हिटलर के समकालीन प्रसिद्ध जर्मन कवि मार्टिन नीमोलर की यह पंक्तियां आज की भारतीय राजनीति में बहुत साम्यिक हो गई हैं:
पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आये
मैं चुप था, क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे ट्रेड यूनियनिस्टों के लिए आये
मैं चुप था, क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था
फिर वे यहूदियों के लिए आये
मैं चुप था, क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
अंत में वे मेरे लिए आये
और मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था
मोदी के सत्ता में आने के बाद संघ और उसके तमाम पुराने और नए पैदा हो गये सहयोगी संगठन जिस तरह से देश में असहिष्णुता, घृणा और हिंसा की राजनीति को फैला रहे हैं, वह भारत जैसे प्राचीन समय से बहुलवादी रहे देश, उसकी साझा संस्कृति, उसकी सम्प्रभुता, उसके संविधान सबके लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। इन ताकतों द्वारा सबसे पहले दाभोलकर की हत्या, फिर का. गोविन्द पानसरे की हत्या, फिर कलबुर्गी की हत्या कर दी गईं और सत्ता शिखरों से इनके हत्यारों को शह प्राप्त थी। उसके बाद जिस तरह बकरीद के ठीक बाद गौमांस घर पर रखने का आरोप एक मंदिर के लाउडस्पीकर से लगाकर साजिशन एक निरीह मुस्लिम अखलाक की हत्या दादरी के पास कर दी गई, तो शांतिप्रमियों के लिए एक जबरदस्त झटका रही। ऐसे तत्वों की दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि इन लोगों ने संघ के ही एक पुराने कार्यकर्ता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के सहयोगी रहे कुलकर्णी के भी चेहरे पर कालिख पोत दी।
इस असहिष्णुता, घृणा और हिंसा की संघी राजनीति के प्रतिरोध की शुरूआत देश में लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस कर एक आवाज उठाई। उस आवाज के समर्थन में वैज्ञानिक, फिल्मकारों, इतिहासकार, डाक्टर, पर्यावरणविद्, पत्रकारों, पूर्व सैनिक आदि जनता के तमाम और तबके भी उठ खड़े होने लगे और पुरस्कार वापसी में पद्म पुरस्कार भी वापस किये जाने लगे। यह सिलसिला चल ही रहा था कि कल बिहार की जनता भी उठ खड़ी हुई और उसने मोदी-शाह की जोड़ी को जिस प्रकार जवाब दिया, वह भारतीय राजनीति में जन-मानस की बहुलतावादी प्रवृत्ति का द्योतक है।
बिहार चुनावों से पृथकतावादी यह तत्व कोई सबक लेने के बजाय आने वाले वक्त में और आक्रामक होंगे। लेखकों, कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, डाक्टरों, पर्यावरणविदों, पत्रकारों तथा पूर्व सैनिकों आदि तमाम तबकों ने अपनी आवाज को उठाकर अपना दायित्व पूरा कर दिया है, इन आवाजों को बुलन्दियों तक ले जाने का काम कौन करें, यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने है।
जिस प्रकार सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दल संघ से गलबहियां करते रहे हैं, यह साफ हो चुका है कि वे तो संघ और उसके सहयोगी संगठनों की आवाजों को ही बुलन्द करने में विश्वास करते हैं। दादरी प्रकरण में जिस तरह सपा सरकार ने भाजपा विधायक संगीत सोम को हिंसा के बाद उसी मंदिर पर जाकर हिंसा को और भड़काने की अनुमति दी और शान्तिकामी ताकतों को वहां जाने से रोका, उससे यह बात साफ हो चुकी है।
अस्तु, अंततः वे वामपंथी ही हैं जिन पर लेखकों, कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, डाक्टरों, पर्यावरणविदों, पत्रकारों तथा पूर्व सैनिकों आदि तमाम तबकों द्वारा असहिष्णुता, घृणा और हिंसा की राजनीति के खिलाफ उठाई गई आवाज को बुलन्द करने का दायित्व आता है। आओ साथियों आगे बढ़े और इस गुरूतर दायित्व को पूरा करने के लिए जनता के वृहत तबकों को लामबंद करने का काम शुरू करें।
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