कौंसिल ऑफ सोशल डेवलपमेंट ने 8-9 अगस्त, 2012 को दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल संेटर में एक सेमिनार का आयोजन किया जिसका विषय था: ‘‘ भारतीय वामपंथ: दृष्टि और चुनौतियां’’। सेमिनार की अध्यक्षता विख्यात इतिहासकार रोमिला थापर ने की। सेमिनार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एस. सुधाकर रेड्डी ने भाषण दिया, जिसे नीचे दिया जा रहा है:
"देश आज एक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक संकट-का सामना कर रहा है। यह एक बड़ी चुनौती है।
सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण से अभूतपूर्व चुनौतियां एवं सामाजिक जीवन में समस्याएं पैदा हुई हैं। अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से बदल रही है। बुनियादी ढांचा, शहरीकरण, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी आदि में यह बात नजर आती है। दो दशकों में देश में उदारीकरण, भूमंडलीकरण की जिन नीतियों पर अमल चल रहा है उससे पूंजीवाद की वृद्धि तेज हो गयी है और वह कारपोरेट पंूजीवाद के नये दौर में दाखिल है जो असल में जीहजूरिया पूंजीवाद का एक रूप है।
इन आर्थिक बदलावों के बावजूद समाज की सामंती सोच-समझ कमोबेशी पहले जैसे ही है। खाप पंचायतें सामने आ रही हैं जो प्रेम विवाह और मोबाइल फोन पर प्रतिबंध लगा रही हैं ओर यहंा तक कि सजा के रूप में मृत्यु दंड तक सुना रही हैं। लिंग भेद चल रहा है जिससे सेक्स अनुपात में अनुचित असंतुलन पैदा हो गया है। आज भी देश में अस्पृश्यता जारी है और दलितों पर शारीरिक हमले भी हो रहे हैं। धार्मिक कट्टरता, और जाति पहचान के संघर्ष धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और समाज के लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। इनके विरुद्ध संघर्ष किया जाना है।
शासक वर्गों द्वारा अनुचित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण चन्द लोगों के हाथ में धन-दौलत का जबर्दस्त केन्द्रीकरण हुआ है और अमीर और गरीब के बीच फासला बढ़ा है। इससे हमारे आम लोगों के बीच अभूतपूर्व गरीबी ओर कंगाली पैदा हुई है।
पिछले दो दशकों के दौरान वामपंथी राजनीति और विचारधारा को काफी झटका लगा है। मैं राज्य विधान सभाओं और संसद में चुनावी विफलताओं के संबंध में बात नहीं कह रहा हूं। मैं समाज के दबे कुचले तबकों के बीच वामपंथ और कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रभाव में क्षरण की बात कर रहा हूं। परन्तु गरीबों एवं शोषित तबकों के हिमायती के रूप में वामपंथ की छवि आज भी कमोबेश आम जनता के बीच बरकरार है। हमें इस छवि के आधार पर अपने ठोस आधारों को फिर से बनाना है।
वामपंथ की दृष्टि एवं नीतियां सुस्पष्ट रहनी चाहिए। अनेक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर वामपंथ की सुस्पष्ट समझ है। पर उन राज्यों में, जहां वामपंथ शासन कर रहा था और जहाँ सत्ता के दृश्यमान अहंकार और वामपंथ के नेतृत्व में सरकारों के कामकाज में पारदर्शिता के अभाव के कारण जनता के कुछ तबके वामपंथ से बेगाने हो गये, इन नीतियों पर अमल एक समस्या बन गया था। इससे कन्फ्यूजन पैदा हुआ और एक गलत छवि बनी कि वामपंथ और अन्य पूंजीवादी पार्टियों के बीच कोई बहुत फर्क नहीं है।
वर्तमान ढांचे में राज्य सरकारें विस्तारित जिला परिषदों के अलावा और कुछ नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था और संविधान के अंतर्गत अपनी नीतियों पर अमल करने की बहुत कम गुंजाइश रहती है।
औद्योगिकीकरण एक आवश्यकता है अतः वामपंथ शासित राज्यों को भूमि अधिग्रहण के काम को अन्य राज्यों से अलग तरीके से करना होगा। किसानों को जमीन के बदले जमीन के अलावा अधिक बड़े पैकेज और मुआवजे की पेशकश की जानी चाहिए और उन्हें अधिग्रहण की आवश्यकता के बारे में संतुष्ट किया जाना चाहिए। आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया और अधिक उदार, मानवीय एवं तर्कसंगत रहना चाहिए। कम्युनिस्टों को नौकरशाही एवं नियमों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जहां कहीं जरूरी हो नियमों को जनता के पक्ष में बदलना होगा। तब ही जाकर कम्युनिस्ट अन्य पार्टियों और सरकारों के लिए मॉडल बनेंगे।
आत्म आलोचना की यह टिप्पणियां करने के बाद मैं कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों को रेखांकित करने की कोशिश करूंगा जिनके संबंध में जनता को एक सुस्पष्ट दृष्टि पेश करने के लिए वामपंथ को अपना ध्यान केन्द्रित करना है। सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर और जनता को और अधिक विस्तार से समझाने की जरूरत है और नवउदारवाद के विनाशकारी रास्ते के एक विकल्प के रूप में एक सुस्पष्ट सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम तैयार करने की जरूरत है।
अर्थव्यवस्था में हमें कारपोरेट घरानों और उनके लालच पर लगाम लगाने की जरूरत है। यह सबसे बड़ी चुनौती होगी। आज के दौर में वामपंथ को अंधाधुंध राष्ट्रीयकरण की मांग करने की जरूरत नहीं है। परन्तु निश्चय ही ऊर्जा, गैस, खान, खदानें और खनिज पदार्थ और ऐसे ही अन्य प्राकृतिक एवं राष्ट्रीय संसाधन सार्वजनिक क्षेत्र के पूरे नियंत्रण में रहने चाहिए।
कारपोरेटों को दी गयी सभी सियायतों को वापस किया जाना चाहिए और टैक्सेशन की ग्रेडिड व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। धन-दौलत के केन्द्रीयकरण की एक हद से आगे इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
खाद्यान्नों और अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं के वितरण के लिए सार्वभौम जन वितरण प्रणाली होनी चाहिए। सबसे अधिक और सबसे कम वेतन के बीच छह गुने से अधिक का फर्क नहीं होना चाहिए। न्यूनतम वेतन और पेंशन को जरूरत के अनुसार हर तीन साल बाद संशोधित किया जाना चाहिए। देश के लोगों के ठीक-ठाक रहन सहन के लिए मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध किया जाना चाहिए। सार्थक भूमि सुधारों को लागू किया जाना चाहिए, उन पर सही अमल होना चाहिए।
केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्निरीक्षण होना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में नये राज्यों और क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए जनता की आकांक्षाओं को स्वीकार करना चाहिए। सरकारिया कमीशन की सिफारिशों पर संसद में बहस की जानी चाहिए और उन पर अमल किया जाना चाहिए। केन्द्र के पास सत्ता का केन्द्रीकरण है और उसने अधिकार के नये क्षेत्रों में भी आर्थिक एवं राजनैतिक शक्तियां हासिल कर ली है, इन्हें वापस किया जाना चाहिए। सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून (अफस्पा), सीमा सुरक्षा बल और एनसीसीटी आदि को दी गई विस्तारित शक्तियों आदि को वापस किया जाना चाहिए।
वित्त को राज्यों के बीच तर्कसंगत तरीके से बांटा जाना चाहिए ताकि वे केन्द्र के रहमोकरम पर ना रहें। एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी कानून पारित किया जाना चाहिए और साथ ही सीबीआई और उस जैसी अन्य संस्थाएं स्वतंत्र रहनी चाहिए।
लिंग, जाति और धार्मिक भेदभाव खत्म किया जाना चाहिए। योजना का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि नहीं बल्कि मानव विकास होना चाहिए।
देश का संघात्मक ढांचे और समाज की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति-जिसमें सभी को समान अधिकार मिले और खासतौर पर समाज के सबसे अधिक शोषित एवं दबे कुचले लोगों के अधिकारों की रक्षा की जाये-की जानी चाहिए ताकि भारत की अखंडता बनी रहे।
दृष्टि साफ है पर इस पर अमल कैसे किया जाए, उसे हासिल कैसे किया जाये? वामपंथ को इन नीतियों का प्रचार करना है और इन मुद्दों पर जनता को लामबंद करना है। अपने संघर्षों के जरिये वामपंथ को जनता की चेतना को जगाना चाहिए, वह समाज के रूपांतरण का अंतिम लक्ष्य है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पटना में अपनी पिछली कांग्रेस (21वीं कांग्रेस) में जमीन, आवास स्थल, स्वच्छ पेयजल, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अधिकार जैसे मुद्दों के साथ विशेष आर्थिक क्षेत्र, उद्योग, खान आदि के नाम पर किसानों से उसकी जमीन को जबरन छीेने जाने जैसे मुद्दों की पहचान की है।
वामपंथ को नीचे संघर्षों को संगठित करना होगा और साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण, एफडीआई, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर भी संघर्ष छेड़ने होंगे। वामपंथ की टेªड यूनियनों, इंटक और भारतीय मजदूर संघ द्वारा मिलकर मजदूर वर्ग विभिन्न मुद्दों पर हाल में जो संघर्ष चलाये गये वह एक बड़ी छलांग है। इस संदर्भ में किसान, खेत मजदूर, महिला, युवा और छात्रों को भी ठोस एवं सुस्पष्ट सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष छेड़ने के लिए अपने-अपने क्षेत्र में इस तरह के व्यापक मंच बनाने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए।
जनता को लम्बे अरसे तक चलने वाले संघर्षों के लिए तैयार किया जा सकता है। उड़ीसा में कोरिया की कम्पनी पोस्को के विरुद्ध संघर्ष जनता के इस तरह के दृढ़संकल्प का एक ज्वलंत उदारहण है। कोरिया की इस बहुराष्ट्रीय निगम के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए जनता से जमीन छीनने की कोशिश के विरुद्ध उड़ीसा के गरीब लोग कई सालों से लगातार संघर्ष कर रहे हैं। देश में कई संघर्ष चल रहे हैं, कुछ एक साथ मिलकर और कुछ स्वतंत्र रूप से। परमाणु प्लांट के विस्तार के विरुद्ध कुडमकुलम में एक वर्ष से चल रहा संघर्ष और परमाणु प्लाटं के ही विरुद्ध जैतापुर में चल रहा संघर्ष-ये ऐसे संघर्ष हैं जो बहुत लम्बे अरसे से चल रहे हैं और जो जापान में परमाणु बिजली घर में विभीषिका के बाद देश में इस खतरे के संबंध में सभी का ध्यान आकर्षित कर सके। अब इन संघर्षों का महत्व और भी बढ़ गया है। वन अधिकारों के मुद्दे पर विभिन्न राज्यों में आदिवासियों और किसानों के संघर्ष चल रहे है।। किसानों के सामने उर्वरक, बिजली ओर उनके उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे मुद्दे संघर्ष के लिए सामने हैं। दलित अपने आत्मसम्मान और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम राजनीतिक भावुकतावाद को छोड़ रहे हैं और वास्तविक सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं।
जनता की बुनियादी समस्याओं पर सरकार की संवदेनशीलता से जनता में बहुत आक्रोश है। कभी-कभी जनता के संघर्ष स्वतःस्फूर्त फैलते चले जाते हैं तो कभी-कभी मारुति जैसे जुझारू आंदोलन भी हो जाते हैं। मारुति में ठेका मजदूरों को प्रबंधन द्वारा शोषण, प्रबंधन का ट्रेड यूनियन विरोधी रुख जैसे बातों ने मजदूरों को जुझारू होकर लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। पुडुचेरी में रीजेंसी फैक्ट्री के मजदूरों का संघर्ष भी इसी तरह का था। प्रबंधक देश के कानूनों, खासकर श्रम कानूनों पर अमल करने को तैयार नहीं है। वे इन कानूनों को अपने पक्ष में बदलने की मांग कर रहे हैं। इस तरह के संघर्ष सरकार की नीतियों के विरुद्ध जनता के विभिन्न तबकों के आक्रोश एवं दृढ़ संकल्प को अभिव्यक्त करते हैं। वामपंथ को इन तमाम तबकों को लामबंद करने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए और इस तरह का वातावरण उनके बीच बनाने के लिए उन्हें लामबंद करना चाहिए कि उनमें ये विश्वास पैदा हो कि वे सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध कर सकते हैं और उन्हें उलट कर सकते हैं। इस किस्म के संघर्ष आम जनता के राजनीतिकरण की दिशा में ले जाते हैं।
सरकार के ऊपर कारपोरेटरों और बहुराष्ट्रीय निगमों का दबाव बढ़ रहा है। सरकार सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर में तेजी लाने के नाम पर उनकी मांगों को मानने के लिए तत्पर हैं। देश के कई राज्यों में सूखे की स्थिति है और इस हालत में भी कारपारेटों की लूट का हमला तेज हो रहा है। ऐसे में हमारे करोड़ों लोगों के लिए जीना दूभर हो जायेगा।
मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा की साख भ्रष्टाचार के कारण खत्म हो गयी है और वह जनता के मुद्दों पर आंदोलन करने में नाकामयाब है। ऐसे में वह एक बार फिर हिन्दुत्व का पत्ता खेलने की कोशिश कर सकती है।
जनता के आंदोलन एवं संघर्षों को सही राह देकर उन्हें कारगर बनाना होगा। ये संघर्ष वर्ग संघर्षों के लिए पथ प्रशस्त करेंगे। बहुत संभव है कि ऐसे आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकार दमन का सहारा लेगी।
वामपंथ में इस तरह के संघर्ष करने की क्षमता है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। वामपंथ का देश भर में एक समान असर नहीं है। परन्तु मुद्दों के आधार पर कहीं छोटे कहीं बड़े स्तर पर आंदोलन करना सम्भव है। यह वामपंथ की एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है और यदि वामपंथ जनता के मुद्दों पर व्यापक, विशाल और जुझारू संघर्ष चलाने में कामयाब हो जाये तो अन्य धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतें भी उसमें शामिल होने को मजबूर हो जायेंगी।
वामपंथ को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसका लक्ष्य समाज का आमूलचूल रूपांतरण करना है। उसे निरंतर वर्ग संघर्षों के जरिये ही हासिल किया जा सकता है। वह एक क्रांतिकारी कार्यदायित्व है। वामपंथ को इसे अपने हाथ में लेना है। यही चीज हमारी दृष्टि और जिस लक्ष्य को हासिल करना है उसे निर्धारित करती है।"
"देश आज एक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक संकट-का सामना कर रहा है। यह एक बड़ी चुनौती है।
सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण से अभूतपूर्व चुनौतियां एवं सामाजिक जीवन में समस्याएं पैदा हुई हैं। अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से बदल रही है। बुनियादी ढांचा, शहरीकरण, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी आदि में यह बात नजर आती है। दो दशकों में देश में उदारीकरण, भूमंडलीकरण की जिन नीतियों पर अमल चल रहा है उससे पूंजीवाद की वृद्धि तेज हो गयी है और वह कारपोरेट पंूजीवाद के नये दौर में दाखिल है जो असल में जीहजूरिया पूंजीवाद का एक रूप है।
इन आर्थिक बदलावों के बावजूद समाज की सामंती सोच-समझ कमोबेशी पहले जैसे ही है। खाप पंचायतें सामने आ रही हैं जो प्रेम विवाह और मोबाइल फोन पर प्रतिबंध लगा रही हैं ओर यहंा तक कि सजा के रूप में मृत्यु दंड तक सुना रही हैं। लिंग भेद चल रहा है जिससे सेक्स अनुपात में अनुचित असंतुलन पैदा हो गया है। आज भी देश में अस्पृश्यता जारी है और दलितों पर शारीरिक हमले भी हो रहे हैं। धार्मिक कट्टरता, और जाति पहचान के संघर्ष धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और समाज के लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। इनके विरुद्ध संघर्ष किया जाना है।
शासक वर्गों द्वारा अनुचित नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण चन्द लोगों के हाथ में धन-दौलत का जबर्दस्त केन्द्रीकरण हुआ है और अमीर और गरीब के बीच फासला बढ़ा है। इससे हमारे आम लोगों के बीच अभूतपूर्व गरीबी ओर कंगाली पैदा हुई है।
पिछले दो दशकों के दौरान वामपंथी राजनीति और विचारधारा को काफी झटका लगा है। मैं राज्य विधान सभाओं और संसद में चुनावी विफलताओं के संबंध में बात नहीं कह रहा हूं। मैं समाज के दबे कुचले तबकों के बीच वामपंथ और कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रभाव में क्षरण की बात कर रहा हूं। परन्तु गरीबों एवं शोषित तबकों के हिमायती के रूप में वामपंथ की छवि आज भी कमोबेश आम जनता के बीच बरकरार है। हमें इस छवि के आधार पर अपने ठोस आधारों को फिर से बनाना है।
वामपंथ की दृष्टि एवं नीतियां सुस्पष्ट रहनी चाहिए। अनेक सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर वामपंथ की सुस्पष्ट समझ है। पर उन राज्यों में, जहां वामपंथ शासन कर रहा था और जहाँ सत्ता के दृश्यमान अहंकार और वामपंथ के नेतृत्व में सरकारों के कामकाज में पारदर्शिता के अभाव के कारण जनता के कुछ तबके वामपंथ से बेगाने हो गये, इन नीतियों पर अमल एक समस्या बन गया था। इससे कन्फ्यूजन पैदा हुआ और एक गलत छवि बनी कि वामपंथ और अन्य पूंजीवादी पार्टियों के बीच कोई बहुत फर्क नहीं है।
वर्तमान ढांचे में राज्य सरकारें विस्तारित जिला परिषदों के अलावा और कुछ नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था और संविधान के अंतर्गत अपनी नीतियों पर अमल करने की बहुत कम गुंजाइश रहती है।
औद्योगिकीकरण एक आवश्यकता है अतः वामपंथ शासित राज्यों को भूमि अधिग्रहण के काम को अन्य राज्यों से अलग तरीके से करना होगा। किसानों को जमीन के बदले जमीन के अलावा अधिक बड़े पैकेज और मुआवजे की पेशकश की जानी चाहिए और उन्हें अधिग्रहण की आवश्यकता के बारे में संतुष्ट किया जाना चाहिए। आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों के प्रति रवैया और अधिक उदार, मानवीय एवं तर्कसंगत रहना चाहिए। कम्युनिस्टों को नौकरशाही एवं नियमों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जहां कहीं जरूरी हो नियमों को जनता के पक्ष में बदलना होगा। तब ही जाकर कम्युनिस्ट अन्य पार्टियों और सरकारों के लिए मॉडल बनेंगे।
आत्म आलोचना की यह टिप्पणियां करने के बाद मैं कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों को रेखांकित करने की कोशिश करूंगा जिनके संबंध में जनता को एक सुस्पष्ट दृष्टि पेश करने के लिए वामपंथ को अपना ध्यान केन्द्रित करना है। सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर और जनता को और अधिक विस्तार से समझाने की जरूरत है और नवउदारवाद के विनाशकारी रास्ते के एक विकल्प के रूप में एक सुस्पष्ट सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम तैयार करने की जरूरत है।
अर्थव्यवस्था में हमें कारपोरेट घरानों और उनके लालच पर लगाम लगाने की जरूरत है। यह सबसे बड़ी चुनौती होगी। आज के दौर में वामपंथ को अंधाधुंध राष्ट्रीयकरण की मांग करने की जरूरत नहीं है। परन्तु निश्चय ही ऊर्जा, गैस, खान, खदानें और खनिज पदार्थ और ऐसे ही अन्य प्राकृतिक एवं राष्ट्रीय संसाधन सार्वजनिक क्षेत्र के पूरे नियंत्रण में रहने चाहिए।
कारपोरेटों को दी गयी सभी सियायतों को वापस किया जाना चाहिए और टैक्सेशन की ग्रेडिड व्यवस्था लागू की जानी चाहिए। धन-दौलत के केन्द्रीयकरण की एक हद से आगे इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।
खाद्यान्नों और अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं के वितरण के लिए सार्वभौम जन वितरण प्रणाली होनी चाहिए। सबसे अधिक और सबसे कम वेतन के बीच छह गुने से अधिक का फर्क नहीं होना चाहिए। न्यूनतम वेतन और पेंशन को जरूरत के अनुसार हर तीन साल बाद संशोधित किया जाना चाहिए। देश के लोगों के ठीक-ठाक रहन सहन के लिए मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल उपलब्ध किया जाना चाहिए। सार्थक भूमि सुधारों को लागू किया जाना चाहिए, उन पर सही अमल होना चाहिए।
केन्द्र-राज्य संबंधों का पुनर्निरीक्षण होना चाहिए। कुछ क्षेत्रों में नये राज्यों और क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए जनता की आकांक्षाओं को स्वीकार करना चाहिए। सरकारिया कमीशन की सिफारिशों पर संसद में बहस की जानी चाहिए और उन पर अमल किया जाना चाहिए। केन्द्र के पास सत्ता का केन्द्रीकरण है और उसने अधिकार के नये क्षेत्रों में भी आर्थिक एवं राजनैतिक शक्तियां हासिल कर ली है, इन्हें वापस किया जाना चाहिए। सशस्त्र बल विशेष शक्ति कानून (अफस्पा), सीमा सुरक्षा बल और एनसीसीटी आदि को दी गई विस्तारित शक्तियों आदि को वापस किया जाना चाहिए।
वित्त को राज्यों के बीच तर्कसंगत तरीके से बांटा जाना चाहिए ताकि वे केन्द्र के रहमोकरम पर ना रहें। एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी कानून पारित किया जाना चाहिए और साथ ही सीबीआई और उस जैसी अन्य संस्थाएं स्वतंत्र रहनी चाहिए।
लिंग, जाति और धार्मिक भेदभाव खत्म किया जाना चाहिए। योजना का लक्ष्य सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि नहीं बल्कि मानव विकास होना चाहिए।
देश का संघात्मक ढांचे और समाज की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति-जिसमें सभी को समान अधिकार मिले और खासतौर पर समाज के सबसे अधिक शोषित एवं दबे कुचले लोगों के अधिकारों की रक्षा की जाये-की जानी चाहिए ताकि भारत की अखंडता बनी रहे।
दृष्टि साफ है पर इस पर अमल कैसे किया जाए, उसे हासिल कैसे किया जाये? वामपंथ को इन नीतियों का प्रचार करना है और इन मुद्दों पर जनता को लामबंद करना है। अपने संघर्षों के जरिये वामपंथ को जनता की चेतना को जगाना चाहिए, वह समाज के रूपांतरण का अंतिम लक्ष्य है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पटना में अपनी पिछली कांग्रेस (21वीं कांग्रेस) में जमीन, आवास स्थल, स्वच्छ पेयजल, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अधिकार जैसे मुद्दों के साथ विशेष आर्थिक क्षेत्र, उद्योग, खान आदि के नाम पर किसानों से उसकी जमीन को जबरन छीेने जाने जैसे मुद्दों की पहचान की है।
वामपंथ को नीचे संघर्षों को संगठित करना होगा और साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण, एफडीआई, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर भी संघर्ष छेड़ने होंगे। वामपंथ की टेªड यूनियनों, इंटक और भारतीय मजदूर संघ द्वारा मिलकर मजदूर वर्ग विभिन्न मुद्दों पर हाल में जो संघर्ष चलाये गये वह एक बड़ी छलांग है। इस संदर्भ में किसान, खेत मजदूर, महिला, युवा और छात्रों को भी ठोस एवं सुस्पष्ट सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष छेड़ने के लिए अपने-अपने क्षेत्र में इस तरह के व्यापक मंच बनाने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए।
जनता को लम्बे अरसे तक चलने वाले संघर्षों के लिए तैयार किया जा सकता है। उड़ीसा में कोरिया की कम्पनी पोस्को के विरुद्ध संघर्ष जनता के इस तरह के दृढ़संकल्प का एक ज्वलंत उदारहण है। कोरिया की इस बहुराष्ट्रीय निगम के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए जनता से जमीन छीनने की कोशिश के विरुद्ध उड़ीसा के गरीब लोग कई सालों से लगातार संघर्ष कर रहे हैं। देश में कई संघर्ष चल रहे हैं, कुछ एक साथ मिलकर और कुछ स्वतंत्र रूप से। परमाणु प्लांट के विस्तार के विरुद्ध कुडमकुलम में एक वर्ष से चल रहा संघर्ष और परमाणु प्लाटं के ही विरुद्ध जैतापुर में चल रहा संघर्ष-ये ऐसे संघर्ष हैं जो बहुत लम्बे अरसे से चल रहे हैं और जो जापान में परमाणु बिजली घर में विभीषिका के बाद देश में इस खतरे के संबंध में सभी का ध्यान आकर्षित कर सके। अब इन संघर्षों का महत्व और भी बढ़ गया है। वन अधिकारों के मुद्दे पर विभिन्न राज्यों में आदिवासियों और किसानों के संघर्ष चल रहे है।। किसानों के सामने उर्वरक, बिजली ओर उनके उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसे मुद्दे संघर्ष के लिए सामने हैं। दलित अपने आत्मसम्मान और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम राजनीतिक भावुकतावाद को छोड़ रहे हैं और वास्तविक सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं।
जनता की बुनियादी समस्याओं पर सरकार की संवदेनशीलता से जनता में बहुत आक्रोश है। कभी-कभी जनता के संघर्ष स्वतःस्फूर्त फैलते चले जाते हैं तो कभी-कभी मारुति जैसे जुझारू आंदोलन भी हो जाते हैं। मारुति में ठेका मजदूरों को प्रबंधन द्वारा शोषण, प्रबंधन का ट्रेड यूनियन विरोधी रुख जैसे बातों ने मजदूरों को जुझारू होकर लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। पुडुचेरी में रीजेंसी फैक्ट्री के मजदूरों का संघर्ष भी इसी तरह का था। प्रबंधक देश के कानूनों, खासकर श्रम कानूनों पर अमल करने को तैयार नहीं है। वे इन कानूनों को अपने पक्ष में बदलने की मांग कर रहे हैं। इस तरह के संघर्ष सरकार की नीतियों के विरुद्ध जनता के विभिन्न तबकों के आक्रोश एवं दृढ़ संकल्प को अभिव्यक्त करते हैं। वामपंथ को इन तमाम तबकों को लामबंद करने के लिए पहलकदमी करनी चाहिए और इस तरह का वातावरण उनके बीच बनाने के लिए उन्हें लामबंद करना चाहिए कि उनमें ये विश्वास पैदा हो कि वे सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध कर सकते हैं और उन्हें उलट कर सकते हैं। इस किस्म के संघर्ष आम जनता के राजनीतिकरण की दिशा में ले जाते हैं।
सरकार के ऊपर कारपोरेटरों और बहुराष्ट्रीय निगमों का दबाव बढ़ रहा है। सरकार सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर में तेजी लाने के नाम पर उनकी मांगों को मानने के लिए तत्पर हैं। देश के कई राज्यों में सूखे की स्थिति है और इस हालत में भी कारपारेटों की लूट का हमला तेज हो रहा है। ऐसे में हमारे करोड़ों लोगों के लिए जीना दूभर हो जायेगा।
मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा की साख भ्रष्टाचार के कारण खत्म हो गयी है और वह जनता के मुद्दों पर आंदोलन करने में नाकामयाब है। ऐसे में वह एक बार फिर हिन्दुत्व का पत्ता खेलने की कोशिश कर सकती है।
जनता के आंदोलन एवं संघर्षों को सही राह देकर उन्हें कारगर बनाना होगा। ये संघर्ष वर्ग संघर्षों के लिए पथ प्रशस्त करेंगे। बहुत संभव है कि ऐसे आंदोलनों को कुचलने के लिए सरकार दमन का सहारा लेगी।
वामपंथ में इस तरह के संघर्ष करने की क्षमता है या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। वामपंथ का देश भर में एक समान असर नहीं है। परन्तु मुद्दों के आधार पर कहीं छोटे कहीं बड़े स्तर पर आंदोलन करना सम्भव है। यह वामपंथ की एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है और यदि वामपंथ जनता के मुद्दों पर व्यापक, विशाल और जुझारू संघर्ष चलाने में कामयाब हो जाये तो अन्य धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतें भी उसमें शामिल होने को मजबूर हो जायेंगी।
वामपंथ को कभी नहीं भूलना चाहिए कि उसका लक्ष्य समाज का आमूलचूल रूपांतरण करना है। उसे निरंतर वर्ग संघर्षों के जरिये ही हासिल किया जा सकता है। वह एक क्रांतिकारी कार्यदायित्व है। वामपंथ को इसे अपने हाथ में लेना है। यही चीज हमारी दृष्टि और जिस लक्ष्य को हासिल करना है उसे निर्धारित करती है।"
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