Wednesday, May 18, 2011

मध्य पूर्व से कदम वापस लेने की फिराक में ओबामा प्रशासन


 

राष्ट्रपति पद के लिए अपने दूसरे कार्यकाल के अपने इरादे की घोषणा करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने अपने प्रशासन से मध्य पूर्व की भूल भुलैया से बाहर निकलने के तौर तरीकों के तलाश करने के लिए भी कहा है अन्यथा ईराक के कारण उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बुश का जो हाल हुआ वैसा ही कुछ उनके साथ भी होने वाला है। अमरीका लीबिया के मामले में जिम्मेदारी को अपने सहयोगियों, खासकर फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी पर डालने की कोशिश तो कर ही रहा है साथ ही वह लम्बे समय से घोषित अपने शत्रु अलकायदा समेत अपने लिए किन्हीं नयी कठपुतलियों की तलाश में व्यग्र है क्योंकि उसे आशंका है कि उसके कठपुतली राष्ट्रपति अली अबदुल्ला सालेह के पतन में देरी से वहां उसके और मध्य पूर्व में अमरीका के सबसे मूल्यवान सहयोगी सऊदी अरब, दोनों के प्रति वैरभाव रखने वाली ताकतें वहां आ सकती हैं।

जहां तक लीबिया की बात है सभी संकेत ऐसे हैं कि अत्यधिक नृशंस बमबारी, यहां तक कि अस्पतालों एवं अनाथालयों जैसे स्थानों पर भी बमबारी, जिनमें सैकड़ों निर्दोष असैन्य लोग मारे गये हैं, गद्दाफी परिवार और उसके कबीले के लोगों के बीच कोई खाई नहीं पैदा कर सकी है। पिछले इतवार को फ्रांस और ब्रिटेन के लड़ाकू जहाजों ने पूर्वी तेल क्षेत्रों के निकट बम बरसाये जिसमें दर्जनों वे लोग मारे गये जो आंदोलनकारी समझे जाते हैं। इससे विद्रोही इस हद तक ‘नाराज‘ हुए हैं कि वे हमलावर फौजों के विरूद्ध नारे लगाने लगे। पहले अमरीका और उसके सहयोगी दावा कर रहे थे कि यही लोग कह रहे थे कि अमरीका लीबिया में ‘नो फ्लाई जोन‘ (हवाई उड़ान वर्जित क्षेत्र) लागू करने से कुछ अधिक कार्रवाई करे। यह सच है कि जब ‘नो फ्लाई जोन‘ के फैसले की घोषणा हुई थी तो विद्रोहियों के मजबूत प्रभाव वाले बेन गाजी और उसके आसपास इलाकों में सरकोजी को हीरो के रूप में माना गया था। अब वही लोग हमलावरों के खिलाफ नारे बुलंद कर रहे हैं क्योंकि लड़ाकू हवाई जहाज आंदोलनकारियों और उनके समर्थकों समेत लोगों को बमबारी कर अधंाधंुध मार रहे हैं।

सरकोजी, जिन्हें अगले वर्ष राष्ट्रपति पद के लिए बड़े मुश्किल चुनाव का सामना करना है, की अपनी स्वयं की मजबूरियां हैं। अपने देश में वह तेजी से समर्थन खो रहे हैं। स्थानीय निकायों के चुनाव में उनकी शासक पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा। सोशलिस्टों के नेतृत्व में वामपंथियों ने और ग्रीन पार्टी ने अनेक नगर पालिकाओं पर कब्जा कर लिया है। नस्लवादी नेशनलिस्ट पार्टी ने सरकोजी की शासक पार्टी की कीमत पर चुनाव में फायदा उठाया। इसके अलावा, शासक पार्टी के अंदर भी सरकोजी का विरोध बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री फ्रांसोइस फिल्लॉन राष्ट्रपति पद के लिए वैकल्पिक उम्मीदवार के रूप में उभर रहे हैं। इस एवं अन्य कुछ कारणों ने सरकोजी को लीबिया में जुआ खेलने को मजबूर किया।

असल में, टयूनीशिया और मिस्र में अपनी भयंकर गलतियों के कारण सरकोजी बदहवास हो गये थे। जब इन दो देशों में विद्रोह चरम शिखर पर था फ्रांस के विदेश मंत्री माइकेल एल्लियट-मैरी अपने परिवार के साथ ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति जिने-अल आबेदिन बेन अली की मेहमानवाजी के मजे ले रही थी और ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति के सऊदी अरब को भागने के चंद दिन पहले उन्होंने वहां रहते हुए ही ट्यूनीशिया की दमनकारी सरकार के लिए खुला समर्थन व्यक्त किया। इसी प्रकार बड़े दिन से अपनी छुट्टी के दौरान फ्रांस के प्रधानमंत्री भी होस्नी मुबारक के मेहमान थे। दोनों ही देशों में फ्रांस सरकार इतिहास के गलत पलड़े में पायी गयी।

जन विद्रोह के विरोध की भयंकर गलती ने सरकोजी को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया। इससे पार पाने के लिए सरकोजी को अरब जगत में किसी साहसिक कार्य की जरूरत थी। ब्रिटिश प्रशानमंत्री के साथ मिलकर उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में घालमेल की। मूल प्रस्ताव में सशस्त्र बलों के इस्तेमाल की बात थी, दो स्थायी सदस्यों-रूस और चीन के भारी विरोध के बाद उसे ‘नो फ्लाई जोन‘ में बदल दिया गया। ‘नो फ्लाई जोन‘ प्रस्ताव का समर्थन पांच सदस्यों-रूस, चीन, भारत, ब्राजील और जर्मनी ने नहीं किया। वे मतदान से अनुपस्थित हो गये। जर्मनी द्वारा साथ छोड़ना अमरीका फ्रांस और ब्रिटेन की तिकड़ी के लिए सबसे बड़ा धक्का है।

असैन्य क्षेत्रों पर अपनी बमबारी को सही ठहराने के लिए हमलावर फौजों ने 22 सदस्यीय अरब लीग द्वारा निर्विरोध समर्थन का दावा किया पर स्वयं अरब लीग के महासचिव ने इस दावे से असहमति व्यक्त की। उन्होंने इसे सुरक्षा परिषद के कार्यक्षेत्र से परे बताया। अभी तक कतर और ओमन-ये दो खाड़ी देश ही लीबिया पर हमला करने वाली फौजों में शामिल हुए हैं। सऊदी और संयुक्त अरब अमीरात ने शासक पार्टी के विरूद्ध जनता की बगावत को कुचलने के लिए अशांत देश-बहरीन में अपनी फौजों को भेजा है। बहरीन गयी सऊदी फौज में पाकिस्तानी मिलटरी कर्मचारी शामिल हैं। बहरीन के अधिकांश लोग बगावत में शामिल हो गये हैं, उन्होंने सरकार को ठप्प कर दिया है। यमन ओर जोर्डन में भी विद्रोह हो रहा है। सीरिया ने लीबिया पर हमले का विरोध किया था, अब उसे अमरीका का कोपभाजन बनना पड़ रहा है, राजधानी दमिश्क के दक्षिण में सरकार विरोधी आंदोलन की पुश्त पर अमरीका है। कुवैत में अमीर-अल-सबाह के तहत थोड़ी बहुत लोकतांत्रिक व्यवस्था है, वह भी राजनैतिक उथल-पुथल की चपेट में है, उसके परिणामस्वरूप मंत्रीमंडल ने त्यागपत्र दे दिया है।

अमरीका फ्रांस-ब्रिटेन की तिकड़ी को उम्मीद थी कि एक सप्ताह में लीबिया को ‘जीत‘ लेंगे। फ्रांस ने साफ कर दिया था कि गद्दाफी के बाद वह कब्जावर फौजों का नेतृत्व करेगा, पर अमरीका नाटो मुख्यालय को थोपना चाहता था। इससे पश्चिम के सहयोगियों में दरार पैदा हो गयी है।

फ्रांस, जो परमाणु ऊर्जा पर निर्भर है और उसके पास ‘न कोयला है, न तेल है, अतः कोई विकल्प नहीं‘ उसकी निगाह लीबिया के तेल क्षेत्रों पर थी। लीबिया के जिस क्षेत्र में 64.4 बिलियन बैरल तेल का रिजर्व है, वहां उस कबीले के लोग रहते हैं जिससे गद्दाफी हैं। इसके अलावा, लीबिया में 55 ट्रिलियन घन फिट प्राकृतिक गैस का रिजर्व है। लीबिया प्रतिदिन 1.8 मिलियन बैरल तेल का उत्पादन करता है जो विश्व के कुल उत्पादन का दो प्रतिशत है। लीबिया प्रति वर्ष एक हजार बिलियन घन फिट से

अधिक गैस का उत्पादन करता है। लीबिया के तेल रिजर्व का 80 प्रतिशत हिस्सा सिरते नदी घाटी के उस इलाके में है जो गद्दाफी कबीले का गढ़ है और शासक परिवार के साथ मजबूती से टिका है।

लीबिया में युद्ध लम्बा खिंचने और ईराक के रास्ते पर जाने की संभावना के चलते अमरीका को इस जोखिम में अपनी हिस्सेदारी को जारी रखना मुश्किल पड़ रहा है। अमरीका शुरू में चाहता था कि गद्दाफी के हटने के बाद की सरकार नाटो की देखरेख में चले पर अब वह उस विचार को छोड़ कर इसे यूरोपीय संघ के हवाले करने के लिए सोच रहा है। मालूम नहीं अमरीका की योजना अंत में कामयाब होती है या कोई अन्य समझौते जैसी कोई बात होगी। लगता है गद्दाफी के दो बेटों के साथ किसी समझौते पर पहुंचने जैसी बातें हो रही हैं। गद्दाफी के दो छोटे बेटे किसी भी तरह के समझौते के विरूद्ध हैं। आगामी सप्ताहों में चित्र साफ तरह से सामने आयेगा। बहरहाल, गद्दाफी से पार पाना बहुत कठिन हो रहा है।

अमरीका का असली सिरदर्द यमन है जहां उसके कठपुतली शासक सालेह का उसकी भरोसेमंद सेना और अपने कबीले ने भी साथ छोड़ दिया है। अभी तक अमरीकी सरकार इस घृणापात्र राष्ट्रपति को बचाती रही है जो पिछले 32 वर्ष से अपने कठोर तरीकों से ‘एकताबद्ध‘ यमन पर शासन करता आया है। अमरीका उसे अलकायदा के विरूद्ध अपने संघर्ष में अपने सबसे विश्वसनीय सहयोगी के रूप में मानता आया है। यमन में जनवरी से जनविद्रोह चल रहा है और वहां के घटनाक्रम पर अमरीका अभी तक चुप्पी रखे हुए था। यमन के मामले में अमरीका उलझन में है।

यमन के एकीकरण से पहले दक्षिण यमन के रेडिकल शासकों ने, जिनका मुख्यालय अदन में और सऊदी अरब की सीमा के पास था, सऊदी भूक्षेत्र पर अपना दावा किया था। 30 वर्ष पहले तथाकथित रक्तरंजित ‘एकीकरण के बाद अली अब्दुल्ला सालेह को एक अमरीकी कठपुतली की तरह वहां शासक बनाया गया। सालेह को खुश रखने के लिए सऊदी अरब हर वर्ष उसको पैसा देता रहा। यमन में वर्तमान विद्रोह के दो विकल्प है, जो रेडिकल नेतृत्व विद्रोह की अगुवाई कर रहा है उसके हाथ में सत्ता को आने दिया जाये या फिर देश को उत्तर और दक्षिण में बांट दिया जाये। दोनों ही हालतों में सऊदी अरब के लिए खतरा पैदा होगा जिसके लिए अमरीका तैयार नहीं हो सकता। दुनिया के इस क्षेत्र में अमरीकी ताकत का मुख्य ठिकाना सऊदी अरब है। अतः अमरीका के सामने दुविधा है। अन्य खतरा है समूचे अरब जगत में बढ़ती अमरीका विरोधी भावनाएं। यदि रक्तरंजित विद्रोह में अली अब्दुल्ला सालेह सत्ता से उखाड़ फेंका जाता है तो उससे बहरीन-कतर, ओमन और सऊदी अरब समेत खाड़ी के सभी देशों में अमरीका विरोधी भावनाएं मजबूत होंगी। बहरीन अमरीका के 5वें बेडे का मेजबान है तो अमरीका की सेंट्रल कमान्ड ओमन में स्थित है। दोनों ही उथल-पुथल के शिकार हैं। यमन के जनविद्रोह की सफलता से न केवल खाड़ी के अन्य देशों में ऐसे आंदोलन को बढ़ावा मिलेगा बल्कि वे आंदोलन वास्तविक रूप में अमरीका विरोधी आंदोलनों में बदल जायेंगे।

यही कारण है कि ओबामा सरकार इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि अब्दुला सालेह को हटना पड़ेगा। पर उसकी जगह कौन लेगा? अमरीका ने इसके लिए दमन के गवर्नर को, जो विद्रोही कतारों में शामिल हो चुके हैं, खींचना चाहा पर सऊदी अरब उन पर भरोसा करने को तैयार नहीं। एक अन्य चिन्ता यह है कि कई कबीलाई चीफों के बीच झगड़े हो सकते हैं।

पश्चिम की कुछ गुप्तचर एजेंसियों के अनुसार अब अमरीकी सरकार अपने लम्बे अरसे से दुश्मन अलकायदा, जिसको कबीला-चीफों का काफी समर्थन हासिल है, के साथ कुछ समझौते की संभावनाओं पर गौर कर रहा है। इस समय वह यमन में सबसे अधिक संगठित ताकत है।

मिस्र में 1952 में जब नासिर ने राजा फारूक और नेशनलिस्ट पार्टी (होस्नी मुबारक की पार्टी) का तख्ता पलट कर सत्ता हासिल की थी तब ही से मुस्लिम ब्रदर हुड पर प्रतिबंध रहा है। उल्लेखनीय है कि अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने अपनी हाल की काहिरा यात्रा के दौरान धार्मिक कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदर हुड से कुछ सौदा किया। रिपोर्ट है कि दो पूर्व-शत्रु सितम्बर 2011 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को आपस में मिलकर लड़ेंगे। इसी तरह का कोई सौदा यमन में भी हो जाये इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

अमरीका इस तरह की कलाबाजियों से बहरीन, ओमन और कतर में जहां पहले ही भारी उथल-पुथल चल रही है- अपने कठपुतली शासकों को बचाना चाहता है। यमन के घटनाक्रम से सऊदी अरब को भारी नुकसान पहुंचेगा।

लगभग सभी अरब देशों में राजनैतिक सुधारों के लिए बड़े-बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। बहरीन में अस्तव्यस्त राजधानी शहर समेत शिया बहुल शहरों और कस्बों में प्रदर्शन हुए हैं। बहरीन की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी-वेफाक के प्रवक्ता मत्तर इब्राहिम मत्तर के अनुसार सैकड़ों प्रदर्शनकारी गिरतार किये गये हैं, दर्जनों गायब हैं। देश में तैनात सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की सेनाओं ने अस्पतालों और उन सभी सरकारी संस्थानों को निशाना बनाया है जिन पर आंदोलनकारियों ने कब्जा कर रखा है।

पहली अप्रैल को मस्कट के उत्तर में बदंरगाह शहर सोहर में राजनैतिक कैदियों की रिहाई और राजनैतिक सुधारों की मांग करते आंदोलनकारियों को तितर-बितर करने के लिए ओमन की पुलिस ने गोलियां चलायी, जिसमें एक प्रदर्शनकारी मारा गया। सोहर में कई सप्ताह से धरने-प्रदर्शन हो रहे थे। प्रदर्शनकारी सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों को हड़ताल के लिए और धरने पर बैठने के लिए मनाने में कामयाब रहे। 5 अप्रैल को सोहर में एक महीने से चल रहे प्रदर्शन और धरने पर ओमन की सेना ने हमला किया और प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया। शासकों ने लोगों के बीच कुछ अफवाहे फैला कर और शिया और सुन्नी का नाम लेकर फूट डालने की कोशिश की पर उनकी कोशिश कामयाब नहीं हो सकी।

जोर्डन में भी पहली अप्रैल जुम्मे के दिन को व्यापक प्रदर्शन हुए। जोर्डन के लोग जुम्मे के दिन राजनीतिक सुधारों की मांग के लिए प्रदर्शन करते हैं। यह इस तरह के प्रदर्शनों के सिलसिले में 15वां जुम्मा था। राजधानी अम्मान में छात्र-युवा, फेसबुक कार्यकर्ता और इस्लामिस्ट-सब मिलकर नारा लगा रहे थे, ‘सुधार करो, हम नया प्रधानमंत्री चुनना चाहते हैं।‘ पुलिस ने गोली चलाई, एक प्रदर्शनकारी मारा गया, लगभग 120 जख्मी हुए। लोग चाहते हैं राजा अब्दुल्ला-2 अपनी निरंकुश शक्तियों को छोड़े और नये चुनाव किये जायें।

संयोग से पहली अप्रैल को काहिरा के तहरीर चौक में भी हजारों लोग भ्रष्ट अधिकारियों को हटाने की मांग करते हुए फिर जमा हुए। उनका मत था कि मुबारक के रक्षामंत्री की अध्यक्षता में सुप्रीम आर्म्ड कौंसिल उनकी क्रांति को बरबाद कर रही है, वह भ्रष्ट अधिकारियों का न केवल बचाव कर रही है बल्कि मुस्लिम ब्रदरहुड जैसी ताकतों और अन्य कट्टर धार्मिकपंथी संगठनों को संरक्षण दे रही है। तहरीर चौक पर एक बैनर था, वैधता तहरीक चौक से मिलती है। परिवर्तन का अर्थ है परिवर्तन‘ एक अन्य बैनर था- ”उफ! कौंसिल संदेश अभी नहीं आया है, हम ऐसा संविधान चाहते है जिस पर हमें भरोसा हो।“ भूमध्य सागर के तट पर मिस्र के दूसरे सबसे बड़े शहर एलेक्जेंडरिया में भी हजारों लोग मुख्य चौक पर जमा हुए। इसी तरह के नारे लगाते हुए हजारों लोग स्वेज और महल्ला-अल-कुबरा शहरों में भी सड़कों पर उतर पड़े।

पहली अप्रैल को सबसे

अधिक उल्लेखनीय विरोध-प्रदर्शन सऊदी अरब में हुआ। संघर्षरत बहरीन के अपने भाईयों के समर्थन में और स्वयं सऊदी अरब में निरंकुश शासन के खात्मे की मांग करते हुए सैंकड़ों शांतिपूर्ण शियाओं ने राजशाही के पूर्व तेल क्षेत्र में प्रदर्शन किया। जुम्मे की नमाज के तुरन्त बाद प्रदर्शनकारी कातिफ के पास एक गांव अवामिया में जमा हुए। आंदोलनकारियों ने निरंकुश सुन्नी बादशाहत द्वारा शियाओं के विरूद्ध भेदभाव को खत्म करने की मांग की। उन्होंने नारे लगाये जिनमें ”तेल एवं बेरोजगारी, इंसाफ क्या है?“ ”बहरीन से फौज वापस बुलाओ“, ”बहरीन के लोगों को अपनी नियति तय करने दो“ जैसे नारे लगाये गये। संयोग से साझा मांगों में एक है महिलाओं का सशक्तीकरण। संभवतः कुवैत के अलावा, जहांॅ पांॅच वर्ष पहले महिलाओं को मताधिकार दिया गया और जहांॅ अब उनका संसद और कैबिनेट में प्रतिनिधित्व है, अधिकांश अरब देशों में महिलाएं इन अधिकारों से वंचित है। सऊदी अरब में जून में स्थानीय निकायों में आंशिक चुनाव होने वाले हैं। आधे सदस्य चुने जायेंगे और आधों के लिए राजा मनोनयन करेगा। इन चुनावों में भी महिलाओं को मताधिकार नहीं दिया गया है।

कुवैत में शासक परिवार के विरूद्ध यद्यपि अभी तक खुले प्रदर्शन तो नहीं हुए हैं पर असंतोष की आग सुलग रही है। जब संसद सदस्यों ने प्रधानमंत्री समेत मंत्रियों पर सवाल दागे तो केबिनेट ने त्यागपत्र दे दिया। इनमें से

अधिकांश मंत्री शासक अल-सबहा परिवार के हैं। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों के अलावा सरकार पर पड़ोसी देश बहरीन में लोकप्रिय विद्रोह के मुद्दे पर हिचकिचाहट के आरोप लगे हैं। कुवैत गल्फ कोआपरेशन कौसिल का सदस्य है। इस कौंसिल के दो सदस्य देशों-सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने बहरीन में अपनी फौजें भेजी हैं पर कुवैत ने नहीं। इसके बजाय उसने वहां एक मेडिकल मिशन भेजा जिसे वहां प्रवेश नहीं दिया गया क्योंकि उस मिशन के कुछ सदस्य उस शिया सम्प्रदाय के थे जिसका सुन्नी शाही परिवार द्वारा शासित बहरीन में बहुमत है।

अरब संचार माध्यम में इन जनविद्रोहों को शिया शासित ईरान द्वारा उकसाये गये विद्रोहों के रूप में पेश करने की एक कोशिश चल रही है। कुवैत में एक अदालत ने ईरान के लिए जासूसी के आरोप में सेना के तीन कर्मचारियों को मौत की सजा दे दी है हालांकि ईरान की सरकार ने जासूनी की बात से मजबूती के साथ इंकार किया है। अदालत के इस फैसले के आधार पर कुवैत के संचार

माध्यमों के एक हिस्से ने एक जबर्दस्त शिया विरोधी अभियान छेड़ दिया है। उनके मुख्य निशाने पर हैं लेबनान का हजबोल्ला और हमास जिसका गाजा पट्टी पर शासन है। संयोग से ये दोनों इस्राइल के सबसे पक्के विरोधी है। उन पर खाड़ी के लगभग सभी देशों में सरकार विरोधी आंदोलन भड़काने के आरोप लगाये जा रहे हैं। वही संचार माध्यम सीरिया में बशर अल असद सरकार के विरूद्ध विरोध प्रदर्शनों को जनता के विद्रोह के रूप में पेश कर रहे हैं। यद्यपि वह आंदोलन दमिश्क के दक्षिण में केवल एक शहर तक सीमित है।

अरब संचार माध्यमों पर विश्वास करें तो खाड़ी क्षेत्र और उत्तरी अफ्रीका समेत समूचे अरब जगत में जबर्दस्त कन्फयूजन चल रहा है, हर कोई घटनाक्रम की अपने तरीके से व्याख्या कर रहा है।

- शमीम फै़जी


1 comment:

vijai Rajbali Mathur said...

आपके विवरण से ज्ञात हुआ -अरब देशों में अमरीका विरोधी वातावरण चल रहा है ,यह तो अच्छी सूचना है अमेरिका को अपनी करनी का फल भुगतना ही चाहिए.