जोकि संसद की स्टैन्डिंग कमेटी के विचाराधीन है। अन्ना टीम ने अपना जन लोकपाल बिल का ड्राफ्ट सरकार को सौंपा और सरकार से मांग की कि उसका ड्राफ्ट भी संसद के विचारार्थ पेश किया जाये। सरकार के रजामन्द न होने पर अन्ना हजारे 16 अगस्त को भूख हड़ताल पर बैठ गये।
लेकिन सरकार ने पहले भूख हड़ताल की इजाजत नहीं दी। अन्ना को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जनता के जबरदस्त प्रतिरोध के चलते सरकार को अनशन की अनुमति देनी पड़ी और राम लीला मैदान में 13 दिन अनशन चला। मीडिया ने अपने आर्थिक स्वार्थों और प्रतिस्पर्धा के चलते मामले को बेहद तूल दिया। पूरे देश में भ्रष्टाचार पर गर्म बहस चली।
लोकपाल के सम्बंध में सरकारी बिल बेहद कमजोर है। प्रधानमंत्री और सभी सरकारी कर्मचारियों को कानून के दायरे में नहीं लाया गया। इसमें राज्यों के लोकायुक्त के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। लोकपाल केवल सिफारिश करेगा जिसे सरकार माने या न माने। यह केन्द्रीय सतर्कता आयोग की तर्ज पर ही होगा। सरकारी बिल के अनुसार दोषी को सजा 6 माह से शुरू होगी जबकि शिकायतकर्ता यदि आरोपों को साबित नहीं कर पाया तो उसे 25 हजार रूपये से 2 लाख रूपये के जुर्माने सहित 2 से 5 साल की सजा होगी।
दूसरी ओर ”जन लोकपाल बिल“ के जद में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को शामिल किया गया है। इसमें 1.32 करोड़ सरकारी कर्मचारियों और सीबीआई की भ्रष्टाचार विरोधी शाखा को भी घेरे में लिया गया है। एक सर्वोच्च संस्था को इतनी अधिक शक्तियां दे देना नुकसानदायक ही होगा।
अरूणा राय और कुछ अन्य के प्रस्ताव इससे बेहतर हैं। लेकिन उन पर भी चर्चा करना जरूरी है। भाकपा और वामपंथी दल अलग से एक राष्ट्रीय न्यायिक जवाबदेही बिल बनवाना चाहते हैं। संसद की संवैधानिक महत्ता की रक्षा की जानी चाहिये तथा प्रधानमंत्री, सांसदों, मंत्रियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिये। इसका विकेन्द्रीकरण जरूरी है।
लोकपाल बिलों पर चार दशकों से चर्चा चल रही है। इस बीच सरकार, सरकार के विभागों और मंत्रियों के भ्रष्टाचार के उजागर होने से लोग गुस्से में हैं। सरकार ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। इसीलिये अन्ना को इतना बड़ा समर्थन मिला है। इससे सारा ध्यान भ्रष्टाचार, सरकारी मशीनरी, नौकरशाही और राजनेताओं पर लग गया है तथा कार्पोरेट जगत ने अन्ना को हर तरह से मदद की। लोगों की आकांक्षाओं की आड़ में संसद और संवैधानिक मशीनरी को पीछे धकेलने की साजिश भी है। आरएसएस, भाजपा तथा अन्य दक्षिणपंथी ताकतों ने इस स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश की। अन्ना की टीम अब अपनी मांगों का दायरा बढ़ाती जा रही है और सरकार एवं देश को अपनी शर्तों पर चलाना चाहती है।
लोग भ्रष्टाचार से निजात चाहते हैं। लेकिन सारी पूंजीवादी पार्टियां भ्रष्टाचार में लिप्त दिखाई पड़ रही हैं। भाकपा और वामपंथ भ्रष्टाचार से मुक्त हैं, जनता यह जानती है। अतएव इस आन्दोलन से पैदा हुई चेतना जनता को वामपंथ की ओर मोड़ सकती है।
अन्ना आन्दोलन की थाती को अपने आगोश में समेटने, कैश फार वोट मामले में अपने सिपहसालारों के जेल के सींखचों के पीछे चले जाने और अमरीका के उस सन्देश के लीक हो जाने जिसमें मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट किया गया है, से खिन्न भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी रथयात्रा शुरू कर दी। उत्साहित नरेन्द्र मोदी ने भी 3 दिन के उपवास का नाटक किया। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा के कई नेता रथों पर सवार होकर निकल पड़े हैं। नाम है भ्रष्टाचार का विरोध, नजर है आगामी विधान सभा चुनावों पर।
भाजपा किस मुंह से भ्रष्टाचार विरोध की बात कर सकती है। कर्नाटक के लोकायुक्त ने भाजपा के मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा को भ्रष्टाचार के लिये दोषी ठहराया। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और जेल जाना पड़ा। भाजपा का आर्थिक स्तंभ एक और मंत्री गाली जनार्दन रेड्डी भी जेल में है। उसके पास अपार सोना और धनराशि पाई गई। लेकिन भाजपा ने आज तक उसे निलंबित तक नहीं किया अपितु उसका बचाव किया। उत्तराखंड के उसके मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते इस्तीफा देना पड़ा। बार-बार आगाह किये जाने के बावजूद गुजरात में 7 वर्षों से लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की गई। अंततः राज्यपाल ने नियुक्ति का विवादास्पद कदम उठाया। छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्य प्रदेश की उसकी सरकारों पर भी उंगलियां उठ रही हैं। ऐसे में भाजपा को यात्रायें निकालने का नैतिक अधिकार ही नहीं है। पर सत्ता के लिये भूख उससे यह सब करा रही है।
कांग्रेस और भाजपा दोनों के भ्रष्टाचार को भाकपा को जनता के बीच उजागर करना है। अन्ना आन्दोलन के प्रति हमें संतुलित दृष्टिकोण रखना है। हमें ध्यान रखना है कि जनता में भ्रष्टाचार के विरूद्ध मजबूत और न्यायोचित कार्यवाही की इच्छा हैं अतएव एक मजबूत एवं शक्तिशाली लोकपाल कानून जरूरी है। पर उससे ही भ्रष्टाचार मिट जायेगा, यह सोचना गलत होगा। देश में कई इस तरह के कानून पहले से मौजूद हैं जिनको लागू नहीं किया गया। राज्यों में भी अलग-अलग कानून बनाये गये हैं। हमारा विचार है कि भ्रष्टाचार से निपटने को सरकार में एक मजबूत इच्छाशक्ति होनी चाहिये। असमानता पर आधारित व्यवस्था को बदल कर भी इससे निजात पाई जा सकती है।
भाकपा और वामपंथ ने 2 सितम्बर को निम्न पांच सवालों पर आन्दोलन चलाने की रूपरेखा बनाई है। हमें लगातार और लम्बे समय तक इन मुद्दों पर संघर्ष चलाना है।
1 - एक मजबूत लोकपाल कानून के लिये और भ्रष्टाचार के विरोध में।
2 - न्यायिक जवाबदेही कानून के लिये
3 - महंगाई को काबू में करने
4 - चुनाव सुधार तथा
5 - काले धन की वापसी के लिये ठोस कदम
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सीबीआई ने ‘कैश फार वोट’ केस में चार्जशीट दाखिल की जिसमें पूर्व समाजवादी अमर सिंह और भाजपा के दो पूर्व सांसद गिरफ्तार हुये। लेकिन सीबीआई ने इस धन के स्रोत का खुलासा नहीं किया और इस तरह संप्रग-2 के प्रबंधकों की मदद की है। 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में चिदम्बरम की संलिप्तता के सम्बंध में प्रणव मुखर्जी (वित्तमंत्री) ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। लेकिन सदैव की भांति प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व ने इसकी सफाई नहीं दी। बंगाल में कम्युनिस्टों पर हमले हो रहे हैं। तेलंगाना का आन्दोलन लगातार व्यापक हो रहा है। राजस्थान में गुर्जर और अल्पसंख्यकों के झगड़े में पुलिस ने गोली चला दी और 9 अल्पसंख्यक मारे गये। मणिपुर में लम्बे समय से ब्लॉकेड चल रहा है।
लम्बे इंतजार के बाद भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास बिल संसद में पेश किया गया है। भाकपा पुराने कानून को हटा कर एक बिलकुल नया कानून लाने को संघर्षरत है। इस बिल में तमाम सुधारों की जरूरत है।
इस बीच देश में जमीन का मुद्दा बड़े पैमाने पर उभर कर आया है। सिंगूर और नंदीग्राम की भूमि के सवाल ने पश्चिम बंगाल के चुनाव में उल्लेखनीय भूमिका अदा की। इसी सवाल पर हमने दादरी के किसानों की लड़ाई लड़ी और उन्हें भूमि वापस दिलाने में कामयाबी मिली। अब नोएडा में अन्य जगहों पर किसानों के संघर्ष चल रहे हैं। एक अन्य उल्लेखनीय लड़ाई वनवासियों को विस्थापित कर पोस्को परियोजना को लगाने के विरूद्ध उड़ीसा में चल रही है। भाकपा इस संघर्ष में सबसे अगले मोर्चे पर है। महाराष्ट्र के थाणे जिले में जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने के लिये भूमि अधिग्रहण किये जाने और परमाणु संयंत्र की स्थापना के विरूद्ध भी वहां व्यापक संघर्ष चल रहा है। किसानों की उपज के उचित मूल्य दिलाने और आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों के कृषि पर हमले के विरूद्ध हमें पूरी शिद्दत से जुटना होगा।
बाहर से थोपा आतंकवाद एक जटिल समस्या बना हुआ है। मुंबई पर 26-11 को हुये आतंकी हमले से देश आहत है। लेकिन हमलों का क्रम रूका नहीं है। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में हुये हमले में 14 लोग मारे गये और अन्य अनेक घायल हुये। सरकार आतंकी गतिविधियों पर काबू पाने में असमर्थ है। उधर हिन्दुत्व आतंकवाद के बारे में भी खुलासे-दर-खुलासे हो रहे हैं। असीमानन्द के इकबालिया बयान से यह साबित होता है कि संघ परिवार से जुड़े संगठन और लोग उन तमाम घटनाओं में शामिल थे जिनमें जांच एजेंसियों ने कई मुस्लिम युवकों को फांसने की कोशिश की। मालेगांव विस्फोट, हैदराबाद में मक्का मस्जिद विस्फोट, अजमेर दरगाह विस्फोट, समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट - ये सभी आतंकी हमले हिन्दुत्व आतंकवाद की करतूतें थीं।
गोधरा कांड के बाद गुजरात दंगों में मोदी और उसकी संघ मंडली की भूमिका जांच एजेंसियों, उस समय के प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों ने तो उजागर की ही हैं अब न्यायालय ने भी लोगों को सजा सुनाकर इन आरोपों की पुष्टि कर दी है। आश्चर्यजनक है कि धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाली संप्रग-2 सरकार साम्प्रदायिक व हिन्दुत्व आतंकवाद की गतिविधियों की एक व्यापक जांच कराये जाने से लगातार बचती रही है।
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम
इस मध्य पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी तथा असम में विधान सभा चुनाव हुये। इनमें तमिलनाडु में हम कुछ फायदे में रहे और 9 सीटें जीतीं।
पश्चिम बंगाल जहां वाम मोर्चा लगातार 34 वर्षों से शासन कर रहा था तथा केरल जहां हम एक बार जीतते हैं और एक बार हारते हैं, में क्रमशः वामपंथी मोर्चे और वाम जनवादी मोर्चे की हार का देश की राजनीति पर व्यापक असर पड़ा है। पूंजीवादी ताकतें और उनके द्वारा पोषित मीड़िया हवा बांध रहा है कि वहां वामपंथ का सूपड़ा साफ हो गया। यह उसी तर्ज पर है जैसाकि सोवियत संघ में समाजवादी ढांचे के पतन पर किया गया।
जहां तक पश्चिम बंगाल की बात है, वहां सिंगूर और नन्दीग्राम के मुद्दे का असर होना लाजिमी था। वाम मोर्चे ने खोये हुये आधार को पाने की कोशिशें कीं लेकिन वह सफल नहीं रहा। फिर भी उसने 41 प्रतिशत मत हासिल किये। लेकिन सत्ता उसके हाथ से छिन गई। यह वाम मोर्चे की राजनीतिक पराजय है। मोर्चे के बड़े भागीदार दल में सत्ता का अहंकार, राज्य के औद्योगीकरण के सवाल पर मनमाने ढंग से फैसले, धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों की वास्तविक आशाओं - आकांक्षाओं की उपेक्षा और सबसे प्रमुख बात है वाम मोर्चे के सबसे बड़े घटक द्वारा अन्य की उपेक्षा कर अपने आपको ही सब कुछ समझना, हर सामाजिक मामले में भाकपा (मा) द्वारा मनमाना हस्तक्षेप और शासक गठबंधन के निचले और मध्यम स्तर पर भ्रष्टाचार के चंद प्रमुख कारण हैं जो पराजय के कारणों की तरफ इशारा करती हैं।
भाकपा पश्चिम बंगाल द्वारा की गयी समीक्षा में यह भी रेखांकित किया गया कि उसकी सांगठनिक स्थिति कमजोर थी अतएव पिछली विधान सभा में सात के स्थान पर दो ही स्थान वह पा सकी।
केरल में वाम लोकतांत्रिक गठबंधन जो सत्ता में था, लगातार दूसरी बार चुनाव जीत कर स्थापित परंपरा को पलटने जा रहा था। अपने गत शासन काल में उसने राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार पर कार्यवाही की, राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का जीर्णोद्धार कर आर्थिक नवउदारवाद की बुराइयों से जनता को बचाया, लद्यु उद्योगों को बचाया तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को विस्तारित किया। वाम लोकतांत्रिक मोर्चे ने लोकसभा तथा पंचायत चुनाव के मुकाबले जबरदस्त वोट हासिल किये। फिर भी सत्ता खो बैठा। दोनों मोर्चों के बीच मतों का अंतर एक प्रतिशत से भी कम है। साम्प्रदायिकता और जातीय ध्रुवीकरण ने भी हानि पहुंचाई। मुख्यमंत्री को विलम्ब से प्रत्याशी बनाये जाने से भी हानि उठानी पड़ी।
तमिलनाडु में कांग्रेस-डीएमके गठबंधन के महाभ्रष्ट परिवार के शासन को जनता ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। अन्ना द्रमुक गठबंधन तथा उसमें शामिल वामपंथ को भी फायदा पहुंचा।
पुड्डुचेरी में कांग्रेस हार गई और कांग्रेस से निष्कासित नेता एन. रामासामी ने जगह ले ली। हमें कोई सीट नहीं मिली।
असम में शांति और स्थिरता के नारे पर कांग्रेस जीती। हमें वहां भी कोई सीट नहीं मिली।
निष्कर्ष
यद्यपि 27 से 31 मार्च तक पटना में होने जा रहे राष्ट्रीय महाधिवेशन में समूचे आर्थिक, राजनैतिक परिदृश्य पर विस्तृत चर्चा होगी और दस्तावेज पारित होंगे लेकिन उपर्युक्त चर्चा के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
पूरी दुनिया और देश में हर क्षेत्र में भारी उथल-पुथल हो रही है लेकिन यह हमारे लक्ष्यों को साधने में मदद करने वाली है। 2007 में पैदा हुआ विश्वव्यापी आर्थिक संकट दिन-प्रति-दिन गहरा होता चला जा रहा है और अधिक से अधिक देशों को अपनी चपेट में ले रहा है। पूंजीवादी जगत इस संकट से हतप्रभ है और अपने निजी अंतर्विरोधों से पूंजीवाद लड़खड़ा रहा है। आर्थिक रूप से ताकतवर अमरीका और यूपोप में यह संकट सबसे गहरा है और इससे प्रभावित वहां का जनमानस आज सड़कों पर उतर इसका विरोध कर रहा है। संकट भारत में भी शुरू हो चुका है, भले ही वह अभी बेकाबू न हुआ हो। इसी संकट के बीच शुभ लक्षण यह है कि वैकल्पिक रास्ते के नारे पर लातिन अमरीका के कई देशों में वामपंथी ताकतों और व्यक्तियों की जीत हुई है और आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के दुष्परिणामों को भुगत रही जनता ने उन्हें ठुकराना शुरू कर दिया है। मध्यपूर्व और उत्तर अफ्रीका के अरब देशों में भूमंडलीय आर्थिक संकट से पैदा हुई विपन्नता के खिलाफ और जनता के जनवादी अधिकारों को हासिल करने को व्यापक एवं शान्तिपूर्ण ढंग से आन्दोलन हुए हैं और कई जगह जनता विजयी हुई है तो अन्य कई जगह अभी जूझ रही है। मजदूर वर्ग, शिक्षकों, छात्रों, बेरोजगारों एवं बुद्धिजीवियों के संघर्ष लगातार उभर रहे हैं।
हमारे देश की संप्रग-2 सरकार बड़ी बेशर्मी से आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों को थोप रही है जिससे कि जनता के ऊपर लगातार भार बढ़ता जा रहा है। लेकिन इससे महंगाई, भ्रष्टाचार और कालेधन के बारे में जनता की चेतना और उसके प्रतिरोध की दर बढ़ती चली जा रही है। पूंजीवादी विपक्षी दल जनता के आक्रोश को भुनाने की कोशिशों में लगे हैं। लेकिन हमारी लड़ाई इन सारी समस्याओं की जड़ आर्थिक नव उदारवाद से है। वामपंथी दलों को इसका विकल्प देते हुए आगामी संघर्षों को नेतृत्व प्रदान करना है।
प्रमुख पूंजीवादी दल आर्थिक बुराइयों के कुछ पहलुओं पर मैत्रीपूर्ण संघर्षों का दिखावा भले ही करें लेकिन आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के वे पूरी तरह समर्थक हैं। तमाम मौकों पर वे अपने एजेण्डे को आगे बढ़ाने को खुलकर एक दूसरे को सहयोग करते हैं। कारपोरेट जगत के हितों की रक्षा के लिये उसी की प्रेरणा से वे एक दूसरे के सहयोगी बने हैं। मरता क्या न करना की तर्ज पर मजदूर, किसान, नौजवान, छात्र, दलित, महिला, बुद्धिजीवी एवं मध्यमवर्ग सभी सड़कों पर उतर रहे हैं और आर्थिक नव उदारवाद के गर्भ से पैदा हुये महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, छंटनी, तालाबंदी, वेतन जाम, भूमि अधिग्रहण एवं बेहद महंगी शिक्षा और इलाज की व्यवस्था के खिलाफ जुझारू संघर्ष कर रहे हैं।
अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां
एकध्रुवीय विश्व का स्वप्न देख रहे अमरीका के लिए, जौनपुर में 7-9 मार्च 2008 को सम्पन्न हुए हमारे 20वें राज्य सम्मेलन के पहले ही, निराशाजनक हालात पैदा हो चुके थे। लातिन अमरीकी देशों में वामपंथ की बयार बहना शुरू हो चुकी थी। सम्मेलन के पूर्व ही अमरीका में सब प्राइम संकट के साथ बैंकों का डूबना शुरू हो चुका था जो धीरे-धीरे भूमंडलीय मंदी के रूप में फैल गया। इस वैश्विक आर्थिक संकट से निकलने के लिए अमरीका और यूरोप के पूंजीवादी देशों ने बेल आउट पैकेज के द्वारा स्थितियों को संभालने की तमाम कोशिशों से यह जताने की कोशिश की कि परिस्थितियां नियंत्रण में आ रही हैं। परन्तु वह संकट दुनिया के तमाम देशों में फैलता जा रहा है।
आर्थिक नवउदारवाद के प्रतिपादकों ने भी मानना शुरू कर दिया है कि जिन नीतियों को विकास के एकमात्र विकल्प के रूप में पेश किया गया था, उन्हीं नीतियों के फलस्वरूप बेरोजगारी और मुद्रास्फीति पैदा हो रही है। स्वयं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (अंश्रसं) ने स्वीकार किया है कि वर्तमान आर्थिक संकट का मुख्य लक्षण है बेरोजगारी जो अधिकांश विकसित देशों में दो अंकों की दर पर है।
इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) ने आकलन किया है कि 2010 में जून से दिसम्बर के मध्य खाद्य मूल्य सूचकांक में 32 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दिसम्बर 2010 का सूचकांक इसके पहले के सर्वाधिक अधिक जून 2008 के सूचकांक से भी अधिक था। एफएओ की रिपोर्ट खाद्य पदार्थों के मूल्यों में इस असाधारण वृद्धि के लिए आवश्यक वस्तुओं के वायदा बाजार को जिम्मेदार बताती है। 2008 में जब एफएओ का खाद्य मूल्य सूचकांक बढ़कर 213.5 पर पहुंच गया था और उसके कारण अनेक देशों में दंगे हो गये थे, तब यह दावा किया गया था कि कच्चे तेल के मूल्य में वृद्धि (जो उस दौरान 170 अमरीकी डालर से परे चला गया था) के कारण खाद्य पदार्थों के मूल्य बढ़ रहे हैं। पर दुबारा जिस अवधि में यह 215 के निशान से भी ऊपर चला गया उस दौरान कच्चे तेल की कीमतें 92 अमरीकी डॉलर प्रति बैरल जितनी नीची कीमत पर थी। एएफओ ने आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों पर लगातार और पैतरेबाजी के साथ चलते रहने के फलस्वरूप विश्वभर में खाद्य पदार्थों में और अधिक मूल्य वृद्धि की भविष्यवाणी की है।
अमरीका की कर्ज आधारित अर्थव्यवस्था संकट के दलदल में फंसती चली जा रही है जिसके फलस्वरूप अमरीका बेरोजगारी, मुद्रा के क्षरण तथा आम लोगों की मजदूरी के मूल्य में क्षरण के दलदल में फंसता चला जा रहा है। अमरीकी राष्ट्रपति स्वयं तथा उनके तमाम सहयोगी भारत सहित विकासशील देशों से अमरीका के लिए ऐसे ठेके और कारोबार हासिल करने की जुगत में लगे हुए हैं जिससे अमरीकियों के लिए रोजगार पैदा हों। जुलाई 2011 में अमरीकी सरकार दुनियां भर से लिये गये उधार पर खजाने से दिये जाने वाले ब्याज को भुगतान करने में अक्षमता का भीषण संकट झेल रही थी। ओबामा प्रशासन ने विपक्षी दल के साथ मिलकर ऋण लिये जाने की सीमा को बढ़ाकर अमरीकी खजाने को ब्याज भुगतान में डिफाल्ट से बचा लिया परन्तु अगस्त के पहले सप्ताह में अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों - स्टैंडर्ड एंड पुअर्स, डागॉग तथा मूडी ने अमरीकी सरकार की क्रेडिट रेटिंग घटा दी। अमरीका की साख को इस प्रकार की चुनौती 1917 के बाद पहली बार मिली। हाल ही में वहां ”एक्यूपाई वॉल स्ट्रीट“ (अमरीकी शेयर बाजार ‘वॉल स्ट्रीट’ पर कब्जा करो) नारे के साथ मजदूर वर्ग का प्रतिरोध सामने आना शुरू हो गया है।
गहराते भूमंडलीय संकट का विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोग अलग-अलग तरीके से विरोध कर रहे हैं। विकसित यूरोप में मेहनतकश लोग सामाजिक सुरक्षा कदमों में कटौती, रोजगार के कम होते अवसरों, बढ़ती बेरोजगारी और एक के बाद दूसरे देश में नजर आने वाले दिवालियेपन के विरूद्ध जी-जान से संघर्ष कर रहे हैं। आयरलैंड और ग्रीस के बाद, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा पैकेज दिये जाने के बाद पुर्तगाल और स्पेन दिवालियेपन के कगार पर हैं।
मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका के अरब देशों के घटनाक्रम वास्तव में पेचीदा लेकिन दिलचस्प हैं। ट्यूनीशिया, मिस्र, बहरीन, कतर, यूएई, कुवैत, लीबिया, ओमान और सउदी अरब आदि व्यापक जन विद्रोह की गिरफ्त में चले गये।
आम तौर पर यह माना जाता है कि अरब देशों में जनता का विद्रोह लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचना के कारण और शेखों और अमीरों के जोरो-जुल्म के खिलाफ है। कुछ हद तक यह सही है पर यह पूरा सच नहीं है। 2007 में शुरू हुई मंदी ने अधिकांश अरब देशों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया क्योंकि उनकी अधिकांश आमदनी का निवेश उन पश्चिमी बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों में होता है जो ध्वस्त हो गये हैं। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश अरब देशों में वित्तीय गिरावट चल रही है। मुद्रास्फीति से जीवन बदहाल हो गया है। मजदूरी कम हो गयी है। जबकि निरंकुश एवं अत्याचारी और शासक परिवार आराम की जिन्दगी गुजार रहे हैं, अरब देशों के आम लोग मुसीबतें झेल रहे हैं। यह चीज उन्हें विद्रोह की ओर ले गयी है। अमरीका के साथ-साथ अरब के निरंकुश शासक भी अधिकांश अरब देशों के जन-विद्रोह को ईरान द्वारा भड़काये गये शिया-सुन्नी टकराव का नाम दे रहे हैं। विद्रोहों में यह साम्प्रदायिक संघर्ष एक तत्व अवश्य है पर यह एक मात्र कारण नहीं है।
अमरीका परिस्थिति को लगातार ऐसी दिशा देने की कोशिश करता रहा है कि सरकार बदल जाने के बाद भी वहां ऐसे लोग शासन में आयें जो अमरीका के इशारों पर चलें। मिस्र में वह मुबारक की पार्टी और अख्वान-उल-मुसलमीन (मुस्लिम ब्रदरहुड) के बीच एक समझौता करा कर इस मामले में कुछ हद तक सफल भी हो गया है हालांकि पिछले तमाम वर्षों में अमरीका परस्त सरकारें मुस्लिम ब्रदरहुड को अत्यधिक घृणित संगठन मानकर उसके विरूद्ध लड़ती रही हैं। यमन में, अमरीकी और सऊदी अरब अलकायदा को अपने साथ मिलाने की कोशिशें कर रहे हैं। हालांकि इसी संगठन के विरूद्ध लड़ने के लिए वे अब्दुल्ला सालेह को पिछले दो दशकों में बिलियनों डॉलर देते रहे हैं। तेल समृद्ध देशों में अपने पिट्ठुओं को गद्दी पर बैठाने के लिए वाशिंगटन उन आग्रहों और आदर्शों को ताक पर रखता रहा है जिनकी नसीहतें वह अन्य देशों को देता थकता नहीं है। गत समय में उभरे जनांदोलनों के बाद अरब क्षेत्र के कुछ देशों में राजनीतिक व्यवस्थाओं ने आकार लेना शुरू कर दिया है। यहां हो रहे परिवर्तनों का प्रभाव विश्व के कुछ अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ना स्वाभाविक है।
अरब के आम लोगों और विश्व भर के मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिये ओबामा ने, उन सीमाओं के आधार पर जो 1967 के अरब-इस्राइल युद्ध से पहले थी, फिलीस्तीन के एक स्वतंत्र राज्य के गठन की वकालत की। पर इस्राइल ने इस प्रस्ताव को एकदम से अस्वीकार कर दिया। हमास, जिसका गाजा पट्टी पर शासन है, और इस्राइल के कब्जे वाले क्षेत्र में पीएलओ नेतृत्व वाली फिलीस्तीनी अथारिटी के बीच बढ़ती घनिष्टता की पृष्ठभूमि में ओबामा यह फैसला लेने पर मजबूत हुए थे।
लातिन अमरीका के लोग अधिकाधिक वाम-उन्मुख विकल्पों का वरण कर रहे हैं। यहां के अधिसंख्यक देशों में जनता ने ऐसे व्यक्तियों और पार्टियों को मतदान कर सत्ता में बैठाया है जो आर्थिक नवउदारवाद का विरोध करते हैं और वाम-उन्मुखी आर्थिक नीतियों को मानते हैं। क्यूबा के नेतृत्व में इन देशों के मंच में नवीनतम शामिल होने वाला देश है पेरू जहां जनता ने एक वाम-उन्मुख व्यक्ति को राष्ट्रपति के रूप में चुना है।
रूस में चुनाव शीघ्र ही होने वाले हैं। वर्तमान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री द्वारा आपस में पदों के बदलने की बातें सुनने में आयी हैं।
हमारे पड़ोस में, नेपाल की परिस्थिति चिंताजनक और पेचीदा चल रही है। काफी देरी के बाद, संविधान के कार्यकाल को बढ़ाया गया। लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में नेतृत्व स्तर पर बढ़ते टकराव और गुटबाजी की लड़ाई ने परिस्थिति को अधिक पेंचीदा बना दिया है। हाल में प्रमुख राजनैतिक पार्टियों - कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (यूनीफाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट), नेपाली कांग्रेस, यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (माओवादी) और मधेशी पार्टियों ने काफी कटुता, झगड़े और मोल-भाव के बाद शांति प्रक्रिया, संविधान लेखन और संक्रमणवादी दौर में सत्ता की हिस्सेदारी के संबंध में एक समझौते पर दस्तखत कर दिये हैं। यदि इस समझौते पर ईमानदारी से अमल किया गया, तो वह देश के इतिहास में मोड़ साबित हो सकता है।
झगड़े से अस्तव्यस्त श्रीलंका की परिस्थिति गंभीर है। जिन शासकों ने तमिलों का जनसंहार किया है, वे पुनर्वास और राजनीतिक समाधान की आवश्यकता की निरंतर अनदेखी कर रहे हैं।
भारत पाक संबंधों में उतार-चढ़ाव गंभीर चिंता का विषय हैं। पाकिस्तान असल में अस्थिरता के दल-दल में फंसा हुआ है। कट्टरपंथी और आतंकवादी संगठनों का उदय, नागरिकों और सेना के बीच लड़ाई, सम्प्रभुता का बार-बार उल्लंघन और आंतरिक मामलों में अमरीका के निरंतर हस्तक्षेप ने देश को एक असफल राज्य बनने के कगार पर धकेल दिया है। आतंकवादी हमलों, खासकर मुंबई हमले को, अंजाम देने वालों के विरूद्ध ठोस कार्रवाई करने में पाकिस्तान की सरकार की विफलता भारत और पाकिस्तान के बीच कलह का एक निरंतर स्रोत है। चिंता का विषय यह है कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पाकिस्तान से डील करने में एक राष्ट्रीय आम सहमति विकसित करने की जगह अमरीकियों के इशारे पर काम कर रहे हैं।
राष्ट्रीय परिदृश्य
आर्थिक हालात
केन्द्र सरकार द्वारा चलाये जा रहे आर्थिक नव उदारवाद के एजेण्डे के चलते आम जनता की दिक्कतें चारों तरफ से बढ़ रही हैं। इस दरम्यान खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति दहाई के ऊपर बनी रही है। दालों, फलों, सब्जी, अनाजों, खाद्य तेलों, दवाओं आदि की बेकाबू होती कीमतों से जीवन बेहद कठिन हो चुका है। पेट्रोल की कीमतें बार-बार बढ़ाई जाती रही हैं। कई बार डीजल, रसोई गैस और पेट्रोल के दाम बढ़ाये गये हैं। इन सबके दाम बढ़ने से हर चीज के दाम लाजिमी तौर पर बढ़ते हैं। आवश्यक वस्तुओं के वायदा कारोबार को अनुमति दिये जाने और खाद्यान्नों तथा खाद्य पदार्थों की असीमित कानूनी जमाखोरी के कारण महंगाई दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। एक समय तो प्याज 70 से 80 रूपये किलो तक बिकी। जनता तथा भाकपा के प्रतिरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने महंगाई को न्यायोचित ठहराया और इसे विकास का प्रतीक बताते हुये कहा कि यदि लोग महंगी चीजें खरीदने में समर्थ हैं तो इसका तात्पर्य है कि उनकी क्रय क्षमता बढ़ चुकी है।
बेरोजगारी एवं रोजगार के अवसरों की कमी लगातार बढ़ रही है। खुद सरकार ने स्वीकार किया है कि बेरोजगारी की दर 9.4 प्रतिशत है। यह अनुमानित दर 2.8 की चार गुनी है। ज्यादातर सरकारी विभागों में नई भर्तियों पर अघोषित पाबंदी लगाई हुई है। संगठित औद्योगिक क्षेत्र में भी कैजुअल और ठेके पर मजदूर रखने की प्रथा बढ़ती जा रही है।
गरीबी और अमीरी के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। दुनियां के अमीरों की सूची में जहां भारतीय अमीरों की तादाद बढ़कर दहाई में पहुंच गई है वहीं गरीबी की सीमा के नीचे रहने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। इस तथ्य पर पर्दा डालने को योजना आयोग ने ग्रामीण क्षेत्र में 26 रूपये और शहरी क्षेत्र में 30 रूपये खर्च करने की क्षमता रखने वालों को गरीबी रेखा के ऊपर घोषित कर दिया। इसकी सर्वत्र भर्त्सना हुई। वास्तव में आबादी के 72 प्रतिशत लोग गरीबी की सीमा के नीचे गुजारा कर रहे हैं।
ये सभी पूंजीवादी व्यवस्था के अवश्यंभावी उत्पाद हैं। आर्थिक नवउदारवाद जिसके भूमंडलीकरण, निजीकरण एवं उदारीकरण आवश्यक अंग हैं, पूंजीवाद का वर्तमान अवतार हैं। इसके द्वारा पैदा भ्रष्टाचार एवं कालेधन ने आम लोगों खासकर मध्यवर्ग को जाग्रत किया है। अन्ना हजारे और योग गुरू रामदेव के आन्दोलन ने इन सवालों पर लोगों को झकझोरा है।
मस्तिष्क को झकझोर कर रख देने वाली विशाल धनराशि वाले घपले-घोटालों ने आम आदमी के गुस्से को बढ़ा दिया है। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, राष्ट्र मंडल खेलों के आयोजन में भारी लूट, व्यवसाइयों के साथ मिल कर देश के साथ धोखाधड़ी कर बैंकों के शीर्षस्थ अधिकारियों का दुराचरण जिसमें कि कर्जों को अनुत्पादक परिसंपत्तियों (एनपीए) में बदल दिया गया, आदर्श सोसायटी घोटाला, आयकर प्राधिकरण द्वारा यह पुष्टि कि गांधी परिवार के विश्वस्त व्यक्ति क्वात्रोची और विन चड्ढा को बोफोर्स से कमीशन मिला था, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो), जो सीधे प्रधानमंत्री के अधीन है, द्वारा देवास मल्टीमीडिया को वाणिज्यिक उपयोग के लिये एस बैंड स्पेक्ट्रम का दिया जाना आदि घपलों-घोटालों के चंद उदाहरण मात्र हैं। इनके कारण केन्द्र सरकार के कई मंत्री और नेता पदों से हटाये गये हैं तो कई जेल में हैं। अन्य कई पर कार्यवाही हो सकती है। अब उनमें से कई एक जमानत पर रिहा हुये हैं। 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में गृहमंत्री की लिप्तता भी उजागर हो चुकी है। यह कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए-2 की भद्दी तस्वीर है जिसके प्रधानमंत्री के ईमानदार होने का ढिंढ़ोरा पीटा जाता है।
भाजपा जो मुख्य विपक्षी दल है। को पंजाब में अपने दो मंत्रियों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण हटाना पड़ा। कर्नाटक में उसे अपने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को हटाना पड़ा और वह जेल पहुंचाये गये। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और गुजरात की उसकी सरकारें भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण मुश्किल में हैं। येदियुरप्पा और रेड्डी बंधुओं के कारनामों के चलते कर्नाटक को देश के सबसे भ्रष्ट राज्य के रूप में माना गया है।
पूंजीवादी समाज का एक और कलंक है काला धन। व्यवसाई, शासक वर्ग के राजनेता और अफसरशाही अपनी काली कमाई को विदेशी बैंकों में रखते आये हैं। यह सब हवाला के जरिये चलता है। एक अंतर्राष्ट्रीय एजेन्सी का आकलन है कि 1948 से 2008 के बीच 9 लाख करोड़ रूपये से अधिक धन स्विस और अन्य विदेशी बैंको में जमा है। इसमें से लगभग आधा धन कथित ‘आर्थिक सुधारों’ की अवधि में बाहर गया। जर्मनी के एक बैंक ने अपने भारतीय खातेदारों की सूची भारत सरकार को दी है पर सरकार उनके नाम उजागर करने से मना कर रही है। इसके अलावा देश के अंदर वास्तविक अर्थव्यवस्था से भी बड़ी एक समानान्तरण् अर्थव्यवस्था काम कर रही है। वित्तमंत्री ने स्वीकारा है कि उनके पास विदेशी खातेदारों की सूची है पर उसे जारी करने से मुकर रहे हैं।
नीरा राडिया के टेपों के उजागर होने से कार्पोरेट हाउसों के संप्रग-2 सरकार पर दबदबे का पर्दाफाश हुआ है। स्पष्ट हो गया है कि कार्पोरेट लॉबी मंत्री बनवाने में भी भूमिका अदा करती है।
अर्थव्यवस्था और विदेश नीति में एक दक्षिणपंथी परिवर्तन आया है और यह मुनाफा कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों को निरंतर बेचने की कोशिशों, सेवाओं के आउटसोर्सिंग और तथाकथित विदेशी निवेश के बेरोकटोक अंतर्प्रवाह में भी दिखाई पड़ता है। खुदरा व्यापार के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और बहुराष्ट्रीय निगमों को देश भर में मल्टी ब्रांड माल और थोक व्यापार इकाइयां खोलने की इजाजत दे दी गई है। इसके लघु व्यापार और खुदरा दुकानों पर निर्भर करोड़ों लोग रोजी-रोटी से वंचित हो जायेंगे।
गत आम बजट में मुनाफा कमाने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेच कर वित्तीय घाटा पूरा करने के प्रावधान हैं। सरकार स्टील अथारिटी आफ इंडिया (सेल) और अन्य नवरत्न कंपनियों के शेयरों को पहले ही बिक्री के लिये पेश कर चुकी है।
चूंकि किसी सरकार की विदेश नीति उसकी आंतरिक नीतियों - खासकर आर्थिक नीतियों का विस्तार होती है, अतः अमरीकी साम्राज्यवादियों की जोड़-तोड़ के सामने अधिकाधिक आत्म-समर्पण किया जा रहा है।
यद्यपि ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत और दक्षिण अफ्रीका समूह) और जी-20 के मंचों पर हमारी भूमिका सकारात्मक है लेकिन आर्थिक मोर्चे पर हम पश्चिमी देशों के सामने लगभग आत्मसमर्पण कर चुके हैं। शंघाई सहयोग परिषद में शामिल होने का भारत का फैसला स्वागत योग्य है पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमरीका का मार्गदर्शन ग्रहण करते हैं। ईरान के सवाल, लीबिया के सवाल तथा अफगानिस्तान के सवाल पर भी हम अमरीकी घेरेबन्दी से बाहर नहीं निकल रहे।
अमरीका के साथ बड़े रक्षा सामग्री समझौते, जिनके परिणामस्वरूप भारी रक्षा खर्च हो रहा है तथा जिसके तहत कम प्रभावकारी एम-4777 हॉविट्जर तोपें खरीदी जा रही हैं, बेहद चिन्ता का विषय है। अमरीका, यूरोप और इजरायल के साथ बड़े सौदों से गरीब एवं मध्यम वर्ग की कीमत पर न केवल अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है बल्कि हमारी विदेश नीति पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
साथ ही औद्योगिक उत्पादन में मामूली वृद्धि हुई है। रूपये की कीमत तेजी से गिर रही है। यूनान, पुर्तगाल, आयरलैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों तथा खुद अमरीका में आर्थिक संकट के चलते इसके और गिरने की संभावना बनी हुई है। सरकार बहादुराना चेहरा दिखाने की कोशिश कर रही है पर देश की जनता को और अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में 40,000 करोड़ रूपये के विनिवेश का काम शुरू कर दिया है। भारतीय ऊर्जा निगम ने रू. 1000 करोड़ का विनिवेश किया है। बीएचईएल तथा दूसरे लाभ देने वाले सार्वजनिक उद्यमों में 8000 करोड़ रूपये का विनिवेश किया जा रहा है। प्रधानमंत्री विकासदर के लिये दूसरी पीढ़ी के सुधारों को आवश्यक बता रहे हैं।
संतोष की बात है कि सरकार के हर नकारात्मक कदम का मेहनतकश अवाम आन्दोलन के जरिये विरोध कर रहे हैं तथा एक बड़े जनांदोलन की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं।
राजनैतिक
महंगाई और भ्रष्टाचार इस दौर की गंभीर समस्यायें हैं। महंगाई का सर्वाधिक असर गरीब जनता पर पड़ता है। भ्रष्टाचार गरीब-अमीर सभी की समस्या है। भाकपा लगातार इन समस्याओं पर आन्दोलनरत है। लेकिन कार्पोरेट जगत और उसका मीडिया भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाने में जुटे हैं। इसी पृष्ठभूमि में समाज सेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध आन्दोलन किये हैं। इससे भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक जनमत बना है, मध्य वर्ग मैदान में उतरा है पर महंगाई, खाद्य सुरक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से ध्यान हटा भी है।
अन्ना हजारे ने पहले 4 दिवसीय अनशन किया। सभी राजनीतिक दलों को दरकिनार कर टीम अन्ना और कांग्रेस ने तथाकथित जन लोकपाल बिल की एक संयुक्त ड्राफ्ट कमेटी बना ली। लेकिन कुछ मुद्दों पर मतभेदों को लेकर दोनों के रास्ते अलग हो गये और सरकार ने अपने लोकपाल बिल का ड्राफ्ट सदन के पटल पर रख दिया जोकि संसद की स्टैन्डिंग कमेटी के विचाराधीन है। अन्ना टीम ने अपना जन लोकपाल बिल का ड्राफ्ट सरकार को सौंपा और सरकार से मांग की कि उसका ड्राफ्ट भी संसद के विचारार्थ पेश किया जाये। सरकार के रजामन्द न होने पर अन्ना हजारे 16 अगस्त को भूख हड़ताल पर बैठ गये।
लेकिन सरकार ने पहले भूख हड़ताल की इजाजत नहीं दी। अन्ना को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जनता के जबरदस्त प्रतिरोध के चलते सरकार को अनशन की अनुमति देनी पड़ी और राम लीला मैदान में 13 दिन अनशन चला। मीडिया ने अपने आर्थिक स्वार्थों और प्रतिस्पर्धा के चलते मामले को बेहद तूल दिया। पूरे देश में भ्रष्टाचार पर गर्म बहस चली।
लोकपाल के सम्बंध में सरकारी बिल बेहद कमजोर है। प्रधानमंत्री और सभी सरकारी कर्मचारियों को कानून के दायरे में नहीं लाया गया। इसमें राज्यों के लोकायुक्त के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। लोकपाल केवल सिफारिश करेगा जिसे सरकार माने या न माने। यह केन्द्रीय सतर्कता आयोग की तर्ज पर ही होगा। सरकारी बिल के अनुसार दोषी को सजा 6 माह से शुरू होगी जबकि शिकायतकर्ता यदि आरोपों को साबित नहीं कर पाया तो उसे 25 हजार रूपये से 2 लाख रूपये के जुर्माने सहित 2 से 5 साल की सजा होगी।
दूसरी ओर ”जन लोकपाल बिल“ के जद में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को शामिल किया गया है। इसमें 1.32 करोड़ सरकारी कर्मचारियों और सीबीआई की भ्रष्टाचार विरोधी शाखा को भी घेरे में लिया गया है। एक सर्वोच्च संस्था को इतनी अधिक शक्तियां दे देना नुकसानदायक ही होगा।
अरूणा राय और कुछ अन्य के प्रस्ताव इससे बेहतर हैं। लेकिन उन पर भी चर्चा करना जरूरी है। भाकपा और वामपंथी दल अलग से एक राष्ट्रीय न्यायिक जवाबदेही बिल बनवाना चाहते हैं। संसद की संवैधानिक महत्ता की रक्षा की जानी चाहिये तथा प्रधानमंत्री, सांसदों, मंत्रियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिये। इसका विकेन्द्रीकरण जरूरी है।
लोकपाल बिलों पर चार दशकों से चर्चा चल रही है। इस बीच सरकार, सरकार के विभागों और मंत्रियों के भ्रष्टाचार के उजागर होने से लोग गुस्से में हैं। सरकार ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है। इसीलिये अन्ना को इतना बड़ा समर्थन मिला है। इससे सारा ध्यान भ्रष्टाचार, सरकारी मशीनरी, नौकरशाही और राजनेताओं पर लग गया है तथा कार्पोरेट जगत ने अन्ना को हर तरह से मदद की। लोगों की आकांक्षाओं की आड़ में संसद और संवैधानिक मशीनरी को पीछे धकेलने की साजिश भी है। आरएसएस, भाजपा तथा अन्य दक्षिणपंथी ताकतों ने इस स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश की। अन्ना की टीम अब अपनी मांगों का दायरा बढ़ाती जा रही है और सरकार एवं देश को अपनी शर्तों पर चलाना चाहती है।
लोग भ्रष्टाचार से निजात चाहते हैं। लेकिन सारी पूंजीवादी पार्टियां भ्रष्टाचार में लिप्त दिखाई पड़ रही हैं। भाकपा और वामपंथ भ्रष्टाचार से मुक्त हैं, जनता यह जानती है। अतएव इस आन्दोलन से पैदा हुई चेतना जनता को वामपंथ की ओर मोड़ सकती है।
अन्ना आन्दोलन की थाती को अपने आगोश में समेटने, कैश फार वोट मामले में अपने सिपहसालारों के जेल के सींखचों के पीछे चले जाने और अमरीका के उस सन्देश के लीक हो जाने जिसमें मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट किया गया है, से खिन्न भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी रथयात्रा शुरू कर दी। उत्साहित नरेन्द्र मोदी ने भी 3 दिन के उपवास का नाटक किया। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा के कई नेता रथों पर सवार होकर निकल पड़े हैं। नाम है भ्रष्टाचार का विरोध, नजर है आगामी विधान सभा चुनावों पर।
भाजपा किस मुंह से भ्रष्टाचार विरोध की बात कर सकती है। कर्नाटक के लोकायुक्त ने भाजपा के मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा को भ्रष्टाचार के लिये दोषी ठहराया। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और जेल जाना पड़ा। भाजपा का आर्थिक स्तंभ एक और मंत्री गाली जनार्दन रेड्डी भी जेल में है। उसके पास अपार सोना और धनराशि पाई गई। लेकिन भाजपा ने आज तक उसे निलंबित तक नहीं किया अपितु उसका बचाव किया। उत्तराखंड के उसके मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते इस्तीफा देना पड़ा। बार-बार आगाह किये जाने के बावजूद गुजरात में 7 वर्षों से लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की गई। अंततः राज्यपाल ने नियुक्ति का विवादास्पद कदम उठाया। छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्य प्रदेश की उसकी सरकारों पर भी उंगलियां उठ रही हैं। ऐसे में भाजपा को यात्रायें निकालने का नैतिक अधिकार ही नहीं है। पर सत्ता के लिये भूख उससे यह सब करा रही है।
कांग्रेस और भाजपा दोनों के भ्रष्टाचार को भाकपा को जनता के बीच उजागर करना है। अन्ना आन्दोलन के प्रति हमें संतुलित दृष्टिकोण रखना है। हमें ध्यान रखना है कि जनता में भ्रष्टाचार के विरूद्ध मजबूत और न्यायोचित कार्यवाही की इच्छा हैं अतएव एक मजबूत एवं शक्तिशाली लोकपाल कानून जरूरी है। पर उससे ही भ्रष्टाचार मिट जायेगा, यह सोचना गलत होगा। देश में कई इस तरह के कानून पहले से मौजूद हैं जिनको लागू नहीं किया गया। राज्यों में भी अलग-अलग कानून बनाये गये हैं। हमारा विचार है कि भ्रष्टाचार से निपटने को सरकार में एक मजबूत इच्छाशक्ति होनी चाहिये। असमानता पर आधारित व्यवस्था को बदल कर भी इससे निजात पाई जा सकती है।
भाकपा और वामपंथ ने 2 सितम्बर को निम्न पांच सवालों पर आन्दोलन चलाने की रूपरेखा बनाई है। हमें लगातार और लम्बे समय तक इन मुद्दों पर संघर्ष चलाना है।
1 - एक मजबूत लोकपाल कानून के लिये और भ्रष्टाचार के विरोध में।
2 - न्यायिक जवाबदेही कानून के लिये
3 - महंगाई को काबू में करने
4 - चुनाव सुधार तथा
5 - काले धन की वापसी के लिये ठोस कदम
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सीबीआई ने ‘कैश फार वोट’ केस में चार्जशीट दाखिल की जिसमें पूर्व समाजवादी अमर सिंह और भाजपा के दो पूर्व सांसद गिरफ्तार हुये। लेकिन सीबीआई ने इस धन के स्रोत का खुलासा नहीं किया और इस तरह संप्रग-2 के प्रबंधकों की मदद की है। 2-जी स्पेक्ट्रम मामले में चिदम्बरम की संलिप्तता के सम्बंध में प्रणव मुखर्जी (वित्तमंत्री) ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। लेकिन सदैव की भांति प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व ने इसकी सफाई नहीं दी। बंगाल में कम्युनिस्टों पर हमले हो रहे हैं। तेलंगाना का आन्दोलन लगातार व्यापक हो रहा है। राजस्थान में गुर्जर और अल्पसंख्यकों के झगड़े में पुलिस ने गोली चला दी और 9 अल्पसंख्यक मारे गये। मणिपुर में लम्बे समय से ब्लॉकेड चल रहा है।
लम्बे इंतजार के बाद भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास बिल संसद में पेश किया गया है। भाकपा पुराने कानून को हटा कर एक बिलकुल नया कानून लाने को संघर्षरत है। इस बिल में तमाम सुधारों की जरूरत है।
इस बीच देश में जमीन का मुद्दा बड़े पैमाने पर उभर कर आया है। सिंगूर और नंदीग्राम की भूमि के सवाल ने पश्चिम बंगाल के चुनाव में उल्लेखनीय भूमिका अदा की। इसी सवाल पर हमने दादरी के किसानों की लड़ाई लड़ी और उन्हें भूमि वापस दिलाने में कामयाबी मिली। अब नोएडा में अन्य जगहों पर किसानों के संघर्ष चल रहे हैं। एक अन्य उल्लेखनीय लड़ाई वनवासियों को विस्थापित कर पोस्को परियोजना को लगाने के विरूद्ध उड़ीसा में चल रही है। भाकपा इस संघर्ष में सबसे अगले मोर्चे पर है। महाराष्ट्र के थाणे जिले में जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने के लिये भूमि अधिग्रहण किये जाने और परमाणु संयंत्र की स्थापना के विरूद्ध भी वहां व्यापक संघर्ष चल रहा है। किसानों की उपज के उचित मूल्य दिलाने और आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों के कृषि पर हमले के विरूद्ध हमें पूरी शिद्दत से जुटना होगा।
बाहर से थोपा आतंकवाद एक जटिल समस्या बना हुआ है। मुंबई पर 26-11 को हुये आतंकी हमले से देश आहत है। लेकिन हमलों का क्रम रूका नहीं है। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में हुये हमले में 14 लोग मारे गये और अन्य अनेक घायल हुये। सरकार आतंकी गतिविधियों पर काबू पाने में असमर्थ है। उधर हिन्दुत्व आतंकवाद के बारे में भी खुलासे-दर-खुलासे हो रहे हैं। असीमानन्द के इकबालिया बयान से यह साबित होता है कि संघ परिवार से जुड़े संगठन और लोग उन तमाम घटनाओं में शामिल थे जिनमें जांच एजेंसियों ने कई मुस्लिम युवकों को फांसने की कोशिश की। मालेगांव विस्फोट, हैदराबाद में मक्का मस्जिद विस्फोट, अजमेर दरगाह विस्फोट, समझौता एक्सप्रेस में विस्फोट - ये सभी आतंकी हमले हिन्दुत्व आतंकवाद की करतूतें थीं।
गोधरा कांड के बाद गुजरात दंगों में मोदी और उसकी संघ मंडली की भूमिका जांच एजेंसियों, उस समय के प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों ने तो उजागर की ही हैं अब न्यायालय ने भी लोगों को सजा सुनाकर इन आरोपों की पुष्टि कर दी है। आश्चर्यजनक है कि धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाली संप्रग-2 सरकार साम्प्रदायिक व हिन्दुत्व आतंकवाद की गतिविधियों की एक व्यापक जांच कराये जाने से लगातार बचती रही है।
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम
इस मध्य पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी तथा असम में विधान सभा चुनाव हुये। इनमें तमिलनाडु में हम कुछ फायदे में रहे और 9 सीटें जीतीं।
पश्चिम बंगाल जहां वाम मोर्चा लगातार 34 वर्षों से शासन कर रहा था तथा केरल जहां हम एक बार जीतते हैं और एक बार हारते हैं, में क्रमशः वामपंथी मोर्चे और वाम जनवादी मोर्चे की हार का देश की राजनीति पर व्यापक असर पड़ा है। पूंजीवादी ताकतें और उनके द्वारा पोषित मीड़िया हवा बांध रहा है कि वहां वामपंथ का सूपड़ा साफ हो गया। यह उसी तर्ज पर है जैसाकि सोवियत संघ में समाजवादी ढांचे के पतन पर किया गया।
जहां तक पश्चिम बंगाल की बात है, वहां सिंगूर और नन्दीग्राम के मुद्दे का असर होना लाजिमी था। वाम मोर्चे ने खोये हुये आधार को पाने की कोशिशें कीं लेकिन वह सफल नहीं रहा। फिर भी उसने 41 प्रतिशत मत हासिल किये। लेकिन सत्ता उसके हाथ से छिन गई। यह वाम मोर्चे की राजनीतिक पराजय है। मोर्चे के बड़े भागीदार दल में सत्ता का अहंकार, राज्य के औद्योगीकरण के सवाल पर मनमाने ढंग से फैसले, धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों की वास्तविक आशाओं - आकांक्षाओं की उपेक्षा और सबसे प्रमुख बात है वाम मोर्चे के सबसे बड़े घटक द्वारा अन्य की उपेक्षा कर अपने आपको ही सब कुछ समझना, हर सामाजिक मामले में भाकपा (मा) द्वारा मनमाना हस्तक्षेप और शासक गठबंधन के निचले और मध्यम स्तर पर भ्रष्टाचार के चंद प्रमुख कारण हैं जो पराजय के कारणों की तरफ इशारा करती हैं।
भाकपा पश्चिम बंगाल द्वारा की गयी समीक्षा में यह भी रेखांकित किया गया कि उसकी सांगठनिक स्थिति कमजोर थी अतएव पिछली विधान सभा में सात के स्थान पर दो ही स्थान वह पा सकी।
केरल में वाम लोकतांत्रिक गठबंधन जो सत्ता में था, लगातार दूसरी बार चुनाव जीत कर स्थापित परंपरा को पलटने जा रहा था। अपने गत शासन काल में उसने राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार पर कार्यवाही की, राज्य के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का जीर्णोद्धार कर आर्थिक नवउदारवाद की बुराइयों से जनता को बचाया, लद्यु उद्योगों को बचाया तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को विस्तारित किया। वाम लोकतांत्रिक मोर्चे ने लोकसभा तथा पंचायत चुनाव के मुकाबले जबरदस्त वोट हासिल किये। फिर भी सत्ता खो बैठा। दोनों मोर्चों के बीच मतों का अंतर एक प्रतिशत से भी कम है। साम्प्रदायिकता और जातीय ध्रुवीकरण ने भी हानि पहुंचाई। मुख्यमंत्री को विलम्ब से प्रत्याशी बनाये जाने से भी हानि उठानी पड़ी।
तमिलनाडु में कांग्रेस-डीएमके गठबंधन के महाभ्रष्ट परिवार के शासन को जनता ने पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। अन्ना द्रमुक गठबंधन तथा उसमें शामिल वामपंथ को भी फायदा पहुंचा।
पुड्डुचेरी में कांग्रेस हार गई और कांग्रेस से निष्कासित नेता एन. रामासामी ने जगह ले ली। हमें कोई सीट नहीं मिली।
असम में शांति और स्थिरता के नारे पर कांग्रेस जीती। हमें वहां भी कोई सीट नहीं मिली।
निष्कर्ष
यद्यपि 27 से 31 मार्च तक पटना में होने जा रहे राष्ट्रीय महाधिवेशन में समूचे आर्थिक, राजनैतिक परिदृश्य पर विस्तृत चर्चा होगी और दस्तावेज पारित होंगे लेकिन उपर्युक्त चर्चा के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
- आर्थिक नव उदारवाद का संकट देश और दुनियां दोनों में ही गहरा होता जा रहा है। अतएव वामपंथ खासकर भाकपा के लिये उचित समय है कि अन्य विकासशील देशों खासकर लातिन अमरीकी देशों के अनुभवों से तथा वियतनाम और क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टियों की गत दिनों हुई कांग्रेसों में अनुमोदित आर्थिक विकास के पैकेजों से सीख लेकर वैकल्पिक आर्थिक नीतियों को मूर्त रूप दे।
- भारत में, अधिकांश राजनैतिक पार्टियां - राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय, आर्थिक नव उदारवाद का समर्थन करती हैं। ऐसे में वामपंथ को एक वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने को एक ऐसे विकल्प को पेश करना है जिसका नेतृत्व वामपंथ स्वयं करे।
- चुनावी तैयारी को लापरवाही तरीके से लेने की आदत को छोड़ने की जरूरत है। ऐसी परिस्थिति जहां धनबल और बाहुबल अधिकाधिक निर्णायक कारक बन रहा है, यह केवल संगठन ही है जो हमारी मदद कर सकता है। पार्टी को जमीनी स्तर पर खड़ा करना होगा।
- अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के बीच कार्य करने की हमारी शैली को धारदार बनाने की जरूरत है। ये तबके हमसे दूर हुये हैं। हमें उनकी वास्तविक शिकायतों को उठाना चाहिये और सरकारों द्वारा घोषित विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों के अमल के लिये परिणामोन्मुख संघर्ष चलाने चाहिये।
- समय का तकाजा है कि हम खेत मजदूरों, विद्यार्थियों और युवाओं के बीच काम पर ध्यान केन्द्रित करें। किसानों, मजदूरों में असंतोष बढ़ रहा है, अतः उपरोक्त सभी के जन संगठनों को मजबूत करना चाहिये, उनका विस्तार करना चाहिये।
- व्यापक स्तर पर पार्टी फंड जमा करना, होल टाइमर कार्यकर्ताओं के भत्तों में वृद्धि करना, होल टाइमरों की संख्या बढ़ाना और पार्टी के सिद्धान्तों एवं कार्यों का प्रचार करना - ये महत्वपूर्ण संगठनात्मक कार्य हैं।
- मजदूर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश लोगों के राजनीतीकरण पर जोर देकर वर्ग चेतना को तेज करना।
- विश्व भर में, खासकर लातिन अमरीका और अरब देशों के घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को तेज करना।
- हमारी विचारधारात्मक शिक्षा व्यवस्था (स्कूलिंग) को नई दिशा देने एवं काफी विस्तारित करने की जरूरत है।
- पार्टी पत्र-पत्रिकाओं की विषयवस्तु में और उनके सर्कुलेशन में सुधार लाना और सामयिक विषयों पर अधिकाधिक पुस्तिकाओं का प्रकाशन।
उत्तर प्रदेश
अप्रैल-मई 2007 में विधान सभा के चुनाव हुये थे। उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली मिली-जुली सरकार थी जो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और प्रतिष्ठानों को बेच रही थी, किसानों की जमीनों का मनमाने तरीके से अधिग्रहण कर उसे अपने फायनेन्सर उद्योगपतियों को सौंप रही थी, भ्रष्टाचार चरम पर था यहां तक कि पुलिस कांस्टेबिलों की भर्ती में भारी पैसा लिया जा रहा था, शिक्षा का बाजारीकरण किया जा रहा था और रिश्वत लेकर नये विद्यालयों को मान्यता दी जा रही थी, मंहगाई चरम पर थी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली ध्वस्त पड़ी थी, गुंडागर्दी, माफियागीरी सरे आम चल रही थी, सत्ता पर इन्हीं लोगों का वर्चस्व था, अपराध चरम पर थे और कानून-व्यवस्था ध्वस्त पड़ी थी तथा शासन-प्रशासन पर से जनता का विश्वास पूरी तरह उठ गया था।
ऐसी स्थिति में जब 2007 के विधान सभा चुनाव हुये तो इस सबसे निजात पाने को आम जनता ने बसपा को न केवल पूर्ण बहुमत प्रदान किया अपितु अपेक्षा की कि बसपा सरकार इन सभी समस्याओं पर पूरा ध्यान देगी अपितु स्वच्छ प्रशासन प्रदान कर आम आदमी की सुध लेगी।
लेकिन हुआ उससे ठीक उलट। जो कुछ सपा सरकार के शासन में घटित हो रहा था, वहीं सब कुछ होता चला गया। गत प्रदेश सरकार की भांति और केन्द्र सरकार का अनुकरण करते हुए बसपा सरकार ने आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का अनुशरण करना शुरू कर दिया। इससे उत्तर प्रदेश की जनता खासकर किसानों, मजदूरों, बुनकरों, खेतिहर मजदूरों, दस्तकारों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, युवाओं, छात्रों, कर्मचारियों, महिलाओं, दलितों तथा अल्पसंख्यकों की कठिनाइयां लगातार बढ़ती चली गईं। प्रतिरोध के स्वर गूंजने लगे तथा किस्म-किस्म के जनांदोलन फूट पड़े। जनता की समस्याओं का निराकरण करने के बजाय सरकार जनविरोधी होती गई और जनता के आक्रोश को दबाने में जुट गई। जनवादी हकों को छीना गया और आन्दोलनों पर लाठी-गोली चलाई गई। तमाम लोगों को जेल में भी डाला गया। सरकार जनता से दूर होती गई और उद्यमियों, बिल्डरों, माफियाओं को लाभ पहुंचाने में जुट गई।
कानून-व्यवस्था एवं प्रशासनिक दमनचक्र
प्रदेश की कानून-व्यवस्था बदतर हो चुकी हैं एक दलित और महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद सर्वाधिक दमन इन्हीं दोनों पर बढ़ा है। महिलाओं से बलात्कार और उनसे छेड़छाड़ की घटनायें आये दिन का सबब बन चुकी हैं। उनसे न केवल दुष्कर्म किये गये अपितु दुष्कर्म के बाद हत्यायें कर दी गईं। इन अपराधों की जड़ में शासक दल के नेता, उनके पालतू गुण्डे और सामंती तत्व हैं। यहां तक कि पुलिस पर भी कई जगह बलात्कार के आरोप लगे हैं। लखीमपुर जनपद के निघासन थाने में किशोरी की हत्या कर शव पेड़ पर लटका दिया गया। ऐसे कई मामलों में पुलिस मामलों की दबाने में जुटी रही। भ्रष्टाचार और उसके धन की बंदरबांट को लेकर हत्यायें हो रही हैं। स्वयं राजधानी लखनऊ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम से संबंधित दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की हत्या कर दी गई। इतना ही नहीं इन हत्याओं के आरोप में जेल में बन्द उप मुख्य चिकित्साधिकारी की हत्या कर दी गई। इन घटनाओं ने शासन-प्रशासन में बैठे आर्थिक अपराधियों के दुस्साहस को उजागर कर दिया है। इसके अलावा जगह-जगह दलितों और कमजोरों को न केवल सताया जा रहा है बल्कि उनकी हत्यायें भी हो रही हैं। रमाबाईनगर (कानपुर देहात) भाकपा के सह सचिव दलित प्रधान कामरेड सरजू प्रसाद की हत्या गत सितम्बर माह में कर दी गई। भाकपा राज्य नेतृत्व ने यदि ठोस और त्वरित कदम न उठाये होते तो स्थानीय बसपा विधायक द्वारा संरक्षित अपराधी जेल न पहुंचाये गये होते।
हत्या, लूट, चोरी, दहेज हत्यायें, ऑनर किलिंग आदि सभी अपराध बेधड़क हो रहे हैं। दूसरी तरफ थानों में पीड़ितों की रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती और शासन-प्रशासन आम आदमी की सुनता नहीं। पुलिस हिरासत में कई मौतें इस दरम्यान हुईं। इस सबसे जनता में गुस्सा बढ़ रहा है। थाने, चौकियों पर गुस्साई भीड़ ने कई जगह हमले किये हैं। बौखलाई पुलिस तमाम लोगों को संगीन धाराओं में जेल में ठूंस रही है। लखीमपुर और गाजीपुर में हुई ऐसी वारदातों में दर्जनों लोगों को बन्द कर उन पर गैंगस्टर लगाया गया। गाजीपुर में का. राम बदन सहित विभिन्न दलों के 8 नेताओं को जेल में डाला गया है।
बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर तमाम अपराधी, दबंगों और माफियाओं को चुनवा कर संसद और विधान सभाओं में चुनवा कर पहुंचवाया। वे ही आज इन अपराधों के सूत्रधार हैं। खुलासा होने पर बसपा उन्हें पहले दंडित करने का नाटक करती है तथा बाद में उन पर हुई कार्यवाही वापस ले क्लीन चिट दे देती है। इसलिये सरकार द्वारा कानून-व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिये उठाये जा रहे कदम नाकाम साबित हो रहे हैं और सत्ता की उनकी वह हनक आज नहीं रही जो शुरूआती दिनों में दिखाई देती थी। आम जनता को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है और वह दोहरे दमन को झेल रही है।
पूर्व की और वर्तमान सरकार के एक ही ट्रैक पर चलने का एक साफ संदेश है। केवल सरकार बदलने भर से इस समस्या का हल संभव नहीं है। जनता को उन दलों का साथ देना होगा जो अपराधी तत्वों को प्रश्रय नहीं देते तथा राजसत्ता का दोहन स्वयं के धनोपार्जन के लिये नहीं करते। भाकपा और वामपंथी दल इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, यह तथ्य जनता के सामने रखना होगा।
खेती और किसान
केन्द्र एवं राज्य सरकार की खेती और किसान विरोधी नीतियों के चलते इन पर गंभीर संकट बना हुआ है। बिजली का संकट, खाद-बीज का, कीटनाशकों की किल्लत और उनकी बढ़ती जाती कीमतें, जमीनों का अधिकाधिक अधिग्रहण, कृषि उत्पादों की उचित कीमत न मिल पाना, कृषि का कार्पोरेटाइजेशन, कर्ज में डूबते जा रहे किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्यायें तथा मौसम की मार के कारण उत्तर प्रदेश में कृषि उत्पादन कम हो गया है और वह राष्ट्रीय उत्पादन में अपनी पूर्व वाली भूमिका नहीं निभा पा रहा।
प्रदेश सरकार किसानों की उपजाऊ जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण कर भूमाफिया, बिल्डर्स, उद्योगपति, अफसर और नेताओं को भारी लाभ पहुंचा रही है। सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस सभी के शासन काल से तमाम सरकारी जमीनों को राजनेताओं ने अपने और अपने रिश्तेदारों के नाम करा लिया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे जिले खासकर इस अधिग्रहण की चपेट में आ रहे हैं। वहां यमुना एक्सप्रेस वे, यमुना औद्योगिक विकास प्राधिकरण, रेलवे लाइन के विस्तार, विभिन्न राजमार्गों के निर्माण व विस्तार के नाम पर गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, बुलन्दशहर, महामायानगर, मथुरा एवं आगरा जनपदों की हजारों एकड़ जमीन अधिगृहीत की जा चुकी है तथा इससे कई गुना अधिक रकबे पर अधिग्रहण की तलवार लटकी हुई है। बाजना, भट्टा पारसौल, घोड़ी बछेड़ा आदि ग्रामों में इसके विरोध में आन्दोलन कर रहे किसानों पर गोलियां बरसाई गईं और लगभग एक दर्जन किसान मारे जा चुके हैं। अनेकों को गिरफ्तार कर जेल पहुंचाया गया।
ललितपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, चंदौली आदि में भी किसान आन्दोलन हुये। दादरी आन्दोलन में भाकपा अग्रिम मोर्चे पर थी। वहां किसानों की जमीनें कोर्ट के आदेश से वापस हुई हैं। अन्य सभी जगह भी हमने आन्दोलन में भाग लिया और कई जगह जमीनों को बचाया। अब कई न्यायिक निर्णय भी किसानों के पक्ष में आये हैं। हम मांग कर रहे हैं कि सरकार निजी क्षेत्र के लिये जमीन अधिग्रहण न करे, सार्वजनिक क्षेत्र के लिये जरूरी जमीन का अधिग्रहण पर्यावरण, सुरक्षा तथा पुनर्वास की दृष्टि से किया जाये। हम भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को पूरी तरह बदले जाने की मांग भी कर रहे हैं।
इस बीच किसानों के समक्ष भारी बिजली संकट बना रहा। खाद महंगे कर दिये गये फिर भी उसका अभाव बना रहा। भारी कालाबाजारी हुई। किसान गन्ने की कीमत 350 रू. प्रति कुंतल एवं बोनस मांगते रह गये, सरकार ने 250 रू. कुंतल ही दाम तय किये हैं। यही हाल धान का है। आलू इस बार फिर लागत वापस नहीं करा पाया। तमाम किसानों ने कोल्ड स्टोरेज से आलू इसलिये नहीं उठाया कि वे उसके भंडारण की ऊंची दर का भुगतान करने में असमर्थ थे। बुन्देलखंड के किसान आज भी तबाह हैं। सरकारी पैकेज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है। डीजल की बढ़ी कीमतों से कृषि लागत और भी बढ़ गई है। उत्पादन खरीद औपचारिकता बन गई है। किसानों में बेहद आक्रोश है।
उद्योग जगत एवं निजीकरण
यद्यपि प्रदेश में शासन कर रही बसपा सरकार कांग्रेस, सपा एवं भाजपा के विरोध में खड़ी दिखाई दे रही है लेकिन आर्थिक, कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों में उन्हीं की तरह आर्थिक नवउदारवाद के रास्ते पर चल रही है। सार्वजनिक उपक्रमों और सामाजिक सेवाओं का निजीकरण अबाध गति से जारी है। सरकार ने आगरा की विद्युत वितरण व्यवस्था को निजी हाथों में सौंप टोरंट पावर कंपनी को दे दिया। वहां की जनता ने और स्वयं भाकपा ने इसका कड़ा विरोध किया। आज भी वहां कंपनी और जनता के बीच तकरार चल रही है। सरकार ने कानपुर विद्युत वितरण कंपनी (केस्को) को भी टोरंट को सौंपने का निर्णय लिया जो कर्मचारियों, जनता और भाकपा आदि के विरोध के चलते फिलहाल सरकार को टाल देना पड़ा। प्रदेश में कई नये बिजली घर निजी क्षेत्र में बनवाये जा रहे हैं। पावर कारपोरेशन में निर्माण से वितरण तक निजी क्षेत्र और ठेकेदारी प्रथा हावी है। इसके चलते परीछा और हरदुआगंज परियोजनाओं में निर्माणाधीन चिमनियां गिर गईं।
निजीकरण की दूसरी बड़ी गाज सरकारी और सहकारी चीनी मिलों पर गिरी है। चीनी मिलों की बिक्री की प्रक्रिया शुरू हुई और चालू चीनी मिलें बेच डाली गईं। इनमें से पांच सबसे अच्छी चीनी मिलों को बसपा सुप्रीमो के चहेते पौंटी चढ्ढा को बेच दिया गया। वे हैं - बिजनौर, बुलन्दशहर, अमरोहा, चांदपुर एवं सहारनपुर। इनकी बिक्री निर्धारित न्यूनतम मूल्य से भी कम पर की गई। पांचों मिलें आधे से भी कम मूल्य पर बेच डाली गईं। चांदपुर चीनी मिल के लिये सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी इंडियन पोटाश लि. ने 93 करोड़ रूपये का टेंडर डाला था, लेकिन वह अस्वीकार हो गया। आखिर क्यों? शेष चीनी मिलें जो इंडियन पोटाश लि. ने खरीदी हैं वे घाटे में थीं और उनकी पेराई क्षमता से भी कम थी। फिर भी वे निर्धारित मूल्य से अधिक पर खरीदी गई हैं। ये बड़ा घोटाला है जिसकी सीबीआई जांच की मांग हम करते रहे हैं।
राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाओं का भी निजीकरण चाहती है। गरीब महंगे नर्सिंग होम्स में इलाज नहीं करा सकते, वे राजकीय चिकित्सालयों पर निर्भर हैं। सरकार ने उनको भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालित अस्पतालों को सौंपने की कोशिश की। बस्ती, इलाहाबाद, कानपुर और फिरोजाबाद जनपदों के चार सरकारी जिला स्तरीय अस्पतालों और सैकड़ों प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को निजी अस्पतालों को बेचने का निर्णय ले लिया गया। भाकपा ने इसका पुरजोर विरोध किया और सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े।
शिक्षा, सड़क निर्माण, भवन निर्माण, सफाई आदि सभी कामों को भी निजी क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है। प्रदेश की बन्द कताई-बुनाई मिलों को चलाया नहीं जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम को भी सरकार पीपीपी माडल के तहत बेचना चाहती है। दिग्गज कंपनियों की लक्जरी बसें पहले ही अनुबंध के आधार पर चलाई जा रही हैं।
सरकार की कुनीतियों के चलते मुरादाबाद का पीतल उद्योग, अलीगढ़ का ताला एवं हार्डवेयर उद्योग, भदोही का कालीन, बनारस, मऊ, मुबारकपुर का साड़ी, कानपुर का चमड़ा उद्योग सभी बरबाद हो रहे हैं। यही हाल आगरा के जूता उद्योग का है। सरकारी संरक्षण के अभाव, बिजली बकायों की मार और भारी प्रतिस्पर्धा के कारण हैण्डलूम और पावरलूम उद्वोग बड़े संकट से गुजर रहा है। तमाम बुनकर बेरोजगार बन चुके हैं। बीड़ी उद्योग में भी संकट है।
ऊपर से सरकार ने श्रम कानूनों का ही अपहरण कर लिया। उद्योगों में कार्यरत मजदूर सेवायोजकों की तानाशाह कार्यवाहियों के शिकार हो रहे हैं। असंगठित मजदूर, ठेका प्रथा, कम मजदूरी और अल्प समय रोजगार की यातना से जूझ रहे हैं। मनरेगा मजदूर भी सताये जा रहे हैं। काम के घंटे बढ़ाकर 10-12 घंटे तय कर दिये गये हैं। इससे श्रमिक असंतोष बढ़ रहा है। श्रमिकों के विरोध करने पर सख्त पुलिस कार्यवाहियां की जाती हैं और छंटनी, तालाबंदी, ले आउट कर उन्हें बेरोजगारी की गर्त में धकेल दिया जाता है।
महंगाई के प्रति मुजरिमाना उदासीनता
यद्यपि महंगाई की छलांग के लिये केन्द्र सरकार मुख्य तौर पर जिम्मेदार है लेकिन राज्य सरकार जिसकी प्राथमिकता में आम आदमी है ही नहीं ने भी महंगाई को काबू में रखने हेतु अपने स्तर के प्रयास नहीं किये।
केन्द्र सरकार बार-बार पेट्रोल के दाम बढ़ा देती है। डीजल, रसोई गैस, व केरोसिन के दाम भी बढ़ाये गये हैं। इन तीनों से सरकारी अनुदान हटाने की बार-बार धमकी केन्द्र सरकार देती है। अब खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों के लिये पूरी तरह खोल दिया गया है। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। इन पर केन्द्र और राज्य सरकार के कई टैक्स लगते हैं। उदाहरण के लिये पेट्रोल की मूल कीमत 48 रूपये के लगभग है। इस पर 31 रूपये टैक्स है। इसमें से लगभग आधा राज्य सरकार के हैं। यदि राज्य सरकार उसमें कटौती कर दे तो उपभोक्ताओं को कुछ राहत मिल सकती है। महंगाई पर भी थोड़ा असर पड़ सकता है। पर सरकार इससे साफ मुकरती रही है।
सार्वजनिक प्रणाली को दुरूस्त और विस्तारित करके भी महंगाई को काबू में किसी हद तक लाया जा सकता है। लेकिन राज्य सरकार ने तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पंगु बना कर रख दिया है। उसमें भारी भ्रष्टाचार है। जब सरकार सत्ता में आई थी तो राशन की दुकानें सस्पेन्ड कर दी थीं। लेकिन बाद में पुनः उन्हीं डीलरों के हवाले कर दी गईं। राज्य में जमाखोरी और कालाबाजारी पर कोई अंकुश नहीं। खाद्य पदार्थों के अलावा रासायनिक खादों की भारी काला बाजारी होती है। कृषि उत्पादन बढ़ा कर उसका उचित मूल्य किसानों को दिलाकर और जरूरी चीजों को नियंत्रित दामों पर जनता तक पहुंचा कर महंगाई को कुछ हद तक घटाया जा सकता है।
सार्वत्रिक भ्रष्टाचार
केन्द्र सरकार की ही भांति और अपनी पूर्ववर्ती सपा सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुये मौजूदा सरकार भारी भ्रष्टाचार में लिप्त है। खुद मुख्यमंत्री पर आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने की जांच सीबीआई द्वारा की गई है और मामला विचाराधीन है। सरकार के दर्जन भर मंत्री आय से अधिक सम्पत्तियों, सरकारी/गैर सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे, अवैध खनन तथा विभागीय भ्रष्टाचारों के आरोपों से घिरे हैं। छवि बचाने को कई को सरकार से हटाया गया तो कई को पार्टी से निष्कासित किया गया है। जरूरत के मुताबिक मयावती उन्हें पुनः वापस ले लेती हैं। कई मंत्रियों के खिलाफ लोकायुक्त की जांच चल रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में बड़ा घोटाला हुआ और 3 डाक्टरों की हत्या हो चुकी है। अब सीबीआई जांच जारी है। मनरेगा में भारी भ्रष्टाचार है जिसकी भी सीबीआई जांच जरूरी है। सरकारी उपक्रमों को बेचने, नौकरियों में भर्ती, ट्रान्सफर एवं पोस्टिंग, फायर सर्विस में खरीद, प्राईवेट कंपनियों से बिजली खरीद, हर विभाग में हो रही खरीद-फरोख्त आदि में सरे आम लूट मची है। थानों में रपट लिखाना हो या अन्य सरकारी विभागों में छोटे से छोटा काम हो, बिना रिश्वत के असम्भव है। सांसद, विधायक निधि की धनराशि का बड़ा भाग भी भ्रष्टाचार की राह निकाला जा रहा है। पूंजीवादी दलों के नेताओं, अफसरों और दलालों की दिन दूनी रात चौगुनी होती जाती संपत्तियां इस बात का सीधा प्रमाण हैं कि प्रदेश में भ्रष्टाचार ने कैंसर का रूप धारण कर लिया है। इसके खिलाफ बड़े जनान्दोलन की जरूरत है। दूसरे दल की सरकार बन जाने मात्र से समस्या का समाधान होने वाला नहीं है।
बेरोजगारी और शिक्षा का बाजारीकरण
मौजूदा प्रदेश सरकार का यह अंतिम दौर है। गत साढ़े चार वर्षों में सरकार ने बेरोजगारी को कम करने को कोई प्रयास नहीं किया। उद्योग बन्द हो रहे हैं। खेती का निगमीकरण और मशीनीकरण हो रहा है। संगठित उद्योग में उच्च तकनीकी और मशीनरी इस्तेमाल हो रही है। सरकार नई भतियों पर कम बैकलाग भरने पर ज्यादा जोर दे रही है। हर विभाग में तमाम जगहें खाली हैं। हर साल उत्तर प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या में नये पांच लाख लोग जुड़ जाते हैं। बड़ी तादाद में नौजवान रोजगार के लिये दूसरे प्रदेशों में जाने को मजबूर हैं - खासकर पूर्वांचल और बुन्देलखंड से। इस स्थिति को बदले जाने की जरूरत है।
किसी भी देश की तरक्की का बुनियादी आधार शिक्षा है। वह भी ऐसी जो सभी को समान रूप से सुलभ हो। पर यहां दोहरी शिक्षा प्रणाली को और बढ़ावा दिया जा रहा है। प्राथमिक से डिग्री स्तर तक शिक्षा को निजी लोगों की दुकान बनाया जा रहा है। भारी शुल्क दरों के चलते गरीब छात्र शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। जो पढ़ पा रहे हैं वे कर्ज लेकर, गहने और जमीन बेचकर पढ़ पा रहे हैं। हर नेता तथा बड़े व्यापारी ने स्कूल खोल दिये हैं जो लूट का अड्डा बने हैं। हमें शिक्षा का बजट बढ़ाने और सभी को समान शिक्षा दिलाने के अभियान को तेज करना होगा।
दलितों, खेत मजदूरों व आदिवासियों की स्थिति
प्रदेश में बड़ी संख्या में दलितों, भूमिहीनों, गरीबों और आदिवासियों की संख्या है। इस बीच छोटा किसान कृषि से हाथ धो बैठा है और भूमिहीनों की कतारों में शामिल होता जा रहा है। इनकी संख्या बढ़ कर लगभग 76 प्रतिशत हो गई है। गरीबी की सीमा के नीचे जाने वाले ये लोग भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। इनके उत्थान के लिये चलाई जा रही सरकारी योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार है। इन पर बड़ी संख्या में हमले हो रहे हैं। इन्हें इस दरम्यान फालतू जमीनें न तो आबंटित की गईं और जो पहले आबंटित थीं, उन पर कब्जे नहीं दिलाये गये। भूमाफियाओं, पुराने जमींदारों, पूंजीपतियों, नेताओं और अफसरों ने इनकी तमाम जमीनों पर कब्जा कर रखा है। सरकार की इच्छाशक्ति उन पर कार्यवाही करने की नहीं है। यहां तक सीलिंग कानून को भी ठंडे बस्ते में डाल रखा है। आदिवासी तो अपने ही क्षेत्र में बेगाने बना दिये गये हैं। आदिवासी अधिनियम पारित होने के बावजूद उनके जंगल, जमीन, जल पर माफियाओं का कब्जा है। उनमें से अनेक को नक्सलवादी बताकर प्रताड़ना दी जाती है।
सामाजिक-आर्थिक समता हासिल करने के लिये संघर्ष और वर्ग-संघर्ष की जरूरत है। इसके लिये इन तबकों को संगठित करने तथा उनमें संघर्ष की चेतना जगाने की जरूरत हैं। यह भी बताना होगा कि जाति विशेष के व्यक्ति विशेष को सत्ता मिल जाने भर से उनका कोई लाभ कहां हुआ है। दलितों, आदिवासियों, खेत मजदूरों के सरोकार एक ही हैं, अतएव उनके संघर्षों को प्रगाढ़ रूप देना होगा।
अल्पसंख्यकों के हालात
उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम अल्पसंख्यक हर क्षेत्र में बेहद पिछड़े हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से इनकी स्थिति का पूरी तरह खुलासा हो गया है। इनमें अधिकतर छोटे-छोटे दस्तकार हैं। सर्वाधिक तादाद बुनकरों की है। इसके बाद लोहार, बढ़ई, नाई, अब्बासी जैसे ग्रुप आते हैं। उदारीकरण की नीतियों ने इनको और अधिक बरबाद किया है। बिडंबना यह है कि पूंजीवादी राजनैतिक दल इनकी भावनाओं का दोहन करते हैं - मूल समस्याओं पर ध्यान नहीं देते। भाकपा को इनकी मूल समस्याओं पर अपने आन्दोलन को केन्द्रित करना चाहिये।
उत्तर प्रदेश का विभाजन
उत्तर प्रदेश को बांटकर अलग राज्य बनाने की मांग लगभग 2 दशक से चलती आ रही है। लेकिन कड़वा सच यह है कि इस मांग कांे बहुमत जनता का समर्थन कभी नहीं मिला। किसी भी हिस्से में कोई बड़ा आन्दोलन भी नहीं चला, सिर्फ बुन्देलखण्ड को छोड़कर जहां जब तब छिटपुट धरने/प्रर्दशन/विचार गोष्ठियां होते रहते हैं।
सच पूछा जाये तो राज्य विभाजन जनता का मुद्दा है ही नहीं। यह राजनीतिज्ञों द्वारा पैदा किया हुआ एक शिगूफा है, जिसे वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उछालते रहते हैं। अब ताजा प्रयास बसपा सुप्रीमो मायावती ने किया है। सभी जानते हैं कि वे गत साढ़े चार सालों में हर मोर्चे पर पूरी तरह विफल साबित हुई हैं। मायावती इससे आम लोगों का ध्यान बांटना चाहती हैं। पहले धर्म, फिर जाति और अब क्षेत्रीय आधार पर जनता को विभाजित कर पूंजीवादी ताकतें अपने को सत्ता केन्द्र पर काबिज रखना चाहती हैं। इसके लिए उन्हें राज्य का विभाजन एक अच्छा हथकंडा लगता है।
जहां तक यह तर्क कि क्षेत्रीय विकास के लिए छोटे राज्यों का होना आवश्यक है, एक बेहद भौंडा तर्क है। विकास राज्य सत्ता की इच्छा शक्ति और संसाधनों के सही बंटवारे तथा उसके उपयोग से होता है। छोटे राज्य बना देने मात्र से नहीं। विभाजित राज्यों के अलग-अलग प्रशासनिक ढ़ांचों को खड़ा करने और उन्हें चलाने में भारी धन व्यय होता है, जिससे बुनियादी विकास की धनराशि में कटौती हो जाती है। विकास के लिए आबंटित धन का बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
विभाजित होने के बाद नया राज्य बना क्षेत्र यदि पिछड़ा है तो और भी पिछड़ जाता है। उसका अपना राजस्व पर्याप्त होता नहीं। वह अधिकाधिक केन्द्र की सहायता पर निर्भर रहता है। केन्द्र में एवं राज्य में यदि अलग-अलग दलों की सरकारें हों तो टकराव के चलते छोटे राज्य की उपेक्षा ही होती है।
यह कहना कि अलग राज्य बन जाने से औद्योगीकरण बढ़ जाएगा, कतई सच नहीं। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के चलते सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने की नीतियां चल रही हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र में किसी राज्य में नए उद्योग तो खुलने से रहे। निजी क्षेत्र के उद्यमों को उद्यमी अपनी प्राथमिकता से लगाते हैं। क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक नहीं। उद्योगपतियों को आकर्षित करने को सरकारें किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण करती हैं और उन्हें उद्योगपतियों को सौंप देती हैं। उद्योगपति कुछ दिन उस पर उद्योग चलाते हैं और बाद में जमीन की कीमत बढ़ जाने पर उसे बेच डालते हैं। किसान चंद पैसे पाकर जीवन भर को भूमिहीन हो जाता है।
सबसे बड़ी बात है हाल में बने छोटे राज्यों - उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है। पूंजी ओर पूंजीपतियों, राजनेताओं और दलालों द्वारा संसाधनों की खुली लूट जारी है। आम जनता और शोषित तबकों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत बंटकर कमजोर हो गयी। पूंजीपतियों को छोटे राज्यों की सरकारों को मैनेज करना आसान होता है। दौलत के बल पर वे छोटी विधान सभा के बहुमत को काबू में कर लेते हैं और मनमाने फैसले करा लेते हैं। खनिज, भूमि, वन संपदा और विकास के धन को हड़प कर जाते हैं।
आज उत्तर प्रदेश, जोकि 17 करोड़ की आबादी वाला प्रदेश है, देश की राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे उत्तर प्रदेश का हर नागरिक गौरव महसूस करता है। हिन्दू-मुसलिम साझी संस्कृति के तमाम प्रतीक उत्तर प्रदेश के आगोश में हैं। पश्चिम का वाशिंदा बनारस, सारनाथ, गोरखपुर, प्रयाग जाकर अपने को धन्य समझता है तो पूरब के वाशिंदे ताजमहल, मथुरा, झांसी का दीदार करते हैं। यह संयुक्त उत्तर प्रदेश की रंगत है।
उत्तर प्रदेश का बुन्देलखंड, पूर्वांचल एवं मध्य का भू-भाग पिछड़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल है। उसके द्वारा अदा किए गए राजस्व से इन पिछड़े क्षेत्रों के विकास का पहिया घूमता है। यह प्रदेश के अंदर एक स्वाभाविक समाजवाद है। इसे तोड़कर हम इन अपेक्षाकृत पिछड़े क्षेत्रों को क्यों केन्द्र का मोहताज बनायें? किसी दल या नेता की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के औजार हम क्यों बनें? क्यों हम विभाजन की पीड़ा को अपने ऊपर थोपें? यह सब करने को हम तैयार नहीं हैं - यह उत्तर प्रदेश की जनता का संकल्प है।
अप्रैल-मई 2007 में विधान सभा के चुनाव हुये थे। उस समय प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाली मिली-जुली सरकार थी जो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और प्रतिष्ठानों को बेच रही थी, किसानों की जमीनों का मनमाने तरीके से अधिग्रहण कर उसे अपने फायनेन्सर उद्योगपतियों को सौंप रही थी, भ्रष्टाचार चरम पर था यहां तक कि पुलिस कांस्टेबिलों की भर्ती में भारी पैसा लिया जा रहा था, शिक्षा का बाजारीकरण किया जा रहा था और रिश्वत लेकर नये विद्यालयों को मान्यता दी जा रही थी, मंहगाई चरम पर थी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली ध्वस्त पड़ी थी, गुंडागर्दी, माफियागीरी सरे आम चल रही थी, सत्ता पर इन्हीं लोगों का वर्चस्व था, अपराध चरम पर थे और कानून-व्यवस्था ध्वस्त पड़ी थी तथा शासन-प्रशासन पर से जनता का विश्वास पूरी तरह उठ गया था।
ऐसी स्थिति में जब 2007 के विधान सभा चुनाव हुये तो इस सबसे निजात पाने को आम जनता ने बसपा को न केवल पूर्ण बहुमत प्रदान किया अपितु अपेक्षा की कि बसपा सरकार इन सभी समस्याओं पर पूरा ध्यान देगी अपितु स्वच्छ प्रशासन प्रदान कर आम आदमी की सुध लेगी।
लेकिन हुआ उससे ठीक उलट। जो कुछ सपा सरकार के शासन में घटित हो रहा था, वहीं सब कुछ होता चला गया। गत प्रदेश सरकार की भांति और केन्द्र सरकार का अनुकरण करते हुए बसपा सरकार ने आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का अनुशरण करना शुरू कर दिया। इससे उत्तर प्रदेश की जनता खासकर किसानों, मजदूरों, बुनकरों, खेतिहर मजदूरों, दस्तकारों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, युवाओं, छात्रों, कर्मचारियों, महिलाओं, दलितों तथा अल्पसंख्यकों की कठिनाइयां लगातार बढ़ती चली गईं। प्रतिरोध के स्वर गूंजने लगे तथा किस्म-किस्म के जनांदोलन फूट पड़े। जनता की समस्याओं का निराकरण करने के बजाय सरकार जनविरोधी होती गई और जनता के आक्रोश को दबाने में जुट गई। जनवादी हकों को छीना गया और आन्दोलनों पर लाठी-गोली चलाई गई। तमाम लोगों को जेल में भी डाला गया। सरकार जनता से दूर होती गई और उद्यमियों, बिल्डरों, माफियाओं को लाभ पहुंचाने में जुट गई।
कानून-व्यवस्था एवं प्रशासनिक दमनचक्र
प्रदेश की कानून-व्यवस्था बदतर हो चुकी हैं एक दलित और महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद सर्वाधिक दमन इन्हीं दोनों पर बढ़ा है। महिलाओं से बलात्कार और उनसे छेड़छाड़ की घटनायें आये दिन का सबब बन चुकी हैं। उनसे न केवल दुष्कर्म किये गये अपितु दुष्कर्म के बाद हत्यायें कर दी गईं। इन अपराधों की जड़ में शासक दल के नेता, उनके पालतू गुण्डे और सामंती तत्व हैं। यहां तक कि पुलिस पर भी कई जगह बलात्कार के आरोप लगे हैं। लखीमपुर जनपद के निघासन थाने में किशोरी की हत्या कर शव पेड़ पर लटका दिया गया। ऐसे कई मामलों में पुलिस मामलों की दबाने में जुटी रही। भ्रष्टाचार और उसके धन की बंदरबांट को लेकर हत्यायें हो रही हैं। स्वयं राजधानी लखनऊ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम से संबंधित दो मुख्य चिकित्साधिकारियों की हत्या कर दी गई। इतना ही नहीं इन हत्याओं के आरोप में जेल में बन्द उप मुख्य चिकित्साधिकारी की हत्या कर दी गई। इन घटनाओं ने शासन-प्रशासन में बैठे आर्थिक अपराधियों के दुस्साहस को उजागर कर दिया है। इसके अलावा जगह-जगह दलितों और कमजोरों को न केवल सताया जा रहा है बल्कि उनकी हत्यायें भी हो रही हैं। रमाबाईनगर (कानपुर देहात) भाकपा के सह सचिव दलित प्रधान कामरेड सरजू प्रसाद की हत्या गत सितम्बर माह में कर दी गई। भाकपा राज्य नेतृत्व ने यदि ठोस और त्वरित कदम न उठाये होते तो स्थानीय बसपा विधायक द्वारा संरक्षित अपराधी जेल न पहुंचाये गये होते।
हत्या, लूट, चोरी, दहेज हत्यायें, ऑनर किलिंग आदि सभी अपराध बेधड़क हो रहे हैं। दूसरी तरफ थानों में पीड़ितों की रिपोर्ट तक नहीं लिखी जाती और शासन-प्रशासन आम आदमी की सुनता नहीं। पुलिस हिरासत में कई मौतें इस दरम्यान हुईं। इस सबसे जनता में गुस्सा बढ़ रहा है। थाने, चौकियों पर गुस्साई भीड़ ने कई जगह हमले किये हैं। बौखलाई पुलिस तमाम लोगों को संगीन धाराओं में जेल में ठूंस रही है। लखीमपुर और गाजीपुर में हुई ऐसी वारदातों में दर्जनों लोगों को बन्द कर उन पर गैंगस्टर लगाया गया। गाजीपुर में का. राम बदन सहित विभिन्न दलों के 8 नेताओं को जेल में डाला गया है।
बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर तमाम अपराधी, दबंगों और माफियाओं को चुनवा कर संसद और विधान सभाओं में चुनवा कर पहुंचवाया। वे ही आज इन अपराधों के सूत्रधार हैं। खुलासा होने पर बसपा उन्हें पहले दंडित करने का नाटक करती है तथा बाद में उन पर हुई कार्यवाही वापस ले क्लीन चिट दे देती है। इसलिये सरकार द्वारा कानून-व्यवस्था को दुरूस्त करने के लिये उठाये जा रहे कदम नाकाम साबित हो रहे हैं और सत्ता की उनकी वह हनक आज नहीं रही जो शुरूआती दिनों में दिखाई देती थी। आम जनता को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है और वह दोहरे दमन को झेल रही है।
पूर्व की और वर्तमान सरकार के एक ही ट्रैक पर चलने का एक साफ संदेश है। केवल सरकार बदलने भर से इस समस्या का हल संभव नहीं है। जनता को उन दलों का साथ देना होगा जो अपराधी तत्वों को प्रश्रय नहीं देते तथा राजसत्ता का दोहन स्वयं के धनोपार्जन के लिये नहीं करते। भाकपा और वामपंथी दल इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, यह तथ्य जनता के सामने रखना होगा।
खेती और किसान
केन्द्र एवं राज्य सरकार की खेती और किसान विरोधी नीतियों के चलते इन पर गंभीर संकट बना हुआ है। बिजली का संकट, खाद-बीज का, कीटनाशकों की किल्लत और उनकी बढ़ती जाती कीमतें, जमीनों का अधिकाधिक अधिग्रहण, कृषि उत्पादों की उचित कीमत न मिल पाना, कृषि का कार्पोरेटाइजेशन, कर्ज में डूबते जा रहे किसानों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्यायें तथा मौसम की मार के कारण उत्तर प्रदेश में कृषि उत्पादन कम हो गया है और वह राष्ट्रीय उत्पादन में अपनी पूर्व वाली भूमिका नहीं निभा पा रहा।
प्रदेश सरकार किसानों की उपजाऊ जमीनों का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण कर भूमाफिया, बिल्डर्स, उद्योगपति, अफसर और नेताओं को भारी लाभ पहुंचा रही है। सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस सभी के शासन काल से तमाम सरकारी जमीनों को राजनेताओं ने अपने और अपने रिश्तेदारों के नाम करा लिया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे जिले खासकर इस अधिग्रहण की चपेट में आ रहे हैं। वहां यमुना एक्सप्रेस वे, यमुना औद्योगिक विकास प्राधिकरण, रेलवे लाइन के विस्तार, विभिन्न राजमार्गों के निर्माण व विस्तार के नाम पर गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, बुलन्दशहर, महामायानगर, मथुरा एवं आगरा जनपदों की हजारों एकड़ जमीन अधिगृहीत की जा चुकी है तथा इससे कई गुना अधिक रकबे पर अधिग्रहण की तलवार लटकी हुई है। बाजना, भट्टा पारसौल, घोड़ी बछेड़ा आदि ग्रामों में इसके विरोध में आन्दोलन कर रहे किसानों पर गोलियां बरसाई गईं और लगभग एक दर्जन किसान मारे जा चुके हैं। अनेकों को गिरफ्तार कर जेल पहुंचाया गया।
ललितपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, चंदौली आदि में भी किसान आन्दोलन हुये। दादरी आन्दोलन में भाकपा अग्रिम मोर्चे पर थी। वहां किसानों की जमीनें कोर्ट के आदेश से वापस हुई हैं। अन्य सभी जगह भी हमने आन्दोलन में भाग लिया और कई जगह जमीनों को बचाया। अब कई न्यायिक निर्णय भी किसानों के पक्ष में आये हैं। हम मांग कर रहे हैं कि सरकार निजी क्षेत्र के लिये जमीन अधिग्रहण न करे, सार्वजनिक क्षेत्र के लिये जरूरी जमीन का अधिग्रहण पर्यावरण, सुरक्षा तथा पुनर्वास की दृष्टि से किया जाये। हम भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को पूरी तरह बदले जाने की मांग भी कर रहे हैं।
इस बीच किसानों के समक्ष भारी बिजली संकट बना रहा। खाद महंगे कर दिये गये फिर भी उसका अभाव बना रहा। भारी कालाबाजारी हुई। किसान गन्ने की कीमत 350 रू. प्रति कुंतल एवं बोनस मांगते रह गये, सरकार ने 250 रू. कुंतल ही दाम तय किये हैं। यही हाल धान का है। आलू इस बार फिर लागत वापस नहीं करा पाया। तमाम किसानों ने कोल्ड स्टोरेज से आलू इसलिये नहीं उठाया कि वे उसके भंडारण की ऊंची दर का भुगतान करने में असमर्थ थे। बुन्देलखंड के किसान आज भी तबाह हैं। सरकारी पैकेज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका है। डीजल की बढ़ी कीमतों से कृषि लागत और भी बढ़ गई है। उत्पादन खरीद औपचारिकता बन गई है। किसानों में बेहद आक्रोश है।
उद्योग जगत एवं निजीकरण
यद्यपि प्रदेश में शासन कर रही बसपा सरकार कांग्रेस, सपा एवं भाजपा के विरोध में खड़ी दिखाई दे रही है लेकिन आर्थिक, कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों में उन्हीं की तरह आर्थिक नवउदारवाद के रास्ते पर चल रही है। सार्वजनिक उपक्रमों और सामाजिक सेवाओं का निजीकरण अबाध गति से जारी है। सरकार ने आगरा की विद्युत वितरण व्यवस्था को निजी हाथों में सौंप टोरंट पावर कंपनी को दे दिया। वहां की जनता ने और स्वयं भाकपा ने इसका कड़ा विरोध किया। आज भी वहां कंपनी और जनता के बीच तकरार चल रही है। सरकार ने कानपुर विद्युत वितरण कंपनी (केस्को) को भी टोरंट को सौंपने का निर्णय लिया जो कर्मचारियों, जनता और भाकपा आदि के विरोध के चलते फिलहाल सरकार को टाल देना पड़ा। प्रदेश में कई नये बिजली घर निजी क्षेत्र में बनवाये जा रहे हैं। पावर कारपोरेशन में निर्माण से वितरण तक निजी क्षेत्र और ठेकेदारी प्रथा हावी है। इसके चलते परीछा और हरदुआगंज परियोजनाओं में निर्माणाधीन चिमनियां गिर गईं।
निजीकरण की दूसरी बड़ी गाज सरकारी और सहकारी चीनी मिलों पर गिरी है। चीनी मिलों की बिक्री की प्रक्रिया शुरू हुई और चालू चीनी मिलें बेच डाली गईं। इनमें से पांच सबसे अच्छी चीनी मिलों को बसपा सुप्रीमो के चहेते पौंटी चढ्ढा को बेच दिया गया। वे हैं - बिजनौर, बुलन्दशहर, अमरोहा, चांदपुर एवं सहारनपुर। इनकी बिक्री निर्धारित न्यूनतम मूल्य से भी कम पर की गई। पांचों मिलें आधे से भी कम मूल्य पर बेच डाली गईं। चांदपुर चीनी मिल के लिये सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी इंडियन पोटाश लि. ने 93 करोड़ रूपये का टेंडर डाला था, लेकिन वह अस्वीकार हो गया। आखिर क्यों? शेष चीनी मिलें जो इंडियन पोटाश लि. ने खरीदी हैं वे घाटे में थीं और उनकी पेराई क्षमता से भी कम थी। फिर भी वे निर्धारित मूल्य से अधिक पर खरीदी गई हैं। ये बड़ा घोटाला है जिसकी सीबीआई जांच की मांग हम करते रहे हैं।
राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाओं का भी निजीकरण चाहती है। गरीब महंगे नर्सिंग होम्स में इलाज नहीं करा सकते, वे राजकीय चिकित्सालयों पर निर्भर हैं। सरकार ने उनको भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालित अस्पतालों को सौंपने की कोशिश की। बस्ती, इलाहाबाद, कानपुर और फिरोजाबाद जनपदों के चार सरकारी जिला स्तरीय अस्पतालों और सैकड़ों प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को निजी अस्पतालों को बेचने का निर्णय ले लिया गया। भाकपा ने इसका पुरजोर विरोध किया और सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े।
शिक्षा, सड़क निर्माण, भवन निर्माण, सफाई आदि सभी कामों को भी निजी क्षेत्र के हवाले किया जा रहा है। प्रदेश की बन्द कताई-बुनाई मिलों को चलाया नहीं जा रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम को भी सरकार पीपीपी माडल के तहत बेचना चाहती है। दिग्गज कंपनियों की लक्जरी बसें पहले ही अनुबंध के आधार पर चलाई जा रही हैं।
सरकार की कुनीतियों के चलते मुरादाबाद का पीतल उद्योग, अलीगढ़ का ताला एवं हार्डवेयर उद्योग, भदोही का कालीन, बनारस, मऊ, मुबारकपुर का साड़ी, कानपुर का चमड़ा उद्योग सभी बरबाद हो रहे हैं। यही हाल आगरा के जूता उद्योग का है। सरकारी संरक्षण के अभाव, बिजली बकायों की मार और भारी प्रतिस्पर्धा के कारण हैण्डलूम और पावरलूम उद्वोग बड़े संकट से गुजर रहा है। तमाम बुनकर बेरोजगार बन चुके हैं। बीड़ी उद्योग में भी संकट है।
ऊपर से सरकार ने श्रम कानूनों का ही अपहरण कर लिया। उद्योगों में कार्यरत मजदूर सेवायोजकों की तानाशाह कार्यवाहियों के शिकार हो रहे हैं। असंगठित मजदूर, ठेका प्रथा, कम मजदूरी और अल्प समय रोजगार की यातना से जूझ रहे हैं। मनरेगा मजदूर भी सताये जा रहे हैं। काम के घंटे बढ़ाकर 10-12 घंटे तय कर दिये गये हैं। इससे श्रमिक असंतोष बढ़ रहा है। श्रमिकों के विरोध करने पर सख्त पुलिस कार्यवाहियां की जाती हैं और छंटनी, तालाबंदी, ले आउट कर उन्हें बेरोजगारी की गर्त में धकेल दिया जाता है।
महंगाई के प्रति मुजरिमाना उदासीनता
यद्यपि महंगाई की छलांग के लिये केन्द्र सरकार मुख्य तौर पर जिम्मेदार है लेकिन राज्य सरकार जिसकी प्राथमिकता में आम आदमी है ही नहीं ने भी महंगाई को काबू में रखने हेतु अपने स्तर के प्रयास नहीं किये।
केन्द्र सरकार बार-बार पेट्रोल के दाम बढ़ा देती है। डीजल, रसोई गैस, व केरोसिन के दाम भी बढ़ाये गये हैं। इन तीनों से सरकारी अनुदान हटाने की बार-बार धमकी केन्द्र सरकार देती है। अब खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों के लिये पूरी तरह खोल दिया गया है। पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं। इन पर केन्द्र और राज्य सरकार के कई टैक्स लगते हैं। उदाहरण के लिये पेट्रोल की मूल कीमत 48 रूपये के लगभग है। इस पर 31 रूपये टैक्स है। इसमें से लगभग आधा राज्य सरकार के हैं। यदि राज्य सरकार उसमें कटौती कर दे तो उपभोक्ताओं को कुछ राहत मिल सकती है। महंगाई पर भी थोड़ा असर पड़ सकता है। पर सरकार इससे साफ मुकरती रही है।
सार्वजनिक प्रणाली को दुरूस्त और विस्तारित करके भी महंगाई को काबू में किसी हद तक लाया जा सकता है। लेकिन राज्य सरकार ने तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पंगु बना कर रख दिया है। उसमें भारी भ्रष्टाचार है। जब सरकार सत्ता में आई थी तो राशन की दुकानें सस्पेन्ड कर दी थीं। लेकिन बाद में पुनः उन्हीं डीलरों के हवाले कर दी गईं। राज्य में जमाखोरी और कालाबाजारी पर कोई अंकुश नहीं। खाद्य पदार्थों के अलावा रासायनिक खादों की भारी काला बाजारी होती है। कृषि उत्पादन बढ़ा कर उसका उचित मूल्य किसानों को दिलाकर और जरूरी चीजों को नियंत्रित दामों पर जनता तक पहुंचा कर महंगाई को कुछ हद तक घटाया जा सकता है।
सार्वत्रिक भ्रष्टाचार
केन्द्र सरकार की ही भांति और अपनी पूर्ववर्ती सपा सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुये मौजूदा सरकार भारी भ्रष्टाचार में लिप्त है। खुद मुख्यमंत्री पर आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने की जांच सीबीआई द्वारा की गई है और मामला विचाराधीन है। सरकार के दर्जन भर मंत्री आय से अधिक सम्पत्तियों, सरकारी/गैर सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे, अवैध खनन तथा विभागीय भ्रष्टाचारों के आरोपों से घिरे हैं। छवि बचाने को कई को सरकार से हटाया गया तो कई को पार्टी से निष्कासित किया गया है। जरूरत के मुताबिक मयावती उन्हें पुनः वापस ले लेती हैं। कई मंत्रियों के खिलाफ लोकायुक्त की जांच चल रही है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में बड़ा घोटाला हुआ और 3 डाक्टरों की हत्या हो चुकी है। अब सीबीआई जांच जारी है। मनरेगा में भारी भ्रष्टाचार है जिसकी भी सीबीआई जांच जरूरी है। सरकारी उपक्रमों को बेचने, नौकरियों में भर्ती, ट्रान्सफर एवं पोस्टिंग, फायर सर्विस में खरीद, प्राईवेट कंपनियों से बिजली खरीद, हर विभाग में हो रही खरीद-फरोख्त आदि में सरे आम लूट मची है। थानों में रपट लिखाना हो या अन्य सरकारी विभागों में छोटे से छोटा काम हो, बिना रिश्वत के असम्भव है। सांसद, विधायक निधि की धनराशि का बड़ा भाग भी भ्रष्टाचार की राह निकाला जा रहा है। पूंजीवादी दलों के नेताओं, अफसरों और दलालों की दिन दूनी रात चौगुनी होती जाती संपत्तियां इस बात का सीधा प्रमाण हैं कि प्रदेश में भ्रष्टाचार ने कैंसर का रूप धारण कर लिया है। इसके खिलाफ बड़े जनान्दोलन की जरूरत है। दूसरे दल की सरकार बन जाने मात्र से समस्या का समाधान होने वाला नहीं है।
बेरोजगारी और शिक्षा का बाजारीकरण
मौजूदा प्रदेश सरकार का यह अंतिम दौर है। गत साढ़े चार वर्षों में सरकार ने बेरोजगारी को कम करने को कोई प्रयास नहीं किया। उद्योग बन्द हो रहे हैं। खेती का निगमीकरण और मशीनीकरण हो रहा है। संगठित उद्योग में उच्च तकनीकी और मशीनरी इस्तेमाल हो रही है। सरकार नई भतियों पर कम बैकलाग भरने पर ज्यादा जोर दे रही है। हर विभाग में तमाम जगहें खाली हैं। हर साल उत्तर प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या में नये पांच लाख लोग जुड़ जाते हैं। बड़ी तादाद में नौजवान रोजगार के लिये दूसरे प्रदेशों में जाने को मजबूर हैं - खासकर पूर्वांचल और बुन्देलखंड से। इस स्थिति को बदले जाने की जरूरत है।
किसी भी देश की तरक्की का बुनियादी आधार शिक्षा है। वह भी ऐसी जो सभी को समान रूप से सुलभ हो। पर यहां दोहरी शिक्षा प्रणाली को और बढ़ावा दिया जा रहा है। प्राथमिक से डिग्री स्तर तक शिक्षा को निजी लोगों की दुकान बनाया जा रहा है। भारी शुल्क दरों के चलते गरीब छात्र शिक्षा से वंचित हो रहे हैं। जो पढ़ पा रहे हैं वे कर्ज लेकर, गहने और जमीन बेचकर पढ़ पा रहे हैं। हर नेता तथा बड़े व्यापारी ने स्कूल खोल दिये हैं जो लूट का अड्डा बने हैं। हमें शिक्षा का बजट बढ़ाने और सभी को समान शिक्षा दिलाने के अभियान को तेज करना होगा।
दलितों, खेत मजदूरों व आदिवासियों की स्थिति
प्रदेश में बड़ी संख्या में दलितों, भूमिहीनों, गरीबों और आदिवासियों की संख्या है। इस बीच छोटा किसान कृषि से हाथ धो बैठा है और भूमिहीनों की कतारों में शामिल होता जा रहा है। इनकी संख्या बढ़ कर लगभग 76 प्रतिशत हो गई है। गरीबी की सीमा के नीचे जाने वाले ये लोग भुखमरी के शिकार हो रहे हैं। इनके उत्थान के लिये चलाई जा रही सरकारी योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार है। इन पर बड़ी संख्या में हमले हो रहे हैं। इन्हें इस दरम्यान फालतू जमीनें न तो आबंटित की गईं और जो पहले आबंटित थीं, उन पर कब्जे नहीं दिलाये गये। भूमाफियाओं, पुराने जमींदारों, पूंजीपतियों, नेताओं और अफसरों ने इनकी तमाम जमीनों पर कब्जा कर रखा है। सरकार की इच्छाशक्ति उन पर कार्यवाही करने की नहीं है। यहां तक सीलिंग कानून को भी ठंडे बस्ते में डाल रखा है। आदिवासी तो अपने ही क्षेत्र में बेगाने बना दिये गये हैं। आदिवासी अधिनियम पारित होने के बावजूद उनके जंगल, जमीन, जल पर माफियाओं का कब्जा है। उनमें से अनेक को नक्सलवादी बताकर प्रताड़ना दी जाती है।
सामाजिक-आर्थिक समता हासिल करने के लिये संघर्ष और वर्ग-संघर्ष की जरूरत है। इसके लिये इन तबकों को संगठित करने तथा उनमें संघर्ष की चेतना जगाने की जरूरत हैं। यह भी बताना होगा कि जाति विशेष के व्यक्ति विशेष को सत्ता मिल जाने भर से उनका कोई लाभ कहां हुआ है। दलितों, आदिवासियों, खेत मजदूरों के सरोकार एक ही हैं, अतएव उनके संघर्षों को प्रगाढ़ रूप देना होगा।
अल्पसंख्यकों के हालात
उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम अल्पसंख्यक हर क्षेत्र में बेहद पिछड़े हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से इनकी स्थिति का पूरी तरह खुलासा हो गया है। इनमें अधिकतर छोटे-छोटे दस्तकार हैं। सर्वाधिक तादाद बुनकरों की है। इसके बाद लोहार, बढ़ई, नाई, अब्बासी जैसे ग्रुप आते हैं। उदारीकरण की नीतियों ने इनको और अधिक बरबाद किया है। बिडंबना यह है कि पूंजीवादी राजनैतिक दल इनकी भावनाओं का दोहन करते हैं - मूल समस्याओं पर ध्यान नहीं देते। भाकपा को इनकी मूल समस्याओं पर अपने आन्दोलन को केन्द्रित करना चाहिये।
उत्तर प्रदेश का विभाजन
उत्तर प्रदेश को बांटकर अलग राज्य बनाने की मांग लगभग 2 दशक से चलती आ रही है। लेकिन कड़वा सच यह है कि इस मांग कांे बहुमत जनता का समर्थन कभी नहीं मिला। किसी भी हिस्से में कोई बड़ा आन्दोलन भी नहीं चला, सिर्फ बुन्देलखण्ड को छोड़कर जहां जब तब छिटपुट धरने/प्रर्दशन/विचार गोष्ठियां होते रहते हैं।
सच पूछा जाये तो राज्य विभाजन जनता का मुद्दा है ही नहीं। यह राजनीतिज्ञों द्वारा पैदा किया हुआ एक शिगूफा है, जिसे वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उछालते रहते हैं। अब ताजा प्रयास बसपा सुप्रीमो मायावती ने किया है। सभी जानते हैं कि वे गत साढ़े चार सालों में हर मोर्चे पर पूरी तरह विफल साबित हुई हैं। मायावती इससे आम लोगों का ध्यान बांटना चाहती हैं। पहले धर्म, फिर जाति और अब क्षेत्रीय आधार पर जनता को विभाजित कर पूंजीवादी ताकतें अपने को सत्ता केन्द्र पर काबिज रखना चाहती हैं। इसके लिए उन्हें राज्य का विभाजन एक अच्छा हथकंडा लगता है।
जहां तक यह तर्क कि क्षेत्रीय विकास के लिए छोटे राज्यों का होना आवश्यक है, एक बेहद भौंडा तर्क है। विकास राज्य सत्ता की इच्छा शक्ति और संसाधनों के सही बंटवारे तथा उसके उपयोग से होता है। छोटे राज्य बना देने मात्र से नहीं। विभाजित राज्यों के अलग-अलग प्रशासनिक ढ़ांचों को खड़ा करने और उन्हें चलाने में भारी धन व्यय होता है, जिससे बुनियादी विकास की धनराशि में कटौती हो जाती है। विकास के लिए आबंटित धन का बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
विभाजित होने के बाद नया राज्य बना क्षेत्र यदि पिछड़ा है तो और भी पिछड़ जाता है। उसका अपना राजस्व पर्याप्त होता नहीं। वह अधिकाधिक केन्द्र की सहायता पर निर्भर रहता है। केन्द्र में एवं राज्य में यदि अलग-अलग दलों की सरकारें हों तो टकराव के चलते छोटे राज्य की उपेक्षा ही होती है।
यह कहना कि अलग राज्य बन जाने से औद्योगीकरण बढ़ जाएगा, कतई सच नहीं। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के चलते सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने की नीतियां चल रही हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र में किसी राज्य में नए उद्योग तो खुलने से रहे। निजी क्षेत्र के उद्यमों को उद्यमी अपनी प्राथमिकता से लगाते हैं। क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक नहीं। उद्योगपतियों को आकर्षित करने को सरकारें किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण करती हैं और उन्हें उद्योगपतियों को सौंप देती हैं। उद्योगपति कुछ दिन उस पर उद्योग चलाते हैं और बाद में जमीन की कीमत बढ़ जाने पर उसे बेच डालते हैं। किसान चंद पैसे पाकर जीवन भर को भूमिहीन हो जाता है।
सबसे बड़ी बात है हाल में बने छोटे राज्यों - उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है। पूंजी ओर पूंजीपतियों, राजनेताओं और दलालों द्वारा संसाधनों की खुली लूट जारी है। आम जनता और शोषित तबकों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत बंटकर कमजोर हो गयी। पूंजीपतियों को छोटे राज्यों की सरकारों को मैनेज करना आसान होता है। दौलत के बल पर वे छोटी विधान सभा के बहुमत को काबू में कर लेते हैं और मनमाने फैसले करा लेते हैं। खनिज, भूमि, वन संपदा और विकास के धन को हड़प कर जाते हैं।
आज उत्तर प्रदेश, जोकि 17 करोड़ की आबादी वाला प्रदेश है, देश की राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे उत्तर प्रदेश का हर नागरिक गौरव महसूस करता है। हिन्दू-मुसलिम साझी संस्कृति के तमाम प्रतीक उत्तर प्रदेश के आगोश में हैं। पश्चिम का वाशिंदा बनारस, सारनाथ, गोरखपुर, प्रयाग जाकर अपने को धन्य समझता है तो पूरब के वाशिंदे ताजमहल, मथुरा, झांसी का दीदार करते हैं। यह संयुक्त उत्तर प्रदेश की रंगत है।
उत्तर प्रदेश का बुन्देलखंड, पूर्वांचल एवं मध्य का भू-भाग पिछड़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल है। उसके द्वारा अदा किए गए राजस्व से इन पिछड़े क्षेत्रों के विकास का पहिया घूमता है। यह प्रदेश के अंदर एक स्वाभाविक समाजवाद है। इसे तोड़कर हम इन अपेक्षाकृत पिछड़े क्षेत्रों को क्यों केन्द्र का मोहताज बनायें? किसी दल या नेता की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के औजार हम क्यों बनें? क्यों हम विभाजन की पीड़ा को अपने ऊपर थोपें? यह सब करने को हम तैयार नहीं हैं - यह उत्तर प्रदेश की जनता का संकल्प है।
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल
प्रदेश में लगभग 25 सालों में सामाजिक,
आर्थिक एवं राजनैतिक उथल-पुथल काफी तेज रही है। इसके चलते राष्ट्रीय
राजनैतिक दल हाशिये पर चले गये हैं। नये क्षेत्रीय दल जो जाति की राजनीति
कर रहे हैं, ने यहां अच्छा वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
कांग्रेस
देश में अभिकतर शासन इसी पार्टी कारहा है। उत्तर प्रदेश में भी आजादी के बाद काफी अर्से तक इसने राज किया। आजादी के आन्दोलन की विरासत जैसे-जैसे चुकती गई और कांग्रेस का अवसरवाद ज्यों-ज्यों बेनकाब होता गया, यह पार्टी कमजोर होती चली गई और इसका दलित, अल्पसंख्यक एवं सवर्ण जनाधार इससे खिसकता चला गया। आज प्रदेश में यह चौथे स्थान पर है। गत विधान सभा चुनाव में यह यथास्थिति ही हासिल कर पाई थी लेकिन लोकसभा चुनाव में इसने उल्लेखनीय 20 सीटें हासिल कर लीं और केन्द्र में सरकार बनाने में प्रदेश की भूमिका रही। आज वह फिर अपने जनाधार की पुनर्वापसी के लिए छटपटा रही है। पर इसके लिये वह कोई ठोस नीतिगत बदलाव करने के बजाय सोनिया-राहुल के करिश्मे पर ही निर्भर है। राहुल गांधी नित नये नाटक प्रदेश में करते रहते हैं।
लेकिन आर्थिक नव उदारीकरण की नीतियों पर अमल करने के कारण महंगाई एवं भ्रष्टाचार ने जड़ें तो जमाई ही हैं, कृषि, उद्योग, रोजगार, शिक्षा का संकट गहराया है। इससे इस पार्टी का पहिया उत्तर प्रदेश में गहरे दलदल में फंस गया है। आगामी विधान सभा चुनाव में वह फिर सिमट जायेगी और पिछली विधान सभा की स्थिति भी ले दे के ही अख्तियार कर पायेगी - भले ही उसने रालोद से गठबंधन की कवायद जारी रखी हो।
भाजपा
प्रदेश में भाजपा आज भी तीसरे पायदान पर खड़ी है। राम जन्मभूमि का मुद्दा अब काम नहीं आ रहा, धारा 376 तथा कामन सिविल कोड़ के उसके मुद्दे भी अब वो दोहरा नहीं पा रही। वह यदा-कदा साम्प्रदायिक हथकंडे अपनाती है और आतंकी घटनाओं पर राजनैतिक रोटियां सेकने का प्रयास करती है लेकिन रोजी-रोटी के लिये संघर्ष कर रही जनता पर उसका कोई असर नहीं हो पा रहा। वह आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों की खुली पोषक है, अतएव महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगी शिक्षा जैसे सवालों पर औपचारिक आवाज उठाकर चुप हो जाती है। भ्रष्टाचार में इसके नेताओं के लिप्त होने के कारण उसके नेता की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम मखौल बन कर रह गई। यू.पी. विधान सभा चुनावों में वोटों को बरगलाने के लिये इसके तमाम क्षत्रपों द्वारा की गई कथित ‘जन स्वाभिमान यात्रा’ भूखी-नंगी जनता के दिल में स्वाभिमान जगाने में असमर्थ रही और इसकी सभाओं से भीड़ नदारद रही। उत्तर प्रदेश में सत्ता पाने को आतुर यह पार्टी बुरी तरह छटपटा रही है। इसने उभा भारती जो बाबरी मस्जिद गिराने की मुख्य गुनहगार हैं, को लोध वोट हथियाने को आयात किया है। पूरी तरह साम्प्रदायिकता में रंगी यह पार्टी जातिवाद और क्षेत्रीयता को भी अपना औजार बनाती है। राज्य विभाजन के मुद्दे को भी भुनाने में उसे गुरेज नहीं। अतएव आगामी विधान सभा चुनावों में वह अपनी पिछली हैसियत को भी हासिल कर पायेगी, इसमें सन्देह है।
बहुजन समाज पार्टी
शोषित-पीड़ितों को न्याय दिलाने के नाम 1984 में इस पार्टी का गठन किया गया लेकिन आज यह अपने घोषित मुद्दों से पूरी तरह दूर जा चुकी हैं। गत विधान सभा चुनावों में इसने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था लेकिन बुनियादी नीतियों से हट जाने के कारण इसे लोकसभा चुनावों में उतनी सफलता नहीं मिली। दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के इसके नारे के चलते दलित वोट कांग्रेस एवं भाकपा से अलग हो बसपा के साथ हो लिया। लेकिन अब कथित सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर सामान्य जातियों के माफिया, बाहुबली और सामंतों को सत्ता में भागीदारी देकर इसने बहुमत भले ही हासिल कर लिया हो लेकिन आज इसके दलित वोट बैंक में हताशा है। वह कुछ न कुछ तादाद में बसपा से खिसक रहा है। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों पर यह खुलकर चल रही है। महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी की समस्याओं के निदान में पूरी तरह असमर्थ रही है। कानून-व्यवस्था के सवाल पर इसे सत्ता मिली थी जिसे यह संभाल नहीं पाई। शोषित तबके के आदर्श महापुरूषों के प्रतीक स्थल बनवाने का काम अच्छा है लेकिन इसके नाम पर करोड़ों-करोड़ रूपये के जनता के धन को जुटाना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। जनता में इसके प्रति आक्रोश है। अतएव भावी विधान सभा में इसकी सदस्य संख्या घटेगी जरूर।
समाजवादी पार्टी
पिछले साढ़े चार सालों से सपा सत्ता से बाहर है। अब वह सत्ता हासिल करने के लिए छटपटा रही है। इसके युवराज क्रान्ति रथ लेकर पिता की तर्ज पर यात्रा में निकल पड़े हैं। प्रदेश की दूसरे नम्बर की पार्टी होने के नाते कुछ भीड़ भी जुट रही है लेकिन मुद्दाविहीन उनका यह अभियान बहुत असर जनता पर नहीं डाल पा रहा। दूसरे - भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से घिरी सपा महंगाई के सवाल पर भी लड़ नहीं पा रही। उलटे इसने परमाणु करार हो या महंगाई केन्द्र सरकार का साथ दिया। इससे जनता की निगाहों में वह उठ नहीं पा रही। विपक्ष की भूमिका निभा नहीं पा रही। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों की यह पूरी तरह पोषक है। साम्प्रदायिकता के पृष्ठभूमि में चले जाने के कारण इसकी मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ कमजोर हुई है। केवल एक जाति के वोट पर ही इसे ज्यादा भरोसा है। सत्ता के विरोध का लाभ यह अपनी कमजोर नीति और रणनीति के कारण उठा नहीं पा रही। अतएव प्रदेश की राजनीति में यह वहीं के वहीं कदमताल कर रही है और आगामी विधान सभा चुनावों में किसी उल्लेखनीय सफलता के प्रति वह खुद आश्वस्त नहीं है।
राष्ट्रीय लोकदल
यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केन्द्रित एक जाति के आधार वाला क्षेत्रीय दल है। यह किसान हित की बात करता है पर उनके हित में कोई ठोस कार्यक्रम उसके पास नहीं है। पिता की विरासत और हरित प्रदेश के नाम पर राजनीति चलाई जा रही है। सत्ता सुख भोगने को किसी सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल होना इसका स्वाभाविक गुणधर्म है। पुनः वे कांग्रेस गठबंधन का भाग बनने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में गठबंधन राजनीति से वे हमेशा लाभ में रहे हैं। इस बार भी उनकी नजर अपने लाभ पर टिकी है।
कांग्रेस हो या भाजपा, बसपा हो या सपा आज उत्तर प्रदेश में ठहराव की स्थिति में हैं अथवा पीछे जाने की। यही वजह है कि इन चारों के तमाम नेता दल-बदल रहे हैं और दूसरे-दूसरे दलों में शामिल हो रहे हैं।
वामपंथी
साम्प्रदायिक एवं जातिगत राजनीति के चलते गत 25 सालों में वामपंथी दल प्रदेश में हाशिये पर चले गये थे। इनका मूल जनाधार - खेतिहर मजदूर, किसान और औद्योगिक मजदूर साम्प्रदायिक एवं जातिगत आधार पर विभाजित होकर इनसे दूर हो गया। फलतः पिछली तीन लोकसभाओं में उत्तर प्रदेश से भाकपा तथा माकपा का कोई सांसद नहीं चुना जा सका। गत विधान सभा और वर्तमान विधान सभा में भाकपा का कोई विधायक नहीं चुना गया। माकपा के दो विधायक गत विधान सभा में चुने गये थे लेकिन वर्तमान में उनका भी कोई विधायक नहीं है। 1952 के बाद से यह पहला अवसर है जब विधान सभा में वामपंथ कोई प्रतिनिधि नहीं है।
उत्तर प्रदेश में भाकपा वामपंथ का मुख्य दल है। इसके बाद माकपा है। कई जिलों में फारवर्ड ब्लाक एवं आरएसपी के कुछ कार्यकर्ता मौजूद हैं। भाकपा माले का संगठन कुछ जिलों में कार्यरत है। गत दिनों भाकपा ने लगातार तमाम सवालों पर आन्दोलन चलाये हैं। इससे उसकी मारक क्षमता बढ़ी है तथा जनता में साख बढ़ी है। कई आन्दोलन वामपंथी दलों को साथ लेकर चलाये हैं जिनमें हमारी नेतृत्वकारी भूमिका रही है। इन संघर्षों को और तीखे तथा व्यापक बनाकर और संघर्षों तथा संगठन के बल पर चुनावों में भी संतुलित भागीदारी कर पार्टी और वामपंथ को उत्तर प्रदेश में पुनःस्थापित किया जा सकता है। आगामी दिनों में इस चुनौती को स्वीकार करना ही होगा।
अन्य दल
प्रदेश में छोटे-छोटे कई दल कुछ-कुछ पाकेट्स बनाये हुये हैं। इस बीच पीस पार्टी तेजी से उभरती दिखाई दी। यह पिछड़े मुसलमानों का संगठन था जो मोमिन कांफ्रेंस के बरक्स खड़ा हो रहा था। लेकिन इस दल ने हर दल के निष्कासितों को चाहे वे गुंडे-मवाली ही क्यों न हों, शामिल करना शुरू कर दिया। फिर गोरखपुर के सांसद और हिन्दू युवा वाहिनी के सर्वेसर्वा महन्त आदित्य नाथ से इसके रिश्तों की चर्चा ने जोर पकड़ा। इससे इसका उभार थम गया और लोगों का इससे विश्वास हटने लगा है। फिर भी अंसारी मुसलमानों में इसके प्रति झुकाव है क्योंकि इसके नेता इसी जमात से हैं। अभी इसमें विभाजन भी हुआ है। आने वाले चुनावों में या तो पीस पार्टी किसी बड़े दल से सौदेबाजी कर उसके साथ लड़ेगी या फिर वोट कटवा पार्टी साबित होगी।
इसके अलावा जनता दल (से.) जनता दल (यू.), राजद, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस, इंडियन जस्टिस पार्टी, भारत समाज पार्टी, अपना दल, जनवादी पार्टी, नेलोपा, कौमी एकता दल, लेबर पार्टी आदि दो दर्जन से अधिक पार्टियां हैं जो अपने नेता की जाति या किसी नामी गिरामी नेता के नाम पर चल रहीं हैं। इनमें से कई किसी पूंजीवादी दल से समझौता कर कुछ सीटें और पैसा हासिल करने की जुगत में लगी हैं तो कई वामपंथ के साथ आ सकती हैं।
कांग्रेस
देश में अभिकतर शासन इसी पार्टी कारहा है। उत्तर प्रदेश में भी आजादी के बाद काफी अर्से तक इसने राज किया। आजादी के आन्दोलन की विरासत जैसे-जैसे चुकती गई और कांग्रेस का अवसरवाद ज्यों-ज्यों बेनकाब होता गया, यह पार्टी कमजोर होती चली गई और इसका दलित, अल्पसंख्यक एवं सवर्ण जनाधार इससे खिसकता चला गया। आज प्रदेश में यह चौथे स्थान पर है। गत विधान सभा चुनाव में यह यथास्थिति ही हासिल कर पाई थी लेकिन लोकसभा चुनाव में इसने उल्लेखनीय 20 सीटें हासिल कर लीं और केन्द्र में सरकार बनाने में प्रदेश की भूमिका रही। आज वह फिर अपने जनाधार की पुनर्वापसी के लिए छटपटा रही है। पर इसके लिये वह कोई ठोस नीतिगत बदलाव करने के बजाय सोनिया-राहुल के करिश्मे पर ही निर्भर है। राहुल गांधी नित नये नाटक प्रदेश में करते रहते हैं।
लेकिन आर्थिक नव उदारीकरण की नीतियों पर अमल करने के कारण महंगाई एवं भ्रष्टाचार ने जड़ें तो जमाई ही हैं, कृषि, उद्योग, रोजगार, शिक्षा का संकट गहराया है। इससे इस पार्टी का पहिया उत्तर प्रदेश में गहरे दलदल में फंस गया है। आगामी विधान सभा चुनाव में वह फिर सिमट जायेगी और पिछली विधान सभा की स्थिति भी ले दे के ही अख्तियार कर पायेगी - भले ही उसने रालोद से गठबंधन की कवायद जारी रखी हो।
भाजपा
प्रदेश में भाजपा आज भी तीसरे पायदान पर खड़ी है। राम जन्मभूमि का मुद्दा अब काम नहीं आ रहा, धारा 376 तथा कामन सिविल कोड़ के उसके मुद्दे भी अब वो दोहरा नहीं पा रही। वह यदा-कदा साम्प्रदायिक हथकंडे अपनाती है और आतंकी घटनाओं पर राजनैतिक रोटियां सेकने का प्रयास करती है लेकिन रोजी-रोटी के लिये संघर्ष कर रही जनता पर उसका कोई असर नहीं हो पा रहा। वह आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों की खुली पोषक है, अतएव महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगी शिक्षा जैसे सवालों पर औपचारिक आवाज उठाकर चुप हो जाती है। भ्रष्टाचार में इसके नेताओं के लिप्त होने के कारण उसके नेता की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम मखौल बन कर रह गई। यू.पी. विधान सभा चुनावों में वोटों को बरगलाने के लिये इसके तमाम क्षत्रपों द्वारा की गई कथित ‘जन स्वाभिमान यात्रा’ भूखी-नंगी जनता के दिल में स्वाभिमान जगाने में असमर्थ रही और इसकी सभाओं से भीड़ नदारद रही। उत्तर प्रदेश में सत्ता पाने को आतुर यह पार्टी बुरी तरह छटपटा रही है। इसने उभा भारती जो बाबरी मस्जिद गिराने की मुख्य गुनहगार हैं, को लोध वोट हथियाने को आयात किया है। पूरी तरह साम्प्रदायिकता में रंगी यह पार्टी जातिवाद और क्षेत्रीयता को भी अपना औजार बनाती है। राज्य विभाजन के मुद्दे को भी भुनाने में उसे गुरेज नहीं। अतएव आगामी विधान सभा चुनावों में वह अपनी पिछली हैसियत को भी हासिल कर पायेगी, इसमें सन्देह है।
बहुजन समाज पार्टी
शोषित-पीड़ितों को न्याय दिलाने के नाम 1984 में इस पार्टी का गठन किया गया लेकिन आज यह अपने घोषित मुद्दों से पूरी तरह दूर जा चुकी हैं। गत विधान सभा चुनावों में इसने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था लेकिन बुनियादी नीतियों से हट जाने के कारण इसे लोकसभा चुनावों में उतनी सफलता नहीं मिली। दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के इसके नारे के चलते दलित वोट कांग्रेस एवं भाकपा से अलग हो बसपा के साथ हो लिया। लेकिन अब कथित सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर सामान्य जातियों के माफिया, बाहुबली और सामंतों को सत्ता में भागीदारी देकर इसने बहुमत भले ही हासिल कर लिया हो लेकिन आज इसके दलित वोट बैंक में हताशा है। वह कुछ न कुछ तादाद में बसपा से खिसक रहा है। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों पर यह खुलकर चल रही है। महंगाई, भ्रष्टाचार एवं बेरोजगारी की समस्याओं के निदान में पूरी तरह असमर्थ रही है। कानून-व्यवस्था के सवाल पर इसे सत्ता मिली थी जिसे यह संभाल नहीं पाई। शोषित तबके के आदर्श महापुरूषों के प्रतीक स्थल बनवाने का काम अच्छा है लेकिन इसके नाम पर करोड़ों-करोड़ रूपये के जनता के धन को जुटाना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। जनता में इसके प्रति आक्रोश है। अतएव भावी विधान सभा में इसकी सदस्य संख्या घटेगी जरूर।
समाजवादी पार्टी
पिछले साढ़े चार सालों से सपा सत्ता से बाहर है। अब वह सत्ता हासिल करने के लिए छटपटा रही है। इसके युवराज क्रान्ति रथ लेकर पिता की तर्ज पर यात्रा में निकल पड़े हैं। प्रदेश की दूसरे नम्बर की पार्टी होने के नाते कुछ भीड़ भी जुट रही है लेकिन मुद्दाविहीन उनका यह अभियान बहुत असर जनता पर नहीं डाल पा रहा। दूसरे - भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से घिरी सपा महंगाई के सवाल पर भी लड़ नहीं पा रही। उलटे इसने परमाणु करार हो या महंगाई केन्द्र सरकार का साथ दिया। इससे जनता की निगाहों में वह उठ नहीं पा रही। विपक्ष की भूमिका निभा नहीं पा रही। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों की यह पूरी तरह पोषक है। साम्प्रदायिकता के पृष्ठभूमि में चले जाने के कारण इसकी मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ कमजोर हुई है। केवल एक जाति के वोट पर ही इसे ज्यादा भरोसा है। सत्ता के विरोध का लाभ यह अपनी कमजोर नीति और रणनीति के कारण उठा नहीं पा रही। अतएव प्रदेश की राजनीति में यह वहीं के वहीं कदमताल कर रही है और आगामी विधान सभा चुनावों में किसी उल्लेखनीय सफलता के प्रति वह खुद आश्वस्त नहीं है।
राष्ट्रीय लोकदल
यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में केन्द्रित एक जाति के आधार वाला क्षेत्रीय दल है। यह किसान हित की बात करता है पर उनके हित में कोई ठोस कार्यक्रम उसके पास नहीं है। पिता की विरासत और हरित प्रदेश के नाम पर राजनीति चलाई जा रही है। सत्ता सुख भोगने को किसी सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल होना इसका स्वाभाविक गुणधर्म है। पुनः वे कांग्रेस गठबंधन का भाग बनने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में गठबंधन राजनीति से वे हमेशा लाभ में रहे हैं। इस बार भी उनकी नजर अपने लाभ पर टिकी है।
कांग्रेस हो या भाजपा, बसपा हो या सपा आज उत्तर प्रदेश में ठहराव की स्थिति में हैं अथवा पीछे जाने की। यही वजह है कि इन चारों के तमाम नेता दल-बदल रहे हैं और दूसरे-दूसरे दलों में शामिल हो रहे हैं।
वामपंथी
साम्प्रदायिक एवं जातिगत राजनीति के चलते गत 25 सालों में वामपंथी दल प्रदेश में हाशिये पर चले गये थे। इनका मूल जनाधार - खेतिहर मजदूर, किसान और औद्योगिक मजदूर साम्प्रदायिक एवं जातिगत आधार पर विभाजित होकर इनसे दूर हो गया। फलतः पिछली तीन लोकसभाओं में उत्तर प्रदेश से भाकपा तथा माकपा का कोई सांसद नहीं चुना जा सका। गत विधान सभा और वर्तमान विधान सभा में भाकपा का कोई विधायक नहीं चुना गया। माकपा के दो विधायक गत विधान सभा में चुने गये थे लेकिन वर्तमान में उनका भी कोई विधायक नहीं है। 1952 के बाद से यह पहला अवसर है जब विधान सभा में वामपंथ कोई प्रतिनिधि नहीं है।
उत्तर प्रदेश में भाकपा वामपंथ का मुख्य दल है। इसके बाद माकपा है। कई जिलों में फारवर्ड ब्लाक एवं आरएसपी के कुछ कार्यकर्ता मौजूद हैं। भाकपा माले का संगठन कुछ जिलों में कार्यरत है। गत दिनों भाकपा ने लगातार तमाम सवालों पर आन्दोलन चलाये हैं। इससे उसकी मारक क्षमता बढ़ी है तथा जनता में साख बढ़ी है। कई आन्दोलन वामपंथी दलों को साथ लेकर चलाये हैं जिनमें हमारी नेतृत्वकारी भूमिका रही है। इन संघर्षों को और तीखे तथा व्यापक बनाकर और संघर्षों तथा संगठन के बल पर चुनावों में भी संतुलित भागीदारी कर पार्टी और वामपंथ को उत्तर प्रदेश में पुनःस्थापित किया जा सकता है। आगामी दिनों में इस चुनौती को स्वीकार करना ही होगा।
अन्य दल
प्रदेश में छोटे-छोटे कई दल कुछ-कुछ पाकेट्स बनाये हुये हैं। इस बीच पीस पार्टी तेजी से उभरती दिखाई दी। यह पिछड़े मुसलमानों का संगठन था जो मोमिन कांफ्रेंस के बरक्स खड़ा हो रहा था। लेकिन इस दल ने हर दल के निष्कासितों को चाहे वे गुंडे-मवाली ही क्यों न हों, शामिल करना शुरू कर दिया। फिर गोरखपुर के सांसद और हिन्दू युवा वाहिनी के सर्वेसर्वा महन्त आदित्य नाथ से इसके रिश्तों की चर्चा ने जोर पकड़ा। इससे इसका उभार थम गया और लोगों का इससे विश्वास हटने लगा है। फिर भी अंसारी मुसलमानों में इसके प्रति झुकाव है क्योंकि इसके नेता इसी जमात से हैं। अभी इसमें विभाजन भी हुआ है। आने वाले चुनावों में या तो पीस पार्टी किसी बड़े दल से सौदेबाजी कर उसके साथ लड़ेगी या फिर वोट कटवा पार्टी साबित होगी।
इसके अलावा जनता दल (से.) जनता दल (यू.), राजद, लोक जनशक्ति पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस, इंडियन जस्टिस पार्टी, भारत समाज पार्टी, अपना दल, जनवादी पार्टी, नेलोपा, कौमी एकता दल, लेबर पार्टी आदि दो दर्जन से अधिक पार्टियां हैं जो अपने नेता की जाति या किसी नामी गिरामी नेता के नाम पर चल रहीं हैं। इनमें से कई किसी पूंजीवादी दल से समझौता कर कुछ सीटें और पैसा हासिल करने की जुगत में लगी हैं तो कई वामपंथ के साथ आ सकती हैं।
मौजूदा परिप्रेक्ष्य में उत्तर प्रदेश में राजनीतिक कार्यनीति
केन्द्र और राज्य सरकारों की विवेच्य
नीतियों के चलते जनता में उनके प्रति तीखा आक्रोश है। केन्द्रीय और उत्तर
प्रदेश के स्तर पर भाजपा और प्रदेश स्तर पर समाजवादी पार्टी इस आक्रोश को
भुनाने में जुटी हैं। लेकिन इनकी नीतियों और कारगुजारियों से वाकिफ जनता
उनकी ओर आकर्षित नहीं हो रही है। कांग्रेस एवं बसपा की स्थिति में गिरावट
है तो भाजपा एवं सपा की स्थिति में आकर्षणहीन ठहराव। बसपा अपने को अव्वल
दिखाने की कोशिशों में जुटी है तो अन्य तीनों उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी होने
का दावा करने में जुटी हैं। चारों दलों से प्रतिदिन दर्जनों नेता व
कार्यकर्ता पलायन कर रहे हैं। प्रदेश की राजनीति एक विकल्पशून्यता की
स्थिति में है।
इस विकल्प शून्यता को जनता के सवालों पर गंभीरता से जनान्दोलन खड़ा कर तोड़ने के बजाय घिसे-पिटे और सिद्धांतहीन हथकंडे अपना कर जाति-पांति के गठजोड़ और नाटकबाजी करके चुनावी सफलता हासिल करने के फार्मूले तलाशे जा रहे हैं। प्रदेश की जनता उनके इन झांसों में फंस नहीं रही है।
इसके विपरीत भाकपा ने भूमि अधिग्रहण, महंगाई, भ्रष्टाचार के विरूद्ध तथा जनता के विभिन्न शोषित-पीड़ित तबकों की समस्याओं के समाधान के लिये एक के बाद एक तमाम आन्दोलन किये हैं जिनमें से कई में वामपंथी दलों तो कई अन्य में दूसरे दलों को शामिल किया गया है।
इसी रोशनी में भाकपा राज्य कार्यकारिणी ने 13 मार्च 2011 को अपनी महत्वपूर्ण बैठक में फैसला लिया कि भाकपा अब आर्थिक नवउदारवाद की पोषक, भ्रष्टाचारी और जातिवादी पार्टियों के साथ अपने भविष्य को नहीं बांधेगी। भाकपा चारों वामपंथी दलों को एक जुट करेगी और उसके बाद कुछ धर्मनिरपेक्ष छोटे दलों को भी साथ जोड़ने का प्रयास करेगी। अच्छी बात है कि चारों वामपंथी दलों में इस मुद्दे पर सहमति बन गई है और मिल कर चुनाव लड़ा जाना तय हो गया है। इसका आम जनता, मीडिया, वामपंथ समर्थकों तथा स्वयं अपने कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश गया है।
अतएव पार्टी द्वारा किये गये आन्दोलनों से अर्जित ऊर्जा और सांगठनिक स्थिति के आधार पर प्रदेश में एक संतुलित संख्या में सीटें लड़ी जायें और विधान सभा में खाता खोलने का पुरजोर प्रयास किया जाये। हमें जनता के सामने खुलकर अपना पक्ष रखना है कि हम उसके सवालों पर सड़कों पर अनवरत संघर्ष चलाते हैं और यदि भाकपा प्रत्याशियों को जनता सफल बनायेगी तो उन संघर्षों को विधान सभा के पटल पर भी लड़ा जायेगा।
इस विकल्प शून्यता को जनता के सवालों पर गंभीरता से जनान्दोलन खड़ा कर तोड़ने के बजाय घिसे-पिटे और सिद्धांतहीन हथकंडे अपना कर जाति-पांति के गठजोड़ और नाटकबाजी करके चुनावी सफलता हासिल करने के फार्मूले तलाशे जा रहे हैं। प्रदेश की जनता उनके इन झांसों में फंस नहीं रही है।
इसके विपरीत भाकपा ने भूमि अधिग्रहण, महंगाई, भ्रष्टाचार के विरूद्ध तथा जनता के विभिन्न शोषित-पीड़ित तबकों की समस्याओं के समाधान के लिये एक के बाद एक तमाम आन्दोलन किये हैं जिनमें से कई में वामपंथी दलों तो कई अन्य में दूसरे दलों को शामिल किया गया है।
इसी रोशनी में भाकपा राज्य कार्यकारिणी ने 13 मार्च 2011 को अपनी महत्वपूर्ण बैठक में फैसला लिया कि भाकपा अब आर्थिक नवउदारवाद की पोषक, भ्रष्टाचारी और जातिवादी पार्टियों के साथ अपने भविष्य को नहीं बांधेगी। भाकपा चारों वामपंथी दलों को एक जुट करेगी और उसके बाद कुछ धर्मनिरपेक्ष छोटे दलों को भी साथ जोड़ने का प्रयास करेगी। अच्छी बात है कि चारों वामपंथी दलों में इस मुद्दे पर सहमति बन गई है और मिल कर चुनाव लड़ा जाना तय हो गया है। इसका आम जनता, मीडिया, वामपंथ समर्थकों तथा स्वयं अपने कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश गया है।
अतएव पार्टी द्वारा किये गये आन्दोलनों से अर्जित ऊर्जा और सांगठनिक स्थिति के आधार पर प्रदेश में एक संतुलित संख्या में सीटें लड़ी जायें और विधान सभा में खाता खोलने का पुरजोर प्रयास किया जाये। हमें जनता के सामने खुलकर अपना पक्ष रखना है कि हम उसके सवालों पर सड़कों पर अनवरत संघर्ष चलाते हैं और यदि भाकपा प्रत्याशियों को जनता सफल बनायेगी तो उन संघर्षों को विधान सभा के पटल पर भी लड़ा जायेगा।
भविष्य की प्रमुख कार्यवाहियां
- विभिन्न गैर सरकारी परियोजनाओं के लिये किसानों की उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण के विरूद्ध सघन अभियान। भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को पूरी तरह बदलवाने को आवाज उठाना। अधिगृहीत जमीनों का वाजिब मुआवजा दिलाना।
- किसानों की जरूरत की चीजों को उचित कीमत पर दिलाने तथा उनकी उपजों का वाजिब मूल्य दिलाने का अभियान।
- बन्द हो रहे उद्योग, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण एवं संगठित व असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की रक्षा के लिए अभियान।
- दलितों, भूमिहीनों, खेत मजदूरों की समस्याओं तथा व्यापक भूमि सुधार के लिये आन्दोलन।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली को व्यापक और कारगर बनाने तथा पेट्रोलियम पदार्थों पर राज्य के करों को कम करने को अभियान ताकि महंगाई पर अंकुश लगे।
- मनरेगा को सख्ती से लागू कराने, इसमें तथा अन्य राजकीय योजनाओं में भ्रष्टाचार को उजागर करने और उसे रोकने का अभियान।
- शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक, सभी को समान शिक्षा एवं रोजगार के लिये युवा एवं छात्रों का अभियान।
- महिलाओं के उत्पीड़न, भ्रूण हत्या के विरोध में तथा महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये जनजाग्रति अभियान।
- पर्यावरण, जल संकट, वायु व नदियों के प्रदूषण पर जनजागरण।
- अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा और उनके विकास के लिये, सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू कराने को विशेष अभियान।
- सभी को सस्ता इलाज सुलभ कराने को अभियान।
- बुनकरों, छपाई करने वालों, बीड़ी मजदूरों, दस्तकारों तथा असंगठित क्षेत्र के अन्य मजदूरों एवं आदिवासियों की समस्याओं पर आन्दोलन एवं संगठन का निर्माण।
- भ्रष्टाचार उजागर करने को सूचना के अधिकार का प्रयोग। नीचे तबके के भ्रष्टाचार को रोकने को हस्तक्षेप।
- प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों में जहां प्रत्याशी लड़ाये जाने हैं, वहां आन्दोलन व बूथ स्तर पर संगठन खड़ा करना।
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