Monday, December 14, 2015
नरेंद्र मोदी और शिंजो आबे की गंगा आरती में भागीदारी राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित.
गत दिनों एक हिदी दैनिक में प्रकाशित इतिहासकार श्री रामचंद्र गुहा के एक लेख का उपसंहार कुछ इस प्रकार हुआ है – भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा है कि “बहुलता और सहिष्णुता का माहौल सतत आर्थिक विकास के लिये अनिवार्य है.” ऐसा नहीं लगता कि प्रधानमंत्री मोदी इस बात से सहमत हैं. वह एक साथ आर्थिक आधुनिकतावादी और सांस्कृतिक प्रतिक्रियावादी, दोनों बने रहना चाहते हैं. यह दो घोडौं की सवारी है, जिनमें से एक आगे जा रहा है और दूसरा पीछे.
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे की यात्रा का संपूर्ण सार उपर्युक्त शब्दों पूरी तरह अभिव्यक्त है. इस यात्रा के मौके पर मोदी ने जापान के साथ जहाँ कई आर्थिक समझौते किये वहीं अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी जाकर शिंजो अबे के साथ पूरे एक घंटे तक गंगा आरती में भाग लिया. दोनों की तन्मयता देखते ही बनती थी.
यहाँ दोनों प्रधानमंत्रियों द्वारा किये गये आर्थिक/ व्यापारिक समझौतों पर कोई टिप्पणी करना व्यर्थ है. आर्थिक नव उदारवाद और कार्पोरेट हितों के लिये समर्पित भारत सरकार के मुखिया से यह सब अपेक्षित ही है. लेकिन दोनों जनतंत्रों के मुखियाओं का गंगा आरती में पूरा का पूरा एक घंटे बिताना और एक अनापेक्षित तन्मयता का प्रदर्शन करना कई सवाल खडे करता है.
धर्म और आस्था एक बिल्कुल निजी मामला है. किसी भी उच्च पदासीन व्यक्ति अथवा जनसाधारण को अपने धर्म और उसके प्रति उसकी आस्था को पाबंद नहीं किया जा सकता. लेकिन धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देशों के दो दो राष्ट्राध्यक्ष यदि गंगा आरती जैसे धार्मिक आयोजन में भाग लेंगे तो उनके इस कृत्य की नुक्ताचीनी अवश्य ही होगी.
श्री मोदी का लक्ष्य स्पष्ट है. वे आर्थिक नव उदारवाद के एजेंडे पर सरपट दौड्ते हुये भी हिंदुत्व के अपने एजेंडे से हठना नहीं चाहते, यही वजह है वे दादरी जैसी घृणित घटनाओं पर मौन साधे रहे, असहिष्णुता के सवाल पर भी खामोश बने रहे, योग जैसी लोकप्रिय विधा को उन्होने हिंदुत्व की चाशनी में लपेट कर पेश करने में कोई कोर कसर नहीं रखी थी, आये दिन अपनी पार्टी के नेताओं के विवादास्पद बयानों पर उन्होंने कभी लगाम नहीं लगाई और अब गंगा आरती में भाग लेकर अपनी धर्मपरायण और हिंदूपंथी छवि को पेश करने में कामयाब रहे. आरती के समय जिस तन्मयता का प्रदर्शन उन्होंने किया यदि ऐसी ही तन्मयता उन्होने गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के दौरान दिखाई होती तो बडे खून खराबे को रोका जा सकता था.
शीर्षस्थ पद पर बैठे किसी व्यक्ति द्वारा किसी धार्मिक क्रिया में भाग लेने का प्रभाव तुरत फुरत होता है. आज ही हरिद्वार की गन्गा समिति ने 9 स्थानों पर आरती करने का और उसे भव्यता प्रदान करने का फैसला किया है. कल वारणसी में भी यही कहानी दोहराई जा सकती है. मोदी हो या शिंजे, कोई भी शासक यही चाहता भी है. धार्मिक कट्टरता बडे और लोग उसी में उलझ कर अपने रोजी रोटी के सवालों को तरजीह न दें, शासक वर्ग ऐसा ही चाहता है.
इस आरती को भव्यता प्रदान करने, इसमें दोनों नेताओं की भागीदारी की व्यवस्थायें करने में जो भारी राजस्व का अपव्यय हुआ उससे वाराणसी जनपद के समस्त सरकारी अस्पतालों की एक सप्ताह की दवा खरीदी जा सकती थी. सुरक्षा इंतजामों या यात्रा पर हुये व्यय को जोड दिया जाये तो इस धनराशि से एक माह की दवायें वाराणसी के अस्पतालों को दी जा सकती थीं. पर मोदी को तो अपने हिंदुत्त्व के एजेंडे को जिंदा रखने और अपने वोट बैंक को साधे रखने की फिक्र है. इसके लिये वे लोकतांत्रिक परंपराओं को तहस नहस करने से भी नहीं चूक रहे.
दास व्यवस्था, सामंती समाज तथा पूंजीवादी व्यवस्था सभी में बहुमत पर अल्पमत का शासन रहता है. समस्त संसाधनों पर अल्पमत समाज का कब्जा रहता है और बहुमत समाज उनके हितों की प्रतिपूर्ति का औजार बन कर रह जाता है. और इस तरह वह घोर अभावों में कष्टमय जीवन बिताने को मजबूर होता है. यह अभाव और कष्ट बहुमत समाज में अल्पमत समाज के प्रति आक्रोश और विद्रोह को जन्म देता है. शासक वर्ग इस आक्रोश और विद्रोह की ज्वाला को शांत करने को तमाम हथकंडे अपनाता है. धर्म और आस्था उनमें सबसे कारगर औजार हैं. मोदी और शिंजे दोनों शासक वर्ग के चतुर सिपहसालार हैं. अतएव एक ओर वे दोनों आर्थिक आधुनिकतावाद का अनुशरण कर रहे हैं, वहीं सांस्कृतिक कट्टरता को भी परवान चढाना चाहते हैं. वाराणसी में गंगा आरती में उनकी भागीदारी इसी उद्देश्य के लिये है.
डा. गिरीश.
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