23 मई को जब संप्रग सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में साढ़े सात रूपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की घोषणा की, उस समय इतनी ज्यादा मूल्यवृद्धि का कोई आधार नहीं था। उसके बाद दो रूपये प्रति लीटर के करीब दामों में कमी की जा चुकी है और परसो 8 मई को वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने कलकत्ता में पेट्रोल की कीमतों में और कमी के संकेत दिये। कारण तो यही बताया गया है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतों के कम होने के कारण ऐसा होगा। बात दीगर है जब दाम बढ़ाये गये थे तब भी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में लगातार कमी हो रही थी और इन पन्द्रह दिनों के दौरान सिंगापुर क्रूड की कीमतें 107 से 109 डालर के बीच चल रही हैं।
अगर पेट्रोल की कीमतें और कम होती हैं तो जनता को राहत ही मिलेगी। लेकिन मनमोहन और प्रणव जनता पर बढ़ते बोझ के प्रमुख कारण अमरीका के इशारों पर ईरान से सस्ता कच्चा तेल खरीदना कम करते जाने और डॉलर के सापेक्ष रूपये की गिरती कीमतों के बारे में खामोश हैं। अगर डालर के सामने रूपया इसी तरह गिरता रहा जैसाकि वह पिछले 21 सालों में गिरता रहा है, तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की गिरती कीमतों का भी कोई असर नहीं हो पायेगा।
एक दूसरी बात, कल एक निजी टीवी चैनल को दिये गये साक्षात्मकार में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा कि ”अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के उतार-चढ़ाव से पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों को जोड़ने के राजग के फैसले को बदलकर संप्रग सरकार ने गलत किया है। सरकार को व्यापक राष्ट्रहित में कड़े फैसले लेने चाहिए भले ही वे जनता को न सुहाएं।“ जाने अनजाने शरद पवार कई बातें कह गये। एक तो यह कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों तथा अमरीकी डालर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को जोड़ने यानी कीमतों को डीरेगुलेट करने का फैसला भाजपा नीत राजग सरकार ने लिया था। इसके साथ उन्होंने जो नहीं कहा, उसे भी समझ ही लिया जाये कि राजग सरकार के इस फैसले को संप्रग-1 की सरकार ने वाम दलों के दवाब में बदला था और वाम दलों की संसद में ताकत घटते ही बनी संप्रग-2 की सरकार ने एक बार फिर पेट्रोल की कीमतों को डीरेगुलेट कर दिया और बार-बार डीजल की कीमतों को भी डीरेगुलेट करने की बात की जा रही है। दूसरा, पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सहित देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियों (जिसमें सपा और बसपा दोनों शामिल हैं) के लिए देश हित वही है जो अमरीकी साम्राज्यवाद को सुहाता हो और उन्हें इसकी कतई कोई चिन्ता नहीं है कि जनता को वह सुहाता है कि नहीं। पवार ने इस तरह एक बार फिर यह साफ करने की कोशिश की कि उन्हें न किसानों की चिन्ता है, न ही महाराष्ट्र की और न ही दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के लोक (जनता) की। इससे इन पार्टियों का वर्गीय चरित्र साफ हो जाता है।
वैसे अगर देखा जाये तो वास्तविक समस्या इस देश की जनता के साथ है। उसने ”जेहि विधि राखे राम, तेहि विधि रहिये“ की तर्ज पर अपने ऊपर होने वाले आक्रमणों को सहने की जबरदस्त शक्ति विकसित कर ली है। मंहगाई बढ़ रही है तो बढ़े, जनता सड़कों पर नहीं दिखाई देती। भ्रष्टाचार बढ़ रहा है तो बढ़े उसे कोई चिन्ता नहीं है, वह सड़क पर नहीं आ सकती। पेट्रोल की कीमतों में साढ़े सात रूपये लीटर की थर्रा देने वाली बढ़ोतरी कर दी गयी लेकिन वह सड़क पर नहीं आई। वामपंथी दलों ने विरोध जताया, उनके कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे तो देखादेखी दूसरे राजनीतिक दलों ने भी फर्ज अदायगी में अपने कार्यकर्ताओं को सड़क पर उतारा लेकिन जनता तो सड़कों पर नहीं आई।
संप्रग-2 सरकार ने एसिड टेस्ट कर लिया कि जनता साढ़े सात रूपये लीटर तक भी बर्दाश्त कर लेती है यानी पूंजीवादी रणनीतिकारों के शब्दों में बर्दाश्त कर सकती है। जब बर्दाश्त कर सकती है तो निश्चित रूप से उसे बर्दाश्त कराया जायेगा, बार-बार बर्दाश्त कराया जायेगा और तब तक बर्दाश्त कराया जायेगा जब तक वह बर्दाश्त करती रहेगी।
हमारे विरोध के तरीके शायद पुराने पड़ चुके हैं। कहीं न कहीं हमारी रणनीतियों में कोई कमी है कि हम इतना जबरदस्त प्रहार होने पर भी जनता को बर्दाश्त न करने के लिए उद्वेलित नहीं कर पा रहे हैं। हम सबको मिल कर इस पर सोचना चाहिए और आन्दोलन के वे तरीके विकसित करने चाहिए जिससे बर्दाश्त करने की जनता की ताकत कम हो सके और वह एक बार फिर से सड़को पर उतरना सीखे जैसा कि वह पिछली शताब्दी के पहले 8 दशकों तक उतरा करती थी।
- प्रदीप तिवारी
अगर पेट्रोल की कीमतें और कम होती हैं तो जनता को राहत ही मिलेगी। लेकिन मनमोहन और प्रणव जनता पर बढ़ते बोझ के प्रमुख कारण अमरीका के इशारों पर ईरान से सस्ता कच्चा तेल खरीदना कम करते जाने और डॉलर के सापेक्ष रूपये की गिरती कीमतों के बारे में खामोश हैं। अगर डालर के सामने रूपया इसी तरह गिरता रहा जैसाकि वह पिछले 21 सालों में गिरता रहा है, तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की गिरती कीमतों का भी कोई असर नहीं हो पायेगा।
एक दूसरी बात, कल एक निजी टीवी चैनल को दिये गये साक्षात्मकार में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा कि ”अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के उतार-चढ़ाव से पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों को जोड़ने के राजग के फैसले को बदलकर संप्रग सरकार ने गलत किया है। सरकार को व्यापक राष्ट्रहित में कड़े फैसले लेने चाहिए भले ही वे जनता को न सुहाएं।“ जाने अनजाने शरद पवार कई बातें कह गये। एक तो यह कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों तथा अमरीकी डालर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को जोड़ने यानी कीमतों को डीरेगुलेट करने का फैसला भाजपा नीत राजग सरकार ने लिया था। इसके साथ उन्होंने जो नहीं कहा, उसे भी समझ ही लिया जाये कि राजग सरकार के इस फैसले को संप्रग-1 की सरकार ने वाम दलों के दवाब में बदला था और वाम दलों की संसद में ताकत घटते ही बनी संप्रग-2 की सरकार ने एक बार फिर पेट्रोल की कीमतों को डीरेगुलेट कर दिया और बार-बार डीजल की कीमतों को भी डीरेगुलेट करने की बात की जा रही है। दूसरा, पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सहित देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियों (जिसमें सपा और बसपा दोनों शामिल हैं) के लिए देश हित वही है जो अमरीकी साम्राज्यवाद को सुहाता हो और उन्हें इसकी कतई कोई चिन्ता नहीं है कि जनता को वह सुहाता है कि नहीं। पवार ने इस तरह एक बार फिर यह साफ करने की कोशिश की कि उन्हें न किसानों की चिन्ता है, न ही महाराष्ट्र की और न ही दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के लोक (जनता) की। इससे इन पार्टियों का वर्गीय चरित्र साफ हो जाता है।
वैसे अगर देखा जाये तो वास्तविक समस्या इस देश की जनता के साथ है। उसने ”जेहि विधि राखे राम, तेहि विधि रहिये“ की तर्ज पर अपने ऊपर होने वाले आक्रमणों को सहने की जबरदस्त शक्ति विकसित कर ली है। मंहगाई बढ़ रही है तो बढ़े, जनता सड़कों पर नहीं दिखाई देती। भ्रष्टाचार बढ़ रहा है तो बढ़े उसे कोई चिन्ता नहीं है, वह सड़क पर नहीं आ सकती। पेट्रोल की कीमतों में साढ़े सात रूपये लीटर की थर्रा देने वाली बढ़ोतरी कर दी गयी लेकिन वह सड़क पर नहीं आई। वामपंथी दलों ने विरोध जताया, उनके कार्यकर्ता सड़कों पर उतरे तो देखादेखी दूसरे राजनीतिक दलों ने भी फर्ज अदायगी में अपने कार्यकर्ताओं को सड़क पर उतारा लेकिन जनता तो सड़कों पर नहीं आई।
संप्रग-2 सरकार ने एसिड टेस्ट कर लिया कि जनता साढ़े सात रूपये लीटर तक भी बर्दाश्त कर लेती है यानी पूंजीवादी रणनीतिकारों के शब्दों में बर्दाश्त कर सकती है। जब बर्दाश्त कर सकती है तो निश्चित रूप से उसे बर्दाश्त कराया जायेगा, बार-बार बर्दाश्त कराया जायेगा और तब तक बर्दाश्त कराया जायेगा जब तक वह बर्दाश्त करती रहेगी।
हमारे विरोध के तरीके शायद पुराने पड़ चुके हैं। कहीं न कहीं हमारी रणनीतियों में कोई कमी है कि हम इतना जबरदस्त प्रहार होने पर भी जनता को बर्दाश्त न करने के लिए उद्वेलित नहीं कर पा रहे हैं। हम सबको मिल कर इस पर सोचना चाहिए और आन्दोलन के वे तरीके विकसित करने चाहिए जिससे बर्दाश्त करने की जनता की ताकत कम हो सके और वह एक बार फिर से सड़को पर उतरना सीखे जैसा कि वह पिछली शताब्दी के पहले 8 दशकों तक उतरा करती थी।
- प्रदीप तिवारी
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