16 दिसम्बर की रात दिल्ली में चलती बस में एक 23 साल की मेडिकल छात्रा के साथ घटी घटना से सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक गया। हर सभ्य नागरिक उस घटना की निन्दा करेगा और पीड़िता के साथ पूरी सहानुभूति रखेगी। ऐसे लोग ढूंढे नहीं मिलेंगे जिनकी चाहत यह हो कि उस घटना के आरोपियों को सख्त से सख्त सजा न दी जाये। घटना ने समाज में एक कंपन पैदा किया। संसद से लेकर सड़क तक आक्रोश दिखाई दिया। सब कुछ स्वाभाविक था परन्तु जिस तरह देखते-देखते तमाम समाचार चैनल आन्दोलनकारी हो गये, हर कोण से कमेंट्री करने की कोशिश में लग गये, उस पर चिंतन जरूर होना चाहिए।
पहली बात, लगभग सभी चैनलों के लगभग सभी एंकर बार-बार जोर दे रहे थे कि सड़कों पर विरोध करने उतरी जनता की कोई विचारधारा नहीं है। उसकी कोई राजनीति नहीं है। वह किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व नहीं करती। उनकी यह टिप्पणी कोई नई नहीं थी। ऐसा वे इसके पहले अप्रैल 2010 में शुरू हुए अन्ना आन्दोलन के समय भी कह रहे थे। अन्ना आन्दोलन के हस्र और उसकी वर्तमान स्थिति पर कोई टिप्पणी करने की हमारी मंशा इस समय नहीं है।
यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आन्दोलनकारियों के रूप में सड़कों पर उतरी जनता के विचारों में एक सामान्य सी साम्यता है, वे सब बलात्कार को गलत मानने वाले हैं, वे एक बालिका पर हुए बहशीपन से आक्रोशित हैं, वे अपराधियों को दण्ड दिये जाने के पक्ष में है और वे सब त्वरित कार्यवाही चाहते हैं। यह एक विचार है। इसी विचार से वे आन्दोलन में उतरे हैं और यही विचार उनके मध्य एकता स्थापित कर रहा है। वे गैर राजनीतिक नहीं हैं। उनका बड़ा तबका किसी न किसी राजनीतिक दल का समर्थक रहा है और उन्हें वोट देता रहा है। मीडिया को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन प्रदर्शनों में तमाम प्रदर्शन महिला संगठनों के द्वारा किये गये थे और तमाम प्रदर्शनों को तमाम राजनीतिक दलों ने भी आयोजित किया था।
मूलतः पूंजीवाद अपने जन्म काल से ही विचार और विचारधाराओं को नष्ट करने का प्रयास करता रहा है। पूंजीवाद इसके लिए विभिन्न रूप रख कर सामने आता है। 1957 में मिलान में समाजवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ”विचारधाराविहीन मनुष्य“ का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, आपातकाल के अंतिम दौर में स्वयंभू युवा हृदय सम्राट संजय गांधी द्वारा विचारधाराविहीनता का दिया गया नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, 1990 के करीब विचारधारा का अन्त का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था तो 2010 में अन्ना आन्दोलन के समय में मीडिया द्वारा विचारधाराविहीन आन्दोलन का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था। पूंजीवाद वर्तमान भारत में अपने विरोध को समाप्त करने के लिए राजनीतिक दलों और राजनीतिक विचारों के प्रति शहरी नव मध्यम वर्ग के मध्य एक विरोध पैदा करने की लगातार कोशिश कर रहा है। और इस बार भी मीडिया की यह टिप्पणी अपने आकाओं के इसी उद्देश्य की पूर्ति कर रही है।
मीडिया स्त्रियों की अस्मिता के प्रति कतई गम्भीर नहीं है। मीडिया ने सुषमा स्वराज के लोकसभा में दिये गये भाषण के आपत्तिजनक अंशों को बार-बार प्रसारित कर स्त्री अस्मिता को तार-तार किया। इस घटना के कवरेज के बीच-बीच ”लौंडिया पटाएंगे मिस्ड कॉल से’ के प्रसारण को अश्लील और दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। दबंग-2 के विज्ञापन के लिए चैनलों ने छांट-छांट कर जो संवाद और फुटेज दिखाए, वे मीडिया को कटघरे में खड़ा करते हैं। एक चैनल ने ‘रात में डराती है दिल्ली’ कार्यक्रम के बीच-बीच में स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापन दिखाए। स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापनों के अंतःपुर में बैठे मीडिया के लोग किस स्त्री हिंसा के खिलाफ माहौल बनाने में लगे हुए है, यह गौर करने लायक विषय है। सभ्य समाज को यह भी सोचना होगा कि वारदात, जुर्म, सनसनी और एसीपी अर्जुन जैसे कार्यक्रमों की अपनी क्या भूमिका है?
एक समाचार चैनल ने एक दिन अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लम्बे इंटरव्यू दिखाये। इंटरव्यू की विषयवस्तु मूलतः स्पांर्स्ड प्रोग्राम या विज्ञापन की तरह थी। शीला जी बड़ी गंभीरता से दिल्ली में घटने वाली वारदातों का ठीकरा पुलिस वालों और न्यायालयों पर थोप रहीं थीं। दिल्ली में लम्बे समय से राज्य सरकार उनकी है, केन्द्र में लम्बे समय से उनकी सरकार सत्ता में है। आखिरी पुलिस सुधारों को रोक किसने रखा है? आखिर न्यायिक सुधार क्यों नहीं हो रहे हैं? आखिर लोगों को न्याय क्यों नहीं मिलता? इसकी जवाबबदेही क्या सत्ता से दूर वामपंथियों की है?
मीडिया एक बार फिर जनता के मुद्दों को पृष्ठभूमि में ढकेलता नजर आया। मीडिया के इस पूरे खेल को हमें समझना होगा और इसका पर्दाफाश करना होगा।
- प्रदीप तिवारी