चुनाव सुधार आजकल एक बहुचर्चित विषय है। इस विषय पर डा. शंभू श्रीवास्तव द्वारा लिखित एक नोट यहां प्रस्तुत है जो इस विषय के विभिन्न पहलुओं पर अच्छी रोशनी डालता है-संपादक
नियमित अंतराल पर स्वतंत्र, निष्पक्ष, शांतिपूर्ण और प्रतिनिधित्वपूर्ण चुनाव जनवाद का एक बेहद महत्वपूर्ण कारक है। संसदीय जनवाद का सफल प्रयोग स्वतंत्र भारत की एक ऐसी उपलब्धि है जिस पर गर्व किया जा सकता है। लेकिन, चुनाव प्रणाली और प्रक्रिया के व्यावहारिक रूप में दिखायी देने वाली कमजोरियों के मद्देनजर इसकी निरंतर समीक्षा आवश्यक है। यह बेहद वाजिब प्रश्न बार-बार पूछा जाता है कि क्या हमारी चुनाव प्रणाली ऐसी विधायिका तैयार करती है जिसमें लोगों के विचार, आकांक्षाओं और विधिताओं का ही मायनों में प्रतिनिधित्व होता है। धनशक्ति, बाहुबल और अधिकार सम्पन्न लोग प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग कर चुनावी पद्धति एवं प्रक्रिया को गंभीर रूप से कमजोर कर रहे हैं और दूषित कर रहे हैं, इस बारे में वाजिब प्रश्न उठाये जाते हैं।
यह बात व्यापक रूप से मानी जा रही है कि व्याप्त भ्रष्टाचार और प्रशासन की कमजोरियां, त्रुटिपूर्ण रूप से जुड़ी हैं। इस प्रणाली ने कुछ बुनियादी सुधारों की बात लगभग चार दशकों से हो रही है। कई अधिकारिक एवं गैर-अधिकारिक प्रयास किये गये हैं और कुछ सिफारिशें एवं सुझाव अमल में लाये गये हैं लेकिन समस्या की तह तक नहीं पहुंचा गया है और न ही इस पर कोई सचमुच गंभीर राष्ट्रीय बहस या आंदोलन ही हुआ है।
बेहद जरूरी चुनावी सुधारों में देरी कई मायनों में जनतांत्रिक संस्थाओं, राजनीतिज्ञों और राजनीति में घटते विश्वास के लिए जिम्मेदार है। ये खतरनाक संकेत हैं जिन्हें प्रशासनिक एवं चुनावी व्यवस्थाओं के जनवादी पुनर्गठन द्वारा जल्द से जल्द दूर किये जाने की जरूरत है ताकि उन्हें सही माायनों में वैध, प्रतिनिधिपूर्ण और प्रभावी बनाया जा सके।
भारत की चुनाव प्रणाली में मतदाताओं के पंजीकरण से लेकर सरकारों के गठन तक वृहत और सूक्ष्म स्तरीय सुधारों की आवश्यकता है। इस व्यवस्था के कई पहलुओं की व्यापक छानबीन की जानी है लेकिन जरूरी है कि सबसे पहले सबसे जरूरी चुनावी सुधारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाये। इनमें शामिल हैं:
1. चुनाव प्रणाली-साधारण बहुमत से निर्वाचन की प्रणाली (फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट-एफपीटीपी) को जारी रखना अथवा समानुपातिक प्रतिनिधित्व (प्रोपोर्शनल रिप्रजेन्टेशन) प्रणाली लाना अथवा मिश्रित प्रणाली अपनाना।
2. चुनावों और राजनीति को अपराध मुक्त बनाना
3. चुनावों में धनशक्ति पर रोक लगाना
4. चुनावी मशीनरी को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाना।
5. मतदाता पंजीकरण
6. निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने और नकारात्मक मतदान (निगेटिव वोटिंग) क विचर
7. दल-बदल विरोधी कानून।
8. महिलाओं और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना
9. अनुसूचित जातियों एवं अनु.जनजातियों के लिए मौजूदा आरक्षण को चुनावी सुधारों से जोड़ना
चुनाव सुधार संबंधी दिनेश गोस्वामी समिति (1998), चुनावों की राज्य फंडिंग पर इन्द्रजीत गुप्ता की रिपोर्ट (1998), भारतीय कानून आयोग की 170वीं रिपोर्ट (1999), तारकुंडे कमेटी रिपोर्ट (1975), ‘कानून मंत्रालय’ भारत सरकार द्वारा चुनावी सुधार संबंधी पृष्ठ-पेपर्स (दिसंबर 2010), भारत के चुनाव आयोग के प्रस्ताव एवं सुझाव और राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय अनुभवोंपर अन्य दस्तावेजों से प्राप्त इनपुट के आधर पर यथासम्भव व्यापक राष्ट्रीय बहस के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा रहे हैं:
1. चुनाव प्रणाली: साधारण बहुमत से निर्वाचन की प्रणाली (फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट-एफपीटीपी), समानुपातिक प्रतिनिधित्व (प्रोपोर्शनल रिप्रेजेन्टेशन-पीआर) अथवा मिश्रित
भारत में इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमन्स की चुनाव प्रणाली के ढांचे पर लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनावों के लिए एफपीटीपी प्रणाली अपनायी गयी है। यह प्रणाली कई अन्य देशों में भी लागू है। पिछले छह दशकों से लागू इस व्यवस्था में सदन की संरचना के चुनावी फैसले में बुनियादी विकृतियां सामने आयी हैं। उम्मीदवार डाले गये मतों के बहुमत के आधार पर निर्वाचित नहीं होता, बल्कि चुनाव में खड़े होने वाले कई उम्मीदवारों के बीच मुकाबले में वोटों के बंट जाने के कारण सबसे ज्यादा वोट पाने वाला चुन लिया जाता है। ऐसी स्थिति में देखा यह जाता है कि डाले गये मतों का 20-30 प्रतिशत पाने वाला उम्मीदवार विजयी हो जाता है। मतों के व्यापक बहुमत का सही मायनों में प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता। इस तरह चुना गया व्यक्ति मतदान क्षेत्र का असली प्रतिनिधि नहीं होता। भारी आबादी और विविध सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समूहों वाले भारत जैसे देश में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जिसमें सदन में लोगों के बड़े हिस्से की आकांक्षाएं और मतों का वास्तविक प्रतिबिम्ब नहीं झलकता।
चुनाव परिणम से पैदा होने वाली यह स्थिति ही काफी हद तक प्रशासन व्यवस्था में लोगों के विश्वास को कम करने के लिए जिम्मेदार है और इससे जनतंत्र कमजोर होता है। इस बात को साबित करने के लिए यह नोट किया जा सकता है कि 1957 एवं 1984 में लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी को ज्यादा से ज्यादा 48 प्रतिशत वोट मिले। लेकिन पार्टी को 1957 में 74 प्रतिशत सीटें और 1984 में 77 प्रतिशत सीटें हासिल हो गयीं। इस तरह, इन चुनावों में लोकसभा में सत्तारूढ़ पार्टी को व्यापक बहुमत प्राप्त हो गया जबकि बहुमत मतदाताओं ने उनके लिए वोट नहीं दिया था। लोकसभा चुनावों के उदाहरण को ही सामने रखते हुए यह बताया जा सकता है कि 1980 में, सत्तारूढ़ पार्टी को उसके पक्ष में पड़ने वाले मात्र 43 प्रतिशत वोटों के साथ दो-तिहाई (67 प्रतिशत) बहुमत प्राप्त हो गया। लोकसभा और विधान सभा चुनाव परिणामों से जुड़े आंकड़े दिखाते हैं कि डाले गये वोटों का 30 प्रतिशत भी बहुमत दिला सकता है। उम्मीदवारों के नजरिये से भी यदि हम लोकसभा परिणामों को देखें तो चुनावों को डाले गये वोटों के 50 प्रतिशत से भी कम मत हासिल हुए। यदि हम मत डालने वालों की वास्तविक संख्या देखें तो स्थिति और भी विकृत हो जाती है। एफपीटीपी के तहत कोई पार्टी अथवा गठजोड़ वास्तविक दर्ज मतदाताओं के केवल 20-25 प्रतिशत के समर्थन से आसानी से बहुमत लेकर सरकार चला सकती है। ऐसा है एफपीटीपी के अंतर्गत सदनों का प्रतिनिधित्व पूर्व स्वरूप।
कौन सी वैकल्पिक प्रणाली अपनायी जा सकती है?
दुनिया में बहुत सी चुनावी प्रणालियां मौजूद हैं। मोटे तौर पर एफपीटीपी के अलावा तीन प्रणालियां हैः
ए.बहु-चक्रीय प्रणाली
बी.समानुपातिक प्रतिनिधित्व सी.एफपीटीपी और समानुपातिक प्रतिनिधित्व का मिला-जुला रूप
भारत में एक धारणा है कि एफपीटीपी ही दुनिया में सबसे ज्यादा चलनेवाली चुनाव प्रणाली है। यह तथ्यों पर आधारित नहीं है। सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े आकार वाले विभिन्न देशों की चुनाव प्रणालियों का अध्ययन करने से यह निष्कर्ष सामने आता है: जिन 151 देशों की चुनाव प्रणालियों का अध्ययन किया गया उनमें 55 देशों में एफपीटीपी प्रणाली है, जबकि पीआर (पार्टी लिस्ट) 62 देशों में, बहुचक्रीय मेजोरिटी रन-ऑफ) 27 देशों में और मिली-जुली प्रणाली 7 देशों में प्रचलित है। एफपीटीपी प्रणाली वाले 55 देशों में से 12 को छोड़ बाकी सभी बेहद छोटे देश हैं। इस प्रणाली वाले 12 देशों में भारत, इंग्लैंड, पाकिस्तान, बांगलादेश, नेपाल, अमरीका, कनाडा, मलेशिया, घाना, जाम्बिया, केन्या और जिम्बाब्बे शामिल हैं। हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए ब्रिटिश एफपीटीपी प्रणाली अपनाने वाले ज्यादातर वह देश हैं जो पहले अंग्रेजी उपनिवेश थे।
पीआर प्रणाली वाले प्रमुख देश हैं: अर्जेंटीना, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, ब्राजील, चिली, डेनमार्क, फिनलैंड, ग्रीस, इंडोनेशिया, इस्राइल, नीदरलैंड, नार्वे, निकारागुआ, पुर्तगाल, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, स्वीडन, स्विटजरलैंड और टर्की।
फ्रांस बहुचक्रीय प्रणाली का उदाहरण है। देश जहां मिश्रित व्यवस्था लागू हैं, वे सात हैं: जर्मनी, बोेेेलिविया, मेक्सिको, वेनेजुएला, न्यूजीलैंड, इटली और हंगरी।
ए.कई दौर वाली प्रणाली
कई चक्रों में तब तक चुनाव होते रहते हैं जब तक प्रत्येक उम्मीदवार डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक वोट प्राप्त नहीं कर लेता। इसकी मुख्य विशेषता है इसका मेजोरिटी रन-ऑफ सिस्टम जिसमें चुनाव केवल दो दौर में होते हैं। पहले दौर में 50 प्रतिशत मत पाने वाले निर्वाचित घोषित कर दिये जाते हैं। 50 प्रतिशत कम वोट पाने वाले उम्मीदवारों में दो सबसे ज्यादा मत पाने वाले उम्मीदवार दूसरे दौर के प्रतियोगी बन जाते हैं और चुनाव प्रक्रिया पूरी हो जाती है। यह प्रणाली ज्यादातर राष्ट्रपति के चुनावों के लिए प्रयुक्त होती है लेकिन बहुत से देशों में यह व्यवस्था विधायिका के चुनावों के लिए भी लागू हैं।
खामी-भारत जैसे बड़े देश में यह व्यावहारिक नहीं लगता। यह व्यवस्था बेहद खर्चीली और माथापच्ची वाली होगी।
समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में, विधायक बहुसंख्या वाले जिलों अथवा निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाते हैं (भारत के संदर्भ में, छोटे राज्यों को ‘‘जिला’’ अथवा ‘‘निर्वाचित क्षेत्र’’ माना जाता सकता है और बड़े राज्यों को एक से अधिक ‘जिलों’ या ‘निर्वाचित क्षेत्रों’ में बांटा जा सकता है। प्रत्येक पार्टी ‘जिले’ में सीटों की संख्या जितने उम्मीदवारों की सूची देती है। निर्दलीय उम्मीदवार भी खड़े हो सकते हैं। उन्हें इस तरह सूची में डाला जाता है मानो वे स्वयं अपनी पार्टी हैं। मतदाता किसी विशेष पार्टी के लिए अपनी प्राथमिकता का वोट देता है और पार्टियों को उनके वोट के अनुपात में सीटें मिल जाती हैं।
समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में दो प्रकार की पार्टी सूचियां होती हैं-खुली और गुप्त। ‘गुप्त सूची’ व्यवस्था में पार्टी उस ‘जिले में पार्टी सूची में चुने जाने वाले विजेताओं का क्रम तय करती है। ‘खुली सूची’ में मतदाता को पार्टी सूची में से उम्मीदवार विशेष को प्राथमिकता देने की अनुमति होती है।
खामियां: गुप्त क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार में मतदाता और सांसद अथवा विधायक के बीच कोई निकट सम्पर्क नहीं रहता और इसमें स्थानीय विकास प्रक्रिया में मतदाताओं का प्रभाव घट जाता है और दिन-प्रतिदिन की समस्या कम करने में मतदाता का प्रभाव कम हो जाता है। एक और कमी यह है कि पार्टी सूची पार्टी सदस्यों और लोगों की सभी अपेक्षाओं को प्रतिबिम्बित नहीं भी कर सकती। भारत में ज्यादातर पार्टियों ने पूरी तरह पारदर्शी अन्दरूनी जनवाद को सुनिश्चित करना कठिन काम है जो इस व्यवस्था की सफलता के लिए निहायत जरूरी है।
सी.‘‘मिश्रित प्रणाली-इसे मिश्रित सदस्य समानुपातिक प्रतिनिधित्व (मिक्स्ड प्रोपोर्शनल रिप्रजेन्टेशन) या मिश्रित-सदस्य समानुपातिक मतदान (मिक्स्ड-मेम्बर प्रोप्रोर्शनल वोटिंग-एमएमपी) भी कहते हैं। इसे सबसे पहले जर्मनी ने अपनी संसद (बुंडेस्टग) के चुनाव के लिए अपनाया था। पर अब अनेक अन्य देशों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। अनेक पर्यवेक्षक समझते हैं कि यह प्रणाली एफपीटीपी (साधारण बहुमत से निर्वाचन) और पीआर (समानुपातिक प्रतिनिधित्व) दोनों की बेहतरीन बातों का प्रतिनिधित्व करती है। यह प्रणाली भौगोलिक प्रतिनिधित्व और एक सदस्यी एफपीटीपी प्रणाली के निकटतर मतदातागण संबंधों को और समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की प्रतिनिधित्व की यथार्थतः प्रतिबिम्बकारी प्रकृति को बनाये रखती है।
मिश्रित-सदस्य समानुपाती मतदान (एमएमपी) प्रणाली में, मतदाता दो मत डालता है; एक एफपीटीपी (साधारण बहुमत द्वारा निर्वाचन) के जरिये संविधान क्षेत्र प्रतिनिधित्व के लिए और दूसरा पार्टी के लिए। राष्ट्रीय या राज्य आधार पर किसी पार्टी की कुल सीटें पार्टी को पड़े मतों के आधार पर आवंटित की जाती हैं। जिन लोगों को साधारण बहुमत द्वारा निर्वाचन (एफपीटीपी) के तरह चुना जाता है उन्हें रहने दिया जाता है। इन सीटों को पार्टी को आवंटित सीटों की संख्या में से घटा दिया जाता है। पार्टी कोटा की बाकी सीटों को पार्टी सूची में से ले लिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप सदन में पार्टी को निर्वाचकगण में अपनी ताकत के अनुपात में सीटों की कुल संख्या मिलती है।
जर्मन प्रणाली में, संसद की आधी सीटें साधारण बहुमत से निर्वाचन के तहत हैं और बाकी आधी समानुपातिक प्रतिनिधित्व या समानुपाितक सूची के जरिये। इसका हिसाब उपरोक्त तरीके से किया जाता है। भारत के संदर्भ में इसका अर्थ होगा कि दो निर्वाचन क्षेत्रों को मिलाकर एक कर दिया जाये, एक साधारण बहुमत से निर्वाचन की प्रणाली के लिए और बाकी आधी सदस्यों को पार्टी सूची से निर्वाचित सदस्यों के लिए।
एक अन्य सुझाव विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में आया है। इसमें लोकसभा की सीटों की वर्तमान सदस्य संख्या को 25 प्रतिशत बढ़ाने की सिफारिश की गई है और इन बढ़ायी गयी अतिरिक्त सीटों को पार्टी सूची में से समानुपातिक प्रतिनिधित्व से भर लिया जाना चाहिए।
इस प्रस्ताव के अनुसार, केवल एक मत एफपीटीपी के अंतर्गत क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों के लिए होगा और पार्टियां क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवारों को पड़े कुल मतों (जिन उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गयी हैं उनके मतों को निकालकर) के अनुपात में इन अतिरिक्त सीटों को प्राप्त करेंगी। समानुपातिक प्रतिनिधित्व या पार्टी सूची के लिए लोकसभा के लिए पूरा देश एक इकाई होगा और कोई राज्य विधानसभा के लिए एक इकाई होगा।
केवल मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य पार्टियां ही समानुपातिक प्रतिनिधित्व के जरिये भरी जाने वाली अतिरिक्त सीटों को पाने की पात्र होंगी। भारत की विशिष्ट वास्तविकताओं और अनुभवों को ध्यान में रखते हुए इन दो प्रणालियों-जो प्रकृति में अपेक्षाकृत अधिक प्रतिनिधित्वकारी हैं-में से कोई सी एक प्रणाली को वर्तमान प्रणाली के स्थान पर अपनाने के संबंध में बहस करने की जरूरत है।
2. अपराधियों, राजनीतिज्ञों, पुलिस और नौकरशाहों के बीच नापाक गठजोड़ अब कई दशकों से संसदीय लोकतंत्र, चुनाव प्रक्रिया और शासन पर अपना भयानक दुष्प्रभाव डाल रहा है। जिन लोगों पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं या जिनका ऐसा रिकार्ड है वे काफी बड़ी सख्या में लोकसभा और विधानसभाओं के सदस्य बन गये है। इन गरिमापूर्ण सदनों में उनकी मौजूदगी बेहद शर्मनाक बात है जिससे कानून का शासन-जो लोकतंत्र का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है-कमजोर हो रहा है। राजीति को अपराधमुक्त करने का काम चुनाव प्रक्रिया को अपराधमुक्त करने से शुरु होना चाहिए।
उम्मीदवारो की आपराधिक पृष्ठभूमि के सार्वजनिक खुलासे के संबंध में और अदालतों द्वारा सजा पाये लोगों पर कुछ अवधि के लिए चुनाव लड़ने पर रोक जैसे कुछ कदम उठाये गये हैं।
पर एक प्रमुख समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है। वह यह है कि आज भारत में आपराधिक मामलों में जिस तरह अदालत की कार्रवाईयां चलती हैं उसमें मुकदनों की सुनवाई पूरी होने में बहुत अधिक समय लगता है और इस तरह हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों के मुल्जिमों को चुनाव लड़ने का अधिकार रहता है और वे सदन में पहुंच जाते हैं।
इस संबंध में चुनाव आयोग द्वारा उसकी 2004 की रिपोर्ट में दिये गये सुझाव पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। चुनाव आयोग ने सुझाव दिया है कि जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में इस तरह का संशोधन किया जाये कि जन अपराधों में 5 वर्ष या उससे अधिक की सजा हो सकती है या जिन उम्मीदवारों पर वैसे आरोप हैं और अदालत ने उनके विरुद्ध अपराध निर्धारित कर दिया है तो उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाये, भले ही अभी उन पर मुकदमा चल ही रहा हो। इस सुझाव के साथ केवल एक ही समस्या है कि राजनीति से प्रेरित मामलों से कैसे निपटा जाये। आयोग की राय में इस प्रावधान के दुरुपयोग को रोकने का तरीका यह हो सकता है कि जो मुकदमें चुनाव से छह महीने पहले दर्ज हो चुके हों केवल उन्हीं के कारण किसी उम्मीदवार को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जाये। पर क्या यह पर्याप्त बचाव-उपाय है? इस मुद्दे पर और अधिक व्यापक बहस की जरूरत है। पर उसमें इस नजरिये से विचार किया जाना चाहिए कि किसी भी अपराधी को संसद या विधानसभाओं में घुसने की इजाजत नहीं होनी चाहिए।
3. चुनाव में धनशक्ति को रोकना
चुनावी प्रणाली को सबसे बड़ी चुनौती चुनाव के दिनोें में बड़ी मात्रा बेहिसाबी या कालेधन से आ रही है। यह सरकार के उच्चतर स्तरों पर जबर्दस्त भ्रष्टाचर का मूल कारण है। संसद में खरबपतियों की संख्या इस बात का सबूत है कि अब चुनाव बराबरी का खेल नहीं रह गया है। यह चीजें साधारण पर ईमानदार पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों द्वारा जन और समाजसेवा उन्मुखी राजनीति की भावना के लिए जगह को कम कर देती है। चुनाव आयोग द्वारा उठाये गये प्रशासकीय कदम चुनावों के दौरान धन बल के दुरुपयोग को कारगर तरीके से निपटने में अभी तक नाकाम रहे हैं। इस बुराई को रोकने का एक ही तरीका है कि चुनाव के लिए राज्य पैसा दे और जो उम्मीदवार या उनके समर्थक चुनावों के दौरान बेहिसाबी पैसे का इस्तेमाल करते हैं उन्हें जनप्रतिनिधित्व कानून में समुचित परिवर्तन कर जीवन भर के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये।
चुनावों का स्टेट फंडिंग (चुनावों के लिए राज्य द्वारा धन व्यवस्था)
चुनाव के लिए स्टेट फंडिंग पर इन्द्रजीत गुप्ता समिति (1998) ने गहनता से विचार किया और मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पार्टियों के उम्मीदवारों को आंशिक फंडिंग देने; और आंशिक फंडिंग से शुरु कर धीरे-धीरे पूरी तरह स्टेट फंडिंग तक पहुंचने की सिफारिश की। समिति ने सिफारिश की कि स्टेट फंडिंग नकदी से नहीं बल्कि चीजों के रूप में की जाए। समिति गैर मान्यता प्राप्त पार्टियों के उम्मीदवारों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को वित्तीय सहायता देने के विरुद्ध थी। समिति ने कहा: ‘‘चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट दिखाती है कि इस तरह की दो सौ से अधिक पार्टियांें ने अपने रजिस्ट्रेशन के बाद से एक भी आम चुनाव नहीं लड़ा है। अतः राजकीय वित्तीय समर्थन ऐसी राजनीतिक पार्टियों तक सीमित रहे जो चुनावी कार्यकलापों में सक्रिय होकर हिस्सेदारी ले रही हैं और मतदाताओं के बीच जिनका वास्तविक आधार है; न ही ऐसा पैसा निर्दलीय उम्मीदवारों को दिया जा सकता है जिनमें से चंद बहुत थोड़े अपवाद के साथ, अनेक लोग केवल मजे और सस्ती लोकप्रियता के लिए चुनाव में खड़े हो जाते हैं।
इस संदर्भ में यह भी नोट किया जा सकता है कि निर्दलीय उम्मीदवारों में से 99 प्रतिशत की जमानत जब्त हो जाती है और जो लोग कभी-कभार जीत कर आते हैं वे अधिकांशतः किसी पार्टी से विद्रोह कर आते हैं।
मान्यता प्राप्त पार्टियों के उम्मीदवार को चुनाव के लिए आंशिक फंडिंग में समिति ने जिन चीजों को देने का सुझाव दिया है वे हैं: वाहनों के लिए पेट्रोल के लिए एक निश्चित रकम, प्रचार सामग्री पिं्रट करने में मदद, माइक्रोफोन एवं लाउडस्पीकर प्रदान करना, मुफ्त टेलीफोन सुविधाएं, निजी चैनलों पर मुफ्त एयरटाईम, आकाशवाणी और टेलीविजन पर आवंटित समय के लिए पार्टियां जिस तरह चाहें उस तरह इस्तेमाल की इजाजत देना, न कि आवश्यक रूप में केवल राजनैतिक भाषण के लिए।
चुनाव के लिए पूरी तरह सरकार द्वारा पैसा प्रदान करना (स्टेट फंडिंग) एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यह फंडिंग आंशिक तौर पर कैश के रूप मंे भुगतान हो सकता है और आंशिक तौर पर चीजों के रूप में। इसे लोकसभा के अगले आम चुनाव में और उसके बाद विधानसभा चुनावों में शुरु किया जाना चाहिए। स्टेट फंडिंग मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय एवं राज्य पार्टियों को दिया जाना चाहिए।
4. चुनाव तंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता
चुनाव तंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उस चयन समिति द्वारा की जानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, लोकतंत्र में विपक्ष के नेता और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों।
संविधान में यद्यपि क्षेत्रीय आयुक्तों का प्रावधान है, पर उसको व्यवहार में नहीं लाया गया है। क्षेत्रीय आयुक्तों के स्थान पर चुनाव आयोग की उस चयन समिति द्वारा जिसमें मुख्यमंत्री, विधानसभा में विपक्ष के नेता और न्यायाधीश शामिल हो, राज्य आयुक्तों की नियुक्ति की जानी चाहिए। वर्तमान राज्य चुनाव अधिकारियों के पास रिटर्निंग आफिसर से भी कम शक्तियां होती हैं, इसके बजाय राज्य चुनाव आयुक्तों को अपेक्षाकृत अधिक शक्तियां दी जानी चाहिए।
5. मतदाता पंजीकरण
विधानसभा का हो या लोकसभा का, हर चुनाव में मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों की शिकायतें मिलती हैं। इसमें शामिल हैं असली मतदाताओं के नाम का लिस्ट में न होना और बड़े पैमाने पर फर्जी मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में शामिल होना। चुनाव के समय काफी हो-हल्ला होने के बावजूद इस संबंध में असल में कुछ भी नहीं बदलता।
दिनेश गोस्वामी रिपोर्ट ने मतदाता पंजीकरण और मतदाता सूचियों की उपलब्धता के लिए डाकघरों को केन्द्रीय स्थान बनाये जाने की सिफारिश की। नवीनतम मतदाता सूचियां पूरे साल भर लोगों के देखने के लिए उपलब्ध रहें इसके लिए कम्युनिटी हाल या गांवों एवं मोहल्लों के किसी सार्वजनिक स्थान को इस्तेमाल किया जा सकता है। मतदाता पंजीकरण के लिए फार्मों को डाकघरों में उपलब्ध कराया जा सकता है और पावती की रसीद के साथ इन आवेदन पत्रों को वहीं लिया भी जा सकता है। मतदाता सूचियों को स्थानीय डाकघरों में मामूली सी कीमत पर बेचा जा सकता है।
लोकसभा, विधानसभा, पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिए साझा मतदाता सूचियां होनी चाहिए।
6. निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार और निगेटिव मतदान
ये दो सुझाव अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले आंदोलन के संदर्भ में हाल में फोकस में आये हैं। ये पहले भी उठे थे।
निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विचार को विश्व के अधिकांश लोकतंत्रों में स्वीकार्यता नहीं मिली है। बहुत ही कम देशों में इसका चलन है। भारत में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव क्षेत्र बड़े आकार के होते हैं, यहां तक यह व्यावहारिक नहीं है। इससे जबर्दस्त अनिश्चितता पैदा हो जायेगी।
पर निगेटिव मतदान के मुद्दे पर बहस होनी चाहिए। ऐसे हालात होते हैं जब किसी चुनाव क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण उम्मीदवार अवांछित किस्म के लोग होते हैं और मतदाता चुनाव में मतदान न करने का फैसला लेने पर या किसी पार्टी विशेष से अपने संबंध के कारण एक गलत चयन करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसे मतदाता को ‘‘उपरोक्त में से कोई भी नहीं’’ का विकल्प दिया जा सकता है। चुनाव आयोग और विण्धि आयोग दोनों ने मतपत्र पर इस तरह का विकल्प शामिल करने की सिफारिश की है।
एक सुझाव यह भी है कि यदि निगेटिव मत कुल सकारात्मक मतों से अधिक हों तो नये उम्मीदवारों के साथ फिर से चुनाव किया जाए।
7. दल-बदल विरोधी कानून
दल-बदल कानून के वास्तविक अमल में कुछ गंभीर भटकाव एवं विचलन देखने में आये हैं। विधानसभाओं और विधान परिषदों के अनेक स्पीकरों के फैसले पक्षपातपूर्ण रहे हैं जिससे दलबदल विरोधी कानून का मकसद ही खत्म हो जाने के अलावा स्पीकर के पद की गरिमा भी नीची हुई है। चुनाव आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट (2004) में स्पीकरों के फैसले के इर्द-गिर्द के विवादों के बारे में बताया है।। इस तरह के अनेक मामले उच्च न्यायालयों में भी गये हैं। दिसम्बर 2010 में कानून मंत्रालय द्वारा तैयार पृष्ठभूमि पेपर में निम्न सिफारिशें की गयी हैंः
संविधान के काम की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (2001) ने सिफारिश की कि ‘‘दल-बदल के अािधार पर अयोग्य ठहराये जाने के प्रश्न को तय करने की शक्ति संबंधित सदन के स्पीकर के बजाय चुनाव आयोग के पास होनी चाहिये’’।
‘‘चुनाव आयोग और दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की ‘‘प्रशासन में नैतिकता’’ रिपोर्ट दोनों ने भी सिफारिश की है कि दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराने के मुद्दे के संबंध में स्पीकर के फैसले की वस्तुपरकता पर भरोसा करने के बजाय इसे चुनाव आयोग की सलाह के अंतर्गत संबंधित राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा तय किया जाना चाहिए।’’
यह सिफारिश मंजूर करने लायक नजर आती है।
8. महिलाओं और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व में वृद्धि
चाहे सामान्य बहुमत से निर्वान प्रणाली हो, समानुपातिक प्रतिनिधित्व हो या मिश्रित प्रणाली हो, लोकसभा और विधानसभाओं की एक तिहाई सीटों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। मिश्रित प्रणाली में, क्षेत्रीय चुनाव क्षेत्रों के एक तिहाई आरक्षण के अलावा, पार्टी सूची में हर तीसरा नाम महिलाओं का होना चाहिए।
समानुपातिक प्रणाली या मिश्रित प्रणाली में, पार्टी सूची के तंत्र के जरिये लोकसभा और विधानसभाओं में अल्संख्यकों के प्रतिनिधित्व के बढ़ने की संभावना है। पार्टी सूची में हर पांचवां नाम अल्पसंख्यकों में से किसी उम्मीदवार का होना चाहिए।
9. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए वर्तमान आरक्षण का चुनावी सुधारों के समाकलन
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अभी सामान्य बहुमत से निर्वाचन प्रणाली पार्टी सूची या मिश्रित प्रणाली के जरिये आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था जारी रहनी चाहिए।
- डा. शम्भू श्रीवास्तव
नियमित अंतराल पर स्वतंत्र, निष्पक्ष, शांतिपूर्ण और प्रतिनिधित्वपूर्ण चुनाव जनवाद का एक बेहद महत्वपूर्ण कारक है। संसदीय जनवाद का सफल प्रयोग स्वतंत्र भारत की एक ऐसी उपलब्धि है जिस पर गर्व किया जा सकता है। लेकिन, चुनाव प्रणाली और प्रक्रिया के व्यावहारिक रूप में दिखायी देने वाली कमजोरियों के मद्देनजर इसकी निरंतर समीक्षा आवश्यक है। यह बेहद वाजिब प्रश्न बार-बार पूछा जाता है कि क्या हमारी चुनाव प्रणाली ऐसी विधायिका तैयार करती है जिसमें लोगों के विचार, आकांक्षाओं और विधिताओं का ही मायनों में प्रतिनिधित्व होता है। धनशक्ति, बाहुबल और अधिकार सम्पन्न लोग प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग कर चुनावी पद्धति एवं प्रक्रिया को गंभीर रूप से कमजोर कर रहे हैं और दूषित कर रहे हैं, इस बारे में वाजिब प्रश्न उठाये जाते हैं।
यह बात व्यापक रूप से मानी जा रही है कि व्याप्त भ्रष्टाचार और प्रशासन की कमजोरियां, त्रुटिपूर्ण रूप से जुड़ी हैं। इस प्रणाली ने कुछ बुनियादी सुधारों की बात लगभग चार दशकों से हो रही है। कई अधिकारिक एवं गैर-अधिकारिक प्रयास किये गये हैं और कुछ सिफारिशें एवं सुझाव अमल में लाये गये हैं लेकिन समस्या की तह तक नहीं पहुंचा गया है और न ही इस पर कोई सचमुच गंभीर राष्ट्रीय बहस या आंदोलन ही हुआ है।
बेहद जरूरी चुनावी सुधारों में देरी कई मायनों में जनतांत्रिक संस्थाओं, राजनीतिज्ञों और राजनीति में घटते विश्वास के लिए जिम्मेदार है। ये खतरनाक संकेत हैं जिन्हें प्रशासनिक एवं चुनावी व्यवस्थाओं के जनवादी पुनर्गठन द्वारा जल्द से जल्द दूर किये जाने की जरूरत है ताकि उन्हें सही माायनों में वैध, प्रतिनिधिपूर्ण और प्रभावी बनाया जा सके।
भारत की चुनाव प्रणाली में मतदाताओं के पंजीकरण से लेकर सरकारों के गठन तक वृहत और सूक्ष्म स्तरीय सुधारों की आवश्यकता है। इस व्यवस्था के कई पहलुओं की व्यापक छानबीन की जानी है लेकिन जरूरी है कि सबसे पहले सबसे जरूरी चुनावी सुधारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाये। इनमें शामिल हैं:
1. चुनाव प्रणाली-साधारण बहुमत से निर्वाचन की प्रणाली (फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट-एफपीटीपी) को जारी रखना अथवा समानुपातिक प्रतिनिधित्व (प्रोपोर्शनल रिप्रजेन्टेशन) प्रणाली लाना अथवा मिश्रित प्रणाली अपनाना।
2. चुनावों और राजनीति को अपराध मुक्त बनाना
3. चुनावों में धनशक्ति पर रोक लगाना
4. चुनावी मशीनरी को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाना।
5. मतदाता पंजीकरण
6. निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने और नकारात्मक मतदान (निगेटिव वोटिंग) क विचर
7. दल-बदल विरोधी कानून।
8. महिलाओं और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बढ़ाना
9. अनुसूचित जातियों एवं अनु.जनजातियों के लिए मौजूदा आरक्षण को चुनावी सुधारों से जोड़ना
चुनाव सुधार संबंधी दिनेश गोस्वामी समिति (1998), चुनावों की राज्य फंडिंग पर इन्द्रजीत गुप्ता की रिपोर्ट (1998), भारतीय कानून आयोग की 170वीं रिपोर्ट (1999), तारकुंडे कमेटी रिपोर्ट (1975), ‘कानून मंत्रालय’ भारत सरकार द्वारा चुनावी सुधार संबंधी पृष्ठ-पेपर्स (दिसंबर 2010), भारत के चुनाव आयोग के प्रस्ताव एवं सुझाव और राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय अनुभवोंपर अन्य दस्तावेजों से प्राप्त इनपुट के आधर पर यथासम्भव व्यापक राष्ट्रीय बहस के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा रहे हैं:
1. चुनाव प्रणाली: साधारण बहुमत से निर्वाचन की प्रणाली (फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट-एफपीटीपी), समानुपातिक प्रतिनिधित्व (प्रोपोर्शनल रिप्रेजेन्टेशन-पीआर) अथवा मिश्रित
भारत में इंग्लैंड के हाउस ऑफ कॉमन्स की चुनाव प्रणाली के ढांचे पर लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनावों के लिए एफपीटीपी प्रणाली अपनायी गयी है। यह प्रणाली कई अन्य देशों में भी लागू है। पिछले छह दशकों से लागू इस व्यवस्था में सदन की संरचना के चुनावी फैसले में बुनियादी विकृतियां सामने आयी हैं। उम्मीदवार डाले गये मतों के बहुमत के आधार पर निर्वाचित नहीं होता, बल्कि चुनाव में खड़े होने वाले कई उम्मीदवारों के बीच मुकाबले में वोटों के बंट जाने के कारण सबसे ज्यादा वोट पाने वाला चुन लिया जाता है। ऐसी स्थिति में देखा यह जाता है कि डाले गये मतों का 20-30 प्रतिशत पाने वाला उम्मीदवार विजयी हो जाता है। मतों के व्यापक बहुमत का सही मायनों में प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता। इस तरह चुना गया व्यक्ति मतदान क्षेत्र का असली प्रतिनिधि नहीं होता। भारी आबादी और विविध सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक समूहों वाले भारत जैसे देश में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जिसमें सदन में लोगों के बड़े हिस्से की आकांक्षाएं और मतों का वास्तविक प्रतिबिम्ब नहीं झलकता।
चुनाव परिणम से पैदा होने वाली यह स्थिति ही काफी हद तक प्रशासन व्यवस्था में लोगों के विश्वास को कम करने के लिए जिम्मेदार है और इससे जनतंत्र कमजोर होता है। इस बात को साबित करने के लिए यह नोट किया जा सकता है कि 1957 एवं 1984 में लोकसभा चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी को ज्यादा से ज्यादा 48 प्रतिशत वोट मिले। लेकिन पार्टी को 1957 में 74 प्रतिशत सीटें और 1984 में 77 प्रतिशत सीटें हासिल हो गयीं। इस तरह, इन चुनावों में लोकसभा में सत्तारूढ़ पार्टी को व्यापक बहुमत प्राप्त हो गया जबकि बहुमत मतदाताओं ने उनके लिए वोट नहीं दिया था। लोकसभा चुनावों के उदाहरण को ही सामने रखते हुए यह बताया जा सकता है कि 1980 में, सत्तारूढ़ पार्टी को उसके पक्ष में पड़ने वाले मात्र 43 प्रतिशत वोटों के साथ दो-तिहाई (67 प्रतिशत) बहुमत प्राप्त हो गया। लोकसभा और विधान सभा चुनाव परिणामों से जुड़े आंकड़े दिखाते हैं कि डाले गये वोटों का 30 प्रतिशत भी बहुमत दिला सकता है। उम्मीदवारों के नजरिये से भी यदि हम लोकसभा परिणामों को देखें तो चुनावों को डाले गये वोटों के 50 प्रतिशत से भी कम मत हासिल हुए। यदि हम मत डालने वालों की वास्तविक संख्या देखें तो स्थिति और भी विकृत हो जाती है। एफपीटीपी के तहत कोई पार्टी अथवा गठजोड़ वास्तविक दर्ज मतदाताओं के केवल 20-25 प्रतिशत के समर्थन से आसानी से बहुमत लेकर सरकार चला सकती है। ऐसा है एफपीटीपी के अंतर्गत सदनों का प्रतिनिधित्व पूर्व स्वरूप।
कौन सी वैकल्पिक प्रणाली अपनायी जा सकती है?
दुनिया में बहुत सी चुनावी प्रणालियां मौजूद हैं। मोटे तौर पर एफपीटीपी के अलावा तीन प्रणालियां हैः
ए.बहु-चक्रीय प्रणाली
बी.समानुपातिक प्रतिनिधित्व सी.एफपीटीपी और समानुपातिक प्रतिनिधित्व का मिला-जुला रूप
भारत में एक धारणा है कि एफपीटीपी ही दुनिया में सबसे ज्यादा चलनेवाली चुनाव प्रणाली है। यह तथ्यों पर आधारित नहीं है। सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े आकार वाले विभिन्न देशों की चुनाव प्रणालियों का अध्ययन करने से यह निष्कर्ष सामने आता है: जिन 151 देशों की चुनाव प्रणालियों का अध्ययन किया गया उनमें 55 देशों में एफपीटीपी प्रणाली है, जबकि पीआर (पार्टी लिस्ट) 62 देशों में, बहुचक्रीय मेजोरिटी रन-ऑफ) 27 देशों में और मिली-जुली प्रणाली 7 देशों में प्रचलित है। एफपीटीपी प्रणाली वाले 55 देशों में से 12 को छोड़ बाकी सभी बेहद छोटे देश हैं। इस प्रणाली वाले 12 देशों में भारत, इंग्लैंड, पाकिस्तान, बांगलादेश, नेपाल, अमरीका, कनाडा, मलेशिया, घाना, जाम्बिया, केन्या और जिम्बाब्बे शामिल हैं। हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए ब्रिटिश एफपीटीपी प्रणाली अपनाने वाले ज्यादातर वह देश हैं जो पहले अंग्रेजी उपनिवेश थे।
पीआर प्रणाली वाले प्रमुख देश हैं: अर्जेंटीना, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, ब्राजील, चिली, डेनमार्क, फिनलैंड, ग्रीस, इंडोनेशिया, इस्राइल, नीदरलैंड, नार्वे, निकारागुआ, पुर्तगाल, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, स्वीडन, स्विटजरलैंड और टर्की।
फ्रांस बहुचक्रीय प्रणाली का उदाहरण है। देश जहां मिश्रित व्यवस्था लागू हैं, वे सात हैं: जर्मनी, बोेेेलिविया, मेक्सिको, वेनेजुएला, न्यूजीलैंड, इटली और हंगरी।
ए.कई दौर वाली प्रणाली
कई चक्रों में तब तक चुनाव होते रहते हैं जब तक प्रत्येक उम्मीदवार डाले गये मतों का 50 प्रतिशत से अधिक वोट प्राप्त नहीं कर लेता। इसकी मुख्य विशेषता है इसका मेजोरिटी रन-ऑफ सिस्टम जिसमें चुनाव केवल दो दौर में होते हैं। पहले दौर में 50 प्रतिशत मत पाने वाले निर्वाचित घोषित कर दिये जाते हैं। 50 प्रतिशत कम वोट पाने वाले उम्मीदवारों में दो सबसे ज्यादा मत पाने वाले उम्मीदवार दूसरे दौर के प्रतियोगी बन जाते हैं और चुनाव प्रक्रिया पूरी हो जाती है। यह प्रणाली ज्यादातर राष्ट्रपति के चुनावों के लिए प्रयुक्त होती है लेकिन बहुत से देशों में यह व्यवस्था विधायिका के चुनावों के लिए भी लागू हैं।
खामी-भारत जैसे बड़े देश में यह व्यावहारिक नहीं लगता। यह व्यवस्था बेहद खर्चीली और माथापच्ची वाली होगी।
समानुपातिक प्रतिनिधित्व
दुनिया की ज्यादातर जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में किसी न किसी रूप में लागू इस प्रणाली में मतदाता पार्टी के पक्ष में वोट देते हैं और विजेता को संबंधित पार्टी द्वारा हासिल वोटों के प्रतिशत के अनुपात में ‘गुप्त’ अथवा ‘खुली’ पार्टी सूची से चुना जाता है। आमतौर पर विभिन्न देशों में किसी पार्टी द्वारा अपनी सूची से उम्मीदवार को विजयी घोषित करने के लिए डाले गये मतों का 1 से 10 प्रतिशत तक पाना जरूरी होता है। डगलस जे.एमी (बिहाइन्ड द बैलट सिस्टम्स) के अनुसार, ‘‘समानुपातिक चुनाव प्रणाली के बुनियादी सिद्धांत ये हैं: ‘‘सभी मतदाताओं को प्रतिनिधित्व पाने का अधिकार है, समाज के सभी राजनीतिक गु्रपों का हमारी विधायिकाओं में अपनी क्षमता के अनुपात में प्रतिनिधित्व होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, सभी को उचित प्रतिनिधित्व का अधिकार होना चाहिए।’’समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में, विधायक बहुसंख्या वाले जिलों अथवा निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाते हैं (भारत के संदर्भ में, छोटे राज्यों को ‘‘जिला’’ अथवा ‘‘निर्वाचित क्षेत्र’’ माना जाता सकता है और बड़े राज्यों को एक से अधिक ‘जिलों’ या ‘निर्वाचित क्षेत्रों’ में बांटा जा सकता है। प्रत्येक पार्टी ‘जिले’ में सीटों की संख्या जितने उम्मीदवारों की सूची देती है। निर्दलीय उम्मीदवार भी खड़े हो सकते हैं। उन्हें इस तरह सूची में डाला जाता है मानो वे स्वयं अपनी पार्टी हैं। मतदाता किसी विशेष पार्टी के लिए अपनी प्राथमिकता का वोट देता है और पार्टियों को उनके वोट के अनुपात में सीटें मिल जाती हैं।
समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में दो प्रकार की पार्टी सूचियां होती हैं-खुली और गुप्त। ‘गुप्त सूची’ व्यवस्था में पार्टी उस ‘जिले में पार्टी सूची में चुने जाने वाले विजेताओं का क्रम तय करती है। ‘खुली सूची’ में मतदाता को पार्टी सूची में से उम्मीदवार विशेष को प्राथमिकता देने की अनुमति होती है।
खामियां: गुप्त क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार में मतदाता और सांसद अथवा विधायक के बीच कोई निकट सम्पर्क नहीं रहता और इसमें स्थानीय विकास प्रक्रिया में मतदाताओं का प्रभाव घट जाता है और दिन-प्रतिदिन की समस्या कम करने में मतदाता का प्रभाव कम हो जाता है। एक और कमी यह है कि पार्टी सूची पार्टी सदस्यों और लोगों की सभी अपेक्षाओं को प्रतिबिम्बित नहीं भी कर सकती। भारत में ज्यादातर पार्टियों ने पूरी तरह पारदर्शी अन्दरूनी जनवाद को सुनिश्चित करना कठिन काम है जो इस व्यवस्था की सफलता के लिए निहायत जरूरी है।
सी.‘‘मिश्रित प्रणाली-इसे मिश्रित सदस्य समानुपातिक प्रतिनिधित्व (मिक्स्ड प्रोपोर्शनल रिप्रजेन्टेशन) या मिश्रित-सदस्य समानुपातिक मतदान (मिक्स्ड-मेम्बर प्रोप्रोर्शनल वोटिंग-एमएमपी) भी कहते हैं। इसे सबसे पहले जर्मनी ने अपनी संसद (बुंडेस्टग) के चुनाव के लिए अपनाया था। पर अब अनेक अन्य देशों में इसका इस्तेमाल किया जाता है। अनेक पर्यवेक्षक समझते हैं कि यह प्रणाली एफपीटीपी (साधारण बहुमत से निर्वाचन) और पीआर (समानुपातिक प्रतिनिधित्व) दोनों की बेहतरीन बातों का प्रतिनिधित्व करती है। यह प्रणाली भौगोलिक प्रतिनिधित्व और एक सदस्यी एफपीटीपी प्रणाली के निकटतर मतदातागण संबंधों को और समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की प्रतिनिधित्व की यथार्थतः प्रतिबिम्बकारी प्रकृति को बनाये रखती है।
मिश्रित-सदस्य समानुपाती मतदान (एमएमपी) प्रणाली में, मतदाता दो मत डालता है; एक एफपीटीपी (साधारण बहुमत द्वारा निर्वाचन) के जरिये संविधान क्षेत्र प्रतिनिधित्व के लिए और दूसरा पार्टी के लिए। राष्ट्रीय या राज्य आधार पर किसी पार्टी की कुल सीटें पार्टी को पड़े मतों के आधार पर आवंटित की जाती हैं। जिन लोगों को साधारण बहुमत द्वारा निर्वाचन (एफपीटीपी) के तरह चुना जाता है उन्हें रहने दिया जाता है। इन सीटों को पार्टी को आवंटित सीटों की संख्या में से घटा दिया जाता है। पार्टी कोटा की बाकी सीटों को पार्टी सूची में से ले लिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप सदन में पार्टी को निर्वाचकगण में अपनी ताकत के अनुपात में सीटों की कुल संख्या मिलती है।
जर्मन प्रणाली में, संसद की आधी सीटें साधारण बहुमत से निर्वाचन के तहत हैं और बाकी आधी समानुपातिक प्रतिनिधित्व या समानुपाितक सूची के जरिये। इसका हिसाब उपरोक्त तरीके से किया जाता है। भारत के संदर्भ में इसका अर्थ होगा कि दो निर्वाचन क्षेत्रों को मिलाकर एक कर दिया जाये, एक साधारण बहुमत से निर्वाचन की प्रणाली के लिए और बाकी आधी सदस्यों को पार्टी सूची से निर्वाचित सदस्यों के लिए।
एक अन्य सुझाव विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट में आया है। इसमें लोकसभा की सीटों की वर्तमान सदस्य संख्या को 25 प्रतिशत बढ़ाने की सिफारिश की गई है और इन बढ़ायी गयी अतिरिक्त सीटों को पार्टी सूची में से समानुपातिक प्रतिनिधित्व से भर लिया जाना चाहिए।
इस प्रस्ताव के अनुसार, केवल एक मत एफपीटीपी के अंतर्गत क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों के लिए होगा और पार्टियां क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवारों को पड़े कुल मतों (जिन उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गयी हैं उनके मतों को निकालकर) के अनुपात में इन अतिरिक्त सीटों को प्राप्त करेंगी। समानुपातिक प्रतिनिधित्व या पार्टी सूची के लिए लोकसभा के लिए पूरा देश एक इकाई होगा और कोई राज्य विधानसभा के लिए एक इकाई होगा।
केवल मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और राज्य पार्टियां ही समानुपातिक प्रतिनिधित्व के जरिये भरी जाने वाली अतिरिक्त सीटों को पाने की पात्र होंगी। भारत की विशिष्ट वास्तविकताओं और अनुभवों को ध्यान में रखते हुए इन दो प्रणालियों-जो प्रकृति में अपेक्षाकृत अधिक प्रतिनिधित्वकारी हैं-में से कोई सी एक प्रणाली को वर्तमान प्रणाली के स्थान पर अपनाने के संबंध में बहस करने की जरूरत है।
भारत के लिए सुझायी जाने वाली प्रणाली
साधारण बहुमत से निर्वाचन प्रणाली और समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली-इन दोनों से अधिकतम फायदा उठाने के लिए मिश्रित सदस्य प्रणाली (एमएमपी) भारत के लिए उपयुक्त हो सकती है, जर्मनी के नमूने को अपनाया जा सकता है जिसमें 50 प्रतिशत सीटें साधारण बहुमत से निर्वाचन प्रणाली के जरिये और 50 प्रतिशत सीटें पार्टी सूची (समानुपातिक प्रतिनिधित्व) प्रणाली के जरिये चुनी जाती हैं; या विधि आयोग की उस सिफारिश पर अमल किया जाये जिसके अनुसार लोकसभा और विधानसभा की वर्तमान संख्या की सीटों का चुनाव साधारण बहुमत से निर्वाचन के लिए और लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों में 25 प्रतिशत वृद्धि कर उन अतिरिक्त सीटों को पार्टी सूची से भरा जाए।2. अपराधियों, राजनीतिज्ञों, पुलिस और नौकरशाहों के बीच नापाक गठजोड़ अब कई दशकों से संसदीय लोकतंत्र, चुनाव प्रक्रिया और शासन पर अपना भयानक दुष्प्रभाव डाल रहा है। जिन लोगों पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं या जिनका ऐसा रिकार्ड है वे काफी बड़ी सख्या में लोकसभा और विधानसभाओं के सदस्य बन गये है। इन गरिमापूर्ण सदनों में उनकी मौजूदगी बेहद शर्मनाक बात है जिससे कानून का शासन-जो लोकतंत्र का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है-कमजोर हो रहा है। राजीति को अपराधमुक्त करने का काम चुनाव प्रक्रिया को अपराधमुक्त करने से शुरु होना चाहिए।
उम्मीदवारो की आपराधिक पृष्ठभूमि के सार्वजनिक खुलासे के संबंध में और अदालतों द्वारा सजा पाये लोगों पर कुछ अवधि के लिए चुनाव लड़ने पर रोक जैसे कुछ कदम उठाये गये हैं।
पर एक प्रमुख समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है। वह यह है कि आज भारत में आपराधिक मामलों में जिस तरह अदालत की कार्रवाईयां चलती हैं उसमें मुकदनों की सुनवाई पूरी होने में बहुत अधिक समय लगता है और इस तरह हत्या, बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधों के मुल्जिमों को चुनाव लड़ने का अधिकार रहता है और वे सदन में पहुंच जाते हैं।
इस संबंध में चुनाव आयोग द्वारा उसकी 2004 की रिपोर्ट में दिये गये सुझाव पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। चुनाव आयोग ने सुझाव दिया है कि जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में इस तरह का संशोधन किया जाये कि जन अपराधों में 5 वर्ष या उससे अधिक की सजा हो सकती है या जिन उम्मीदवारों पर वैसे आरोप हैं और अदालत ने उनके विरुद्ध अपराध निर्धारित कर दिया है तो उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाये, भले ही अभी उन पर मुकदमा चल ही रहा हो। इस सुझाव के साथ केवल एक ही समस्या है कि राजनीति से प्रेरित मामलों से कैसे निपटा जाये। आयोग की राय में इस प्रावधान के दुरुपयोग को रोकने का तरीका यह हो सकता है कि जो मुकदमें चुनाव से छह महीने पहले दर्ज हो चुके हों केवल उन्हीं के कारण किसी उम्मीदवार को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया जाये। पर क्या यह पर्याप्त बचाव-उपाय है? इस मुद्दे पर और अधिक व्यापक बहस की जरूरत है। पर उसमें इस नजरिये से विचार किया जाना चाहिए कि किसी भी अपराधी को संसद या विधानसभाओं में घुसने की इजाजत नहीं होनी चाहिए।
3. चुनाव में धनशक्ति को रोकना
चुनावी प्रणाली को सबसे बड़ी चुनौती चुनाव के दिनोें में बड़ी मात्रा बेहिसाबी या कालेधन से आ रही है। यह सरकार के उच्चतर स्तरों पर जबर्दस्त भ्रष्टाचर का मूल कारण है। संसद में खरबपतियों की संख्या इस बात का सबूत है कि अब चुनाव बराबरी का खेल नहीं रह गया है। यह चीजें साधारण पर ईमानदार पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों द्वारा जन और समाजसेवा उन्मुखी राजनीति की भावना के लिए जगह को कम कर देती है। चुनाव आयोग द्वारा उठाये गये प्रशासकीय कदम चुनावों के दौरान धन बल के दुरुपयोग को कारगर तरीके से निपटने में अभी तक नाकाम रहे हैं। इस बुराई को रोकने का एक ही तरीका है कि चुनाव के लिए राज्य पैसा दे और जो उम्मीदवार या उनके समर्थक चुनावों के दौरान बेहिसाबी पैसे का इस्तेमाल करते हैं उन्हें जनप्रतिनिधित्व कानून में समुचित परिवर्तन कर जीवन भर के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये।
चुनावों का स्टेट फंडिंग (चुनावों के लिए राज्य द्वारा धन व्यवस्था)
चुनाव के लिए स्टेट फंडिंग पर इन्द्रजीत गुप्ता समिति (1998) ने गहनता से विचार किया और मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पार्टियों के उम्मीदवारों को आंशिक फंडिंग देने; और आंशिक फंडिंग से शुरु कर धीरे-धीरे पूरी तरह स्टेट फंडिंग तक पहुंचने की सिफारिश की। समिति ने सिफारिश की कि स्टेट फंडिंग नकदी से नहीं बल्कि चीजों के रूप में की जाए। समिति गैर मान्यता प्राप्त पार्टियों के उम्मीदवारों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को वित्तीय सहायता देने के विरुद्ध थी। समिति ने कहा: ‘‘चुनाव आयोग द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट दिखाती है कि इस तरह की दो सौ से अधिक पार्टियांें ने अपने रजिस्ट्रेशन के बाद से एक भी आम चुनाव नहीं लड़ा है। अतः राजकीय वित्तीय समर्थन ऐसी राजनीतिक पार्टियों तक सीमित रहे जो चुनावी कार्यकलापों में सक्रिय होकर हिस्सेदारी ले रही हैं और मतदाताओं के बीच जिनका वास्तविक आधार है; न ही ऐसा पैसा निर्दलीय उम्मीदवारों को दिया जा सकता है जिनमें से चंद बहुत थोड़े अपवाद के साथ, अनेक लोग केवल मजे और सस्ती लोकप्रियता के लिए चुनाव में खड़े हो जाते हैं।
इस संदर्भ में यह भी नोट किया जा सकता है कि निर्दलीय उम्मीदवारों में से 99 प्रतिशत की जमानत जब्त हो जाती है और जो लोग कभी-कभार जीत कर आते हैं वे अधिकांशतः किसी पार्टी से विद्रोह कर आते हैं।
मान्यता प्राप्त पार्टियों के उम्मीदवार को चुनाव के लिए आंशिक फंडिंग में समिति ने जिन चीजों को देने का सुझाव दिया है वे हैं: वाहनों के लिए पेट्रोल के लिए एक निश्चित रकम, प्रचार सामग्री पिं्रट करने में मदद, माइक्रोफोन एवं लाउडस्पीकर प्रदान करना, मुफ्त टेलीफोन सुविधाएं, निजी चैनलों पर मुफ्त एयरटाईम, आकाशवाणी और टेलीविजन पर आवंटित समय के लिए पार्टियां जिस तरह चाहें उस तरह इस्तेमाल की इजाजत देना, न कि आवश्यक रूप में केवल राजनैतिक भाषण के लिए।
चुनाव के लिए पूरी तरह सरकार द्वारा पैसा प्रदान करना (स्टेट फंडिंग) एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। यह फंडिंग आंशिक तौर पर कैश के रूप मंे भुगतान हो सकता है और आंशिक तौर पर चीजों के रूप में। इसे लोकसभा के अगले आम चुनाव में और उसके बाद विधानसभा चुनावों में शुरु किया जाना चाहिए। स्टेट फंडिंग मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय एवं राज्य पार्टियों को दिया जाना चाहिए।
4. चुनाव तंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता
चुनाव तंत्र की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उस चयन समिति द्वारा की जानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, लोकतंत्र में विपक्ष के नेता और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों।
संविधान में यद्यपि क्षेत्रीय आयुक्तों का प्रावधान है, पर उसको व्यवहार में नहीं लाया गया है। क्षेत्रीय आयुक्तों के स्थान पर चुनाव आयोग की उस चयन समिति द्वारा जिसमें मुख्यमंत्री, विधानसभा में विपक्ष के नेता और न्यायाधीश शामिल हो, राज्य आयुक्तों की नियुक्ति की जानी चाहिए। वर्तमान राज्य चुनाव अधिकारियों के पास रिटर्निंग आफिसर से भी कम शक्तियां होती हैं, इसके बजाय राज्य चुनाव आयुक्तों को अपेक्षाकृत अधिक शक्तियां दी जानी चाहिए।
5. मतदाता पंजीकरण
विधानसभा का हो या लोकसभा का, हर चुनाव में मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियों की शिकायतें मिलती हैं। इसमें शामिल हैं असली मतदाताओं के नाम का लिस्ट में न होना और बड़े पैमाने पर फर्जी मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में शामिल होना। चुनाव के समय काफी हो-हल्ला होने के बावजूद इस संबंध में असल में कुछ भी नहीं बदलता।
दिनेश गोस्वामी रिपोर्ट ने मतदाता पंजीकरण और मतदाता सूचियों की उपलब्धता के लिए डाकघरों को केन्द्रीय स्थान बनाये जाने की सिफारिश की। नवीनतम मतदाता सूचियां पूरे साल भर लोगों के देखने के लिए उपलब्ध रहें इसके लिए कम्युनिटी हाल या गांवों एवं मोहल्लों के किसी सार्वजनिक स्थान को इस्तेमाल किया जा सकता है। मतदाता पंजीकरण के लिए फार्मों को डाकघरों में उपलब्ध कराया जा सकता है और पावती की रसीद के साथ इन आवेदन पत्रों को वहीं लिया भी जा सकता है। मतदाता सूचियों को स्थानीय डाकघरों में मामूली सी कीमत पर बेचा जा सकता है।
लोकसभा, विधानसभा, पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिए साझा मतदाता सूचियां होनी चाहिए।
6. निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार और निगेटिव मतदान
ये दो सुझाव अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले आंदोलन के संदर्भ में हाल में फोकस में आये हैं। ये पहले भी उठे थे।
निर्वाचित प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विचार को विश्व के अधिकांश लोकतंत्रों में स्वीकार्यता नहीं मिली है। बहुत ही कम देशों में इसका चलन है। भारत में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव क्षेत्र बड़े आकार के होते हैं, यहां तक यह व्यावहारिक नहीं है। इससे जबर्दस्त अनिश्चितता पैदा हो जायेगी।
पर निगेटिव मतदान के मुद्दे पर बहस होनी चाहिए। ऐसे हालात होते हैं जब किसी चुनाव क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण उम्मीदवार अवांछित किस्म के लोग होते हैं और मतदाता चुनाव में मतदान न करने का फैसला लेने पर या किसी पार्टी विशेष से अपने संबंध के कारण एक गलत चयन करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसे मतदाता को ‘‘उपरोक्त में से कोई भी नहीं’’ का विकल्प दिया जा सकता है। चुनाव आयोग और विण्धि आयोग दोनों ने मतपत्र पर इस तरह का विकल्प शामिल करने की सिफारिश की है।
एक सुझाव यह भी है कि यदि निगेटिव मत कुल सकारात्मक मतों से अधिक हों तो नये उम्मीदवारों के साथ फिर से चुनाव किया जाए।
7. दल-बदल विरोधी कानून
दल-बदल कानून के वास्तविक अमल में कुछ गंभीर भटकाव एवं विचलन देखने में आये हैं। विधानसभाओं और विधान परिषदों के अनेक स्पीकरों के फैसले पक्षपातपूर्ण रहे हैं जिससे दलबदल विरोधी कानून का मकसद ही खत्म हो जाने के अलावा स्पीकर के पद की गरिमा भी नीची हुई है। चुनाव आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट (2004) में स्पीकरों के फैसले के इर्द-गिर्द के विवादों के बारे में बताया है।। इस तरह के अनेक मामले उच्च न्यायालयों में भी गये हैं। दिसम्बर 2010 में कानून मंत्रालय द्वारा तैयार पृष्ठभूमि पेपर में निम्न सिफारिशें की गयी हैंः
संविधान के काम की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग (2001) ने सिफारिश की कि ‘‘दल-बदल के अािधार पर अयोग्य ठहराये जाने के प्रश्न को तय करने की शक्ति संबंधित सदन के स्पीकर के बजाय चुनाव आयोग के पास होनी चाहिये’’।
‘‘चुनाव आयोग और दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की ‘‘प्रशासन में नैतिकता’’ रिपोर्ट दोनों ने भी सिफारिश की है कि दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराने के मुद्दे के संबंध में स्पीकर के फैसले की वस्तुपरकता पर भरोसा करने के बजाय इसे चुनाव आयोग की सलाह के अंतर्गत संबंधित राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा तय किया जाना चाहिए।’’
यह सिफारिश मंजूर करने लायक नजर आती है।
8. महिलाओं और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व में वृद्धि
चाहे सामान्य बहुमत से निर्वान प्रणाली हो, समानुपातिक प्रतिनिधित्व हो या मिश्रित प्रणाली हो, लोकसभा और विधानसभाओं की एक तिहाई सीटों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। मिश्रित प्रणाली में, क्षेत्रीय चुनाव क्षेत्रों के एक तिहाई आरक्षण के अलावा, पार्टी सूची में हर तीसरा नाम महिलाओं का होना चाहिए।
समानुपातिक प्रणाली या मिश्रित प्रणाली में, पार्टी सूची के तंत्र के जरिये लोकसभा और विधानसभाओं में अल्संख्यकों के प्रतिनिधित्व के बढ़ने की संभावना है। पार्टी सूची में हर पांचवां नाम अल्पसंख्यकों में से किसी उम्मीदवार का होना चाहिए।
9. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए वर्तमान आरक्षण का चुनावी सुधारों के समाकलन
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अभी सामान्य बहुमत से निर्वाचन प्रणाली पार्टी सूची या मिश्रित प्रणाली के जरिये आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था जारी रहनी चाहिए।
- डा. शम्भू श्रीवास्तव
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