Wednesday, September 30, 2015

जनवादी क्रांतियों का इतिहास और उनसे सबक

सामाजिक क्रांति समाज के ढांचे में मूलभूत बदलाव या परिवर्तन होता है। कार्ल मार्क्स ने क्रांति की समझ को वैज्ञानिक आधार पर खड़ा किया। उन्होंने अपने युग के काल्पनिक (यूटोपियन) सामाजिवादियों का विरोध करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांत का विकास किया। मार्क्स के अनुसार क्रांतिकारियों को समाज में सक्रिय वस्तुगत नियमों का वैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिए। तभी हम समाजवाद और कम्युनिज्म की ओर बढ़ सकते हैं। 
साम्राज्यवाद के युग में जनवादी क्रांति
लेनिन ने पूंजीवाद की साम्राज्यवादी मंजिल का सबसे पहले अध्ययन किया। उन्होंने क्रांति-संबंधी मार्क्स के सिद्धांत में कई नई बातें जोड़ीं। साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अगली और उच्चतर मंजिल होती है। इसमें कुछ मुट्ठीभर सबसे बड़े पूंजीपति (इजारेदार) बाकी सारे समाज का शोषण करते हैं। बड़े पूंजीपति न सिर्फ मेहनतकशों, मजदूरों, किसानों, मध्यम तबकों, बुद्धिजीवियों का बल्कि गैर-इजारेदार पूंजीपतियों का भी शोषण करते हैं, उनके विकास में बाधा पहुंचाते हैं। इन गैर-इजारेदार पूंजीपतियों छोटे, मझोले और निम्न पूंजीपति शामिल होते हैं।
लेनिन ने ‘जनवादी क्रांति’ का सिद्धांत विकसित किया। समाजवादी क्रांति एक मंजिल या एक छलांग में नहीं होगी।
समाजवाद की ओर बढ़ने के लिए बीच की एक या कई मंजिलों से गुजरना होगा। इन्हें ही लेनिन ने ‘पूंजीवादी जनवादी क्रांति’ या जनवादी क्रांति कहा। इसके लिए सामंतों, बड़े पूंजीपतियों और साम्राज्यवाद के विरोध में एक व्यापक जनवादी मोर्चे की जरूरत है।
पंूजीवाद की इस मंजिल को ‘साम्राज्यवाद’ कहा जाता है। अमरीका जैसे देश सारी दुनिया में बड़ी पूंजी का प्रभुत्व कायम करते हैं। अमरीका-विरोधी मोर्चे में छोटे पूंजीपति और छोटे पूंजीवादी देश भी पिसते हैं।
आज के युग में क्रांति
जैसा कि हमने कहा, सारी जनता बड़े-बड़े इजारेदारों और साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष कर रही है। इस संघर्ष में न सिर्फ समाजवाद को मानने वाले लोग शामिल हैं बल्कि वे भी जो समाजवाद से सहमत नहीं हैं। अमरीका का विरोध करने वालों में न सिर्फ मजदूर और किसान शामिल हैं बल्कि मध्यम तबके, बुद्धिजीवी, छोटे और मझोले मालिक (पूंजीपति) भी उसमें हिस्सा ले रहे हैं।
इसलिए समाजवाद की ओर जाने का रास्ता कई मंजिलों से होकर गुजरता है। इस रास्ते में आजादी हासिल करनी होती है, बड़ी विशाल कम्पनियों पर रोक लगानी होती है, बड़ी वित्त पूंजी, विदेशी पूंजी की घुसपैठ और साम्राज्यवादी देशों की कार्रवाईयों पर अंकुश लगाना होता है।
इन बाधाओं को दूर करते हुए देश और समाज के ज्यादा से ज्यादा तबकों और वर्गों को एक मंच पर लाना होता है। इनमें से कई जनवादी होते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि वामपंथी और समाजवादी ही हों।
इसे ही जनवादी एकता (मोर्चा) कहते हैं। ऐसी एकता जो काम पूरे करती है उसे जनवादी परिवर्तन कहते हैं।
जनवादी क्रांतियों का इतिहास
सबसे पहले सफल रूसी क्रांति (1917) में हुई जिसके नेता लेनिन थे। इसमें प्रमुख शक्तियां मजदूर और किसान थे। उन्होंने सोवियतें बनाई। इसलिए उस देश को सोवियत संघ कहा गया।
रूसी क्रांति के तीन मुख्य नारे थे - शंाति, रोटी और जमीन। ये तीनों जनवादी नारे हैं। शांति का मतलब साम्राज्यवादी युद्ध (1914-18) बंद करो। शांति और निःशस्त्रीकरण का नारा सबसे पहली बार दिया गया। यह समूची मानवता के लिए था, केवल कुछ मुट्ठी भर साम्राज्यवादियों को छोड़।
दूसरा नारा था सबकों का रोटी। यह सभी मेहनतकशों, मध्यमवर्गों और कामकाजी लोगों तथा किसानों के लिए था - वास्तव में सभी मानवों के लिए था।
तीसरा था जमीन का नारा। यह मुख्य रूप से किसानों के लिए था। लेकिन किसानों में भी भूमिहीनों और गरीब किसानों के लिए था। यह मुख्यतः बड़े सामंतों के खिलाफ और जमीन के बंटवारे (भूमि सुधारों) के लिए था।
इन तीनों को हम जनवादी कदमों का उद्देश्य कहते हैं। वे जनतांत्रिक बदलाव लाते हैं, समाजवाद के लिए आधार तैयार करते हैं लेकिन अभी समाजवाद नहीं हैं।
अन्य देशों में जनवादी आंदोलन
रूसी क्रांति ने दूसरे देशों में जनता का आंदोलन तेज कर दिया। कहीं आजादी की मांग उठने लगी, कहीं जनतंत्र की, तो कही समाजवाद की। भारत, चीन, वियतनाम, एशिया, अफ्रीका में आजादी की लड़ाई तेज हो गई। भारत आजाद हो गया। वियतनाम तथा चीन में क्रांतियां हो गईं। आगे चलकर पूर्वी यूरोप, क्यूबा और लैटिन अमरीका में भी जनवादी एवं समाजवादी क्रांतियां हो गईं।
पूर्वी योरप (यूरोप)
9 मई 1945 को हिटलर के जर्मन फासिस्टों ने आत्म-समर्पण कर दिया। हिटलर ने उससे पहले ही आत्महत्या कर ली। रूस की लाल सेना की मदद से पूर्वी योरप के देश आजाद हो गए - पोलैंड, बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, रोमानिया, आदि। इन देशों में जनता की मिली-जुली जनवादी सरकारें बनीं (1944-45 में)।
वियतनाम
उसने पहले फ्रांसीसियों, फिर जापानियों, फिर फ्रांसीसियों और अमरीका के खिलाफ आाजदी की लड़ाई लड़ी। वियतनाम सबसे पहले 2 सितंबर 1945 को आजाद हुआ। वियतनाम ने पहले देश की आजादी की लड़ाई लड़ी, फिर उसने जनवादी क्रांति का काम शुरू किया। लम्बे संघर्षों के बाद 1975 में पूरी तरह आजाद हुआ। लाओस और कम्पूचिया (कम्बोडिया) भी आजाद हुए। वियतनाम की क्रांति में कम्युनिस्टों के साथ बौद्ध धर्म वाले तथा छोटे मझोले मालिक भी शामिल हैं।
चीन
चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किसानों, और मालिकों और मजदूरों की लम्बी लड़ाई चली। जनतांत्रिक अधिकार, पार्टी बनाने के अधिकार तथा संसदीय प्रणाली न होने के कारण चीन में ज्यादातर हथियारबंद संघर्ष हुआ।
चीनी क्रांति की मांग सामंतवाद समाप्त करने, किसानों के बीच जमीन का बंटवारा करने और बड़े तथा विदेशी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने संबंधित था। इसलिए चीनी क्रांति को वहां की पार्टी ने जनवादी क्रांति बतलाया है। आज भी चीन में अर्थव्यवस्था ‘समाजवाद की ओर’ जा रही है, अभी समाजवादी नहीं है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की योजना के अनुसार चीन 21वीं सदी के मध्य तक ‘बाजार समाजवाद’ की ‘प्राथमिक मंजिल’ में रहेगा।
चीन में 1 अक्टूबर 1949 को क्रांति सम्पन्न हुई। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चार वर्गों के संयुक्त मोर्चा ने सत्ता संभाली। सरकार ने पहले जनवादी मंजिल के काम पूरा करने का फैसला लिया।
आज चीन उत्पादन बढ़ाने की शक्तियों, उसकी टेक्नालोजी के विकास तथा विकास दर बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है।
क्यूबा
क्यूबा में 21 जुलाई 1959 को क्रांतिकारियों ने सत्ता अपने हाथों में ले ली। वे आरम्भ में कम्युनिस्ट नहीं थे। उन्होंने कदम-ब-कदम जनतांत्रिक कदम उठाए और देश की अर्थव्यवस्था विकसित की। आज क्यूबा मध्यम दर्जे का देश है जहां आम जनता को कई प्रकार की सुविधाएं और अधिकार मिले हुए हैं।
भारत
अंग्रेजों के खिलाफ लम्बे साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के बाद भारत ने 1947 में आजादी हासिल की। यह भी जनवादी क्रांति का ही एक रूप है, उसकी ही एक मंजिल। इसके लिए व्यापक शक्तियों ने मिल-जुल कर संघर्ष किया।
अब जनवादी क्रांति की अगली मंजिलें तय करने के लिए जनतांत्रिक शक्तियों को मिल-जुल कर मुख्य विरोधियों के संघर्ष करना होगा, जैसे साम्राज्यवाद, बड़े इजारेदार, वित्त पूंती।
इस संघर्ष में संसदीय प्रणाली की प्रमुख भूमिका होगी और जनसंघर्ष महत्वपूर्ण होाग।
अन्य देश
आज के समय में लैटिन अमरीका के दर्जन-भर देशों में महत्वपूर्ण जनवादी परिवर्तन हो रहे हैं। ब्राजील, बेनेजुएला, इक्वाडोर, बोलीविया तथा अन्य देशों में संसदीय प्रणाली के जरिए तथा विशाल जन समर्थन की सहायता से वाम एवं जनवादी ताकतें चुनाव जीतकर सरकारें बना रही हैं। वे लगातार पिछले लगभग दो दशकों (20 वर्षों) से जीतती आ रही है।
यह नई किस्म की जनवादी क्रांति है जो संसदीय चुनावी मार्ग से सफल हो रही हैं। उनका समर्थन फौज कर रही है। इनमें व्यापक ताकतें शामिल हैं जिनमें छोटे मालिकों और उत्पादकों तथा साम्राज्यवाद-विरोधी पूंजीपति वर्ग के हिस्से भी शामिल हैं
लैटिन अमरीका के परिवर्तन पिछली सभी क्रांतियों से अलग हैं। आज जनता के हक में बड़े पंूजीवादी हितों के खिलाफ तथा गरीबी कम करने के लिए ये जनवादी सरकारें संघर्षरत हैं।
इनके अलावा नेपाल, योरप, दक्षिण अफ्रीका, इत्यादि में भी परिवर्तन चल रहे हैं।
आज की और भविष्य की क्रांतियां
आज हमारे देश और दुनिया भर में जनतांत्रिक अधिकारों और प्रजातांत्रिक तरीकों का महत्व बढ़ गया है। आज विश्व भर में सामाजिक परिवर्तन में चुनाव प्रणाली का महत्व पहले से ज्यादा हो गया है, जैसा कि लैटिन अमरीका की घटनाएं साबित करती हैं। चुनावों, वोट डालने और प्रेस-मीडिया के तथा अन्य अधिकार हमने लम्बे संघर्षों के जरिए जीते हैं। उनका प्रयोग करके वाम एवं प्रगतिशील शक्तियां सत्ता में आ सकती हैं और जनता के हक में कुछ करके दिख सकती हैं, यह अमल में साबित हो चुका है।
क्रांति कोई भविष्य में चीज नहीं रह गई है, वह इस समय जारी है। कुछ महत्वपूर्ण आर्थिक-सामाजिक कदम उठाना भी जनतांत्रिक क्रांति का ही अंग है। आज हम जनतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल करके जनवादी क्रांति पूरा कर सकते हैं। पुराने ढंग की क्रांतियों का युग चला गया।
आज नए किस्म की व्यापक जनतंत्रिक परिवर्तनों का युग है जो प्रजातांत्रिक तरीकों का प्रयोग कर रहे हैं।
- अनिल राजिमवाले

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