Friday, July 15, 2011

जननी-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम: नयी घोषणाओं से क्या होगा जब सार्वजनिक चिकित्सा सेवा है ठप्प


सरकारी आंकडों के ही अनुसार देश में हर साल लगभग अड़सठ हजार महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है और जन्म के एक महीने के भीतर ही नौ लाख से ज्यादा बच्चे मर जाते हैं और सरकार का दावा है देश तरक्की कर रहा है और आर्थिक वृद्धि 9 प्रतिशत के लगभग चल रही है।

महंगाई भ्रष्टाचार, घोटालों और काले धन के मुद्दों से बुरी तरह घिरी सरकार को अब जनता के मुद्दे याद आने लगे हैं, जो उसने ”जननी शिशु सुरक्षा“ कार्यक्रम की घोषणा कर दी और दावा कर रही है कि सभी राज्यों को निर्देश दिया गया है कि वे गर्भवती महिलाओं को अस्पताल में रहने के दौरान मुफ्त दवा और भोजन की व्यवस्था करायें और उन्हें सभी तरह की जांॅच और अस्पताल आने-जाने का खर्च या साधन उपलब्ध करायें।

कोई भी समझ सकता है कि सरकार के इस तरह के दावे का कोई मतलब नहीं रह जाता जब सरकार ने स्वयं ही सरकारी डिस्पेंसरियों, जिला अस्पतालों और अन्य बड़े अस्पतालों को पहले ही पंगु बना दिया है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में सरकार की सारी कोशिश प्राइवेट अस्पतालों को बढ़ावा देने की और सरकारी अस्पतालों को कमजोर करने की तरफ है। इसी नीति के तहत किसी भी सरकारी अस्पताल में न पूरे डाक्टर है, न नर्स, न फार्मासिस्ट, न एक्सरे स्टाफ, न लेब्रोरेटरी स्टाफ, न अस्पतालों में दवाईयां है, न सरकारी अस्पतालों की एक्सरे मशीन चालू हैं, न अल्ट्रा साउंड मशीनें, न लेबोरेटरियां, कहीं एक्सरे मशीन है तो स्टाफ नहीं। कहीं स्टाफ है तो एक्सरे मशीन नहीं। यदि एक्सरे स्टाफ और मशीनें दोनों हैं तो भी मरीजों का एक्सरे नहीं होता क्योंकि अस्पताल के बाहर कई प्राइवेट निदान केन्द्र एक्सरे मशीनें लिए बैठे हैं जो सरकारी अस्पताल के सुपरिन्टेन्डेन्ट को कमीशन देते हैं। अतः मरीजों को बाहर ही एक्सरे कराने पर मजबूर किया जाता है। खून की जांच और अन्य सभी जांचों के मामले में भी यही होता है।

इस सबके लिए केवल अस्पताल सुपरिडेंन्ट ही जिम्मेदार नहीं। सरकार की ऊपर से नीचे तक यही नीति है कि सभी काम प्राइवेट में ही कराये जायें। सुपरिटेंडेंट भी उसी नीति को अमल में ला रहे हैं।

अब तो सरकारी अस्पतालों में फीस भी ली जाने लगी है। देश की राजधानी दिल्ली में भी सरकार के विभिन्न अस्पतालों में अलग-अलग काम के लिए फीसें तय हैं। फीस दिये बगैर कोई काम नहीं होता और साल-दर-साल अस्पताल की एक बाद दूसरी सेवा पर फीस की व्यवस्था लागू की जा रही है।

जब सरकारी डिस्पेंसरियों और अस्पतालों का सरकार ने यह हाल कर रखा है तो ”जननी-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम“ की घोषणा से क्या होगा जबकि सरकार का सारा जोर सरकारी अस्पतालों को ठप्प करने का और प्राइवेट क्लीनिकों, प्राइवेट नर्सिंग होमों और प्राइवेट अस्पतालों को बढ़ावा देने का है।

पिछले सप्ताह दिल्ली के अखबार में खबर छपी कि एक व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर एम्स गया, एम्स जो दिल्ली का सबसे बड़ा अस्पताल है। यह सरकारी अस्पताल है। बच्चे को हृदय की कोई समस्या थी उसे कहा गया कि इस इलाज के लिए 21000 रूपये पहले जमा कराओ तब इलाज शुरू होगा। इतने पैसे उसके पास थे नहीं, बच्चे को लेकर वापस अपने घर चला गया। किसी तरह वह इस मामले को हाईकोर्ट ले गया। जाहिर है किसी भले और तेज दिमाग वकील ने इसमें उसकी मदद की होगी। हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि पैसे नहीं है इस कारण बच्चे का इलाज नहीं हो सकता यह गलत बात है। हाईकोर्ट ने दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल को, जो दिल्ली का एक अन्य बड़ा सरकारी अस्पताल है और जहां हृदय चिकित्सा के विशेष प्रबंध हैं, आदेश दिया कि इस बच्चे का इलाज किया जाए। अब मामला इतना उछल गया है और हाईकोर्ट का आदेश हो गया है तो उसका इलाज अवश्य ही हो जायेगा। पर देश का हर आदमी तो इस तरह अदालत के जरिये राहत नहीं पा सकता।

स्वयं विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि एक तिहाई भारतीय तो पैसे न होने के कारण इलाज के लिए जाते ही नहीं हैं। अन्य रिपोर्टों के अनुसार, सरकारी अस्पतालों में इलाज की समुचित व्यवस्था न होने के कारण जो लोग निजी अस्पतालों में इलाज कराने की हिम्मत करते हैं उनमें से बड़ी तादाद में लोग घर की परिसम्पत्तियां बेचकर ही इलाज का खर्च चुकाते हैं। इस हालत के लिए नवउदारवाद की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार है। इन नीतियों को बदले बिना जननी सुरक्षा कार्यक्रम महज घोषणा बन कर रह जाते हैं।

- आर.एस. यादव

Thursday, July 14, 2011

भूमंडलीकरण या लोगों को हाशिये पर धकेलना


गौतमबुद्धनगर के साबेरी गांव के भूमि अधिग्रहण को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निरस्त करने के फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार, ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण तथा बिल्डरों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने 5 जुलाई को अपील पर सुनवाई की तथा 6 जुलाई को अपना निर्णय सुना दिया। सुनवाई के दौरान और फिर अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने जो तल्ख टिप्पणियां की हैं, वे न केवल काबिले तारीफ हैं बल्कि वे उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के साथ-साथ केन्द्रीय सरकार एवं सरमायेदारों के लिए भूमि अधिगृहीत करने वाली राज्य सरकारों के लिए आईना हैं। सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी एवं न्यायमूर्ति ए.के.गांगुली की खंड पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार की भूमि अधिग्रहण नीति को जनविरोधी बताते हुए आपात उपबंध के गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया। सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार से सवाल किया कि विकास के नाम पर वह कर क्या रही है? किसानों की खेतिहर जमीन मल्टीप्लेक्स और मॉल बनाने के लिए अधिगृहीत की जा रही है जो आम आदमी की पहुंच से दूर हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर सरकार नहर या पुल बनाने के लिए जमीन अधिगृहीत करती तो समझ आता लेकिन यहां तो जमीन मॉल, होटल और टाउनशिप के लिए ली गयी है।

बिल्डरों द्वारा लगाये गये ब्रोशरों पर टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि स्पॉ, स्विमिंग पूल, आयुर्वेदिक मसाज, हेल्थ क्लब वाले ये फ्लैट क्या गरीबों के लिए बन रहे हैं? जिनकी जमीने ली गयीं हैं वे क्या इन्हें खरीद पायेंगे? सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अन्य राज्यों में भी यही बदतर हालात हैं।

मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों की भूमि अधिग्रहण नीति पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा कि सरकारें इस कानून एवं इन नीतियों को दमन यंत्र की तरह इस्तेमाल कर रहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल किया आखिर भूस्वामी किसानों को क्या मिला - मुकदमेंबाजी और लाठियां। पुरूष जेल गये और महिलाओं से दुवर््यवहार किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान कहा कि जमीन किसान की मां होती है। इस टिप्पणी को बहुत गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है, इसके गहन निहितार्थ हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि एक किसान से जमीन लेने पर सिर्फ उसी के जीवन यापन का साधन नहीं जाता। इसके भी बहुत गंभीर अर्थ हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे टिप्पणी की कि किसानों को मिलता है थोड़ा सा मुआवजा जिसे वह मुकदमेबाजी में खर्च करता है।

बिल्डरों के वकीलों ने दलील देने की कोशिश की कि किसानों ने मुआवजा ले लिया है तो सर्वोच्च न्यायालय ने फिर सवाल किया कि अगर वे मुआवजा नहीं लेते तो उनके पास और क्या विकल्प था? सरकारें उनकी जमीने हड़प कर उन्हें गुलाम बना रही है। ये ‘भूमंडलीकरण’ (ग्लोबलाईजेशन) नहीं है बल्कि ‘लोगों को हाशिये पर धकेलना’ (मार्जिनलाइजेशन) है। सरकार किसानों को हाशिये पर डाल रही है। ये किसी विपक्षी दल के आरोप नहीं सरकारों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ की टिप्पणियां हैं, इसलिए इनकी अपनी गंभीरता है।

अगले दिवस अपना फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ ने भूमि उपयोग को औद्योगिक से आवासीय करने पर ग्रेटर नोएडा अधिकरण पर बिल्डरों के साथ सांठगांठ करने का आरोप लगाते हुए उस पर रू. 10.00 लाख का जुर्माना भी ठोंक दिया जिसे गरीब वादकारियों की मदद करने पर खर्च किया जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार पर कानून के अधीन अपने अधिकारों के भ्रष्ट दुरूपयोग का आरोप लगाते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून के ‘अत्यावश्यक’ प्राविधानों को किसी जन हित में नहीं बल्कि बिल्डर्स को फायदा पहुंचाने के इरादे से उपयोग किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात की भी नोटिस ली कि इंडस्ट्रियल टाउनशिप के लिए अधिगृहीत कुल भूमि के 60 फीसदी का उपयोग अब तक नहीं किया जा सका है।

यह तो सर्वोच्च न्यायालय का अभिमत है लेकिन पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यमों ने इस फैसले को आशियाने के लिए प्रतीक्षारत मध्यमवर्गीय परिवारों पर हमला करार देने की असफल कोशिश की। इस निर्णय में ही सर्वोचच न्यायालय ने बिल्डरों के ब्रोशरों का जिक्र करते हुए तल्ख टिप्पणी की है। क्या इस देश के मध्यम वर्ग का कोई ईमानदार व्यक्ति इन फ्लैटों को खरीदने का ख्वाब देख सकता है? हरगिज नहीं! पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यम पूंजी पर हर हमले पर जनमत अपने पक्ष में बनाने की कोशिश करते हैं। यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि ऐसा करना जनहित में नहीं है। एक बार फिर उन्होंने यह प्रयास किया परन्तु असफल रहे हैं।

पूंजीवाद का जो दंश भारतीय जन-मानस इस समय झेल रहा है, उसमें इस तरह के पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यमों के प्रयास सफल नहीं हो सकते। देश को एक वामपंथी समाचार तंत्र की जरूरत है, जिस पर हमें गौर करना होगा।

- प्रदीप तिवारी

Wednesday, July 13, 2011

बी.एड. में प्रवेश - उत्तर प्रदेश सरकार का नया स्कैन्डल


लखनऊ 14 जुलाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने उत्तर प्रदेश सरकार पर बी.एड. प्रवेश के नाम पर एक नया स्कैन्डल करने का आरोप लगाते हुए कहा है कि गैर वित्तपोषित और संसाधन-विहीन संस्थानों को बी.एड. की कक्षाएं चलाने के लिए मान्यता जारी रखने और नई मान्यता दिये जाने के नाम पर सरकार द्वारा शिक्षा माफियाओं से दस लाख पचास हजार रूपये प्रति कालेज लिया गया है तथा उसकी भरपाई कराने के लिए बी.एड. की फीस 51,000/- रूपये तय की गयी है।
लखनऊ के लोग आज भी लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा इसी तरह एक संसाधनविहीन कालेज को बी.एड. कक्षायें चलाने के लिए पिछले साल दी गयी मान्यता के प्रकरण को भूले नहीं हैं।
भाकपा राज्य सचिव ने एक प्रेस बयान में कहा है कि प्रदेश सरकार द्वारा बी.एड. प्रवेश के लिए आज से शुरू हो रही कौंसिलिंग में आरक्षित और अनारक्षित दोनों श्रेणियों में प्रवेश के लिए छात्रों को पूरे साल की फीस रू. 51,000/- का ड्राफ्ट कौंसिलिंग के समय ही जमा कराने की शर्त रख कर प्रदेश के वंचित एवं शोषित तबकों के साथ-साथ मध्यम वर्ग के तमाम विद्यार्थियों को प्रवेश से वंचित रखने का निन्दनीय कार्य किया है जिसके लिए प्रदेश की जनता मायावती सरकार को क्षमा नहीं करेगी। प्रेस बयान में कहा गया है कि विश्वविद्यालयों तथा सहायता प्राप्त कालेजों में तो शिक्षकों का वेतन भुगतान राजकोष से किया जाता है और उसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी संसाधनों के लिए पैसा मुहैया कराता है, उनके लिए भी रू. 51,000/- की फीस का निर्धारण किसी भी कीमत पर उचित नहीं है। प्रेस बयान में आगे कहा गया है कि जब लखनऊ विश्वविद्यालय और आई.टी. कालेज स्ववित्तपोषित विज्ञान के कोर्सों (जिसमें प्रयोगशालाओं में महंगे उपकरण तथा रसायनों की व्यवस्था करनी होती है) के लिए बीस-तीस हजार रूपये फीस वसूल करते हैं, तब बी. एड. कक्षाओं के लिए 51,000 की फीस समझ से परे है। भाकपा ने विश्वविद्यालयों एवं डिग्री कालेजों द्वारा मासिक एवं द्विमासिक आधार पर शुल्क जमा करने की व्यवस्था समाप्त कर पूरे साल की फीस प्रवेश के समय ही जमा कराने की कटु निन्दा की है।
भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने माननीय राज्यपाल महोदय जोकि प्रदेश के विश्वविद्यालयों के कुलपति भी हैं, तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से अपील की है कि वे इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार के इस नए स्कैन्डल की जांच कराने, बी.एड. कक्षाओं का शुल्क घटाने तथा संसाधनविहीन कालेजों की मान्यता रद्द करने के लिए उचित कार्यवाही अविलम्ब करें।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस मामले में प्रदेश के बुद्धिजीवी तबके से भी अपील करती है कि वे आगे आयें और प्रदेश के राज्यपाल तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष को उचित पत्र भेजें।

Saturday, July 9, 2011

किसान हित में नहीं राहुल की छवि निर्माण के लिए थी कथित किसान पंचायत - भाकपा


लखनऊ 9 जुलाई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि आज किसानों के नाम पर अलीगढ़ में हुआ कांग्रेस का जमाबड़ा किसानों के हित में नहीं था। केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस का यह जमाबड़ा केवल राहुल गांधी की छवि निर्माण के लिए था।
भाकपा ने कहा है कि आज पूंजीवादी राजनीति नेतृत्व की विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही है। अतः कार्पोरेट घराने, कांग्रेस और कार्पोरेट मीडिया राहुल गांधी को गरीबों के हितैषी के रूप में उछालने में जुटे हैं। वे लोगों का ध्यान इस बात से हटाना चाहते हैं कि भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण की जिस राजनीति के तहत आज उत्तर प्रदेश सहित देश के तमाम भागों में किसानों की उपजाऊ जमीनों का बेतहाशा अधिग्रहण किया जा रहा है, वह नीतियां कांग्रेस की देन हैं।
डा. गिरीश ने कहा कि भाकपा, वामपंथी दल तथा कई किसान संगठन दादरी से लेकर आज तक जमीनों को बचाने की लड़ाई लड़ते रहे और तमाम जगह किसानों को न्याय दिलाने में कामयाब रहे। मगर मीडिया ने कभी उसकी समुचित चर्चा नहीं की। आज जब अलीगढ़ में केन्द्र सरकार, कांग्रेस संगठन और भ्रष्टाचार के धन के बल पर एक भीड़ जुटाई गई है तो उसकी आड़ में एक व्यक्ति विशेष का महिमामंडन किया जा रहा है। लेकिन जादू सिर पर चढ़ कर बोला और श्री राहुल गांधी उपजाऊ जमीनों को अधिग्रहण से बचाने के लिये 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून का ठोस प्रारूप जनता के सामने नहीं रख पाये और न ही किसानों को आत्म हत्याओं से बचाने और उनके खाद, बीज, डीजल, बिजली के संकट के विषय में कोई ठोस योजना ही पेश कर पाये। यह रैली पूरी तरह कांग्रेस के लिये ‘स्वान्तः सुखाय’ रैली ही साबित हुई, डा. गिरीश ने दावा किया है।

Thursday, July 7, 2011

भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष और बाबा रामदेव


बाबा रामदेव एक कुशल योग गुरू है। विभिन्न स्थानों पर आयोजित उनके योग कैम्पों में हमेशा अच्छी खासी उपस्थिति रहती है। टीवी चैनल उन्हें देश के लाखों दर्शकों का नियमित रूप से टेलीकास्ट करते हैं। इससे उनके शिष्यों-अनुयायियों और योग अभ्यास करने वालों की संख्या बहुत बड़ी हो गयी है।

पर वह अपने देश के लोगों में योग को लोकप्रिय बनाने वाले बाबा ही नहीं हैं। वह एक चतुर बिजनेस मैन भी हैं। उन्होंने योग का अभूतपूर्व व्यवसायीकरण कर लिया है। उनके कैम्पों में हिस्सा लेने वाले लोगों को भी बड़ी रकम देनी पड़ती है जो इस पर निर्भर है कि वे कौन सी लाइन में बैठते हैं। कहा जा सकता है कि इस समूची प्रक्रिया मंे व्यवसायीकरण में कुछ भी गलत नहीं। आखिर सारे बंदोबस्त का खर्च निकालना होता है।

बाबा हर एक “आसन” और “प्राणायाम” और उससे होने वाले फायदों पर भाषण करते हैं, सीख देते हैं, इस मौके को, जैसा वह ठीक समझते हैं उस तरह के, राजनैतिक प्रवचन देने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं यह सच है कि उनके प्रवचनों की विषय वस्तु में भ्रष्टाचार, कालेधन को बाहर निकालने जैसे मुद्दे भी होते हैं।

चतुर-चालाक बाबा ने योग के शिक्षण को वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों, कम्पनियों एवं ट्रस्टों के एक सिलसिले को कायम करने-चलाने, विभिन्न आयुर्वेदिक दवाओं को बेचने, सरकारी पैसे से फूड पार्क चलाने जैसी बातों से जोड़ दिया है। बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों के तत्वावधान में सचमुच एक व्यापारिक साम्राज्य कायम हो गया हैं

अब रिपोर्टें हैं कि इस तरह की कम्पनियां और वाणिज्यिक संस्थाओं की संख्या 200 से कम नहीं है। प्रश्न पूछा जा सकता हैः क्या सरकार को उनका पता अब रामलीला मैदान की घटना के बाद चला है? या यदि सरकार पहले उनके बारे में जानती थी तो इस तमाम अरसे में चुप क्यों रही? ये प्रासंगिक मुद्दे हैं जिससे ऐसे मुद्दों पर सरकार की मिलीभगत का और जब मौका पड़े तो कार्रवाई करने के उसके दोगलेपन का इशारा मिलता है। बाबा की इस जबर्दस्त आमदनी ने उन्हें पांच सितारा संस्कृति विकसित करने, निजी जेट खरीदने एवं किराये पर लेने और यहां तक कि आराम एवं विश्राम के लिए स्काटलैंड के समुद्रतट के पास एक टापू खरीदने की सामर्थ्य प्रदान कर दी है। संभवतः आज की दुनिया में इन तमाम बातों की भी इजाजत है।

जनता के बड़े तबकों से उन्हें जो रेस्पोंस मिलता है उसे देखकर बाबा ने राजनीति के मैदान में कूदने का फैसला किया। कुछ समय तक वह अपनी स्वयं की एक पार्टी बनाने पर सोचते रहे। पर उनके नजदीक के लोगों ने उन्हें सलाह दी कि पहले ही ऐसी राजनैतिक पार्टियां और रूझान हैं जो उन्हें साथ लेकर चलने के लिए सहर्ष उत्सुक होंगी, देश में आज जो तूफानी राजनैतिक वातावरण बना हुआ है उसमें स्वयं की पार्टी बनाने के मुकाबले वह अधिक फायदे की बात होगी। हमने देखा कि जब उन्होंने अपने आंदोलन की घोषणा की तो संघ परिवार किस कदर तेजी के साथ उनके मंच पर चढ़ गया।

भ्रष्टाचार आज एक ज्वलंत मुद्दा है। यूपीए सरकार के एक के बाद दूसरे भ्रष्टाचारों का जो सिलसिला सामने आया है जनता में उससे जबर्दस्त आक्रोश है। कम्युनिस्ट और वामपंथ इन मुद्दों का निरंतर संसद के अंदर और बहार उठाते रहे हैं और उन पर आंदोलन करते रहे हैं। यह नोट किया जाना चाहिए कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गुरूदास दासगुप्त ने 2008 में कालेधन के मुद्दे को लोकसभा में विचार-विमर्श के लिए उठाया था और मांग की थी इसे वापस लाया जाये। उस समय श्री लालकृष्ण आडवाणी चुप्पी साधे रहे। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले, राष्ट्रमंडल खेल घोटाले और अन्य कई घोटालों में इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और उसमें मंत्रियों एवं कुछ राजनेताओं की संलिप्तता ने देश के आम आदमी को स्तब्ध कर दिया है। अन्ना हजारे के अनशन के फलस्वरूप स्वतःस्फूर्त तरीके से व्यापक लहर पैदा हो गयी जिससे मांग उठी कि घोटालेबाजों के विरूद्ध कानूनी कार्रवाई की जाये और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने, जांच करने, भ्रष्टाचारियों को सजा देने और उनकी परिसम्पत्तियों को जब्त करने के लिए एक प्रभावी जन लोकपाल बिल पारित किया जाना चाहिये ताकि भ्रष्टाचार को रोका जा सके।

भ्रष्टाचारपूर्ण सौदों का एक सबसे बुरा असर देश के अंदर एक सामानांतर अर्थव्यवस्था के रूप में चलने वाले काले धन के प्रचुर सृजन के रूप में सामने आता है जबकि उसका बड़ा हिस्सा उन विदेशी बैंकों में जमा हो जाता है जो टैक्स हेवन (टेक्स चोरी के पैसे को आश्रय देने वाले) देशों में काम करते हैं। स्वाभाविक ही है कि मांग उठी है कि इस काले धन को वापस लाया जाये और राष्ट्र की अपनी परिसम्पत्ति के रूप मंे उसे जब्त किया जाये। कालेधन के अपराधियों के नामों का पर्दाफाश किया जाना चाहिए और उन्हें सख्त सजा दी जानी चाहिए।

इस तरह के बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार की जड़ में हैं नव उदारवादी आर्थिक नीतियां। पूंजीवादी सरकार इस तरह की नीतियों पर चलने के लिए जिम्मेवार है। वह कालेधन के खिलाफ इस तरह की कार्रवाई करने की इच्छुक नहीं। पर बढ़ते जन आक्रोश ने इस अनिच्छुक सरकार को इस तरह के लोकपाल बिल को ड्राफ्ट करने के लिए सहमत होनेे पर मजबूर कर दिया। पर बिल की अनेक धाराओं के बारे में रूकावटें खड़ी की जा रही है। इस पर हम बाद में विचार कर सकते हैं।

इसी बीच बाबा रामदेव अपने अनुयायियों को साथ लेकर मैदान में कूद पड़े। आंदोलन को हाइजैक करने का मुकाबला चल रहा है। उन्होंने अपने हजारों अनुयायियों को साथ लेकर रामलीला मैदान में भूख हड़ताल और सत्याग्रह शुरू कर दिया। अन्ना हजारे के अनशन को मिले जनता के स्वतः स्फूर्त रेस्पोंस से पहले ही बुरी तरह हिली हुई, बदहवास यूपीए सरकार ने बाबा को मनाने की बड़ी तेजी से कोशिश की। जब वह राजधानी पहुंचे तो चार प्रमुख मंत्री उनकी अगवानी के लिए दौड़े-दौड़े दिल्ली हवाई अड्डे पहुंचे। हवाई अड्डे पर उनके साथ उन्होंने ढाई घंटे बातचीत की। उसके बाद अगला पूरा दिन सरकार और रामदेव के बीच घंटों लम्बी वार्ताओं के कई दौर से गुजरा। पूरा दिन इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम रामदेव और सरकार के बीच कभी सौदेबाजी चल रही है तो कभी टूट गयी है की खबरे परोसते रहे और अनशन और सत्याग्रह के शुरू होने और जारी रहने के बारे में प्रश्न उठते रहे। सार्वजनिक तौर पर घोषणा की गयी कि बाबा द्वारा उठायी गयी मांगों पर लगभग सहमति बन गयी है। जैसा कि बाद मंे पता चला बाबा रामदेव के सहायक ने उनकी तरफ से एक पत्र दिया था कि वह पहले दिन (अर्थात 4 जून) को दोपहर बाद अनशन समाप्त कर देंगे। पुलिस कार्रवाई का औचित्य सामाप्त कर देंगे। पुलिस कार्रवाई का औचित्य बताते हुए सरकार ने आरोप लगाया कि बाबा अपनी बात से मुकर गये और उन्होंने आंदोलन को जारी रखा। अतः दोनों के बीच राजनैतिक “मैच फिक्सिंग” की जो कोशिश हो रही थी और जिस खेल में अन्य खिलाड़ी भी शामिल थे, वह दोनों लिए उलटी पड़ गयी।

उसके बाद रात के अंधेरे में काला कारनामा हुआ। हजारों पुरूषों एवं महिलाओं पर, जो कैम्प में सो रहे थे, एक नृशंस पुलिस कार्रवाई की गयी। आंसू गैस के गोले छोड़े गये और जो लोग कैम्प में थे उन्हें सभी को वहां से हटाने के लिए लाठीचार्ज का आदेश दिया गया। बीसियों लोग जख्मी हो गये और दो लोगों को गंभीर चोटें आयी जिनमें एक महिला है। इस समय वह अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रही है। रामदेव ने बच निकलने की कोशिश की पर पुलिस द्वारा पकड़ लिये गये और हवाई जहाज से देहरादून भेज दिये गये।

अवांछित एवं नृशंस पुलिस कार्रवाई से लोगों में आक्रोश पैदा हुआ, भले ही वे रामदेव की असंगतता के बारे मंे कुछ भी विचार रखते हो। सरकार जो कुछ भी कहती है या करती है उसे किसी तरह न्यायोचित नहीं माना जा सकता। क्या सरकार जनता के आंदोलन से इस तरह से सलूक करेगी? हमारी पार्टी ने और अन्य पार्टियों ने भी पुलिस कार्रवाई की तीव्र भर्त्सना की है। सर्वोच्च न्यायालय और मानवाधिकार आयोग ने भी मौलिक अधिकाररों की घोर अवहेलना का सही ही स्वतःसंज्ञान लिया है और समूची परिस्थिति से सरकार के हेंडलिंग पर आपत्ति की है।

रामदेव बाबा और सरकार दोनों ने कालेधन और भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन को एक त्रासद घटना में बदल दिया है। तथापि सरकार की कार्रवाई ने इन मुद्दों पर संघर्ष चलाने की जरूरत को रेखांकित कर दिया है। इन मुद्दों पर वामपंथ और वे तमाम लोकतांत्रिक ताकतें ही एक सिद्धांतनिष्ठ और सुसंगत संघर्ष चला सकती हैं जो इन मुद्दों पर सच्चे अर्थ में चिंतित हैं।

जलियांवाला बाग से तुलना करना या आजादी की दूसरी लड़ाई जैसी बातें करना उन पहले की बातों को हल्का करना है। लम्बी चौड़ी हांकने या अतिशयोक्तिपूर्ण बातें करने से, जैसा कि कुछ लोग कर रहे हैं, संघर्ष आगे नहीं जाता।

- ए.बी. बर्धन