Sunday, November 8, 2015

असहिष्णुता, घृणा और हिंसा की राजनीति के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का समय

हिटलर के समकालीन प्रसिद्ध जर्मन कवि मार्टिन नीमोलर की यह पंक्तियां आज की भारतीय राजनीति में बहुत साम्यिक हो गई हैं:
पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आये
मैं चुप था, क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था
फिर वे ट्रेड यूनियनिस्टों के लिए आये
मैं चुप था, क्योंकि मैं ट्रेड यूनियनिस्ट नहीं था
फिर वे यहूदियों के लिए आये
मैं चुप था, क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
अंत में वे मेरे लिए आये
और मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था
मोदी के सत्ता में आने के बाद संघ और उसके तमाम पुराने और नए पैदा हो गये सहयोगी संगठन जिस तरह से देश में असहिष्णुता, घृणा और हिंसा की राजनीति को फैला रहे हैं, वह भारत जैसे प्राचीन समय से बहुलवादी रहे देश, उसकी साझा संस्कृति, उसकी सम्प्रभुता, उसके संविधान सबके लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। इन ताकतों द्वारा सबसे पहले दाभोलकर की हत्या, फिर का. गोविन्द पानसरे की हत्या, फिर कलबुर्गी की हत्या कर दी गईं और सत्ता शिखरों से इनके हत्यारों को शह प्राप्त थी। उसके बाद जिस तरह बकरीद के ठीक बाद गौमांस घर पर रखने का आरोप एक मंदिर के लाउडस्पीकर से लगाकर साजिशन एक निरीह मुस्लिम अखलाक की हत्या दादरी के पास कर दी गई, तो शांतिप्रमियों के लिए एक जबरदस्त झटका रही। ऐसे तत्वों की दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि इन लोगों ने संघ के ही एक पुराने कार्यकर्ता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के सहयोगी रहे कुलकर्णी के भी चेहरे पर कालिख पोत दी।
इस असहिष्णुता, घृणा और हिंसा की संघी राजनीति के प्रतिरोध की शुरूआत देश में लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस कर एक आवाज उठाई। उस आवाज के समर्थन में वैज्ञानिक, फिल्मकारों, इतिहासकार, डाक्टर, पर्यावरणविद्, पत्रकारों, पूर्व सैनिक आदि जनता के तमाम और तबके भी उठ खड़े होने लगे और पुरस्कार वापसी में पद्म पुरस्कार भी वापस किये जाने लगे। यह सिलसिला चल ही रहा था कि कल बिहार की जनता भी उठ खड़ी हुई और उसने मोदी-शाह की जोड़ी को जिस प्रकार जवाब दिया, वह भारतीय राजनीति में जन-मानस की बहुलतावादी प्रवृत्ति का द्योतक है।
बिहार चुनावों से पृथकतावादी यह तत्व कोई सबक लेने के बजाय आने वाले वक्त में और आक्रामक होंगे। लेखकों, कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, डाक्टरों, पर्यावरणविदों, पत्रकारों तथा पूर्व सैनिकों आदि तमाम तबकों ने अपनी आवाज को उठाकर अपना दायित्व पूरा कर दिया है, इन आवाजों को बुलन्दियों तक ले जाने का काम कौन करें, यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने है।
जिस प्रकार सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दल संघ से गलबहियां करते रहे हैं, यह साफ हो चुका है कि वे तो संघ और उसके सहयोगी संगठनों की आवाजों को ही बुलन्द करने में विश्वास करते हैं। दादरी प्रकरण में जिस तरह सपा सरकार ने भाजपा विधायक संगीत सोम को हिंसा के बाद उसी मंदिर पर जाकर हिंसा को और भड़काने की अनुमति दी और शान्तिकामी ताकतों को वहां जाने से रोका, उससे यह बात साफ हो चुकी है।
अस्तु, अंततः वे वामपंथी ही हैं जिन पर लेखकों, कवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, डाक्टरों, पर्यावरणविदों, पत्रकारों तथा पूर्व सैनिकों आदि तमाम तबकों द्वारा असहिष्णुता, घृणा और हिंसा की राजनीति के खिलाफ उठाई गई आवाज को बुलन्द करने का दायित्व आता है। आओ साथियों आगे बढ़े और इस गुरूतर दायित्व को पूरा करने के लिए जनता के वृहत तबकों को लामबंद करने का काम शुरू करें।

Saturday, November 7, 2015

सांप्रदायिकता, असहिष्णुता और हिंसा की राजनीति के खिलाफ अभियान चलायेगी भाकपा

लखनऊ- 7 नवंबर - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य काउंसिल की दो दिवसीय बैठक आज यहाँ संपन्न होगयी. बैठक में आन्दोलन/ अभियान संबंधी कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये गए हैं. बैठक के निष्कर्षों की जानकारी देते हुये राज्य सचिव डा.गिरीश ने बताया कि राज्य काउंसिल ने केन्द्र सरकार द्वारा आज ही पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद कर में फिर से वृध्दि करने एवं सभी सेवाओं पर सेस लगाने के फैसलों को जनविरोधी बताते हुए इसकी कड़े शब्दों में निंदा की है. भाकपा ने इस संबंध में पारित प्रस्ताव में कहा कि मोदी सरकार को आम जनता की कोई फ़िक्र नहीं है. बिहार के चुनाव समाप्त होते ही उसने जनता के ऊपर नए करों का बोझ लाद दिया. इससे महंगाई की मार से पहले से ही हाल- बेहाल जनता और भी बेहाल हो जायेगी. भाकपा ने जनहित में इन वृध्दियों को तत्काल रद्द करने की मांग की है और इस सवाल को जनता के बीच लेजाने का निश्चय किया है. भाकपा ने रूढ़वादिता, असहिष्णुता, सांप्रदायिकता एवं हिंसा की राजनीति के खिलाफ चरणबध्द अभियान छेड़ने का निश्चय किया है. अभियान के पहले चरण के रूप में 24 नवंबर को- "रूढ़वादिता, असहिष्णुता और हिंसा की राजनीति" विषय पर प्रत्येक जनपद में विचार गोष्ठियां आयोजित करने का निर्णय लिया है. दूसरे चरण में डा. भीमराव अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस (6 दिसंबर ) को अथवा उसकी पूर्व संध्या पर "सदभाव एवं संविधान की रक्षा" के उद्देश्य से गोष्ठियां, सभाएं अथवा अन्य आयोजन किये जायेंगे. तीसरे चरण में इन मुद्दों पर क्षेत्रीय रैलियाँ आयोजित की जायेंगी. हर कार्यक्रम में समाज के प्रबुध्द और सहिष्णु तबकों एवं शख्सियतों को शामिल किया जायेगा. इन अभियानों की प्रासंगिकता को जतलाते हुये राज्य काउंसिल द्वारा पारित रिपोर्ट में कहा गया है कि केन्द्र में मोदी सरकार के पदारूढ़ होने के बाद से आर.एस.एस. और दूसरी हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिक शक्तियां और अधिक हमलावर होगयीं हैं. वे पूरी तरह निरंकुश होकर सेक्युलर, सहिष्णु एवं उदार शक्तियों के खिलाफ जहर उगल रही हैं और रूढ़वादिता के खिलाफ संघर्ष करने वाले व्यक्तियों की हत्यायें कर रही हैं. दादरी में अखलाक, कन्नड़ लेखक कलबुर्गी, कम्युनिस्ट नेता का.गोविन्द पानसरे तथा नरेन्द्र दाभोलकर की हत्यायें संघ द्वारा पोषित और केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित घ्रणित विचारों की देन हैं. मुस्लिम अल्पसंख्यक इनके खास निशाने पर है. अपनी इन निर्लज्ज करतूतों को वे राष्ट्रवाद का चोला पहना रही हैं. प्रधानमन्त्री ने इन हरकतों पर चुप्पी साध रखी है और उनके मंत्रिमंडल सहयोगी व प्रमुख भाजपाई निरंतर विषवमन कर समाज को बाँट रहे हैं और हिंसा की जघन्य वारदातों को वे स्वाभाविक आक्रोश की देन बता कर अपने पापों पर पर्दा डाल रहे हैं. देश में बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा और असहिष्णुता के खिलाफ साहित्यकारों, कलाकारों, फिल्मी हस्तियों, वैज्ञानिकों, इतिहासकारों और अन्य प्रबुध्द जनों ने अपनी आवाज उठायी है और उन्हें मिले शानदार पुरुस्कारों को वापस किया है. यह क्रम लगातार जारी है. भाकपा उनके इस संघर्ष में पूरी शिद्दत से उनके साथ है. अब संघ गिरोह ने कम्युनिस्टों और वामपंथियों के खिलाफ अनर्गल प्रलाप शुरू कर दिया है जो उनकी खीझ और बौखलाहट का परिचायक है. हम इन फासिस्ट कारगुजारियों के खिलाफ सदैव संघर्षरत रहे हैं और आगे भी रहेंगे, भाकपा ने संकल्प व्यक्त किया है. भाकपा ने इस बैठक में जिला एवं क्षेत्र पंचायत चुनावों कि समीक्षा की . भाकपा के पांच सदस्य और सात समर्थित प्रत्याशी जिला पंचायत में विजयी हुए हैं जबकि पिछली बार केवल एक प्रत्याशी ही जीता था. लगभग पचास बी. डी. सी. सदस्य भी विजयी हुये हैं. जाती, धन और बाहुबल के इस दौर में भाकपा प्रत्याशी बेहद कम संसाधनों और शुचिता के साथ चुनाव लड़े थे. निष्कर्ष है कि भाकपा अपनी चुनावी राजनीति को पुनः संगठित कर रही है. अब ग्राम प्रधान के चुनाव भी अधिकाधिक संख्या में लड़ने का निर्णय लिया गया है. डा. गिरीश, राज्य सचिव